कहानी जाति दादू लाल जोशी ''फरहद'' शाम छः बजे से रोज रिहर्सल शुरू होता था, किन्तु कब तक चलेगा? इसका समय निश्चित नहीं था । ...
कहानी
जाति
दादू लाल जोशी ''फरहद''
शाम छः बजे से रोज रिहर्सल शुरू होता था, किन्तु कब तक चलेगा? इसका समय निश्चित नहीं था। वैसे रात नौ बजे समाप्त कर देने की बात सभी कलाकार करते थे, किन्तु कभी रात के दस बज जाते थे तो कभी बारह। इस समय रात के आठ बजे थे। गायक और वादक गीत-संगीत की साधना में तल्लीन थे। दूसरे कमरे में कॉमेडी का रिहर्सल चल रहा था।
रिहर्सल का यह दूसरा दौर चल रहा था। तभी एक लड़के ने आकर घनश्याम से कहा - ''भईया! जग्गू दादा ने आपको बुलाया है।''
घनश्याम ने उसकी ओर आश्चर्य से देखा और पूछा - ''कहाँ पर?''
''अपने आफिस में। जल्दी आने को कहा है।'' लड़के ने जवाब दिया और चलते बना।
''गुरुजी! अब तो आज का रिहर्सल यहीं पर बंद करना होगा। जग्गू दादा ने बुलाया है, तो मुझे जाना ही पड़ेगा।'' घनश्याम ने कहा।
''ठीक है मित्र! बंद कर देते हैं; बाकी कल कर लेंगे।'' गुरुजी ने सहमति व्यक्त करते हुए कहा।
यह एक छत्तीसगढ़ी लोक-कला मंडली थी, जिसमें घनश्याम और गुरुजी, कॉमेडी के कलाकार थे। मेन रोड के शास्त्री चौक में घनश्याम का सेलून था। सुबह नौ से शाम छः बजे तक वह सेलून में काम करता था। उसकी अवस्था अट्ठाइस साल की थी और अब तक विवाह नहीं किया था। वह बी. ए. पास था, फिर भी अर्थोपाजन के लिये पुस्तैनी काम को चुना था।
गुरुजी बी. एस. पी. के प्रायमरी स्कूल में शिक्षक था। उसकी अवस्था बत्तीस की थी और दो बच्चों का बाप था।
घनश्याम और गुरुजी में अच्छी मित्रता थी। उन दोनों को लोक-कला मंडली में काम करने का श्ौाक था, इसीलिये वे इस मंडली से जुड़े हुए थे।
''गुरुजी! आप भी चलो न? आज जग्गू दादा के साथ बैठते हैं और इन्जाय करते हैं?'' घनश्याम ने प्रस्ताव रखा।
''अरे! मैं जाकर क्या करूँगा? जग्गू दादा आपका दोस्त है; आप ही जाओ।'' गुरुजी ने अनिच्छा प्रकट करते हुए कहा।
''चलो न सर, एकाध घंटे में लौट आना।'' घनश्यम ने मनुहार किया।
कुछ ना-नुकुर के बाद गुरुजी चलने के लिये तैयार हो गया। दोनों ने अपनी-अपनी सायकिलें उठाईं और चल दिये पुरानी बस्ती की ओर।
जग्गू दादा के बुलाने का मकसद् घनश्याम अच्छी तरह जानता था। सप्ताह में तीन-चार बार ऐसा होता था, जब जग्गू दादा उसे बुला लेता था। जग्गू दादा का नाम सरदार जोगेन्दर सिंह था। सिक्ख होकर भी वह न तो लंबे केश रखता था और न ही पगड़ी बांधता था। उसकी उम्र उन्तीस साल थी और अविवाहित था। घनश्याम का वह बचपन का दोस्त था और दोनों के घर पुरानी बस्ती में पास-पास ही थे। जग्गू दादा ने अपने घर पर ही ट्रांसपोर्टिंग का कार्यालय खोल रखा था। उसके पास तीन ट्रकें थी, जिससे वह माल ढुलाई का व्यवसाय करता था। 'जग्गू दादा' नाम लोगों के द्वारा दिया गया था। सामान्य लोग उससे ज्यादा मेल-जोल नहीं रखते थे; इसका कारण यह था कि वह मार-पीट करने के लिए कुख्यात था। उसके ऊपर मारपीट के पाँच-छः मुकदमें चल रहे थे। उसे क्रोध आने पर वह 'आव देखता न ताव' और दे दनादन शुरू हो जाता था। साधारण लोग भयभीत होकर, मन मसोस कर चुप रह जाते; किन्तु दमदार लोग रपट लिखा देते थे। लोगों की नजरों में वह गुण्डा था।
गुरुजी उसके बारे में सब कुछ जानता था, इसीलिए वह कभी उससे मिलने-जुलने का प्रयास नहीं करता था। वैसे भी, उसके व्यवसाय से गुरुजी का दूर-दूर का कोई संंबंध नहीं बनता था।
लगभग दस मिनट पैडल मारने के बाद दोनों जग्गू दादा के कार्यालय पहुँच गये। वह घनश्याम की ही प्रतीक्षा कर रहा था।
''अरे! इनको क्यों ले आए?'' गुरुजी की ओर इशारा करते हुए जग्गू ने घनश्याम से कहा।
''दादा! ये गुरुजी हैं; हम दोनों कला मंडली में कॉमेडी करते हैं।'' घनश्याम ने सफाई दी।
''जानता हूँ भई! इसीलिए तो पूछ रहा हूँ। ये ठहरे सज्जन आदमी; हमारे साथ बैठकर पियेगा नहीं?'' जग्गू दादा ने कहा।
''नहीं दादा! गुरुजी मेरे मित्र हैं; सभी रंग में रंगे हुए हैं। इनसे किसी तरह की परेशानी नहीें होगी। ये नहीं आ रहे थे; मैं ही जिद्द करके ले आया।'' घनश्याम ने स्पष्टीकरण के अंदाज में कहा।
''ठीक है; तो चलो फिर।'' इतना कह कर जग्गू दादा अॉफिस से बाहर आ गया।
पैदल चलते हुए तीनों गार्डर पुल के पास पहुँच गए। यहाँ आस-पास की खाली जमीनों पर लोगों ने कब्जा कर रखा था। कुछ ने झोपड़ियाँ बना ली थी तो कुछ ने पक्के मकान। कुछ मकान निर्माणाधीन थे। ऐसा ही एक निर्माणाधीन मकान था, जिसकी मात्र सात-आठ फीट की दीवारें ही खड़ी हो पाई थी और काम बंद हो गया था; शायद पैसे की कमी रही होगी। जग्गू दादा बेधड़क उसके अंदर चला गया, जैसे मकान उसी का हो। घनश्याम और गुरुजी भी उसके पीछे-पीछे अंदर चले गए। सामने जल रहे स्ट्रीट लाइट की पीली रोशनी भीतर तक आ रही थी, और सब कुछ साफ-साफ दिख रहा था।
''गुरुजी! यहाँ आपको गर्मी लग रही होगी, पर थोड़ी देर में गर्मी गायब हो जायेगी।'' हँसते हुए जग्गू दादा ने कहा।
गुरुजी ने कुछ नहीं कहा। उसके मन में भय समाया हुआ था। वह सोच रहा था - ''यह खतरनाक आदमी है। इसके साथ सोच-समझ कर बोलना होगा।''
''गर्मी का मौसम है, तो गर्मी लगना स्वभाविक है दादा।'' घनश्याम ने जग्गू दादा के कथनों की प्रतिपूर्ति कर दी।
इस निर्माणाधीन मकान में छः कमरे बन रहे थे। एक में जग्गू दादा के पीने का इंतिजाम था। एक कोने में पानी से भरे तीन कलसे रखे हुए थे। कुछ ही दूरी पर एक थैला रखा हुआ था। चुनाई से बचे ईंटों से, दीवार से लगाकर चबूतरा जैसा बनाया गया था; जग्गू दादा उसी में बैठ गया, साथ ही इन दोनों को भी बैठने के लिए कहा।
''घनश्याम! माल ले आओ।'' दादा का हुक्म होते ही घनश्याम उठा और एक कलसे से देशी की एक बोतल निकाल लाया। साथ ही वह थैला भी उठा लाया जो कलसे के पास रखा था, और दादा के सामने रख दिया।
दादा ने सबसे पहले थैले से पुराना अखबार निकाला और ईंट से बने मंच पर फैला दिया। तीन गिलास निकाले और बोतल का ढक्खन खोलकर तीनों में शराब उंड़ेल दी। तपाक से अपना गिलास उठाते हुए बोला - ''चलो भाई! चिअर्स करो; रात के नौ बज गए हैं।''
घनश्याम और गुरुजी ने भी एक-एक गिलास उठा लिए, ओठों से लगाए और एक गटके में ही खाली कर दिये। बोतल कलसे के पानी में डुबाकर रखी गई थी जिसके कारण वह खासी ठंडी हो गई थी।
जग्गू दादा ने सिर्फ एक घूँट पिया और गिलास नीचे रख दिया। हँसते हुए कहा - ''गुरुजी! यह हमारा देशी बीयर है; ठंडा-ठंडा, कड़वा-कड़वा।'' फिर घनश्याम से बोला - ''घनश्याम! थैले से आम निकालो और पीस बनाओ।''
घनश्याम ने आदेश का तुरंत पालन किया। आम अच्छी तरह पके हुए थे और लगभग तीन किलो थे।
जग्गू दादा घूँट-घूँट करके पीता रहा। एक घंटा बीत गया। तीन दौर चल गए थे। पहली बोतल खाली हो चुकी थी। घनश्याम उठा और दूसरे मटके से दूसरी बोतल निकाल लाया। जग्गू दादा ने चौथे दौर के लये गिलासों को फिर आधा-आधा भर दिया। तीनों को चढ़ चुका था, पर हैरानी की बात थी, तीनों खामोश थे। यह स्थिति दादा को खटकने लगी थी।
''गुरुजी! शुरू में आपको देखकर मैं तो चौंक ही गया था। मैं तो आपको संत समझता था पर आप तो पक्के शिौकीऩ निकले?'' दादा ने खामोशी तोड़ने के उद्देश्य से कहा।
''दादा! हम लोग ठहरे कलाकार, रात-रात भर मंच पर नाचते-कूदते हैं। थकान रहती है। थोड़ा-बहुत नशा तो करना ही पड़ता है।'' गुरुजी ने सफाई दी।
''पर गुरुजी! आप कुछ बोल नहीं रहे हैं? कुछ अच्छी बातें सुनाओ न?'' जग्गू दादा ने गुरुजी को उकसाया।
''क्या सुनाऊँ दादा! कुछ सूझ नहीं रहा है।''
''चुटकुले या श्ोरो-शायरी, जिससे महफिल में जान आ जाए।''
''दो-चार चुटकुले याद तो हैं, लेकिन वो मैं आपको सुना नहीं सकता।''
''क्यों नहीं सुना सकते? क्या परेशानी है?''
''वे सभी चुटकुले सरदारों पर है; आपको बुरा लगेगा।''
''अरे, नहीं गुरुजी! चुटकुले तो बस चुटकुले होते हैं; बुरा लगने की क्या बात है?''
''फिर भी। मुझे संकोच हो रहा है।''
''अरे, आप बिंदास सुनाओ जी, संकोच मत करो।''
गुरुजी सचमुच जोश में आ गया। उसने सुनाना शुरू किया। पहला चुटकुला सुनकर दादा ने खूब ठहाके लगया और गुरुजी की तारीफ भी की। अब तो गुरुजी के मन से भय गायब हो चुका था। फिर क्या था? रस ले लेकर छः चुटकुले सुना डाले; सभी सरदारों पर। हर चुटकुले पर जग्गू दादा ठहाके लगाता रहा और गुरुजी की तारीफ भी करता रहा। चुटकुलों में सिक्खों का खूब मजाक उठाया गया था, लेकिन जग्गू दादा खूब मजा ले रहा था।
गुरुजी अपनी सफलता पर जैसे मदमस्त हो गया था, उसी मूड में उसने कहा - ''दादा! आप भी कुछ सुनाओ न?''
''देखिये, गुरुजी! मैं हूँ महा लट्ठबाज। सुनकर मजा लेता हॅूँ, सुनाता नहीं हूँ।'' दादा ने टालते हुए कहा।
''अरे भाई! छः सुना चुका हूँ मैं; आप एक तो सुनाओ?''
''गुरुजी! मुझे तो एक ही याद है, कहो तो वही सुना देता हूँ।''
''वाह, भाई वाह! ये हुई न बात। मजा आ जायेगा। सुनाइये।''
जग्गू दादा ने सुनाना शुरू किया -
''एक गुरुजी था। बारी-बारी बच्चों से रोज कुछ न कुछ खाने के लिये मंगवाता था। बारी आने पर हर बच्चा घर से कुछ न कुछ लेकर आता था; खीर, पूरी या रोटी-सब्जी। गुरुजी बड़े चाव से खाता। नहीं लाने वाले की पिटाई होती थी। गुरुजी की इस आदत से सभी परेशान थे। एक दिन एक बदमाश बच्चे की बारी थी। उसने मिट्टी के बरतन में खीर लाकर गुरुजी को दिया। खीर खूब स्वादिष्ट था। गुरुजी मजे से खाने लगा। खाकर उसने बर्तन बाहर फेंक दिया। यह देखकर बच्चा रोने लगा।
गुरुजी ने पूछा - 'क्यों रो रहे हो?'
बच्चे ने रोते-रोते कहा - 'गुरुजी! आपने बर्तन तोड़ दिया। माँ अब मुझे मारेगी।'
''इस मिट्टी के बर्तन के लिये?''
''इसी बर्तन में तो हमारा कुत्ता रोज खाना खाता था।'' लड़के ने जवाब दिया।
चुटकुला सुनाकर दादा हँसने लगा। घनश्याम भी हँस रहा था, लेकिन गुरुजी खामोश रहा।
''क्यों, गुरुजी! आपको हँसी नहीं आई?'' दादा ने पूछा।
''क्या दादा! शिक्षकों को आप इतना गया गुजरा समझते हो? कोई विद्यार्थी ऐसा कर सकता है क्या? अपने शिक्षक को कुत्ते का जूठन खिलाएगा?'' गुरुजी थोड़ा नाराज होकर बोला।
''गुरुजी! ये तो चुटकुला है। कोई सच्ची बात नहीं है।'' जग्गू दादा ने हँसत हुए कहा।
''ऐसा भी कोई चुटकुला होता है? ज्ञान देने वाले गुरुजी को इतना घटिया और छिछोरा बताया गया है।'' गुरुजी ने तनिक रोश में कहा।
''गुरुजी! आपको चढ़ गई है। चलो अब महफिल बंद करते हैं।'' जग्गू दादा ने उठते हुए कहा।
''नहीं, मैं अभी ज्यादा नश्ो में नहीं हूँ। अभी तो और पी सकता हूँ।'' गुरुजी ने दंभ दिखाते हुए कहा।
''नहीं! नहीं! गुरुजी, आपको नशा हो गया है। घनश्याम! गुरुजी को उसके घर पहुँचा दो।'' जग्गू दादा ने दृढ़ शब्दों में कहा।
''नहीं, जग्गू दादा! मैं तो अभी आपके साथ बैठूँगा। दरअसल! आपने गुरुजी का अपमान करने वाला चुटकुला सुनाया तो मुझे बुरा लग गया और आपको बोल दिया।'' गुरुजी ने कहा।
''गुरुजी, प्लीज! आप घर जाओ न! रात काफी हो गई है। बीवी-बच्चे आपकी राह देख रहे होंगे।'' जग्गू दादा ने जिद्द करते हुए कहा।
जग्गू दादा के बार-बार घर चले जाने वाली बात से गुरुजी फिर आहत हो गया था। उसने मन ही मन कहा - ''यह आदमी मुझे इतना नश्ोड़ा समझता है, थोड़ी-सी पी ली है तो क्या मैं बेसुध हो गया हूँ?'' फिर उसने प्रकट में बोला - ''आप मुझे बार-बार क्यों घर जाने के लिए कह रहे हैं जी? जबकि मैं अभी ज्यादा नश्ो में नहीं हूँ। न तो मैं लड़खड़ा रहा हूँ, और न गिर रहा हूँ।'' गुरुजी ने फिर अकड़ दिखाते हुए कहा।
गुरुजी की हरकतों से जग्गू दादा को अब क्रोध आने लगा था; फिर भी, मंजे हुए खिलाड़ी की तरह वह संयत था। लेकिन धीरे-धीरे उसका धैर्य जवाब देने लगा था। गुरुजी के एकदम करीब आकर उसने कुछ ऊँचे स्वर में बोला - ''देखो गुरुजी! आप शिक्षक हैं, इसलिए मैं आपका लिहाज कर रहा हूँ। आपकी जगह कोई दूसरा होता तो अब तक मेरे हाथ-पैर चल गये होते। मैं भी सिक्ख हूँ। मुझे भी अपने जाति-धर्म पर अभिमान है। आपने सिक्खों पर जलील करने वाले भाव से भरे चुटकुले सुनाया; मैंने उसका भरपूर आनंद लिया। मुझे बुरा नहीं लगा, क्योंकि वो सब महफिल की बात थी। मैं जब महफिल में पीने बैठता हूँ तो अपने जाति, धर्म, व्यवसाय और आस्था को घर में ही छोड़कर आता हूँ। ऐसे महफिल का एक ही धर्म होता है - पीना, खाना और मौज-मजा। लेकिन आप ऐसे महफिल का धर्म निभाना नहीं जानते। आप तो यहाँ पर अपनी जाति को लेकर बैठ गए हैं। प्लीज! आप घर जाओ और अपनी जाति बचाओ। घनश्याम इसे ले जाओ।''
''चल!'' घनश्याम ने कहा और गुरुजी का हाथ पकड़कर, खींचते हुए सायकल तक ले आया। उसने गुरुजी के हाथों में हैंडिल थमाते हुए कहा - ''गुरुजी! अब पीछे मुड़कर भी मत देखना।''
अंततः हारे हुए योद्धा की तरह, सायकल पर पैडल मारते हुए गुरुजी अपने घर की ओर चला गया।
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ग्राम - फरहद
पों. - सोमनी
जिला - राजनोदगाँव (छ.ग.)
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