बदला अर्जुन प्रसाद ए क बार की बात है मंडुआडीह रेलवे स्टेशन के निकट एक बहुत ही बदनाम बस्ती है जिसका नाम है शिवपुर पाड़ा। बाबू शरत कुमार र...
बदला
अर्जुन प्रसाद
एक बार की बात है मंडुआडीह रेलवे स्टेशन के निकट एक बहुत ही बदनाम बस्ती है जिसका नाम है शिवपुर पाड़ा। बाबू शरत कुमार रेलवे के एक बड़े हाकिम थे। बहुत ही शिक्षित, विद्वान और परोपकारी पुरुष थे। वह इतने सज्जन और उदार थे कि चिराग लेकर ढूँढ़ने पर भी उनके जैसा नेक व्यक्ति न मिलता। उनके मातहत उनकी बड़ी कद्र करते थे।
एक पुत्री विभा के जन्म के दो साल बाद ही एक पुत्र अमृत को जन्म देने के बाद ही उनकी प्राणप्रिया पत्नी तुलसी की अचानक मृत्यु हो गई। उस समय विभा सात साल की थी और अमृत पाँच साल का। दुनिया से उनके नेत्र मूँद लेने से बाबू शरत कुमार खुद को अकेला महसूस करने लगे। उनका दिन तो जैसे-तैसे कट जाता लेकिन, रात गुजरने का नाम ही न लेती।
दिन में जब वह अपने दफ्तर चले जाते तब घर पर उनके बच्चों की देखभाल करने वाला कोई न होता था। ऐसे में उनके संस्कारविहीन होने का भय था। शिक्षित और कुलीन स्त्रियाँ अपने रोजमर्रा के कामों के साथ-साथ बच्चों को संस्कारवान भी बनाती हैं। यह देखकर उन्होंने उन्हें एक हॉस्टल वाले स्कूल में दाखिल करा दिया। वे वहाँ आराम से पढ़ने-लिखने लगे।
समयचक्र चलता रहा। तुलसी को गुजरे हुए डेढ़-दो बीत गए। मनुष्य के अंदर अनेक प्रकार की भावनाएं और क्रियाएं उथल-पुथल मचाती ही रहती हैं। शरत बाबू भी उससे न बच सके। अभी वह एकदम हट्टे-कठ्ठे और जवान थे। उनकी नसों में रेंगने वाला खून गर्म था।
कार्तिक का महीना था और सर्दियों का मौसम। असमय ही तुलसी के चले जाने से अब शरत बाबू का ख्याल रखने वाला कोई भी न था। उन्हें रह-रहकर अपनी अर्धांगिनी तुलसी की याद आती रहती थी। दफ्तर से घर पहुंचने पर उन्हें याद करके वह कभी-कभी बिस्तर और तकिए में मुँह छिपाकर सिसकने भी लगते थे।
तभी एक दिन उनके जी में न जाने क्या आया कि शाम को आफिस से छूटने के बाद वह मन बहलाने के लिए सीधे शिवपुर के पाड़े में जा पहुँचे। शिवपुर पाड़े के उस बाजार में सौंदर्य रुपयों के मोल बिकता था। वहाँ सुंदरता की कीमत लगाई जाती थी। खरीददार रात के अंधेरे में चुपचाप आते और सुंदरता का मोल देकर उसे खरीद लेते।
यह एक ऐसी पैंठ होती है जहाँ कोई स्वयं को अपनी मर्जी से बिकने को विवश होता है तो किसी को कोई दूसरा व्यक्ति लाकर बेच जाता है। इसके बावजूद लोग घर के व्यंजन का स्वाद उस बाजार में जाकर तलाशते हैं। ऐसा करने में उनकी कमजोरी भी हो सकती है और मजबूरी भी। क्योंकि घर में पेट न भरने पर लोग बाजार में खाने चले जाते हैं। उस वक्त दिन ढल चुका था। चारों ओर घुप अंधेरा छाया हुआ था। शरत बाबू सबसे पहले एक बीयर बार में जाकर थोड़ी सी बीयर का आनंद लिए। इसके बाद खरामे-खरामे एक कोठे पर पहुँच गए।
डसकी मालकिन का नाम था शांताबाई। वह एक महिला होते हुए भी निहायत गुस्सैल और क्रूर थी। उसे किसी पर तरश न आता था। उसका हृदय मानो पत्थर का था। दयालुता नाम की चीज उसे छू भी न गई थी। वहाँ जाकर बाबू शरत कुमार ने जो कुछ भी देखा उस पर उन्हें कतई विश्वास ही न हो रहा था।
दरअसल बात यह थी कि जब वह एक कक्ष में पहुँचे तो उन्होंने देखा 19-20 वर्ष की एक कुमारी लड़की एक कोने में बैठकर सुबक-सुबककर रो रही है। यह देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उनके हृदय की गति एकदम तेज हो गई। वह बड़ी बारीकी से हालात को समझने की कोशिश करने लगे।
शरत बाबू को देखते ही वह यकायक खड़ी हो गई। उसे ऐसी हालत में देखते ही कुमार साहब बोले-देवी! बुरा मत मानिए। यह बताइए आप इस तरह रो क्यों रही हैं। आपके साथ ऐसा क्या हो गया? वह लड़की कुछ भी न बोली। मात्र रोए जा रही थी। तब बाबू शरत कुमार ने विनम्रता से कहा आप पहले तसल्ली से यहाँ पलंग पर बैठिए। उसके बाद मुझे अपनी परेशानी बताइए। यह सुनते ही वह लड़की अपने नेत्रों में आँसू भरकर बोली महोदय! इस वक्त जहाँ आप खड़े हैं वह एक ऐसा बाजार है जहाँ सरेआम स्त्रियों की आबरू बिकती है। यहाँ किसी की बेटी बिकती है तो किसी की पत्नी। हाँ इतना अवश्य है कि यहाँ लाइ्र गई हर स्त्री किसी न किसी प्रकार बहुत मजबूर होती है। अपनी खुशी से यहाँ कभी कोई भी औरत नहीं आती है।
फिर एक लंबी साँस लेकर वह बोली बाबूजी! मैं इस समय इस बाजार की शोभा हूँ। आप एक ग्राहक हैं। मैं यहाँ एक विक्रेता हूँ और स्वयं को बेचने को खड़ी कर दी गई हूँ। आपने इस कोठे की मालकिन को पैसा दिया होगा। इसलिए आप यहाँ जो कुछ भी करने आए है उसे करके जाइए मेरी फिक्र न कीजिए।
एक बात और, आप मेरी परेशानी जानकर क्या करेंगे? तत्पश्चात शरत बाबू उसे ढाढ़स बँधाते हुए बोले देखिए, आप मेरी पुत्री समान हैं। उम्र के हिसाब से मैं आपके पिता समान हूँ। मुझसे डरने और घबराने की जरूरत नहीं है। तब तक बीमारी का पता नहीं चलता तब तक उसका इलाज करना बहुत मुश्किल होता है। जब आप मुझे कुछ बताएंगी ही नहीं तब मैं आपकी कोई मदद कैसे कर सकता हूँ? अतएव जो भी माजरा है मुझे साफ-साफ बताइए। हो सकता है सच्चाइ्र जानने के बाद मैं आपकी कुछ सहायता कर सकूँ। इससे आपको कुछ राहत मिल जाए।
यह सुनते ही उसने शरत बाबू को अपनी सारी आपबीती रोते-रोते सुना दी। वह बोली बाबूजी! मेरा नाम शालू है। मैं कलकत्ता (कोलकाता) के सोनागॉछी इलाके की रहने वाली हूँ। मैं बी. ए. पास हूँ और अँग्रेजी विषय से एम. ए. करने हेतु दाखिला ले रखा था।
सोनागॉछी, कोलकाता का नाम सुनते शरत बाबू चौंक पड़े। वह बड़ै ताज्जुब्ब में पड़कर बोले भई शालू! आपकी बात सुनकर मेरा तो सिर चकराने लगा। आप यह क्या कह रही हैं? कहाँ कलकत्ता और कहाँ यह शिवपुर पाड़ा? भला यह कैसे हो सकता है? अच्छा! चलिए हम मान लेते हैं कि आप कोलकाता की रहने वाली हैं पर, अब यह बताइए फिर आप वहाँ से यहाँ इस बदनाम बाजार में कैसे पहुँच गईं? आपको तो किसी कालेज या यूनिवर्सिटी में अध्ययनरत होना चाहिए।
यह सुनकर शालू अपने नेत्रों में अश्रुधारा लेकर बोली बाबूजी! हमारे ग्रांड पा गोविंद मुकर्जी सोनागॉछी के एक जानेमाने जमींदार थे। उनके पास काफी जमीन-जायदाद थी। वह बहुत ही शिक्षित, शरीफ, दयालु और नीतिज्ञ पुरुष थे। उनकी पत्नी यानी मेरी ग्रांड मां शुभ्रा देवी एक धार्मिक और विनम्र महिला थीं। हमारे ग्रांड पा के हेमंत और बलदेव नाम के दो पुत्र थे। मेरे पिताजी का नाम हेमंत है और मेरी माँ का विभा है। हम तीन भाई-बहन हैं। मैं अपने मां-बाप की इकलौती बेटी हूँ। मेरे दोनों भाई मुझसे काफी छोटे हैंं। वे अभी कमशः छठी और आठवीं कक्षा में पढ़ते हैं।
तब शरत बाबू ने कुछ उदास मन से कहा शालू! आपने अभी तक अपने चाचा और चाचीजी के बारे में कुछ भी नहीं बताया। अब जरा उनके विषय में भी कुछ बताइए।
इतना सुनना था कि शालू बोली मेरे चाचाजी का नाम बलदेव है और चाचीजी का मालती है। मेरे चाचा बलदेव जी एकदम ही लालची किस्म के इंसान हैं। उनके अंदर अपने बड़े भाई और भौजाई के प्रति लेशमात्र भी इज्जत नहीं है। वह खुद को सबसे अधिक बुद्धिमान और मेरे मां-बाप को सबसे बड़ा बेवकूफ समझते हैंं। वह अपने सामने दूसरों को बिल्कुल कम आँकते हैं।
वह कुछ रूककर फिर बोली इतना ही नहीं, हमारे अम्मा और बाबूजी से पाने की उम्मीद तो करते हैं मगर, एक पाई खर्च करना नहीं जानते हैं। उन्होंने अपने हिस्से की काफी खेतीबाड़ी बेच दी और अब चाहते हैं कि बाबूजी उनकी मदद करते रहें। वह हमेशा बाबूजी के सामने रुपए-पैसों की मांग रखते रहते थे। उनकी प्रबल इच्छा थी कि बाबूजी सदैव उनको कुछ न देते रहें। शुरुआत में बाबूजी अपनी सामर्थ्य के अनुसार देते रहे मगर, जब हमारा खुद का परिवार बढ़ गया और खर्चे में वृद्धि हो गई तब बाबूजी ने आहिस्ता-आहिस्ता बंद कर दिया क्योंकि, उनके कम देने पर चाचाजी खुश न होते थे। उनका मुँह हमेशा लटका रहता था। उनकी इस ऊटपटांग सोहबत के चलते पिताजी उनसे दूर-दूर रहने लगे। उन्होंने उनसे दूरी बरतनी आरंभ आरंभ कर दी। इससे चाचाजी उन्हें अपना शत्रु मानने लगे। वह हम सबको मजा चखाने की धमकी भी देने लगे। वह आए दिन कहने लगे कि मैं अपने इस अपमान का बदला किसी न किसी दिन जरूर लूँगा। आप लोग भी याद करेंगे कि किसी से पाला पड़ा था।
तदंतर शरत बाबू कुछ उदास मन से बोले शालु! अब आखिरी एक बात और बताइए आपकी चाची मालती देवी का आप लोगों के साथ व्यवहार कैसा रहता है।
यह सुनना था कि शालू बोली साहब! अब रही बात चाची मालती देवी की तो वह भी उन्हीं के नक्श्ो कदम पर चलती हैंं। कहने का तात्पर्य यह कि दोनों भाइयों में न कभी पटी और न आइंदा ही पटने की कोई आशा की किरण दिखाई दे रही है। आपके सामने आज मेरी जो दयनीय स्थिति है उसके लिए मेरी चाची मालती देवी ही पूर्णतया जिम्मेदार हैं।
यह सुनते ही शरत कुमार बोले क्यों, आपकी चाची ने क्या किया?
तब शालू बोली सर! यह सब किया धरा सब मेरी चाची का ही है। उस नागिन के चलते ही मैं कहाँ से चलकर कहाँ आ पहुँची? इससे पहले कि आप इस बारे में मुझसे कोई और सवाल करें लीजिए तिनिक गौर से सुनिए। मैं आपको अपनी दुख-दर्दभरी दास्तां सुनाती हूँ।
इतना कहकर शालू बोली चाचाजी नाराज रहते थे इसलिए उनकी नाराजगी तो समझ में आती है किन्तु, चाची हम लोगों से सदा बोलती-चालती रहती थी इसलिए उस पर कभी लेशमात्र भी संदेह न हुआ। मैं उसे अपना ही मानती रही। हमने उसे कभी पराया न समझा। अब आपको क्या बताऊँ वह चुड़ैल इतनी खतरनाक निकली कि मुझे यहाँ तक पहुँचा दिया। उसने मुझे लाकर इस नर्कमय दलदल में धकेल दिया। उसे मुझ पर तनिक भी दया न आई।
तत्पश्चात शरत बाबू बोले हाँ, हाँ बताइए रुकिए मत। आगे क्या हुआ?
अंततः शालू बोली बाबूजी! आज एक हफ्ता हो गया। एक दिन की बात है मेरी चाची मुझसेे बोली शालू बेटी! क्या तुम्हें मालूम है कि काशी के विश्वनाथ जी की महिमा बड़ी अपरंपार है। उनके दर्शन से मन की मुरादें पूरी हो जाती हैं। देश के कोने-कोने से लोग उनके दर्शन के लिए आते हैं। इसके अलावा वहाँ मानस, संकटमोचन और दुर्गा मंदिर भी बहुत प्रसिद्ध हैं।
चाची ने मुझे इतने सब्जबाग दिखाए कि मैं उसके साथ काशी आने को सहर्ष राजी हो गई। वशीकरण मंत्र की तरह बड़े स्नेह से मुझे अपने वश में करने के बाद चाची ने यहाँ आने के लिए अपना और मेरा रिजर्वेशन भी करा लिया। हमें और हमारे माता-पिता को पूरी तरह विश्वास में लेने के बाद वह मुझे लेकर बनारस आ गई। यहाँ आने के बाद उसने सर्वप्रथम मुझे भलीभाँति इधर-उधर खूब घुमाया, टहलाया। उसने जीभर विश्वनाथ, मानस, संकटमोचन और दुर्गा मंदिर दिखाया। मुझे खुशी मिली। सोचा ईश्वर दर्शन से मेरा जीवन सफल हो जाएगा।
वह फिर बोली एक हफ्ते तक काशी घूमने के बाद जब हमारे वापसी का समय आया तो आज सुबह सफर के अंतिम दिन चाची धोखे से मुझे लेकर यहाँ आ गई। यहाँ लाकर मुझे इस कोठे की स्वामिनी शांताबाई के हवाले कर गई। यह भी हो सकता है कि उस दुष्टा ने मुझे उसके हाथों बेच दिया हो। मुझे इस नर्क में ठेलकर शायद वह अकेले कोलकाता वापस चली गई। अब आप ही बताइए मैं इस दलदल से कैसे निकलूँ? आप मेरी जितनी मदद कर सकते हैं कृपया कीजिए। मेरा जीवन नर्कमय बनने से बचा लीजिए। मैं आपका यह उपकार जीवन भर न भूलूँगी।
यहाँ आकर मुझे ज्योंही ज्ञात हुआ कि मेरी वैरी चाची ने अपना पुराना बदला लेने की खातिर मुझे इस वेश्यालय में लाकर बेंच दिया है। मैं छटपटाकर रह गई। मैंने यहाँ सं निकल भागने का काफी यत्न किया लेकिन, सब व्यर्थ। शिकारी के मजबूत जाल में फँसे मृग को पंख कटे हुए पक्षी की भाँति तड़पकर रहना पड़ा।
बाहर जाने का कोई रास्ता न पाकर मैं सोचने लगी वह कमबख्त मेरी चाची है या कोई दुश्मन? उसने यह भी न सोचा कि उसके इस काले कारनामे का भाँडा फूटने पर क्या होगा। वह कलकत्ता जाकर मेरे मां-बाप से क्या कहेगी? क्या लोग इतने बेवकूफ हैं जितना कि वह सोचती है? क्या लोग उसे शक की नजर से नहीं देखेंगे। क्या वे उस पर उँगली नहीं उठाएंगे। क्या मेरे जन्मदाता माता-पिता उसकी बात पर सरलता से यकीन कर लेंगे? क्या उन्हें उस पर सेदेह न होगा? क्या वे बडी आसानी से मान लेंगे कि उनकी बेटी बनारस की भीड़भाड़ में गुम हो गई।
मेरा दिन तो किसी प्रकार सोचते-विचारते गुजर गया। उसके बाद शाम हो गई। धीरे-धीरे रात होने को आ गई। सायंकाल होते देख मेरे दिल की धड़कनें यकायक तेज हो गईं। मेरी हालत ऐसी हो गई मानो मेरा दम ही निकल जाएगा। मैं सोचने लगी कि क्या मेरे भाग्य में यही बदा है। यहाँ मेरा दम घॅुंट रहा है। जितनी जल्दी हो सके मुझे यहाँ से निकाल लीजिए।
हृदय को झकझोरकर रख देने वाली शालू की आपबीती कहानी सुनते ही बाबू शरत कुमार उस कोठे पर जाने का अपना मकसद भूलकर धर्म कार्य में जुट गए। उनकी दहकती कामाग्नि चंद क्षणों में शीतल हो गई। उन्माद पर विवेक को विजय मिली। वह बोले शालू! देखिए आप चिंता न कीजिए, तनिक धैर्य रखिए। मुझे अपने माता-पिता का फोन नंबर और पता दीजिए। मैं उनसे बात करके आपको यहाँ से बाहर निकालने के बारे में बात करुँगा। शालू ने उन्हें अपने माता-पिता का पता और फोन नंबर बता दिया।
शरत साहब ने जब शालू के मां-बाप से कलकत्ता बात किया तो उन्हें मालूम हुआ कि शालू की चाची मालती अपनी भोलीभाली मासूम भतीजी को बेचने के बाद अकेले कलकत्ता लौट गई। वहाँ जाकर उसने शालू के माता पिता के पूछने पर उन्हें बताया कि शालू भीड़ में न जाने कहाँ खो गई लेकिन, इसमें चिंता की कोई बात नहीं है। वह बोली शालू कोई दूध पीती छोटी बच्ची नहीं बल्कि, बड़ी है। पैसे उसके पास हैं ही दो-चार दिन बाद वापस आ जाएगी।
अगर वह वापस न आई तो समझ लीजिए कि हो सकता है उसका कोई प्रेमी होगा जिसके बारे में हमें पता न रहा हो और वह हमारे साथ ही बनारस तक चला गया हो। मौका देखकर वह शालू को लेकर उड़ गया हो और किसी मंदिर में जाकर दोनों ने विवाह कर लिया हो। यदि ऐसा हुआ है तो समझिए शालू का लौटना असंभव है।
यह सुनना था कि शरत बाबू अपना परिचय देते हुए उनसे बोले देखिए शालू की चाची ने आप लोगों को जो कुछ भी बताया वह सब एकदम मनगढ़ंत और सफेद झूठ है। बल्कि, यह समझिए कि कोरी बकवास है। सच तो यह है कि उसने आपकी बेटी शालू को आप लोगों से दुश्मनी का बदला लेने के लिए यहाँ के एक कोठे पर बेच दिया है। हेमंतजी! पुलिस में रिपोर्ट लिखाकर सबसे पहले उसे गिरफ्तार कराइए। उसके बाद पुलिस लेकर यहाँ आइए और शालू को सकुशल ले जाइए। अगर, आप लोगों ने विलंब किया तो वह बेचारी फिर कभी इस कीचड़ से उबर न पाएगी।
अंततोगत्वा शालू के पिता हेमंत मुकर्जी ने बिल्कुल वैसा ही किया जैसा कि शरत बाबू ने कहा था। पति-पत्नी पुलिस के साथ यहाँ आकर शालू को वापस ले गए। उसकी चाची मालती गिरफ्तार करके जेल भेज दी गई।
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राजभाषा सहायक
महाप्रबंधक कार्यालय
उत्तर मध्य रेलवे मुख्यालय
इलाहाबाद
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