रचनाकार विश्वनाथप्रसाद तिवारी से अखिलेश द्विवेदी की बातचीत विश्वनाथप्रसाद तिवारी विश्वनाथप्रसाद तिवारी का जन्म 20 जून, 1940 ई․ को उत...
रचनाकार विश्वनाथप्रसाद तिवारी से अखिलेश द्विवेदी की बातचीत
विश्वनाथप्रसाद तिवारी
विश्वनाथप्रसाद तिवारी का जन्म 20 जून, 1940 ई․ को उत्त्ार प्रदेश के वर्तमान कुशीनगर जनपद (तत्कालीन गोरखपुर जनपद) के एक गाँव (रायपुर भैंसही, भेडि़हारी) में एक मध्यवर्गीय किसान परिवार में हुआ। आपकी आरम्भिक शिक्षा गाँव के पास के ही विद्यालयों में हुई। बी․ए․, एम․ए․ और पीएच․डी․ की उपाधियाँ आपने गोरखपुर विश्वविद्यालय से प्राप्त कीं। गोरखपुर विश्वविद्यालय के ही हिन्दी विभाग में प्रवक्ता, रीडर और प्रोफेसर-अध्यक्ष के रूप में लगभग 32 वर्षों की सेवा के बाद 2001 ई․ में आपने अवकाश ग्रहण किया।
साहित्य रचना में श्री तिवारी की प्रवृत्ति तभी से है जब वह इण्टरमीडिएट कक्षा के छात्र थे। 1956-57 में उन्होंने दो कवितायें लिखीं जो उनकी प्रथम रचनायें हैं। उनका शोध प्रबन्ध 1968 में प्रकाशित हुआ और तब से आज तक देश के प्रसिद्ध प्रकाशन संस्थानों द्वारा उनकी पैंतीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें छः कविता-संकलन, दस आलोचना ग्रंथ, तीन संस्मरणों के संग्रह, एक साक्षात्कारों का संग्रह और लगभग पन्द्रह सम्पादित पुस्तकें हैं।
1978 ई․ में श्री तिवारी ने गोरखपुर से ‘दस्तावेज़' नामक साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका का सम्पादन और प्रकाशन शुरू किया जो पिछले तीस वर्षों से नियमित निकल रही है। अब तक इसके 117 अंक प्रकाशित हो चुके हैं। यह पत्रिका रचना और आलोचना की विशिष्ट पत्रिका है जिसमें बुद्धिजीवियों और प्रबुद्ध पाठकों के साथ सतर्क संवाद कायम किया है। इस पत्रिका के दर्जनों विशेषांक ऐतिहासिक महत्त्व के हैं।
श्री तिवारी हीनताबोध से मुक्त स्वाधीन विवेक के पक्षधर हैं। किसी भी वाद या विचारधारा की कट्टरता या लेखक संघों की गुटबन्दी को वे साहित्य के लिए घातक मानते हैं। इस दृष्टि से उनकी ‘रचना के सरोकार' (1987) और ‘आलोचना के हाशिये पर' (2008) शीर्षक पुस्तकें पठनीय हैं।
श्री तिवारी की सम्पूर्ण भारत का कई बार भ्रमण कर चुके हैं तथा उन्होंने इंग्लैण्ड, मारीशस, रूस, अमेरीका और नेपाल की भी यात्रायें की हैं। उनकी भारत यात्रा के संस्मरण ‘आत्म की धरती' (1999) तथा विदेश यात्राओं के संस्मरण ‘अन्तहीन आकाश' (2005) शीर्षक पुस्तकों में प्रकाशित हैं।
श्री तिवारी रचनाओं के अनुवाद अनेक देशी-विदेशी भाषाओं में हुये हैं। उडि़या में उनका एक पूरा काव्य-संग्रह प्रकाशित है। रूसी, नेपाली, अंग्रेजी, मलयालम, पंजाबी, मराठी, बंगला, गुजराती, तेलगू, कन्नड़, उर्दू आदि में भी उनकी रचनायें अनूदित हुई हैं। देश भर की सैकड़ों संगोष्ठियों और लेखक सम्मेलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही है। अनेक विश्वविद्यालयों द्वारा उनकी रचनाओं पर एम․फिल․ एवं पीएच․डी․ के शोध कार्य हुए हैं।
उत्त्ार प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘दस्तावेज़' पत्रिका को 1988 में प्रथम ‘सरस्वती सम्मान' प्रदान किया गया था। 1995 में उसे दुबारा यह सम्मान दिया गया। वर्ष 2000 में संस्थान ने श्री तिवारी को ‘साहित्य भूषण' सम्मान से सम्मानित किया। भारत मित्र संगठन, रूस द्वारा वर्ष 2003 में उन्हें ‘पूश्किन' सम्मान से सम्मानित किया गया। वर्ष 2008 से अगले पाँच वर्षों के लिये श्री तिवारी नामित किये गये हैं।
श्री तिवारी भारतीय आत्मवादी और मूल्यवादी दृष्टि, लोकतन्त्र तथा गांधी में विश्वास रखने वाले विचारक हैं। समकालीन कविता में वे एक ऐसे विरल कवि हैं जिनमें यथार्थ और कथन की सादगी के बीच अनुभव की गहनता और दार्शनिक आध्यात्मिक जिज्ञासा भी प्राप्त होती है।
अखिलेश द्विवेदी ः वर्तमान दौर में दलित विमर्श और स्त्री विमर्श की सामर्थ्य और सीमा क्या है? इसका भविष्य आप किसी रूप में देखते हैं?
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः दलित और स्त्री हमारे समाज के उपेक्षित अंश रहे हैं और हैं। इनका उभरना एक शुभ स्थिति है। दलितों ने अपना जो अनुभव व्यक्त किया है वह दिल दहलाने वाला है। उनका अनुभव वही व्यक्त कर सकते हैं। इसे महत्व दिया जाना चाहिए। यही स्त्री के विषय में भी कहा जा सकता है। पर साहित्य में स्त्री और दलित विमर्श को यह कह कर संकीर्ण नहीं किया जाना चाहिए कि स्त्री के विषय में स्त्री ही और दलित के विषय में दलित ही कुछ लिखने का अधिकारी है। स्वानुभूति और सहानुभूति की बात उस हद तक सही नहीं है जिस हद तक उसकी वकालत की जाती है। सहानुभूति का लेखन भी बहुत महत्वपूर्ण है। सूरदास स्त्री नहीं थे मगर उन्होंने वात्सल्य का जैसा चित्रण किया वैसा कोई स्त्री नहीं कर सकी। प्रेमचंद ने भी दलित चरित्रों को बहुत सहानुभूति से चित्रित किया है। जाति और लिंग में साहित्य को बाँटने से साहित्य का भला नहीं होगा और इससे अनेक काव्यशास्त्रीय प्रश्न खड़े हो जायेंगे। इन दोनों विमर्शों पर मैंने ‘दस्तावेज़' अंक 89 और अंक 108 के सम्पादकीयों में विस्तार से लिखा है।
अखिलेश द्विवेदी ः क्या लेखक स्वतंत्र हैं?
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः लिखने के लिए हर लेखक स्वतंत्र होता है। समस्या आती है प्रकाशन के समय। तानाशाही राज्य सत्ताएँ अपने विरुद्ध कुछ भी प्रकाशित नहीं करतीं। प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा देती हैं। लेखक को जेल में डाल देती हैं या देश से बाहर निकाल देती हैं या उसे गोलियों से भी उड़ा देती हैं। ऐसी व्यवस्थाओं में लेखक स्वतंत्र नहीं होता। स्तालिन कालीन रूस में इसके कई सौ उदाहरण हैं। धार्मिक कट्टरता के चलते भी लेखक स्वतंत्र नहीं होता। सलमान रश्दी और तसलीमा नसरीन के विरुद्ध कट्टरपंथियों ने फतवे जारी कर रखे हैं। इसी प्रकार लेखकों की कृतियों पर अश्लीलता के आरोप लगाकर भी मुकदमे चलाये जाते हैं। सआदत हसन मंटो की कहानियों पर कई मुकदमे चले थे। तात्पर्य यह कि राज्य, समाज, धर्म और विचारधारा जब कट्टर होती है तो लेखक की शत्रु बन जाती है। कभी-कभी तो लेखक स्वयं ही अपने को बेडि़यों में फँसा देते हैं। वे अपने को किसी वैचारिक कारा का बंदी बना लेते हैं या किसी धर्म या राज्यसत्ता से जुड़ जाते हैं। लेखक तभी स्वतंत्र रह सकता है जब वह एक स्वाधीन समाज में रह रहा हो और स्वयं अपने बनाये हुए नियमों में अपनी इच्छा के अनुसार लिख रहा हो, किसी दूसरे के निर्देश पर नहीं। जब उसे किसी की भी तार्किक आलोचना का अधिकार प्राप्त हो।
अखिलेश द्विवेदी ः राजसत्ता और लेखक, इस विषय पर आपके विचार क्या हैं?
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः राज्यसत्ता समाज की व्यवस्था के लिए बनी और बनाई गई है। वह जनता पर शासन करने के लिए नहीं, जनता के कल्याण के लिए होती है। सबसे अच्छी राज्यसत्ता वह मानी जाती है जो अपनी जनता पर सबसे कम शासन करती है। लेखक का राज्यसत्ता से उतना ही और वैसा ही संबंध होता है जैसा कि किसी भी सामान्य नागरिक का। हाँ, राज्यसत्ता यदि निरंकुश होती है तो लेखक की जि़म्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं। उसका पक्ष सत्ता का नहीं, जनता का पक्ष होता है। राजसत्ता अपनी कुर्सी से बँधी होती है, लेखक अपने मूल्यों से। सत्ता क्योंकि शक्ति केन्द्रित होती है अतः लेखक प्रायः विपक्ष में रहने को अभिशप्त होता है।
अखिलेश द्विवेदी ः भारतीय लेखकों में ख़ासकर हिन्दी में आपको किन लेखकों ने प्रभावित किया?
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः मध्यकालीन कवियों में कबीर, सूर, तुलसी ने तथा आधुनिक कालीन लेखकों में प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, महादेवी, आयार्च रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, रामविलास शर्मा, निर्मल वर्मा ने प्रभावित किया है। अपने ऊपर सबसे ज़्यादा प्रभाव पं․ हजारी प्रसाद द्विवेदी का महसूस करता हूँ। उसके बाद अज्ञेय और आचार्य शुक्ल का।
अखिलेश द्विवेदी ः आज के लेखक के सामने मुख्य चुनौतियाँ क्या हैं?
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः लेखक के सामने सदा से उसका लेखन ही प्रथम चुनौती के रूप में रहा है। कि जो कुछ वह महसूस कर रहा है उसे किस तरह और किन शब्दों में सही सही अभिव्यक्ति दे। यह अभिव्यक्ति का संकट होता है जो कि हर लेखक के सामने अलग से उपस्थित होता है। बाकी सारी चुनौतियाँ तो सामान्य नागरिक की तरह लेखक के सामने होती ही हैं। सामान्य नागरिक उन्हें केवल महसूस करता है जबकि लेखक को उन्हें शब्द भी देना पड़ता है और संवेद्य भी बनाना पड़ता है। जहाँ तक आज की सामाजिक चुनौतियों का प्रश्न है, हिेंसा और आतकंवाद आज सबसे बड़ी चुनौती के रूप में दुनिया भर के सामने है। गरीबी और असमानता खास तौर से तीसरी दुनिया और हमारे देश के भी सामने है। हमारे देश में जातिवाद और साम्प्रदायिकता तथा राज्यव्यवस्था का भ्रष्टाचार भी एक बड़ी चुनौती के रूप में है।
अखिलेश द्विवेदी ः साहित्य की श्रुति परम्परा और लिखित परम्परा पर अपने विचार दें।
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः लिपि का अविष्कार बाद की चीज़ है। वाचिक परम्परा ही आदि मूल है। श्रुति परम्परा में हमारा बहुत सारा ज्ञान शताब्दियों तक सुरक्षित रहा है। पर उसकी सीमाएँ हैं। बहुत सारा ज्ञान नष्ट भी हुआ है। अब तो लिखित परम्परा में ही हम अपने भाव और विचार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचा सकते हैं और उसे दीर्घकाल तक सुरक्षित भी रख सकते हैं। जिन्हें अक्षर ज्ञान नहीं है उन्हें तो आज भी सुन कर ही संतोष करना पड़ता है। हमारे देश में अब भी ऐसे लोगों की संख्या बहुत ज़्यादा है। लिपि की भी कुछ अपनी सीमाएँ हैं। वह भाषा के प्रवाह और वाणी के आवेग को अंकित नहीं कर सकती। उससे जो अर्थ मिलता है वह सीमित और अधूरा होता है। लिखित से कई गुना प्रभावशाली होती है वाचिक अभिव्यक्ति। उसमें वक्ता अपनी काया के द्वारा भी बहुत कुछ कह देता है जो कि लिपि की पकड़ से बाहर होता है।
अखिलेश द्विवेदी ः शब्द और दुनिया का संबंध क्या है?
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः भाषा मनुष्य का आज तक का सबसे बड़ा आविष्कार है। इसने मनुष्य को पशु सुलभ धरातल से ऊपर उठा कर मनुष्य के उच्च धरातल पर प्रतिष्ठित किया है। भाषा शास्त्रियों और विचारकों ने ‘भाषा' को ‘प्रकाश' कहा है। दण्डी के अनुसार “यदि शब्द न होते तो हमारी दुनिया में अँधेरा छाया रहता।” सचमुच शब्द अँधेरे में प्रकाश का काम करता है। याज्ञवल्क के अनुसार यदि सूरज और चंद्र बुझ जाँय तो मनुष्य को “वाक्” ही प्रकाश दे सकता है। शब्द से ही यह दुनिया हमारे परिचय के दायरे में आई है।
अखिलेश द्विवेदी ः आज का बौद्धिक/साहित्यिक वर्ग जो कहता है तथा जो करता है उसमें ज़मीन आसमान सा अन्तर दिखता है। इसका कारण क्या है? इस सन्दर्भ में आप क्या सोचते हैं?
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः आप का यह कहना सही है कि आज के बौद्धिक के शब्द और उसके निजी कर्म में बहुत अन्तर है। उसके शब्द दूसरों को प्रभावित करने के लिए होते हैं पर उनको कर्म में परिणत कर पाना बहुत मशक्कत का काम है। यह खाई सबमें दिखाई पड़ती है। गांधी जैसे बिरले लोग इस दुनिया में मिलेंगे जिनमें यह न दिखाई पड़े। भारतीय विचार सदा से विचार के साथ ‘आचार' पर और ‘शब्द' के साथ ‘कर्म' पर भी ज़ोर देते रहे हैं। मैं ऐसा मानता हूँ कि जो हमारे ‘आचार' में नहीं उतर सका वह हमारा ‘विचार' भी नहीं हो सकता। वह हमारा आदर्श हो सकता है, हमारी ‘कल्पना' और हमारा ‘स्वप्न' हो सकता पर हमारा ‘विचार' तो वह तभी होगा जब हमारे ‘आचार' में भी प्रतिबिंबित हो। अपने समय में कोरे शब्दों का कोई असर नहीं पड़ता क्योंकि लोग उनके प्रयोक्ताओं को भी देखते रहते हैं।
अखिलेश द्विवेदी ः आज की हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता कहाँ खड़ी है और अपने समय की चुनौतियों से किस रूप में मुठभेड़ कर रही है?
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः आज की साहित्यिक पत्रकारिता के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वह हमारे समय की रचनाशीलता को व्यक्त कर रही है, उसकी चुनौतियों से मुठभेड़ भी कर रही है। यदि उसमें कुछ संदेह दिखाई पड़ता है तो मुख्यतः इसलिए कि वह साधन सम्पन्न नहीं है और एक विशाल पाठक वर्ग तक उसकी पहुँच नहीं हो पा रही है। उसमें दूसरी कमी यह भी है कि वह प्रायः गुटबंदियों में फँसी हुई है। उसकी आवाज़ बहुत कारगर नहीं हो पा रही है। साहित्यिक पत्रकारिता की सीमाएँ भी होती हैं। समाज को बदलने में उससे बहुत ज़्यादा आशा नहीं रखनी चाहिए।
अखिलेश द्विवेदी ः ‘दस्तावेज़' वर्तमान बदलते हुऐ परिवेश में क्या चुनौती महसूस कर रहा है? (साम्प्रदायिकता, राजनीतिक गिरावट, दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, वैश्वीकरण, उदारीकरण आदि)
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः ‘दस्तावेज़' के सामने भी वे सारी चुनौतियाँ हैं जो कि समाज के सामने हैं। खास तौर से उपभोक्तावादी संस्कृति का दबाव, मूल्यों का क्षरण, राजनीतिक भ्रष्टाचार, हिंसा और असहिष्णुता आदि। उसकी सम्पादकीय टिप्पणियों में इन पर चर्चा होती रहती है। पर उसकी अपनी सीमाएँ हैं। उसकी पाठक संख्या सीमित है। उसके पास सत्ता का बल नहीं है। उसका स्वरूप साहित्यिक है। वह साहित्य के प्रश्नों पर खास तौर से केन्द्रित होती है। मगर समाज की चुनौतियों से वह पलायन भी नहीं करना चाहती।
अखिलेश द्विवेदी ः दस्तावेज़ की सम्पूर्ण यात्रा के बारे में आपकी क्या राय है।
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः ‘दस्तावेज़'की सम्पूर्ण यात्रा से न मैं अपने को असंतुष्ट कह सकता हूँ, न पूरी तरह संतुष्ट। तीस वर्षों का लम्बा समय गुज़र चुका है। पत्रिका के 115 अंक निकल चुके हैं। कुछ बहुत स्तरीय भी हैं और कुछ साधारण भी। एक साधनहीन अव्यावसायिक पत्रिका अपनी सीमाओं में जितना कुछ कर सकती है, कर रही है। अभी तक लेखकों-पाठकों का सहयोग मिल रहा है, यह कम नहीं है। उसने कुछ उल्लेखनीय काम भी किये हैं मगर उनका मूल्यांकन दूसरे ही करें तो ज़्यादा उपयुक्त होगा। बहरहाल, उसकी यात्रा अभी पूरी नहीं हुई है। हो सकता है आगे वह कुछ और बेहतर हो। यह आशा और सकारात्मक दृष्टि बनी रहे, यही चाहता हूँ।
अखिलेश द्विवेदी ः शिक्षण कार्य करते हुए, अपने पारिवारिक दायित्वों को पूरा करते हुए, न केवल हिन्दी साहित्य, भारतीय साहित्य, बल्कि विदेशी साहित्य की विभिन्न विधाओं का इतना व्यापक अध्ययन करने हेतु आप कैसे समय निकाल पाते थे? यह मुझे बहुत आश्चर्यजनक लगा। इस बारे में आप कुछ ज़रूर बजायें।
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः महत्त्व प्राथमिकताओं का होता है। एक आदमी अपने जीवन में सभी ज़रूरी कर्म करता है। चाहे वह बुद्ध हों या महावीर, राम हों या कृष्ण। अगर उनके देवत्व को थोड़ी देर के लिए भूल जाँय तो वे लोग भी साधारण मनुष्य की ही तरह आहार-निद्रा-शौच-स्नान आदि क्रियाएँ तो करते ही होंगे। पर उनकी प्राथमिकताएँ बड़ी थीं। हम लोग छोटे लोग हैं। घर-गृहस्थी के काम भी करते हैं पर पढ़ना और लिखना मेरी प्राथमिकता होती है। जब भी समय मिलता है मैं इसमें लग जाता हूँ। बल्कि और कामों से समय बचाकर इसी में लगा रहता हूँ। इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है। दुनिया में बहुत बहुत लोग हैं जिन्होंनें बहुत बहुत बड़े काम किये हैं। मेरी तो कोई औकात ही नहीं है।
अखिलेश द्विवेदी ः दस्तावेज़ के प्रथम अंक के सम्पादकीय में आपने अपने आप को वचनबद्ध करते हुए लिखा है कि दस्तावेज़ के प्रकाशन कार्य में कृतिकार के स्थान पर कृतियों को रखा जाएगा। इस चुनौतीपूर्ण कार्य को आपने कैसे अंजाम दिया? इस प्रक्रिया में बहुत सारे मित्रों से नाराज़गी का भी सामना करना पड़ा होगा।
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः ‘दस्तावेज़' ने अपने संकल्प को कितना पूरा किया, इस पर मुझे तो विचार करना ही चाहिए, मुझसे अधिक उसके पाठकों को विचार करना चाहिए। उनका विचार ही मूल्यवान होगा। हाँ, अपनी ओर से कह सकता हूँ कि मैं बड़े बड़े नामों के चक्कर मे नहीं फँसा। इसमें साधारण लेखकों की रचनाएँ भी प्रकाशित होती रहीं। कुछ कम महत्वपूर्ण कृतियों की समीक्षाएँ भी होती रहीं। जिन युवतर कवियों में मुझे संभावनाएँ दिखीं उनकी कविताएँ भी मैंने प्रकाशित कीं। किसी की नाराज़गी का भय मेरे भीतर नहीं रहा। मुझे जो उचित लगा उसे पूरी निर्भयता और साहस के साथ मैंने कहा। ‘दस्तावेज़' के कुछ सम्पादकीय तो इस अर्थ में ऐसे हैं जिनसे शायद ही किसी अन्य सम्पादकीय की तुलना की जा सके। ऐसा मेरा नहीं, पाठकों का विचार है और उनके विचार पत्रिका में प्रकाशित हैं।
अखिलेश द्विवेदी ः आज आप हिन्दी साहित्य में जितने बड़े कवि, उतने ही बड़े सम्पादक, उतने ही महान आलोचक भी हैं जो अपने आप मेें एक अद्वितीय घटना है। लेकिन सवाल यह उठता है इन तीनों ने एक दूसरे को किस हद तक प्रभावित किया और इन तीनों के बीच के सन्तुलन को आपने कैसे साधा। यह मेरे लिए एक जिज्ञासा का विषय है।
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः आपने मेरे लिए जिन भारी भरकम शब्दों का प्रयोग किया है उनके उपयुक्त मैं नहीं हूँ। मैं एक सामान्य कवि, आलोचक और सम्पादक हूँ। अपनी सामान्य बुद्धि के साथ ही कविता, आलोचना और सम्पादन करता रहा हूँ और कर रहा हूँ। इन तीनों में कोई परस्पर विरोध नहीं है कि किसी प्रकार के संतुलन बनाने की ज़रूरत महसूस हो। तीनों स्वतंत्र कर्म हैं और एक दूसरे के पूरक भी। मैं इन्हें बड़ी सहजता से करता हूँ। किसी प्रकार की परेशानी नहीं महसूस करता। ये तीनों मेरे चुने हुए कर्म हैं और जो व्यक्ति का चुना हुआ कर्म होता है उसमें आने वाली कठिनाई भी उसे आनन्द ही देती है।
अखिलेश द्विवेदी ः आपके आदर्श गांधी जी हैं और आपने उनके ऊपर कई महत्वपूर्ण सम्पादकीय भी लिखे हैं। पूँजी के वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में आप गांधी जी की प्रासंगिकता को किस रूप में देखते रहे हैं। जबकि हमारे शासक गांधी जी के मूल्यों के विपरीत रास्ता पूर्णतया अख्तियार कर चुके हैं।
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः भारत के भविष्य के बारे में गांधी जी ने बड़ी गंभीरता से विचार किया था। उनका ‘हिन्द स्वराज' इसका एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है। मगर हम गांधी का रास्ता छोड़ चुके हैं और पश्चिमी मॉडल पर इतना आगे बढ़ चुके हैं कि अब पीछे लौटना असंभव है। अब हमें अपनी नियति और दुर्गति को भोगना ही है। मगर अब भी यदि हम गांधी के कुछ मूल्यों और मान्यताओं पर आचरण करें तो अपने को और समाज को कुछ सीमा तक दुर्गति से बचा सकते हैं। आज हमारे देश में किसान जिस तरह से आत्महत्याएँ कर रहे हैं और सरकारें जिन आतंकवादी तरीके से किसानों की भूमि का अधिग्रहण कर रही है वह एक खतरनाक संकेत है। सरकार गाँवों में स्वास्थ्य, शिक्षा और कुटीर उद्योगों की समुचित व्यवस्था करके किसानों के पलायन और गाँवों के उजड़ने की प्रक्रिया को रोक सकती है। गांधी के सादा जीवन और रहन सहन को अपना कर हम सुखी हो सकते हैं और अपने परिवारों को नष्ट होने से बचा सकते हैं। हम विकास के पश्चिमी मॉडेल को अब पूरी तरह तो इनकार नहीं कर सकते पर उसी को अपना लक्ष्य न बनावें तो यह हमारे हित में होगा।
अखिलेश द्विवेदी ः अपनी रचना यात्रा के बारे बतायें।
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः अपनी रचना यात्रा के बारे क्या बताऊँ? विभिन्न साक्षात्कारों में कुछ न कुछ बताता ही रहा हूँ। 1956 में पहली कविता लिखी और तब से कभी मंद कभी तेज़ गति से कुछ न कुछ लिखता ही रहा हूँ। कुछ अच्छा, कुछ खराब। कुछ उल्लेखनीय, कुछ उपेक्षणीय। कविता, आलोचना, संस्मरण, यात्रावृत्त्ा, डायरी आदि अनेक विधाओं में लगभग बीस पुस्तकें तो छप ही गयी होंगी। 1978 से ‘दस्तावेज़' त्रैमासिक पत्रिका निकालना शुरू किया जो अब तक नियमित निकल रही है। कुल मिलाकर मेरी रचना यात्रा मेरे लिए तो संतोषप्रद है ही, दूसरे उसे किस रूप में लेते हैं इसकी अधिक चिंता नहीं करना चाहता। मैं अपनी क्षमता के अनुसार ही बन सकता हूँ और कुछ कर सकता हूँ। जिसकी संभावना ही मुझ में नहीं है वह कैसे बन सकता हूँ मैं। लगभग 1965 के बाद एक ही काम रहा है मेरा-पढ़ना, विचार करना और लिखना। उसके पहले मेरा विद्यार्थी जीवन था और उसमें भी तो यही काम रहा। तो सारा जीवन ही पढ़ने, सोचने और लिखने में गुजर गया। यही तो है मेरी रचना यात्रा।
अखिलेश द्विवेदी ः साहित्य और सामाजिक न्याय में क्या रिश्ता है?
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः साहित्य का सामाजिक न्याय से घनिष्ठ रिश्ता है। बल्कि कहूँ कि सामाजिक न्याय की कल्पना और उसकी उद्घोषणा ही साहित्य है। इससे भी आगे यह कहा जा सकता है कि सामाजिक न्याय ही साहित्य की प्रेरक शक्ति रही है। इसीलिए आज भी सामाजिक न्याय के आदर्श उदाहरण के रूप में साहित्य को ही प्रस्तुत किया जाता है। न्याय और अन्याय तथा सत् और असत् के संघर्ष में साहित्य सदा न्याय और सत् के पक्ष में होता है।
अखिलेश द्विवेदी ः क्या साहित्यकार हिंसा के विरूद्ध है? क्या उसे हिंसा का समर्थन करना चाहिए?
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः साहित्यकार को कभी भी हिंसा का समर्थन नहीं करना चाहिए। मार्क्सवादी विचारक हिंसा में विश्वास करते हैं क्योंकि उनके अनुसार दुनिया को बदलने में हिंसा का सहारा लेना होता है। पर मेरा सोचना यह है कि जो व्यवस्था हिंसा के द्वारा खड़ी होगी वह कभी हिंसा को छोड़ नहीं सकती। हिंसा के बीज से हिंसा की ही फसल पैदा हो सकती है। इतिहास इसका प्रमाण है। रूस में यही हुआ। हिंसा एक आपद्धर्म और अत्यंत सीमित समय का धर्म हो सकती है। उसे अपनी विचार दृष्टि में शामिल नहीं किया जा सकता। आखिर हिंसा के भयानक वातावरण में ही तो ‘अहिंसा' की कल्पना की गई होगी। गांधी जी मानते थे कि जिन ऋंषियों ने अहिंसा का आविष्कार किया वे न्यूटन से ज़्यादा बड़े वैज्ञानिक और वेलिंगटन से ज़्यादा बड़े सूरमा थे।
अखिलेश द्विवेदी ः साहित्य का धर्म और ईश्वर से कोई रिश्ता बनता है कि नहीं?
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः ‘धर्म' और ‘ईश्वर' को यदि संकीर्ण अर्थ में लें तो साहित्य का उसके साथ कोई रिश्ता नहीं बनता। मार्क्स ने दोनों को इसी अर्थ में ग्रहण किया है अतः उसने दोनों का निषेध किया है और दोनों को मनुष्य के लिए खतरनाक बताया है। मगर यदि ‘धर्म' और ‘ईश्वर' को व्यापक अर्थ में ग्रहण करें अर्थात ‘धर्म' को व्यवस्था के अर्थ में और ‘ईश्वर'को ‘महाप्रकृति' के अर्थ में, तो साहित्य का रिश्ता इन दोनों से बनता है।‘धर्म' की जो परिभाषा भारतीय आर्षग्रंथों में की गयी है, वह यह हैः-
धृतिःक्षमा दमोऽस्तेयं शौचम् इन्द्रिय निग्रह ः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकम् धर्म लक्षणम्॥
अर्थात् धीरज, क्षमा, दमन, अस्तेय, पवित्रता, इंद्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध-धर्म के ये दस लक्षण हैं। ‘धर्म' की यह परिभाषा ‘महाभारत' और ‘मनुस्मृति' दोनों में बतायी गयी है। इस अर्थ में धर्म एक नैतिक नियम है और इस रूप में सबके लिए स्वीकार्य होना चाहिए। इसी प्रकार ‘ईश्वर' मनुष्य की सर्वोच्च कल्पना है। शक्ति, शील और सौन्दर्य का चरम रूप ही ईश्वर है। हिन्दू मिथकों में ‘ईश्वर' की कल्पना इसी रूप में है। चाहे मर्यादा पुरुषोत्त्ाम राम हों या पूर्ण कलावतार कृष्ण। अब यह तो साहित्यकार पर निर्भर करेगा कि वह ‘धर्म' और ‘ईश्वर' को किस रूप में ग्रहण कर रहा है। ‘कट्टरतावाद' धर्म नहीं है, ‘शोषक' रूप ईश्वर नहीं है। गांधी जी धर्म और ईश्वर दोनों को मानते थे। उनका भी एक पक्ष है। और आज के आतंकवादी भी ‘धर्म' और ‘ईश्वर' दोनों को मानते हैं। उनका एक दूसरा पक्ष है। तो यह साहित्यकार की अपनी दृष्टि का मामला है। क्या है उसकी दृष्टि में ‘धर्म' और ‘ईश्वर'?
अखिलेश द्विवेदी ः साहित्य और साहित्यकार की एक देश और दुनिया में क्या भूमिका है?
विश्वनाथप्रसाद तिवारी ः हम जब बहुत सरल ढंग से सोचते हैं तो कहते हैं कि साहित्य समाज की उपज है। पुरानी शब्दावली में कहें तो साहित्य समाज का दर्पण है। मगर क्या साहित्य समाज का निर्माता नहीं होता? आज हम जिस रूप में हैं क्या उसमें साहित्य की कोई भूमिका नहीं है? निश्चय ही साहित्य ने समाज को तराशने में, उसे संवेदनशील बनाने में, उसे पशु सुलभ धरातल से ऊपर उठाने में क्रांतिकारी भूमिका का निर्वाह किया है। एक ऐसा समाज, जिसमें साहित्यकार न हों अर्थात,विचार-करने वाले स्वाधीन बुध्दिजीवी न हों, बर्बर हो जाता है। साहित्यकार अपने साहित्य द्वारा अपने समाज और देश के विचार और आचरण में हस्तक्षेप करता है, उसे चुनौतियाँ देता है, उसे बदलने के लिए विवश करता है,। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा' में भट्टिनी बाणभट्ट से कहती है, “भट्ट तुम आर्यावर्त के द्वितीय कालिदास हो। तुम बर्बरों में भी समवेदना का संचार कर सकते हो। तुम उन्हें स्त्रियों और बच्चों को आदर और प्यार करना सिखा सकते हो।” किसी समाज में एक लेखक की उपस्थिति उस समाज को गौरव और स्वाभिमान प्रदान करती है, उसे भाव और विचार से समृद्ध करती है।
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साक्षात्कार जनवरी 08 से साभार
प्रधान संपादक - देवेन्द्र दीपक
संपादक - हरि भटनागर
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