छत्तीसगढ़ी व्यंग्य चना के दार राजा , चना के दार रानी चना के दार राजा, चना के दार रानी, चना के दार गोंदली कड़कत हे। टुरा हे परबुधिया, होटल...
छत्तीसगढ़ी व्यंग्य
चना के दार राजा, चना के दार रानी
चना के दार राजा,
चना के दार रानी,
चना के दार गोंदली कड़कत हे।
टुरा हे परबुधिया,
होटल म भजिया झड़कत हे।
श्ोख हुसैन के गाये गीत जउन बखत रेडियों म बाजिस त जम्मों छत्तीसगढ़िया मन के हिरदे म गुदगुदी होय लागिस। गाना ल सुनके सब झन गुनगुनावंय अउ झूमरे लागंय। सन् साठ अउ सत्तर के दसक म ये गाना ह रेडियो म अब्बड़ चलिस। वो जमाना म टी. वी. चैनल के अता-पता नइ रिहिस हे। अब रेडियो नंदाती आ गे। मोबाइल, टी. वी. चैनल अउ सी. डी. प्लेयर ह छा गे हे। रोज-रोज नवा जिनिस ह आवत हे अउ जुन्ना चीज ह बिसरावत जात हे। श्ोख हुसैन के ये ददरिया ल घलो अब कोनो सुरता नइ करय।
''सरकार ह दस रूपिया किलो म चनादार दीही'' ये खबर ल आजेच्च अखबार म पढ़ेंव त वो गीत के सुरता ह दनाक ले आ गे। छत्तीसगढ़ सरकार ह दू रूपिया किलो के चाँऊर ल पहिलिच्च देवत हे। अब दस रूपिया किलों म चनादार ह घलो मिलही। माने बारा रूपिया म रोजे तिहार होही। छत्तीसगढ म भात के संग राहेर दार, तिंवरा अउ उरिद दार जादा खाये जाथे। गुजरे जमाना म जिल्लो दार अउ कुलथी दार घलो खात रीहिन हें।़ फेर चनादार ल चिखना समझ के खाथें। चनादार ल निमगा नइ खावंय। अब छत्तीसगढ़िया मन ल दार अउ चिखना के सेवाद ह एके संघरा मिलही।
अब दू रूपिया के चाँऊर अउ दस रूपिया के चनादार रांध के रोज गोहगोंह ले झड़कव। सरकार ह लोगन ऊपर बड़का किरपा करे बर जावत हे। खुसी मनावव अउ मजा लव।
मंय ह श्ोख हुसैन के गीत ल फेर सुरता करथंव। वो ह कहिथे -
''चना के दार राजा,
चना के दार रानी,
चना के दार गोंदली कड़कत हे।''
वोकर बाद म कहिथे -
''टुरा हे परबुधिया,
होटल म भजिया झड़कत हे।''
अब सोचे के बात ये हरे कि चनादार के संग परबुधिया शब्द ह जुड़े हे। भजिया घलो चनादार के बेसन ले बनथे। चनादार, भजिया अउ परबुधिया के गजब के जोड़ बने हे। सरकार ह ठंउका सोच-विचार के चनादार ल दस रूपिया किलो म देय के योजना ल बनाय हे।
एक बेर मंय ह महाराष्ट्र के तीन-चार साहितकार संगवारी मन संग बइठे रेहेंव। त एक झन ह हँसी-दिल्लगी म पूछिस - ''ये ग छत्तीसगढ़िया साहितकार, (वो मन मजाक म मोला अइसनेच कहंय।) तंय जानथस? महाराष्ट्र के बुद्धिजीवी मन बहुत हुसियार (ब्रिलियंट) काबर होथें?
मंय ह वोकर गोठ ल सुन के अकबका गेंव। थोरिक सोच के केहेंव - ''देख भाऊ! मंय ह ये सुने रेहेंव कि बंगाल अउ केरल के बुद्धिजीवी मन सबले जादा हुसियार (ब्रिलियंट) होथें कहिके। फेर तंय ह महाराष्ट्र के मन ल कहत हस। ये ह तो मोर बर नवा बात हो गे।''
नइ-नइ तोर जानकारी म कमी हे, छत्तीसगढ़िया साहितकार। ये ह सही बात आय, महाराष्ट्र के बुद्धिजीवी बहुत होसियार होथें। अब येकर कारन का हरे तउन ल सोच।'' वो ह अपन बात म वजन डार के किहिस। ''मंय ह तो नइ जानव भाऊ! तिहीं ह बता न।'' मंय अज्ञानी बन के बोलेंव।
''त सुन! महाराष्ट्र म चना बहुत खाये जाथे। उहाँ दैनिक भोजन म चना के व्यंजन अनिवार्य रूप म रहिथे। चना के जादा सेवन करे ले मनखे के बदन ह पुष्ट तो रहिबेच्च करथे बुद्धि ह घलो तेज बनथे। इही कारण हे।'' वो ह खुलासा करिस।
अब मंय सोचथों! सिरतो म छत्तीसगढ सरकार ह अघात विग्यानिक हे। छत्तीसगढिया मन के बुद्धि ल तेज करे खातिर दस रूपिया किलो म चनादार देय के निरनय ले हे। ये ह तो नोबल पुरस्कार पाय के लाइक काम हरे।
श्ोख हुसैन के ददरिया के पहिली अंतरा ह येदइसन हे -
''तरी फतोही ऊपर कुरता,
रहि-रहि के आथे तोरेच्च सुरता।''
तरी फतोही माने कनिहा म गमछा पहिरे हे अउ ऊपर म हाफ कुरता, माने बंडी। ये खांटी छत्तीसगढिया मन के तइहा जमाना के पहिरावा आय। ये ह छत्तीसगढिया मन के खास पहिचान रिहिस हे। अतकेच्च कपड़ा ल पहिर के छत्तीसगढिया मनखे अपन मयारुक के सुरता ल घेरी-बेरी करत रहंय।
कुंज बिहारी चौबे ह घलो इही बात ल लिखे हे -
''पहिरे बर दू बिता के पागी जी,
पिए ल चोंगी, धरे ल आगी जी,
खाए ल बासी, पिए ल पेज-पसिया,
करे बर दिन-रात, खेत म तपसिया।''
ये ह जुन्ना बात हरे। पहिली के किसान अउ मजदूर मन दू बिता के पागी पहिरें। जुड़-जुड़ बासी अउ पेज-पसिया ल खावंय-पियंय। रात-दिन खेत म काम करंय। फेर हाथ म आगी ल जरूर धरे रहंय। अब सब बदल गे। खान-पान, पहिरावा, रहन-सहन जम्मो नवा आ गे। एमा कोनो दुख के बात नइ हे। दुख के बात ये हरे कि जम्मो पहिचान ल फेंकिन ते फेंकिन, हाथ के आगी ल घलो फेंक दिन। कम से कम हाथ के धरे आगी (ताप, गरमी, स्वाभिमान) ल तो नइ फेंकना रिहिस। चलव, जावन दव।
श्ोख हुसैन ह कहिथे - ''रहि-रहि के आथे तोरेच्च सुरता।'' ये ह तो मया-मयारू के गोठ आय। अब मयारू कोन ह बनही जी, तहू ल तो सोचव।
अब चना के दार देवइया ह मयारू बनही। तेकरे सेती अरथ ह अब अइसन बनही - ''हे मोर राजा! (जनता) हे मोर रानी! चना ल खा के देवइया के सुरता ल राखे रहिबे। एती-वोती सुरता अउ धियान ल झन भटकाबे। छत्तीसगढिया, तंय ये झन देखबे के इहां के कतका हेक्टेयर जमीन म कारखाना ठाढ़ हो गे हे। जमीन देवइया किसान मन ल सही मुआवजा मिले हे कि नइ मिले हे? कारखाना मन म कतना छत्तीसगढिया मन ल पक्का काम मिले हे? यहू झन सोचबे कि पी. एस. सी. के परीच्छा के मामला ह हर बेर कोर्ट म काबर चल देथे? हर नौकरी के परीच्छा के सवाल ल गलत काबर सेट करे जाथे? स्कूल मन म गुरूजी मन के अड़बड़ कमी हे, फेर इंकर भरती ल पूरा-पूरा काबर नइ करे जाय? पढ़ेलिखे सिरतोन के छत्तीसगढिया बेरोजगार मन ल कतना रोजगार मिले हे? चोरीहारी, लूटपाट ह दिनोंदिन काबर बाढ़त जावत हे? ये डहर सुरता झन करबे? इंकर ऊपर सोच-विचार करना तुंहर काम नोहे। बस दू रूपिया के चाँऊर खा अउ दस रूपिया किलो के चनादार। बाकी सब सवाल ल भुला के मजा उड़ा यार।
चनादार मिलही, फेर कोन-कोन ल मिलही, अइसन चिंता झन करबे। कब मिलही तेकरो फिकर झन करबे। कइसन क्वालिटी के मिलही अउ कोन ह सप्लाई करही, अइसन बिचारे के गलती तो भूल के मत करबे। तंय तो बस लाइन लगा के अगोरा करत रह। कइसनो करके कभू मिले लगही त सेवाद ले ले के खा लेबे। खाबे अउ देवइया के सुरता ल धरे रहिबे।
श्ोख हुसैन जी! तुंहर ददरिया के सुरता मोला घेरीबेरी आथे। चनादार के संग परबुधिया ल जोड़े, ये ह मोला अघात सुहाथे। भाईजान! तोला सलाम हे! आदाब हे।
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दादूलाल जोशी ''फरहद''
ग्राम - फरहद
पों. - सोमनी
जिला - राजनोदगाँव (छ.ग.)
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