दौलत राव वाढ़ेकर का आलेख - बाज़ार की चपेट में लोक-हास्य

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बाज़ार की चपेट में लोक-हास्य डॉ. दौलत राव वाढ़ेकर लोक जीवन में हास्य और  व्यंग्य की सृष्टि का एक बड़ा आधार आपसी नोकझोंक और हाजिर जवाबी रही ह...

बाज़ार की चपेट में लोक-हास्य

डॉ. दौलत राव वाढ़ेकर

लोक जीवन में हास्य और  व्यंग्य की सृष्टि का एक बड़ा आधार आपसी नोकझोंक और हाजिर जवाबी रही है। इसमें से ज्यादातर वाचिक परंपरा या बोलचाल में व्यक्त हुआ है और इसलिए लिखित प्रमाण कम ही मिलते हैं। लोक-जीवन में तमाशेबाज़ी, बातपोशी, रसकथाओं, गालीबाजों, भांड़ों और बहुरुपियों ने हास्य-व्यंग्य वृत्तांत वर्णित किए हैं। विवाह और होली पर्व पर हमारा विनोदी स्वभाव उभर आता है। मृच्छकटिक नाटक के रचयिता राजा शूद्रक हैं । वह ब्राह्मणों की खास पहचान यज्ञोपवीत की उपयोगिता के बारे में ऐसा व्यंग्य करते हैं जिसे सुन कर हंसी आती है । वह कहता है कि यज्ञोपवीत कसम खाने के काम आता है । अगर चोरी करना हो तो उसके सहारे दीवार लांघी जा सकती है । व्यंग्य को भले ही लेटिन के ‘सेटुरा’ से व्युत्पन्न बताया गया हो, किंतु भारत के प्राचीन साहित्य में व्यंग्य की बूझ रही है। ऋग्वेद में मंत्रवाची मुनियों को टर्राने वाले मेढकों की उपमा दी गई है। भविष्येतर पुराण तथा भर्तृहरिशतकत्रयं में खट्टी-मीठी गालियों के माध्यम से हमें हास्य-व्यंग्य प्रसंग उत्पन्न किए हैं–‘गालिदानं हास्यं ललनानर्तनं स्फुटम्’, ‘ददतु ददतु गालीर्गालिगन्तो भवन्तो’। वाल्मीकि रामायण में मंथरी की षड्यंत्र बुद्धि की कायल होकर, कैकेयी उसकी अप्रस्तुत प्रशंसा करती है, ‘‘तेरे कूबड़ पर उत्तम चंदन का लेप लगाकर उसे छिपा दूँगी, तब तू मेरे द्वारा प्रदत्त, सुंदर वस्त्र धारण कर देवांगना की भाँति विचरण करना।’’ रामचरितमान में भी ‘तौ कौतुकिय आलस नाहीं’ (कौतुक प्रसंग) तथा राम कलेवा में हास्य-व्यंग्य वार्ताएँ हैं। संस्कृत कवियों कालिदास, शूद्रक, भवभूति ने विदूषक के ज़रिए व्यंग्य-विनोद का कुशल संयोजन किया है, ‘‘दामाद दसवाँ ग्रह है, जो सदा वक्र व क्रूर रहता है। जो सदा पूजा जाता है और सदा कन्या राशि पर स्थित है।’’
नागार्जुन ने ‘बलचनमा’, ‘रतिनाथ की चाची’, ‘बाबा बटेसरनाथ’, ‘नयी पौध्, ‘जमनिया का बाबा’, ‘दुखमोचन’ आदि उपन्यासों में पात्रों के जरिए ही आम जनजीवन की समस्याओं को उठाया है। जमींदारों के अत्याचार और शोषण से लेकर दहेज की समस्या, अनमेल विवाह, ढोंग-पाखण्ड, बेतुके रीति-रिवाज आदि ज्वलंत प्रश्नों को यहाँ उठाया गया है। भारतीय समाज अनेकानेक जातियो और वर्गों में विभक्त होने के कारण जातिगत और वर्गगत विषमताओं का हमारे समाज में अम्बार-सा लगा हुआ है। नागार्जुन जाति की उच्चता और विचारों की निम्नता पर ‘रतिनाथ की चाची’ उपन्यास में बुध्ना चमार की पत्नी के माध्यम से प्रहार करते हैं...‘एक बात कहती हूँ, माफ करना, बड़ी जातिवालों की तुम्हारी यह बिरादरी बड़ी मलिच्छ, बड़ी निठुर होती है, मलिकाइन। हमारी भी बहू-बेटियाँ राँड़ हो जाती हैं, पर हमारी बिरादरी में किसी के पेट से आठ-आठ, नौ-नौ महीने का बच्चा निकाल कर जंगल में फेंक आने का रिवाज नहीं है। ओह कैसा कलेजा है तुम लोगों का! मइया री मइया।

इन दिनों कवि शैलेन्द्र चौहान का बहुचर्चित कथा रिपोर्ताज ‘पाँव ज़मीन पर’ आया है। भारतीय ग्राम्य जीवन की कुछ अनछुई छवियाँ , ध्वनियाँ यहाँ कवि की स्मृतियों के रूप में दर्ज हैं। कवि ने अपने लयात्मक गद्य और पैनी दृष्टि के सहारे ग्राम्य परंपराओं पर तटस्थता के साथ ज़रूरी टिप्पणियाँ की है। भारत नाम के इस देश को एक दम भीतर जा कर समझने समझाने का प्रयास करती यह एक लाजवाब किताब है। कुछ अंश यहाँ शेयर कर रहा हूँ : दशहरे के कुछ दिन पहले की बात है, आठ दस साल की उम्र वाले चार छ्ह लड़के घर के सामने गीत गाते हुए आए . ‘ टेसू अटर करें, टेसु बटर करें, टेसु लेई के टरैं.’ मेरे लिए यह कौतूहल पूर्ण था। छोटी अईया ने कहा ‘टेसू आए हैं’ . मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि लड़के और टेसू , आखिर टेसू क्या चीज़ है ? छोटी अईया ने इतनी देर में कहीं से दो पैसे ढूँढ निकाले। पैसे और अनाज का कटोरा ले कर वे दरवाज़े की ओर चलीं, मैं भी पीछे पीछे गया। वहाँ देखता क्या हूँ कि उन लड़कों में से एक ने दोनों हाथों में बिजूका जैसा कुछ पकड़ रखा है. वह लकड़ी का बना हुआ था. उस के सिर पर पगड़ी रखी हुई थी, जो शायद मिट्टी पका कर बनाई गई थी. सबसे आश्चर्यजनक बात थी कि उस के पैर सीधे लम्बवत न हो कर एक दूसरे को काटते हुए दिख रहे थे, अंग्रेज़ी के एक्स अक्षर की तरह. टेसू का यह राज़ मेरी समझ में कभी नही आया. फिर तो टेसू दशहरे के एक दिन पहले तक रोज़ ही आते रहे। ‘ टेसू अटर करें, टेसु बटर करें’ गा कर अनाज ले जाते रहे. उधर टेसू जिस दिन से आना शुरू हुए , उसी दिन या उस के एकाध दिन बाद कुछ लड़कियाँ भी गाती हुई आईं. क्या गा रही थीं, याद नहीं पड़ता पर उन के पास खूबसूरत सी कंदील नुमा मटकी थी , जो पकी हुई मिट्टी की बनी थी और बहुत बड़ी भी नहीं थी. उस में चारों तरफ गोल और लम्बे कटे हुए छेद थे, जिन में से प्रकाश बाहर आ रहा था। उस के अंदर दीपक रखा था। यह ‘झाँझी’ थी। उन्हें भी अनाज दे कर विदा किया गया। दशहरे के एक दिन पहले तक यह क्रम चलता रहा.दशहरे के दिन घर में तलवार और दूसरे लोहे के औज़ारों की पूजा हुई तो वहीं हुकुम सिंह दाऊ के घर के सामने टेसू और झाँझी का विवाह सम्पन्न हुआ. विवाह स्थल गोबर से लीपा गया, आटे से चौक पूरा था. चारों और आदमी औरतों की भीड़ थी . बीच मे बच्चे थे. लड़के टेसू लिए थे, लड़कियाँ झाँझी. कोई पंडित भी था. टेसू और झाँझी की भाँवरें पड़नी शुरू हुईं तो औरतों ने मंगल गान गाने शुरू किए, आदमी मज़े से हँस रहे थे। विवाह संपन्न हुआ तो पंडित जी ने सब के हाथों में लाल पीले धागे बाँधे, बतासे बाँटे गए। कुछ ही देर बाद लोग बाग दूल्हा दुल्हन को ले कर पोखर की ओर चल पड़े. टेसू और झाँझी विवाह के तुरंत बाद पोखर के हवाले कर दिए गए। सब लोग हँसते बोलते अपने घर लौट आए. मुझे यह अंत क़तई अच्छा नहीं लग रहा था पर कर भी क्या सकता था?

गुण और दोष का मिश्रण ही मनुष्य की खास पहचान है । हम आनंद की अनुभूति के लिये पैदा हुये हैं । रोने-धोने, बिसूरने और निषेधात्मक भयादोहन करने वाली चिंताओं में बैचेन रह कर जिंदगी गुजारना हमारे जीवन का मकसद कतई नहीं है । समाज में विषमताएं हैं, गरीबी है, आर्थिक द्वंद हैं, दुरूह समस्याएं हैं इसके बावजूद हर हाल मे हंसते रहना और चुनौतियों का डट कर मुकाबला करना हमारी संस्कृति का मूल संदेश है । इसलिये हम आये दिन त्यौहार मनाते हैं और सारे गमों को भुलाकर आनंद की नदी में डुबकी लगाते हैं । हम बूढ़े नहीं होते । हमारा शरीर बूढ़ा होता है । बुढ़ापे में भी फागुन आता है तो होली के हुड़दंग में जवान महिलाओं को बुढ़ऊ बाबा से देवर का रिश्ता जोड़ने में कोई हिचक नहीं होती । वे मगन हो कर गाने लगते हैं -

फागुन में बाबा देवर लागे ।

लोक जीवन का हास्य बोध हमारे आधुनिक जीवन में कभी-कभार अचानक प्रकट होकर हमें चौंका देता है, जैसा कि पीपली लाइव जैसी एक फिल्म ने कुछ समय पहले किया था। हास्य और विनोद के क्षण वैसे तो हम सभी के जीवन में आते हैं और काफी आते हैं, लेकिन बहुत कम स्थान और अवसर हैं जहां उन्हें सर्वसुलभ और सुरक्षित रखा जा सके। संसद की कार्यवाही विधिवत दर्ज होती है, इसलिए इसके सदनों में मनोविनोद के किस्से आम तौर पर हमारी स्मृति में रहते हैं। यही वजह है कि अक्साई चिन की सुरक्षा पर चल रही बहस में जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने थोड़ा गुस्से से कहा था कि वहां एक तिनका तक नहीं उगता, तब एक वरिष्ठ विरोधी सांसद की वह हाजिर जवाबी हमें आज भी गुदगुदा देती है जिसमें अपने गंजे सिर को आगे करते हुए उन्होंने मासूमियत से कहा था कि प्रधानमंत्री जी, उगता तो मेरे सिर पर भी कुछ नहीं है लेकिन क्या इसीलिए मैं इसे दुश्मन के हवाले कर दूं!

हिन्दी और उर्दू साहित्य के विकास के साथ ही हास्य व्यंग्य विधा परवान चढ़ने लगी । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और अकबर इलाहाबादी जैसे कवियों ने इसे कलेवर दिया । बाबू बालमुकुंद गुप्त अपने अन्योक्तिपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिये व्यंग्य साहित्य में एक नया मानक बनाने मे सफल हुये । उर्दू शायरों ने तो ब्रिटिश शासनकाल में  अंग्रेजियत पर ऐसे तीखे प्रहार किये कि अंग्रेज उसे समझ भी नहीं पाते थे और हिन्दुस्तानी उसका जायका लेते थे ।
जनाब अकबर इलाहाबादी ब्रिटिश अदालत में मुंसिफ थे लेकिन वे अपने व्यंग के तीरों से ऐसा गहरा घाव करते थे कि पढ़नेवाला एक बार उसे पढ़कर हजारों बार उस पर सोचने को मजबूर हो जाता था । लार्ड मैकाले की शिक्षा पध्दति का पोस्टमार्टम जिस बेबाकी से अकबर साहब ने किया उसकी गहराई तक आज के व्यंगकार सोच भी नहीं सकते हैं -
तोप खिसकी प्रोफेसर पहुंचे । बसूला हटा तो रंदा है ।
प्लासी की लड़ाई में सिराज्जुदौला को शिकस्त देकर तमाम देसी  रियासतों को जंग में मात देकर अंग्रेजों ने तोप पीछे हटा ली और अंग्रेजी पढ़ाने वाले प्रोफेसरों को आगे कर दिया । तोप के बसूले ने समाज को छील दिया और प्रोफेसर के रंदे ने उसे अंग्रेजों के मनमाफिक कर दिया । तोप और प्रोफसर का यह तालमेल ब्रिटिश शिक्षापध्दति पर बेजोड़ और बेरहम हमला है ।

हमारे शहरों में आए दिन होने वाले कवि सम्मेलनों के मंच एक और ऐसा स्थान हैं जहां कविताओं के अलावा कवियों की नोकझोंक और हाजिर जवाबी के दिलचस्प प्रसंगों के जरिये हास्य की अनवरत गंगा बहती है। ऐसे प्रसंग भी या तो खुद कवियों की स्मृति में जिंदा है या श्रोताओं की स्मृति में। उनमें से कई उन कवियों और श्रोताओं के साथ दुयरेग से विलुह्रश्वत भी हो चुके होंगे। चिक परंपरा की जिस कविता धारा में स्नान करने हजारों-लाखों लोग रात-रात भर बैठे रहते हैं, वही महफि़ल कविता के अधिक घनत्व के कारण या आनंद की खुमारी में कई बार बोझिल हो जाती है। तभी कवि सम्मेलनों में कवियों और संचालक के बीच होने वाली सहज बातचीत उसे इतनी रोचक, तात्कालिक और आनंददायिनी बना देती है कि सारा वातावरण फिर उत्फुल्ल हो उठता है। एक बार चेतना सारे परिवेश में न केवल उमगने लगती है, बल्कि और उत्सुक होकर बोलती-बतियाती महसूस होती है। जनकवि नाथूराम शर्मा शंकर की दावेदारी के बाद भी जब एक बड़ा पुरस्कार थोड़े कम ज्ञात और कम मान्य कवि त्रिशूल जी ले गए, तो उस पर तत्काल की गई नाथूराम शर्मा शंकर (अब स्वर्गीय) की टिह्रश्वपणी - ‘पुरस्कार तो ले गया शंकर का हथियार’ - अपने समय में काफी चर्चित रही थी। इसी प्रकार प्रसिद्ध हिंदी ग़ज़लगो स्वर्गीय बलबीर सिंह रंग एक बार अनेक कवियों के साथ उत्तर प्रदेश में इटावा से एटा जा रहे थे। रास्ते में किसी कवि ने सड़क किनारे मिले मित्र को सूचनात्मक लहजे में बताया कि ‘इटावा से एटे चले जा रहे हैं’। इस पर रंग जी ने शेर ही कह डाला - ‘इटावा से एटे चले जा रहे हैं, किसी लक्ष्मीपति के बुलावे पे देखो, सरस्वती के बेटे चले जा रहे हैं’।
कोई भी समाज सिर्फ आधुनिकताबोध के साथ नहीं जीता, उसकी सांसें तो ‘लोक’ में ही होती हैं। भारतीय जीवन की मूल चेतना तो लोकचेतना ही है। नागर जीवन के समानांतर लोक जीवन का भी विपुल विस्तार है। खासकर हिंदी का मन तो लोकविहीन हो ही नहीं सकता। हिंदी के सारे बड़े कवि तुलसीदास, कबीर, रसखान, मीराबाई, सूरदास लोक से ही आते हैं। नागरबोध आज भी हिंदी जगत की उस तरह से पहचान नहीं बन सका है। भारत गांवों में बसने वाला देश होने के साथ-साथ एक प्रखर लोकचेतना का वाहक देश भी है। आप देखें तो फिल्मों से लेकर विज्ञापनों तक में लोक की छवि सफलता की गारंटी बन रही है। बालिका वधू जैसे टीवी धारावाहिक हों या पिछले सालों में लोकप्रिय हुए फिल्मी गीत सास गारी देवे (दिल्ली-6) या दबंग फिल्म का मैं झंडू बाम हुयी डार्लिंग तेरे लिए इसका प्रमाण हैं। ऐसे तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं।

किंतु लोकजीवन के तमाम किस्से, गीत-संगीत और प्रदर्शन कलाएं, शिल्प एक नई पैकेजिंग में सामने आ रहे हैं। इनमें बाजार की ताकतों ने घालमेल कर इनका मार्केट बनाना प्रारंभ किया है। इससे इनकी जीवंतता और मौलिकता को भी खतरा उत्पन्न हो रहा है। जैसे आदिवासी शिल्प को आज एक बड़ा बाजार हासिल है किंतु उसका कलाकार आज भी फांके की स्थिति में है। जाहिर तौर पर हमें अपने लोक को बचाने के लिए उसे उसकी मौलिकता में ही स्वीकारना होगा। हजारों-हजार गीत, कविताएं, साहित्य, शिल्प और तमाम कलाएं नष्ट होने के कगार पर हैं। किंतु उनके गुणग्राहक कहां हैं। एक विशाल भू-भाग में बोली जाने वाली हजारों बोलियां, उनका साहित्य-जो वाचिक भी है और लिखित भी। उसकी कलाचेतना, प्रदर्शन कलाएं सारा कुछ मिलकर एक ऐसा लोक रचती है, जिस तक पहुंचने के लिए अभी काफी समय लगेगा। लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है। क्योंकि हमारी परंपरा में ही ज्ञान बसा हुआ है। ज्ञान, नीति-नियम, औषधियां, गीत, कथाएं, पहेलियां सब कुछ इसी ‘लोक’ का हिस्सा हैं।आज़ादी के 6 दशकों में जिन गाँवों तक हम पीने का पानी तक नहीं पहुँचा पाए, वहाँ कोला और पेप्सी की बोतलें हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को मुँह चिढ़ाती दिखती हैं। गाँव में हो रहे आयोजन आज लस्सी, मठे और शरबत की जगह इन्हीं बोतलों के सहारे हो रहे हैं। ये बोतलें सिर्फ़ लोक की संस्कृति का विस्थापन नहीं हैं, यह सामूहिकता का भी गला घोंटती हैं। गाँव में हो रहे किसी आयोजन में कई घरों और गाँवों से मांगकर आई हुई दही, सब्जी या ऐसी तमाम चीजें अब एक आदेश पर एक नए रुप में उपलब्ध हो जाती हैं। दरी, चादर, चारपाई, बिछौने, गद्दे और कुर्सियों के लिए अब टेंट हाउस हैं। इन चीज़ों की पहुँच ने कहीं न कहीं सामूहिकता की भावना को खंडित किया है।

भारतीय बाज़ार की यह ताकत हाल में अपने पूरे विद्रूप के साथ प्रभावी हुई है। सरकारी तंत्र के पास शायद गाँव की ताकत, उसकी संपन्नता के आंकड़े न हों, लेकिन बाज़ार के नए बाजीगर इन्हीं गाँवों में अपने लिए राह बना रहे हैं। नए विक्रेताओं को ग्रामीण भारत और लोकजीवन की सच्चाइयाँ जानने की ललक अकारण नहीं है। वे इन्हीं जिज्ञासाओं के माध्यम से भारत के ग्रामीण ख़जाने तक पहुँचना चाहते हैं। उपभोक्ता सामग्री से अटे पड़े शहर, मेगा माल्स और बाज़ार अब यदि भारत के लोकजीवन में अपनी जगह तलाश रहे हैं, तो उन्हें उन्हीं मुहावरों का इस्तेमाल करना होगा, जिन्हें भारतीय लोकजीवन समझता है। विविधताओं से भरे देश में किसी संदेश का आख़िरी आदमी तक पहुँच जाना साधारण नहीं होता। कंपनियां अब ऐसी रणनीति बना रही हैं, जो उनकी इस चुनौती को हल कर सकें।

चुनौती साधारण वैसे भी नहीं है, क्योंकि पांच लाख 72 हजार गाँव भर नहीं, वहाँ बोली जाने वाली 33 भाषाएं, 1652 बोलियाँ, संस्कृतियाँ, उनकी उप संस्कृतियाँ और इन सबमें रची-बसी स्थानीय लोकजीवन की भावनाएं इस प्रसंग को बेहद दुरूह बना देती हैं। यह लोकजीवन एक भारत में कई भारत के सांस लेने जैसा है। कोई भी विपणन रणनीति इस पूरे भारत को एक साथ संबोधित नहीं कर सकती। गाँव में रहने वाले लोग, उनकी ज़रूरतें, खरीद और उपभोग के उनके तरीके बेहद अलग-अलग हैं। शहरी बाज़ार ने जिस तरह के तरीकों से अपना विस्तार किया वे फ़ार्मूले इस बाज़ार पर लागू नहीं किए जा सकते। शहरी बाज़ार की हदें जहाँ खत्म होती हैं, क्या भारतीय ग्रामीण बाज़ार वहीं से शुरू होता है, इसे भी देखना ज़रूरी है। ग्रामीण और शहरी भारत के स्वभाव, संवाद, भाषा और शैली में जमीन-आसमान के फ़र्क हैं। देश के मैनेजमेंट गुरू इन्हीं विविधताओं को लेकर शोधरत हैं। यह रास्ता भारतीय बाज़ार के अश्वमेध जैसा कठिन संकल्प है। जहाँ पग-पग पर चुनौतियाँ और बाधाएं हैं।

भारत के लोकजीवन में सालों के बाद झाँकने की यह कोशिश भारतीय बाज़ार के विस्तारवाद के बहाने हो रही है। इसके सुफल प्राप्त करने की कोशिशें हमें तेज़ कर देनी चाहिए, क्योंकि किसी भी इलाके में बाज़ार का जाना वहाँ की प्रवृत्तियों में बदलाव लाता है। वहाँ सूचना और संचार की शक्तियां भी सक्रिय होती हैं, क्योंकि इन्हीं के सहारे बाज़ार अपने संदेश लोगों तक पहुँचा सकता है। जाहिर है यह विस्तारवाद सिर्फ़ बाज़ार का नहीं होगा, सूचनाओं का भी होगा, शिक्षा का भी होगा। अपनी बहुत बाज़ारवादी आकांक्षाओं के बावजूद वहाँ काम करने वाला मीडिया कुछ प्रतिशत में ही सही, सामाजिक सरोकारों का ख्याल ज़रूर रखेगा, ऐसे में गाँवों में सरकार, बाज़ार और मीडिया तीन तरह की शक्तियों का समुच्चय होगा, जो यदि जनता में जागरूकता के थोड़े भी प्रश्न जगा सका, तो शायद ग्रामीण भारत का चेहरा बहुत बदला हुआ होगा। भारत के गाँव और वहाँ रहने वाले किसान बेहद ख़राब स्थितियों के शिकार हैं। उनकी जमीनें तरह-तरह से हथियाकर उन्हें भूमिहीन बनाने के कई तरह के प्रयास चल रहे हैं। इससे एक अलग तरह का असंतोष भी समाज जीवन में दिखने शुरू हो गए हैं। भारतीय बाज़ार के नियंता इन परिस्थितियों का विचार कर अगर मानवीय चेहरा लेकर जाते हैं, तो शायद उनकी सफलता की दर कई गुना हो सकती है। फिलहाल तो आने वाले दिन इसी ग्रामीण बाज़ार पर कब्जे के कई रोचक दृश्य उपस्थित करने वाले हैं, जिसमें कितना भला होगा और कितना बुरा इसका आकलन होना अभी बाकी है?

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दौलतराव वाढ़ेकर

वरिष्ठ व्याख्याता, हिन्दी

केन्द्रीय विद्यालय,

Seminary Hills, Nagpur -440001

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: दौलत राव वाढ़ेकर का आलेख - बाज़ार की चपेट में लोक-हास्य
दौलत राव वाढ़ेकर का आलेख - बाज़ार की चपेट में लोक-हास्य
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