लोक साहित्यिक विधा के अन्तर्गत भोजपुरी लोक गीतों में दलित विमर्श (सामाजिक समरसता एवं सांस्कृतिक उन्नयन के विशेष परिप्रेक्ष्य में) डॉ 0 ज्यो...
लोक साहित्यिक विधा के अन्तर्गत भोजपुरी लोक गीतों में दलित विमर्श
(सामाजिक समरसता एवं सांस्कृतिक उन्नयन के विशेष परिप्रेक्ष्य में)
डॉ0 ज्योति सिन्हा
प्रवक्ता-संगीत
भारती महिला पी0जी0 कालेज, जौनपुर एवं रिसर्च एसोसियेट
भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास शिमला, हिमांचल प्रदेश
लोक साहित्य किसी देश के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास का मौखिक दस्तावेज होता है। इसमें समस्त लोक जीवन का सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, आशा-निराशा रूप प्रतिबिम्बित होता है। लोक साहित्य की प्रमुख विधाओं में लोकगीत का स्थान सर्वोपरि है। लोकगीतों में मानव सभ्यता व संस्कृति का रूप अंकित रहता है। डॉ0 वासुदेव शरण अग्रवाल ने कहा है कि 'लोकगीत किसी संस्कृति के मुँह बोलते चित्र है।' (द्रष्टव्य- डॉ0 वासुदेव शरण अग्रवाल, आजकल नवम्बर 1951- अवध के लोकगीत एवं उनका शिल्प सौदर्य डॉ0 मधुरलता श्रीवास्तव, पृ0सं0-17)
वास्तव में लोकगीत मानव हृदय के सहज उद्गार है जो वह सुख में उल्लासित होकर, दुःख में दुःखी होकर समय-समय पर अभिव्यक्त किया करता है। इन गीतों की परम्परा मौखिक होती है। समाज की अमूल्य एवं अनुपम निधि है। इन लोकगीतों में हमारे समाज के विविध क्रिया-कलापों, विभिन्न अवस्थाओं, प्राकृतिक गतिविधियों व सामूहिक रूपरेखा, राजनीतिक चेतना, जीवन के संघर्ष, हर्ष-उल्लास साथ ही लय-ताल व सुर का हृदय ग्राही रूप देखने को मिलता है। उपयोगिता के आधार पर लोक गीतों के विभिन्न प्रकार है। संस्कार गीत, ऋतु गीत, श्रमगीत, जातिगीत इत्यादि अन्य प्रकारों में विषय प्रायः सामाजिक ही रहता है। अतः किसी समाज का स्पष्ट स्वरूप इन गीतों में दिखता हैं।
लोकगीत प्रत्येक प्रत्येक क्षेत्र का अपना-अपना है जिसमें उस क्षेत्र की लोक संस्कृति नीहित होती है। भोजपुरी लोकगीतों का भंडार अतयंत समृद्ध होने के कारण समाज का चित्रण बारीक से बारीक रूप में हमें प्राप्त होता है।
जनमानस के मौखिक दस्तावेज के रूप में उपलब्ध भोजपुरी लोकगीतों में उनकी आस्था, विश्वास विचार, रूढ़िया, मान्यतायें, परम्परा, लोक विवेक व लोक मूल्य इत्यादि सन्निहित होते हैं और इन्हीं तत्वों के माध्यम से समाज की स्थिति, वास्तविकताओं केा समझा जा सकता है। भारतीय समाज में विभिन्न वर्ग, धर्म व जाति के लोग रहते हैं। इन वर्गों की सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने में अपूर्व योगदान रहा है। समाज निर्माण में वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र इन चारों वर्णों का बराबर योगदान रहा है। सभी एक दूसरे के पूरक रहे हैं। आज उत्तर आधुनिक काल में दलित विमर्श एक प्रमुख मुद्दा बनकर उमरा है। दलित आन्दोलन, दलित चिन्तन जैसे विषयों पर गम्भीरतापूर्वक कार्य हो रहा है। सकारात्मक दृष्टिकोण से देखें तो लोक संस्कृति के वाहक इन भोजपुरी लोक गीतों की विभिन्न परम्परागत गीत शैलियों में दलित चिन्तन की परम्परा दिखाई देती हैं। चाहें वे संस्कार गीत हो, विवाह, पुत्रजन्म आदि के अवसर पर गायें जाने वाले गीत हो सभी गीतों में इनकी सामाजिक प्रस्थिति एवं भूमिका का चित्रण बड़े ही प्रेमपूर्ण व सौहार्दपूर्ण रूप में हुआ है। राजा व रंक सभी इन वर्गों की अहमियत को समझते हैं।
भोजपुरी लोकगीतों में वर्णित इन विषयों के आधार पर दलित समुदाय की सामाजिक वास्तविकताओं को समझा जा सकता है तथा इस दृष्टि से भारतीय लोकसाहित्य में भोजपुरी लोकगीत अपनी सार्थक भूमिका की पहलकदमी करता है।
दलित वर्ग व अन्य अति पिछड़े वर्गों के सामाजिक-सांस्कृतिक अवदान के लिये भोजपुरी लोकगीतों को एक प्रमुख स्रोत के रूप में देखा जा सकता है। दरअसल भारत के भौगोलिक सीमा में सभी भाषायी क्षेत्रों की अपेक्षा भोजपुरी क्षेत्र सबसे अधिक भूभाग में फैला हुआ है और इस क्षेत्र का जनसंख्या घनत्व भी अधिक रहा है। अतः विषयों की विविधता एवं एकरूपता अधिक दिखाई देती है। समस्त जातियों के यद्यपि अपने-अपने पृथक गीत प्रकार भी है जिसमें उनके अर्थात् उस जाति विशेष के सामाजिक जीवन की झाँकी प्रतिबिम्बित होती है और परम्परा से ये गीत प्रचलन में रहे हैं। इन गीतों में उन जातियों के कार्यों की रूपरेखा इत्यादि का वर्णन भी रहता है।
प्रारम्भ से ही यह सामाजिक धारणा रही है कि दलित वर्ग सदैव तिरस्कृत रहा है। उच्च वर्गों में उन्हें वहसमादर प्राप्त नहीं रहा परन्तु लोकगीतों की पंक्तियाँ इसकी साक्षी है कि राजा दशरथ भी रामजन्म के पूर्व कितने सम्मान से इन्हें लेने जाते हैं-
भोजपुरी लोकगीतों में दलित वर्ग के लिये अनेक शब्दों का प्रयोग मिलता है जैसे- चमार, ढंगरिन, चमाईन , धगरिन दाई, डोम इत्यादि। लोक व्यवहार में प्रचलित इन शब्दों का प्रयोग गीतों में उसी प्रकार मिलता है जैसा सामान्य बोलचाल की भाषा में व्यवह्त होता रहा है। यहाँ ''साहित्य समाज का दर्पण होता है'' की धारणा के आधार पर यह कहना अनुचित नही होगा कि इतिहास के समानान्तर लोक संस्कृति भी अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करती चली आ रही है।
दलित विमर्श ने, दलित चिन्तन ने कालान्तर में तमाम तरह के आन्दोलनों को जन्म दिया, सामाजिक सरोकार को परिभाषित किया। इससे देश की सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक परिदृश्यों में बदलाव आया।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखे तो दलितों का इतिहास यातना सहने का इतिहास रहा है। यद्यपि वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत समाज को गति देने में सभी वर्गों का समान योगदान रहा परन्तु बाद में 'शूद्र' के रूढ़ अर्थ में प्रयोग होने से वे समाज के दबे, कुचले व तिरस्कृत वर्ग के रूप में सदियों से प्रताड़ित होते रहे हैं। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतीय धर्म, संस्कृति व समाज में तिरस्कृत होते चले आ रहे दलितों को राष्ट्र की मुख्य धारा में जुड़ने का अवसर मिला। सभी को समान अधिकारों के साथ आरक्षण की व्यवस्था की गई। विद्वानों, मनीषियों एवं समाज सुधारकों ने इन दलित/अति पिछड़े वर्गों के लिए जीवन भर संघर्ष किया और उस कथन की सत्यता को अपने जीवन में उतारने का प्रयास किया जिसे अरस्तु ने कहा कि - ''असमानता क्रांति का मौलिक कारण है और क्रांति की ज्वाला सम्पूर्ण समाज को भस्मसात कर देती है। अतः समाज में विकास, समृद्धि एवं अमन चैन के लिए समानता का होना नितान्त आवश्यक है।''(द्रष्टव्य-इक्कासवीं सदी का दलित आन्दोलन, साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार- डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव, सम्पादकीय )।
बेशक आज परिस्थितियां बदली है। 21वीं सदी में दलित अब साहित्य, संस्कृति, कला, इतिहास, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक रूप में उत्तरोत्तर वृद्धि की ओर अग्रसर हो रहे हैं। वह मानवीय संवेदनाओं, सम्मानपूर्वक स्वाभिमान से जीने का अधिकार, पारस्परिक सौहार्द के साथ अपने अस्तित्व व अपनी पहचान को तलाशना चाहता है। 'दलित विमर्श', 'दलित चिन्तन', 'दलित संघर्ष', 'दलित आन्दोलन', 'दलित चेतना', जैसे अनेक विचारों के माध्यम से इस वर्ग को प्रोत्साहित व जागरूक कर एक सार्थक दिशा देने का प्रयास साहित्य द्वारा भी किया जा रहा है क्योंकि किसी भी साहित्य में व्यक्ति नहीं बल्कि समाज का प्रगटीकरण होता है। लोक साहित्य, लोक का साहित्य है। अतः लोक में घटित समस्त बातों का चिन्तन-मनन स्पष्ट रहता है। दलित, विमर्श का सामाजिक परिदृश्य इनमें अंकित है। आरम्भ से ही लोक की परम्परा गतिमान रही है, जिसमें यथार्थवादी चिन्तन धारा सक्रिय रही है। समय-समय पर जो मानव द्वारा मानव के शोषण एवं भेदभाव की प्रवृत्ति को समाप्त करने का प्रयास किया जाता रहा उसका भी अंकन है। लोक साहित्य का प्रवाह श्रुति परम्परा व मौखिक परम्परा से संचालित होता रहा है जिसका मुख्य कारण लोक का अशिक्षित होना है। आज हमें दलित वर्ग की जिस ऐतिहासिक स्थिति का बोध होता है, उसका मुख्य स्रोत लोक साहित्य ही है। आज हिन्दी साहित्य में स्त्री-विमर्श व दलित विमर्श की जो परम्परा आरम्भ हुयी है, वह लोक साहित्य में उसकी विधाओं में सदैव मुखर रही है जिसे सुसभ्य होने का ढ़ोल पीटने वाले देहाती, गंवारू व फूहड़ मानते हैं।
'दलित' शब्द पर विचार करते ही समाज में अत्यधिक पीड़ित वर्ग का चित्र हमारे समक्ष उपस्थित हो जाता है। देखा जाये तो यह वर्ग समाज का अत्यन्त उपेक्षित वर्ग माना जाता है परन्तु यह बात भी समझ में आती है कि आज दलित वर्ग में जो आक्रोश है तथा जिस अर्थ में दलित शब्द का प्रयोग होता है, वैदिक काल में यह भाव नहीं था। वहाँ वर्ण व्यवस्था, गुण-कर्म व स्वभाव के अनुरूप थी जो कालान्तर में जाकर एक मात्र आधार जन्म ने ले लिया और जाति व्यवस्था ने जन्म लिया। इस जाति व्यवस्था ने शूद्रों को उपेक्षित कर दिया। परन्तु वर्ण-व्यवस्था वास्तव में समाज की एक दृढ़ आधारशिला थी। उसमें एक समतामूलक समाज की भावना निहित थी जो कालान्तर में विकृत रूप लेती गयी। गुण और कर्म के आधार पर व्यवस्थित समाज में न कोई दलित है और ना ही कोई देव।
लोकगीतों में यही भाव दिखाई देता है। जिस अवसर पर जिस वर्ग का काम है उसे महत्व दिया गया। उसे सम्मान दिया गया, उसके कार्य को सम्मान दिया गया। इन गीतों में व्यक्ति को ऊँचा-नीचा न समझ कर समान समझा गया। व्यक्ति से व्यक्ति को तोड़ने की बात इन गीतों में नहीं है, बल्कि ऐसे चित्र अंकित है जो व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ते हैं। पुत्र जन्म के अवसर पर गायें जाने वाले अधिकांश गीतों (सोहर, खिलौना, बधावा) में इनका वर्णन रहता है। इसके अतिरिक्त विवाहगीत, देवीगीत, छठ गीत, जाति गीत, श्रम अथवा क्रिया गीत, होरी, झूमर इत्यादि भोजपुरी लोकगीतों की विभिन्न शैलियों में इनकी उपस्थिति रहती है। जीवन से लेकर मृत्यु तक समस्त संस्कारों के अवसर पर इन वर्गों की जो उपस्थिति व कार्य आवश्यक रूप से निर्वहन होता रहा है उसका सचित्र अंकन इन गीतों में रहता है। इनमें हमारे समाज की एक-एक रेखा, सामाजिक बोध की एक-एक अवस्था, सामूहिक विजय-पराजय, प्रवृत्ति की गतिविधियां, पारिवारिक पारस्परिक सम्बन्ध, आशा-निराशा, मनन एवं चिन्तन, सबका हृदयग्राही वर्णन मिलता है। देखा जाये तो जीवन की वास्तविक विवेचना इनमें देखने को मिलती है।
किसी भी साहित्य/लोकसाहित्य का मूल उद्देश्य यह होता है कि कैसे एक सभ्य समाज का निर्माण हो ? बुराइयों, विसंगतियों का नाश एवं सद्भाव एवं सदगुण का वास कैसे हो ? विभिन्न जातियों व गुटों में बंटे समाज को संगठित एवं सुसंस्कृत करने के लिये आवश्यक है कि उनका गहन अध्ययन एवं विश्लेषण कर उनकी समस्याओं विषमताओं को समाज के समक्ष रखा जाये। दलितों के आत्म सम्मान एवं स्वाभिमान की भावना को झंकृत कर इस बंधन से मुक्त करना है कि वे दलित है, अछूत है, शोषित है, पीड़ित है।
आरम्भ से ही शिक्षा व ज्ञान से दूर दलित वर्ग को देश की आजादी के बाद मुख्यधारा से जुड़ने का अवसर मिला है। प्रत्येक क्षेत्र में उनकी सहयोगिता एवं सहभागिता सुनिश्चित की जाने लगी है। दलित विमर्श के सकारात्मक पहलुओं को समाज के समक्ष रखकर देश को, राष्ट्र एक नई दिशा एक गति प्रदान करें यही समय की मांग है।
लोकगीतों की परम्परा मौखिक है तथा यह श्रुत विद्या रही है, इसी कारण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती रही है। आज जो भी हम अध्ययन-चिन्तन, मनन-लेखन कर रहे है। वह हमारी श्रुत-परम्परा पर ही आधारित है, जो अपनी नानी, दादी, माँ से सुना है उसे ही तो कागजों पर उतार रहे हैं। आवश्यक भी है कि हम लोकगीतों की निर्मल धारा की निरन्तरता को बनाये रखें क्योंकि यही हमारी संस्कृति की मूल है। यह अनेक परम्पराओं व विश्वासों की संस्कृति है, जो युगों से लोक चेतना में प्रवाहित होती आई है। इन लोकगीतों के माध्यम से लोक मानस, ग्रामीण जनसमुदाय, अपने जीवन की विषमताओं, दुःखों को अभिव्यक्त कर न केवल उनसे मुक्ति पाते है बल्कि जीवन के लिए अतिरिक्त ऊर्जा भी पाते हैं।
यहाँ विवेच्य मुद्दा ऐतिहासिक संदर्भों में इन्हीं लोगों की उपस्थिति, सहयोग, सहभागिता से निर्मित इनकी सामाजिक-सांस्कृतिक जीवनचर्या, इनके कार्य स्वरूप व सम्मान को लेकर है। भोजपुरी लोकगीतों ने इस 'दलित विमर्श' को अपने आंचल में सहेज कर रखा है।
संदर्भ सूची
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शुद्रों का प्राचीन इतिहास- रामशरण शर्र्मा
भारतीय संस्कृति - एक अजस्र प्रवाह- उदय नारायण तिवारी
भोजपुरी साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास- डा0 चन्द्रमा सिंह
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लेखिका परिचय-
डॉ0 ज्योति सिन्हा लेखन के क्षेत्र में एक जाना पहचाना नाम है। सांस्कृतिक एवं सामाजिक सरोकारों की प्रगतिवादी लेखिका साहित्यिक क्षेत्र में भी अपने निरन्तर लेखन के माध्यम से राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाती रही हैं। संगीत विषयक आपने पॉच पुस्तकों का सृजन किया है। आपके लेखन में मौलिकता, वैज्ञानिकता के साथ-साथ मानव मूल्य तथा मनुष्यता की बात देखने को मिलती है। अपने वैयक्तिक जीवन में एक सफल समाजसेवी होने के साथ महाविद्यालय में संगीत की प्राघ्यापिका भी हैं ! आपको जौनपुर के भजन सम्राट कायस्थ कल्याण समिति की ओर से संगीत सम्मान, जौनपुर महोत्सव में जौनपुर के कला और संस्कृति के क्षेत्रा में उत्कृष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया गया। संस्कार भारती, सद्भावना क्लब, राष्ट्रीय सेवा योजना एवं अन्य साहित्यिक, राजनीतिक एवं इन अनेक संस्थाओं से सम्मानित हो चुकी डॉ0 ज्योति सिन्हा के कार्यक्रम आकाशवाणी पर देखें एवं सुने जा सकते हैं। आप वर्तमान में अनेक सामाजिक एवं साहित्यिक संस्थाओं से सम्बद्व होने के साथ अनेक पत्रिाकाओं के सम्पादक मण्डल में शोभायमान है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में संगीत चिकित्सा (2010-13) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
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