विमर्श साहित्य, समाज और मिथक विमर्श छोटे बच्चों के द्वारा अक्सर प्रश्न पूछे जाते हैं। उनके प्रश्न जिज्ञासा भरे तथा अत्यंत सहज-सरल हो...
विमर्श
साहित्य, समाज और मिथक विमर्श
छोटे बच्चों के द्वारा अक्सर प्रश्न पूछे जाते हैं। उनके प्रश्न जिज्ञासा भरे तथा अत्यंत सहज-सरल होते हैं। ऐसे ही सहज-सरल प्रश्नों के सटीक उत्तर देना कभी-कभी अभिभावकों के लिये कठिन हो जाता है। तत्काल उत्तर देते नहीं बनता। यह सिलसिला आदिकाल से चला आ रहा है। छोटे बच्चों के द्वारा प्रश्न पूछा जाना स्वाभाविक प्रवृत्ति है। दस साल के बच्चे के लिये यह दुनिया नई-नई होती है। वह संसार के चीजों और घटनाओं के बारे में तेजी से जानना-समझना चाहता है।
मेरी नातिन दस वर्ष की है। इंगलिश मिडियम स्कूल में पढ़ती है और कक्षा पाँचवी की छात्रा है। आज ही उसने एक ऐसा प्रश्न पूछ दिया जिसका उत्तर देना मेरे लिये थोड़ा मुश्किल हो गया। उसने पूछा - ''दादा जी! भगवान गणेश जी का नीचे का हिस्सा मनुष्य का और ऊपर का याने सिर, हाथी का क्यों है? अब इस तरह के बच्चे पैदा क्यों नहीं होते?''
यह गणेशोत्सव का अवसर है। जगह-जगह गणेश जी की प्रतिमा स्थापित की गई है। छोटे बच्चों की अनेक टोलियाँ गणेश जी की स्थापना करके विधि-विधान से पूजा अर्चना में संलग्न हैं। शायद इसीलिये मेरी नातिन के मस्तिष्क में यह प्रश्न उत्पन्न हुआ होगा। प्रश्न सुनकर मैं उसकी ओर आश्चर्य से देखने लगा। मैं पशोपेश में पड़ गया कि क्या उत्तर दूँ। बड़ा उम्र का पढ़ा-लिखा व्यक्ति यह प्रश्न पूछता तो मैं अपनी विद्वत्ता दिखा देता। कम से कम आधे घंटे तक वक्तव्य देकर अपनी योग्यता का धाक जमा देता किन्तु यहाँ तो एक छोटी बच्ची ने प्रश्न पूछा था, इसलिये विद्वत्ता यहाँ काम आने वाली नहीं थी। उसे तो सरल भाषा में उसकी समझ में आने वाले कारण बताना था। सरल बोलना और सरल लिखना ही तो बहुत कठिन होता है। सहज-सरल उत्तर देना अधिक श्रमसाध्य होता है। ऐसी कुशलता उसी में हो सकती है, जिसका अंतर्मन स्वच्छ और साफ हो। हृदय का सहज-सरल होना पहली शर्त है।
बच्चे अपना उत्तर जानने के लिये विलंब होना पसंद नहीं करते। उसे तुरंत उत्तर चाहिये। उनकी शंकाओं का समाधान तत्काल चाहिये। विलंब होते देखकर बच्चे यह धारणा बना लेते हैं कि शायद उन्हें उत्तर नहीं मालूम। यदि बच्चों के मन में ऐसी धारणा बन जाये तो अगली बार वे प्रश्न पूछने से कतरायेंगे। बच्चों के द्वारा प्रश्न पूछा जाना उनके व्यक्तित्व के विकास के लिये आवश्यक है तथा उनके प्रश्नों का तर्कसंगत, वैज्ञानिक और तथ्यात्मक उत्तर देना अभिभावक या गुरुजन का पावन कर्तव्य है। गोलमोल, भ्रमात्मक, परंपरागत और टालने वाला उत्तर देना जिज्ञासु बच्चों के साथ छल करने के बराबर है। आखिर मैंने उसकी जिज्ञासा को शांत करने की दृष्टि से एक वाक्य में उत्तर दिया - ''बेटी! गणेश जी का सिर हाथी का और धड़ मनुष्य का है, यह एक मिथक है।''
''ये मिथक क्या होता है?'' उसका अगला प्रश्न यही था। मुझे मालूम था, वह यह प्रश्न अवश्य पूछेगी। इसीलिये मैं पहले से ही अपने संचित ज्ञान और मस्तिष्क की ऊर्जा को भीतर ही भीतर विकसित कर रहा था। मैंने कहना शुरू किया - ''बेटी! सुनो, पुराणों में एक कथा है। गणेश जी भगवान शंकर और माता पार्वती के पुत्र हैं। एक बार माता पार्वती स्नान कर रही थी। उसने अपने पुत्र गणेश जी को दरवाजे के बाहर चौकीदारी करने के लिये बैठा दिया और समझा दिया कि किसी को भी अंदर मत आने देना। माता के आदेश से वे चौकीदारी करने लगे। कुछ देर बाद भगवान शंकर वहाँ पधारे। वे भीतर जाने लगे। तब गणेश जी ने उन्हें रोका। उसके द्वारा मना करने पर भी भगवान शंकर अंदर जाने लगे। तब दोनों में कहासुनी हो गई और अंततः युद्ध की स्थिति निर्मित हो गई। युद्ध करते हुए क्रोधावेश में भगवान शंकर ने गणेश जी का सिर धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद वे माता पार्वती के पास पहुँचे। माता पार्वती ने उनसे पूछा कि वे अंदर कैसे आ गये? बाहर उनका पुत्र चौकीदारी कर रहा है। क्या उसने रोका नहीं? तब शंकर जी ने घटना की जानकारी देते हुए कहा कि बाहर एक बालक मुझे अंदर आने से रोकने की धृष्टता कर रहा था। मैंने उसका सिर कलम कर दिया। यह सुनकर माता पार्वती दुखी हो गई। उसने शंकर जी से अनुनय किया कि वे उसके पुत्र को जीवित करे। शंकर जी बाहर आये, देखा कि बालक का शव वहाँ पड़ा हुआ है किन्तु सिर वहाँ मौजूद नहीं है। उन्होंने पास में एक हाथी के बच्चे को देखा। उन्होंने उसका सिर काटकर गणेश जी के धड़ में जोड़कर उसे जीवित कर दिया। साथ ही उन्हे अनेक वरदान भी दिया; ज्ञान-विज्ञान और बुद्धि के देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया। गणेश जी को विघ्नहरण और मंगलकरण भी माना जाता है, इसीलिये उनकी पूजा की जाती है।
यह पौराणिक कथा वस्तुतः एक मिथक है।इसमें कितना सत्य और कितनी कल्पना है, बता पाना मुश्किल है। जनमानस में गणेश जी के प्रति गहरी आस्था है, अटूट विश्वास है, तथा समर्पित श्रद्धा-भक्ति है। यही वर्तमान का सत्य है। मेरा इतना कहने पर मेरी नातिन ''अब खेलने जाती हूँ।'' कहकर बाहर चली गई किन्तु मेरा मस्तिष्क मिथकों के सैद्धंतिक और व्यावहारिक पहलुओं के विमर्श में संलग्न हो गया।
मिथक का संबंध किसी एक जाति या समुदाय तक सीमित नहीं है। मिथक पूरे विश्व में पाये जाते हैं। जहाँ-जहाँ मानव जाति का अस्तित्व है, वहाँ-वहाँ मिथक अवश्य मौजूद होता है तथा उस पर लोगों की पूरी आस्था होती है। मिथक के बारे में विद्वानों नें काफी शोध किया है। इस पर बहुत कुछ विवेचना की गई है
ै तथा लिखा गया है। मिथक शब्द अंग्रजी के 'मिथ' (उलजी) का हिन्दी पर्याय है। अंगे्रजी का 'मिथ' शब्द यूनानी भाषा के 'माइथास' से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ होता है - 'आप्तवचन' आथवा 'अतर्क्य कथन' या मुख से उच्चरित वाणी। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार संस्कृत में इसके निकटवर्ती दो शब्द हैं -
1. मिथस या मिथः, जिसका अर्थ है - परस्पर।
2. मिथ्या, जो असत्य का वाचक है।
यदि 'मिथ' का संबंध 'मिथस' से जोड़ा जाय तो इसका अर्थ हो सकता है - सत्य और कल्पना का परस्पर संबंध अथवा एकात्म। मिथ्या से संबंध जोड़ने पर मिथक का अर्थ 'कपोलकथा'बन सकता है किन्तु इसमें अर्थ साम्य की जगह ध्वनि साम्य ही अधिक है।
मिथक के अर्थ को स्पष्ट करने के लिये भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया है। उनमें से कुछ शब्द निम्नलिखित हैं -
1. पुराणकथा
2. पुराख्यान
3. कल्पकथा
4. पुराकथा
5. धर्मगाथा
6. कथानक, कथाबंध, गल्पकथा।
मिथक शब्द की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद है -
डॉ. भगवतशरण उपाध्याय के अनुसार मिथक शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के 'मिथ' शब्द से हुई है और इसका अर्थ है - 'रहसि' (जिससे रहस्य बनता है।) अर्थात् एकान्त, निर्जनता; और इसी एकाकी निर्जनता में मिथुन का प्रादुर्भाव स्वीकार किया गया है। आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने संस्कृत के 'मिथ' शब्द के साथ कर्तावाचक 'क' प्रत्यय जोड़कर मिथक शब्द की रचना की है। डॉ. उषापुरी विद्यावाचस्पति के अनुसार मिथक का अभिप्राय अलौकिकता का पुट लिये हुए लोकानुभूति बताने वाली कथा है। यह संस्कृत के 'मिथ' (प्रत्यक्ष ज्ञान एवं दो तत्वों के समिश्रण) के अधिक निकट है।
पाश्चात्य विद्वानों ने भी मिथक पर काफी चिंतन-मनन किया है। विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से इसकी परिभाषाएँ दी हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार है -
पाश्चात्य विद्वान ब्लैक कमर लिखते हैं - ''मिथक मानवीय ज्ञानकोष का प्रतीकात्मक आलेख है। एरिस कालहर के अनुसार ''मिथक सत्य-दर्शन के उन समस्त रूपों की समष्टि का नाम है, जो प्रयोग और प्रमाण से सिद्ध नहीं किये जा सकते, जो अनुभव और तर्क से परे है।''
एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार - ''मिथ पूर्ण अधिकार के साथ प्रामाणिक रूप मे ंप्रस्तुत वृत्तात्मक वर्णन है किन्तु उसका यह प्रमाण्य कथित न होकर व्यंजित होता है। उसमें ऐसी घटनाओं और स्थितियों का वर्णन रहता है, जो सामान्य मानव लोक से परे होने पर भी उसके लिये सर्वथा महत्वपूर्ण होती है।''
मिस्टर चेज का विचार हेेैे - ''सच बात यह है कि यूनानी भाषा के शब्द 'मिथ' का सीधा-सरल अर्थ ही ठीक है - मिथक एक कहानी, कथा या काव्य है।'' पाश्चात्य विद्वान रोहीम एक वाक्य में कहते हैं - '''मिथ' कल्पना को सत्य के साथ सम्बद्ध करने का प्रयास है।''
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि मिथ सार्वभौम कल्पना है। वह आदिम मानवों की सामूहिक अनुभूतियों का शब्दरूप है, जिसमें मानव और प्रकृति की सत्ता की अभेद चेतना निहित रहती है। प्रायः मिथक का रूप कथात्मक होता है। कथा की घटनाएँ एक प्रकार से अलौकिक या अतिमानवीय होती है किन्तु मानव जीवन के लिये उनकी अपनी विश्ोष सार्थकता अनिवार्यतः रहती है - जैसे हनुमान के द्वारा समुद्रलंघन की (मिथकी) घटना अतिमानवीय है परंतु स्वामी की प्राण रक्षा के लिये सेवक के इस उत्कट उत्साह का मानवीय महत्व स्पष्ट हैे। मिथकी रचना में यद्यपि कल्पना का अनिवार्य योगदान रहता है फिर भी उसकी प्रतीति सत्य रूप में होती है। स्वभावतः मिथ की सत्ता सार्वभौम व सर्वकालिक होती है तथा मानव जाति के धार्मिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, साहित्यिक अर्थात् समग्र सांस्कृतिक जीवन में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती हेै।
वस्तुतः मनुष्य का चेतन मन मिथक की रचना नहीं कर सकता। व्यक्तिगत अवचेतन में भी इसकी क्षमता नहीं होती। केवल सामूहिक अचेतन ही मिथ की सृष्टि कर सकता है। व्यक्ति का चेतन मन केवल प्रकल्पों का निर्माण कर सकता है। व्यक्ति का चेतन मन स्वप्नकथा आदि की रचना कर सकता है, जो मिथक न होकर मिथक के आभास होते हैं जबकि सामूहिक अचेतन ही वास्तविक मिथकों की सृष्टि करने में समर्थ है; जिनका स्वरूप सार्वभौम तथा सर्वकालिक होता है।
पूरे विश्व में जहाँ-जहाँ मानव जाति निवास करती है; वहाँ-वहाँ मिथकों का अस्तित्व विद्यमान है। यूनान में जानुस नाम का एक देवता होता है जिसके दो मुख हैं, एक आगे और दूसरा पीछे। वह दोनों ओर देख सकता है। इसी जानुस देवता के नाम पर जनवरी माह का नामकरण हुआ है। जानुस की तरह जनवरी का महीना आगे के ग्यारह महीनों को देखता है तथा पीछे गुजरे बारह महीनों को भी देखता है। चीन का प्रमुख शक्तिशाली तथा कल्याणकारी देवता ड्रेगन है जोे लाल रंग का तथा सर्पाकृति का होता है। अरब देश की परी कथा, यूरोप की देवी हेलन इत्यादि मिथक के ही रूप हैं।
कोई भी देश या समाज मिथकों से मुक्त नहीं है। उनकी समझ, आवश्यकता और संस्कार के अनुरूप मिथकों का अस्तित्व बना रहता है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या सदियों पूर्व सृजित मिथकों का वर्तमान वैज्ञानिक युग में उपयोगिता है?यदि मिथक मानव जाति के लिये उपयोगी या हितकारी है, तो किस हद तक? इसका दूसरा पहलू भी विचारणीय है - यदि मिथक वर्तमान वैज्ञानिक युग में हानिकारक या प्रतिगामी है, तो कितना है? इस संबंध में भी वैज्ञानिकों ने अपना विचार प्रस्तुत किया है किन्तु सबके विचार एक समान नहीं है। इन विचारों को तीन वर्गों में रखा जा सकता है। पहले वर्ग में ऐसे विद्वान हैं जो मिथकों को आधुनिक सभ्यता के समस्त रोगों की औषधि मानते हैं। दूसरे वर्ग के विचारक मिथक के स्वरूप और मूल्यांकन का विवेकपूर्ण आंकलन पर जोर देते हैं। तीसरे वर्ग के विद्वान मिथक के प्रति बढ़ते हुए आकर्षण को मध्ययुगीन अन्धविश्वास की पुनरावृत्ति मानते हैं।
उपर्युक्त तीनों में दूसरे वर्ग के विचारकों का मत सर्वाधिक उचित प्रतीत होता है। उनके मत में 'विवेकपूर्ण आंकलन' शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है। कोई भी समाज मिथकों से पूर्ण रूपेण मुक्त नहीं हो सकता अर्थात् उनका बहिष्कार नहीं कर सकता। मिथकों से सन्नद्ध या व्युत्पन्न उत्सव और अनुष्ठान सामान्यतःसामाजिक एकता और सौहार्द्र को बढ़ाते हैं। मनुष्य में जीवन के प्रति आस्था और विजयी भाव विकसित करते हैं किन्तु मिथक और अनुष्ठान मनुष्य की चेतना को सुला भी सकते हैं। कट्टरता और निरंकुशता के भावों को विकसित कर सकते हैं। अतः विवेक का आसरा अनिवार्य है। खासकर हम अपने देश की बात करें तो यहाँ प्रजातंत्र हैं। सबके मौलिक अधिकार सुरक्षित हैं। देश अत्याधुनिक तकनीक और प्रौद्योगिकी के माध्यम से उत्तरोत्तर विकास कर रहा है। वैज्ञानिक अनुसंधान में किसी भी राष्ट्र से पीछे नहीं है। ऐसी परिस्थिति में हमें विवेकपूर्ण विचार करना होगा कि समाज में प्रचलित मिथकों और उनसे उत्पन्न व सन्नद्ध उत्सवों, अनुष्ठानों और आयोजनों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष नफा-नुकसान कितना हो रहा है? कही ऐसा तो नहीं कि ये सारे क्रियाकलाप धन और अन्य संसाधनों के अपव्यय के माध्यम बन रहे हैं? इससे हमारा सामाजिक और प्राकृतिक पर्यावरण प्रदूषित तो नहीं हो रहा है? अलौकिकता और अतिमानवीयता पर अत्यधिक आश्रित होकर मानवीय शक्ति और सृजनशीलता की उपेक्षा तो नहीं कर रहे हैं? अप्रत्याशित-चमत्कारिक घटना या लाभ की कामना में भ्रमित तो नहीं हो रहे हैं?ये मानव-मानव में विद्वेष और घृणा उत्पन्न करने के कारक तो नहीं बन रहे हैं? इन सभी प्रश्नों पर विवेकपूर्ण चिंतन-मनन करके निष्कर्ष निकालना प्रबुद्धजनों का पावन कर्तव्य है। अतः मिथक और उनसे संबंधित कार्य-व्यापार मानव समाज के लिये उपयोगी और हितकारी तभी हो सकते हैं जब मानव अपने विवेक और तार्किकता को सदैव प्रथम सोपान पर रखा रहे।
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ग्राम - फरहद
पों. - सोमनी
जिला - राजनोदगाँव (छ.ग.)
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