मुक्तक [ डॉ. हीरालाल प्रजापति ] ( 1 ) जहाँ रोना फफक कर हो वहाँ दो अश्क टपकाऊँ ॥ ठहाका मारने के बदले बस डेढ़ इंच मुस्काऊँ ॥ दिमागो द...
मुक्तक
[ डॉ. हीरालाल प्रजापति ]
( 1 )
जहाँ रोना फफक कर हो वहाँ दो अश्क टपकाऊँ ॥
ठहाका मारने के बदले बस डेढ़ इंच मुस्काऊँ ॥
दिमागो दिल पे तारी है किफायत का जुनून इतना ,
जो कम सुनते हैं उनसे भी मैं धीमे धीमे बतियाऊँ ॥
( 2 )
आँखों को जो सुकून दे वो दीद दीद है ॥
चन्दन का बुरादा भी दिखे वरना लीद है ॥
जिस ईद मिले गम वो है त्योहार मोहर्रम ,
जिस क़त्ल की रात आए खुशी अपनी ईद है ॥
( 3 )
न लिखें मौलिक न कुछ रचनात्मक-रोचक ॥
जिनको देखो बन रहे गंभीर आलोचक ॥
दूसरों को तो दिखाते आईने फिरते ,
खुद की गौरिल्लाओं सी सूरत करे भौचक ॥
( 4 )
चेहरा गमों से मेरा लगे यूं घिरा हुआ ॥
जैसे पका पपीता फर्श पर गिरा हुआ ॥
मायूसी ओ मनहूसियत से सूख रहा हूँ ,
गन्ना हूँ जैसे चार बार का पिरा हुआ ॥
( 5 )
मुझको पूरा भर दो या कर चलो रिक्त ॥
या प्यासा ही रक्खो या फिर करो तृप्त ॥
मैं अतिवादी पूर्णत्व का अभिलाषी ,
फीका हो मीठा तो मुझको लगे तिक्त ॥
( 6 )
उत्कृष्टता पर देखिये निकृष्ट लिखते हैं ॥
निकृष्ट को हर वक्त अति उत्कृष्ट लिखते हैं ॥
दुष्ट को लिखते मसीहा साधु को शैतान ,
धुर अनावश्यक को पल पल इष्ट लिखते हैं ॥
( 7 )
पानी न पियूंगा हो गर शराब सामने ॥
ताकूँ कनेर क्यों हो जब गुलाब सामने ॥
फाँकूँ मैं क्यों चने मैं चाटूँ क्यों अचार बस ,
रक्खे हों तश्तरी में जब कबाब सामने ॥
( 8 )
जिसको बूंद न लाजिम उसको सरिता लिखता है ॥
गद्य न जाने उसको भी फिर कविता लिखता है ॥
भाग्य विधाता जब अपनी मस्ती में होता है ,
ब्रह्मचारियों को पग पग पर वनिता लिखता है ॥
( 9 )
न नम है आँख न चेहरा उदास दिखता है ॥
वो शख्स कैसे दर्दे दिल झकास लिखता है ॥
न वो पीता है न टुक लड़खड़ा के चलता है ,
क्यूँ वो फिर अपने गुम होशो हवास लिखता है ॥
( 10 )
दिन रात ख़यालों में सफर ठीक नहीं है ॥
हर वक्त उदासी का जहर ठीक नहीं है ॥
कह दो उसे जो दिल में है दुनिया जहान से ,
घुट घुट के ज़िंदगी का बसर ठीक नहीं है ॥
( 11 )
देकर दवाएँ नींद की कहते हैं सोओ मत ॥
सुइयाँ चुभो चुभो के बोलते हैं रोओ मत ॥
ये किस तरह के लोग हैं करते हैं उल्टी बात ,
कहते हैं फसल पर फसल लो किन्तु बोओ मत ॥
( 12 )
देखने में सभ्य अंदर जंगली है आदमी ॥
शेर चीते से खतरनाक और बली है आदमी ॥
जानवर तो प्रकृति का अपनी अनुपालन करें ,
अपने मन मस्तिष्क के कारण छली है आदमी ॥
( 13 )
सबसे सज़्दा न सरे आम करो ॥
ज्यादा झुक झुक के मत सलाम करो ॥
सर उठाकर मिलाओ हाथ अपना ,
मत खुशामदियों जैसे काम करो ॥
( 14 )
हड्डी नहीं तो क्या ग़म , लकड़ी सही ॥
गर केकड़ा नहीं तो , मकड़ी सही ॥
पाना है किसी तरह से संतोष को ,
रबड़ी नहीं न खीर तो , खिचड़ी सही ॥
( 15 )
गरीबी में करारी नोट -गड्डी याद आती है ॥
लगी हो भूख तो कुत्ते को हड्डी याद आती है ॥
बुढ़ापे में मुझे बचपन कुछ ऐसे याद आता है ,
कि जैसे भीड़ में नंगे को चड्डी याद आती है ॥
( 16 )
हो गए घर घर पलंग खटिया पुरानी पड़ गई ॥
जब से छत ढलने लगे टटिया पुरानी पड़ गई ॥
समय ने नख शिख बदल डाला सकल परिदृश्य का ,
केश लहराने लगे चुटिया पुरानी पड़ गई ॥
( 17 )
हंस सभी मैं कौआ जैसा ॥
सब सुंदर मैं हौआ जैसा ॥
अपने यारों में लगता हूँ ,
सब बोतल मैं पौआ जैसा ॥
( 18 )
हड्डी नहीं तो क्या ग़म , लकड़ी सही ॥
गर केकड़ा नहीं तो , मकड़ी सही ॥
पाना है किसी तरह से संतोष को ,
रबड़ी नहीं न खीर तो , खिचड़ी सही ॥
( 19 )
दुनिया का अनोखा ही कारोबार हो रहा ॥
अब भीख मांगना भी रोजगार हो रहा ॥
पेशा ये मुनाफे का इस कदर हुआ है अब ,
इसमें पढे-लिखों का भी शुमार हो रहा ॥
( 20 )
कभी कभी लगता है कभी भी आए न रात ॥
और कभी लगता है कभी न होए प्रभात ॥
सब मन की पगलाहट माथे की झक है ,
कभी लगे अच्छी मैयत तो कभी बरात ॥
( 21)
कि जैसे आपको नीर अपने घर का क्षीर लगता है ॥
ज़रा सा पिन किसी सुल्तान की शमशीर लगता है ॥
तो फिर मैं क्या गलत कहता हूँ जो अपना शहर मुझको ,
भयंकर गर्मियों में वादी-ए-कश्मीर लगता है ॥
( 22 )
विवाहित हूँ मगर दिल से अभी तक चिर कुँवारा हूँ ॥
उलफत-ओ-इश्क की खातिर मैं पचपन का अठारा हूँ ॥
बुझाने से भड़क उठती है मेरी प्यास और उस पर ,
कहीं पानी नहीं मिलता गुटकते थूक हारा हूँ ॥
( 23 )
बाहर हैं जो जेलों में गिरफ्तार नहीं हैं ॥
मतलब नहीं इसका वो गुनहगार नहीं हैं ॥
साबित न जिनके जुर्म अदालत में हो सकें ,
क्या ऐसे खताकार खताकार नहीं है ?
( 25 )
चाहे न हो पाये संग उनके अपना कभी भी ब्याह ॥
छोड़ेंगे ताउम्र न करना उनसे प्यार अथाह ॥
हमको उनकी फिक्र रहेगी सोते जगते भी ,
हमको क्या परवाह करें न वो अपनी पर्वाह ॥
( 26 )
हम किसी की न निगाहों में कभी जम पाए ॥
हम किसी दिल में न दो दिन से ज्यादा थम पाए ॥
हर जगह अपनी गरीबी अड़ी रही आगे ,
कोई फर्माइशें महबूब उठा न हम पाए ॥
( 27 )
जो जी में आए वो मत बक सम्हल-सम्हल कर बोल ॥
जब देखो तब कानाफूसी कभी तो खुलकर बोल ॥
तौबा कर चल झूठ -शिकायत -चुगली -चाटी से ,
सच मौका-ब-मौका सबके मुंह पर चलकर बोल ॥
( 28 )
जिंदगी उसकी अगर रंगीन है ,
इंतिज़ार-ए-मर्ग क्यों उसको रहे ?
चश्मा-ए-शाही जिसे कहते हैं सब,
फिर वो रेगिस्तान क्यों खुद को कहे ?
( 29 )
जिन्हें सपनों में भी न पा सकें उन पर ही मरते हैं ॥
न जानें कैसी कैसी कल्पनाएं लोग करते हैं ॥
चकोरों को किसी सूरत में चन्दा मिल नहीं सकता ,
बखूबी जानते हैं फिर भी अपलक उसको तकते हैं ॥
( 30 )
शबनम चाट चाट के अपनी प्यास बुझाता हूँ ॥
तेज धूप में अपनी रोटी दाल पकाता हूँ ॥
ऊंट के मुंह में जीरे जितनी अल्प कमाई में ,
ज़िंदा रहने की कोशिश में मर मर जाता हूँ ॥
( 31 )
ज़्यादा न दूर से बड़े करीब से मिलें ॥
बिलकुल नहीं अमीर से गरीब से मिलें ॥
करने से मेहनतें तमाम कोशिशों से कब ,
कुछ कामयाबियाँ फकत नसीब से मिलें ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
_________________________________
बहुत अच्छा लग रहा है प्रजापति जी को पढ़कर...
जवाब देंहटाएंbahut bahut dhanywad
हटाएं