भाषातंर हंगारी कविता अतिला यूसुफ मेरा कोई पिता नहीं, न माँ, न ईश्वर, न देश, न झूला, न कफन , न चुंबन और न ही प्यार। तीन दिनों से मैंने खाया...
भाषातंर
हंगारी कविता
अतिला यूसुफ
मेरा कोई पिता नहीं, न माँ, न ईश्वर, न देश, न झूला, न कफन , न चुंबन और न ही प्यार। तीन दिनों से मैंने खाया नहीं, कुछ भी नहीं। मेरे 20 साल एक ताकत हैं। मेरे ये बीस साल बिकाऊ हैं। यदि खरीदनेवाला कोई नहीं तो शैतान उसे खरीद ले जाएगा। मैं सच्चे दिल से फूट पडूँगा। ज़रूरत हुई तो मैं किसी को भी मार दूँगा। मैं कैद कर लिया जाऊँगा। और जिस घास से मेरी मौत आएगी, विस्मयकारी ढंग से वह मेरे सच्चे दिल पर उग आएगी। ये पंक्तियाँ हैं 20 वीं शती के उस महान हंगारी कवि की जिसके पिता ने तीन साल की उम्र में घर को छोड़ दिया, 14 साल की उम्र में माँ गुज़र गयी, कविताओं के कारण स्कूल-कॉलेजों से निकाला गया, मारक आलोचना के कारण फैलोशिप जाती रही, प्रेमिकाओं ने दगा दिया, वैचारिक स्वतंत्रता ने कम्यूनिस्ट पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया। अतिला यूसुफ नाम के इस हंगारी कवि का जन्म 11 अप्रैल 1905 को एक साबुन फैक्ट्री के मज़दूर ऐरन यूसुफ और किसान की बेटी बोलबला पोज के परिवार में हुआ था। तीन साल की उम्र में पिता के घर त्याग देने के बाद दो बेटियों और एक बेटे के निर्वाह में अक्षम माँ बोरबला ने बच्चों को अनाथालय में दे दिया। यहाँ अतिला को सूअर चराने तक का काम करना पड़ा। यहाँ के नारकीय जीवन से उकताकर बालक अतिला माँ के पास आ गया। लाचार और अशक्त माँ काम के बोझ और कैंसर से सिर्फ 43 साल की उम्र में चल बसीं। बीच के दिनों में नर्वस ब्रेकडाउन के शिकार बालक अतिला ने नौ साल की उम्र में ही खुदकुशी की कोशिश की थी। यथार्थ के गहरे और सघन बोध के साथ वैचारिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की प्रखरता से जीवन कभी स्थिर और व्यवस्थित नहीं हो सका। मानसिक अवसाद के घोर दौर में रहते हुए रचनाशीलता कोअक्षुण्ण रखकर उन्होंने विकट जीवट का उदाहरण दिया। माँ की मृत्यु के बाद जीजा ने अभिभावकत्व निभाते हुए कवि को एक माध्यमिक विद्यालय में डाल दिया। बाद में उसने रोज़ विश्वविद्यालय में नामांकन के लिए आवेदन कर दिया। लेकिन शीघ्र ही एक क्रांतिकारी कविता के कारण उसे वहाँ से निकाल दिया गया। इसी के साथ शिक्षक बनने का सारा ख्वाब जाता रहा। जीने की जद्दोजहद तो जैसे बालपन से ही शुरू हो गयी थी, पर एक कवि के अर्थ में यहीं से दुविधा, अंतर्द्वंद्व, जोखिम, असुरक्षा के रास्ते असंतुलन से होकर मनोविदलता (सिजोफ्रेनिया) तक उनकी यात्रा चलती रही। मनोचिकित्सा होने लगी। उन्होंने शादी तो कभी नहीं की, पर मनोचिकित्सा के क्रम में संपर्क में आनेवाली महिलाओं से कुछ प्रेमप्रसंग ज़रूर चले। अभिव्यक्ति में बेलौसपन और बेबाकी के साथ वैचारिक स्वतंत्रता के कारण कोई भी संपर्क भावनात्मक राग-रेशे की हद तक न आ सका। कवि, उपन्यासकार तथा आलोचक मिहाली बैबिट्स पर एक आक्रामक समीक्षा के कारण बामगार्टेन फाउंडेशन ने उनसे सहयोग का हाथ खींच लिया। वह इससे न तो तिलमिलाए और न उनके लिए यह अचरज का विषय बना। मानो वह इस हश्र के लिए पहले से ही तैयार बैठे थे। आखिर इस फाउंडेशन के अध्यक्ष भी तो बैबिट्स ही थे। अभिव्यक्ति के जोखिमों से खेलने की ठान लेने के बाद कोई किसी की किस हद तक मदद कर सकता है इसे भारतीय उपमहाद्वीप निराला, मुक्तिबोध, मंटो, नज़रुल, पाश के उदाहरण से अच्छी तरह समझ सकता है। विश्व साहित्य में अतिला इसके निराला उदाहरण न हों, पर उस तरह से भुलानेवाले तो नहीं ही जिस तरह उन्हें उनके जन्म शती वर्ष में भुला दिया गया। 10 अक्टूबर 2006 को तो आत्महत्या पर नियंत्राण का दिवस ही घोषित कर दिया गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताज़ा रिपोर्ट तो कहती है दुनिया में प्रतिघंटा 104 लोग खुदकुशी कर रहे हैं। इसका कारण अति महत्त्वाकांक्षा, तनाव और हिंसा है, लेकिन अतिला के अंत को इस सरलीकृत खाँचे में नहीं बिठाया जा सकता है। उनका अंत तो अभिव्यक्ति के उस खतरे से खेलने के कारण हुआ जिसके बिना उनकी रचनाशीलता बची नहीं रह सकती थी। पाश के शब्दों में बीच का कोई रास्ता नहीं होता। दूधनाथ सिंह के निरालाः आत्महंता आस्था के इस मार्मिक अंश से अतिला के द्वंद्व और नियति को सहजता से समझा जा सकता हैः कला रचना के प्रति अनंत आस्था एक प्रकार के आत्महनन का पर्याय होती है, जिससे किसी मौलिक रचनाकार की मुक्ति नहीं है। जो जितना अपने को खाता जाता है, बाहर उतना ही रचता जाता है। पर दुनियावी तौर पर वह धीरे-धीरे विनष्ट, समाप्त, तिरोहित तो होता ही जाता है। महान और मौलिक सर्जना के लिए यह आत्मबलि शायद अनिवार्य है। यह महान और मौलिक सर्जना कबीर की लुकाठी ही तो है जिसे लेकर वह कहते फिरते हैःं जो घर जारै आपना चले हमारे साथ। यानी कबीर की तरह आत्मबलि का न्यौता। स्कूल-कॉलेज से निष्कासन, प्रेमिकाओं का तिरस्कार, अचानक उनके जीवन में नहीं आया। यह उनके चुनावों का नतीजा ही तो था। पर मनोविदलता के खतरनाक दौर में हो या अवसाद के घोर क्षणों में, उनकी क्रांतिकारिता कभी क्षीण नहीं हुई। स्कूल से निकाले जाने के बाद कालेज के दिनों में अध्ययन की तन्मयता और शोधवृत्ति इस कदर सुरक्षित थी कि इस दौरान आस्ट्रिया तथा पेरिस में शिक्षार्जन के दौरान उन्होंने 15 वीं सदी के फ्रांसीसी साहित्य के एक विख्यात कवि फ्रैंकोइस विलन की खोज कर डाली। विलन कवि के साथ-साथ शातिर चोर भी था। विवि से निष्कासन के बाद अतिला अपनी पांडुलिपियाँ लेकर विएना आ गए। यहाँ उन्हें आजीविका के लिए अखबार बेचने से लेकर होटल रेस्त्राँ में सफाई तक का काम करना पड़ा। इसी दौरान उन्होंने मार्क्स ओर हीगेल को पढ़ डाला। इनकी छाप भी उनकी विचारधारा और रचनाओं पर पड़ी। इस दौरान की रचनाओं की सराहना तत्कालीन शोधकताओं ओर नामी-गिरामी समीक्षकों ने भी की। 1927 में कई फ्रांसिसी पत्रिकाओं ने उनकी कविताएँ प्रकाशित कीं। 1929 में प्रकाशित कविता संग्रह पर फ्रांसिसी अतियथार्थवाद की छाप देखी जाती है। अगले ही साल अवैध रूप से वह हंगारी कम्यूनिस्ट पार्टी में शामिल हो गये। 1931 में आया संग्रह जब्त कर लिया गया तथा साहित्य तथा समाजवाद नामक लेख के कारण उन पर अभियोग तक चला। 1931 से 1936 के दौरान आए संग्रहों से उन्हें समीक्षा-आलोचना जगत में व्यापक मान्यता मिली। भयंकर गरीबी और असुरक्षा से घिरे होने के बावजूद उन्होंने अपनी वैचारिक स्वतंत्रता को अक्षत रखा और अभिव्यक्ति की मौलिकता को अक्षुण्ण। उनकी वैचारिक स्वतंत्रता तथा फ्रायड में दिलचस्पी का नतीजा ही था कि वह फ्रायड के मनोविश्लेषण तथा मार्क्सवाद के संश्लेषण करने की योजना पर गंभीरता से काम करने लग गये थे। दरअसल यह दोनों ही विचारधाराएँ जीवन में चरम भौतिकता की प्रतिष्ठा करनेवाले सिद्धांतों पर टिकी हैं। अपने स्वाभाविक संस्कार के तहत ही कम्यूनिस्ट पार्टी इस नवीनता और मौलिकता की आँच को बर्दाश्त नहीं कर सकी और अतिला को निष्कासित कर दिया। पाल हेलर ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि उनकी विरल बौद्धिक मारकता और अटूट ईमानदारी से उपजी उग्र अद्वितीयता को पार्टी नहीं झेल सकी। निरंतर बढ़ते अकेलेपन में भयंकर मानसिक असंतुलन से वह पार नहीं पा सके। तीन दिसंबर 1937 को सिर्फ 32 साल की उम्र में अतिला ने एक मालगाड़ी से कटकर अपनी जान दे दी। उनकी इस नियति को हिंदी के विख्यात कवि रघुवीर सहाय की इस पंक्ति से समझा जा सकता है ः सबसे मुश्किल और एक ही सही रास्ता है कि मैं सब सेनाओं में लडूँ, किसी में ढाल सहित, किसी में निष्कवच होकर-मगर अपने को अंत में मरने सिर्फ अपने मोर्चे पर दूँ। (आत्महत्या के विरुद्ध की भूमिका में)। अतिला ने इसी दशक के शुरू साल में खुदकुशी करनेवाले विख्यात रूसी कवि मायकोव्स्की की कविता सेर्गेई एसेनिन को अपनी मौत से जैसे जीवंत कियाः तुम अगर मुझसे पूछो/मैं पसंद करूँगा पीकर मर जाना बनिस्बत मृत्यु की प्रतीक्षा में ऊबने/या ऊबते हुए जीने के। (सेर्गेनिन ने भी वर्ष 1925 में खुदकुशी की थी।)
मेरी कर्कश आवाज़ नहीं
यह मेरी कर्कश आवाज़ नहीं, यह पृथ्वी है
जो कड़कती है
सावधान, सावधान, शैतान का पागलपन जाग उठा है
अर्द्धपारदर्शी वसंत के साफ धुँधले फर्श के प्रति वफादारी ने
तुम्हें शीशे में पिघला दिया
चमकीले हीरे के पीछे छिपा
पत्थर के नीचे गोबरैले का चूँ-चूँ
ओ, ताज़ा बने ब्रेड की गंध में खुद को डुबो दो
एक गरीब अभागे, गरीब अभागे
धरती के नालों में बौछार के साथ कीचड़
बेकार ही खुद में अपने चेहरे को डुबोते हो
इसे सिर्फ दूसरों में ही डुबोया जा सकता है
घास के ऊपर की छोटी पत्तियाँ बनोः
पृथ्वी की धुरी से बड़ी
यंत्रों, चिडियों, पेड़ की डालों नक्षत्रों!
हमारी बाँझ माँएँ एक बच्चे के लिए चीखती हैं
मेरे दोस्त, मेरे अज़ीज़, सबसे चहेते दोस्त,
चाहे यह भयानक रूप में आए या महत्त्वपूर्ण रूप में,
यह मेरी कर्कश आवाज़ नहीं, बस पृथ्वी की कड़क है। (1924)
दूत
अब ट्रेन पटरी से नीचे जा रही है
हो सकता है यही मुझे नीचे लाए
शायद तमतमाए चेहरे आज ठंडे हो जाएँ
आप मुझसे बात कर सकते हैं, कह सकते हैं
गर्म पानी बह रहा है, अभी-अभी नहाए
यह तौलिया लेकर पोंछ लें
भट्ठी पर माँस चढ़ा है, आपको खिलाया जाएगा!
जहाँ मैं लेटा हूँ वहाँ आपका बिछावन है। (1933)
मेरी आँखें उछल-कूद करती हैं
मेरी आँखें उछल-कूद करती हैं,
मैं फिर पगला गया
ऐसा होने पर मुझे दुखाओं (सताओ) मत,
मुझे कसकर पकड़ो
जब मैं आपे से बाहर हो जाऊँ
तो अपने मुक्के मत तानो, मेरी बिखरी नज़र
इसे कभी नहीं ताड़ पाएगी
मुझे झकझोरो मत, मज़ाक मत बनाओ
रात के नीरस छोर को दूर करो
सोचो, मैंने सौंपने लायक कुछ भी नहीं छोड़ा है,
थामकर रखनेवाला भी नहीं
अपना कहने लायक कुछ भी नहीं।
मैं उसकी पपड़ी खाता हूँ आज
और इस कविता के पूरी होने पर, जो होगी नहीं
टार्च की रोशनी लायक जगह, जिधर से
मैं नंगी आँखों में घुसा हूँ, यह कौन सा पाप है जो वे देख रहे हैं
कौन बोलेगा नहीं, मैं जो भी करूँ इससे कोई फर्क नहीं पड़ता
जो भी मुझे प्यार करेंगे मैं उनपर दावा करूँगा
जिसका मतलब नहीं जानते, उस पाप पर भरोसा मत करें
मेरे कब्र से निकलने और मुक्त हो जाने तक।(1936)
उम्मीद के बगैर
धीरे-धीरे, सुस्ताते हुए
मैं, जैसे कोई आराम फरमाने आया हो
उस उदास, रेतीले, गीले तट पर
और चारों ओर देखता हुआ और घोर दारिद्र्य से मुक्त
समझदारी से भरा सर डुलाता, और इससे अधिक
की उम्मीद नहीं करता
बस इसीलिए अपनी गिरवी को वापस पाने की कोशिश करता हूँ
बिना किसी छल के लापरवाही से
चिनार पेड़ की सफेद पत्ती पर
एक चाँदी की कुल्हाड़ी हल्के-हल्के चलती है
रिक्तता की एक डाल पर
बेआवाज़ मेरा काँपता दिल बैठा है
और देखता है, देखता जाता है अनगिनत बार नाजु़क सितारे इसे देखने चारों ओर जुट गए
स्वर्ग की नीली गुफा में․․․
स्वर्ग की नीली गुफा में घूमता है
एक ठंडा और वार्निश किया डायनेमो
शब्द चमकते हैं मेरे दाँतों में, तय करते हैं
उफ्फ बेआव़ाज़ नक्षत्रों-इसलिए
अतीत मुझमें पत्थर की तरह गिरता है
हवा की तरह बेआवाज़ क्षितिज से होकर
काल, मौन, एकांत की धारा
तलवार चमकती है और मेरे बाल
मेरी मूँछें, एक मोटा प्यूपा
अनित्यता के मेरे मुँह में जितना स्वाद है
मेरा दिल दुखता है, शब्द ठंढक पहुँचाते हैं इससे होकर
उन्हें, जिन्हें, जिनकी आवाज़ मतलब पैदा करती है। (1933)
चीत्कार
मुझे वहशियाना प्यार करो, व्याकुलता की हद तक
मेरे भीषण क्लेश को डराकर भगा दो
अमूर्तता के पिंजड़े में
मैं एक लंगूर, उछल-कूद करता हूँ,
शाप में मेरे दाँत दिखते हैं
जिसके लिए न तो मुझमें भरोसा है और न ही कल्पना
उसकी त्योरियों के आतंक में
नश्वर, क्या तुम मेरा गाना सुनते हो
या सिर्फ प्रकृति की प्रतिध्वनि की तरह
मुझे आगोश में ले लो, अनदेखा करते हुए सिर्फ टकटकी मत लगाओ
ज्योंही धारदार छुरी नीचे आती है
कोई अभिभावक जिंदा नहीं
जो मेरे गीत सिसकारी सुने
उनकी त्योरियों के आतंक में।
जैसे एक नदी के ऊपर लट्ठों का बीड़ा
स्लाव माँझी, चाहे वह जो भी हो,
इसलिए हमेशा के लिए मानव जाति
व्यथित गूँगा, धारा नीचे जाती है-
लेकिन मैं बेकार ही ज़ोर लगाकर चीखता हूँ
मुझे प्यार करोः मैं चंगा हो जाऊँगा, मैं थरथराता हूँ
उसकी त्योरियों के आतंक में। (1936)
बाढ़ से बाहर निकालो
मुझे डराओ मेरे छिपे हुए देवता,
मुझे तुम्हारा रोष चाहिए, तुम्हारा कोड़ा, तुम्हारी कड़क
जल्दी करो, आकर बाढ़ से मुझे बाहर निकालो
ऐसा न हो कि हमें नीचे बुहार दिया जाए
धूल में मेरी नजरों तक, एक अंधा
और अभी तक मैं दर्द की छुरी से खेलता हूँ
इंसानी दिल के झेलने के लिए विकट
कितनी आसानी से मैं सुलग रहा हूँ! सूरज
झुलसाने की स्थिति में नहीं- डरे रहो-
मुझ पर चीखते हो, आग को अकेला छोड़ दो
तुमने मेरी हथेली पर इजोत देनेवाला बोल्ट दे मारा
मुझमें हथौड़े की तरह लगे गुस्से से या अनुग्रह से
यह भोलापन ही दुष्टता (बुराई) है
यही भोलापन मेरा पिंजड़ा हो सकता है
शैतान से भी बुरी तरह झुलसा सकता है
मैं झूठ बोलता हूँ कि यह भग्न पोत का खंडहर है
उपलाते क्रूर विप्लव के द्वारा उछाला गया है
अकेले ही मैं दुस्साहस करता हूँ, ललकारता हूँ
बमुश्किल कुछ भी शिनाख्त होता है
मरने के लिए मैं अपनी साँसे रोक लूँगा
तुम्हारे छड़ और कारिंदे इस तरह अवज्ञा करेंगे
और साहस के साथ मेरी आँखों में देखो
तुम रिक्त हो, मनुष्यता से रहित। (1937)
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हिन्दी अनुवाद - उमा
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(साभार - साक्षात्कार जनवरी 08, प्रधान संपादक देवेन्द्र दीपक, संपादक हरि भटनागर)
सुन्दर अनुवाद
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