धरती नहीं घूमती श्याम नरायण कुन्दन ’चम्पा बेटा, आज फिर आप उन आवारा लड़कों के साथ घूमने गईं थीं?’ ’नहीं तो, आपको किसने बताया?’ ’बेटी आप झ...
धरती नहीं घूमती
श्याम नरायण कुन्दन
’चम्पा बेटा, आज फिर आप उन आवारा लड़कों के साथ घूमने गईं थीं?’
’नहीं तो, आपको किसने बताया?’
’बेटी आप झूठ बोल रहीं हैं। आप जानती हैं न कि झूठ बोलना पाप है?’
’मम्मी मैं अपनी सहेली के घर गई थी।’
’फिर झूठ।’
’ओफ्फो मम्मी।’
’बेटे गलत काम करने वाले और झूठ बोलकर उस पर पर्दा डालने वाले लोग मरने के बाद नरक में जाते हैं।’
’ओह मम्मी, अब तक तो मैं झूठ बोल रही थी पर अब आप झूठ बोलने लगीं। आपको यह किसने बता दिया कि मरने के बाद लोग स्वर्ग या नरक में जाते हैं?’
’बेटे, यही विधि का विधान है। हमारे धर्म-ग्रंथों में भी यही लिखा हुआ है।’
’लिखा होगा मम्मी पर यह सच नहीं है। हमारी टीचर बतातीं हैं कि इस संसार में स्वर्ग या नरक जैसी कोई चीज नहीं है। यह सिर्फ कपोल-कल्पना और झूठ है।’
’नमस्कार’
’नमस्कार सर, आइए।’
३० वर्षीया माँ राधिका और उसकी १२ वर्षीया बेटी चम्पा की तकरार के बीच कृष्णदेव बाबू अर्थात चम्पा के गृह शिक्षक का प्रवेश हुआ।
’देखो बेटे, बात कपोलकल्पित हो या झूठी अगर उसमें जीवन का सार छिपा हो तो उसे मानने में ही हम सबकी भलाई है।’ कृष्णदेव जी पास ही पड़ी चारपाई पर बैठते हुए बोले।
’मगर क्यों मास्टर जी?’ चम्पा ने उत्सुकतावश पूछा।
’बेटे यह बात थोड़ी बड़ी है। तुम्हारी समझ में नहीं आएगी। जब बड़ी हो जाओगी तो खुद-ब-खुद समझ जाओगी। जाओ जाकर अपनी पढ़ाई की तैयारी करो।’
’जी मास्टर जी।’ चम्पा धम्-धम् करती अन्दर भाग गई।
’इसका मतलब है आप छिपकर हमारी बाते सुन रहे थे।’
’हाँ, तुम माँ-बेटी के बीच बातें ही कुछ ऐसी मजेदार हो रही थीं कि मैं खड़ा होकर सुनने लगा।’
’अच्छा ठीक है, आप नल पर हाथ-मुँह धो लीजिए। मैं आपके लिए पानी लाती हूँ।’
’ऐसी भी क्या जल्दी है राधिका? कुछ देर बैठो न।’
कृष्णदेव जी राधिका के मायके भरतपुर के हैं। इसलिए वे अधिकार से राधिका को तुम या उसके नाम से ही बुलाते हैं।
’अरे ! ऐसा कैसे हो सकता है? आप इतनी दूर से साइकिल चलाकर आ रहे हैं।’
’अच्छा तो यहाँ से महज दो किमी. दूर स्थित भरतपुर दूर हो गया?’
’कृष्णदेव जी दूरी कितनी भी कम हो, मेहमान तो मेहमान ही होते हैं।’
’तुम औपचारिकता निभा रही हो राधिका। तुम्हें पता होना चाहिए रोज आने वाला मेहमान नहीं होता।’
’तो फिर...?’
’वह तो एक प्रकार से घर का सदस्य बन जाता है।’
’ठीक है घर के सदस्य जी आप चाय तो पीएँगे न?’
’पर चाय रोज तो तुम अन्त में पिलाती हो न, फिर आज पहले क्यों?’
’अच्छा बाबा छोड़िए।’
’हाँ अब ठीक है। जब तक चम्पा नहीं आ जाती तब तक चुपचाप बैठो यहाँ।’
’अरे नहीं, मैं ऐसे नहीं बैठ सकती। रसोईघर में बहुत सारा काम पड़ा हुआ है।’ इतना कहकर राधिका रसोईघर के अन्दर घुस गई।
’राधिका तुम बिल्कुल नहीं बदली।’ कृष्णदेव भी पीछे-पीछ रसोई में आ गए।
’क्या मतलब?’
’मतलब यह कि बचपन से ही तुम्हें कुछ न कुछ हमेशा करते रहने की आदत है। तुम आराम करना तो जानती ही नहीं।’
’जिन्दगी रूकने और ठहरने का नाम नहीं है कृष्णदेव जी। अगर वह रूकी तो समझो गई।’
’पर यह मत भूलो कि जिन्दगी एकरस चलते रहने का भी नाम नहीं है। उसमें जीवन्तता बनाए रखने के लिए बदलाव जरूरी है।’
’किस तरह का बदलाव कृष्णदेव बाबू?’
’राधिका इतनी नासमझ मत बनो।’
’मैं इतनी नासमझ नहीं हूँ कृष्णदेव बाबू पर आप भूल रहे हैं कि मैं एक स्त्री हूँ।’
’राधिका ये सब पुरानी बातें हैं। तुम पढ़ी लिखी हो। स्नातक हो। तुम इसे मुझसे बेहतर तरीके से समझती हो।’
’समझती हूँ इसलिए तो कहती हूँ कृष्णदेव बाबू। एक स्त्री के लिए कोई भी बात नई नहीं हो सकती। उसका धर्म बस यही है कि वह बने-बनाए नियमों में रहे, जीए और मर जाए।’
’तुम अपने आपको जला रही हो राधिका।’
’स्त्री जलती है तभी तो जीवन में उजाला बना रहता है कृष्णदेव बाबू। अगर वह बुझी तो समझो.......।’
’राधिका मैं तुमसे बहस नहीं करना चाहता। मैं तो तुमसे सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि अगर तुम चाहो तो अब भी सब कुछ ठीक हो सकता है।’
’ठीक होने की बात वहाँ उठती है कृष्णदेव बाबू जहाँ कुछ कमियाँ होती हैं। जहाँ कुछ बिगड़ा होता है। यहाँ तो सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है।’
’मास्टर साहब चलिए न। मैं तैयार हूँ।’
अगर चम्पा ने आकर व्यवधान नहीं पैदा किया होता तो राधिका कृष्णदेव बाबू को बहुत कुछ बताती। कहती कि कृष्णदेव बाबू एक स्त्री के लिए पति ही सब कुछ नहीं होता। मर्यादा भी बहुत कुछ होती। वह संसार में इसलिए आती है कि मर्यादा बनाए रखे।
खैर कृष्णदेव बाबू चम्पा को पढ़ाने के लिए बैठक की तरफ बढ़ गए और राधिका रसोई के कामों में लग गई।
पर पता नहीं क्यों आज उसका मन किसी भी काम में नहीं लग रहा था। रह-रहकर कृष्णदेव बाबू द्वारा कही गई बातें उसे उद्वेलित कर रही थी। उसे कृष्णदेव बाबू पर गुस्सा आ रहा था। आखिर वे लगते ही क्या हैं उसके कि उसकी जिन्दगी के बन्द पन्नों को पलटे? बस इतना ही न कि कभी उसने उनको प्यार किया था। प्यार ही तो किया था कोई बड़ी बात तो नहीं की थी? इस संसार में हजारों लड़कियाँ प्यार करती हैं तो यह जरूरी तो नहीं कि सबको उनका प्यार मिल ही जाए। माँ-बाप, समाज, मर्यादा इसको भी तो देखने हैं। उसने भी वैसा ही किया जैसा हजारों लड़कियाँ करती हैं। माँ-बाप ने जिसे चाहा उसके साथ लगा दिया। वह चली आई। यह अलग बात है कि पति का साथ अधिक नहीं लिखा था और वह चम्पा को पाकर विधवा हो गई। आज चम्पा ही सब कुछ है उसके लिए। इससे अधिक अब वह चाहती भी नहीं।
उधर कृष्णदेव बाबू की भी हालत कुछ वैसी ही थी। वे चम्पा के पास बैठे थे पर वहाँ होकर भी वहाँ नहीं थे। वे राधिका के बारे में सोच रहे थे। समझ नहीं पा रहे थे कि राधिका आखिर अपने आपको सजा क्यों दे रही है। कॉलेज के दिनों में तो वह काफी जुझारू हुआ करती थी। कहती थी कि वह समाज के सड़े-गले नियमों को वह नहीं मानती। वह मानवमात्र का विभेद नहीं स्वीकारती। इसके सबसे बड़े उदाहरण तो वे खुद हैं। एक उच्च वर्ण की लड़की होकर भी उसने उन जैसे दलित से प्यार किया। उन्होंने भी उसे उतना ही चाहा। यह अलग बात है कि वे एक न हो सके। पर आज.........।
’मास्टर साहब आप कुछ सोच रहे हो?’ चम्पा ने उन्हें टोका।
’नहीं तो।’
’तो बताइए न हमें आज क्या पढ़ना है?’
’क्या पढ़ना है तुम्हें नहीं पता?’
’आज के दिन तो हम लोग भूगोल पढ़ते हैं।’
’तो निकालो भूगोल और बताओ कि धरती घूमती है या सूरज?’
’सूरज’
’शाबास’
’अच्छा बताओ, पृथ्वी कितने घण्टों में सूरज का एक चक्कर लगाती है?’
’२४ घण्टों में।’
’बहुत खूब। अब अगला प्रश्न।’
’अरे क्या पूछा-पूछौवल चल रहा है भाई?’ ऊँचे कद-काठी और बड़ी-बड़ी मूछों वाले घर के साठ वर्षीय मुखिया चौधरी ज्ञानचंद ने बैठक प्रवेश करते हुए टोका।
’दादा जी।’ चम्पा चहकी।
’कुछ नहीं चौधरी साहब, बस ऐसे ही, बच्ची को भूगोल पढ़ा रहा था।’ कृष्णदेव बाबू ने ज्ञानचंद का अभिवादन करते हुए कहा।
’ई भूगोल कौन सा विषय है मास्टर बाबू?’ चौधरी ज्ञानचंद ने अगला सवाल किया।
’यह एक नया विषय है चौधरी साहब जिसके अन्तर्गत भू अर्थात पृथ्वी के बारे में पढ़ाया जाता है।’
’अरे तब तो यह मजेदार विषय होगा। मैं भी थोड़ा बहुत सुनूँगा।’ चौधरी ज्ञानचंद सामने पड़ी चौकी पर जम गए।
’हाँ तो चम्पा हम लोग कहाँ थे?’ कृष्णदेव बाबू फिर चम्पा की ओर मुखातिब
हुए।
’मास्टर साहब आप कुछ नया सवाल पूछने वाले थे।’
’ठीक है बताओ पृथ्वी कितने दिनों में सूरज का एक चक्कर लगाती है?’
’३६५ दिन में।’
’बताओ दिन-रात कैसे होता हैं?’
’सूरज स्थिर रहता है और पृथ्वी अपनी धुरी पर चक्कर लगाती रहती है। इस तरह पृथ्वी का जो भाग सूरज के सामने पड़ता है वहाँ दिन और जो भाग अंघेरे में रहता है वहाँ रात होती है।’ चम्पा एक ही साँस में कह गई।
’क्या कहा तुमने?’ चौधरी साहब ने हस्तक्षेप किया।
’यही कि धरती अपनी धुरी पर घूमती है इसलिए दिन रात होता है।’ चम्पा ने दोहराया।
’क्यों मास्टर साहब यह सही बोल रही है?’
’हाँ’ कृष्णदेव बाबू ने चम्पा का समर्थन किया।
’अरे यह कैसे हो सकता है?’ चौधरी साहब ने आश्चर्य व्यक्त किया।
’क्यों नहीं हो सकता चौधरी साहब?’
’मास्टर साहब, हम लोग तो रोज सूरज भगवान को सुबह पूरब में उगते और दिन भर यात्रा करके शाम को पश्चिम में डूबते देखते हैं?’
’चौधरी साहब जो आप देखते हैं, महसूस करते हैं वह बिल्कुल सही है। पर सच वह नहीं जो आप देखते हैं। यह हमारी आँखों का भ्रम है। ठीक वैसे ही जैसे हम किसी रेलगाड़ी में यात्रा करते समय बाहर पेड़-पौधे को भागते हुए देखते हैं जबकि सच्चाई यह होती है कि हम भाग रहे होते हैं और पेड़-पौधे स्थिर होते हैं।’
’मास्टर साहब आपने तो मुझे बड़े चक्कर में डाल दिया।’
चौधरी साहब बहुत सीधे-साधे व्यक्ति थे। उनका सारा जीवन खेत और खलिहानों में ही बीता था। उन्होंने अब तक यही सुना जाना था कि सूरज उगता है डूबता है। धरती तो स्थिर रहने वाली माता है। ऐसे में उनका आश्चर्य लाजिमी ही था।
’चौधरी साहब, आप गलत नहीं है। कुछ समय पहले तक सारी दुनिया भी ऐसा ही समझती थी जैसा आज आप सोच रहे हैं। पर विज्ञान की खोजों ने लोगों की सोच में बदलाव ला दिया है। इसलिए आपको भी अपनी पुरानी अवधारणा में परिवर्तन लाना चाहिए।’ कृष्णदेव बाबू ने चौधरी साहब को समझाया।
’पर मास्टर साहब अगर धरती घूमती तो हम लोगों के घरों के द्वार पूरब से पश्चिम और पश्चिम से पूरब क्यों नहीं घूम जाते?’
’चौधरी साहब सब होता है। धरती भी घूमती है और उसके साथ हम और
हमारे घर भी पर हम लोग और हमारे घर धरती की तुलना में इतने छोटे हैं कि इस बात का हमें आभास ही नहीं होता।’ कृष्णदेव बाबू ने तार्किक ढंग से अपनी बात रखा।
’इ सब बकवास बात है चौधरी साहब। दो अच्छर पढ़कर कुछ लोग मास्टर बन जाते हैं और जनता को उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ाने लगते हैं।’
बहस सुनकर गाँव के कुछ और लोग भी वहाँ जमा हो गए। उन्हीं में से एक व्यक्ति जिसको कि वैज्ञानिक खोजों पर तनिक भी विश्वास नहीं था आगे बढ़कर बोला।
’चौधरी साहब अगर पृथ्वी घूमती हुई ऊपर नीचे होती तो क्या हम लोग पाताल में नहीं गिर जाते?’ दूसरे व्यक्ति ने अपनी शंका रखी तो लोग ठठाकर हँसने लगे।
’चम्पा समझाती क्यों नहीं इन लोगों को।’ अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में फँसे कृष्णदेव बाबू ने चम्पा का सहारा लिया।
’दादा जी मास्टर साहब बिल्कुल सही कह रहे हैं। हमें स्कूल में भी यही बताया जाता है।’ चम्पा ने निर्भीक होकर कहा।
’तुम चुप रहो, अगर स्कूलों में ऐसी ही उल्टी-पुल्टी बातें पढ़ाई जाती रहेंगी तो तुम सीखोगी क्या, खाक?’ चौधरी साहब ने चम्पा को डांटा तो वह सटसटा गई।
’अरे आप लोग किस बात में उलझ गए? ये लीजिए चाय पीजिए।’ राधिका देर से उनकी बातें सुन रही थी। जब उससे रहा नहीं गया तो बात को रफा-दफा करने की गरज से हस्तक्षेप किया।
’बेटी तुम चाय रखकर अन्दर जाओ। जब तक मास्टर साहब अपनी बात वापस नहीं लेते यह मुद्दा समाप्त नहीं होगा।’ चौधरी साहब ने अपना फैसला सुनाया।
कृष्णदेव बाबू के लिए यह एक नई आफत थी। वे समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें या न करें। राधिका कृष्णदेव बाबू के मनःस्थिति को समझ रही थी। सचमुच उन पर उसे बड़ी दया आ रही थी।
’कृष्णदेव बाबू आखिर आप मान क्यों नहीं लेते कि पृथ्वी नहीं घूमती।’ राधिका ने एक बार फिर हस्तक्षेप किया। कुछ और लोगों ने भी इस बात को दोहराया।
कृष्णदेव बाबू कभी भीड़ की तरफ देखते तो कभी राधिका की तरफ। कभी चौधरी साहब की तरफ देखते तो कभी चम्पा की तरफ।
’देखिए कृष्णदेव बाबू, जिस झूठ में जीवन का सार छिपा होता है उसे मान लेना अनुचित कदापि नहीं होता।’ राधिका ने कृष्णदेव बाबू की तरफ आँखों से कुछ इशारा करते हुए कहा।
’हाँ, धरती नहीं घूमती।’ कृष्णदेव बाबू ने एकाएक घोषणा कर दी।
सत्य हार गया और झूठ जीत गया। लोग वाह, वाह करने लगे।
कृष्णदेव बाबू एक बार राधिका की आँखों में झाँका और ठंडी पड़ चुकी चाय को एक घूँट में पी गए।
’मगर मास्टर साहब......?’ चम्पा ने आश्चर्य व्यक्त किया।
’चम्पा बेटी यह गहरी बात है। तुम नहीं समझोगी।’
कृष्णदेव बाबू की बात सुनकर राधिका ने मुस्करा भर दिया।
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’हाँ, धरती नहीं घूमती।’
जवाब देंहटाएंसत्य हार गया और झूठ जीत गया। लोग वाह, वाह करने लगे।
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