इवान बूनिन 10 अक्तूबर 1970 को रूस के वोरोनेझ नगर में जन्म । चार वर्ष की उम्र में ओरयोल रियासत के येल्त्स जिले के बूतिरका गाँव में रहन...
इवान बूनिन
10 अक्तूबर 1970 को रूस के वोरोनेझ नगर में जन्म। चार वर्ष की उम्र में ओरयोल रियासत के येल्त्स जिले के बूतिरका गाँव में रहने चले गए, जहाँ पर उनके पिता की जमींदारी थी। माँ और पिता - दोनों ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे जिनका बूनिन पर गहरा प्रभाव पड़ा। स्कूली शिक्षा येल्त्स नगर में पूरी की। 1885 में पन्द्रह वर्ष की उम्र में ही कविता लिखने लगे। 1887 में पहली बार एक साहित्यिक पत्रिका ‘रोदिना' (मातृभूमि) के मई अंक में बूनिन की कुछ कविताएँ प्रकाशित हुईं। 1889 में समाचारपत्र ‘ओरलोवस्की वेस्तनिक' के सम्पादकीय सहकर्मी बने। 1891 में इस समाचार पत्र ने 500 प्रतियों की संख्या में बूनिन का पहला कविता-संग्रह प्रकाशित किया।
1889 में कवि बूनिन की मुलाकात वर्वरा पाशेन्का से हुई। यह मुलाकात आगे चलकर प्रेम में विकसित हो गई। 1892 से दोनों बिना विवाह केए ही साथ-साथ रहने लगे। 1895 में वर्वरा से सम्बन्ध-विच्छेद। इस दौर में बूनिन साहित्य के क्षेत्र में बेहद सक्रिय रहे। तोलस्तोय, चेखव, बाल्मोन्त, सलागूब, करालेन्को, कुप्रीन आदि लेखकों से परिचय एवं मित्रता। 1896 में हेनरी लौंगफ़ैलो की कविताओं का बूनिन द्वारा किया गया अनुवाद प्रकाशित, जिसने उन्हें साहित्य में स्थापित कर दिया। 1897 में ‘दुनिया के कगार पर' नाम से पहला कहानी-संग्रह प्रकाशित हुआ। 1898 में आन्ना त्साकनी से विवाह तथा पुत्र का जन्म। अगले ही वर्ष आन्ना त्साकनी से बूनिन अलग हो गये। 1900 में बूनिन ने यूरोप के देशों की पहली यात्रा की। 1901 में कविता-संग्रह ‘पतझड़' का प्रकाशन। मक्सीम गोर्की ने संग्रह पढ़कर कवि ब्रूसोव को लिखे पत्र में बूनिन को “हमारे आज के रूस का पहले नम्बर का कवि” बताया।
1904 में रूस की विज्ञान अकादमी ने बूनिन के कविता-संग्रह ‘पतझड़' पर उन्हें पूश्किन पुरस्कार देकर सम्मानित किया। 1905 में पुत्र की मृत्यु। 1906 में वेरा मूरोम्त्सेवा से परिचय। दोनों साथ रहने लगे। बूनिन वेरा से विवाह इसलिए नहीं कर पाए क्योंकि आन्ना त्साकनी से उनका तलाक़ नहीं हुआ था। बाद में 1922 में बूनिन व वेरा ने पेरिस में विवाह किया। 1907 में बूनिन ने वेरा के साथ मि�, सीरिया और फिलीस्तीन की यात्रा की। 1909 में बूनिन को रूस की विज्ञान अकादमी ने दूसरी बार पुश्किन पुरस्कार दिया और उन्हें अकादमी का महत्तर सदस्य बना लिया। 1901 में छह खण्डों में इवान बूनिन की पहली रचनावली का प्रकाशन हुआ।
1917 के प्रारम्भ में बूनिन मास्को में थे जब देश में पहली फरवरी क्रान्ति हुई। फिर अक्तूबर क्रान्ति हुई। अपने संस्मरणों में क्रान्तियों के इस वर्ष को बूनिन ने ‘नरक में पागलख़ाना' कहा है। 1918 में बूनिन काले सागर के तट पर बसे ओदेस्सा नगर पहुँचे और वहाँ से 1920 में इस्ताम्बूल व सोफ़िया होते हुए पेरिस पहुँचे। 1923 से बूनिन फ्रांस के आल्प्स क्षेत्र में ग्रास नगर में रहने लगे। 1927 में बूनिन का परिचय गलीना कुज़नेत्सोवा से हुआ और वह बूनिन परिवार में आकर रहने लगी। 1942 तक वह बूनिन के साथ रही। दोनों के बीच सम्बन्ध-विच्छेद बूनिन के लिए बेहद यातनादायक रहा। इस बीच 1933 में बूनिन को नोबेल पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया।
1945 में तत्कालीन सोवियत संघ में कुछ लेखकों ने उन्हें वापिस रूस बुलाने के लिए एक अभियान चलाया और वहाँ उनकी चुनी हुई रचनाओं का एक संग्रह प्रकाशित करने की तैयारी की गई। लेकिन बूनिन ने मास्को के ऐसे व्यवहार से खिन्न होकर कि मानो वे मास्को की सम्पत्ति हो, सोवियत संघ जाने से इन्कार कर दिया और रूस में उनकी वह क़िताब प्रकाशित नहं की गई।
1946 में पेरिस में इवान बूनिन की कहानियों का पहले सम्पूर्ण संग्रह प्रकाशित हुआ। बूनिन के अनुसार इस संग्रह की सारी कहानियाँ ‘प्रेम कहानियाँ' हैं। 1947 में बूनिन ने विदेश में रह रहे प्रवासी रूसी लेखकों के संघ की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और वे उससे पूरी तरह अलग हो गए। उनकी इस कार्रवाई पर प्रवासी रूसी लेखकों ने अपनी नाराज़गी व्यक्त की। 1950 में बूनिन के संस्मरणों का संग्रह प्रकाशित हुआ जिसमें बूनिन ने अपने समकालीन लेखकों के बारे में ऐसी-ऐसी बातें लिखी थीं कि लोग स्तब्ध रह गए। 1953 में 7 व 8 नवम्बर की मध्यरात्रि को दो बजे इवान अलेक्सेयेविच बूनिन का देहान्त हो गया। बूनिन के डॉक्टर ने उस रात का स्मरण करते हुए लिखा�“मैंने उनके शरीर को दूसरे कमरे में ले जाने में मदद की। वेरा निकोलायेव्ना (बूनिन की पत्नी) ने उनके गले में एक मफ़लर बाँध दिया और मुझसे कहा�“मैं जानती हूँ कि उन्हें यह अच्छा लगता। यह मफ़लर उन्हें उसने उपहार में दिया था। यह कहकर उन्होंने किसी स्त्री का नाम लिया...।”
इवान बूनिन की कविताएँ
एक
आर्गन बज रहा है गिरजे में
कभी कभी गुस्सा आता है मन में
तो कभी उफनता उल्लास है
पर आज आत्मा उदास है
रो रही है, गा रही है
वह आज बेहद निराश है
वह हतभागी
शोक में कभी गाती है
तो कभी प्रभु से गुहार यह लगाती है-
ओ सुखदाता! ओ दुखदाता!
ओ दीनबन्धु!
पृथ्वी के प्राणियों का भला कर
हम दरिद्र हैं, तुच्छ हैं, ग़रीब हैं
ईर्ष्या, द्वेष, डाह, बैर करते हैं सब
मन में तू हमारे नेकी और दया भर
ओ यीशु!
महिमा तेरी अपरम्पार
ओ सलीब पर लटके हुए रवि!
पीड़ा सही तूने अपार
सूली पर झुकी हुई है तेरी छवि
हृदय में हमारे भी छिपे हैं पवित्र स्वर
सिफ�र् तुझ से ही है आशा
दे हमारे मन के भावों को तू
पावन और पुनीत
जीवन की भाषा
दो
ऊपर की तरफ श्वेतकेशी आकाश है मेरे
और सामने वन
उघड़ा पड़ा है नग्न
नीचे की तरफ जंगली पगडंडी को घेरे
काली कीच
पत्तियों को
कर रही है भग्न
ऊपर हो रहा है ठंड का सर्द शोर
नीचे बिछी है चुप्पी
जीवन के मुरझाने से
पूरे यौवन भर यूँ तो मैं
भटकता रहा घनघोर
बस खुशी मिली तब मुझे,
किसी विचार के आने से
तीन
कल रात दूर कहीं कोई
गाता रहा देर तक
अंधेरे में जूतियाँ कोई
चटकाता रहा देर तक
दूर वहाँ पर गूँजती रही
एक उदास आवाज़
बज रहा था बीते सुख
और आज़ादी का साज
खिड़की खोली मैंने
और गीत वह सुनता रहा
सो रही थी तू....
मैं रूप तेरा गुनता रहा
वर्षा से भीगी थी रई,
खेत महक रहा था
ठंडी और सुगंधित रात,
मन बहक रहा था
उसी पीड़ित कंपित स्वर ने
रूह को जगा दिया
पता नहीं क्यों, उसने मुझको
उदास बना दिया
मन में मेरे आया तुझ पर
तब वैसा ही लाड़
कभी जैसे तू करती थी
मुझ से जोशीला प्यार
चार
रंग उड़ गया उस हल्के नीले
दीवारी काग़ज़ का
झलक रही थी कभी वहाँ जो,
उस सारी सजधज का
सिफ�र् वहीं दिखाई देता है अब,
थोड़ा बहुत रंग नीला
जहाँ टँगा था कई वर्षों तक,
पोस्टर एक भड़कीला
भूल चुका यह दिल अब,
वह सब भूल चुका है
मन को था भाता जो भी
अब मिल धूल चुका है
सिर्फ़ बची यादें उनकी,
जो जीवन छोड़ गए
चले गए वे उस दुनिया में,
हमसे मुँह मोड़ गए
पाँच
रो रही थी विधवा वह उस रात
छोड़ चुका था बच्चा जिसका साथ
- हाय! मेरे प्यारे! मेरे लाल!
मुझे इस दुनिया में अकेला छोड़
तू चला गया क्यों, मुझ से मुँह मोड़
उसका बूढ़ा पड़ोसी भी रो रहा था
हाथों से अपनी आँखें मल-मल के
रो रहा था नन्हा मेमना भी
ऊपर चमक रहे थे तारे झल-मल से
और अब
रोती है वह माँ रातों को
रोती है रात भी हर रात
दूसरों को भी रुलाती है वह अपने साथ
आकाश से आँसू बहाते हैं सितारे
आँखों को मल-मल रोता है ख़ुदा
उस बच्चे को याद कर प्यारे
छह
शब्द
मौन हैं समाधियाँ और कब्रें
चुप है शव और अस्थियाँ
सिर्फ़ जीवित हैं शब्द झबरे
अंधेरे में डूबे हैं महीन
यह दुनिया कब्रिस्तान है
सिर्फ़ शिलालेख बोलते हैं प्राचीन
शब्द के अलावा खास
और कोई सम्पदा नहीं है
हमारे पास
इसलिए सम्भाल कर रखो इन्हें
अपनी पूरी ताकत भर
इन द्वेषपूर्ण दुःख-भरे दिनों में
देना न इन्हें कहीं तुम फेंक
बोलने की यह ताक़त ही
हमारी अमर उपलब्धि है एक
सात
कवि सादी की सीख
खजूर के पेड़ की तरह उदार बनो
यदि बन नहीं सको वैसा तुम
सरू के पेड़ का तना बनो
सहज और सरल
विशाल-हृदय
अविरल
आठ
वधू
तब कुँवारी कन्या थी मैं
और दो चोटी करती थी
खिड़की के निकट बैठ मैं,
बाहर देखा करती थी
वह रात ख़ूब खिली-खिली थी,
तारों का था ज़ोर
दूर समुद्र से उठ रहा था,
लहरों का धीमा शोर
अर्धनिद्रा में डूबी थी स्तेपी,
धीरे से काँप रही थी
रहस्यमय स्वर में अपना
मरमर.... आलाप रही थी
तुमने पूछा, पहले तुमसे
आया कौन मेरे पास?
किसने फेरों से पहले मुझे
घेर लिया उस रात?
किसने उस रात किया था
मेरी आत्मा को चूर?
स्नेह, प्यार और उत्पीड़न से
किया मुझे भरपूर
किसके समक्ष समर्पण किया
मैंने उदास होकर?
जुदा होने से पहले उससे,
यूँ तेरा विश्वास खोकर
नौ
कवि से
हमेशा गहरे कुओं का जल
होता है मीठा शीतल
पर सुस्त और आलसी चरवाहा
जल किसी डबरे से लाता है
अपने रेवड़ को भी वह
गंदा जल वही पिलाता है
लेकिन सज्जन है जो जन
वह करेगा सदा यही प्रयत्न
डोल अपना किसी कुँए में डालेगा
रस्सियों को आपस में कसकर बाँध
जल वहाँ से निकालेगा
अनमोल हीरा
गिर गया जो अंधेरी रात में
ढूँढ़ता है यह दास उसे
दो कौड़ी की मोमबत्ती के प्रकाश में
धूल भरी राहों को वह
बड़े ध्यान से देखता
और उन पर रोशनी
अपनी शमा की फेंकता
अपने सूखे हाथों से वह
लौ को है घेरता
हवा और अंधेरे को
पीछे की ओर ढकेलता
याद रहे यह
कि आिख़र वह सब कुछ पा लेगा
एक दिन आएगा ऐसा
जब वह हीरा ढूँढ निकालेगा
दस
विमाता
मैं ग़रीब अनाथ बालिका थी
और माँ क्रूर थी मेरी
जब घर लौटी मैं, झोंपड़ी थी खाली
और रात अंधेरी
माँ ने मुझे ढकेल दिया था
एक काले अंधेरे वन में
अनाज छानने-फटकारने को,
पिसने को जीवन में
अन्न साफ किया मैंने बहुत,
पर जीवनगान नहीं था
दरवाज़े की साँकल बज उठी,
पाहुन अनजान नहीं था
चौखट में दिखलाई दिए मुझे,
लौहबन्ध लगे दो सींग
यह झबरे पैरों वाली माँ थी,
जो मार रही थी डींग
अपने कठोर दायें पंजे से,
झपट उसने मुझे उठाया
विवाह-वेदी पर नहीं, मुझे
पीड़ा-वेदी पर बिठाया
भेजा उसने मुझे ऐसी जगह,
घने वनों के पार
जहाँ तीव्रधार नदियाँ बहती थीं,
हिम पर्वत था दुश्वार
पर जंगल पार किए मैंने सब,
शमा हाथ में लेकर
उस तेज़ नदियों को लाँघा,
निकले आँसू बह-बह कर
फिर हिम पर्वत पर खड़ी हो गई,
लिए बिगुल एक हाथ
सुनो, लोगो सुनो, जिसे प्यार मैं करती हूँ,
अब वह है मेरे साथ
ग्यारह
अकेलापन
ठंडी शाम थी वह
दुबली-पतली एक विदेशी औरत
नहा रही थी समुद्र में लगभग निर्वसन
और सोच रही थी मन ही मन
कि अपनी उस नेकर में नीली
शरीर से चिपकी है जो गीली
अधनंगी पानी के बाहर वह निकलेगी जब
शायद पुरुष उसे कोई देखेगा तब
बाहर आयी वह समुद्र से
पानी उसके शरीर से टपक रहा था खारा
रेत पर बैठ गई ओढ़ कर लबादा
खा रही थी वह अब एक आलूबुखारा
समुद्र किनारे उगा हुआ था झाड़ झँखाड़
झबरे बालों वाला कुत्ता एक वहाँ खड़ा था खूँखार
भौंकता था वह कभी-कभी ज़ोर से
खुशी से उमग कर लहरों के शोर से
अपने गर्म भयानक जबड़ों में
पकड़ना चाहता था
वह काली गेंद जिसे उड़ना आता था
जिसे होप-होप... करते हुए
फेंक रही थी वह औरत
दूर से लग रही थी जो
बिल्कुल संगमरमर की मूरत
झुटपुटा हो चला था
उस स्त्री के पीछे दूर
जलने लगा था एक प्रकाशस्तम्भ
किसी सितारे की तरह था उसका नूर
समुद्र के किनारे गीली थी रेत
ऊपर चाँद निकल आया था श्वेत
लहरों पर सवार हो वह
टकरा रहा था तट से
बिल्लौरी हरी झलक दिखा अपनी
फिर छुप जाता था झट से
वहीं पास में
चाँदनी से रोशन आकाश में
सीधी खड़ी ऊँची चट्टान पर
एक बैंच पड़ी थी वहाँ मचान पर
पास जिसके लेखक खड़ा था खुले सिर
एक गोष्ठी से लौटा था वह आज फिर
हाथ में उसके सुलग रहा था सिगार
व्यंग्य से मुस्कराया वह जब आया यह विचार
“पट्टियों वाली नेकर में इस स्त्री का तन
खड़ा हो ज़ेबरा जैसे अफ्ऱीका के वन”
बारह
आकाश में उड़ रही थी एक काली घटा
आग से उठते काले धुँए की तरह
राह पुरानी भी चुप थी इतनी
कि शांति फैली थी वहाँ घनी
सुनाई दे रही थी बस उसकी महान् आवाज़
ख़ुदा कहें जिसे या कहें सरताज
आवाज़ वह धरती पर डरावनी लगती थी
साफ़ थी इतनी कि भयावनी लगती थी
पृथ्वी पर सुनी नहीं गयी
ऐसी आवाज़ कभी भी
सिर्फ़ गूंगे बहरे ही सुन सकते हैं
जिसे कल, आज, अभी भी
सूरज जल रहा था,
जैसे लटका हुआ था छीका
मटमैली हरी घास का रंग
हो गया था फीका
स्तेपी में निःशब्द रई के
दाने झर रहे थे
गर्म मिट्टी के ढेलों पर कन-कन कर बरस रहे थे
खेतों में सुन पड़ती थीं
नन्ही चिड़ियों की कूँजें
दुबले, सुस्त, श्वेतपाखी,
ये थे कौओं के पूजे
उन जुते हुए खेतों की
मिट्टी थी रेतीली
मौसम में बहुत उसम थी,
मन की हालत थी ढीली
दूर वहाँ दक्षिण में,
उमड़ रही थीं काली घटाएँ
वृक्षों के चरणों में आ झुकी थीं,
उनकी ही शाखाएँ
रुपहली यह दुनिया अपने
अनिश्चित मन, हिय से
काँप रही थी बेकल, प्रभु के
भावी क्रोध के भय से
तेरह
मैं उसके निकट गया आधी रात को
वह सो रही थी
चाँदनी फैली थी खिड़की पर
और कम्बल चमक रहा था रेशम की तरह
कमर के बल लेटी थी वह
नंगे उरोज उसके
ढुलके हुए थे दोनों तरफ
और जीवन
शांत खड़ा था
उसके सपनों में
किसी बरतन में रखे जल की तरह
चौदह
तुम्हारा हाथ
अपने हाथ में लेता हूँ
और फिर देर तक उसे
ध्यान से देखता रहता हूँ
मीठी अनुभूतियों से भरी तुम
आँखें झुकाए बैठी हो
इन हाथों में
तुम्हारा सारा जीवन
समाया हुआ है
महसूस कर रहा हूँ मैं
तुम्हारे शरीर की अगन
और डूब रहा हूँ
तुम्हारी आत्मा की गहराइयों में
और भला क्या चाहिए?
सुखद हो सकता है क्या जीवन
इससे अधिक?
पर
ओ देवदूत विद्रोही
हम परवानों पर झपटने वाला है
वह तूफ़ान
सनसना रहा है जो दुनिया के ऊपर
मौत का संदेश लेकर
पन्द्रह
निर्जन, उजड़े
रेतीले सागर तट पर
कर्कश गरज रहे नीले समुद्र के पास
खंडहर हो चुकी
एक प्राचीन कब्र से
लकड़ी का एक प्याला मिला उसे
देर तक प्रयत्न करता रहा वह
देर तक जोड़ता रहा अक्षर
जो लिखे हुए थे
पर मिटे हुए थे
तीन हज़ार वर्ष पुरानी
उस कब्र से निकले प्याले पर
पढ़ ही डाली
आिख़र उसने वह इबारत
“समुद्र अनन्त है
और अनन्त है यह नभसागर
सूर्य अनन्त है
और सुन्दर यह धरती की गागर
जीवन अनन्त है
आत्मा-हृदय का जलसाघर
और मृत्यु अनन्त है
कब्र की ओढ़े काली चादर”
सोलह
जवानी
सूखे जंगल में लम्बा चाबुक मार रही है
झाड़ी में गाय मुँह जैसे डाल रही है
नीले-पीले-लाल-गुलाबी फूल खिले हैं
पैरों से दबकर सूखी-पत्ती खँखार रही है
जल-भरा बादल नभ में जैसे घूम रहा है
हरे खेत में ताज़ा-पवन झूम रहा है
हृदय में छुपा-छुपा सा कुछ है, जो टीसे है
जीवन रेगिस्तानन बना कुछ ढूँढ रहा है
सत्रह
अलस-उनींदा
बैठा था बूढ़ा
खिड़की के पास आरामकुर्सी पर
मेज पर रखा था प्याला
ठंडी हो चुकी चाय का
उसकी उँगलियों में फँसा था सिगार
जिससे उठ रहा था सुगन्धित नीला धुँआ
सर्दियों का दिन था वह
चेहरा उसका लग रहा था धुँधला
सुगन्ध भरे उस हल्के धुँए के पार
अनन्त युवा सूर्य झांक रहा था
सुनहरी धूप ढल रही थी पश्चिम की ओर
कोने में पड़ी घड़ी टिक-टिक कर रही थी
नाप रही थी समय
बूढ़ा असहाय सा देख रहा था सूर्यास्त
सिगार में सलेटी राख बढ़ती जा रही थी
मीठी ख़ुशबू का धुँआ
उड़ रहा उसके आसपास
अट्ठारह
पहला प्यार
मुझे निद्रा ने आ घेरा जब
आंधी चल रही थी और
मौसम बेहद ख़राब था
शोकाकुल मैं थका हुआ
तब पूरी तरह निराशा था
पर जागा सुप्तावस्था से जब
सुख सामने खड़ा
धीमे-धीमे मुस्करा रहा था
और मुझे अपनी फूहड़ता पर
बेहद गुस्सा आ रहा था
बादल दौड़ रहे थे ऊपर
हल्की ऊष्मा से भरे हुए
गर्मी के दिन थे चमकदार
आसमान से झड़े हुए
भुर्ज वृक्षों के नीचे पथ पर
बिछी हुई थी रेत
छाया पेड़ों की काँप रही थी
हरे-भरे थे खेत
उन हरे-भरे खेतों से होकर
समीर सीत्कार रहा था
मेरे दिल में यौवन का जोश
थपकी मार रहा था
सपने बसे हुए थे दिल में
थी तरुणाई की इच्छा
पहले क्यों यह समझ न पाया
मन चीत्कार रहा था
उन्नीस
मई के
इन चमकदार दिनों में
जब राह के दोनों ओर खड़े पेड़
सफ़ेद रंग छिड़कते हैं राह पर
और छायादार पथों पर
हवा सरसराती है अपने पूरे रंग में
पत्तियों की बौछार कर
बेल-बूटे बनाती है
मैं गाँव-गाँव बसे
युवा कवि-कवयित्रियों को
भेजना हूँ अपनी हार्दिक शुभकमनाएँ-
जीवन अभिवादन करे
स्नेह से उनका
वसन्त का यह दिन उन्हें
चमक दे अपनी
उनके मन में बसे
सब सपने खरे हों
और पूरी तरह
इस श्वेताभ दिन की
आभा से भरे हों
बीस
झंझावात वह इस जंगल से
बचकर गुजर गया था
वर्षा थी गुनगुनी, वहाँ हर जगह
पानी भर गया था
जंगल की उस पगडंडी से मैं
तब अकेला गुजर रहा था
स्याह झुटपुटा शाम का मन में
उदासी भर रहा था
सिर पर झलक रहे थे तारे
आँसू से बरस रहे थे
चलते-चलते याद आ गई
चमक मुझे उन तारों की
छुपे हुए काली पलकों में
झलक दें जो इशारों की
आधी रात, बदली छाई थी
उसकी गर्म साँसों में गहरे
यौवन का झंझावात था मन में
और थे ख़ूशबू के पहरे
गहरे सन्नाटे में बिजली की
कड़क थरथरा रही थी
वसन्तकाल की उस रात जो
तूफ़ान गुज़र गया था
याद मुझे है आज भी वह सब
मन में ठहर गया था
पारदर्शी अश्रु-सा वह क्षण
मुझ में हूम रहा है
रूप तेरा वह मेरे भीतर
फिरकी सा घूम रहा है
दिन थे उजले वे, मैं तुझ पर
न्योछावर था पूरी तरह
इक्कीस
निरन्तर जलने वाला दिया
चुप है वह क्लांत
रहती है शांत
उसके पास खुशी कभी नहीं लौटेगी अब
दफ़ना दिया गया उसे
वर्षा से गीली धरती में
विदा दी खुशी को उसने, वह हो गई अलग
चुप है वह, खोई खोई है
आत्मा खाली है और खाली है हिया
जैसे किसी समाधि पर बना हो गिरजा
और गिरजे में गूंगी कब्र पर रात-दिन
निरन्तर जलता हो दिया
बाईस
पक्षियों के पास होता है घोंसला
जानवरों के पास कोई मांद
कितना दुःख हुआ था उस दिन मुझे
जब निकल आया मैं बाहर
पिता के घर की दीवारें फांद
कहा - विदा-विदा,
मैंने बचपन के घर को
जानवरों के पास होती है मांद
पक्षियों के पास कोई घोंसला
धड़का दिल मेरा उदासी के साथ
घुसा जब अजनबी किराये के घर में
पुराना एक झोला था पास
और मन में हौसला
सलीब बना छाती पे मैंने दूर किया
जीवन के हर डर को
तेईस
मेरे वासन्ती सपने वो प्रेम के
जिनको देखूँ मैं हर सुबह नेम से
हिरणों के झुंड से जमा थे सारे
वहाँ उस वन में नदी के किनारे
हरे-भरे वन में गूंजा हल्का-सा स्वर
उनकी सतर्कता थी इतनी प्रखर
रेवड़ विकंपित-सा दौड़ गया सुखद
क्षण-भर को चमकी ज्यों विद्युत की लहर
चौबीस
रात
बर्फ़ सी रात है और है एक कुविचार
(अभी तक जो कविता में ढला नहीं है)
खिड़की में से दिख रही है दीप्ति अपार
दूर हैं पहाड़ और पहाड़ियाँ कुछ नंगी
मेरे बिस्तर पर फैली है रोशनी नारंगी
चाँदनी के नीचे यहाँ कोई नहीं है
सिर्फ़ मैं हूँ और मेरा ख़ुदा है
मेरी इस मृत उदासी का वही राजदां है
जानता है वह कि मैं सबसे छिप रहा हूँ
दूर मुझ से अब यह सारा जहाँ है
बस अब यही-सब बचा यहाँ है
ठण्ड है, चमक है और है एक कुविचार
पच्चीस
मेरे ही सम्मान में था
उस उत्सव का आयोजन
हरचम्पा की मालाओं से
लदा हुआ था मेरा तन
पर मस्तक मेरा ठंडा था
किसी साँप की तरह
हालाँकि भीड़ और उमस से
भरा था वह भवन
अब नई माला का इन्तज़ार है
और याद है यह कथन
हरचम्पा के फूलों से ही
लदा होगा तब भी यह तन
ताबूत-महल में नींद होगी
और अनंत अंधेरे की दस्तक
नयी मालाएँ सदा के लिए
ठंडा कर देंगी यह मस्तक
छब्बीस
अर्धरात्रि की उस दुनिया में
था मैं निपट अकेला
नींद दूर थी आँख से मेरी
आई सुबह की बेला
सागर दीवाना गरज रहा था
दूर कहीं बेतहाशा
ओजस्वी थी, तेजस्वी थी,
उत्सवी थी उसकी भाषा
तब अकेला मैं ही मैं था
इस ब्रह्माण्ड में सारे
सबका रब भी जैसे मैं था
सिर्फ़ मुझे मिले इशारे
सिर्फ़ सुनाई दी थी मुझको
वह आवाज़ अनोखी
उभरी थी उस गहराई से जो
जहाँ गूंजे खामोशी
सत्ताईस
अब आगे क्या होगा, भला,
क्या लम्बी सुखद राह होगी
शांत नज़र देखने की जिसे
मन में मेरे चाह होगी
जवानी धड़क रही थी उसकी
सहज-सरल स्वरों में
धीरे-धीरे साँस ले रही वह
उज्ज्वल उन पलों में
कॉलर कमीज़ का गर्दन से उसकी
छिटक गया था दूर
हल्की ख़ुशबू उसके बालों की
मुझे करे नशे में चूर
महसूस करूँ मैं उसकी साँसें
उमंग उन बीते पलों की
लौट रही है मन में फिर से
याद उन मीठे क्षणों की
अब वहाँ अतीत में क्या बचा है
देखूँ विषाद से घिर कर
नहीं, आगे की ओर नहीं अब
देखूँ मैं पीछे फिर कर
अट्ठाईस
यहाँ सिर्फ़ पत्थर ही पत्थर,
रेत और नंगे पहाड़
वहाँ दूर आकाश से झाँके,
चंदा बादलों के पार
यह रात है किसकी, रानी,
सिर्फ़ हवा और हम
और निर्दयी समुद्री लहरें,
हम दोनों के संग
यह हवा भी झक्की कितनी,
मथ रही लहरों को
आवेश में है, गुस्से में गहरे,
ठेल रही पैरों को
तू आ, बैठ जा सट के मुझ से,
ओ मेरे दिल की रानी!
मेरी प्रिया, जानम् है तू,
तू मेरी दिलबर, जानी!
प्यार मुझे है तुझसे कितना,
मैं यह समझ न पाऊँ
ले जाए यह हमें किस दिशा,
किस जीवन की छाँव
यह रात अंधेरी उधमी-सनकी,
हंगामी-प्रचण्ड-तूफ़ानी
मैं विश्वास करूँ ख़ुदा में,
सब उसकी मेहरबानी
उनतीस
गिरजे की सलीब पर बैठा मुर्गा
आसमान में तैरे-भागे,
ज्यूँ शतरंज-बिसात पे हाथी
बैठा धरती से इतना ऊँचा,
लगे बादलों का साथी
नभमंडल तक पीछे छूट रहा है,
मुझे लगे है ऐसा
पर वह आगे को बढ़े मस्त,
झूमे, गाता ही रहता
गीत ज़िन्दगी के गाता वो,
गीत मौत के गाता
दिन गुजरते इतनी जल्दी,
एक आता एक जाता
वर्ष गुजरते भाग-भाग कर,
सदियाँ भी बह जातीं
समय तैरता नदियों जैसा,
बादल जैसा, रे साथी
गीतों में वह यह बतलाता,
जीवन मोहक बहकावा
हमारे लिए भाग्य जो लाता,
वे पल भी एक छलावा
पूत-पौत्र, पुश्तैनी-घर सब,
मित्र-बंधु और सम्बन्धी
शेष यहीं रह जाएँगे सब,
तू भूल न जा, ऐ बन्दे!
सिर्फ़ मृत्यु-निद्रा यह गहरी,
अमर-अनादि और अविरल
सतत रहेंगे प्रभु छाया,
प्रभु मंदिर और सलीब सरल
तीस
परायी
तू परायी है फिर भी
मुझसे करती प्यार
भूलेगी नहीं कभी जैसे
इतना कर दुलार
तू थी सीधी, सरल, समर्पित
जब विवाह हुआ था तेरा
पर तेरा सिर झुका हुआ था
वह देख न पाया चेहरा
तुझे स्त्री बना छोड़ा उसने
पर तू मुझे लगे कुंवारी
तेरी हर अदा से झलके
तेरी सुन्दरता सारी
तू करेगी यदि विश्वासघात फिर...
तो ऐसा होगा एक बार
शर्मीली, संकोची है तू
तेरी आँखों में प्यार
तू छुपा नहीं पाती यह
कि अब उसके लिए परायी...
तू अब भूल नहीं पाएगी
मुझे कभी भी, मेरी मिताई!
इकतीस
छँट गए बादल,
नीलाकाश झलक उठा ऊपर
वासंती दिन अप्रेल का यह
लगता है निराला
रूखा-सूखा सा वन है,
रंग उसका भूरा-धूसर
गिरे है छाँह धरती पे
जैसे मकड़ी का हो जाला
हवा चले है मनभावन,
देवदार पत्त्ो खड़काता
लगा रेंगने वन में सूरज,
रंग बैंजनी झलकाता
छिपा रहा बिल में अपने जो,
सर्प सुप्त सारे जाड़े
चितकबरा रूप अपना वह,
अब सबको दिखलाता
सूखे पत्त्ो महक रहे हैं,
सुगंध मसालों की सी आती
वृक्षों के श्वेत तनों को धूप,
अतलस-रेशम सा चमकाती
मुझ को भाता है सुखद क्षण यह,
परम् आनन्द अनोखा
फिर कसक से भर जाता मन,
लगता यह क्षण भी धोखा
बत्तीस
घूम रहा था साथ मैं उसके,
जब गहरा गई थी रात
चूम रहा होंठों को उसके,
मन में थे कोमल जज़्बात
बोली वह-“प्रिय, बाँहों में लेकर
मुझे भींच जोर से इतना
निर्दयी और बेरहम लगे तू,
किसी उद्दंड किशोर जितना”
जब थक गई वह, कहा उसने फिर
यह कोमल-स्वर में-
“सुला मुझे अब, प्रिय, थोड़ा-सा,
अपनी बाँहों के घर में
मत चूम मुझे तू इतनी ज़ोर से,
ओ अशिष्ट, बेहूदे, पागल,
रख अपना सिर छाती पर मेरी,
और न कर फिर कोई हचलच”
तारे चमक रहे थे चुप-चुप,
हम दोनों के सिर पर
शीतल ओस महक रही थी,
बरस रही थी हम पर
मुझे लाड़ उस पर आया था,
मैं रगड़ रहा था होंठ
कभी उसके गर्म गालों को छूता,
कभी नाक की नोक
बेसुध-सी सोई पड़ी थी,
कि भौंचक जागी वह ऐसे
सुखद नींद में चौंक उठा हो,
कोई नन्हा-शिशु जैसे
मुझे देखा पल भर को उसने,
खोेल आँख का कोना
मुस्काई, फिर लिपट गई मुझसे,
ज्यों हिरणी से छौना
राज रात का रहा देर तक,
उस अंधेरे संसार में
मैं था उसकी नींद का रक्षक,
वहाँ उसके दरबार में
फिर सुनहरे सिंहासन पर,
चमक दिखी एक ताज़ा
पूर्व दिशा से धीरे-धीरे
उभर आया दिनकर राजा
जब ठंड बढ़ गई सुबह-सवेरे,
तब मैंने उसे जगाया
दिन नया निकल आया है,
धीरे से उसे बताया
सूर्य चमक रहा था अरुणिम,
रुपहली आभा थी
टहल-चले हम ठंडी ओस पर,
घर उसे पहुँचाया
तैंतीस
माँ
दिन हैं गहरे जाड़े के
रात-रात भर स्तेपी में
हिम-तूफ़ान गरजते रहे हैं
हर चीज़ पर बर्फ़ लदी है
हिमअंधड़ों के उत्पात
सब बेचैनी से सहते हैं
बुर्राक हिम से अकड़ गए खेत
घर-खलिहान कुनमुना रहे हैं
पवन चोट करता खिड़की पर
शीशे तक झनझना रहे हैं
कभी-कभी घर में घुस हिमकण
ऐसा नाच दिखाते हैं
रात को जुगनू चमकें जगमग ज्यों
सबका मन बहलाते हैं
घर के भीतर जली है ढिबरी
लौ काँपे है उसकी
छायी हल्की पीली रोशनी
रात ले रही है सिसकी
माँ का रतजगा हुआ है आज
वह घर भर में टहले जाती
चिन्तित है बेहद, मौसम ख़राब है
वह पलक तक झपक न पाती
जब ढिबरी बुझने को होती
किसी पुस्तक की आड़ लगाती
और बच्चा जब रोने लगता
उसे कांधे लगा लोरी गाती
रात फैलती ही जाती है
अनंत काल-सी बढ़ती
हिमतूफ़ान दुष्ट शोर मचाता
ज्यों हिला रहा यह धरती
माँ बेहद घबराती है तब
झपकी बेहाल करती उसे जब
तभी अचानक हिमअंधड़ का
तेज़ भयानक झोंका आया
माँ काँप उठी भीतर तक गहरे
लगा उसे घर थरथराया
चीख सुनी उसने हल्की-सी
जैसे दूर कोई चिल्लाया
स्तेपी में वह पड़ी अकेली
कौन भला मदद को आए
आँखें भरी लबालब अश्रु-जल से
होंठ लगातार फड़फड़ाएँ
थकी नज़र, चेहरा उदास है
मन उसका बेहद घबराये
चौंक-चौंक उठता बच्चा भी
अपनी काली-बड़ी आँखें फैलाए...
चौंतीस
रात शांत थी, चीड़ों के पीछे
बहुत देर में झाँका चाँद
छज्जे का दरवाजा चरमरा रहा था
बेचैनी उसकी मैं रहा भाँप
हम फिर से झगड़ पड़े थे उस दिन
हमें नींद नहीं आ रही थी
क्षण अद्भुत्त था, फूलों की क्यारी
हम पर ज्यों खिलखिला रही थी
तब हम किशोर थे या कहो युवा
तू सोलह की, सत्रह का मैं था
तुझे याद है क्या, प्रिय, तूने
दरवाज़ा पूरा खोल दिया था?
क्योंकि तुझे चाँदनी से प्रणय था
फिर होंठ ढक लिए तूने रूमाल से
तेरे आँसुओं से जो तर था
तू रो रही थी फूट-फूट कर
काँप रही थी
हेयरपिन गिरा रही बालों से,
थककर हाँफ रही थी
दिल दुखी था मेरा भी बेहद तब,
चूँकि मैं था संघाती
प्रेम से उद्वेलित था मन
तुझे देख फट रही थी छाती...
मित्र मेरी! यदि होता इस समय
यह मेरे बस में
लौटा लेता मैं आज फिर
क्षण स्नेह का वह पुनः
पैंतीस
इत्तफ़ाक से हुई मुलाकात हमारी
वहाँ सड़क पर उस कोने में
मैं जल्दी में था,
गुजर रहा था लिए हुए कुछ दोने में
पल भर को बिजली-सी झलकी
वह मुझे दिखी अचानक
उसकी पलकों में बसी हुई थी
वही पुरानी रौनक
पारदर्शी कपड़े की जाली से
चेहरा उसका ढका हुआ था
उस दिन मैं कुछ परेशान था
और बेहद थका हुआ था
शायद इसीलिए लगा मुझे ऐसा कि
झोंका पुरवाई का आया
तेज़ चमकती नज़र को उसकी
मैंने पहले-सा ज़िन्दादिल पाया
बड़े स्नेह से अभिवादन में उसने
सिर मेरे समक्ष हिमाला
फिर हवा से बचने के लिए
चेहरे को थोड़ा झुकाया
और गायब हो गई वह उस कोने में
वसन्त-काल में उस दिन
उसने मुझे माफ़ कर दिया पहले,
फिर पूरी तरह भुलाया
छत्तीस
मुँह-अंधेरे जागता हूँ
खिड़की हिमकणों से ढकी है
उससे बाहर झाँकता हूँ
हिमअंधड़ की झड़ी है
दूर दिख रही साँवली छाया
यह इसाकोव गिरजा है
रंग सुनहरा उसका मुझे भाया
मन में अमन सिरजा है
ठंडा है, बर्फ़ीला है,
सुबह का यह धुंधलका
कोहरे में जो सलीब छिपा है
धुंध में भी वह झलका
काँच से सटे हैं कबूतर
लगे उनको यह मरम है
खिड़की के क़रीब तापमान
शायद थोड़ा-सा गरम है
मेरे लिए नया है यह सब
कहवे की ख़ूशबू, फ़ानूस, रोशनी
कालीन गुदगुदा
कमरा यह आरामदेह गज़ब
और हिमझड़ी से भीगा अख़बार
मन पर छाई है एक ख़शी अजब
सैंतीस
अभी रात बीती है आधी
मैं घर से बाहर निकल आता हूँ
ठंड से जमी हुई धरती पर
अपने ठक-ठक क़दम बजाता हूँ
बगिया काली है, तम छाया है,
ऊपर नभ में छितरे हैं तारे
पुआल ढकी छत चमक रही है,
इस बूढ़े खूसट घर की हमारे
हिम झरे है, इससे रंग उसका
कुछ सफ़ेद हो गया है
अर्धरात्रि में शोकाकुल हो जैसे
वह कहीं खो गया है
अड़तीस
दूर अभी दिन पूरी तरह ढला नहीं
वृक्षों की छाया अब भी धरती पर गिरती है
इस बाग की छवि लगे है रुपहली
रहस्यमयी मृदुल वह सरल सी दिखती है
उग आया है चाँद अभी से सजा-धजा
सकुचाया है शायद वसन्त की धूप से
जल-दर्पण में देख रहा वह छवि अपनी
घबराया है अस्ताचल के इस रूप से
कल फिर झाँकेगा इसी समय, इसी तरह
कल फिर दिखाई देगा वह निपट अकेला
मुझे भाये यह वसंतकाल और तेरी छवि
पर दूर लगे है अभी अपने प्यार की वेला
उनतालीस
इस लम्बी-चौड़ी, गहरी, अंधी स्तेपी में
रात उदास है टीस-भरी,
जैसे मेरे हृदय-सपन
दीप झिलमिला रहा अकेला
झिलमिल-झिलमिल
कसक बहुत है दिल में,
जले है प्रेम-अगन
किसे बताऊँ किसे दिखाऊँ
पीड़ा यह अपनी
वह तड़प, बसी जो
मन में बेहद गहरी
रात उदास है, खोई-खोई सी,
मन में है कँपनी
डगर है लम्बी,
निः शब्द स्तेपी लगे है बहरी
चालीस
गुनगुनी-सी रात है और पगडंडी यह पहाड़ी
जैतून के वन से होकर गुज़र रहा हूँ मैं
आकाश में दमके है श्वेत चन्द्रमा बिल्लौरी
दुनिया-भर की खुशियों से भरा है हृदय
प्रकाश है, अंधेरा है, दोनों छाये हैं मुझपर
यह वन लगे अनूठा जैसे कोई बाग़ीचा सलेटी
दूर जगमगा रहे हैं वहाँ पहाड़ी के ऊपर
आधी रात को दो सितारे जिद्दी और हठी
घर पहुँच गया आिख़र मैं, चमके है झोंपड़ी
चंदा दमक रहा है पुरा, है चाँदनी की झड़ी
और रात भर गूंजेगी खनखनाती नदी-सी
हँसी झींगुरों की पत्थरों के बीच पड़ी
इकतालीस
बिटिया
बार-बार मुझे सपना यह आता है
मेरे भी बिटिया है एक
जिसके विवाह का इन्तज़ार डराता है
नर्म हृदय है, स्नेह की मन में
भावना है नेक
आिख़र को वह वधू बनी
और फिर उसे सजाया गया
भाव-विह्नल हो प्यार से मैं
स्नहे-नदी में बह गया
दुल्हन के नवरूप में उसे जब
मेरे पास लाया गया
अपनी सुन्दर बिटिया को मैं
देखता ही रह गया
घूँघट हटा उसके चेहरे से
मैंने देखा उसे एक बार
वह क्षण ऐसा था कि उसे देख
मन भारी हो गया
चेहरे पर उसके लाजभरी चमक थी
आँखों में था प्यार
पर मैं सफ़ेद पड़ गया था, मुझ पर
दुःख तारी हो गया
आशीर्वचन कहे मैंने उसे फिर
घर से विदा करते हुए
नारी-जीवन के इस अनिवार्य क्षण को
शुभकामनाओं से भरते हुए
फिर सपने में मैंने देखा
घर अपना खाली
बिटिया को देखा, खुश थी वह
साथ था उसके वह मवाली
मगन थी वह, यौवन के अपने
सुख में दीवानी
मैं दुःखी था, छाई थी मुझ पर
मनहूस ली ग्लानि
जैसे क्रिया-करम किया हो मैंने
ख़ुद अपनी ख़ुशी का
वह सपना धुँधला-सा ख़त्म हो गया
मैं बहुत दुखी था
बयालीस
मैं अचानक जाग उठा था बिन कारण ही
कोई उदास-सा सपना देखा था शायद मैंने
पतझड़ का मौसम, पेड़ झलकाएँ नंगापन ही
धुँधला चाँद खिड़की से झाँके, पहने था गहने
पतझड़ में शांत खड़े थे घर-बंगला औ' बाड़ी
अर्धरात्रि में मृत पड़े थे सब पेड़ औ' झाड़ी
पर राह भटके बच्चे सा कहीं चीख रहा था
दूर वन में, काँव-काँव..., एक कौआ अनाड़ी
तैंतालीस
जूही
खिली हुई है जूही हरे वन में सुबह-सवेरे
मैं तेरेक नदी पर से गुजर रहा हूँ
दूर पर्वतों पर चमक रही हैं किरणें
इस रुपहली आभा से मन भर रहा हूँ
शोर मचाती नदी चिंगारियों से रोशन है
गर्म जंगल में जूही ख़ूब महक रही है
और वहाँ ऊपर आकाश में गरमी है या ठंड है
जनवरी की बफ�र् नीले आकाश में दहक रही है
वन जड़वत है, विह्नल है सुबह की धूप में
जूही खिली है पूरे रंग में, अपने पूरे रूप में
चमकदार आसमानी आभा फैली है अलौकिक
शिखरों की शोभा भी मोहे है मन मायावी स्वरूप में
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