पाप की दुनिया कमला नगर के अंतराम सिंह केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल में हवलदार थे । लंबा कद, गठीली देह और नाक के नीचे लंबी-लंबी घनी खिचड़ी म...
पाप की दुनिया
कमला नगर के अंतराम सिंह केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल में हवलदार थे। लंबा कद, गठीली देह और नाक के नीचे लंबी-लंबी घनी खिचड़ी मूँछें। मिजाज एकदम कड़क और चेहरा रोबीला था। वह बड़े ही विचारशील और धर्मनिष्ठ पुरूष थे। जिसे एक बार भी घुड़क देते वह दुबारा उनके सामने आने की जुर्रत न करता। उसकी सारी हक्की-बक्की भूल जाती।
पूरे गाँव में उनका बहुत दबदबा था। बिल्कुल ही खुर्राट पुरूष थे वह। आस-पास के लोग उनकी बड़ी कद्र करते। अपने हर खास कामकाज में उनकी सलाह लेते। उनका रौब देखकर सींकिया पहलवानों के पसीने छूटने लगते। उनके रहते क्या मजाल कि उनके अड़ोस-पड़ोस के किसी व्यक्ति को कोई सताने की साहस भी कर सके।
लेकिन, वह एक पुलिस बाले जो ठहरे इसलिए थे बड़े काइयां। रूपए-पैसे से उन्हें बड़ा मोह था। चमड़ी चली जाए मगर दमड़ी न जाने पाए एक-एक पाई पर जान देते थे। कभी एक पैसा भी नाजायज खर्च न करते। बड़े ही कंजूस किस्म के व्यक्ति थे।
घर में उनकी अर्धांगिनी शिवानी देवी के अलावा एक पुत्री संगीता और तीन पुत्र थे। शिवानी देवी बहुत ही सुशीला और भद्र महिला थीं। पुराने ख्यालातों के होते हुए भी पति-पत्नी को शिक्षा का मूल्य भलीभांति मालूम था। इसलिए उन्होंने पुत्री और तीनों पुत्रों को पढ़ा-लिखाकर काबिल बना दिया। उनका बड़ा बेटा धर्मवीर पढ़-लिखकर फौज में भर्ती होकर कर्नल बन गया। उसकी ड्यूटी जम्मू-कश्मीर के पूँछ जिले के एक बड़े कैंप में लगा दी गई।
फौज में शानदार नौकरी लगने के बाद अंतराम ने एक सुशिक्षित और सुंदर कन्या देखकर उसका विवाह कर दिया। उनका मॅझला बेटा कर्मवीर और छोटा पुत्र धनपाल धर पर ही रहकर खेतीबाड़ी का काम सँभालते थे। उनकी घर-गृहस्थी एकदम ठीक-ठाक चल रही थी। आपस में एक-दूसरे से बड़ा लगाव था। कोई किसी बात पर किसी का विरोध न करता था। घर-परिवार हो या खेतीबाड़ी का काम, आपस में सला-मशविरा करके पूरा कर लेते। घर में क्लेश या तकरार नाम की कोई चीज ही न थी। बल्कि, यह समझिए कि उनके परिवार में बड़ी शांति थी।
मगर, कुदरत के खेल भी बड़े निराले हैं। एक ओर साठ साल की उम्र पूरी होते ही अंतराम नौकरी से रिटायर होकर अपने घर आ गए। अब उनका गुजर-बसर उनके पेंशन पर ही निर्भर हो गया। दूसरी ओर धर्मवीर की शादी होते भारत और पाकिस्तान की सरहद पर दोनों मुल्कों के बीच कारगिल नामक अचानक घमासान जंग छिड़ गई। जंग में देश के बहुत से फौजी जवान और हाकिम शहीद हो गए। उस युद्ध में शामिल धर्मवीर सिंह भी हलाक हो गए।
उनकी नई-नवेली पत्नी सुंदरी जो अभी उन्हें भलीभांति समझ भी न पाई थी भरी जवानी में ही एकाएक विधवा होकर जिंदगी गुजारने को विवश हो गई। हर नवयौवना के मन में शादी की घड़ी आने पर एक नई दुनिया सजाने-सँवारने की बड़ी हसरत समायी होती है। वह पंख न होने पर भी हर वक्त स्वछंद मन से उड़ती-फिरती रहती है। विवाह की मुहूर्त निकट आते ही उसके पैर जमान पर नहीं पड़ते हैं। वह अपनी सहेलियों के संग खूब इठलाती है पर, बेचारी सुंदरी के मन की बात मन में ही रह गई। वह अकेली थी अकेली ही रह गई। उसके सारे सपने देखते ही देखते चूर-चूर हो गए।
सावन आने से पहले ही उसके जीवन में मानो अकाल पड़ गया। उसकी हँसती-खेलती जिंदगी में बहार आने से पहले ही पतझड़ आने से उसका सब कुछ तहस-नहस हो गया। असमय ही उसका सुहाग उजड़ने से उसकी दुनिया एकदम अंधेरी हो गई। उसका मनोरम सुंदर संसार पल भर में ही उजड़ गया। अपने मां-बाप और भाई-बहनों को वह कर्मजली अभागन पहले ही छोड़ चुकी थी। अब इस निष्ठुर जग में उसका कोई भी न था। उसका अच्छा-भला विवाहित जीवन कलंकमय होकर रह गया। अंधविश्वास में फंसे लोग उसे ताने मार-मारकर कोसने लगे।
जबकि धर्म के असमय ही मरने में उसका कोई कसूर न था फिर भी लोग उसे अपने व्यंग्य बाणों से अनायास ही घायल करने लगे। बल्कि, यह कहिए कि उसका जीना दूभर हो गया। लोग उसे डायन और चुड़ैल नाम से नवाजने लगे। कोई कुछ कहता तो कोई कुछ।
वे उसे देखकर कहने लगे-अरे भइया! यह स्त्री नहीं वरन, राक्षसी है राक्षसी। घर में आते ही अपने मर्द को खा गई। बड़ी ही कुलटा नारी है। अगर, यह चाहती तो अपने उसे जंग में जाने ही न देती। जब वह फौजी फरमान पाकर सरहद पर लड़ने के लिए जाने लगा तब मान-मनुहार करके यह उसे वहाँ जाने से रोक सकती थी। मगर, इसने उसे खुशी-खुशी घर से जाने दिया इसलिए यह औरत के नाम पर एक पिसाचिनी है। बेचारे अंतराम का तो घर ही उजड़ गया। उनका सब कुछ लुट गया।
रणभूमि में देश की आन पर मर-मिटने वाले धर्मवीर की अकाल मृत्यु से बाबू अंतराम और उनकी पत्नी शिवानी देवी पर भी अचानक मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा मगर जवान, पराक्रमी और होनहार पुत्र को देश की खातिर खोकर भी उनके मन को बड़ा सुकून मिला। उन्हें अपने शूरवीर बेटे पर बड़ा गर्व महसूस हुआ। उनका बड़ा बेटा रणस्थल में देश पर न्यौछावर हो गया लेकिन, अपने जीते जी उसकी लाश को कंधा देने पर उन्हें अपार कष्ट भी हुआ। पति-पत्नी मन ही मन अंदर से टूटकर एकदम बिखर गए। कुछ ही दिनों में उनके सारे अरमान मिट्टी में मिल गए।
धर्मवीर की मृत्यु के कुछ दिन बाद शोक-संतृप्त परिवार को सांत्वना देने की गरज से बाबू अंतराम सिंह को फौज की ओर से करीब पैतीस लाख रूपए बीमा और क्षतिपूर्ति के रूप में मिले। इतने रूपए उन्होंने सारी उम्र न देखा था। उनकी आँखें मानो चुँधिया गईं। वे एकदम फटी की फटी रह गई। रूपए हाथ में आते ही वह धीरे-धीरे धर्मवीर को भूल गए।
उन्होंने सारे रूपए ले जाकर अपने छोटे पुत्र धनपाल को देकर कहा-बेटा धनपाल! बैंक में तुम्हारा खाता है ही इन रूपयों को अपने खाते में वहाँ वहाँ जमा करा दो। ये बैंक में एकदम सुरक्षित रहेंगे। जब कोई जरूरत पड़ेगी तब निकाल लेंगे। इतने रूपए घर में रखना खतरे से खाली नहीं है। घर में हमेशा चोर-उचक्कों का डर लगा रहता है।
तब धनपाल ने विस्मय से पूछा-क्या मँझले भइया को इसमें से कुछ न देंगे?
यह सुनकर अंतराम बोले-नहीं। एक पाई भी नहीं। इन पर और किसी का कोई हक नहीं है। ये रूपए नहीं बल्कि, मेरे बड़े बेटे की जिंदगी की कीमत है। इनमें से मैं किसी को एक फूटी कौड़ी भी न दूँगा। ये रूपए सिर्फ मेरे हैं और किसी के नहीं।
धनपाल पित्राज्ञा पालन में निपुण था ही वह उनके हुक्म का पालन करते हुए रूपए ले जाकर फौरन बैंक में जमा करा दिया। न बेटी को और न मँझले बेटे को बाबू अंतराम ने किसी को एक भी पैसा न दिया। रूपए बैंक में जमा होते ही सब लोग बिल्कुल निश्चिंत और बेफिक्र हो गए। कुछ ही दिन व्यतीत हुए कि रूपयों का ढेर देखकर अंतराम के मन में धीरे-धीरे फर्क आने लगा। वह एकाएक ईमानदारी से बेइमानी पर उतर आए। बल्कि, यह कहिए कि वह बिल्कुल अधर्मनिष्ठ हो गए। उनके मन में पाप समा गया। अमानत में खयानत उत्पन्न हो गई। उनकी नियत में फर्क आते ही कुछ लोगों ने उन्हें भड़काना भी शुरू कर दिया।
उन्होंने उनसे कहा कि अंतराम बाबू! बेटे के मर जाने पर पुत्रवधू अपनी कोई नहीं होती। जब आपका बेटा ही न रहा तो अब युवा, विधवा पुत्रवधू से क्या रिश्ता बचा है। उसे उसके पीहर पहुँचा दीजिए। वह अभी जवान और खूबसूरत है। उसके मां-बाप कहीं देखभालकर उसका दूसरा विवाह कर देंगे। पुनर्विवाह होने से उसका जीवन ठीक-ठीक गुजर जाएगा। जब आपका बेटा ही नहीं रहा तब उसे अपने घर में रखकर क्या करेंगे? उस बेचारी ने अभी दुनिया में देखा ही क्या है? संसार में कुछ ऐसे अजीब लोग भी हैं जिनके दिमाग में कोई भली बात हरगिज नहीं बैठती है पर, खराब और अन्यायपूर्ण बात वे बहुत ही जल्दी समझ जाते हैं। अंतराम बाबू भी उनमें से ही एक थे। लोगों की यह राय फौरन उनके मन भा गई।
इसके अंतराम बाबू, अपने समधी और सुंदरी के पिता रघुवीर सिंह को संदेश देकर बुलवा लिए। उनके आने पर वह बड़ी चालाकी से अपने मन के भावों को छिपाकर उनसे बोले-भाई साहब, मेरी दुनिया तो उजड़ ही गई बेचारी सुंदरी का जीवन भी तहस-नहस हो गया। वह मासूम न जाने कैसे अपना दिन व्यतीत कर रही है। मेरे बेटे के असमय ही संसार से चले जाने से उसकी जिंदगी बिल्कुल बीरान हो चुकी है। इसलिए मेरी मानिए तो कुछ समय के लिए उसे ले जाकर अपने पास रख लीजिए। जब आप लोगों के बीच रहकर उसका मन कुछ बहल जाएगा तब हम उसे फिर यहाँ बुला लेंगे।
उनका विचार सुनकर रघुवीर सिंह ने कहा-अरे भाई साहब, आप कैसी बात कर रहे हैं? सुंदरी हमारी लाडली बेटी है। उसका दर्द हमारा भी दर्द है। कुछ दिन की क्या बात है अगर, आपको एतराज न हो तो हम उसे साल-दो साल अपने पास रख सकते हैं।
यह सुनकर अंतराम बाबू मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उदास मन से कहा-अजी नहीं, ज्यादे नहीं बस, साल-छः महीने के लिए रख लीजिए। दिल का कुछ बोझ उतरने से उसका मन बदलते ही हम तत्काल उसे अपने पास ले आएंगे।
रघुवीर सिंह बहुत ही निष्छल और ईमानदार पुरूष थे। उनके मन में छल-कपट नामकी कोई चीज न थी। वह झट अ्रतराम पर यकीन कर लिए। उन्होंने सोचा-समधी जी ठीक ही कह रहे हैं। युवावस्था में शादी के कुछ ही दिन बाद विधवा होकर जीवन गुजारना किसी स्त्री के लिए सच में बड़ा ही कठिन है। सुंदरी के दिल पर गम का जो बोझ है उसे उतरना बहुत जरूरी है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वह तनावग्रस्त होकर बीमार पड़ जाएगी। उसे तरह-तरह के रोग घेर लेंगे। उन्होंने सुंदरी को अपने घर ले जाने का मन बना लिया।
अगले दिन सुबह रघुवीर बाबू अपनी स्नेहिल बेटी सुंदरी को लेकर भारी मन से अपने घर चले गए। अपने मायके में पहुँचकर सुंदरी अपनी माँ के हृदय से लगकर बहुत रोई। उसका रोना सुनकर मुहल्ले की औरतों की वहाँ तनिक देर में भीड़ एकत्र हो गई। कुछ हृदयशील भावुक महिलाओं ने उन पर तरस खाकर उन्हें चुप कराया।
समय धीरे-धीरे बीतता रहा। सुंदरी को पीहर में अपने माँ-बाप के पास रहते हुए साल बीत गया। पर, उसकी ससुराल से किसी ने पलटकर कोई खोज-खबर न ली। न कोई पत्र और न कोई संदेश। न सास ससुर ने कोई हाल पूछा और न देवरों ने। मानो वह उनकी कोई भी न थी। उलटे सुंदरी और उसके पिता रघुवीर बाबू के खतों तक का वे कोई जवाब भी न देते। मानो उनकी नजर में धर्मवीर के साथ-साथ सुंदरी भी मर गई। बेटे के दुनिया से मुँह मोड़ते ही नई-नवेली पुत्रवधू उनके लिए देखते ही देखते एकदम परायी हो गई।
उनका यह बदला हुआ निर्मम, निष्ठुर व्यवहार देखकर रघुवीर बाबू पति-पत्नी बड़े दुःखी हो गए। आहिस्ता-आहिस्ता पड़ोस के लोग आपस में तरह-तरह की बातें करने लगे। कोई कुछ कहता तो कोई कुछ। कुछ लोग कहने लगे-लगता है सुंदरी के ससुराल वालों ने उसे त्याग दिया है। जब से वह यहाँ आई तब से किसी ने दुबारा मुँड़कर भी न देखा। भरी जवानी में बेचारी की जिंदगी तबाह हो गई। उसके माता-पिता ने कितने अरमान से उसका विवाह किया था।
उधर अंतराम बाबू ने एक बड़ी सुघड़ लड़की देखभालकर अपने बेरोजगार और घुमक्कड़,लाडले छोटे पुत्र धनपाल का विवाह भी कर दिया। मगर, इसकी भनक सुंदरी और उसके मॉ-बाप को हरगिज न लगी। एक बहू गई तो घर में दूसरी आ गई। बाबूू अंतराम की छोटी पुत्रवधू फूलमती देखने में बहुत ही सुंदर थी। मानो विधाता ने उसे बहुत सोच-समझकर रचा था। उसके रूप-रंग और तीक्ष्ण नशीले नैनों को देखते ही धनपाल एकदम लट्टू हो गया। वह उस पर अपनी जान छिड़कने लगा।
पर नई चिड़िया बड़ी सयानी और चतुर थी। पति की नस पहचानने में बड़ी माहिर थी। उसे आए दो-चार दिन भी नहीं हुए कि धनपाल उसके आगे अपने दिल का सारा राज खोलने लगा। अल्हड़ और बिल्कुल अनाड़ी पति से यह भेद पता चलते ही कि उसके नाम बैंक में पैंतीस लाख रूपए जमा हैं उसने उस पर अपना जादू चलाना शुरू कर दिया। उसके नेत्र बाण से धनपाल बेचारा घायल ही हो जाता। उसे वह अपने दिल की रानी समझने लगा।
उसका हावभाव देखकर धनपाल उसके ख्यालों में ही खो जाता। उसकी सुधबुध एकदम खो जाती। उसे और कुछ ध्यान ही न रहता। समझिए बछड़ा खूँटे के बल नाचने लगा। फूलमती ने घर में कदम रखते ही धनपाल का कान भरना शुरू कर दिया। नादान पंछी आखिर, धीरे-धीरे नई चिड़िया के जाल में फँस ही गया।
धनपाल आहिस्ता-आहिस्ता पूरी तरह उसकी मुट्ठी में कैद हो गया। वह हर बात में उसकी हाँ में हाँ मिलाने लगा। दो वर्ष बीतते-बीतते वह एक बच्चे का बाप भी बन गया। बेटे का जन्म होते ही फूलमती का अपने सासु-स्वसुर के साथ जो थोड़ा-बहुत लगाव था वह तनिक देर में ही खत्म हो गया। उसे और अधिक लालच ने घेर लिया। एकाएक उसकी लालसा बढ़ गई। जैसी करनी वैसी भरनी। चोर का पाला डकैत से हो गया। जैसे को तैसा मिल गया। बेईमान की मुलाकात बेईमान से हो गई। जैसे बाबू अंतराम थे वैसे ही उन्हें खूब कुलीन और सदाचारिणी वधू मिल गई।
बल्कि, यह समझिए कि उसके आते ही घर में बात-बात पर किचकिच मचने लगी। धनपाल पर अपना जादू चलते ही हर्रै लगे न फिटकिरी और रंग भी चोखा ही चढ़े, फूलमती बैंक में सँभालकर रखे गए उन रूपयों पर अपना हक जमाने लगी। वह बैंक में रखे रूपयों को हथियाने के लिए उतारू हो गई। उसने धनपाल की बुद्धि को ऐसी चकरघिरनी बनाया कि वह उसकी उंगलियों केे इशारों पर नाचने लगा। उसकी अपनी बुद्धि घास चरने चली गई। देखते ही देखते वह अक्ल का दुश्मन बन गया। यह देखकर अंतराम पति-पत्नी बड़े दुःखी रहने लगे।
एक दिन की बात है फूलमती के उकसाने पर धनपाल अवसर देखकर बाबू अंतराम से बड़ी मीठी आवाज में बोला-बाबू जी, पास वाली कालोनी में एक शानदार और बढ़िया मकान मिल रहा है। एकदम सस्ते में मिल जाएगा। ऐसा कीजिए इस मकान को बेच दीजिए। यह इतना पुराना और जर्जर है कि बरसात के मौसम में न जाने कब भरभराकर ढह जाएगा। यहाँ रहने पर अपनी जान जोखिम में है। हमेशा खतरा मँड़़राता रहता है।
अंतराम बाबू उसे सिर पर तो चढ़ा ही रखे थे इसलिए बिना किसी नानुकर के फौरन ही उसकी नेक सलाह मान लिए। उन्होंने अगले दिन से ही अपने मकान को बेचने का ग्राहक तलाशना शुरू कर दिया। उनके कहने पर धनपाल ने उन्हें उस कालोनी में ले जाकर दूर से ही एक ऐसा मकान दिखा दिया जिसमें सालों से कोई रहता ही न था। मकान मालिक कहीं बाहर किसी दूसरे स्थान पर रहता था। उसे देखकर बाबू अंतराम बहुत प्रसन्न हो गए। उन्होंने हर्षित मन से तत्काल उसे खरीदने का फैसला कर लिया। वह बोले-अरें बेटा, फिर शुभ काम में देर किस बात की?अब हर हाल में तुम इसे खरीद ही लो।
वह धनपाल से बोले-बेटा, अब तनिक भी देर न करो। चट मँगनी पट ब्याह तुम इस मकान को तुरंत खरीद ही लो। अपने लिए बड़े फायदे का सौदा है। अब तुम यह बताओ कि मकान मालिक से मुलाकात कब होगी? वह अपना मकान बेचने को तैयार भी है या नहीं? तुम्हें क्या लगता है?तुम उससे फटाफट साफ-साफ बात करो। कहीं ऐसा न हो कि यह घर अपने हाथ से निकल जाए। इसका मकान मालिक कोई दूसरा बन जाए और हम देखते ही रह जाएं।
इतना ही नहीं, अपने मकान का कोई अच्छा खरीददार भी ढूंढ़कर लाओ। किसी ऐसे गरजमंद क्रेता की तलास करो जो इसकी अच्छी कीमत दे सके। तुम दोनों भाई मौज करते रहना।
तब धनपाल बोला-बाबू जी आप तनिक भी फिक्र न करें। मैं सब काम ठीक कर लूँगा। वह कहीं बाहर रहता है। उसके यहाँ आते ही मैं आपको उससे मैं आपको मिला दूँगा। आप हफ्ते-दस दिन बिल्कुल शांत बैठिए।
इसके बाद तलास करते-करते कुछ दिन बाद ही उन्हें अपने मकान का एक ऐसा जरूरतमंद ग्राहक तो मिल गया जिसने उन्हें मुँहमांगी कीमत देकर आननफानन में वह घर खरीद लिया पर, अंतराम बाबू को वह आदमी दो-चार महीने तक भी न मिला जिसका मकान उन्हें खरीदना था। उनका मकान सत्रह लाख रूपए में बिक गया। उन्होंने तुरत-फुरत में अपना घर तो बेच दिया लेकिन, उन्हें अपना आवास न मिला। जबकि अपने रहने की खातिर इंतजाम पहले ही करना था। नया घर मिला नहीं और पुराने को बेचकर वह घर से बेघर हो गए। इसे ही कहते हैं आधी छोड़ पूरी को धावै, आधी रहे न पूरी पावै।
पति-पत्नी इतना भी न समझ पाए कि उनका लाडला उन्हें दिनदहाड़े गच्चा दे रहा है। धनपाल के मन में कोई खोट है यह वे कतई न समझ पाए।
मकान खरीददार से पैसा मिलते ही अंतराम बाबू ने धनपाल से कहा-देखो, जब तक उस मकानदार से बात पक्की नहीं हो जाती तब तक इन रूपयों को भी अपने खाते में ही डाल दो। जमाना बहुत खराब है। समय का कुछ पता नहीं कि पलभर में ही कब क्या हो जाए। इतनी नकदी घर में रखना किसी खतरे से खाली नहीं है। कभी-कभी दौलत जी का जंजाल बन जाती है इसलिए इसे तुम बैंक में ही जमा करा दो।
आखिर, धनपाल यही तो चाहता था। बिल्ली के भाग्य से छीका ही टूट गया। किस्मत ने करवट ली तो अंधे के हाथ बटेर लग गई। मुफ्त में ही दौलत पाकर धनपाल और सुंदरी खुशी से गदगद हो गए। उनके पैर अब जमीन पर न पड़ते थे। मानो धनपाल के हाथ कुबेर का खजाना ही लग गया।
वह बोला-बाबू जी आपकी आज्ञा सिर माथे पर। मैं अभी इसे अपने खाते में जमा कर आता हूॅ। धनपाल अपने माता-पिता का आज्ञाकारी तो था ही, वह उन रूपयों को ले जाकर तत्काल बैंक में अपने नाम से जमा कर दिया।
समय धीरे-धीरे बीतता रहा। घर लेने के लिए धनपाल को आजकल करते-करते शनैः-शनैः पूरा साल गुजर गया। अंतराम बाबू अपने परिवार को लेकर एक किराए के मकान में किसी तरह गुजर-बसर करते रहे। वह जब भी धनपाल से कुछ पूछते तो वह टालमटोल करके साफ-साफ बच निकलता। आखिर, उसकी आए दिन एक से बढ़कर एक आनाकानी सुनते-सुनते उनका साहस जवाब देने लगा। अब उन्हें दाल में कुछ काला दिखाई देने लगा।
आजिज आकर एक दिन वह बोले-धनपाल, आखिर बात क्या है। तुम्हारे जी में क्या है? पहले तुमने हमें घर से बेघर कर दिया और अब तुम नित नए-नए बहाने बनाकर निकल जाते हो। तुम्हारी अब-तब सुनते-सुनते मैं एकदम थक चुका हूँ। कहीं इतने सारे रूपए देखकर तुम्हारे मन में कोई पाप तो नहीं समा गया है। कल सुबह चुपचाप सारे रूपए हमारे हवाले कर दो वरना, ठीक न होगा। मैं अपने रहने का जुगाड़ खुद ही कर लूँगा। अब तुम्हें लेशमात्र भी भागदौड़ करने की जरूरत नहीं है। मकान खरीदना तुम्हारे वश का नहीं है। यह काम तुमसे हरगिज न होगा।
उनका यह कठोर यह वचन सुनते ही धनपाल के कान खड़े हो गए। वह तुरंत सजग हो गया और बोला-हाँ-हाँ चिंता न कीजिए कल मिल जाएंगे। रात तो जैसे-तैसे बीत गई। दूसरे दिन सबेरे धनपाल कुछ अकड़कर अपनी माँ से बोला-बैंक जा रहा हूँ। दो-चार घंटे में आ जाऊँगा। चाहे जो कुछ हो, आज हर हाल में घर खरीदना ही है। तत््पश्चात वह एक झटके में घर से बाहर निकल गया। सबसे पहले एक कालोनी में उसने इक्कीस लाख रूपए में अपने लिए बिल्कुल महलनुमा एक सुंदर और भव्य मकान तलाश किया।
उसके बाद मकान खरीदने की बात पक्की होते ही वह मकान मालिक को लेकर सीधे बैंक में गया और इक्कीस लाख रूपए अपने खाते से निकालकर उसके हवाले कर दिया। किसी को कानोकान खबर भी न लगी कि वह चुपचाप कचहरी में जाकर मकान अपनी पत्नी फूलमती के नाम करा दिया।
तदंतर पचास हजार रूपए लेकर घर गया और अंतराम से बोला-बाबू जी, यह लीजिए पचास हजार और जाइए, जाकर कहीं फिलहाल लाख-डेढ़ लाख रूपए की कीमत का कोई सस्ता सा घर देखकर बयाना कर दीजिए। बाकी रूपए सौदा तय हो जाने के बाद निकालकर दे दूँगा।
तदोपरांत बाबू अंतराम देखभालकर डेढ़ लाख रूपए में एक छोटा सा मकान खरीद लिए और पूरे परिवार के साथ जाकर उस नए घर में रहने लगे। उस मकान को खरीदने के कुछ ही दिन बाद धनपाल एक दिन अंतराम से बोला-बाबू जी, फूलमती जबसे इस घर में आई है तभी से उससे न अम्मा की ही बनी और न आपकी ही। घर में रात-दिन नाहक ही क्लेश होता रहता है। इससे मैं आजिज आ चुका हूँ। इसलिए मैं आप लोगों से एकदम अलग उसके साथ कहीं दूसरी जगह जाकर रहना चाहता हूँ। हाँ, इतना जरूर है कि अप दोनों की खोज-खबर लेने आता-जाता रहूँगा।
यह सुनते ही अंतराम और शिवानी के होश ही उड़ गए। अपने हृदय के टुकड़े की अनाप-शनाप बात सुनकर उनके कलेजे पर साँप लोटने लगा। उनका चेहरा देखते ही देखते मारे गुस्से के तमतमा उठा। अंतराम बाबू के दिल को बड़ा आघात पहुँचा। शिवानी देवी भी तड़प उठीं।
उन्हें यह शक था ही कि आज की औलाद का कोई भरोसा नहीं वह कब क्या करे? धनपाल एक साथ इतने रूपए देखकर कहीं बदल न जाए। अमानत में कहीं खयानत न हो जाए। उसके बदले हुए आचार-विचार से अब पति-पत्नी का शक यकीन में बदलने लगा फिर भी अपने कलेजे पर पत्थर रखकर अंतराम बाबू ने कड़क आवाज में पूछा-धनपाल, क्या तू पगला गया है जो अपने माँ-बाप के साथ आज इतनी बेरहमी से पेश आ रहा है। क्या हो गया है तुझे? क्या बहू ने वाकई तुझ पर जादू कर दिया है? तुझे जो कुछ भी कहना है बिल्कुल साफ-साफ कह। जरा हम भी तो जाने कि तेरे मन में क्या खिचड़ी पक रही है और तू चाहता क्या है।
यह सुनते ही धनपाल बड़ी निर्लज्जता के साथ एकदम बेधड़क बोला-कैसे पैसे और किसके पैसे? मेरे पास किसी का कोई पैसा नहीं है। मुझे आपने जो कुछ भी दिया था वह मैंने आपको वापस कर दिया। आपने यह मकान तो उसी से खरीदा है।
यह सुनते ही बाबू अंतराम और उनकी पत्नी शिवानी देवी के पॅरों तले से जमीन खिसक गई। मानो पति-पत्नी को करंट का झटका लग गया। वे बड़ी उलझन में पड़ गए। उनके हृदय की धड़कनें बहुत तेज हो गईं। वे पंख कटे पक्षी की भांति छटपटा उठे। उनके मुख से आह निकल गई। उनकी समझ में न आ रहा था कि अब वे क्या करें और क्या न करेंं। देखते ही देखते वे इतने विकल हो उठे कि मानो उनका दम ही निकल जाएगा। पति-पत्नी अपना-अपना माथा पीटने लगे।
फिर कुछ सँभलकर अंतराम बाबू बोले-धनपाल, इतनी लालच मत कर बेटा। लालच बहुत बुरी बला है। तू तो सचमुच बड़ा घाघ निकला। सारे रूपए अकेले ही डकार जाना चाहता है। अरे नादान, ईश्वर से कुछ डर। वह सबका मालिक है सब कुछ देख रहा है। उससे कुछ छिपा नहीं है। वह तुझे तेरी करनी का फल जरूर देगा। मनुष्य अपने कर्मफल से हरगिज बच नहीं सकता है।
इसके बाद उन्होंने क्रोधावेश में उसे फटकारते हुए कहा-अरे मूर्ख, मैंने तुझे क्या समझा और क्या पाया? यह कुसंस्कार तुझे कहाँ से मिला? इतनी बड़ी रकम तू आज अकेले ही हड़पना चाह रहा है। वही हमारे जीवन की गठरी है। मैंने अपना एक होनहार और कमाऊ बेटा खोकर उसे पाया है। उसमें तेरा कोई हक नहीं है। तेरी यह बात कदापि उचित नहीं है। कल को सबको पता चलेगा तो दुनिया तेरे मुँह पर थूकेगी। लोग ताने मार-मारकर तुम पति-पत्नी का जीना मोहाल कर देंगे। हाँ, एक बात जरूर ध्यान रखना कि अपने भाई-बहन का हिस्सा मारना बड़ा पाप और अन्याय है। अगर, तेरे मन में बैंक में रखे रूपयों के चलते कोई लालच पैदा हो गई है तो भी सच-सच बता।
उनका उपदेश सुनते ही धनपाल एकदम बिफर पड़ा और नेत्र लाल-पीले करके बोला-अपना यह उपदेश किसी और को जाकर दीजिए। मुझ पर इनका कोई असर नहीं पड़ने वाला। आपको जो करना है कर लीजिए। मेरे पास अब एक पाई भी नहीं है और न ही मैं आपको अब कुछ देने वाला। आप जाने और आपका काम जाने। मुझे किसी बात से कोई मतलब नहीं। इसके बाद वह अपने माता-पिता से तोते की तरह आँखें फेरकर अपनी बीवी-बच्चे के साथ चुपचाप घर से बाहर निकल गया। अंतराम बाबू पति-पत्नी मुँह लटकाकर उन्हें देखते ही रह गए।
उन्हें घर से हमेशा के लिए जाता हुआ देखकर पति-पत्नी का कलेजा फटने लगा। उनकी घड़कनें तेज हो गईं। कुछ देर बाद पति-पत्नी अंतराम बाबू भी लंबे-लंबे डग भरते हुए उनके पीछे-पीछे चल दिए।
कुछ देर बाद अंतराम बाबू धनपाल के पास जाकर कहने लगे-धनपाल बेटा, मुझ गरीब असहाय पर ऐसा जुल्म मत कर। तेरे इस दुराचरण से हम दोनों पति-पत्नी जी न सकेंगे। हम बहुत जल्दी मर जाएंगे। बेटा, तुझे अगर पैसे ही चाहिए तो सबका हिस्सा देकर अपना ले ले लेकिन, सारे पैसों की लालच न कर। तू इन पैसों को अकेले ही पचा नहीं पाएगा। तेरे पास भी एक नन्हा-मुन्ना बच्चा है कुछ उसकी तो सोच।
लेकिन, धनपाल के कान पर जॅूं तक न रेंग रही थी। मानो वह एकदम बहरा और गूँगा बन गया था। उसका कलेजा शायद पत्थर का बन चुका था मगर, पैसे वापस देने को कौन कहे वह उस वक्त अपने बूढ़े माँ-बाप की एक बात भी सुनने को तैयार न था।
फिर कुछ सोचकर वह बेधड़क बोला-अपने बच्चे के लिए ही तो सोच रहा हूँ। उस कुछ उसी के लिए कर रहा हूँ। मैंने कहा न कि अब मेरे पास कुछ भी नहीं है। आपने मुझे जो कुछ भी दिया था वह मैंने आपको लौटा दिया। जैसी करनी वैसी भरनी, आपने जैसा किया वैसा ही आपके साथ भी हुआ तो इसमें बुरा ही क्या है? आप लोग मेरे माँ-बाप हैं या दुश्मन? पंजे झाड़कर नाहक ही मेरे पीछे पड़े हुए हैं। अब जाइए, जाकर अपना काम कीजिए और मुझे भी अपना काम करने दीजिए। हम लोग अब आप लोगों से अलग कहीं किराए-सिराए के मकान में अपना गुजर-बसर करेंगें। हार-थककर पति-पत्नी मुँह लटकाकर घर वापस लौट गए।
अपने नए मकान में पहुँचकर धनपाल ने बैंक में जमा शेष रूपए भी फटाफट निकालकर रंगीन टेलीविजन, वाशिंग मशीन, मँहगा सोफासेट, फ्रिज, कूलर आदि और अन्य घरेलू सामान खरीद लिया। अंतराम बाबू के मकान वाले जो करीब पंद्रह लाख रूपए बचे थे उसे आननफानन में निकालकर अपने किसी मित्र के पास कहीं अन्यत्र रख दिया।
इसके बाद वह अंतराम बाबू के पास जाकर बनावटी उदास मन से बोला-बाबू जी, यह लीजिए बैंक की मेरी पासबुक। आप खुद ही देख लीजिए कि इसमें कितना बचा है? इतना कहकर उसने पासबुक निःसंकोच उनके हाथ में थमा दिया।
अंतराम बाबू पासबुक को उलट-पलटकर बार-बार देखने लगे। पासबुक देखते ही अंतराम बाबू एकदम सन्न रह गए। उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। उसमें बड़ी मुश्किल से उसमें केवल एक हजार रूपए बचे थे। धनपाल सारा का सारा रूपया निकालकर अपना खाता खाली कर कर चुका था। उनका चेहरा तनिक देर में मलिन हो गया। उनके सीने में बड़ा अजीब सा दर्द होने लगा। वह अपना सिर पकड़कर बैठ गए।
उन्हें इस तरह मायूस और चुप देखकर शिवानी देवी ने पूछा-अजी, क्या हुआ? सब कुछ ठीक तो है न? कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है?
यह सुनते ही बाबू अंतराम बोले-देवी, अब मैं तुमसे क्या कहूँ? यह पुत्र नहीं तुम्हारी कोख से वाकई कुपुत्र पैदा हुआ है। इस नालायक ने सच में सारा रूपया निकालकर हमें कहीं का न छोड़ा। इतनी बड़ी दौलत न जाने किस भाड़ में झोंक दिया। अभागे ने जिस थाली में खाया उसी में छेद कर दिया। हम लोग कोई साँप नहीं फिर भी यह सपोला ही निकला। इसके कारनामे से अब मेरा जीना बहुत ही मुश्किल है। इसकी कारस्थानी देखकर आज हमें अपने ही खून से बड़ी अपार पीड़ा हो रही है। एक जवान बेटा रणभूमि में खोकर हमारे पास यही तो ले-देकर थोड़ी-बहुत जमा पूँजी थी। उसे भी इस दुष्ट ने इधर-उधर कर दिया।
यह सुनते ही शिवानी देवी बोलीं-सच? या आप हमारे साथ यूँ ही कोई कौशल कर रहे हैं?
तब अंतराम मन मारकर बोले-सच। इस पासबुक में एक हजार के अलावा और एक फूटी कौड़ी भी नहीं है। इसने हमारे साथ बहुत बड़ा विश्वासघात किया। इसे मैं सबसे अधिक प्यार-दुलार करता था और यही सबसे बड़ा दगाबाज निकला। इसने हमें जीते जी मार डाला। यह हमारा बेटा नही बल्कि, जानी दुश्मन है।
इतना सुनना था कि धनपाल बड़े ताव में उठा और उनके हाथ से अपनी पासबुक झट लेकर वहाँ से लंबे-लंबे डग भरता हुआ बड़ी निष्ठुरता से अपने नए मकान की ओर चल दिया। उसे इस तरह बड़ी निर्ममतापूर्वक मुँह फेरकर जाते हुए देख अंतराम बाबू मन ही मन बुदबुदाते रह गए। पति-पत्नी, धनपाल और उसकी पत्नी को अपने मन में जी भरकर कोसने लगे। उस समय उनके मुख से बेटे-बहू के प्रति बद्दुआ ही बद्दुआ निकल रही थी।
दुश्चिंता और दुराशा में घिरे हुए अंतराम बाबू को धीरे-धीरे पंद्रह दिन बीत गए। धनपाल और उसकी पत्नी ने फिर भूलकर भी कभी उन असहायों की ओर मुँड़कर न देखा। अंतराम बाबू ने खाना-पीना बिल्कुल छोड़ दिया। उनका शरीर सूखकर काँटा हो गया। चेहरा पीला पड़ गया। सनैः-सनैः वह खाट पकड़ लिए। वह इतने कमजोर और दुर्बल हो गए कि एकदम खाट में ही चिपक गए।
शिवानी देवी अगर उन्हें कभी कुछ समझाने-बुझाने का प्रयास करतीं तो वह बस यही कहकर शांत हो जाते कि हमें हमारे खून ने ही सरेआम लूट लिया। उसने हमें इस बुढ़ापे में कहीं का न छोड़ा। उसकी करनी के चलते अब हम दोनों को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ेंगी। कुछ दिन ऐसे ही व्यतीत हुआ।
एक रात वह अपनी चारपाई पर बिना कुछ खाए-पिए ही सोए हुए थे। सुबह जब शिवानी देवी की आँख खुली तो वह उन्हें जगाने की गरज से बोलीं-अजी, उठिए तनिक चाय-साय तो पी लीजिए पर, सब व्यर्थ। बाबू अंतराम दुनिया छोड़कर बहुत दूर जा चुके थे। उनके प्राण-पखेरू न जाने कब के उड़ चुके थे। उनका बदन एकदम ठंडा पड़ चुका था। उनके हाथ-पैर ढीले पड़ चुके थे। उनके मुँह से कोई आवाज न सुनकर शिवानी देवी घबरा उठीं।
उनके मुख से अचानक बड़ी तीव्र चीख निकल गई। नहीं, प्राणनाथ नहीं। अब मैं किसके सहारे जीऊँगी? आखिर, आपने हमें इस संसार में दुःख भोगने के लिए अकेला क्यों छोड़ दिया। बड़ा बेटा पलटन में शहीद हुआ, मॅझला कामचोर निकला और सबसे छोटे ने आपकी जान ले ली। इतना कहते ही वह गश खाकर गिर पड़ीं और फिर कभी न उठीं। अपने देवता के साथ देवी भी चल बसी। उनकी मृत्यु पर उस वक्त घर में कोई और रोने-धोने वाला तो था नहीं इसलिए पति-पत्नी मृत अवस्था में कई घंटे तक घर के अंदर ही जहाँ के तहाँ पड़े रहे। दो जीवित पुत्रों के होते हुए भी उनकी खबर लेने वाला कोई भी न था।
काफी देर तक उनके मकान से कोई हलचल और आवाज सुनाई न देने पर जब दो-चार पड़ोसियों को शक हुआ तो वे आपस में खुसुर-पुसुर करने लगे। इतने में उनके एक पड़ोसी ने कहा-अरे भइया, आज तो ऐसा लगता है कि मामला कुछ गड़बड़ है। न तो अंतराम बाबू की ही कोई आवाज आ रही है और न ही शिवानी देवी की। न मालूम क्या बात हो गई? घर में एकदम से मुर्दनी सी छायी हुई है। उनके मकान में कोई है या नहीं कहीं कोई आहट सुनाई नहीं पड़ रही है। शाम को तो लगभग सब कुछ ठीक ही था। आज सुबह से ही न जाने क्या हुआ।
तब दूसरे सज्जन ने कहा-भाई साहब, ऐसा कीजिए हम लोग घर के भीतर चलकर खुद ही क्यों न देख लें कि क्या बात है? उनका छोटा लड़का धनपाल दो-चार दिनों से पति-पत्नी को कुछ परेशान कर रखा था। हो सकता है उन्होंने स्वयं ही जानबूझकर कुछ अनहोनी न कर ली हो। आजकल का समय बहुत खराब चल रहा है। आदमी जल्दी ही तनाव में आ जाता है। तनावग्रस्त व्यक्ति कब क्या कर ले कुछ पता नहीं।
इसके बाद वे लोग आपस में सलाह करके जब बाबू अंतराम के दरवाजे पर पहुँचे तब काफी खटखटाने पर भी भीतर से कोई आवाज न आई। तत्पश्चात उन्होंने तीसरी गली में रहने वाले उनके मँझले लड़के कर्मवीर को संदेश दिया कि वह फौरन अपने माता-पिता के घर आकर यह पता लगाए कि आखिर, सच क्या है? सुबह से ही घर का दरवाजा अंदर से बंद है।
यह सुनकर कर्मवीर बोला-दुनिया जाए भाड़ में अब हमें किसी से कोई मतलब नहीं। हमारे लिए माँ-बाप सब मर चुके हैं। आज के जमाने में कौन किसका होता है? सबको अपनी-अपनी पड़ी रहती है। अभी मेरे पास फालतू काम के लिए वक्त नहीं है। मैं अपने काम पर जा रहा हूँ। हाँ इतना जरूर है कि शाम को काम से लौटकर सही स्थिति की जानकारी लूँगा। इतना कहकर वह एकदम बेरूखी से अपने काम पर चला गया लेकिन, अपने असहाय और वृद्ध जन्मदाता को एक नजर देखने के लिए न जा सका।
उसके इस तरह बिल्कुल मानवीय संवेदना से शून्य पशुवत अनाचार को देखकर अंतराम बाबू के पड़ोसी सज्जन कुछ सोच-विचारकर उनके छोटे बेटे धनपाल का नया पता-ठिकाना मालूम करने में जुट गए। दो-तीन घंटे बाद बड़ी मुश्किल से उसका कुछ अता-पता चल सका। वह भी पहले वहाँ आने को तैयार न था लेकिन, पड़ोसियों के अधिक दबाव डालने पर वह किसी तरह आने को राजी हुआ।
धनपाल जब उनके साथ अपने माता-पिता के पास पहुँचा तो वह उन्हें मरा हुआ देखकर बेचैन हो उठा। अब उसकी समझ में कुछ भी न आ रहा था कि वह क्या करे और क्या न करे। उन्हें देखते ही धनपाल फूट-फूटकर रोने लगा। उसका रोना-धोना सुनकर वहाँ पल भर में ही मुहल्ले वालों की काफी भीड़ जमा हो गई। लोग बस इसी चर्चा में व्यस्त थे कि अरे क्या हुआ? कैसे हुआ?
अपने माता-पिता की मृत शरीर को जैसे का तैसे ही छोड़कर धनपाल तुरंत अपनी पत्नी फूलमती को बुलाने और अपने मँझले भाई-भाभी को खबर देने के लिए अपने नए घर की ओर चल पड़ा। वह सबसे पहले अपने भाई के घर गया। कर्मवीर घर पर तो था नहीं वह अपने काम पर जा चुका था।
तब धनपाल अपनी भाभी तिलोत्मा से बोला-भाभी, अम्मा और बाबू जी रात में न जाने कब स्वर्ग सिधार गए। आप फौरन भैय्या को काम से वापस बुला लीजिए।
यह सुनते ही तिलोत्मा रूंधे गले से बोली-देवर जी, अचानक यह सब कब और कैसे हुआ? उस वक्त तुम कहाँ थे? क्या तुम्हें उस समय कुछ भी पता न चला?
तब धनपाल बोला-क्या करूँ भाभी उस वक्त मैं कहीं गया हुआ था इसलिए कुछ पता न चला। यह सुनकर वह बोली-अच्छा, तुम चलो मैं तुम्हारे भइया को टेलीफोन करके अभी आती हूँ।
कुछ देर बाद सब लोग वहाँ एकत्र हो गए। वहाँ पहुंचते ही तिलोत्मा और फूलमती भी रोने-चिल्लाने लगीं। कर्मवीर भी नानुकर करते-करते वहाँ पहुँच गया। अपने मृत मां-बाप की की दुर्दशा देखकर उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। उसका मन आत्मग्लानि से भर उठा। तिलोत्मा और फूलमती दोनों बहुएं दहाड़ मार-मारकर रोने लगीं। देखते ही देखते माहौल एकदम गमगीन हो गया। कर्मवीर और धनपाल के साथ-साथ आसपास के लोगों के चेहरे पर भी शोक की लहर दौड़ गई।
बाबू अंतराम दुराशा और चिंता के मारे बीमार थे ही इसलिए उनकी मृत्यु पर किसी को कोई शक न हुआ लेकिन, उनके साथ ही शिवानी देवी की असमय ही इतनी दर्दनाक मौत देखकर लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। शक-संदेह के बीच ही श्मशान घाट पर ले जाकर पति-पत्नी का अंतिम संस्कार कर दिया गया। जिस पड़ोसी को भी अपने जन्मदाता के साथ धनपाल की हैवानियत भरी ठगी का थोड़ा-बहुत पता चलता वही उसे धिक्कारने लगा। बाबू अंतराम और शिवानी देवी के अंतिम संस्कार के बाद सब लोग अपने-अपने घर चले गए।
श्मशान से लौटकर धनपाल ने उस मकान में फौरन अपना ताला लगा दिया और अपनी बीवी-बच्चे के साथ अपने नवभवन पर चला गया। समयचक्र चलता रहा। अंतराम और शिवानी देवी की तेरहवीं करना सामाजिक रीति-रिवाज के मुताबिक जरूरी था ही इसलिए धनपाल, कर्मवीर के साथ उनकी तेरहवीं के कामकाज में तल्लीन था। उसने सोचा-आखिर, आज मेरे पास जो कुछ भी है वह अम्मा और बाबू जी का दिया हुआ ही है। कम से कम उनकी तेरहवीं तो कर ही दूँ।
तेरहवीं से एक दिन पहले वह बाजार से सामान खरीदने के लिए कर्मवीर के संग घर से निकला। दोनों भाई फटफटिया से अभी घर से निकले ही थे कि चौराहे के निकट बिल्कुल अनियंत्रित और तेज गति से आते एक ट्रक ने उनकी मोटर साइकिल को बड़ी जोर से टक्कर मार दिया। टक्कर लगते ही दोनों भाई धड़ाम से नीचे गिर पड़े। नीचे गिरते ही वे बहुत जख्मी हो गए। कर्मवीर को तो कम चोट लगी मगर, धनपाल उस ट्रक की ऐसी चपेट में आ गया कि वह तुरंत स्वर्ग सिधार गया। उसे अस्पताल ले जाने का अवसर भी न मिला।
यह देखकर कर्मवीर ने तत्काल फोन करके पुलिस बुला लिया। पुलिस वहाँ पहुँचकर मौका मुआयना करके धनपाल की लाश का पंचनामा बनाकर उसे पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल भेज दिया। पोस्टमार्टम के बाद मृत शरीर कर्मवीर के हवाले कर दी गई। कर्मवीर ने उसे अपने घर ले जाकर उसका दाह-संस्कार किया। उसके मरते ही फूलमती के सारे सपने पल भर में ही बिखर गए। उसके अरमान मिट्टी में मिल गए। भरी जवानी में वह विधवा हो गई।
अपने मासूम बेटे परमवीर के साथ वह आजीवन वैधव्यता का जीवन जीने के लिए विवश हो गई। पति-पत्नी की अंतिम रस्म तेरहवीं से पहले ही धनपाल के स्वर्ग सिधार जाने से बाबू अंतराम और शिवानी देवी की तेरहवीं भी अधूरी ही रह गई। मगर, कर्मवीर के हाथ कुछ भी न लगा। धनपाल के मरते ही उसकी सारी धोखाधड़ी पर पर्दा पड़ गया। अंतराम बाबू का लगभग सारा परिवार असमय ही मौत के गाल में समा गया। कर्मफल सदैव अटल होता ही है जिसने जैसा कर्म किया उसे कुदरत ने फल रूप में वैसी ही सजा भी दे दी।
विधि का विधान भी बड़ा ही अजीब है। जो निर्दोष था वह मौत के मुँह से भी साफ-साफ बच गया। उसका बाल भी बाँका न हुआ। कर्मवीर से मृत्यु भी हार गई। वह परमात्मा की नजर में कतई गुनहगार न था। यमराज उससे मात खा गए। एक ही पखवाड़े के अंदर घर में हुर्ठ तीन-तीन मौतों से लोगों की रूह काँप उठी। इस प्रकार पाप की दुनिया पाप के गर्त में डूब गई।
जवाब देंहटाएंदिनांक 30/12/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
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