जिस उद्देश्य ने भगवान बिरसा मुंड़ा ने उलगुलान की शुरूआत की थी आज 137 वर्षों बाद भी झारखंड़ राज्य में आदिवासियों को हासिल नहीं हो पाया ह...
जिस उद्देश्य ने भगवान बिरसा मुंड़ा ने उलगुलान की शुरूआत की थी आज 137 वर्षों बाद भी झारखंड़ राज्य में आदिवासियों को हासिल नहीं हो पाया है। राज्य में पिछले बारह वर्षों में सिर्फ आदिवासी ही मुख्यमंत्री रहे परंतु आदिवासियों का शोषण निरंतर जारी है। जल, जंगल, जमीन के अधिकार को लेकर आज भी राज्य के आदिवासी संघर्षरत है। संथाल परगना काश्तकारी व छोटानागपूर काश्तकारी अधिनियमों की धज्जियां राज्य में सरेआम उडायी जा रही है। झारखंड़ राज्य बनने के बाद जहां एक तरफ अबुआ दिशोम का नारा हशिए पर चला गया है वहीं दूसरी ओर राजनीतिक अस्थिरता व वैचारिक शुन्यता के कारण आदिवासियों का शोषण निरंतर जारी है। बिरसा मुंड़ा का जन्म दिवस झारखंड़ राज्य के स्थापना दिवस भी है परंतु धूम-धाम से स्थापना दिवस मनाये जाने से बिरसा मुंड़ा द्वारा सींचा गया उलगुलान का उद्देश्य पूरा नहीं होता है। इसके लिए आदिवासियों को एकजुट होने की जरूरत है। पढ़े-लिखे आदिवासियों को आगे आने की जरूरत है और बिरसा मुंड़ा द्वारा देखे और दिखाये गए सपनों को साकार करना है।
अंग्रेजों के विरूद्ध जनजातीय विद्रोह के शानदार इतिहास में चर्चित व्यक्तित्व बिरसा मुंड़ा का है जिनकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि झारखंड़ के लोग इन्हें श्रद्धा एवं भक्ति से भगवान बिरसा के नाम से पुकारते है।
बिरसा मुंड़ा का जन्म 15 नवंबर सन् 1875 में रांची जिले के तमार थाना के एक सुदूर गांव उलाहातु में हुआ था। इनकी शिक्षा जनजाति भाषा के अतिरिक्त अंग्रेजी स्कूल में भी हुई थी तथा ये इसाई धर्म के सिद्धांतों से भी अवगत थे। संथाल लोग बर्तमान छोटानागपुर डिविजन, बांकुड़ा, पुरूलिया और मेदनीपुर जिलों की ओर से आकर 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध तथा 19वीं सदी के प्रारंभिक काल में ‘दामिन-ई-कोह' में बस गए थे। धीरे-धीरे झारखंड़ में मिशनरियों का आगमन होने लगा था। स्न 1854 ई. में सर्वप्रथम छोटानागपूर में लूथरन मिशनरियों का आगमन हुआ। इन मिशनरियों द्वारा दी गयी शिक्षा और पढ़ाई के कारण आदिवासियों में एक जागृति आने लगी और अब आदिवासी समाज में बदलाव की नयी ज्योति, नयी आशा का जागरण होना शुरू हुआ।
आदिवासी समाज को इसी समय बिरसा मुंड़ा ने एक नयी दिशा और सोच दी। बालक बिरसा ने अंग्रेजी शासन और उसके शोषणकारी कार्यकलापों को देखा था और झेला था। 15 वर्ष की आयु में बिरसा मुंड़ा ने अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया था। अपने हृदय में समाज सुधार की भावना और क्रांति की ज्वाला लिए हुए बिरसा मुंड़ा ने आनंद पांडेय नामक ज्ञानी से सनातन धर्म की शिक्षा ली। बढ़ते हुए इसाई धर्म के कदम को बिरसा मुंड़ा ने रोकने की कोशिश की और आदिवासियों को यह बताना शुरू किया कि इसाई धर्म बाहरी धर्म, अंग्रेजों का धर्म है, हमलोगों का धर्म हिन्दू सनातन धर्म है। बिरसा मुंड़ा ने अपने आदिवासी समाज में प्रत्येक व्यक्ति में आत्मविश्वास, आत्मगौरव और आत्मसम्मान भरना चाहते थे तथा रूढ़िवादिता को दूर करना चाहते थे और बहुत हद तक इन्होंने अपने इस उद्देश्य में कामयाब भी रहे। सन् 1894 से सन् 1895 ई. के कालखंड़ में बिरसा मुंड़ा द्वारा आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक सुधार के जितने कदम अपने आदिवासी समाज के सुधार के लिए उठाया वह सभी इस कदर कामयाब रहे कि बिरसा मुंड़ा की लोकप्रियता सातवें आसमान को छुने लगी और लोगों ने उन्हें ‘धरती आबा' अर्थात धरती का पिता स्वीकार करने लगे और श्रद्धा से उन्हें ‘भगवान बिरसा' कहकर पुकारने लगे।
अंग्रेजों ने प्रशासनिक सुधार की योजना के तहत सन् 1854 ई. में छाटानागपूर कमिश्नरी का गठन किया। साउथ वेस्ट फ्रंटियर एजेंसी को समाप्त कर संपूर्ण छोटानागपूर को बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर के अधीन कर दिया गया। दीवानी और राजस्व अदालत खोली गयी। एक कमिश्नर की नियुक्ति हुई जिसके अधीन चांगबकर, उदयपुर, गांगपुर, जशपुर, कोरिया, मानभूम, सिंहभूम, हजारीबाग, लोहरदगा आदि राज्य थे। इस क्षेत्र का नाम चुटियानागपूर रखा गया था।
सन् 1855-1857 ई. में झारखंड़ में एक ऐसा विद्रोह हुआ जो संपूर्ण आदिवासी समाज के चेतना का अभिन्न अंग बन गया। आदिवासी समाज का शोषण न सिर्फ अंग्रेज लोग कर रहे थे बल्कि अंग्रेजों के पिछलग्गु बंगाली और पछाही महाजन, साहूकार लोग भी शोषण करने में बढ़-चढ़ कर भाग लेते थे। ये महाजन और साहूकार पिछले कुछ वर्षों में दामिन-ई-कोह में अपने व्यापार के लिए उपलब्ध सुविधाओं को देखकर बहुत बड़ी संख्या में बस गए थे और नायाब तरीके से आदिवासियों का शोषण करते थे। कुछ चावल या धान ये साहूकार, महाजन आदिवासी व्यक्ति को उधार दे देते थे और फिर बड़ी ही चालाकी के साथ ऐ अत्यंत टेढ़ी चाल का सहारा लेकर कुछ ही दिनों के भीतर उनके भाग्य का विधाता बन जाते थे। आदिवासियों को इन महाजनों का कर्ज चुकाने के लिए केवल अपनी जमीनों से ही हाथ नहीं धोना पड़ता था बल्कि कितने ही को कर्ज के बदले शरीर को भी बंधक रख देना पड़ता था और आश्चर्य की बात यह थी कि इस गुलामी की प्रथा को कानूनी अदालतों द्वारा न सिर्फ सहन किया जा रहा था बल्कि स्वीकृति भी दी जा रही थी फलस्वरूप आदिवासियों के बीच भारी असंतोष व्याप्त हो रहा था।
इसी पृष्ठिभूमि में सिंगबोगा अर्थात सूर्यदेवता में अटूट विश्वास रखने वाले भगवान बिरसा ने धर्म, संस्कृति, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में व्यापक क्रांति एक साथ प्रारंभ की जिसे जनजातीय इतिहास में ‘उलगुलान' के नाम से जाना जाता है। उलगुलान का प्रभाव अंग्रेजों के शासन पर गहरा पड़ा परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने बिरसा मुंड़ा की छवि को धूमिल करने के लिए अनेक झूठी कथाएं गढ़ी। बिरसा मुंड़ा को पागल तक घोषित करने का प्रयास किया गया तथा उन्हें भगवान का अवतार मानने को तैयार नहीं हुए अंग्रेज।
सन् 1895 ई. में भगवान बिरसा मुंड़ा ने ब्रिटिश शासन को मानने से इंकार कर दिया तथा राजनीतिक क्रांति और संघर्ष का सिलसिला प्रारंभ किया। भूमि कर देने से मना कर दिया और अंग्रेजों से लड़ने के लिए बिरसा मुंड़ा ने पूरे झारखंड़ क्षेत्रों में घूम-घूम कर आह्वान किया। उन्होंने अपने अनुयायियों को कहा, ‘निर्भय बनो, अंग्रेजों की बंदूकें काठ में बदल जाएगी, गोलियां पानी के बुलबुले बन जाएगी। निर्भय रहो, मेरा शासन आरंभ हो गया है।' भगवान बिरसा के उक्त हुंकार से आदिवासी लोग और उनका समाज भयमुक्त हो रहा था और अंग्रेजों के खिलाफ संगठित होता जा रहा था परंतु समाज में भगवान बिरसा की दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही प्रतिष्ठा से अंग्रेज चिंतित होते जा रहे थे। अंग्रेजों ने सर्वप्रथम भगवान बिरसा की बढ़ते कद को छोटा करने का प्रयास करने लगे और इस प्रयास में अंग्रेजों ने शाम-दंड़-भेद की नीति को अपनाया। दूसरी ओर भगवान बिरसा अपने अनुयायियों को यह समझाने में कामयाब होते जा रहे थे कि आदिवासी समाज में सारी कुरीतियों की जड़ वर्त्तमान अंग्रेजी व्यवस्था ही है और इससे मुक्ति पाये बिना आत्मसम्मान और आत्मगौरव से नहीं रहा जा सकता है। सन् 1895 ई. में भगवान बिरसा ने ब्रिटेन के महारानी के शासन को मानने से इंकार कर दिया तथा राजनीतिक क्रांति और संघर्ष का सिलसिला प्रारंभ किया।
अंग्रेजों ने कूटनीति एवं छलनीति से सोए हुए बिरसा मुंड़ा को रात में बिरफतार किया, उनके साथ उनके अनेक सहयोगियों को भी गिरफतार किया गया। अंग्रेजों ने भगवान बिरसा को साधारण व्यक्ति सिद्ध करने के लिए खॅूंटी में खुला कोर्ट लगवाया लेकिन भगवान बिरसा के दर्शन के लिए खॅूंटी में जन सैलाब उमड़ पड़ा तब अंग्रेज खॅूंटी में कोर्ट लगाने के अपनी प्रस्ताव को बदल दिया। 22 जनवरी सन् 1895 ई. को भगवान बिरसा को दो वर्ष का सश्रम कारावास की सजा सुनायी गयी, उनके साथ उनके कुछ साथियों को भी सजा सुनायी गयी। भगवान बिरसा को हजारीबाग जेल में रखा गया।
भगवान बिरसा को पकड़ने और छोड़ने का सिलसिला अब चल पड़ा लेकिन भगवान बिरसा के नेतृत्व में जनजातीय विद्रोह बढ़ता ही रहा। उन्होंने सोमा मुंड़ा को धार्मिक-सामाजिक क्रांति का प्रमुख और दोना मुंडा को राजनीतिक क्रांति का प्रमुख बनाया और इस तरह भगवान बिरसा ने व्यवस्थित रूप से उलगुलान को जारी रखा। भगवान बिरसा का विचार यह था कि एक ऐसे समाज की स्थापना होनी चाहिए जिसमें छोटे-बड़े का भेदभाव नहीं हो। कानून शोषण के लिए नहीं बल्कि आम लोगों के विकास के लिए हो। इसी विचारों से ओत-प्रोत भगवान बिरसा के अनुयायी सरकारी कार्यालयों, पुलिस थानों और अंग्रेजी शासन के समर्थकों पर सशस्त्र हमला तेज कर दिया। अंग्रेजी प्रशासन ने घबराकर कुछ लोगों को इनाम देने का लालच देकर भगवान बिरसा को 3 फरवरी सन् 1900 ई. को गिरफ्तार कर लिया। उनके साथ उनके अनेक समर्थकों को भी गिरफ्तार कर लिया गया। बहुत ही विवादास्पद स्थिति में रांची जेल में 9 जून सन् 1900 ई. को भगवान बिरसा ने दुनिया छोड़ दिया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि भगवान बिरसा की मृत्यु हैजे से नहीं बल्कि उन्हें उत्पीड़ित कर मार डाला गया था।
यद्यपि बिरसा मुड़ा का पार्थिव शरीर हमारे बीच नहीं रहा परंतु उनके द्वारा चलायी गयी उलगुलान व्यर्थ नहीं हुयी बल्कि जिस समाज का सपना भगवान बिरसा ने देखा और दिखाया उसे प्राप्त करने के लिए जनजातीय विद्रोह अंग्रेजों के शासनकाल में तो जारी रहा ही, स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद भी जनजाति अपने आत्म स्वाभिमान और आत्मगौरव को बनाए रखा और सिर्फ संथाल परगना से ही उनकी इच्छा पूर्ण नहीं हुयी बल्कि अंततः एक पूरे राज्य के गठन के रूप में झारखंड़ सामने आया।
भगवान बिरसा ने अपने उलगुलान में जिन विचारों को सींचा वही आगे जाकर झारखंड़ क्षेत्र में 1920 ई. के बाद आदिवासी आंदोलनों में परिलक्षित होता है। छिटपुट और अलग-अलग विद्रोहों के बदले अब आदिवासी आंदोलन एक संगठित और स्थायी आंदोलन बनने लगा और भगवान बिरसा मुंड़ा द्वारा सींचा गया समाजवाद और एक राज्य की भावना सन् 1920 ई. के बाद के आदिवासी आंदोलन से जातियता को हटाकर राष्द्रवादी लहर को फूंक दिया जो अंततः झारखंड़ राज्य में परिणित हुआ।
राजीव
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