शशिकला राय का आलेख - कथाकोलाज़ : समय कई रंगों में

SHARE:

शशिकला राय कथाकोलाज़ : समय कई रंगों में कीचड़ से हो रही है जिस जा ज़मी फिसलनी मुश्‍किल हुई है वां से हर एक को राज चलनी -नज़ीर अकबराबादी ...

शशिकला राय

कथाकोलाज़ : समय कई रंगों में

कीचड़ से हो रही है जिस जा ज़मी फिसलनी

मुश्‍किल हुई है वां से हर एक को राज चलनी

-नज़ीर अकबराबादी

समय स्‍वयं एक कथा है, जिसका पाठ हर भोक्‍ता के साथ बदल जाता है  समय अपने काल, कैलेन्‍डर के साथ, समय घड़ी के भीतर टिक-टिक की ध्‍वनि के साथ लगातार बीतते जाने का बोध देता है। महीने, वर्ष ज्‍योतिष आचार विचार, त्‍यौहार, देश स्‍थान, जन्‍म, मृत्‍यु, यश अपमान, लांक्षन, बाढ़, तूफान और दूसरी तरफ बढ़ता तकनीकी ग्राफ, दंगा-हत्‍याएँ, नंदीग्राम, सेज, बलात्‍कार साजिशें समय के बीच उठती गिरती धारे हैं। इसी समय के भीतर समय के साथ व्‍यक्‍ति का एक निजी रिश्‍ता होता है, मनुष्‍य के साथ उसके खास ‘समय' को एक कॉमन मैन का चेहरा कैसे दिया जा सकता है? किसी भी व्‍यक्‍ति के निजी समय की कथा कैसे रची जा सकती है? परंतु एक समय देश का भी होता है और इस समय में साझेदारी होती है, देशवासियों की। इस समय में घटनेवाली घटनाएँ व्‍यक्‍ति के भीतरी समय को बदल देती है। यह समय ही देश की उन्‍नति और अवनति का निर्णायक बनता है। साझे समय पर गहराता संकट साझी चिंता को जन्‍म देता है और यह चिंता ही अनेक शक्‍लें अख्‍तियार कर लेती है। जिसमें एक कथा साहित्‍य (कहानी) भी है। समय की गति पहचानने वाले लेखक के भीतर ही संवेदनतंत्रियाँ निश्‍चित ही औरों से अलग होती होंगी। इस विशिष्‍टता का बोध अखिलेश ‘वह जो यथार्थ था' में कराते हैं�‘‘लेखक होने की वजह से मेरी त्‍वचा स्‍पर्श के साथ एक और स्‍पर्श अनुभव करती है। मैं कोई रंग देखता हूँ तो तो उसका एक और रंग देख लेता हूँ। तमाम ध्‍वनियों के कोलाहल से मैं एक खोई हुई ध्‍वनि भी सुनता है हूँ। सत्‍य के साथ एक और सत्‍य, यथार्थ के साथ एक और यथार्थ देख सकता हूँ, ऐसा केवल आज ही के लेखक के साथ नहीं है। हर समय हर युग में और धरती के हर किसी भू भाग के लेखक को उक्‍त नियामत हासिल हुई।'' दरअसल सारी जद्‌दोजहद अपने साझे समय को बचाने को ही लेकर है। (इस समय के भूत, भविष्‍य, वर्तमान में नहीं बाँटा जा सकता) तब समय विहीन रचना की कल्‍पना भी नहीं की जा सकती। (हर रचना की घटना किसी न किसी काल किसी न किसी स्‍थान में घटती जरूर है) जादुई यथार्थ, फंतासी, मिथ, मेटाफर के माध्‍यम से समय के भीतर एक पारदर्शी समय ही रचा जाता है। क्रिकेट की भाषा में कहूँ तो यह (कथासाहित्‍य) समय का एक्‍शन रिप्‍ले है। इंसानी चूक को समझाता और दिखाता हुआ। चिंता यह नहीं है कि समय के सीने में सुराख कराने वाली ताकतें कितनी कद्‌दावर हैं बल्‍कि चिंता इस बात की है कि प्रतिरोध इतना भोथरा क्‍यों है?

आकाश यहाँ एक सुअर की ऊँचाई भर है

यहाँ जीभ का इस्‍तेमाल सबसे कम हो रहा है

यहाँ आँख का इस्‍तेमाल सबसे कम

हो रहा है।

-आलोक धन्‍वा

समय के सबसे बड़े रोबीले प्रत्‍यय का नाम है वैश्‍वीकरण। इसी रोबीले प्रत्‍यय को मूर्त करती हुई अरूंधती राय लिखती हैं�‘‘इस समय सबकुछ हमारे घर, हमारी जमीन, हमारी नौकरियाँ, बिजली पानी यहाँ तक कि संघर्ष करने के हमारे बुनियादी अधिकार और हमारे स्‍वाभिमान पर हमला हो रहा है। मानवता का यही तीखा और जबरदस्‍त एहसास आने वाले दिनों में हमारा हथियार होगा। हमारी लड़ाई का आधार बनेगा।'' यही तीखा एहसास कथा में ढलता है तो बकौल इवानक्‍लीमा सर्जक के गले की ‘पुरअसरार चीख' बन जाता है। मृत्‍यु का प्रतिरोध करती अंधेरे समय की चीख। समकालीन कहारी (आज की कहानी) को सर्जक के गले की परअसरार चीख कहा जा सकता है। आज की कहानी में समय में कई रंगों में मौजूद है। कई जगहों पर रंग छूटकर एक दूसरे में गड्‌मड्‌ होकर समय के अद्‌भुत लेकिन भयावह कोलाज़ का निर्माण करते हैं। अॅपमॉर्केट में बदलते हिंदुस्‍तान का समाज। इस समय कथाकारों की कई पीढ़ियाँ सक्रिय हैं, कहानियाँ लिख रही हैं। ये तीनों पीढ़ियाँ कथा-परिदृश्‍य में मौजूद समय को देखने की सार्थक कोशिश कर रही हैं। कई महत्‍वपूर्ण कथाकारों की कहानियाँ मुझे उपलब्‍ध नहीं हो पाईं। दलित और स्‍त्री का मुद्‌दा इसमें शामिल नहीं हो पाया। (क्षमायाचना सहित)

बेलें फिर हरी रही हैं-

बेलें पेड़ पर पके-पके पुनः हरी होने लगती हैं। समय के साथ ताल मिलाने का अद्‌भुत करिश्‍मा साठोत्तरी के कहानीकारों की सक्रियता बेल के इसी धर्म की याद दिलाता है। ये काल से होड़ लेने वाले कथाकार हैं। समय की सारी बारीकियाँ इनके कथा रूपबंधों में समाती गई। काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, गोविन्‍द मिश्र, विजयदान देधा, ममता कालिया, चित्रा मुद्‌गल, मृदुला गर्ग। विजयदान देधा की लोककथा के रस से भीगी कहानियाँ समय के अनेक बड़े सवालों से टकराती हैं। ‘वैतरणी' कहानी का सीधा संबंध किसा और उसके जीवन से है। भारत का कोई विकास किसानों की तकदीर क्‍यों नहीं बदलता? एक तरफ महाजन तो दूसरी ओर कर्मकांड (कभी ब्‍याह कभी मृत्‍यु पर पानी की तरह पैसा बहाने के लिए) वैतरणी कहानी की नायिका है ‘बगुली' गाय जिसे दान कर देने के बाद भी (पिता की मृत्‍यु पर गोदान) कथा दंपत्ति वापिस लाता है कर्मकांडों का निषेध करता हुआ। ब्राह्मण पोथियों का प्रतिरोध करता हुआ! भारतीय किसान भारतीय कथा साहित्‍य के परिदृश्‍य से ग़ायब नहीं हो सकते। गोविंद मिश्र क कहानियों में परिवार मौजूद है समय के ताप में तपते संबंधों के चढ़ते-गिरते ग्रॉफों को लगातार रेखांकित करती है उनकी कहानियाँ। लेकिन कई बार लगता है संबंधों को लेकर उनकी दृष्‍टि पीड़ा की गहराई तक नहीं जा पाती इसीलिए उनका कथा वर्णन कई बार सतही चीज़ बनकर रह जाता है। गोविंद मिश्र उपन्‍यासों में समय को जिस शिद्‌दत से रेखांकित कर पाते हैं, कहानियों में नहीं! दूधनाथ सिंह और काशीनाथ सिंह के पास अद्‌भुत कथा भाषा है जिसके ज़रिए भ्रष्‍ट राजनीति, बाजार के दबाव, सांप्रदायिकता, उपभोग का नशा, दलित व्‍यथा, लोकतंत्र का बधियाकरण और इन सारी चीजों के बीच से गुहरते व्‍यक्‍ति का बदलता अंतर इन सभी को वे अपनी कथा का हिस्‍सा बनाते हैं। काशीनाथ को अपनी बात की सच्‍चाई पर इतना विश्‍वास है कि वे भारत के छोटे से हिस्‍से को लेकर कथा रचते हैं (कौन ठनवा नगरिया लूटत हो) बनारस उसमें भी ‘अस्‍सी' क्‍योंकि वहीं से उनको मिलती है, एक विद्युत तरंग। कहानी में समय के भीतर और बाहर यह तरंग प्रवाहित होती हुई मनुष्‍य की भोथरी होती जा रही संवेदनतंत्री को शॉक देती है। टोटल टेरर समय को लॉफ्‍टर चैनलों के बढ़ते जा रहे भरमारों के बीच भी संपूर्ण सामर्थ्‍य से उजागर कर पाती हैं इन कहानियों में जीवितों के बात कहने के लिए जीवित भाषा भी है। काशीनाथ सिंह के पास आज का समय जहाँ हर तरह की चालबाज़ी और आतंक द्वारा मनुष्‍य की नैतिक चेतना का अनुकूलन किया जा रहा है। (वह स्‍वयं भी कर रहा है) वहाँ कला ही बची है जो सत्‍य की भाषा के प्रति पूर्ण प्रतिबद्ध है। भूमंडलीकरण ने मानवीय रिश्‍तों की जो गत बनाई है-‘‘यह प्‍यार किसी सड़क छाप टुच्‍चे युवक का नहीं है इसमें गुणा-भाग भी और जोड़ घटना भी जितना गहरा था उतना व्‍यापक भी (रेहन पर रग्‍घू) इसी समय में ‘दूसरा घर' (ममता कालिया) की ‘तमन्‍ना' भी है जो अपने शौहर और परिवार के भीतर बिना शोर, बिना किसी दुहाई दिए अपने लिए मुकम्‍मल जमीन बनाने के लिए न केवल प्रयासरत है, बल्‍कि आश्‍वस्‍त भी है। अपने भीतर की कसमसाती हुई शक्‍ति के स्‍वतंत्र अस्‍तित्‍व की पहचान नकारात्‍मक समय में भी समय की सकारात्‍मक उपलब्‍धि ही कही जायेगी। क्‍योंकि दलित और स्‍त्रियाँ पुराने समय में लौटना नहीं चाहेंगे। यह पीढ़ी उस समय की भोक्‍ता है, जिसे हमने इतिहास (अर्धसत्‍य) के माध्‍यम से जाना। इनकी कथाएं हिन्‍दी साहित्‍य की थाती हैं। बाजार और सिद्धांत की लड़ाई में जिन बातों को प्रायः भुला दिया जाता है उन्‍हीं ना मालूम सी बातों की वाजिब चिंता करती हुई।

क्‍योंकि यह समय बहुत डरावना है।

‘‘कहानी में ऐसा पुरातन तत्‍व कायम रहता है, जिसमें चीजें समय के खिलाफ नहीं बल्‍कि समय के संदर्भ में याद की जाती है।'' - निर्मला वर्मा

‘‘यह उस समय की बात है जब मैं यह कहानी आपके लिए जिस भाषा में लिख रहा हूँ उस भाषा के भीतर मैं बगदाद के अबू गरीब जेल में इराकियों की तरह हूँ। या 1943 की जर्मनी के किसी चेंबर में यहूदियों की तरह... या किसी बीमार प्रदूषित ठहरे हुए पानी में डूबी हिलसा मछली की तरह... या अभी भी संग्रामरत राघव धनुहार'' (उदयप्रदाश/मोहनदास)

उदयप्रकाश, अखिलेश, संजीव, स्‍वयंप्रकाश, शिवमूर्ति, अलका सरावगी, गीतांजलि, श्री, जयनंदन, संजय खाती कहानीकारों की सशक्‍त पीढ़ी है। स्‍टारडम के चैनलों से दूर (बावजूद इसके स्‍टार हैं) एक दो कहानियों के बूते रातों रात लाइमलाईट में नहीं आए बल्‍कि आज की कहानी का परिदृश्‍य बनने में इनकी ठोस एवं सार्थक भूमिका है।

कहानियों का फ्रेम बदल दिया इस पीढ़ी ने और कहानी इस परिवर्तन पर खुश भी हुई। इनकी कहानियाँ घर से सफर शूरू करके देश दुनिया की यात्रा तय करती हैं, कोई वाद या धारा इनकी सीमा नहीं बना। मानवीय संवेदना (संवेदना मानवीय ही होती है) जीवित मर्म है। उसे बतौर विज्ञापन इन कहानीकारों ने इस्‍तेमाल नहीं किया ;क्‍या आप को नहीं लगता बाजार में ‘जिस देखूँ तित लाल' वाली स्‍थिति में इस प्रलोभन से बचना बड़ा काम है? खुदा की कसम में मंटो ने लिखा है-‘‘पत्रकार कहानी लेखक कलम उठाए अपने शिकार में व्‍यस्‍त थे लेकिन कहानियों और कविताओं का सैलाब था जो उमड़ चला आ रहा था कलमों के कदम उखड़-उखड़ जाते थे। सब बौखला गए थे। कमोवेश ऐसे ही समय के दबावों को झेलते हुए इन कथाकारों की मानसिक भूति ने हायपर टेंशन वाली कथाओं को जन्‍म दिया। ; क्‍या यह मिथक ध्‍वस्‍त नहीं होता कि साहित्‍य मनोरंजन करता है?द्ध साहित्‍य पीड़ा देता है बेचैनी देता है। क्रूर यथार्थ को भूलने नहीं देता मरम्‍मत की जाती सड़क पर लगे उस नोटिस बोर्ड की तरह जहाँ लिखा रहता है ‘कल की बेहतरी के लिए आज कष्‍ट सहें इलिया एहरनबुर्ग का मानना है कि ‘‘महान कला जीवन का दर्पण नहीं होती। वह ज़िन्‍दगी में हिस्‍सा लेकर उसे बदल रही होती है''। भारतीय मध्‍यवर्ग निम्‍न मध्‍यवर्ग की जिन्‍दगी में इन हिंदी कहानियों ने ही उनका हाथ थामे रखा (मीडिया सिनेमा उन्‍हें कब का अकेला छोड़ चुका है।)

समय के खाली कैनवस में किसी भी देश का समाज रंग भरता है। भारत देश के समाज का यदि मोटे तौर पर क्‍लॉसीफिकेशन किया जाय तो तीन तरह की बिरादरी (समाज) बनती है राजनीतिक समाज, धार्मिक समाज और अमीर समाज गरीब समाज तो ‘इत्‍यादि' है। समय के आधे हिस्‍से में राजनीति रंग (स्‍याह स्‍यापे का) एक तिहाई में धर्म रंग (मटमैला) और एक तिहाई में अमीरी रंग (पथरीला) और ग़रीबी का रंग पानी की तरह होता है जो केवल अपने समय के रंगों को घोलने के काम में आता है। रंगों की आपसी गड्‌गड्‌ से समय का रंग धूसर हो गया। ऐसे रंग में नहीं दिखाई देता आप कहाँ और किनके साथ खड़े हैं? प्रतिबद्धताओं की चूलें हिल गई। जिसके साथ खड़े होने में आप का हित सधता है। वही न्‍याय है। (शुद्धता की गारंटी पॅराशुट नारियल तेल में और सच्‍चाई ‘हमाम' साबुन में समा गई) स्‍वार्थ सत्ता की लोलुपता से समय का मकड़जाल बुना जा रहा है। ईमानदारी फैशन हो गई जो समाज के अधिकांश दा साहब (स्‍त्रियाँ भी सवाल पॉवर का है) के बगल में दबी रौब-दाब बनाए रखने के काम आती है। शक्‍ति और न्‍याय दो विपरीत ध्रुव हो गए। क्‍योंकि शक्‍ति और शोषण पर्यायवाची हो चले थे। सामाजिक न्‍याय की दुहाई देने वाले, सामाजिक न्‍याय की हत्‍या का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते। ऐसे समय के बारीक तंतुओं और जीवन के छोटे-छोटे बिंदुओं को भीतर और बाहर समय की लय पकड़ने की कूवत ही कहानी की कसौटी हो जाती है। इन कथाकारों की कहानियाँ भीतर और बाहर के समय की नालबद्धता को उजागर करती हैं।

इसके लिए कहानियों में नए मिथ गढ़ने पड़ते हैं। रोलॉबार्थ का कहना है-‘‘कहानीकार दरअसल हर रोज एक नए मिथ को तैयार करता है और वे मिथ-रोजमर्रा के जीवन के मिथ होते हैं।'' कहानीकार इतिहासकार नहीं होता इसीलिए अपने समय के सत्ता के दामन में लगे दाग धब्‍बों को नहीं छिपाता। उदय प्रकाश की कहानी ‘मोहनदास' समय की सच्‍ची दास्‍तान है। खबरों की कथा और मोहनदास की कथा एक दूसरे से गुंथे हुए हैं। कहानी जीवन के दर्द का अनहद नाद बन जाती है-‘‘क्‍या व्‍यवस्‍था जस्‍टिस डिलीवर कर सकती है हमें? क्‍या वह योग्‍य व्‍यक्‍ति को उसकी जगह दिला सकती है? (उदयप्रकाश) सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में योग्‍य व्‍यक्‍ति के सार्थक स्‍पेस की तलाश में उदयप्रकाश कहानी का समूचा परंपरागत पैटर्न ध्‍वस्‍त कर देते हैं योग्‍य प्राध्‍यापकों की नजर में अनुशासनहीन उद्दण्‍ड छात्र की तरह। लेकिन जिन सामयिक घटनाओं की खातिर वे ऐसा कर गुजरते हैं, वहीं अवांतर कथा बन जाती है मोहनदन में। समय का विश्‍वसनीय इतिहास जहाँ लगभग एक ही समय में पाठक, पाठक और पात्र की भूमिका में कहानी में आवा-जाही करता है। इसी समय के भीतर खबरों से परे भी एक समय होता है। यहाँ जीवन की विभिन्‍न संवेदनाएँ अनुभव विश्‍वास और शंकाएँ मूर्तिमान होते हैं। ‘‘न वह पूरा प्रेम कर पाता है, न पूरी घृणा, क्‍या हो गया है? उसे। वह उदास हो गया। एक लाचारगी की लहर उसकी धमनियों में दौड़कर अंधेरे में पसर गई। उन लाखों होनहार युवाओं की (मुक्‍ति/अखिलेश) दास्‍तां है जिनकी शक्‍ति को इस देश की व्‍यवस्‍था ने क्षीण कर दिया। बेरोजगारी है। भ्रष्‍ट व्‍यवस्‍था है आर्थिक संरचना में इसलिए आर्थिक सत्ता के बढ़ते ग्रॉफों के बावजूद युवाओं की निश्‍चल मुस्‍कान गायब हो गई।

इस छिनी हुई मुस्‍कान के दर्द का विस्‍तार ‘मुक्‍ति' (अखिलेश) से लेकर ‘भूलना' (चंदन पांडेय) तक में पाया जा सकता है। इसने प्रेम छीना, परिवार छीना, सम्‍मान छीना और व्‍यक्‍ति को लाचार असहाय पंगु बना दिया। स्‍वयंप्रकाश की कहानी ‘पिता जी का समय' समय के परिवर्तन और समय के फ्रीज हो जाने की स्‍थिति है। सृंजय (कामरेड का कोट) संजय खाती (पिंटी का साबुन) मनोज रूपड़ा (दफन) जैसे कथाकारों का धीरे-धीरे परिदृश्‍य से ग़ायब होना एक तरह का आघात है। (इस समय इनकी कहानियाँ मिल नहीं पा रही हैं, पढ़ने को) भारत की तिल-तिल मारने वाली गरीबी किसी भी हालत में कंसन्‍ट्रेशन कैंप या नीग्रोसेग्रीशन की यातना से कम नहीं है। ‘दफन' कहानी में मनोज रूपड़ा इस निर्मम समय को नंगी नुकीली इमेज से भेद देते हैं। उपभोक्‍ता से रिश्‍तों की भयावहता को चित्रित करने के लिए नहाने का साबुन एक बहुत बड़ा अस्‍त्र बन जाता है। (पिंटी का साबुन) इन कहानियों में वैश्‍विक पटल पर उथल-पुथल मचा देने, समूचे विश्‍व को बदल देने वाली घटनाओं का जिक्र नहीं है, परन्‍तु धीरे-धीरे इनके प्रभाव से परिवर्तित होने वाल समय है। प्रियंवद की ‘बहुरूपिया' कहानी को देखे ना तो सोमालिया की गरीबी, ना आतंकवाद, ना लश्‍करे तोयबा, ना लिट्‌टे, ना अमेरिका नंगा क्रूर वीभत्‍स चेहरा की (देखें कमल भासीन की मात्र पाँच मिनट की फिल्‍म ‘अमेरिका') ना ही सूचना क्रांति। पर इन सारी स्‍थितियों ने समूचे मानव संबंधों को बदल दिया।

प्रकृति और पुस्‍तकों से मनुष्‍य का संबंध टूटने लगा किताबें हो गई दीमकों के हवाले बूढ़ा व्‍यक्‍ति कितने दिन सुरक्षित रख पायेगा इन्‍हें? संवेदनात्‍मक ज्ञान का संबंध मनुष्‍य से टूटने के कगार पर है। सूचनात्‍मक ज्ञान ने बुद्धि के नये प्रत्‍ययों की रचना की है। ‘नागरिक मताधिकार' शीर्षक से लिखी गई जयनंदन की कहानी अपने शीर्षक से लेख का बोध कराती है। ‘जागो इण्‍डिया जागो' जैसे आज के नारे को बहुत पहले जयनंदन की इस कहानी में देखा जा सकता है। लोकतंत्र के लिए भारत का पौसिव समाज ही सबसे बड़ा खतरा है। यह कहानी इस ध्रुव सत्‍य को बिना किस लाग लपेट के उजागर कर जाती है। गीतांजलि श्री की ‘रिश्‍ते' कहानी पड़ोस के रिश्‍ते में आए डॉट डॉट डॉट अर्थात उस खाली जगह का चित्रण किया गया है जिसे हमने कृत्रिम व्‍यस्‍तता के हवाले कर दिया है। अलका सरावगी मिसेज डिसूजा के नाम पत्र एक स्‍त्री नहीं बल्‍कि एक से दूसरी, दूसरी से तीसरी जुड़ती-जुड़ती आधी आबादी का प्रश्‍न बन जाती है। एक स्‍त्री अपने कैरियर व परिवार दोनों के साथ अपना जीवन सहजगति से क्‍यों नहीं जी सकती? अलका सरावगी की यह कहानी जीवन के चरम लक्ष्‍य के तलाश की कहानी है।

हम भौतिक संसाधनों के दर्प में डूबे जिस जीवन को सही जीवन कहते हैं। उन्‍हीं पर कहानी सवालिया निशान लगाती है। सभ्‍यता, शिक्षा, धर्म, रंग ने आदमी और आदमी के बीच कितनी दूरी कायम कर दी है? यह समय है आत्‍मविश्‍लेषण का। संजीव की ‘मानपत्र' अपने समय में महानता के शिखर पर खड़े विभूतियों की महानता में सेंध लगाती कहानी है। वह इस मिथ का पुर्नव्‍याख्‍या करती है कि सफल पुरुष के पीछे स्‍त्री का हाथ होता है। कहानी कहती है सफल पुरुष के पीछे अनिवार्यतः स्‍त्री की बलि होती है। ‘मानपत्र' समय के मौन में छिपी अन्‍तर्वेदना का क्‍लोजअप है। समय के भीतरी तहों में बनने वाली भीतरी सलवटों को देखने की अंतर्दृष्‍टि संजीव और स्‍वयंप्रकाश में है। ये समय को बाहरी व्‍यक्‍ति की तरह नहीं बल्‍कि समय के भीतर रह कर अपने पूरे समय को और उसकी जटिलताओं को देखते हैं फिर अपने आख्‍यान में रचते हैं। ‘तिरिया चरित्तर' कहानी स्‍त्री जीवन का सबसे बर्बर अमानवीय सत्‍य है। स्‍त्री चरित्र के लिए समय एक खास फ्रेम में फिक्‍स है और समाज के साथ उसकी फिक्‍सिंग भी। बड़ा अजीब लगता है कहने सुनने में पर शिवमूर्ति जी उत्तर आधुनिकता के दौर के रचनाकार हैं। उत्तर आधुनिकता रचना में संदर्भ में कहती है कि रचना जन्‍म लेते ही रचनाकार से अपना नाता तोड़ देती है। यह सत्‍य है कि कहानी एक की नहीं सबकी होती है पर अपने रचनाकार को आजाद करके। क्‍यों? स्‍त्रियों को चारित्रिक प्रमाणपत्र बाँटने के लिए अनुष्‍ठान में सभी जाति व सभी क्‍लास के पुरुष व पितृसत्तात्‍मक मानसिकता के लोग तुलसीदास की तर्ज पर सगुनहि-अगुनहि नहीं कछु भेदा, की तरह अद्वैत हो जाते हैं। ‘स्‍त्री और आग' का पुराना संबंध है (समय फिर आया न वह सोम वही मंगल स्‍त्री के जीवन में) जब तक समाज में इस निर्णायक भूमिका वाले लोग कहेंगे। ‘क्‍या करें दागने का मन नहीं है, लेकिन कर्म का भोग' यहाँ हर व्‍यक्‍ति न्‍यायाधीश और चरित्रवान होगा और हर विमली चरित्रहीन फिर कहानी के भीतर हर वह सबूत भी तो मौजूद है जो विमली को .....? भ्रष्‍टाचार, साम्‍प्रदायिकता, आतंकवाद, राजनीतिक छल - छद्‌म सब खत्‍म हो जाय तो क्‍या स्‍त्रियों के लिए बेहतर समय आ जायेगा? न्‍याय पर विश्‍वास रखने की बात करने वालों से यह यक्ष प्रश्‍न है?

यह चेतावनी है!

‘‘लेखक अपने अनुभव का फॉर्म नहीं चुनता। अनुभव एक खास फॉर्म में ही लेखक के भीतर उदित होता है।''

-निर्मल वर्मा

यह चेतावनी है

मैं बचा हूँ

किसी होने वाले युद्ध से

मैं अपनी

अहमियत से मरना चाहता हूँ

- विनोदकुमार शुक्‍ल

हर समय में बहुत से प्रसिद्ध कवियों ने कहानियाँ लिखी। यद्यपि इन कवियों की कविताओं में पूरा समय समाया रहता है, फिर भी पीड़ा का विराट जगत कहानी के फॉर्म में आने को छटपटाता है। एक कवि ‘कथाकार' के रूप में प्रसिद्धि पाना चाहता हो। यह बात बेमानी है। छायावाद काल की तरफ देखें तो पंत, निराला और माखनलाल चतुर्वेदी ने भी कहानियाँ लिखी (प्रसाद व महादेवी वर्मा प्रसिद्ध कथाकार थे ही।) निराला को संभवतः सशक्‍त कथाकार नहीं माना जा सकता बावजूद इसके ‘चतुरीचमार' और ‘देवी' जैसी कहानी काव्‍यात्‍मक फ्रेम से बाहर की ही बात लगती है। ‘मजदूरनी', ‘वह तोड़ती पत्‍थर' जैसी कविता और ‘राजा साहब को ठेंगा दिखाया' जैसी कहानी को आमने-सामने रखकर देखा जाय तो एक बात साफ हो जाती है कि अपने समय के इतिहास को नंगी नुकीली इमेज से भेदने में कहानी ज्‍यादा सक्षम है। उदयप्रकाश जी कहते हैं मैं मूलतः कवि हूँ, मेरी कहानियाँ कविता का ही विस्‍तार हैं। पर पाठक उन्‍हें मुख्‍यतः कहानीकार ही मानता है। उदयप्रकाश अपने को मूलतः कवि मानते हैं। उदयप्रकाश जिस तरह से बहुरंगीय बहुपरतीय समय को कहानियों में समाहित करते हैं। वह कविता में शायद ..... हाँ ये कवि अपनी कहानियों में काव्‍यात्‍मक उपकरणों का इस्‍तेमाल करके अपने कथ्‍य को अधिक धारदार बना देते हैं। विनोदकुमार शुक्‍ल, कुमार अंबुज, गीत चतुर्वेदी, संजयकुंदन, देवी प्रसाद मिश्र, वसंत त्रिपाठी और भी। (देवी प्रसाद मिश्र, वसंत त्रिपाठी की कहानियाँ पहले पढ़ी थी। इस समय मुझे उपलब्‍ध नहीं हो पायी) अस्‍सी के दशक में ‘पहल' में छपी ‘महाविद्यालय' (विनोद कुमार शुक्‍ल) कहानी में बाज़ार के आतंक और मध्‍यवर्गीय जीवन के अभाव और त्रासदी को रेखांकित किया गया।

और उस समय को भी जिसमें व्‍यक्‍ति की मार्केट वैल्‍यू चालाकी, मुनाफाखोरी, बेईमानी से बढ़ेगी अगर व्‍यक्‍ति यह नहीं कर पाएगा तो उसे अपने समय से बेदखल कर दिया जायेगा। ‘‘बाजार के रहते हुए भूखे नंगे बिना दवा के मर जाइए फिर भी बाज़ार से मेरी दोस्‍ती थी। ‘खुशी' और माँ रसोई घर में रहती थी (कुमार अंबुज) जैसी कहानी मध्‍यवर्गीय जीवन के उस समय की बात करती है जो कभी नहीं बदलता। सत्ता बदली, राजा बदले, बड़ी से बड़ी घटनाएँ बदली, नहीं बदला तो मध्‍यवर्ग और निम्‍नमध्‍यवर्ग का जीवन और स्‍त्री की स्‍पेस रसोईघर वह एक मात्र दुनिया है। जहाँ किसी का दखल नहीं है, इसीलिए माँ (स्‍त्री) को वहीं? सुकून है वहीं मुक्‍ति इस बात से बेखबर कि यह रसोई ही वह बेड़ी है जिसने युगों-युगों से स्‍त्रियों को उलझाए रखा। ‘खुशी' कहानी लाखों परिवारों के घुटते हुए उन मध्‍यवर्गीय पुरुषों की दास्‍तान है, जो स्‍थितियों से निरंतर जूझते रहने के कारण घर की एकाध हारी-बीमारी में ही पस्‍त हो जाते हैं। शीर्षक कथ्‍य का विलोम रचता है और उसकी मार्मिकता को और गहरा कर देता है। नौकरी बीमारी की कितनी चिन्‍ताएँ मध्‍यवर्गीय पुरुष अकेले भोगता है और अपनी पत्‍नी से भी छुपा जाता है। हालाँकि विमर्शों के इस दौर से कॉमनमैन और उसका समय हाशिए पर होता जा रहा है।

इस समय में मशीन, सामान्‍य दिनचर्या एक ढर्रे पर चलने वाले अनुभव, आदत तथा यंत्रवाद के अमानवीय प्रभाव के प्रति अत्‍याधिक झुकाव प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति का हो ही गया है। इतने शोरगुल में भी एकाकीपन का भयंकर भय है। मानव मानस में भौतिक पदार्थों की घुसपैठ है। इन सबने मिलकर जीवन को कितना क्रूर बना दिया है। संजय कुंदन की ‘‘महानगर के किस्‍से'' पांच स्‍वतंत्र लघुकथाएँ मिलकर एक कहानी बनती है जिनमें उपर्युक्‍त कटु यथार्थ को देखा जा सकता है। यह कहानी उस समय को रेखांकित करती है जिसपर बहुधा ध्‍यान नहीं दिया जाता। पर ये ध्‍यान न देना कितना खतरनाक है। भविष्‍य में रोबोटनुमा मानव का समाज कैसा होगा? इस भयावह समय में कुछ संतुलन पाने की तीव्र इच्‍छा, एक स्‍थिर केन्‍द्र की तलाश है। वह मानव सृजनशीलता ही है, जो समाज और व्‍यक्‍ति दोनों के लिए मूल्‍य और अर्थ निश्‍चित कर सकती है। आज के ही समय में विश्‍वसुंदरियों, रैंप शो और राखी सावंत के स्‍वयंवर स्‍त्री विमर्श के पैरोकारों के मध्‍य डर के लिहाफ में लिपटी अनावृत्त दौड़ती भव्‍य स्‍त्री को यदि आप देखना चाहते हैं तो ड्डपया गीत चतुर्वेदी की कहानी पढ़ें। स्‍त्री जीवन का सच�

मैं सच कहूँगी हार जाऊँगी।

वो झूठ बोलेगा लाजवाब कर देगा।

पुरुष सबसे हँस कर बात करे तो मिलनसार और विनम्र है और स्‍त्री हो तो ‘डिम्‍पा की माँ' कॉलोनीवालों की मानें तो उन्‍होंने न जाने कितने मर्दों के साथ देखा है पर किसने देखा है? यह किसी को नहीं मालूम। आर्थिक संरचना के जाल के भीतर पनपने वाली सुविधाएँ भी चरित्र का खांचा तय करती हैं। बेटा चाचा की बुरी नीयत का इस्‍तेमाल अपने दुबई जाने के लिए करना चाहता है। माँ और पुत्र संबंधों का व्‍यवसायीकरण एक स्‍त्री के जीवन का सबसे बड़ा शोकगीत है। चतुर्वेदी के पास अद्‌भुत भाषा है। बेहद खूबसूरती से वह मराठी गीतों और कविताओं का कथा में प्रयोग करते हैं। कवियों की कहानियाँ हैं कोई शौकिया तफरीह नहीं। बल्‍कि अपने समय की धड़कती तस्‍वीर हैं और कथा साहित्‍य की समृद्धि की पुख्‍ता चरण भी।

नव पर - नव स्‍वर

‘‘सौंदर्य का निकष, स्‍पष्‍टता और जीवन है। जो वस्‍तु जितनी जीवंत होगी वह उतनी ही सुंदर उतनी ही स्‍पष्‍ट होगी।'' -हीगेल

यह समय ‘कहानी' का है। पत्रिकाओं में कहानी विशेषांकों की बाढ़ यही कहती है। इन विशेषांकों को यूंही टरकाया भी नहीं जा सकता है। यदि विश्‍व की गति और भारत का समय आप जानना और समझना चाहते हैं तो युवादृष्‍टि का सहारा लेना ही होगा। वह भी पूरे विश्‍वास के साथ। वसुधा का युवा कहानी विशेषांक (दो खंडों में) साहित्‍य की धरोहर है। अपनी कहानियों और लेखों के कारण सहेजे जाने लायक। इतनी कहानियाँ और हुनरमंद कहानियाँ। ग्‍लोबलाईजेशन के इस दौर में घटनाओं की तीव्रता मानव मस्‍तिष्‍क में अपने ठहराव के लिए जगह नहीं बना पाती। भूलना आदत नहीं, लापरवाही नहीं, समय का शाप है (देखें चंदन पांडेय की कहानी ‘भूलना') यह ठीक है बड़ी से बड़ी घटनाएँ बड़ी तेजी से विस्‍मृति की खोह में चली जाती हैं परंतु प्रभावहीन होकर नहीं मानव और मानस प्रभावित करती हुई शनैः शनैः विनाश के रास्‍ते पर बढ़ाती हुई। ऐसे समय में युवा कहानियाँ ध्‍वंस की ढेरी पर बैठकर इतिहास रचती हुई भविष्‍य बचाने की जद्‌दोजहद से जूझ रही हैं। यह जितना आश्‍वस्‍त करता है उतनी ही आशंकित भी। इन्‍हें लंबे समय तक अच्‍छी कहानियाँ देना चाहिए। (बिना दोहराव के) क्‍या ऐसा होगा? ईश्‍वर करें ऐसा ही हो, आमीन। चंदन पांडेय, वंदना राग, अल्‍पना मिश्र, नीलाक्षी सिंह (कहाँ हो भाई) प्रत्‍यक्षा, पंखुरी स्‍नोवाबार्नो, विमलचंद्र पांडेय, मनोज पांडेय, योगिता यादव, ज्‍योति चावला, उमाशंकर चौधरी इनके अतिरिक्‍त बहुत से महत्‍वपूर्ण कथाकार जिनकी कहानियों के बारे में बात न कर पाना उनकी नहीं मेरी अपनी सीमा है।

प्रगतिशील समय का सर्वाधिक प्रतिगामी चरण सांप्रदायिक कट्‌टरता है। लगातार अपने अर्थ में विस्‍तार करता हुआ ये केवल हिंदू-मुसलमान भइया ;यू.पी. वालों की तरह प्रचलित शब्‍द जिसका प्रयोग बहुधा गाली की तरह किया जाता है।  मराठी, बिहारी, आसामी मीणा गुर्जर और भारत, आस्‍ट्रेलिया। ‘हाथी के पांव में सबका पांव' की तरह। ऐसा नहीं है सन 1992 के पहले ऐसा कुछ नहीं हुआ था इसके बावजूद बाबरी मस्‍जिद के ध्‍वंस ने भारत और भारतीय समय को बदल दिया। भारत के सांस्‍कृतिक दर्प का अवसन हो चुका था। सहिष्‍णुता और ‘सफेद कबूतर' का झूठ सारी दुनिया के सामने आ चुका था। गोधरा के मारो-काटो का खेल इतिहास में एक और अध्‍याय बन कर जुड़ गया था। नानावटी आयोग की रिपोर्ट भारतीय न्‍याय व्‍यवस्‍था का कफ़न लेकर आ गया। कहा जाता है कि मानव इतिहास की गल्‍तियों से सीखता है झूठ, महाझूठ। इतिहास नाम और तारीखों के अलावा कुछ सच नहीं बोलता और कथाएँ नाम तारीखें के अलावा सब सच बोलती हैं। इतिहास पुरस्कृत होता है और कथाओं को देश निकाला दे दिया जाता है।

साम्‍प्रदायिकता का सर्वाधिक दुष्‍परिणाम स्‍त्रियों को भोगना पड़ता है। (अखिल भारतीय मुस्‍लिम महिला संगठन की अध्‍यक्ष रजिया पटेल का भी यही मानना है) नीलाक्षी सिंह का ‘परिंदे के इंतजार सा कुछ', वंदना राग की ‘यूटोपिया' कुणाल की ‘डूब' कुणाल का रोमियो जूलियट और अंधेरा, चंदन पांडेय की ‘नकार' (सबीहा की फिल्‍म खामोश पानी भुलाए नहीं भूलती) सैलाब का पानी थम जाय तो महामारी लाता है और महामारी में मरने वाले संख्‍या और सांख्‍यिकी का खेल बन कर रह जाते हैं। दंगे के बाद इस महाकारी की चपेट में सर्वाधिक स्‍त्रियाँ ही आती हैं (‘डूब'/कुणाल) नश्‍वर शरीर की और अनश्‍वर आत्‍मा की बात करने वाले देश के लिए स्‍त्रियों के संदर्भ में देह ही सब कुछ हो जाती है। देह और पवित्रता को जोड़कर जिस तरह से व्‍याख्‍यायित किया जाता है उससे स्‍पष्‍ट हो जाता है भारतीय धर्म स्‍त्रियों के लिए फ्रॉड और धोखाधड़ी के अतिरिक्‍त कुछ नहीं है। नज्‍जों (यूटोपिया) डरावने समय के साये तले बड़ी हो रही है और सहमी सहमी आ रही है उसकी जवानी। जिन्‍हें भविष्‍य में न जाने कितने अच्‍युतानंद की भेंट चढ़ जाना है ये अच्‍युतानंद पैदा नहीं होते बनाए जाते हैं। कट्‌टरता की फैक्‍ट्री बन रह गया देश। समय की बर्बरता का विश्‍लेषण करने के लिए, अपनी मानवता का मूल्‍यांकन करने के लिए, भारत के जगतगुरू के अहंकार के परखच्‍चे उड़ाने के लिए, आनेवाले समय को इन कहानियों में लौटना होगा।

मानवीय संबंधों के सत्रास, बाजार के दबाव, स्‍त्रियों के संदर्भ में न बदलने वाली मानसिकता (स्‍त्रियों की भी) मानव की जिजीविषा और प्रेम सभ्‍यता और मानव विकास के लगातार बोनसाई होते जाने की प्रकृति को अपनी कहानियों में बेहद सशक्‍त ढंग से उठाया है कल्‍पना मिश्र (रहगुजर की पोटली) मनोज पांडेय ‘जीन्‍स'। अतीत के समय में जाने के लिए मनोज पाण्‍डे कहानी में आईने का इस्‍तेमाल करते हैं। इस आईने के कारण ही कहानी पद और पदार्थ, कार्य और कारण का बारीकी से विश्‍लेषण कर पाती है। स्‍नोवा बार्नो की कहानी ‘बादल को घिरते देखा है' खूबसूरत कहानी है जिसमें नागार्जुन व उनकी कविताओं को मिथ की तरह इस्‍तेमाल किया गया है। पहाड़ का जीवन भी उतना ही कठिन है। अभाव, गरीबी प्रेम का विरोध इन स्‍थितियों के आगे भी एक स्‍थिति है ‘जिजीविषा' है तो जीवन रहेगा, का नारा बुलंद करने वाली। यहाँ प्रेम है व्‍यवसाय नहीं कठिन स्‍थितियों में सरल जिंदगी सहजगति से सांस लेती है। सारी जटिल स्‍थितियों के बीच क्‍या हमें जीवन की यही लय नहीं तलाशनी चाहिए?

अपने समय के दबावों और तनावों को रचती अद्‌भुत कहानी है ‘क्‍विजमास्‍टर'। (पंकज मित्र) ‘‘भारत के भावी वृद्ध बूढ़े, अपना पिछला भूल कर सुखी रहेंगे।'' (एक था बुझवन/नीलाक्षी सिंह) ‘‘क्‍या तकदीर ने इसीलिए चुनवाए थे तिनके। बन जाये नशेमन तो काई आग लगा दे? नशेमन के आग पर अफसोस करने का समय नहीं रहा। एक भारती की औसत उम्र बढ़ गई है। अच्‍छा हुआ या .....? वृद्धों के जीवन की बढ़ती त्रासदी, असुरक्षा उन्‍हें जीवन घर और समय से निकाल फेंकने की बहादुरी यह परम धर्म गर्व का विषय है जीवन में। अब दो कौड़ी के कहानीकार अपनी कहानी में इसे शर्म का विषय बनाते हैं, तो बनाएँ अपनी बला से। कौन पढ़ता है?

अंत में वह दो कहानियाँ जिन्‍हें पढ़ने में कई बार मरना पड़ा। ‘भूलना' (चंदन पांडेय) निम्‍न मध्‍यवर्गीय जीवन को बदलने की ख्‍वाहिशें दरअसल इस भयावह दौर में का खास किस्‍म का दुस्‍साहस है जिसके अंतर्बाहय के खतरनाक परिणामों के लिए तैयार रहना चाहिए। कुणाल की ‘रोमियो जूलियट और अंधेरा' कहानी में प्रारंभ होने से पूर्व ही व्‍यक्‍त किया निर्मम हलफनामा कहानी पड़ने का साहस तोड़ देता है। लेकिन मानवमूल्‍य विरोधी समय, संवेदनहीन मनुष्‍य, निष्‍क्रिय समाज के लिए और किस ढंग से लिखा जाय। इन दोनों कहानियों पर स्‍वतंत्र रूप से फिर कभी क्‍योंकि यह कहानियाँ अपने साथ और भी कई खतरनाक सच खोलती हैं। क्‍योंकि यह शुद्ध साहित्‍यिक पाठ भर नहीं है बल्‍कि एडजस्‍टमेंट प्रोग्राम की गति और क्षमता से खत्‍म किए जा रहे लोकतंत्र का आईना है।

यह आलेख आज के कथा परिदृश्‍य की एक अधूरी तस्‍वीर प्रस्‍तुत करता है ;स्‍त्री विमर्श प्रधान और दलित कहानियाँ नहीं है। प्रसंगवश कुछ आ गया हो तो दीगर बात है) और यह विच्‍छिन्‍न भी है क्‍योंकि विश्रंखल समय को बांधने और साधने की कला नहीं है इसमें यह कोलाज कुछ कथारंगों से एक पोस्‍टर बनाता है जिसमें समय की संगति कही बनती तो कहीं बेमेल होती नजर आती है। बहुत कहना है कहानियों पर लेकिन फिर कभी...

संपर्क : हिन्‍दी विभाग, पूना विश्‍वविद्यालय, पुणे

--

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: शशिकला राय का आलेख - कथाकोलाज़ : समय कई रंगों में
शशिकला राय का आलेख - कथाकोलाज़ : समय कई रंगों में
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2GABIZWeyI-jZqhU8vqHfeXwNMakFX2GA0prc1jcAmRW99etqWz7loLCfh2v8SRRwX9FFGAUJ7sUSiezJKFU_WxmyqVrA1soqFEyBPdQkEGgeCcz0DzIStCgqfUShyphenhyphenvOwPBQR/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2GABIZWeyI-jZqhU8vqHfeXwNMakFX2GA0prc1jcAmRW99etqWz7loLCfh2v8SRRwX9FFGAUJ7sUSiezJKFU_WxmyqVrA1soqFEyBPdQkEGgeCcz0DzIStCgqfUShyphenhyphenvOwPBQR/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2012/12/blog-post_1873.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2012/12/blog-post_1873.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content