गोवर्धन यादव की कहान - महुआ के वृक्ष

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महुआ के वृक्ष ऊंचे-ऊंचे दरख्तों से उतरकर अंधियारा सड़कों-खेतों, खलिहानों में आकर पसरने लगा था। गांव के तीन चार आवारा लौंडे खटिया के दाएं-ब...

महुआ के वृक्ष

ऊंचे-ऊंचे दरख्तों से उतरकर अंधियारा सड़कों-खेतों, खलिहानों में आकर पसरने लगा था। गांव के तीन चार आवारा लौंडे खटिया के दाएं-बाएं दीनदयाल के हाथ पांव दबा रहे थे। दीनदयाल ने वहीं से पसरे-पसरे आवाज लगाई।

‘अरे कल्लू... कहां मर गया रे- देखता नहीं अंधियारा घिर आया है। दिया-बत्ती क्या तेरा बाप करेगा?’

‘आया हुजूर।’ कहता हुआ कल्लू दौड़ता-हांफता उसके पास आकर खड़ा हो गया। अनायास ही उसके हाथ जुड़ आए थे।

‘क्या कर रहा था रे... दिखता नहीं.... गैस बत्ती तो जला ले लपककर।’

‘हुजूर, गायों को बांधकर चारा-पानी दे रहा था, बस थोड़ी सी देर हो गई। माफ करें अभी दिया बत्ती करता हूं।’

कल्लू ने पेट्रोमैक्स निकाला। हवा भरी, माचिस की तीली दिखाई, थोड़ी ही देर में पेट्रोमैक्स दूधिया रोशनी फेंकने लगा।

दीनदयाल अभी भी चित्त पड़ा अपने थुलथुल शरीर को दबवा रहा था।

गांव के बाहर, लाला दीनदयाल की दारू की भट्टी थी। शाम होते ही वहां अच्छी खासी चहल पहल हो उठती थी। गांव के सारे दरुवे इकट्ठे होने लगते। रूपलाल भी दारू-भट्ठी के पास, अपनी टिनमिनी जलाए आलू बोंडे, भजिया-समोसा, तेज मिर्च वाला चिऊड़ा थाली में सजाने लगता। लोग दारू खरीद लाते फिर अपने-अपने झुण्ड बनाकर बैठ जाते और दारू गटकने लगते। दारू के हलक के नीचे उतरते ही कच्चा चिट्ठा खुलने लग जाता। कभी किसी छिनाल की बात, तो कभी झगड़ा-फसाद की बात हवा में तैरने लगती। सभी बातों में मगन रहते, लगभग वही बात बार-बार दुहराई जाती।

‘गुरु... क्या शरीर पाया है... दबाते-दबाते सारी उंगलियां दुखने लगीं।’ एक चमचा चहका।

‘साले... हरामी के पिल्ले, अभी पांच मिनट भी नहीं हुए तेरे को पैर दबाते और तेरे हाथ दुखने लगे। समझता हूं बेटा... तेरे हाथ इतनी जल्दी क्यों दुखने लगे। अरे कल्लू एक पऊआ तो भेजना जरा।’ लाला ने काउन्टर पर बैठे कल्लू को हांक लगाई।

पव्वे का नाम सुनते ही तीनों के हाथ फिर तेजी से चलने लगे थे। कल्लू ने पूरा साज-समान लाकर खटिया के पास पड़े एक लकड़ी के खोके पर लाकर जमा दिया और वापिस अपने गल्ले पर जा बैठा।

एक ने ढक्कन खोला और ग्लास में उड़ेलने लगा। ग्लास में दारू डालते समय वह इस बात पर विशेष ध्यान दे रहा था कि किसी को कम अथवा ज्यादा न डल जाये। शेष दो बैठे हुए उतावले हुए जा रहे थे, उन्हें इस हरकत से चिढ़ होने लगी थी, उन दो में से एक गुर्राया- ‘एक तो साला फोकट का माल, और तू कि एक-एक बूंद गिन-गिनकर डाल रहा है, जल्दी कर साले।’ जल्दी बोलते हुए वह अपने सूखे ओठों पर जीभ फिराने लगा था।

अब तक तीनों ग्लास भरे जा चुके थे। लपककर तीनों ने ग्लास उठा लिए और एक ही सांस में पूरा गटक गए। पांव दबाते-दबाते एक ने बीड़ी सुलगाई। अब वह बीड़ी तीन लोगों के बीच धुआं उगलती नाच रही थी।

पांव दबाते-दबाते भूरा की नजरें कचरू से जा टकराईं। कचरू बिना दारू पिये, अनमना सा चला जा रहा था, शायद वह गांव जा रहा था। उसके गांव जाने का रास्ता इसी दारू भट्ठी के पास होकर निकलता है। भूरा के दिमाग का मीटर तेजी से घूमने लगा था। वह लाला से बोला, ‘उस्ताद... एक बहुत ही फाईन आइडिया दिमाग में आया है, हुकुम करो तो बोलूं।’ टांगें दबाते हुए भूरा चहका।

‘समझ गया बेटा- समझ गया। लगता है तेरा हलक फिर सूखने लगा। क्या बाप की दुकान समझ रखी है तूने, जब मुंह उठाया कर दी दारू की फरमाईश...।’ लाला गरजा।

‘नइ-लाला- नइ, ऐसी बात नहीं है। सुनोगे तो नाचने लगोगे, कसम मां की फिर खुशामद भी करोगे और कहोगे, भूरा... हो जाए इस बात पर।’ भूरा बोला।

‘अच्छा तो झट से बता तेरे दिमाग में कौन सी स्कीम घूम रही है।’ लाला अब थोड़ा नरम पड़ा था।

‘लाला- एक दिन तुम बता रहे थे न! मकान बनाना है, लकड़ी की जरूरत है, लकड़ी मिल नहीं रही है। तुमने जंगल के हरामखोरों को खूब पटाया, पर साले माने नहीं।’ भूरा बोला।

‘हां- बात तो तेरी सही है, पर साले साफ-साफ बतलाता क्यों नहीं, आखिर तेरे दिमाग में रेंग क्या रहा है।’ लाला बोला।

‘अरे हुजूर- वही तो बताने जा रहा हूं। कचरू को जानते हो न? अरे वही बाड़ेगांव वाला। बड़ी कड़की में चल रहा है बेचारा। इस साल उसके यहां फसल भी ठीक नहीं हुई और ऊपर से बैल भी मर गया है उसका। पैसे-धेले के लिए गांव-गांव भटक रहा है बेचारा। सरकार, उसकी मदद कर देते तो हमारा भी काम जम जाएगा।’ भूरा अपनी स्कीम धीरे-धीरे उगल रहा था।

‘साला, मतलब की बात जल्दी बतलाता नहीं। बस है कि हांके जा रहा है।’ लाला को बेहद गुस्सा आ रहा था। ‘लाला- बोलने भी तो दो। बीच-बीच में बोल देते हो तो भूल जाता हूं।’

‘जल्दी बक क्या बोलना चाहता है तू?’ लाला गरजा।

‘हुजूर- कचरू के आंगन में चार महुआ के झाड़ हैं, इत्ते बड़े कि दो लोग मिलकर घेरें, फिर भी पकड़ में न आएंगे। कुछ झाड़ सागौन के भी लगे हैं। अड़ी का मामला है। थोड़ी सी रकम सरकाओ, तो बात जम जायेगी। बोलो तो बुलाऊं साले को।’ भूरा अब अपनी पूरी स्कीम उगल चुका था।

‘हां- हां बुला ले हरामी के पिल्ले को।’ लाला अब थोड़ा नरम पड़ा था। अपने दूसरे साथी को इशारा करते हुए भूरा चहका- ‘गुड्डू जा तो रे लपक के। थोड़ी ही दूर गया होगा कचरू। जा जरा जल्दी कर।’

गुड्डू दौड़ता हुआ गया और कचरू को साथ लेता आया।

‘जै राम जी की लालाजी।’ हाथ जोड़कर कचरू लाला की खाट के पास खड़ा हो गया।

‘अरे बैठ कचरू बैठ। आज तू यहां से बिना पिए कैसे चले जा रहा है। वो मेरी नजर पड़ गई तुझ पर, तो गुड्डू को भेजकर बुलवा लिया।’ कचरू को स्टूल पर बैठने का इशारा करते हुए लाला उठ बैठा।

लाला का इशारा पाकर भूरा उठा और दारू लेने चला गया, जब वह लौटकर आया तो उसके हाथ में एक पूरी बोतल और पांच ग्लास थे। मुंह साफ करने के लिए चिउड़े का पैकेट वह पहले ही जेब में डाल चुका था। पास पड़े खोखे पर उसने ग्लास जमाया, बोतल खोला और पांचों ग्लास लबालब भर दिए।

बहुत दिनों के बाद दारू से भरा ग्लास कचरू के सामने रखा था। लाला बार-बार उससे ग्लास उठाने के लिए मना रहा था। कचरू भी निर्णय नहीं ले पा रहा था कि वह ग्लास उठाए अथवा नहीं। आखिर जीत तृष्णा की ही हुई। उसने लपककर गिलास उठाया और एक ही सांस में खाली कर दिया। इसके बाद एक नहीं-पूरे चार ग्लास खाली कर दिए थे उसने। चार ग्लास हलक के नीचे उतर जाने के बाद वह तेज चिउड़ा चबाने लगा था।

‘कचरू, मैंने सुना है कि आजकल तू बहुत परेशानी में चल रहा है और हमको बताया तक नहीं। क्या हम इतने पराए हो गए हैं।’ लाला के सहानुभूति के दो शब्द सुनकर कचरू की सारी कड़वाहट, एक कड़वे घूंट के साथ ही घुल गई थी। उसने अपनी परेशानियों की गठरी लाला के सामने खोलकर रख दी।

‘बस इत्ती सी बात, खैर... परेशान होने की अब जरूरत नहीं है। हम हैं न तेरे साथ।’ कहते हुए लाला ने जेब से सौ-सौ के पांच नोट निकालकर कचरू के हाथ में थमा दिए। कचरू की आंख से गरमागरम आंसू की दो बूंदें टपक पड़ीं। कृतघ्नता से उसके हाथ जुड़ आए थे।

‘कचरू, तुमसे एक बात बतलाना तो भूल ही गया। सुना है तेरे आंगन में महुआ और सागौन के ढेर सारे पेड़ लगे हैं। हमें तो भाई लकड़ी की सख्त जरूरत है। मकान बन रहा है और लकड़ी है कि साली मिल नहीं रही है।’

कचरू ने मन ही मन अपने आपको तौला, उसकी समझ में आ चुका था कि लाला आज इतना मेहरबान क्यों है। जो जेब से एक फूटी कौड़ी भी नहीं जाने देता, आज बड़े-बड़े नोट पकड़ा रहा है। एक बार जी में आया कि साफ मना कर दे। पर वह जानता है कि नोटों की क्या कीमत होती है। अगर जेब में नोट न हों तो न धर्म कमाया जा सकता है और न ही पाप किए जा सकते हैं। केवल कुछ दिनों के लिए ही, वह लोगों से उधार मांगते घूम रहा है पर नोटों की बात मुंह पर आते ही लोग कन्नी काटने लग जाते हैं। जानता है वह कि विगत चार दिनों से उसके घर का चूल्हा जला नहीं। बच्चे भूख से बिलबिलाने लगे हैं। बूढ़ी मां पन्द्रह दिनों से बीमार पड़ी है। नोटों के हाथ में आते ही और भी अनेक समस्याएं धारदार हो उठी थीं। चाहकर भी वह नोट वापिस नहीं कर पाया था। नोटों को जेब के हवाले करते हुए अपने ग्लास में बची दारू एक घूंट में उतार गया और चलने के लिए उठ खड़ा हुआ।

कचरू जाने के लिए उद्यत हुआ ही था कि लाला बोला- कचरू, एक दो दिन में बैल जरूर खरीद लेना और पैसों की जरूरत पड़े तो सीधे चले आना मेरे पास, एक दो दिन में आदमियों को भेज दूंगा तो वे झाड़ काट लायेंगे अरे- हां बैलगाड़ी तो है ही तेरे पास। बैल आ जाए तो लकड़ी भैयालाल के टाल पर पटक आना।

लाला की बातें सुनकर, चलते हुए कचरू के पैरों में जैसे ब्रेक ही लग आए थे। पीछे पलटते हुए कचरू ने लाला से कहा- दस पन्द्रह दिन रुक जाते लाला तो अच्छा रहता। सामने दीपावली का त्यौहार है और सबसे बड़ी अमावस्या भी पड़ रही है। तीज पावन पर हरे-भरे झाड़ काटना ठीक नहीं होता- अपशगुन माना जाता है।’

‘अच्छा- अच्छा ठीक है, जब तू कहेगा भेज दूंगा आदमियों को। अब तू जा।’ लाला के शब्दों में जैसे चाशनी ही घुल आई थी।

अंधकार अब गहराने लगा था। अंधकार स्याह-गहरा हो जाए, इससे पूर्व वह गांव पहुंच जाना चाहता था। उसका गांव बाड़ेगांव यहां से लगभग 6-7 कोस दूर था और रास्ता ऊबड़-खाबड़ जंगली। रास्ते में दवा की दुकान देखकर वह रुक खड़ा हुआ। दुकानदार को मां की स्थिति बतलाया और दवा देने की विनती की। दुकानदार ने दो-चार प्रकार की गोलियां दीं। दवा लेने का तरीका भी बतलाया। दवा बंडी में रखते हुए उसने बीड़ी निकाली। बीड़ी जलाकर धुआं उगलने लगा तब दुकानदार ने शेष बचे पैसे लौटा दिए थे। पास में ही अनी साव की किराना की दुकान थी। उसने दो किलो आटा, पाव भर बेसन, हरी मिर्च, धनिया, प्लास्टिक की थैली में खाने का तेल और प्याज खरीदा। चलते समय उसकी नजर अंडों पर भी पड़ी। उसने अंडे भी बंधवा लिए। आज उसने तबीयत से पिया था, अतः लगा कि अण्डे खाना जरूरी है।

घर पहुंचा। देखा। बच्चे सो रहे हैं। बूढ़ी मां कथड़ी में लिपटी एक कोने में पड़ी है। बीच-बीच में उसके खांसने की आवाज आ जाती थी। शायद यह उसके जिंदा रहने का प्रमाण था। झुनिया, उसकी पत्नी दीवार से पीठ टिकाए बैठी थी। शायद उसके लौट आने का इंतजार कर रही थी। आले में रखा भपका टिमटिमा रहा था और काला धुआं उगल रहा था।

सामान की पोटली झुनिया को देते हुए उसने चूल्हा जलाने को कहा, जो चार दिन से सुकड़ा पड़ा था। उसने बंडी में से गोलियां निकालीं। ग्लास में पानी भरा और फिर मां के करीब बैठते हुए, बांहों का सहारा देकर उसे उठाया। दो गोलियां मुंह में डालीं। पानी पिलाया और फिर बांहों का सहारा देकर लिटा दिया। मां का बदन गरम तवे की तरह जल रहा था।

झुनिया ने चूल्हा जलाया और खाना पकाने में जुट गई। बेसन बना चुकने के बाद उसने आटा मांडा और रोटियां सेंकने लगी। मक्के की मोटी-मोटी रोटियों की गंध से पूरा कमरा धमकने लगा था।

झुनिया ने आवाज दी कि वह बच्चों को उठा लाए। बीड़ी के चुट्टे को जमीन से रगड़कर बुझाते हुए वह बच्चों को उठाने का प्रयास करने लगा। एक को उठा कर बिठलाता, तो दूसरा पसर जाता। दूसरे को उठाता तो पहला पसर जाता। जैसे-तैसे उसने बच्चों को जगाया। झुनिया ने तब तक थाली लगा दी थी। सामने थाली देखकर बच्चे जैसे झपट ही पड़े थे और ठूंस-ठूंस कर रोटियां खाने लगे थे। बच्चों को इस तरह खाना खाते देख बड़ी खुशी हो रही थी। काफी दिनों बाद बच्चों ने खाना खाया था। मारे खुशी के उसकी आंखें डबडबा आईं। खाना खाकर बच्चे पैर तन्ना कर सो जाते हैं।

कचरू उठा और आले में रखे बम्फर को उठा लाया। घर आने से पहले वह एक पूरी शीशी लाला के दुकान से उठा लाया था। उसने ढक्कन खोला। ग्लास में उड़ेला और मां को सहारा देकर उठाते हुए बोला ‘‘बऊ जे थोड़ी सी दवा है- ले ले।’’ दारू की तीखी गंध ने बुढ़िया के बूढ़े शरीर में हलचल पैदा कर दी थी, कांपते हाथों से उसने ग्लास पकड़ा और गटागट पी गई। झुनिया ने थाली लगा दी थी। बमुश्किल बुढ़िया ने एक-सवा रोटी खाकर थाली सरका दी। कचरू को आज बड़ा ही अच्छा लग रहा था कि मां ने बड़े दिनों बाद कुछ खाया है।

झुनिया अब भी रोटियां सेंक रही थी। शायद यह उसकी आखिरी रोटी थी। रोटी सेंककर वह चूल्हे में जलती हुई लकड़ियों को बाहर निकालकर बुझाते हुए कचरू के तरफ मुंह घुमाकर बैठ गई। कचरू को भी शायद इसी क्षण का इंतजार था। उसने ग्लास खंगाला। दारू से भरा और झुनिया की तरफ बढ़ा दिया। उसने सहज रूप से ग्लास ले लिया और एक ही सांस में पूरा उतार दिया।

तीखे-कड़वे घूंट के अंदर जाते ही पेट में हलचल मचनी शुरू हो गई। उसके काले गाढ़े रंग पर, एक और रंच चढ़ आया था, जिसे चाहते हुए भी वह कचरू की नजरों से छिपा नहीं पाई। भपके की टिमटिमाते मद्धम रोशनी में दोनों की नजरें मिलीं। दिल एक बार जोरों से धड़का। अपने आप ही उसकी नजरें झुक आई थीं। लजाते हुए उसने फिर से ग्लास कचरू की ओर बढ़ा दिया था। शायद वह और थोड़ी सी लेना चाह रही थी।

दो-चार घूंट हलक के नीचे उतरते ही वह कुछ दार्शनिक हो चली थी। ग्लास की ओर देखते हुए वह सोचने लगी थी कि कितनी अहम चीज होती है दारू हम आदिवासियों के लिए। अगर दारू का सहारा न मिला होता तो हमारे जंगल में रह पाने की कल्पना ही बेमानी होती। माना कि हम प्रकृति-प्रेमी हैं, तभी तो बियावान जंगल में, जंगली-जानवरों, विषैले कीट-पतंगों के बीच हंसी खुशी से रह लेते हैं। डर नाम की कोई चीज होती है, यह भी भूल जाते हैं। डर तो आखिर डर ही होता है। वह भला किसे नहीं डराता। दिन में अक्सर जंगल शांत रहता है। पर जैसे ही दिन ढलता है, अंगड़ाई लेकर जाग खड़ा होता है। फिर जंगल पूरी तरह जागता रहता है। यदि उसे बीच में झपकी भी आ जाए तो शेरों की दहाड़ के साथ ही वह चौंक-चौंककर उठ बैठता है। कलेजा चीर देने वाली बर्फीली हवाएं भी उसे कंपा जाती हैं। ऐसी भयावह रात में कौन भला यहां रुकना चाहेगा। दिन में पहाड़ भले ही अच्छे लगें, पर अंधियारे में घिरते ही वे दैत्य के-से दिखने लगते हैं। शायद दारू ही ऐसा शक्तिशाली पेय है जो हम आदिवासियों के दिलों में हिम्मत का जज्बा बनाए रखता है। सारे प्रकार के डरों से मुकाबला करने की हिम्मत जुटाए रखती है। शायद यही कारण था कि दारू हम आदिवासियों की दिनचर्या का एक आवश्यक अंग बन गई है। हमारी संस्कृति में रच-बस गई है।

हाथ में ग्लास थामे झुनिया, सिर लटकाए अपने ही विचारों की दुनिया में मस्त थी। कचरू को ऐसा लगा कि कुछ उसे ज्यादा ही चढ़ गई है, तभी तो वह सिर लटकाए बैठी है। उसने उसे झंझोड़ा तब जाकर वह जंगल के तिलिस्म के घेरे को तोड़कर बाहर आ सकी थी। कुछ चैतन्य होते हुए उसने बची हुई दारू को हलक के नीचे उतार लिया।

अब वह थाली लगाने लगी थी। थाली लगाकर उसने कचरू की ओर बढ़ा दिया। कचरू ने खाना खाया और दीवार से पीठ टिकाकर बीड़ी पीने लगा। बीड़ी पीकर वह पास ही पड़ी कथड़ी पर जाकर पसर गया। झुनिया ने भी खाना खाया। जूठे बर्तन समेट कर एक ओर रखते हुए वह भी कचरू के पायताने आकर लेट गई। कचरू ने उसकी बांह पकड़कर अपनी ओर खींचा। वह भी सहज ही उसकी उसकी ओर खिंची चली गई थी। शायद वह इसके लिए, पहले से ही मानसिक रूप से तैयार भी थी। कचरू ने वहीं से पड़े-पड़े आले में जल रहे भपके को फूंककर बुझा दिया। अब उसकी खुरदरी हथेलियां झुनिया के बदन पर फिसलने लगी थीं।

मुर्गे की बांग के साथ ही वह उठ बैठा। बऊ के पास सरकते हुए वह अपनी उंगलियों के पोरों को बुढ़िया के नथूनों तक ले गया। सांसें चल रही हैं यह जानकर उसे अच्छा लगा। उसने मन ही मन बड़े देव को धन्यवाद दिया और बाड़ी में निकल आया।

बाड़ी की ओरती से पीठ टिकाकर बैठते हुए उसने बंडी में से बीड़ी निकाली। चकमच चमकाई। जलता हुआ कपास बीड़ी के मुंह पर लपेटा और फूंक-फूंक करते हुए धुआं उगलने लगा।

बीड़ी को ओठों से एक ओर दबाते हुए उसने बंडी में हाथ डाला। नोटों को निकाला और गिनने का उपक्रम करने लगा। सौ-सौ के चार और दस-दस के पांच नोट अब भी शेष बचे थे। धुआं उगलते हुए वह भावी योजना को क्रियान्वयन करने की सोचने लगा। आज हाट बाजार का दिन है। घाटी के नीचे जमकर बाजार लगेगा। सप्ताह में पड़ने वाला त्यौहार से पहले का बाजार है। ढेरों सारी दुकानें लगेंगी। बच्चों और घरवाली को लेकर वह हाट पहुंचेगा। धन्नु हलवाई की दुकान पर पहुंचकर वह सभी को गुड़ की जलेबी खिलायेगा। फिर बच्चों के कपड़े-लत्ते खरीदेगा। बऊ और झुनिया के लिए साड़ियां खरीदेगा।

दोनों की साड़ियां भी तो तार-तार हो चली हैं। कपड़ों की कमी तो उसके स्वयं के पास है पर इस साल जैसे-तैसे काम चला लेगा। पर अंगोछा जरूर ही खरीदना होगा। सिर ढकने को तो इसकी जरूरत पड़ती ही है। कुछ राशन पानी भी भरना जरूरी है। उसने गणित लगाया कि इन सब पर लगभग तीन-साढ़े तीन सौ खर्च हो ही जाएंगे। बचेंगे डेढ़ दो सौ के करीब। तो वह एक सौ का नोट घरवाली के पास रख छोड़ेगा। आड़े बखत में काम आएंगे। पचास रुपए वह स्वयं के लिए बचाकर रखेगा।

सहसा उसे ध्यान आया कि काला-मुर्गा-नींबू-रेशमी धागे लेना तो वह भूल ही गया। कल बड़ी अमावस्या है। हर साल वह बड़े देव को इसी दिन काला मुर्गा चढ़ाता आया है। भगत इसी दिन धागा मंतर कर देता है। बच्चों के लिए वह धागा बनवायेगा। देव पर चढ़ाने को दारू भी तो लगती है। खैर! दारू तो सारे सगा लोग मिलकर उतारेंगे ही दारू वहीं से मिल जाएगी।

जोड़-घटाने में इतना निमग्न था कचरू कि उसे याद नहीं रहा कि बीड़ी कभी की बुझ गई और झुनिया बर्तन मलने के लिए बाड़े में आ चुकी है। झुनिया ने उसे दो-तीन बार टोका कि वह क्या सोचा रहा है। पर वह तनिक भी ध्यान नहीं दे पाया था।

बर्तन मलते हुए झुनिया ने फिर टेर लगाई। अब की बार उसने ऊंचे स्वर में आवाज दी थी। अपनी काल्पनिक दुनिया से निकलते हुए कचरू हड़बड़ा कर उठ बैठा। झुनिया बर्तन मलते-मलते उसकी इस दशा को देखकर खिलखिला कर हंस पड़ी थी। झुनिया का इस तरह हंसना उसे अच्छा लग रहा था। लगभग दांत निपोरते हुए झुनिया ने ताना उछाला, ‘का सोच रओ थे बैठे-बैठे।’ हलक को थूक से गीला करते हुए कचरू ने कहा, ‘कुछ तो नई, हाट-बाजार से कपड़ा-लत्ता-तीज-त्यौहार का सामान खरीदने वास्ते सोच रहो थो।’

‘रात खें तो खूब मजा मारी तैने।’ झुनिया ने शर्माते हुए कहा।

झुनिया के कठोर मगर उन्नत उरोजों से खेलते हुए तो कभी नितम्बों पर हाथ फेरकर उत्तेजित करते हुए का दृश्य आंखों के सामने एकबारगी घूमने लगा। उसके कान गरम होने लगे थे। सांसें तेज होने लगी थीं। वह और कुछ सोचे, झुनिया ने बात आगे बढ़ाते हुए पूछा, ‘जे ते बता, इत्ते सारे पइसा कहां से लाव तूने।’ पैसों के बारे में पत्नी का पूछना वाजिब था। विगत पन्द्रह दिनों से वह पैसों के लिए, कभी इस गांव तो कभी उस गांव घूम रहा था। गिड़गिड़ाने के बाद भी उसे रकम नहीं मिल पाई थी। आज अचानक इतने सारे पैसों को देखकर उसका पूछना उचित भी था।

कचरू मन ही मन सोच रहा था कि बात कहां से शुरू की जाए। बात छिपाने से कोई मतलब भी नहीं था। अगर वह सही बात, आज भी न बतला पाए तो कल तो सभी पर उजागर होकर ही रहेगी। सारी हिम्मत को बटोरकर उसने अपनी सारी व्यथा-कथा झुनिया पर उजागर कर दी। जब वह अपनी बात कह रहा था, तब उसे यह ध्यान ही नहीं आया कि कथड़ी में पड़ी बीमार मां भी सुन रही होगी। तभी बुढ़िया दीवार का सहारा लेते हुए, हांफते-कांपते झोपड़ी से बाहर निकल आई थी।

‘मने तेरी सारी बातें सुन लई है रे कचरू। जे काम तो तूने कछु अच्छो नइ करो, अरे! मरद जात है बनी-मजदूरी करके काम चला लेतो, पर मेरे मरद की निसानी बेचन को कोई हक नइया तेरे को। मैं इत्तीसी थी (हाथ से ऊंचाई बतलाते हुए) तभे तेरे बाप के संगे बिहा के आई थी। हम दोनों मिलखे पानी डालत थे झाड़न में। दूर नदी से पानी लात थे। तेरे बाप ने ढेर सारी मिट्टी खोद के लाव थो और मैं थाप-थाप के चबुतरा बनाई थी। देखत ही देखत झाड़ बड़े होन लगे। खूब महुआ फरत थो। मैं आंगन लीप के साफ करत थी। ढेर सारो महुआ आंगन में टपकत थे। हम दोनों झन बीन-बीन के सुखा-सुखू के मंधोला में भर के रखत थे और बारो मैना खात थे। एक जोरो अकाल पड़ो थो, महुआ तो थो हमारे पास ना, नई तो हम बचन वारे नइ थे, जब तू तो पइदा भी नइ भव हथो।’

बुढ़िया की आवाज में तलखी थी। दर्द में सनी आवाज थी। बोलते समय वह बीच-बीच में हांफ भी जाती थी। बुरी तरह खांसते-खखोलते वह अपनी व्यथा-कथा को शब्द दे रही थी। कचरू भी अचकचाकर खड़ा हो गया था। समझ नहीं आ रहा था कि क्या यह वही बऊ है जो विगत पन्द्रह दिनों से बिस्तर से लगी है, इसमें आज अचानक इतना बोलने की हिम्मत कहां से आ गई। वह सोचने लगा था कि बऊ जो कुछ भी कह रही है सच ही कह रही है। उसका सच उसके साथ है। पर आज सच यह है कि उसकी जेब में उसका अपना धन नहीं है जो तीज-त्यौहार पर परिवार के काम आ सके। चाहता तो वह भी है कि उसकी जेब हमेशा नोटों से भरी रहे। पर रकम आए भी तो कहां से। इस साल फसल-पानी भी तो ढंग से नहीं हुई। एक बैल भी ऊपर से मर गया। मां बीमार पड़ी है। उसके दवा दारू को भी तो पैसा चाहिए था। भगत-भुमका तो वहकर ही चुका था। रोज नई परेशानी सामने आकर खड़ी हो रही है। बारह महीने में एक दिन पड़ने वाला त्यौहार भी सामने है। बच्चों के तन पर कपड़ा नहीं है। झुनिया और मां की साड़ियां भी तो जर-जर हो गई हैं। जानता है वह पैसों में कितनी ताकत है। यदि उसने झाड़ बेच भी दिए तो क्या गुनाह किया है। परिवार के लिए ही तो उसने इतना बड़ा सौदा किया है।

बऊ अब तक अर्र-सर्र बके जा रही थी। अब तो वह जमकर हांफने व खांसने भी लगी थी। उसने लपककर बुढ़िया को सम्हाला और पीठ पर हाथ फेरते हुए उसे बैठ कर आराम करने को कहने लगा।

बड़ी ही असमंजस की स्थिति से गुजर रहा था कचरू इस वक्त। उसका मन हुआ कि रकम लाला को सखेद वापिस लौटा दे। अगर वह रकम लौटा देगा तो झाड़ों के साथ-साथ मां भी बच जाएगी अन्यथा वह भी अपनी जान दे देगी। अगर रकम लौटा देता है तो बच्चे दाने-दाने को मोहताज हो जाएंगे। नंगे, उघाड़े तो रहा जा सकता है, पर पेट खाली हो तो...। किसी तरह उसने मां को समझाया कि वह रकम वापिस कर देगा। आश्वासन पाकर बुढ़िया अब सामान्य होने लगी थी।

बुढ़िया को सहारा देते हुए वह उसे अंदर ले गया। कथड़ी पर लिटाते हुए उसने आले में रखी शीशी को अंटा किया और अभी आता हूं कहकर बाहर निकल गया।

देनवा के किनारे एक छायादार वृक्ष के नीचे बैठ कर उसने ढक्कन खोला। बची-खुची पेट में उतारी। बीड़ी सुलगायी और गहनता से सोचने लगा। सामने बड़ी समस्याओं को देखकर उसने निर्णय लिया कि वह किस्तों में रकम लाला को लौटा देगा। किसी भी तरह वह लाला को पटा लेगा या फिर उसके यहां नौकरी कर लेगा और धीरे-धीरे रकम अदा कर देगा।

सूरज ऊपर तक चढ़ आया था। उसने देखा, नीचे घाटी में जगह-जगह तंबू उग आए हैं। चहल-पहल बढ़ चुकी है। वह समझ गया कि हाट लग चुका है। उसने छोटू को कंधों पर चढ़ाया। दूसरे का हाथ पकड़े वह झुनिया के संग घाट उतर रहा था। ऊपर से देखने में ऐसा प्रतीत होता है, बाजार यह रहा, पर ऊबड़-खाबड़ पथरीली पगडंडियों से चलते हुए पूरे तीन कोस का फासला तय करना होता है। उसने सोचा।

बाजार पहुंचकर, सबसे पहले उसने धन्नू हलवाई की दुकान से गुड़ की जलेबी सबको खिलायी। खुद ने भी खाया। कढ़ाहे में सिंक रही जलेबी की मीठी-मीठी गंध पूरे वातावरण में फैल रही थी। फिर उसने सौदा-सुलफ खरीदना शुरू किया, झुनिया के लिए रिबन-कंघा-चोटी-टिकली, बच्चों के लिए कपड़े, दो साड़ियां, एक मां के लिए दूसरी झुनिया के लिए। कपड़ों की आवश्यकता तो खुद उसके अपने लिए भी थी। वह केवल गमछा खरीदकर काम चलाने की सोच रहा था। पर झुनिया की जिद के आगे उसे अपने लिए धोती-कमीज खरीदनी पड़ी। सभी घरेलू खरीददारी के बाद उसने काला मुर्गा, अंडा-ताबीज व अन्य चीजें पूजा के लिए खरीदीं। जब वह घर पहुंचा तो विशेष खुशी से लबालब भरा हुआ था।

बड़ी सुबह से ही घाटी में चहल-पहल शुरू हो गई थी। हर गांव से स्त्री-पुरुष-बच्चे अपनी-अपने पारंपरिक वेशभूषा में एक जगह इकट्ठा होने लगे थे।

दो-चार-पांच घर को मिलाकर एक गांव होता है। कोई आध-एक कोस दूर तो कोई-कोई एकदम सटे हुए। गोंडीढाना-नीमढाना-सुकलूढाना ऐसे 12-13 गांव (ढाने) एक घाटी में समाए रहते। जब भी तीज त्यौहार पड़ता है सारे सगा लोग एक जगह-इकट्ठे होकर आमोद-प्रमोद मानते हैं।

ढोल-ढमाके, तांसे-तुरही फूंकी जाने लगी थी। स्त्रियां मंगलगीत समवेत स्वरों में गा रही थीं। अब पूजा का समय हो चला था। सारे सगा अब बड़ा देव की पूजा के लिए निकल पड़ते हैं। एक पुराने बूढ़े पीपल के पेड़ के नीचे एक मढ़िया बनी थी। पेड़ के नीचे, तने से सटकर, ऊबड़-खाबड़ काले पत्थरों में आकृतियां उभरी थीं। ये ही आदिवासियों का बड़ा देव है। भीड़ को देखकर, पुजारी का उत्साह, देखते ही बनता था।

ओझा ने पूजा-पाठ शुरू कर दिया। खट्टे फल, नारियल चढ़ा देने के बाद काले मुर्गे की गर्दन मंत्रोच्चार के बाद काट दी गई और गरमागरम खून मूर्तियों पर डाला जाने लगा। फिर महुआ के पत्तों के दोनों में भर-भर कर ताजी दारू। महुआ जब भी फूलता उसकी दारू इस विशेष पूजा में उतारकर सुरक्षित रख दी जाती थी।

मुर्गे की गरदन कटने एवं खून टपकाए जाने के साथ ही ओझा अजीब-अजीब सी हरकतें करता हुआ उछल-कूद मचाने लगा था। अब वह पूरे जोश के साथ उछल-कूद करता हुआ अर्र-सर्र भी बकते जा रहा था। सारे सगा लोग सांस रोके, ओझा के सिर पर सवार देव की आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगे थे। फिर ओझा ने वहीं से खट्टे फल उतारकर गांव की सीमाएं बांधना शुरू कर दिया था ताकि कोई बीमारी-महामारी गांव में न घुस सके।

अब लोग बारी-बारी से बाबा का आशीर्वाद पाने के लिए आने लगे थे। कोई गंडा ताबीज बनवाता, तो कोई धुनी राख-भभूत पाकर संतुष्ट हो लेता और झुककर प्रणाम करता और अपनी जगह आकर बैठ जाता। कचरू ने अपने लिए तथा परिवार के लिए बाबा से प्रार्थना की कि वह उन्हें परेशानियों से बचाए। ओझा ने कुछ धागे मंतर कर दिया। एक उसने गले में बांध लिया। शेष बंडी में रखते हुए वह भी अपनी जगह आकर बैठ गया। बाबा का आशीर्वाद उसे संजीवनी की तरह लगने लगा था। लंबी चौड़ी पूजा के बाद अब सभी लौटने लगे थे। जब वे लोग लौट रहे थे तब शाम घिर आई थी।

एक बड़े प्रांगण में सारे लोग जुड़ आए थे। आंगन के बीच में लकड़ियों के ठूंठ जला दिए गए थे। सभी एक निश्चित दूरी पर घेरा बनाकर बैठ गए थे। अब सभी को परसादी का इंतजार था। महुआ के दोनों में भरकर दारू बांटी जाने लगी। एक ने मटकी संभाली, तो दूसरे ने ग्लास। अब नारियल की नारेटी में दारू भरकर सभी के पात्रों में डाली जाने लगी। पान-परसादी कम अथवा ज्यादा मांगने पर प्रतिबंध नहीं रहता। परसादी बंट जाने के बाद, बड़ी-बूढ़ी औरतें खाना पकाने में जुट गईं।

युवक-युवतियों का नर्तक दल नाचने-गाने के लिए बेताब हुआ जा रहा था। सभी नर्तक दल अपनी-अपनी पारंपरिक पोशाकों में सज-धज कर आए थे। जलती हुई लकड़ियों के ढेर के एक तरफ युवतियां तो दूसरी तरफ युवाओं का दल। अर्धचंद्राकार परिधि में एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले थिरकने लगते थे। कभी युवतियों के समूह से, किसी गीत की दो पंक्तियां गाई जातीं तो युवक दल उसका जवाब देता। कभी युवक दल गीत उठाता तो, युवतियां उसे पूरा करतीं। बीच-बीच में हास-परिहास भी चलता जाता था। ढोल-टिमकी की थाप, झांझरों की टिमिक-टिमिक पर सारा नर्तक दल, एक लयबद्ध तरीके से नाचता। सभी के पैर एक साथ आगे बढ़ते-पीछे हटते। अब सामूहिक नृत्य शुरू हुआ। हर युवक की बगल में युवती होती। इस तरह एक लंबी शृंखला देर रात तक थिरकती रही।

सामूहिक नृत्य में कचरू, झुनिया की पतली कमर में हाथ डाले थिरक रहा होता है। नृत्य करते-करते वह रोमांचित हो उठता है। सहज ही उसे बीते क्षणों की याद ताजा हो उठती है। ऐसे ही एक सामूहिक नृत्य में दोनों एक दूसरे की कमर में हाथ डाले थिरक रहे थे। दोनों की नजरें एक दूसरे की दिल की गहराईयों में उतरकर दोनों को मदहोश किए जा रही थीं। जी भर नाचे थे दोनों। पल-दो-पल के नृत्य में इस छोटे से परिचय ने अपना विस्तार लेना शुरू कर दिया था। मन ही मन वे एक दूजे के हो चुके थे। एक दिन वे दोनों घर से भाग भी खड़े हुए थे। सगा समाज में यदि लड़की-लड़के को भगा ले जाए तो यह समझा जाता है कि वे शादी के बंध में बंधने को तैयार हैं। फिर समाज की बनी परंपरा के अनुसार शादी करा दी जाती थी। शायद दोनों ही पुरानी यादों को ताजा करते हुए रोमांचित हुए जा रहे थे।

पांच दिन तक चलने वाले इस उत्सव का एक-एक क्षण, एक-पल पल, प्यार, समर्पण, सहयोग-सदाचार के साथ संपन्न होता है।

कचरू विगत दो दिनों से अपनी झोपड़ी के बाहर नहीं निकल पाया था। शायद वह अपनी थकान मिटा रहा था। जब भी मूड होता, चढ़ा लेता और टुन्न होकर पड़ा रहता अथवा दोस्तों के साथ मछली मारने निकल पड़ता। उत्सव का सारा खुमार अब उतार पर था। सारे लोग अब अपने-अपने काम धंधे पर निकल पड़े थे।

गहरी नींद में सोया था कचरू। उसने एक भयानक सपना देखा। लाला के लोग हाथों में कुल्हाड़ियां गंडासे लेकर आ धमके हैं। कचरू झाड़ काटने के लिए मना कर रहा है। लाला के लोग मान नहीं रहे हैं। वे झाड़ काटने के लिए उतावले हुए जा रहे हैं। कचरू गिड़गिड़ा रहा है। उसने अब लाला के पैर पकड़ लिए थे। लाला भी तैश में था। भला इतनी बड़ी रकम देकर उसने सौदा पक्का जो किया था और अब वह पिछले दो-तीन बार की तरह खाली हाथ लौटना भी नहीं चाहता था। लाला ने उसकी अनुनय को ठुकराते हुए, उसे परे धकेलते हुए अपने आदमियों को झाड़ काटने की आज्ञा दी। बस क्या था। दनादन चोटें वृक्षों पर चलने लगी थीं। कचरू को ऐसा लगा कि वार वृक्षों पर न पड़कर उसके शरीर पर पड़ रहे थे। वह एक चीख के साथ उठ बैठा था।

आए दिन उसे भयानक सपने घेरने लगते थे। झुनिया भी समझाती पर उसकी समझ में आने से रहा। जानता है वह अपना भविष्य कि कल क्या होगा। उसकी हर रात दहशत में कटती, तो दिन बेचैनी के साथ।

सुबह सोकर उठ ही पाया था कि लाला के लोग आ धमके। सभी के हाथों में कुल्हाड़ियां-गंडासे मजबूत रस्सियों के बंडल थे। दल के मुखिया ने आगे बढ़कर झाड़ काटने का हुक्म दिया। दल आगे बढ़ने लगा।

कचरू ने मुखिया के पैरों में गिरते हुए कुछ दिन की और मोहलत मांगी। उसने और मोहलत देने से इंकार कर दिया था। वह नहीं चाहता था कि बार-बार ही एक बात दुहराई जाए।

दहाड़ मारकर रो पड़ा कचरू । अपने वृक्षों को बचाने के लिए वह गुहार लगाता रहा। अब उसके साथ-साथ उसके बीवी बच्चे भी जुड़ आए थे।

वृक्षों पर पड़ती कुल्हाड़ी की चोटों की आवाज, जिस पर परिवार के चीखने चिल्लाने की आवाज सुनकर आस-पास के गांवों के लोग अपने-अपने हाथों में तीर कमान, लठ-भोंगा लेकर दौड़ पड़े।

माहौल में उत्तेजना भरती जा रही थी। चारों तरफ घेरो-पकड़ो मारो के सम्मिलित स्वर हवा में गूंजने लगे थे।

लोग जमकर लाठियां बरसाने लगे थे। कोई वार करता तो कोई बचा कर ले जाता। देखते ही देखते लोगों के बीच सर फुटव्वल होने लगी थी।

एक हट्टे-कट्टे लौंडे ने कचरू पर भरपूर वार उछाला। लट्ठ सांय-सांय करता हुआ कचरू की ओर बढ़ ही रहा था कि अचानक बुढ़िया बीच-बचाव की मुद्रा में आकर खड़ी हो गई। कोई नहीं जानता कि वह कब झोपड़ी में से निकली और कब बीच में आकर खड़ी हो गई।

हवा की परतों को चीरता हुआ लट्ठ तेजी से आया और बुढ़िया की कनपटी पर लगा। एक मिनट भी नहीं बीता होगा कि बुढ़िया जमीन पर भरभराकर गिर पड़ी और तड़पने लगी।

वार करने के लिए उठे हाथ-बीच में ही रुक गए थे। सभी सांस रोके बुढ़िया को तड़फता हुआ देख रहे थे। हर किसी के मन में ये प्रश्न फन उठाए डोल रहा था कि वे आए थे किसी और काम से, पर हो क्या गया है

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103 कावेरी नगर ,छिन्दवाडा,म.प्र. ४८०००१

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रचनाकार: गोवर्धन यादव की कहान - महुआ के वृक्ष
गोवर्धन यादव की कहान - महुआ के वृक्ष
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