संगीत चिकित्सा के संदर्भ में सांगीतिक स्वरों की उपादेयता डॉ 0 ज्योति सिनहा प्रवक्ता -संगीत भारती महिला पी 0जी0 कालेज, जौनपुर एवं रिसर्च...
संगीत चिकित्सा के संदर्भ में सांगीतिक स्वरों की उपादेयता
डॉ0 ज्योति सिनहा
प्रवक्ता-संगीत
भारती महिला पी0जी0 कालेज, जौनपुर एवं रिसर्च एसोसियेट
भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान
राष्ट्रपति निवास शिमला, हिमांचल प्रदेश
भारतीय संगीत प्राणदायिनी गंगा की तरह प्राचीन काल से ही इस धरा पर प्रवाहित होती रही है। संगीत मानव की स्वाभाविक प्रवृ़त्ति है तथा इसकी उत्पत्ति उसी समय से मानी जाती है जिस समय से मानव ने अपने भावों को अभिव्यक्त करना शुरु किया था। भारतीय संगीत की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि यह परम्परा के अनुकरण के साथ मौलिक सृजन के प्रति सदा सजग व सचेतन रही है। यह वैदिक है, सनातन है, वैज्ञानिक है।
संगीत ध्वनि विज्ञान की एक शाखा है जिसमें विविध मनोदशाओं की द्योतक राग-रागिनियाँ मनुष्य में रसानुभूति का संचार करती है, शारीरिक मानसिक व्याधियों से छुटकारा दिलाती है। संगीत के माध्यम से जो ध्वनि तरंगे उत्पन्न होती है, वे स्नायु प्रवाह पर वांछित प्रभाव डालकर न केवल उसकी संक्रियता को बढ़ाती है वरन् विकृत चिन्तन को रोकती और मनोविकारों को मिटाती है। स्वर शक्ति के इस सृजनात्मक, रोगोपचार, उपचारात्मक सामर्थ्य की ओर आज वैज्ञानिकों, चिकित्सकों का ध्यान आकृष्ट हुआ है। उनका मानना है कि संगीत में विद्यमान सूक्ष्म ध्वनि तरंगों का मनुष्य की मनोदशा पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इन ध्वनि तरंगों से शरीर की अन्तः स्रावी ग्रंथियाँ सक्रिय हो उठती हैं और उनसे रिसने वाले हार्मोन्स मानसिक स्थिति में परिवर्तन का स्पष्ट संकेत देते हैं।
भारतीय संगीत का इतिहास ऐसे कथाओं से भरा है जो कि इस बात की द्योतक है कि संगीत में रोगनिवारक क्षमता है। अतीत से ही संगीत का उपयोग मानव की भौतिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक दुर्बलताओं से मुक्त होने के लिए किया जाता रहा है। सामवेद में ही रोगों के निवारण के लिए साम गायन का विधान मिलता है। विभिन्न ध्वनियों के मिश्रण से निर्मित संगीत विभिन्न प्रकार के भावों का निर्माण कर मानव मन व शरीर पर गहरा असर करता है। इसी प्रभावोत्पादक क्षमता का प्रयोग जब चिकित्सा रूप में शारीरिक व मानसिक संतुलन को व्यवस्थित रखने के उद्देश्य से किया जाता है, तो यह प्रभावात्मक प्रक्रिया Music Therapy अथवा संगीत-चिकित्सा के नाम से जानी जाती है। अर्थात संगीत की सुमधुर स्वर लहरियों से शारीरिक मानसिक विकार विकृतियों का उपचार ही 'संगीत चिकित्सा है।' यह कला और विज्ञान का समन्वय है। सन् 1950 में 'नेशनल एसोसियेसन फॉर म्यूजिक थेरेपी' (Namt) के स्थापित होने के पश्चात् संगीत चिकित्सा के क्षेत्र में अनुसंधान एवं अन्वेषण के कार्यो का विस्तार हुआ। अनेक विद्वानों ने अपनी पुस्तकों के माध्यम से संगीत चिकित्सा की विशद् चर्चा प्रस्तुत की।1
अधिकांश चिकित्सकों ने भारतीय सगीत की प्रभावशीलता को जांचा-परखा एवं प्रयोग किया। संगीतज्ञ एन्ड्रयु वाटसन के अनुसार - ''भारतीय संगीत में प्रयोग होने वाले राग संगीत चिकित्सा के मुख्य आधार हैं।''2 ''द हीलींग फोर्स ऑफ म्यूजिक' के लेखक आर.मैकलीन ने स्पष्ट किया है कि - ''भारतीय संगीत मानसिक शांति व सक्रियता लाने वाली दिव्य औषधि है जो हमारे तन-मन और भावना में नव जागृति भर देती है।''3
भारतीय संगीत चिकित्सा पद्धति के विषय में जैक्सन पाल ने अपनी पुस्तक 'संगीत चिकित्सा' में विस्तारपूर्वक दिया है। संगीत से चिकित्सा, ये आयुर्वेद के अन्तर्गत होने वाला एक अंग है। चूँकि प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद है। अतः हमारे महर्षियों, संगीताचार्यो ने संगीत से होने वाले प्रभाव को आयुर्वेदिक आधार पर ही विश्लेषित किया है। संगीत, आयुर्वेद तत्व के अनुसार हमारे शरीर को मदद करने वाली एक प्रणाली है। आयुवेंद के अनुसार शरीर के तीन स्तम्भ वात्, पित्त और कफ माने गये है।4 इनमें से यदि किसी भी एक में दोष अथवा विकृति आती है तो मनुष्य रोगी हो जाता है। स्वस्थ रहने के लिए जिस तरह उचित आहार की आवश्यकता होती है उसी प्रकार विहार के लिए ऋतु और समय के अनुसार विभिन्न प्रकार के राग-रागिनियों को सुनना फलप्रद है।
राग संगीत का मुख्य उपादान स्वर है। स्वर सात है। इन सात स्वरों में से पांच स्वर विकृत भी होते है। अतः शुद्ध विकृत मिलाकर कुल 12 स्वर होते है। स्वरों के कोमल-शुद्ध अवस्था के आधार पर ही अंसख्य रागों का निमार्ण होता है। प्रत्येक राग में लगने वाले स्वरों पर ही उस राग का स्वरूप निर्भर करता है। शास्त्रों में स्वरों के रंग, देवता, वर्ण, कुल, ऋषि इत्यादि समस्त बातों का वर्णन है। साथ ही स्वरों के रस व स्वभाव का भी वर्णन है जिसका प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है। रोगों की प्रकृति के अनुसार ही स्वरों के प्रयोग का वर्णन है अर्थात कौन सा स्वर किस प्रकृति को दूर करता है। डॉ0 प्रेम प्रकाश जी ने संगीत के सात स्वरों के देवता, उत्पत्ति स्थान तथा स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में बताया है। इनके अनुसार5
षड्ज (सा)
इस स्वर का उत्पत्ति स्थान नाभि प्रदेश है, देवता अग्नि है तथा यह स्वर पित्तज रोगों का शमन करता है।
- ऋषभ (रे)
इस स्वर का उत्पत्ति स्थान हृदय प्रदेश है। इसके देवता ब्रह्मा हैं तथा यह स्वर कफ एवं पित्त प्रधान रोगों का शमन करता है।
- गान्धार (ग)
इस स्वर की उत्पत्ति स्थान फेफड़ों में है, देवता सरस्वती हैं तथा यह स्वर पित्तज रोगों का शमन करता है।
- मध्यम (म)
इस स्वर का उत्पत्ति स्थान कंठ है। इस स्वर के देवता महादेव हैं। यह स्वर वात और कफ रोगों का शमन करता है।
- पंचम (प)
इस स्वर का उत्पत्ति मुख है, देवता लक्ष्मी हैं तथा कफ प्रधान रोगों का शमन करता है।
- धैवत (ध)
इस स्वर का उत्पत्ति स्थान तालू एवं देवता गणेश हैं। इस स्वर पित्तज रोगों का शमन करता है।
- निषाद (नि)
इस स्वर का उत्पत्ति स्थान नासिका है। इसके देवता सूर्य है तथा यह स्वर वातज् रोगों का शमन करता है।
सात स्वरों के बारे में अबुल फजल ने कहा है कि निम्न, जठर, गला और मस्तिष्क का शीर्ष- इन अंगों में भगवत प्रभाव से बाईस नाड़ियाँ (रग) विस्तृत है। नाभि देश से वायु प्रवाह मनोहर गति से उत्थित होता है एवं विस्तार गत प्रकृति के आधिक्य या मंथरता के अनुसार यह आवाज जाग्रत होती है। अबुल फजल ने 22 नाड़ियों में सात स्वरों की व्याप्ति बताई जो इस प्रकार है-
1. षड्ज (सा) मयूर की आवाज से प्रतिस्ठित हुआचतुर्थ नाड़ी से इसका अभ्यूदन।
2. ऋषभ (रे) पपीहा (चातक) की आवाज से सप्तम् से नवम नाड़ी तक व्याप्ति।
3. गान्धार (ग) बकरे की आवाज से गृहीता नवम् त्रयोदश नाड़ी तक व्याप्ति।
4. मध्यम (म) सारस की आवाज से गृहीत। त्रयोदश से सप्तदश नाड़ी तक व्याप्ति।
5. पंचम (प) कोयल से सुरीले कंठ से गृहीत सप्तदश नाड़ी प्रविशं नाड़ी तक व्याप्ति।
6. धैवत (ध) मेढ़क की आवाज से गृहीत। विशं से द्वाविशं नाड़ी तक व्याप्ति।
7. निषाद (नि) हस्ति की आवाज से परिकल्पित द्वाविशं से परवर्ती मंडली की तृतीय पर्यन्त।6
पं0 अहोबल ने भी संगीत - पारिजात में भारतीय संगीत की 22 श्रृतियो ंका मनुष्य के शरीर की 22 धमनियों से सम्बन्धित होने का वर्णन किया है।
इसी प्रकार सात स्वरों के रंग, प्रकृति, स्वभावच तथा उनका स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में संगीतज्ञों ने उल्लेख किया है। डॉ0 जैक्सन पाल ने अपनी पुस्तक संगीत-चिकित्सा में इसका उल्लेख विधिपूर्वक विस्तार से किया है। तालिका से यह स्पष्ट है।7
क्रम सं. | स्वर नाम | रंग | प्र्रकृति/स्वभाव | शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव |
1 | षड्ज | गुलाबी | चित्त को प्रसन्न करना/ठंढा | पित्त के रोगों को दूर करता है। |
2 | ऋषभ | हरा (पीला मिश्रीत) | प्रसन्नता/ठंढ़ा खुश्क | पित्त के रोगों को दूर करता है। |
3 | गान्धार | स्वर्ण व नारंगी के समान | करूणा/ठ़ंढ़ा | पित्त के रोगों को दूर करता है। |
4 | मध्यम | पीला (गुलाबी मिश्रीत) | चंचल/गर्म, खुश्क | वात व कफ प्रधान को दूर करता है। |
5 | पंचम | लाल | जोशीला, उत्तेजक/खुश्क | कफ प्रधान को दूर करता है। |
6 | धैवत | पीला | प्रसन्नता, उदास/गर्म, ठंढ दोनो विशेषतायें खुश्क | वात व कफ प्रधान को दूर करता है। |
7 | निषाद | लाल | जोशीला/ॅखुश्क ठंडा | वात को दूर करता है। |
राग में प्रयुक्त स्वरों की संख्या के आधार पर रागों की जातियों का निर्धारण होता है। नारदने अपने ग्रंथ 'संगीत मकरंद' में इस बात का उल्लेख किया है कि किस जाति के राग का गायन किस फल की प्राप्ति के लिए किया जाना चाहिए। इनके अनुसार - आयु, धर्म, यश, बुद्धि-धान्य, फल, लाभ, व संतान की अभिवृद्धि के लिए पूर्ण रागों का गायन करना चाहिए। संग्राम, रूप लावण्य, विरह और किसी के गुण-कीर्तन की दशाओं में षॉडव रागों का गायन करना चाहिए तथा किसी व्याधि को दूर करने, शत्रु नाश करने, भय शोक में, किसी व्याधि या दारिद्रय कि संताप अथवा विषय ग्रहमोचन के लिए, शारीरिक स्वास्थ्य व मंगल के लिए ऑडव रागों का गायन करना चाहिए।8
इसी प्रकार सात स्वरों से विभिन्न रसों की निष्पत्ति भी शास्त्रों में वर्णित है।
नाट्य शास्त्र के प्रणेता महर्षि भरत के अनुसार सात स्वरों से रसों की निष्पत्ति इस प्रकार है-
सरोवीरेद्भुते रौद्रे धा वीभत्से भयानके।
कायोगनि तु करूण हास्यश्रृंगार्योमपों।।
(नाट्यशास्त्र)
स्वर रस
षड्ज वीर, अद्भूत, रौद्र
ऋषभ वीर, अद्भूत, रौद्र
गान्धार करूण
मध्यम श्रृंगार, हास्य
पंचम श्रृंगार, हास्य
धैवत वीभत्स, भयानक
निषाद करूण
स्वर तथा रागों का व्यक्ति के मनोभावों के साथ गहरा सम्बन्ध है। आचार्य भरत द्वारा प्रतिपादित रस सिद्धान्त इसी बात की पुष्टि करता है। चिकित्सकीय दृष्टिकोण से देखा जाये तो रस हमारे मनः स्थित भावों को जाग्रत करते हैं और ये भाव यथा क्रोध, मोह, खुशी, भय आदि शरीर में स्थित अंतः स्रावी ग्रंथियों के स्राव की न्यूनता या अधिकता के कारण जाग्रत होती है। अतः संगीत शरीर के आन्तरिक अवयवों को प्रभावित कर शरीर को स्वस्थ व दीर्घायु रखता है। भावों का उतार-चढ़ाव विशेष रूप से हमारे रक्त प्रवाह को प्रभावित करता है और रक्त का प्रभाव विशेष रूप से हमारे मस्तिष्क की कार्य प्रणाली को प्रभावित करता है।
राग के प्रभावी होने में रस की भूमिका अति महत्वपूर्ण है। राग में रस निष्पत्ति उस राग में प्रयुक्त होने वाले स्वर, स्वरों की संगति, वादी-सम्वादी, अल्पत्व-बहुत्व, न्यास-स्थायित्व, तार-मंद स्थिति के साथ ही कलाकार की व्यक्तिगत प्रस्तुतिकरण की शैली, काकू प्रयोग, वंदिशों के उपयुक्त चयन इत्यादि पर निर्भर है। इस विषय में डा0 जैक्सन का कहना है कि ''प्रत्येक स्वर अलग-अलग रंग प्रभाव व स्वभाव रखता है और यही कारण है कि भिन्न-भिन्न रागों में भिन्न-भिन्न रस है, जिनका वर्णन आवश्यक है क्योंकि संगीत चिकित्सा का आधार यही है''9
शारंग देव एवं दामोदर पंडित ने भी स्वरों से इन्हीं रसों की उत्पत्ति को बताया है। इसके साथ ही शुद्ध स्वरों एवं कोमल स्वरों के भिन्न प्रभाव होते है। विशेषतः शुद्ध स्वर संयोग श्रृंगार, वीर इत्यादि रसों के वाहक होते है, वहीं कोमल स्वर वियोग श्रृंगार, करूण एवं शांत रसों के वाहक होते हैं। रागों के रस निर्धारण एवं प्रभावी बनाने में वादी स्वरों का विशेष महत्व होता है।
संगीत स्थित सात स्वरों में मध्यम, धैवत, निषाद, वादीत्व या बहुत्व वाले राग वातज, विकार को दूर करते हैं। इनमें मध्यम एवं धैवत वादीत्व वाले राग वात के साथ ही कफ प्रधान रोगों पर भी अपना उपचारात्मक प्रभाव डालते हैं। जैसे-राग बहार, बागेश्री, भैरवी, बसंत इत्यादि। रागों का चयन करते समय राग की प्रकृति एवं रस का भी ध्यान देना आवश्यक है। वातज् विकार में राग करूण रस अथवा श्रृंगार रस प्रधान होना आवश्यक है। इसके साथ ही समप्रकृति तालों का भी प्रयोग होना चाहिए। यथा-झपताल, रूपक, झूमरा।10
षड्ज, ऋषभ, गान्धार वादीत्व वाले राग पित्त के कारण हुए विकार को दूर करते हैं। ऋषम् वादी स्वर पित्त के साथ कफ विकार में भी प्रभावी हैं। जैसे -राग खमाज, दरबारी, कान्हरा, बिहाग तथा पूर्वी थाट उत्पन्न गान्धारवादी वाले राग - पूर्वी, पूरिया, कल्याण तथा यमन थाट से उत्पन्न गान्धार वादी वाले राग-यमन, भूपाली इत्यादि पित्तज रोगों की चिकित्सा में प्रभावी हैं। इसके साथ श्रृंगार रस प्रधान तालों जैसे- तीन ताल, कहरवा, दादरा का संगत आवश्यक है। कफ विकार की चिकित्सा हेतु वीर रस प्रधान स्वरों पंचम, ऋषभ, मध्यम व धैवत वादी वाले राग प्रभावी होते हैं। राग मालकौंस, काफी, केदार, तिलक कामोद तथा भैरव थाट के राग भैरव, अहिर, विभास इत्यादि कफज विकार से उत्पन्न रोगों को दूर करते हैं इनके साथ वीर रस प्रधान तालों का संयोजन प्रभावी रहेगा। जैसे- चौताल, एकताल, रूद्रताल इत्यादि।11
डॉ0 गौर ने अपने लेख ''संगीत और आयुर्वेद'' में लिखा है कि ''कफ प्रकृति की मंद्ता में साम्यावस्था लाने के लिए ऋषभ वादी स्वर वाले राग को सुनाया जाये तो उसकी कफ प्रकृति ठीक हो जायेगी। पित्त एवं वात् प्रकृति वालों को साम्यावस्था में लाने के लिए कफ प्रकृति राग-रागीनियां यानि श्रृंगार रस के राग खमाज, तिलंग, देश इत्यादि सुनाने चाहिए।''12
वातादि दोष शरीर में समयानुसार कार्य करते हैं। दिन व रात्रि के चौबीस घंटों में कोई समय यद्यपि दो बार आता है। अतः इन दोषो का प्रभाव भी दो बार देखा गया है। जैसे वात् के काम करने का समय सुबह 3 से 7 बजे तक तथा सायं 3 से 7 बजे तक। कफ के कार्य करने का समय सुबह 7 बजे से दोपहर 11 बजे तक तथा सायं 7 बजे से रात्रि 11 बजे तक। पित्त के कार्य का समय दोपहर 11 बजे से 3 बजे तक रात्रि 11 बजे से 3 बजे तक।
रागों के गायन समय पर यदि हम ध्यान दे तो वात के समय यदि सुबह 3 से 7 बजे तक गाये बजाये जाने वाले रागों में सुबह देशकार, हिंडोल, ललित तथा सायं काल में मुल्ताानी, पुरिया धनाश्री, मारवा, श्री इत्यादि राग गाये बजाये जाते है। ये सभी राग उत्तरांग प्रधान है तथा इनमें ध-नी स्वर विशेष महत्वपूर्ण हैं। अतः आयुर्वेद के तत्व के अनुसार इन रागों को वात् समय पर गाने का विधान है। सुबह 7 से 11 व सायं 7 से 11 तक समय कफ प्रधान रागो का समय है। सुबह के पूर्वांग प्रधान राग भैरव, अहिर, भैरव, रामकली इत्यादि तथा सायं काल में पूरिया, यमन, बिहाग इत्यादि राग कफ के समय पर गाये बजाये जाते हैं।
दिन के 11 बजे से 3 बजे तथा रात्रि के 11 से 3 बजे तक जो राग गाये जाते हैं उनमें मध्यम या पंचम स्वर विशेष महत्वपूर्ण होता है। दोपहर के रागों में मधमाद, सारंग, वृन्दावनी सांरग, भीमपलासी इत्यादि राग तथा मध्य रात्रि में राग मालकौंस, बागेश्री व दरबारी कान्हरा गाये बजाये जाते हैं। म व प गम्भीर धनशीलस्य के स्वर हैं तथा पित्त प्रधान है। अतः इन्हें पित्त समय पर गाने बजाने का विधान है। अतः रागों का समय के साथ निर्धारण हमारे शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों से अपने घनिष्ठ सम्बन्ध एवं उपचारात्मक प्रणाली को दर्शाता है जो पूर्णयता वैज्ञानिक है।
श्री गोपाल कृष्ण भारद्वाज ने अपने लेख 'नाद साधना एक अभूतपूर्व अभियान' में लिखते है - शास्त्रीय संगीत की रचना वैज्ञानिक प्रक्रिया पर आधारित है। शारीरिक मानसिक असंतुलन को स्वर विज्ञान के आधार पर उपयुक्त गायन के विधान से संतुलित किया जा सकता है।''13 विद्वानों का मानना है कि यद्यपि सभी राग रंजक होते हैं परन्तु यदि सही समय पर यदि वे गाये बजाये जाये तो उसके प्रभाव में दोगुनी वृद्धि हो जाती है। रागों की प्रकृति, रस-भाव सम्बन्ध राग-रागिनियों से हैं तभी तो प्रातःकाल भैरव, दोपहर में तोड़ी सायंकाल यमन और रात्रि में मालकौंस गाने की एक सुदृढ़ परम्परा शास्त्रों में वर्णित है। चिकित्सकों की राय में शरीर में प्रातःकाल और सायंकाल ही अधिक शिथिलता रहती है जिसका मुख्य कारण प्रोटोप्लाज्मा की शक्ति का हा्रस होना है, कमी होना है। इस समय किसी कार्य को करने में खिन्नता व उद्विग्नता बनी रहती है। शिथिलता के कारण शरीर पर काफी दबाव पड़ता है। अतः प्रातःकाल का संगीत शिथिल हुए प्रोटोप्लाज्म को नियमित करते हुए शरीर को स्फूर्ति एवं बल प्रदान करता है। प्रातः कालीन व सायं कालीन पूजा अर्चना के पीछे यह एक वैज्ञानिक कारण था जो मनुष्य को स्वस्थ बनाये रखता था।14
नई दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल में 'बॉडी, माइण्ड क्लीनिक में आने वाले मरीजो का संगीत चिकित्सा के माध्यम से इलाज किया जाता है। इस क्लीनिक के प्रमुख डॉ0 रविन्द्र कुमार तुली का कहना है कि मानसिक रोगों के मरीजों पर संगीत का चमत्कारिक असर होता है। संगीत मेटाबॉलिज्म तेज करता है, मांसपेशियों की ऊर्जा बढ़ाता है एवं श्वसन प्रक्रिया को नियमित करता है।'15
इसी प्रकार क्लीव लैण्ड में की गई एक खोज के अनुसार आपरेशन के बाद धीमा व सुरीला संगीत सुनने से दर्द महसूस होता है तथा राहत प्रदान करता है। दिल्ली की शोधरत श्रुति ने अपने शोध में पाया कि शुद्धस्वरों से दिमागी बिमारियों, रक्तचाप, आपरेशन के बाद का दर्द, माईग्रेन, तनाव इत्यादि में आराम मिलता है।16 यौगिक साधना हेतु स्वरों के उच्चारण का स्थायी प्रभाव व उपयोगी हमारे प्राचीन ग्रंथों से प्राप्त होता है। स्वरों को साधने से चित्त की एकाग्रता कायम होती है। योग-साधना में स्वर की महता को 'ब्रह्मविंदुनिषद्' में इस प्रकार दशार्या गया है-
स्वरेण सन्ध्यवेद योगम्।।
अर्थात् योग की साधना स्वर से करनी चाहिए।17
स्वर साधना इस प्रकार का शारीरिक व्यायाम है जो स्वयं में एक चिकित्सा है। यह एक प्राणायाम है जिससे शरीर के समस्त अवयवों का व्यापार हो जाता है। गाने से फेफड़े व स्वर यंत्र मजबूत होते है तथा दमा, तपेदिक इत्यादि फेफड़ों की बीमारी होने का डर नही रहता, साथ ही संगीत का प्रयोग फेफड़े, गले, कंठ, तालु जबड़े व अमाशय का फलफद व्यायाम है। इससे नाड़ियों का शोधन होता है, ज्ञान तंतु सजग होते है, आक्सीजन की वृद्धि होती है तथा दीघार्यु प्राप्त होती है। आयुर्वेद में उल्लेखित है कि एक अच्छा चिकित्सक स्वर विज्ञान का भी ज्ञाता होना चाहिए क्योंकि संगीत में रोग शामक एवं स्वास्थ्यवर्धक शक्ति नीहित है जिसका प्रयोग रोगोपचार में किया जाना अभिप्रेत था। प्रत्येक स्वर शरीर के विशिष्ट स्थल से उत्पन्न होता है और वही स्वर उस स्थल की व्याधि या स्वास्थ्य के प्रति उत्तरदायी है। रेकी चिकित्सा पद्धति के अनुसार स्वरों का सम्बन्ध शरीर में स्थित सात चक्रों से बताई गई है। योगदर्शन के अनुसार सार स्वर शरीर में स्थित चक्रों तथा बिन्दुओं-विसर्ग स्थान को झंकृत करते है जो इस प्रकार हैं-18
क्रम सं. | स्वर नाम | चक्र नाम |
1 | षड्ज (सा) | मूलाधार चक्र |
2 | ऋषभ() | स्वाधिष्ठान चक्र |
3 | गान्धार(ग) | मणिपुर चक्र |
4 | मध्यम(म) | अनाहद चक्र |
5 | पंचम(प) | विशुद्ध चक्र |
6 | धैवत(ध) | आज्ञा चक्र |
7 | निषाद(नि) | बिन्दू विसर्ग |
8 | तार षड्ज(सा) | सहस्त्राधार चक्र |
इसी प्रकार मानव कंठ को शारीरीवीणा कहा गया है। हमारे शरीर को स्वस्थ रखने, आरोग्य तथा दीर्घायु प्रदान करने में इन चक्रों का विशेष महत्व है जिन्हें संगीत के स्वरों का द्वारा संतुलित रखा जा सकता है।
इनके आपसी सुसंवाद पर ही शरीर का स्वस्थ होना निर्भर है। रागों में तानों के लेने का स्थान निर्दिष्ट है। वास्तव में यदि विशुद्ध उद्भव स्थानों की ताने यथा नाद, गमक, कंठ, जबड़े की ताने शुद्ध उद्भव स्थानों यथा नाभि, छाति, कंठ व मस्तिष्क से व्यक्त हो तो इनका स्वास्थ्य पर आश्यर्चजनक परिणाम होता है तथा प्रत्येक तान अपने उद्भव स्थान के प्रत्येक रोग के लिए श्रेष्ठतम औषधि का कार्य करती है।
इस संदर्भ में दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रो0 कृष्णा बिस्ट का कहना है कि - स्वामी नाद ब्रह्मानन्द जी जो संयास पूर्व उस्ताद अल्लादिया खां के शिष्य थे, अपने आश्रम के भीतर संगीत द्वारा चिकित्सा हेतु प्रशिक्षण केन्द्र खोला था। इन्होंने विशिष्ट तानों के प्रकार से शरीर के विभिन्न अंगों के विकार दूर करने की प्रक्रिया बनाई थी।19
इस प्रकार संगीत मार्तण्ड उस्ताद चांद खां, औषधि से अधिक संगीत-चिकित्सा पर विश्वास करते थे। जैसे- पाचन शक्ति में कमी हो तो कुछ विशेष प्रकार की गमक की तान, जुकाम से नाक बन्द हो जाय तो मुंह बन्द तान (गंथों में उल्लेखित मुद्रित गमक सदृश) आदि का अभ्यास करते थे और स्वस्थ हो जाते थे।20
संगीत चिकित्सकों जैसे भास्कर खांडेकर, डा0 बाला जी ताम्बे, श्री शंशाक कट्टी, टी0वी0 साइंराम इत्यादि ने संगीत'-चिकित्सा को आयुर्वेद से जोड़कर ही देखा है तथा प्रयोग भी इसी आधार पर कर रहे हैं। इनके अनुसार यदि वात व पित्त के विकार से रोग उत्पन्न हुआ है तो उसे दूर करने के लिए श्रृंगार, शान्त व गम्भीर करूण रस प्रधान रागों का गायन करना चाहिए। जैसा कि विदित है कि पित्त की प्रकृति तेज एवं वात् की प्रकृति चंचल होती है। अतः इन्हें विपरीत गुणों वाले यथा शान्त, करूण रसादि द्वारा ही दूर किया जा सकता है।
विद्वानों ने संगीत के प्रत्येक राग को किसी न किसी रस से सम्बद्ध माना है। राम भीमपलासी वीर रस से तथा मालकौस का सम्बन्ध शान्त रस से है। बसंत, मधुऋतु के आगमन पर उल्लास की सृष्टि करता है तथा मेघ व मल्हार राग वर्षा ऋतु के आने पर अपनी खुशी प्रगट करता है। भैरवी के माध्यम से भक्ति तथा प्रेम की भावना को बल मिलता है। राग तोड़ी के स्वरों के कलात्मक उच्चारण में करूणा रस का आभास होता है। विरह की अभिव्यक्ति होती है। प्रातः कालीन भैरव राग में शान्त रस होता है। जोगिया तथा सोहनी राग विकल करते हैं। देश और सोरठ जैसे रात्रिगेय राग विरह तथा प्रेम का भाव पैदा करते हैं। रात्रीगेय राग दरबारी, अपनी गम्भीरता से व्यक्ति में भावुकता पैदा कर देता है। संगीत के प्रत्येक स्वर में एक भाव होता है। अतः रस निष्पत्ति के लिए स्वरों का सटीक उच्चारण मायनले रखता है। पंडित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने अपनी पुस्तक हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति में रागों का वर्गीकरण करते समय रस का भी सामंजस्य किया है। यथा21
रेन्ध कोमल स्वर वाले रागो में शान्त व करूण रस
रेन्ध-शुद्ध स्वर वाले रागों में श्रृंगार रस
ग-नि कोमल स्वर वाले रागो में वीर रस
किसी रोग के लक्षणों में दोष का निर्धारण किस प्रकार किया जाए इस विषय में महर्षि चरक ने विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। वात् विकार के बारे में उन्होंने लिखा है- स्त्रंश, भेद, भ्रंस, कम्प, व्यथा, मुख शोध, शरीर या अंगों में शूल, शून्यता, संकोच, जकड़न इत्यादि कर्म वायु के होते हैं। इन लक्षणों से युक्त कोई भी रोग शरीर में उत्पन्न होता है तो वातज् विकार माना जाता है। पित्त विकार के बारे में लिखा है - दाह (सारे शरीर में जलन), उष्मता, शरीर में ताप की वृद्धि, स्वेदाधिक्य, खुजली, स्राव, लालिमा ये सब पित्त के लक्षण है और पित्त का जो रस, गंध, वर्ण होता है वह शरीर के विभिन्न अवयवों से उत्पन्न होता है। इन लक्षणों से युक्त जो रोग होगा उसे पित्तज विकार माना जाना चाहिए। कफज विकार में - श्वेत्पन, शीतपन, भारीपन, स्नेह, शून्यता तथा रोगों को चिर काल तक बनाये रखना कफ का कर्म है। इन लक्षणों से युक्त रोगों को कफज विकार के अन्तर्गत समझना चाहिए। संगीत चिकित्सा के लिए इन दोषों को देखना-जानना, परखना आवश्यक है।22
संगीत के प्रभावों को विश्लेषित करते हुए स्वामी प्रज्ञानानन्द जी ने भी कहा है कि -
It should not be forgotten that music or musical culture is a true and surest means to purify the mind and hearts.......................... The sweet tunes of the tones of music bring concentraction and meditation in ones life easily.23
भारतीय संगीत चिकित्सा दिवस (13 मई) पर ललित नारायण मिथिाला वि0वि0 दरभंगा, बिहार में आयोजित संगीत विषयक गोष्ठी ''संगीत में इलाज की अद्भूत शक्ति'' पर व्याख्यान देते हुए मुजफ्फरपुर के वरिष्ठ प्रख्यात चिकित्सक निशिन्द्र किंजल्क ने कहा कि - भारतीय शास्त्रीय संगीत में विभिन्न रोगों के इलाज की अद्भूत शक्ति है। तनाव जन्य बीमारियों जैसे- रक्तचाप, अम्लता, नींद, सम्बन्धी समस्या, सिरदर्द, कब्ज, दमा, डिप्रेसन, हिस्टिरिया सहित सौ से अधिक बीमारियों का इलाज रागों के सही इस्तेमाल से सफलतापूर्वक किया जा सकता है।24
अनुसंधान संगीतज्ञों, चिकित्सकों का यह मानना है कि संगीत चिकित्सा के माध्यम से शरीर में एंडोर्फिन आदि लाभकारक रसायनों का स्राव बढ़ाकर और मस्तिष्क तरंगों पर नियंत्रण कर विभिन्न रोगों का इलाज किया जा सकता है तथा इस पद्धति के माध्यम से एड्स, कैंसर, इल्जाईमर, टी0बी0 आदि के मरीजो की तकलीफों को कम कम करने, प्रसव पीड़ा करने के साथ-साथ आपरेशन के दौरान दी जाने वाली एनेस्थिसिया की मात्रा तक को कम किया जा सकता है। राग-चिकित्सा से न्यूरो हारमोन्स का स्तर बढ़ जाता हैं और इससे प्राकृतिक तौर पर दर्द निवारण, मानसिक तनाव तथा विस्मृति दूर करने का प्रभाव होता है। अनुसंधानों में पाया गया कि ऐसे रोगियों में संगीत श्रवण से वैसा ही प्रभाव हुआ जितना 10 एम0जी0 के बेलियम की गोली लेने से हुआ।25
मार्क राईजर एवं फ्लायर ने 'General of Music Therapy'(1985) में अपने शोध पत्र में लिखा है कि संगीत के द्वारा तनाव हार्मोन के रूप में जाना जाने वाला 'कार्टीसोल' की मात्रा कम हो जाती है जिससे शरीर तनावमुक्त एवं शान्त हो जाता है तथा मांसपेशियों की जकड़न कम हो जाती है।26
समाज में रहने वाले भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की रूचि भी भिन्न-भिन्न होती है। कोई शास्त्रीय संगीत पसन्द करता है, कोई लोक संगीत तो कोई फिल्म संगीत। संगीत चिकित्सा के दौरान मरीज के पसन्द व नापसन्द का जानना इस चिकित्सा पद्धति में अनिवार्य है। लंदन के 'साईकोलॉजी ऑफ म्यूजिक जर्नल' में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार जिन्हें 'रॉक' पसन्द है उन्हें सामाजिक गतिविधियों को बोध होता है जो 'पाप' सुनते है वे भावुक होते है। शास्त्रीय संगीत पसन्द करने वाले सुस्त पर बुद्धिमान होते हैं। संगीत की रूचि के आधार पर दूसरों के व्यक्तित्व को समझा जा सकता है।27
मनोचिकित्सक आरती आनन्द बताती है कि संगीत हमारे मनोभावों को व्यक्त करता है। खुशी के अवसर पर हम थोड़ा तेज संगीत सुनना पसन्द करते हैं परन्तु दुःख की घड़ी में धीमा संगीत हमारे उदासमन को दर्शाता है संगीत सुनने से तनाव कम होता है और मन में सकारात्मक भाव उत्पन्न होते हैं। अकेले है तो संगीत सुने, उदास है तो गीत गुन-गुनायें।28
जिस प्रकार सुरीले मनभावन संगीत का मानव मस्तिष्क पर अनुकूल तथा सकारात्मक प्रभाव पड़ता है उसी प्रकार बेसूरे, अतयन्त शोर गुल वाले, विवादी स्वरों से भरपूर संगीत का मस्तिष्क पर दुष्प्रभाव भी अवश्यम्भावी है। मस्तिष्क विशेषज्ञों का मानना है कि तीव्र तीक्ष्ण आवाज का मन पर बहुत भयंकर प्रभाव पड़ता है, पेशियों की शक्ति क्षीण होती है, श्रवण शक्ति नष्ट होती है। प्रतिकूल संगीत का शरीर के अन्तः स्रावी तंत्र पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इस विषय में संगीत चिकित्सक भाष्कर खाण्डेकर जी का कहना है कि - ''हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग तरीके का संगीत सुकून देने वाला हो सकता है। मन पसन्द संगीत सुनने से मनोरंजन होता है, लेकिन ऐसा संगीत जिसे हम पसन्द नही करते है उसको सुनने से तनाव बढ़ भी सकता है।''29
उत्तेजक ध्वनि तरंगों का प्रवाह अगणित समस्याओं को जन्म दे सकता है। आज कल शादी-विवाह या अन्य अवसरों पर तेज ध्वनि में बज रहे डीजे से शरीर व मन पर पड़ रहे प्रभावों के बारें में चिकित्सकों का यह मानना है कि - ''डीजे की तेज ध्वनि हृदय रोगियों के लिए कुछ ज्यादा ही खतरनाक साबित हो सकती है। यहाँ तक की उनकी जान जाने का भी खतरा हो सकता है। कानफोडु ध्वनी से नार्मल इंसान भी ब्लड प्रेशर का मरीज हो सकता है।'30 वरिष्ठ हृदय रोग विशेषज्ञ डा0 हरेन्द्र सिंह ने बताया कि - ''एक आम आदमी 20 से 25 हजार हर्टज तक की आवाज सुन सकता है लेकिन 500 से 700 हर्टज की ध्वनी उसे सुकून पहुँंचाती है। अत': तेज ध्वनि से दिल की बीमारी, ब्लड प्रेशर व मधुमेह के रोगियों को दिक्कत हो सकती है। गर्भवती महिलाओं के गर्भ में पल रहे बच्चे पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ सकता है।''31
डॉ0 भाष्कर ख्,ांडेकर के अनुसार - ''हमारे शरीर में स्थित आठ ग्रंथियाँ जो शरीर को स्वस्थ रखने के लिए विशेष हार्मोन्स का रिसाव करती है, इन्हें जाग्रत करने का कार्य संगीत की ध्वनियाँ अथवा तरंगे (कम्पन) करती हैं। किसी भी ध्वनी का अच्छा या बुरा प्रभाव हमारे मनः स्थिति को प्रभावित करता है। संगीत चिकित्सा का प्रथम चरण है। ध्वनियों का अच्छा या बुरा होना अर्थात मधुर अथवा कर्णकटु होना।32
लंदन के 'साइकोलॉजी ऑफ म्यूजिक' जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार - 'खराब संगीत सिर्फ मन और मिजाज ही नही रिश्ते भी खराब कर सकता है। संगीत का यौन आकर्षण से सीधा सम्बन्ध होता है। ऐसे में लोग अगर खराब संगीत सुनते है तो उसका असर रिश्तों पर भी पड़ सकता है।'33
अतः संगीत चिकित्सा जहाँ शारीरिक लाभ व आरोग्य प्रदान करती हैं वही इसका गलत ढंग से इस्तेमाल नुकसानदायक भी हो सकता है। मुजफ्फरपुर के वरिष्ठ चिकित्सक डॉ0 निशिन्द्र किंजल्क ने राग-रागिनयों से होने वाली चिकित्सा को गम्भीरतापूर्वक अपनाये जाने पर बल देते हुए कहा कि - ''इस पद्धति में किसी राग को सुन भर लेने से फायदा नही होता। इसमें रागों के प्रकार, उनकी ताल, मात्रा, उसमें प्रयुक्त छंद, संगत वाद्य यंत्र, गायक-गायिकाओं के स्वरों की क्षमता, विशेषता तथा साथ ही रोगी की स्थिति, रोग की तीव्रता, रोगी की शारीरिक-मानसिक स्थिति आदि कई बिन्दुओं का ध्यान रखकर ही इलाज के उचित प्रकार का चयन करना पड़ता है अन्यथा हानि भी हो सकती है।''34
लाभकारी संगीत वही है जो मधुर एवं मृदुल है। यदि इसे भावनाओं, संवेदनाओं से प्रस्तुत किया जाये तो इसका परिणाम न केवल गाने-सुनने वाले के लिए वरन् सम्पूर्ण परिवेश को श्रेयस्कर परिस्थितियों से भरा-पूरा करने में सहायक हो सकता है। पिछले करीब 10 सालों में तनाव के हल के रूप में संगीत चिकित्सा पद्धति तेजी के साथ उभर कर आई है। दिनों-दिन गम्भीर होती तनाव की समस्या से निजात पाने के लिए पूरे विश्व में संगीत चिकित्सा को एक बेहतर विकल्प के रूप में देखा जा रहा है। प्रसिद्ध संगीत चिकित्सक भाष्कर खांडेकर के अनुसार ''भारतीय संगीत चिकित्सा ही संगीत चिकित्सा पद्धति की जनक हैं। वर्तमान में 1993 में आई, प्रारम्भ हुई। 'भारतीय चिकित्सा एवं अनुसंधान परिषद' में संगीत-चिकित्सा, विभिन्न वैज्ञानिक दृष्टिकोणों को ध्यान में रखकर संगीत के माध्यम से विभिन्न रोगों के मरीजों पर जो प्रयोग किये जा रहे है वे चमत्कारी एवं सम्भावनाओं से परिपूर्ण हैं'''।35
आज इस विषय पर व्यापक शोध एवं अनुसंधान हो रहे है जिनमें कुछ शोधपरिणामों का उल्लेख इस प्रकार है-
- चीन के शंधाई कंजरवेटरी ऑफ म्यूजिक के चिकित्सकों ने 'इलेक्ट्रोनिक म्यूजिक थेरेपी' नाम की एक प्रभावशाली उपचार पद्धति विकसित की है जिसमें भिन्न-भिन्न बिमारियों के लिए पृथक-पृथक ध्वनियाँ प्रयुक्त की जाती है। पांचन संस्थान, स्नायु संस्थान एवं हृदय की बीमारियों में यह विशेष कारगर सिद्ध हुआ।36
- पेंसिलवानिया के ड्रेक्सेल विश्वविद्यालय में किये गये शोध के अनुसार (जिसमें 1891 कैंसर के मरीजो पर शोध किया गया) यह परिणाम प्राप्त हुआ है - गाना-बजाना, वाद्य संगीत सुनना कैंसर मरीजों की बेचैनी को कम करता है। यह न सिर्फ दर्द के अहसास को कम करती है बल्कि चित्त का शमन भी करती है और जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाती है।37
- डॉ0 अलिवर स्मिथ ने अपने शोध के परिणाम में यह पाया कि बांसूरी जैसे वाद्यों पर 20-25 मिनट हिंडोल, पूरिया, तोड़ी, भैरवी इत्यादि रागों को सुनने से उच्च रक्तचाप, तनाव आदि मस्तिष्क से सम्बन्धित रोगों पर नियंत्रण किया जा सकता है। पार्किंसन्स व अलजाईमर के रोगों में राम शिवरंजनी प्रभावी है।38
- तिहाड़ जेल ने कैदियों को अवसाद से लड़ने के लिए संगीत-चिकित्सा शुरू की है। तिहाड़ जेल में संगीत का कमरा स्थापित किया गया है। इस संगीत कक्ष से जेल में रहने वाले कैदी व्यस्त रहते है और उनके मानसिक स्वास्थ्य एवं मनोबल में सुधार आता है।39
नई दिल्ली में 2005 में The Music Therapy Trust काम कर ही है। संगीत चिकित्सा के प्रति जागरूकता लाने के लिए यह संस्था, स्कूल, अस्पताल, नर्सिग हाम आदि पर काम करती है। साथ ही संगीत-चिकित्सा में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा पाठ्यक्रम चलाती है। इसके अतिरिक्त टी0वी0 सार्ईराम जो चेन्नई के प्रसिद्ध संगीत चिकित्सक है तथा नाद सेंटर ऑफ म्यूजिक थेरेपी के माध्यम से राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय विचार गोष्ठियों का आयोजन करते हैं। रागों के माध्यम से अनेक रोगियों को स्वास्थ्य लाभ मिल रहा है। सीडी एवं संगीत चिकित्सा पर लिखे लेखों के माध्यम से लोगों में इस पद्धति के प्रति जागरूकता उत्पन्न कर रहे हैं।40
बैंगलोर के 'नेशनल इंसटीट्यूट ऑफ न्यूरो हेल्थ एण्ड मेंटल सांइस' एवं दिल्ली के अपोलो अस्पताल में 'बॉडी, माइन्ड, मेडिसन' विभाग के द्वारा भी संगीत चिकित्सा की पद्धति अपनाई जा रही है। तथा रोगियों पर इसका सफल प्रयोग किया जा रहा है। संगीत चिकित्सा के क्षेत्र में अन्य अनेक विदेशी संस्थाएं भी है जो कार्य कर रही है। इनके अतिरिक्त जो पहले से ही इस क्षेत्र में विद्यमान है। उनके प्रमुख रूप से डा0 बाला जी ताम्बे, 'आत्म संतुलन ग्राम, महाराष्ट्र, शंशाक कट्टी सुर-संजीवन केन्द्र, मुम्बई, राग रिसर्च सेन्टर चेन्नई, ब्रह्मवर्चस संस्थान, हरिद्वार तथा शिमला के प्रो0 चमल लाल वर्मा जी का नाम उल्लेखनीय है जो इस क्षेत्र में शोध एवं प्रयोग कर रहे हैं।'
यद्यपि विदेशों में इस क्षेत्र में व्यापक कार्य हुआ है और निरन्तर जारी है परन्तु हमारे देश में भी इस चिकित्सा पद्धति पर लोगों की संतोषजनक दृष्टि गई है और अपनाया जा रहा है। हीलींगहैड के निदेशक सतीश कपूर के अनुसार - 'यह बहु उद्देशीय चिकित्सा पद्धति है जिसके द्वारा संप्रेषण को बढाया जा सकता है, असामान्य व्यवहार को नियंत्रित किया जा सकता है, तर्क शक्ति को बढाने में सहायक है। इसका सर्वाधिक लाभ तनाव ग्रस्त व्यक्ति को होता है। इस क्षेत्र में शोध की अपार सम्भावनायें हैं। कब, कैसे, किस बीमारी में कौन सा संगीत सुना जाये इस पर शोध जारी है।41
भारत जैसी धनी आबादी वाले आर्थिक रूप से कमजोर देश में ऐसी सहायक चिकित्सा पद्धति का विकास होना आवश्यक है। स्वर, राग, लय, ताल का प्रभाव, उसकी विशद् चर्चाद अपने संगीत की एक विशेषता रही है। तन-मन पर उसके प्रभाव की बाते केवल कपोल-कल्पित न होकर शास्त्र सम्मत, अनुभव सिद्ध और प्रयोग स्वीकृति होकर गुणीजनो की सम्मति पाया। निष्कर्षतः प्रभाव की बात अधिकांश लोगों द्वारा अधिकांश रूप से स्वीकार होती गई, सुदृढ़ होती गई। यही है प्रभाव से उपचार की दिशा। संगीत के प्रायः पुराने सभी गुणी जनो का संगीत के प्रति दैवीय भावना ही रही है। बेतियां घराने के संगीत गुरू पं0 राम नाथ मिश्रा का कहना है कि ''परम ब्रह्म से पैदा हुई इस विद्या में अपार सामर्थ्य है। यह प्राचीन विद्या है और लोग इसे परमात्मा का आर्शीवाद मानते थे। आज वैज्ञानिक युग है। अतः संगीत चिकित्सा की व्याख्या के तरीके बदल गये हैं। अब ध्वनि तरंग का असर, स्वराधात का प्रभाव, स्वर लहरियों से पैदा स्पन्दन जैसी बातें होती हैं। सभी का प्रमाण चाहिए। युग के प्रभाव से प्रकृति व प्रवृत्ति बदलती है पर जो नही बदलती है वो है-आत्मा। शरीर का सुख मन व आत्मा के सुख से जुड़ा है। जब मन दुःखी होता है तो शरीर रोगी होने लगता है।42'' संगीत आज ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत बना है। जिसका उपयोग दिल-दिमाग को तनाव मुक्त रखने में नित नवीन रूपों के किया जा रहा है । संगीत चिकित्सा अपने आप में एक श्रेष्ठ उपचार पद्धति है तथा वर्तमान युग की आवश्यकता है।
संगीत चिकित्सा ऐसा विषय है जिसमें दो विषयों का समावेश है- 1. संगीत शास्त्र 2. चिकित्सा शास्त्र । दोनों ही स्वतंत्र विषय है एवं बेहद गूढ़ विषय है। संगीत चिकित्सा के लिए इस दोनों विषयों का ज्ञान होना आवश्यक है। प्राचीन विद्वानों को संगीत के साथ-साथ विज्ञान की भी जानकारी रही होगी तभी वाद्यों में अनुनाद के लिय,े तंत्रियों के लोहे अथवा पीतल के हो, मोटे अथवा पतले हो, ऐसा उन्हें ज्ञान था।
मानव जीवन के मानसिक तथा सांस्कृतिक विकास में संगीत सफल तथा सशक्त भूमि का निभाता है। जहाँ संगीत द्वारा आत्मिक विकास होता है वही उससे उत्पन्न नाद-ऊर्जा द्वारा मानव शरीर, मन व आत्मा एक सूत्र में पिरो दिये जाते हैं। संगीत को हृदय की विषय वस्तु मानते हुए श्री रिंगे जी लिखते हैं - ''संगीत मावन मात्र की आत्मा का ऐसा भोजन है जिसके अभाव में मानवोचित् गुण फल-फूल नही सकते।'43
भारतीय संगीत की सबसे बड़ी विशिष्टता स्पष्टता और सरलता है क्योंकि यह अत्यधिक सैद्धान्तिक एवं वैज्ञानिक है। संगीत का प्रत्येक खण्ड़ अपने स्वरूप नियम व सिद्धान्त में पूर्ण है। साथ ही यह सशक्त सृजनशील अभिव्यक्ति है।
आज इस आर्थिक युग में रोजी-रोटी की दौड़-धूप में मानव सर्वथा मानव मूल्यों से दूर होता जा रहा है। आज की बहुआयामी शिक्षा ने जहाँ व्यक्ति को नये-नये रोजगार के अवसर प्रदान किये हैं वहीं अपनी संस्कृति एवं कलाओं को पीछे छोड़ दिया है। आगे बढ़ने की चाह में उसकी मानवीय वृत्तियां सदैव अस्थिर एवं अशान्त रहती है। तनावपूर्ण एक निराशाजनक परिस्थितियों में यदि हमें आशाजनक विकल्प ढूढ़ते हैं तो हमें संगीत की प्रभावोंत्पादक क्षमता, उपचारात्मक शक्ति से नयी पीढ़ी को अवगत कराना पड़ेगा। संगीत की सामाजिक वैज्ञानिक उपादेयता को समझना होगा। सांगीतिक सिद्धान्तों, नियमों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अपनाने की महती वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अपनाने की महती आवश्यकता है। संगीत के 'जनरंजन', 'भवभंजन' के साथ ही 'कायारक्षण' विशेषता को उजागर करने की जरूरत है। संगीत शिक्षा को उजागर करने की जरूरत है। संगीत शिक्षा में 'संगीत चिकित्सा' विषय रखकर इसे सर्वव्यापी बनाया जा सकता है।
वास्तव में प्राचीनता व नवीनता का मिश्रण ही संगीत को सहज, सुन्दर, जनरूचि के अनुरूप लोकप्रिय एवं उपचारी बन सकता है।
अस्तु!
संदर्भ-सूची
1. सबसे प्राचीन संगीत चिकित्सा की पुस्तक 'मेडिसिनाम्यूजिका' है जो चिकित्सक रिचर्ड ब्राउन द्वारा सन् 1729में लिखी गई थी। डा. एडवर्ड पॉडीलस्की की - Music for your health एम. शुलियन की- Music and Medicine, जेन फॉक्स की- The health of music, डा. रामेला की- The Enchanting power of music, डॉ. जैक्सन पाल की 'संगीत-चिकित्सा' इत्यादि पुस्तकों में संगीत-चिकित्सा पर विस्तार से वर्णन है।
2. अखण्ड़ ज्योति- सितम्बर, 2004 पृ0सं0-07।
3. वही पृ0 - 7
4. दोषाः पुनस्त्रयो वात्-पित् श्लेष्माणः।
ते प्रकृतिभूताः शरीरोपकारका भवन्ति।।
(चरक संहिता विमान स्थान अध्याय 1/5)
5. आरोग्य अंक, सवर्धित संस्करण, गीता प्रेस, गोरखपुर पृ0सं0-152।
6. मुगल काल में संगीत चिन्तन, राजेश्वर मित्र, पृ0सं0- 4-5
7. संगीत चिकित्सा-सतीश वर्मा, पृ0सं0- 182-183 (द्रष्टव्य, संगीत-चिकित्सा, जैक्सनपाल पृ0सं0-22)।
8. आयुधर्मयशोबुद्धि धनधान्य फलं लभेत्।
रागभिबुद्धि संतान पूर्णरागाः प्रगीयते।।80।।
संग्रामरूपलावण्य, विरहं गुण कीर्तनम्।
षौडवेन प्रगातव्यं लक्षणं गदितं यथा।।81।।
व्याधिनाशे शत्रुनाशे भयशोक विनाशने।
व्याधि दारिद्रय संतापे विषम ग्रहमोचने।।82।।
कायाडाम्बरनासे च मंगल विष संहते।
ऑडवेन प्रगातव्यं ग्राम शान्त्यथं कर्मणि।।83।।
- संगीत मकरन्द-नारद, संगीताध्याय, (द्रष्टव्य- संगीत मासिक पत्रिका 1993, लेख-राग)।
- रागिनियों द्वारा राग चिकित्सा पृ0सं0-97 तथा 'संगीत' अंक जनवरी, 1972 पृ0सं0-77।
9. संगीत चिकित्सा - डॉ. सतीश वर्मा, पृ0सं0-185।
10. वही पृ0सं0-441।
11. वही पृ0सं0-442।
12. संगीत, जनवरी , 1972 राग-रागनियों द्वारा चिकित्सा लेख - मधुगंधा मधुव्रत, पृ0सं0-81।
13. संगीत, जनवरी 1994, लेख-नाद चिकित्सा एक अभूतपूर्व, अभियान, लेखक-श्री गोपाल कृष्ण भारद्वाज।
14. वांगमय शब्द ब्रह्म-नाद, ब्रह्म-आचार्य श्री राम शर्मा पृ0सं0-5.37।
15. Mind and body Researches, Sunday 8 may, 2011, www. ashokbsr. blogspot.
16 राची एक्सप्रेस- 30 नवम्बर 2010
www. ranchiexpress.com
17. वांगमय शब्द ब्रह्म-नाद, ब्रह्म- श्री राम शर्मा आचार्य पृ0सं0-3.9
18. National Seminar on "The Relevance of music Therapy - Indian perspective, Bhagalpur, Bihar -लेखयोग एवं संगीत, डॉ0 शशी शुक्ला, पृ0सं0-17''।
19. संगीत चिकित्सा- डॉ. संगीता श्रीवास्तव, पृ0सं0-3।
20. वही, पृ0सं0- 3-4।
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23. Music of nations - Swami Prajnanda Page - 215
24. संगोष्ठि, ललितनारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा बिहार, बिहार, 13 मई, www.prabhatkhabar.com
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26. संगीत, द्वारा उपचार या म्यूजिक थेरेपी, पत्रिका-म्यूजिक थेरेपी- संस्करण 22 मार्च 2010, लेख
- राजश्री रावत mumsamvet.org.in
27. संगीत से तय होती है आपकी संगत भी- दैनिक जागरण वाराणसी, 31 जनवरी 2011, पृ0सं0-13
28. दैनिक जागरण, वाराणसी, 5 मई 2010, सप्तरंग-मन साधे संगीत
29. सेमिनार- 4 दिसम्बर 2010, डी.जी.पी. कालेज, कानपुर, डा. भाष्कर खांडेकर का उद्बोधन।
30. दैनिक जागरण, वाराणसी, 16 मार्च 2011, पृ0सं0-5 डीजे की तेज ध्वनि ले सकती है जान।
31. वही पृ0सं0- 5
32. 4 दिसम्बर 2010 को आयोजित डी0वी0पी0जी0 कालेज, कानपुर में राष्ट्रीय संगोष्ठी संगीत चिकित्सा में मुख्य अतिथि के रूप में भाष्कर खांडेकर के उद्गार।
33. दैनिक जागरण, वाराणसी, 31 जनवरी 2011, पृ0सं0- 13, www.prabhatkhabar.com
34. ललित नारायण मिथिला, वि.वि. में आयोजित संगोष्ठि- 13 मई 2011
35. संगीत कला विहार, मई-2005, लेख संगीत चिकित्सा महत्वपूर्ण जानकारी - भाष्कार खांडेकर पृ0सं0- 38
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38. www. janokti.com, 24 july 2010 लेख मनोरमा शर्मा
39. तिहाड़ जेल- संगीत से दूर हो रहा अवसाद, www.samaylive.com 15March 2011
40. www. themusitherapytrust.com
41. भविष्य की चिकित्सा है म्यूजिक थेरेपी- अफसर अहमद navbharatimes indiatimes .com. 20 अगस्त 2003।
42. विश्वास व रूचि होगा तो होगा चमत्कार in.jagaran.yahoo.com 10 जनवरी 2008।
43. भारतीय संगीत का इतिहास आध्यात्यिक एवं दार्शनिक) डॉ0 सुनीता शर्मा पृ0 सं0 10 भूमिका।
लेखिका परिचय-
डॉ0 ज्योति सिन्हा लेखन के क्षेत्र में एक जाना पहचाना नाम है। सांस्कृतिक एवं सामाजिक सरोकारों की प्रगतिवादी लेखिका साहित्यिक क्षेत्र में भी अपने निरन्तर लेखन के माध्यम से राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाती रही हैं। संगीत विषयक आपने पॉच पुस्तकों का सृजन किया है। आपके लेखन में मौलिकता, वैज्ञानिकता के साथ-साथ मानव मूल्य तथा मनुष्यता की बात देखने को मिलती है। अपने वैयक्तिक जीवन में एक सफल समाजसेवी होने के साथ महाविद्यालय में संगीत की प्राघ्यापिका भी हैं ! आपको जौनपुर के भजन सम्राट कायस्थ कल्याण समिति की ओर से संगीत सम्मान, जौनपुर महोत्सव में जौनपुर के कला और संस्कृति के क्षेत्रा में उत्कृष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया गया। संस्कार भारती, सद्भावना क्लब, राष्ट्रीय सेवा योजना एवं अन्य साहित्यिक, राजनीतिक एवं इन अनेक संस्थाओं से सम्मानित हो चुकी डॉ0 ज्योति सिन्हा के कार्यक्रम आकाशवाणी पर देखें एवं सुने जा सकते हैं। आप वर्तमान में अनेक सामाजिक एवं साहित्यिक संस्थाओं से सम्बद्व होने के साथ अनेक पत्रिाकाओं के सम्पादक मण्डल में शोभायमान है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में संगीत चिकित्सा (2010-13) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
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