छत्तीसगढ़ी लोककथाओं में अभिप्राय विमर्श लोककथा, लोकसाहित्य की एक विशिष्ट विधा है। सीधे-सीेधे अर्थों में यह लोक-मनोरंजन का एक सशक्त माध्यम ह...
छत्तीसगढ़ी लोककथाओं में अभिप्राय विमर्श
लोककथा, लोकसाहित्य की एक विशिष्ट विधा है। सीधे-सीेधे अर्थों में यह लोक-मनोरंजन का एक सशक्त माध्यम है। इलेक्ट्रानिक उपकरणों की सर्वसुलभता के पूर्व इसका अपना बोलबाला था। कथा कहने और सुनने की प्रक्रिया जन में बिना नांगा चलती रहती थी। फुर्सत के समय में लोककथा का रसपान तो करते ही थे, श्रम करते वक्त भी किस्सागोई का व्यापार चलता था। जनमानस में लोककथाओं के प्रति अद्भुत सम्मेाहन होता था।
लोककथाओं की रचना कब हुई और किसने की, इसे ठीक-ठीक बता पाना असंभव है। यह आदिकाल से ही जनमानस में प्रचलित रही है। निश्चित रूप से लोककथाओं का सृजन ग्रामीण परिवेश में ही हुआ है और इनके सृजेता मेहनतकश जनता ही रही है, इसलिए इसका सम्बन्ध बहुत सीमा तक श्रम संस्कृति से रहा है। पिछली सदी में लोक साहित्य पर काफी काम हुआ है। स्वतंत्र लेखन के साथ-साथ विश्वविद्यालयों में शोध कार्य भी हुए हैं। लोककथा के तात्विक विवेचन के क्रम में प्रायः सभी मनीषियों ने इनमें निहीत अभिप्रायों की चर्चा की है। लोक कथाओं में अभिप्राय को महत्वपूर्ण तत्व माना गया है। डॉ. शंकुतला वर्मा के अनुसार - ‘‘अभिप्राय लोककथा का प्रमुख परम्परित तत्व है, शैली उसकी परिवर्तनशील है। अभिप्रायों द्वारा लोककथा की सामग्री प्रस्तुत की जाती है और शैली द्वारा उसे एक रूप प्रदान किया जाता है। बिना अभिप्राय के लोककथा का अस्तित्व ही नहीं है। विभिन्न कहानियों में विभिन्न अभिप्राय होते हैं।’’
डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने अपना मत इस प्रकार से रखा है- ‘‘कहानियों के लिए अभिप्रायों का वैसा ही महत्व है जैसा किसी भवन के लिए ईंट, गारे अथवा किसी मंदिर के लिए नाना भांति की साज से उकेरे हुए शिलापट्ट।’’
इस विचार के परिप्रेक्ष्य में अभिप्रायों का आशय लोककथा के गठन, रूपांकन अथवा साज-सज्जा की ओर लक्षित होता है।
डॉ. श्यामाचरण दुबे इस सम्बन्ध में लिखते हैं- ‘‘अभिप्राय के आधार पर सम्पूर्ण विश्व के लोककथा साहित्य का विश्लेषण हमें बतलाता है कि मानव की नये अभिप्राय निर्मित करने की शक्ति आश्चर्यजनक रूप से सीमित है। थोड़े से अभिप्राय नये-नये रूपों में हमें मानव जाति की लोककथाओं में मिलते हैं।’’
लोककथा के अभिप्रायों को कुछ अधिक स्पष्ट करते हुए डॉ. शंकुतला वर्मा अपने शोध प्रबन्ध- छत्तीसगढ़ी लोक जीवन और लोक साहित्य के अध्ययन में उदाहरण सहित लिखती हैं - ‘‘विभिन्न कहानियों में विभिन्न अभिप्राय होते हैं। उदाहरणार्थ एक कहानी है-
एक राजकुमार है। उसका एक मित्र या भाई है। राजकुमार किसी सुन्दरी राजकुमारी का सौन्दर्य वर्णन सुनकर या स्वप्न-चित्र दर्शन से मुग्ध होकर, उसे प्राप्त करने के लिए निकल पड़ता है। राजकुमारी किसी राक्षस के अधीन है या उसका निवास-स्थल जल के आवृत्त सागर, तालाब आदि स्थान है। राजकुमार की सहायता उसका मित्र या भाई करता है। अनेक संकटो को पार कर, कष्ट झेलते हुए साहसपूर्ण कृत्यों से अंततः राजकमार उस सुन्दरी को प्राप्त कर लेता है, किन्तु जब वे तीनों वापस लौटते हैं, तो पुनः विपत्तियां आती हैं। इन विपत्तियों के सम्बन्ध में राजकुमार और उसकी पत्नी को तो कोई ज्ञान या संकेत नहीं रहता है, पर उसके मित्र को अवश्य ही इस संबंध में जानकारी रहती है। बात यह है कि मार्ग में जब राजकुमार और उसकी पत्नी विश्राम करते हैं, तो मित्र जागता रहता है और तभी उसे उन दोनों पर आने वाले भावी संकटों की सूचना मिलती है। यह सूचना कभीे पक्षियों के परस्पर वार्तालाप से मिलती है, कभी आकाश या जलवानी से, तो कभी अन्य माध्यमों से। मित्र सजग हो जाता है और उन संकटों से अपने मित्र व उसकी पत्नी की रक्षा करता है। इस रक्षा कार्य में उसे अपने प्राणों की आहुति दे देनी पड़ती है। बाद में राजकुमार को सच्ची स्थिति का ज्ञान होता है और तब वह शंकर जी की आराधना कर, अपनी संतान की बलि देकर, अपने मित्र को पुनः जीवित कर लेता है और फिर तीनों सुखी जीवन व्यतीत करते हैं। ’’
इस कथासार के आधार पर डॉ. वर्मा ने उसमें निहित अभिप्रायों का उल्लेख निम्नानुसार किया है-
1. किसी मानवेतर (राक्षस) प्राणी के अधीन एक सुन्दरी राजकुमारी।
2. राजकुमारी का निवास स्थल जल से आवृत्त।
3. राजकुमारी के सौंदर्य को सुनकर या स्वप्न या चित्र देखकर राजकुमार का उस पर मुग्ध होना और उसकी प्राप्ति के प्रयास।
4. मित्र की सहायता से राजकुमारी की प्राप्ति।
5. पक्षियों द्वारा विपत्तियों की सूचना।
6. मित्र द्वारा विपत्तियों का निराकरण किन्तु मित्र की मृत्यु हो जाना।
7. समय आने पर सत्य बात का ज्ञान होना और राजकुमार का मित्र को जीवित करने की आकुलता प्रदर्शित करना।
8. राजकुमार के प्रयास, उसकी कठिन परीक्षा और अन्ततः संतान-बलि देकर भी मित्र को जीवित कर लेना।
उपर्युक्त सभी अभिप्राय कथा में आये प्रमुख पात्रों एवं घटनाओं पर आधारित हैं। ये सभी स्थूल रूप में हैं। हो सकता है, प्राचीन काल में इस कथा के सभी पात्र एवं घटनाएं जनमानस को सत्य प्रतीत होते रहे हों, तथा इन पर उनकी पूरी आस्था और विश्वास भी पुख्ता रहे हों। किन्तु आज का मानव समाज इन्हें जस का तस स्वीकार नहीं कर सकता।
लोककथाएं शाश्वत होती हैं। उनमें हेर-फेर भी नहीं किया जा सकता किन्तु उनमें निहित प्रेरक-तत्वों की विवेचना विभिन्न कालों में भिन्न-भिन्न हो सकती है। वर्तमान युग विज्ञान का है। प्रकृति के सारे अबूझ रहस्य, तर्कों और अनुप्रयोगों के माध्यम से स्पष्ट रूप से खुलते जा रहे हैं। आज का समझदार व्यक्ति राक्षस, भूत-प्रेत, जादू-टोना और चमत्कारों पर विश्वास नहीं करता है, लेकिन साथ ही लोककथाओं के अस्तित्व और उसकी उपयोगिता को वह खारिज भी नहीं करता है। ऐसी स्थिति में वह अपने अधुनातन तर्कों एवं प्रमाणों के आधार पर उनकी नई व्याख्या प्रस्तुत करेगा।और ऐसा किया जाना जरूरी प्रतीत होता है।
हम लोककथाओं के जिन अभिप्रायों की चर्चा करने जा रहे हैं, उसका आशय अंग्रेजी के motif शब्द से न होकर motive से सम्बन्धित है। अर्थात् प्रेरक तत्वों से हैं। इस दृष्टि से विवेचन करने पर लोककथाओं की सार्थकता वर्तमान संदर्भों में भी दिखाई देती है। दरअसल लोककथाओं में उल्लेखित मानवेतर प्राणी और अतीन्द्रीय घटनाएँ अच्छी और बुरी प्रवृत्तियों के द्योतक हैं। आदिकालीन मानव ने इनका मानवीकरण करके कथाओं का सृजन किया था। अच्छी और बुरी प्रवृत्तियां मानव जाति में सहजात होती है। इसके साथ ही संकटों एवं कठिनाईयों से मुक्त होने की भावना उसका विशिष्ट गुण है। इसके लिए अदम्य जिजीविषा और सम्पूर्ण शक्ति से प्रयास करना आवश्यक होता है। इन्हीं भावनाओं की प्रेरणा अप्रत्यक्ष रूप से लोककथाओं में भरी हुई है। लोक कथाकार की दृष्टि में कुछ भी असंभव नहीं हैं। हर असंभव दिखने वाले कार्य-व्यापार को मनुष्य अपनी बुद्धि और तन-मन-बल से संभव कर दिखाता है। जिन कथाओं में पशु-पक्षी, पात्रों के रूप में आये हैं, वे सभी मानव जाति के ही प्रतीकार्थ हैं। इस प्रसंग में डॉ. सत्येन्द्र का यह विचार ज्यादा मौजूं लगता है। वे लिखते हैं- ‘‘कहानी लोकमानस की मूल भावना के रूप को स्थूल प्रतीक से अभिव्यक्त करती है।’’
इस विचार के आलोक में यदि हम पड़ताल करें तो डॉ. शंकुतला वर्मा ने आठ बिन्दुओं में जिन अभिप्रायों का उल्लेख किया है, उन्हें आधुनिक संदभरें में निम्नांकित तरह से रूपांतरित कर सकते हैं।
1. राजकुमारी अर्थात व्यक्ति या समूह, जो किसी शक्तिशाली के कुटिल नियंत्रण में हो।
2. उसकी मुक्ति प्रथम दृष्टया दुःसाध्य हो अथवा उसका स्थान दुर्गम या दुर्लभ हो।
3. पीड़ित जन के प्रति प्रेम और उसकी मुक्ति का प्रयास करना अर्थात उनके नैसर्गिक अधिकारों की रक्षा करना।
4. किसी भी अभियान में साथी या समूह को लेकर चलना क्योंकि अकेले की लड़ाई का कोई औचित्य नहीं हैं। सामूहिक शक्ति से प्रयास ही सफलता दिलात है।
5. अपने पूर्व ज्ञान और अनुभवों से आने वाली विपत्तियों को जानना-समझना।
6. साथी या समूह द्वारा विपत्तियों का सामना करके उसका निराकरण करना किन्तु इसमें जन की हानि होना।
7. दिवंगत साथियों की कुर्बानियों को चिरस्थायी एवं प्रेरक बनाने का काम करना।
8. इस कार्य की पूर्णता हेतु अपना सब कुछ न्यौछावर कर देना।
इस तरह प्रायः सभी लोककथाओं के अभिप्रायों की व्याख्या अपने वर्तमान देशकाल और परिस्थितियों के अनुरूप की जा सकती है। उपर्युक्त व्याख्या एक अंदाज मात्र है, उसे हर काल में सजग मानव अपने विकास पथ का सम्बल बना सकता है।
इसी तरह एक अन्य सर्वप्रिय लोककथा है जो इस प्रकार है -
‘‘एक ठन नानकुन चिरई हा अपन चोंच मा चना दार के एक ठन दाना ला दाब के उड़त जावत रीहिस। वोकर चोंच हा थोरिक ऊल गे अऊ दाना हा एक ठन जांता के मेखा मा गिर परिस। चिरई हा वोला निकाले के अघात बूता करिस, फेर नई निकाल पाइस। तब वोहा जांता ला किहिस- ‘हे जांता, मोर दाना ला तंय दे दे। मोर पिलवा हा भूख मरत हे।’
जांता ह बोलिस - ‘जा बढ़ई ला ले आन। वोहा खूंटा ला चीर दीही तांहने दाना हा निकल जही।’
चिरई हा उड़के बढ़ई करा गीस अऊ कीहिस - ‘बढ़ई, चल तो खूंटा ला चीर देबे। मोर दाना हा उंहा खूसर गेहे।’
अतका सुनके बढ़ई हा सोचिस - ये नानकन चिरई के बात ला काबर मानहूं? वो हा इन्कार कर दीस। तब चिरई हा वोकर सिकायत लेके राजा करा गीस अऊ कीहिस के बढ़ई हा वोकर बात नई मानिस तेकर सेती वोला सजा मिलना चाही।
राजा हा वोकर बात मा धियान नई दिस। तब वोहा रानी करा जाके राजा ला समझाय बुझाय बर बोलिस। रानी हा वोला दुतकार के भगा दीस।
चिरई हा सांप करा जा के किहीस- ‘‘हे नागदेवता, तंय रानी ला डस दे। वोहर मोर मदद नई करीस।’’
अतका सुन के सांप हा वोकरे डाहर दउड़िस। चिरई ठेंगा करा पहुंचीस अऊ अरजी करिस के वोहा सांप ला मार के सजा दे। वहु हा वोकर अरजी मा धियान नई दीस। त चिरई हा आगी करा जा के विनती करिस- ‘हे अगिन देवता तंय हा जाके ठेंगा ला लेस-भूंज दे। वोहर मोर मदद करे बर राजी नई होइस।’
आगी हा घलो वोकर बिनती ला नई सुिनस। त वोहा समुन्दर करा पहुंचीस अऊ बोलिस हे समुन्दर देवता आगी हा मोर बिनती मा धियान नई दीस तेकरे सेती वोला बुझा के ठंडा कर दे।
समुन्दर हा घलो वोकर बात नई मानिस। त वोहा हाथी करा गीस अऊ समुन्दर के पानी ला पी के सोंखे बर किहीस। हाथी हा घलो इनकार कर दिस।
तब आखिर मा चिरई हा चांटी करा जा के मदद मांगिस। चांटी हा वोकर मदद करे बर तियार हो गे। दूनो झन हाथी के तीर मा गीन। चांटी हा हाथी के सोंड़ मा खुसरगे अऊ चाबे लागिस। हाथी हा हलाकान हो गे। तब वोहा चांटी ले बोलिस कि तंय मोर सोंड़ ले बाहिर निकल। मंय समुन्दर के पानी ला पी के सोंखे बर राजी हौं। अतका सुनके चांटी हा वोकर सोंड़ ले बाहिर आ गे। फेर तीनों झन समुन्दर के तीर मां हबरिन त वोहा हाथी ला आवत देख के समझ गे - अब मोर खैर नई हे। वोहा तुरते आगी ला बुझाय बर तियार होगे।
अब चारों आगी तीर मा गिन। आगी हा समुन्दर ला देख के कीहीस- मैं ठेंगा ला लेसे बर तियार हौं। अतका कहिके वोहा ठेंगा कर गीस। ठेंगा हा सांप ला मारे बर राजी होगे। जम्मो झन सांप कर पहुंचिन त ठेंगा ला देख के किहीस- मंय रानी ला डसे बर अभीच्चे जाथंव। अऊ फेर वोहा रानी ला डंसे बर चल दीस। रानी हा सांप ला देख के बोलिस- तंय हा मोला झन डंस। मंय राजा ला समझा के बढ़ई ला सजा दे बर राजी कर देथों। रानी हा राजा ला समझाइस। राजा हा बढ़ई ला बलाइस। बढ़ई हा जांता के मेखा ला चीरे बर राजी होगे। वोहा अपन बसुला-बिंधना ल घर के खूंटा तीर पहुंचिस त खूंटा हा कीहीस- मोला झन चीर बढ़ई। चिरई के दाना ला येदे निकाल देवत हंव। वोहा दाना ल बाहिर निकाल दीस। चिरई हा दाना ला चोंच मा धरिस अऊ खुशी-खुशी अपन खोंधरा डाहर उड़ गे।’’
इस लोककथा में छोटी सी चिड़िया एक दाना के लिए कितना प्रयास करती है? यही विशिष्ट बात है। लेकिन इस पूरे प्रयास में उससे अधिक सक्षम लोग, प्राणी या वस्तु ने उसकी मदद नहीं की। उसकी सहायता के लिए तैयार होता है तो सबसे छोटा प्राणी, याने चीटी। छत्तीसगढ़ी की उस लोककथा का सार-सौन्दर्य यहीं दिखाई देता है। जो हमारी नजरों में सबसे तुच्छ, उपेक्षित और कमजोर दिखाई देता है, वही समय आने पर बड़े-बड़े कार्य को सिद्ध करने में सहायक बन जाता है। यहां चींटी मेहनतकश मजदूरों और श्रमिकों का प्रतीक है।
चिड़िया अंत तक हिम्मत नहीं हारती और अपने मकसद में कामयाब होने तक निरंतर संघर्ष करती रहती है। इस कथा का प्रेरक तत्व यही है कि मनुष्य का हर काम पूरा हो सकता है। वह प्रत्येक विपत्ति से मुक्ति पा सकता है। बशर्ते वह हिम्मत न हारे तथा पूर्ण निष्ठा के साथ प्रयास करता रहे। हाथ में हाथ धरे बैठे रहने और अपनी किस्मत को कोसते रहने से समस्या नहीं सुलझ सकती। यदि अन्याय हो रहा है, किसी भी तरह का तो मानव का धर्म है कि वह न्याय पाने के उद्यम जरूर करे।
दाना को प्राप्त करना चिड़िया का नैसर्गिक अधिकार है। वह अपने इस प्रकृति प्रदत्त हक से वंचित करने वालों के विरूद्ध अनवरत संघर्ष करती है। कोई हमारे ही घर में हमारी ही धरती पर आकर हमें हमारे नैसर्गिक हक और न्याय से वंचित करने की कुचेष्टा करता है तो चिड़िया की तरह हमें भी उनसे संघर्ष करना चाहिए जब तक कि पूर्ण सफलता प्राप्त न हो जाये।
छत्तीसगढ़ी लोककथाओं में इसी तरह के प्रेरक तत्व मौजूद हैं। इनके माध्यम से जनता में चेतना पैदा की जा सकती है। इन कथाओं के वास्तविक अभिप्राय, मोटिव, तो यही है कि अपनी सजग बुद्धि और शारीरिक बल से हर प्रकार के जोर-जुल्म से मुक्त होने का अभियान चलायें।
इस कथा की खासियत यह है कि चिड़िया समस्त असहयोग करने वालों को अन्ततः अपना सहयोगी बना लेती है, अर्थात् प्रतिकूल परिस्थितियों और लोगों को अपने अनुकूल बना लेती है। किसी न किसी रूप में वह सामूहिक शक्ति का प्रदर्शन करती है। ऐसी स्थिति उत्पन्न करने में सबसे छोटा प्राणी अपनी भूमिका निभाता है।
इसी तरह समस्त छत्तीसगढ़ी लोककथाओं की व्याख्या आधुनिक परिप्रेक्ष्य में की जा सकती है। आजादी के पहले अंग्रेज अधिकारी ई.एम. गोर्डोन छत्तीसगढ़ी लोक कथाओं से अत्यधिक प्रभावित हुए थे। इसीलिए उन्होंने मुंगेली तहसील में प्रचलित आठ लोककथाओं का संग्रह सन् 1902 ई. के गजेटियर में किया था।
छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली के रूप में कु बेर ने इससे भी अच्छा प्रयास किया है जो आप के हाथों में है। आधुनिक संदर्भ में, जब हम अपनी लोक विरासत से विमुख होते जा रहे हैं, यह प्रयास न केवल प्रसंशनीय है, अपितु अन्य साहित्यकारों के लिये प्रेरक भी है। इस संग्रह में संग्रहीत कथाओं-कहानियों में छत्तीसगढ़ी जन-जीवन के प्रेरक तत्वों को कुशलता के साथ पिरोया गया है। कुबेर प्रयोगधर्मी साहित्यकार हैं। इस संग्रह में, कहानियों के प्रस्तुतीकरण में उनके द्वारा किया गया प्रयोग रूचिकर है।
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ग्राम - फरहद
पों. - सोमनी
जिला - राजनोदगाँव (छ.ग.)
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