अर्जुन प्रसाद की कहानी - गैंगमेन

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गैंगमैन ग्रामीण क्षेत्रों में रोजी-रोटी की बड़ी गंभीर होती है। इससे लोग बहुत परेशान रहते हैं। शिक्षित, बेरोजगार संतान को दो जून की रोटी का ...

गैंगमैन

ग्रामीण क्षेत्रों में रोजी-रोटी की बड़ी गंभीर होती है। इससे लोग बहुत परेशान रहते हैं। शिक्षित, बेरोजगार संतान को दो जून की रोटी का जुगाड़ न होने के कारण माता-पिता दिन-रात चिंतित रहते हैं। ऐस में कुछ माँ-बाप अपने बच्‍चों को व्‍यंग्‍य बाण से बेधते भी रहते हैं। उनकी मंशा होती है कि मेरी औलाद को यथाशीघ्र कोई अच्‍छी नौकरी मिल जाए तो अपना सारा खटका मिट जाए। गाँवों में काम न मिलने से युवा पीढ़ी पलायनवाद का रुख अपनाकर शहरों की ओर भागने पर विवश हो जाते हैं। नौकरी न मिलने की पीड़ा सचमुच कोई बेरोजगार युवक और उसके माता-पिता ही भलीभाँति जानते हैं।

झाँसी जिले के एक छोटे से गाँव की बात है। गाँव के के दो पुत्र थे और एक पुत्री। उनकी पत्‍नी एक भद्र महिला थीं। उनका बड़ा बेटा नाथूराम बचपन से ही बड़ा स्‍वाभिमानी और हठी था। वह शरीर से काफी दुबला-पतला था। नौकरी को लेकर अपने बाबूजी की बात उसे बहुत नागवार गुजरती थी।

उसके जी में बार-बार बस यही आता था कि रोज-रोज की किचकिच से बेहतर है लाओ घरबार छोड़कर कहीं भाग जाऊँ। किसी शहर में जाकर कोई छोटी-मोटी नौकरी कर लूँ। न रहे बाँस और न बजे बाँसुरी, मैं न यहाँ रहूँगा और न ही बाबूजी के ताने सुनने पड़ेगे।

इंसान के मन में जब एक बार कोई बात घर कर जाती है तो वह कोई न कोई गुल अवश्‍य खिलाती है। नाथूराम को खेतीबाड़ी का काम करना कतई पसंद न था। अपने पिताजी की कड़ाई से दुःखी होकर अंततः उसने मन ही मन घर त्‍यागने का फैसला कर लिया। उसने ठान लिया कि अब चाहे जो कुछ भी हो मैं घर पर कदापि न रहूँगा।

1982 में जबकि नाथूराम पूर्णतया बालिग भी न हुआ था। अभी वह अठारह वर्ष का न हुआ था। बैशाख के महीने में एक दिन शाम के समय अचानक उसने अपना घर-परिवार छोड़ दिया। वह अपने मामाजी के पास ग्‍वालियर जाना चाहता था। उनसे मिलने की उसकी बड़ी प्रबल इच्‍छा थी। उसने सोचा-ग्‍वालियर में मेरे मामाजी रहते ही हैं अगर मैं उनके पास चला जाऊँ तो वह मुझे कोई न कोई काम-धंधा दिला देंगे। इससे मेरा सारा कष्‍ट दूर हो जाएगा।

नाथूराम नंग-धड़ंग दादा कोंडके छाप एक लंबे कच्‍छे और बनियान में ही भूखा-प्‍यासा घर से भाग खड़ा हुआ और झाँसी रेलवे स्‍टेशन पर जा पहुँचा। पिता की अपेक्षा जन्‍मदायिनी माँ का कलेजा कुछ नरम होता है। संतान के प्रति पिता के हृदय में दायित्‍वपूर्ण वात्‍सल्‍य होता है तो माँ के हृदय में करुणा का सागर। वह दायित्‍व कम और ममता प्रदर्शन ज्‍यादा करती है। उधर घर से उसके गायब होते ही उसकी माँ को बड़ी चिंता हुई। बिना रोटी-पानी के वह अपने बेटे के लिए एक पखवाडे तक रोती-बिलखती रही। वह बिल्‍कुल बेचैन हो उठी। उसकी याद में रो-रोकर उस बेचारी का हाल बहुत बुरा हो रहा था। उसे लेशमात्र भी तसल्‍ली न थी। नाथू के कड़े हृदय वाले बाबूजी को यह सोचकर कुछ तसल्‍ली थी कि चलो बेटा है कोई बेटी नहीं। भूखों मरेगा तो वापस आ जाएगा। उसके वश का कोई करना तो है नहीं अतः घर से बाहर कब तक रहेगा?

नाथूराम के पास रेलगाड़ी की टिकट खरीदकर सफर करने के लिए पैसे तो थे नहीं अतः टिकट निरीक्षकों से नजर बचाकर प्‍लेटफार्म पर पहले से ही खड़ी एक रेलगाड़ी पर सवार हो गया और चुपके से जाकर एक सीट के नीचे सो गया। वह सुब होने तक आराम से वहीं लेटा रहा और किसी को उसकी मौजूदगी का अहसास तक न हुआ। वह गाड़ी दादर, मुंबई से चलकर दिल्‍ली के रास्‍ते पठानकोट तक जाती थी।

स्‍टेशन एक-एककर आते रहे और पीछे छूटते रहे। इसी बीच ग्‍वालियर, आगरा और मथुरा कब निकल गए। नींद में उसे कुछ पता ही न चला। लेने। गाड़ी सारी रात सनसनाती हुई चलती रही। रात गुजर गई और सूर्योदय का समय हो गया। सुबह होते-होते कोशी कलाँ स्‍टेशन आ गया। गाड़ी धड़धड़ाती हुई पौने सात बजे स्‍टेशन पर पहुँचकर खड़ी हो गई।

तब तक अन्‍य मुसाफिरों के साथ नाथूराम की आँख भी खुल गई। जिन यात्रियों को कोशी कलाँ जाना था वे फटाफट उतरकर अपने-अपने घरों की ओर चल दिए। नाथूराम ने सोचा-शायद ग्‍वालियर आ गया इसलिए नेत्र खुलते ही वह भी उनके साथ उतर पड़ा। स्‍टेशन पर कोशी कलाँ देखकर उसके होश उड़ गए। उसका सिर चकराने लगा। पलक झपकते ही वह बड़ी उलझन में पड़ गया। उसका दम घुटने लगा। उसकी समझ में हरगिज न आ रहा था कि अब क्‍या करूँ? वह अपने मन में बोला हे ईश्‍वर! ग्‍वालियर आगे है या पीछे छूट गया?

टिकट न होने के चलते लोगों की निगाह से बचते हुए नाथूराम झपटकर स्‍टेशन से बाहर निकल गया। पास में एक चाय की दूकान थी। उसके मन में विचार आया, लाओ इस दूकानदार के पास चलकर पूछ लूँ कि ग्‍वालियर पीछे छूट गया अथवा और आगे आने वाला है। इसके बाद वह चाय की दूकान पर चला गया। दूकानदार उड़ती चिड़िया के पर कतरने वाले दूरदर्शी और पारखी नजर के होते ही हैं। छज्जूमल को भी उसे पहचानते तनिक देर न लगी। उसकी हुलिया देखते ही दूकानदार छज्‍जूमल ने ताड़ लिया कि हो न हो यह लड़का घर से भागकर यहाँ आया है।

नाथूराम उस दूकानदार छज्‍जूमल से कुछ पूछता तब तक सच्‍चाई जानने की गरज से छज्‍जूमल ने ही उससे पूछ लिया-ऐ छोरा! नैक बात सुन। यह बता तू कहाँ से आया है? कहीं तू अपने घर से भागकर तो यहाँ नहीं आ गया है।

तब नाथूराम ने डरते-डरते कहा-जी! आप बिल्‍कुल सच कहते हैं। मैं अपने घर से भागकर ही यहाँ आया हूँ। दरअसल बात यह है कि मेरे बाबूजी बहुत कड़कमिजाज हैं। बात-बात पर डाँटते-फटकारते रहते हैं। उनकी बात मुझसे बर्दाश्‍त न हुई तो मैं कल सायंकाल घर से निकल पड़ा। ग्‍वालियर में मेरे मामाजी रहते हैं। मैं उनके पास जाना चाहता हूँ लेकिन, ग्‍वालियर कहाँ है यह मुझे मालूम नहीं है। इस स्‍टेशन को ग्‍वालियर समझकर गलती से यहाँ उतर गया। वैसे मैं झाँसी से ओरछा की ओर 12 किमी. दूर स्‍थित एक गाँव का रहने वाला हूँ।

झाँसी नाम सुनते ही छज्‍जूमल दंग रह गए। वह बोले-अरे छोरे! तू बावला हो गया है क्‍या? अच्‍छा पहले बैठ जा छज्‍जूमल ने बेंच की ओर इशारा करके कहा। नाथूराम बड़े अदब से चुपचाप बेंच पर बैठ गया। तत्‍पश्‍चात छज्‍जूमल ने अपने एक नौकर से कहा-ओए छोरे! इस लड़के नू गरमागरम बढ़िया चाय पिला और गुड-डे ब्राँड बिस्‍कुट वगैरह खिला। नौकर ने फौरन नाथूराम को चाय और बिस्‍कुट दे दिया। इसके बाद छज्‍जूमल बोले-बेटा! यह बता, क्‍या तू कुछ काम कर लेगा?

तब नाथूराम ने जवाब दिया-कर लूँगा। काम ही करने के लिए तो घर छोड़ा है। मामाजी के पास इसीलिए ग्‍वालियर जा रहा था। मुझे काम मिल जाए इससे बढ़कर मेरे लिए और क्‍या खुशी होगी?

यह सुनकर छज्‍जूमल बोले-बहुत अच्‍छा, तब बेटा! ऐसा कर तू इन बर्तनों और कप, प्‍लेटों को ध्‍यान से देख ले। तुझे इन सबको धोना पड़ेगा और इसके बदले मैं तेरे कू सबेरे के नाश्‍ते के साथ दोपहर और शाम का भोजन दूँगा। साथ ही दो रुपए नकद भी दूँगा।

यह सुनना था कि नाथूराम ने कहा-ठीक है। यह काम मैं बड़ आराम से का लूँगा। इसके पश्‍चात वह वहीं कप-प्‍लेट धोने लगे। यह काम करते हुए एक हफ्‍ता बीत गया। छज्‍जूमल ने उसके रहने और सोने का इंतजाम भी कर दिया।

एक दिन की बात है चाय की दूकान के पास ही रेलवे स्‍टेशन के बगल ठेकेदारों के माध्‍यम से रेलवे के गैंगमैनों की भरती हो रही थी। वहाँ बहुत से लोग एकत्र थे। उस समय प्रत्‍येक गैंग में छब्‍बीस व्‍यक्‍ति हुआ करते थे। उसमें भरती होने के लिए दूर-दूर से लोग आए हुए थे। कोई झोला-थैला लेकर आया था तो कोई यूँ ही खाली हाथ आ गया था। वहाँ भीड़ एकत्र देखकर नाथूराम के मन में उत्‍सुकता उत्‍पन्‍न हुई कि चलकर जरा देखूँ क्‍या माजरा है? आखिर वहाँ हो क्‍या रहा है। आज यकायक यहाँ इतनी भीड़ क्‍यों जमा है।

इतना कहकर नाथूराम झट वहाँ जा पहुँचा। नाथूराम के वहाँ पहुँचते ही ठेकेदार राजेन्‍द्र प्रसाद भटनागर की गैंग में छब्‍बीस के बजाए अभी तक कुल पच्‍चीस आदमी ही थे। उसमें एक आदमी कम था और गैंग छब्‍बीस व्‍यक्‍तियों से पूरी होने वाली थी। एक आदमी के बिना पच्‍चीस बेकार थे। उन्‍होंने उसे देखते ही कहा-अरे भाई! तनिक इधर तो आओ। यह सुनकर नाथूराम उनके पास चला गया। तब उन्‍होंने उससे पूछा-भाई। यह बताओ कि तुम्‍हारा घर कहाँ है?

जी! झाँसी में। नाथूराम ने बताया।

यह सुनते ही भटनागर जी ने प्रतिप्रश्‍न किया। तब यहाँ कैसे आ गए? क्‍या यहाँ कोई काम करते हो?

तब नाथूराम ने कहा-जनाब! मैं अपने घर से भागकर यहाँ आया हूँ। इसके पश्‍चात नाथूराम ने अपनी सारी आपबीती उन्‍हें बता दी।

यह सुनकर भटनागर जी ने पूछा-क्‍या नौकरी करोगे?करनी है तो तुरंत बताओ। दो सौ रुपए जमानत के लगेंगे और रेलवे में सरकारी नौकरी मिल जाएगी। दो सौ रुपए का नाम सुनते ही नाथूराम के पैरों तले से जमीन खिसक गई। उसके हाथ-पाँव फूल गए। घर में नहीं दाने और अम्‍मा चलीं भुनाने, उस समय उस बेचारे के पास दो सौ रुपए को कौन कहे एक फूटी कौड़ी तक न थी। वह भटनागर जी से बोला-अरे साहब! मेरे पास जहर खाने को भी एक पाई नहीं है।

वह फिर बोला-ऐसे में मैं दो सौ रुपए भला कहाँ से दे पाऊँगा। हाँ इतना जरूर है कि अगर आप अपने पास से इन रुपयों को जमा करा दें तो मैं वादा करता हँ कि दो सौ इकट्ठा हो या न हो मैं आपको थोड़ा करके दे दूँगा। आप तो बस कोई जुगाड़ करके मुझे यह नौकरी दिला दीजिए। आपकी बड़ी कृपा होगी। मैं आपका बड़ अहसान मानूँगा। मैं आपकी पाई-पाई चुका दूँगा।

नाथूराम का यह आश्‍वासन पाकर भटनागर बाबू अपने मुकद्‌दम दुलीचंद से बोले-अरे भई पंडितजी! अपना काम बनाने के लिए इस लड़के के दो सौ अपने पास से जमा करा दीजिए। दुलीचंद ने ऐसा ही किया। उन्‍होंने तत्‍काल दो सौ रुपए जमा करा दिया और रजिस्‍टर में नाथूराम का नाम दर्ज कर लिया। इसके बाद भटनागरजी के कहने पर दुलीचंद ने नाथूराम को दो सौ रुपए खाने-पीने के लिए भी दे दिया। गैंग पूरी हो जाने के बाद दुलीचंद ने उसे गैंग का सारा सामान टेंट, गैंती, फावड़ा और पंजा आदि दे दिया।

फिर उनसे कहा-अब आप लोग अपना-अपना टेंट लगाकर अपना सारा सामान उसमें रख दीजिए और चौकीदार को छोड़कर जो लोग अपने घर जाना चाहते हैं वे जा सकते हैं। कल से काम चालू होगा। सुबह पहुँच जाइएगा। टेंट लगाने के बाद चौकीदार को वहीं छोड़कर सब लोग अपने-अपने घर चले गए। अगले दिन सबेरे सभी गैंगमैन काम पर आ गए और काम शुरू हो गया। ताकतवर हो या कमजोर गैंग के हर व्‍यक्‍ति को लोहे के सड़े-गले दो स्‍लीपरों को निकालकर सीमेंट के नए ढले दो स्‍लीपरों को पटरियों के नीचे बिछाना था। तब कहीं जाकर उसकी हाजिरी लगती थी और प्रतिदिन के हिसाब से उसे पाँच रुपए नब्‍बे पैसे मिलते थे।

सोमवार से शनिवार तक छः दिन काम होने के बाद शनिवार शाम को दुलीचंद ने गैंगमैनों से कहा-भाइयों! कल इतवार है। गैंग बंद रहेगी। जिसे अपने परिवार से मिलना-जुलना हो वह आज अपने घर जा सकता है। यह सुनकर सब लोग बहुत प्रसन्‍न हुए। उन्‍हे अपने घर से निकले हुए 5-6 दिन गूजर चुके थे। गेंग के बाकी पच्‍चीस आदमी चूँकि आपसपास के ही थे इसलिए उन्‍हें अपने-अपने घर जाने में कोई दिक्‍कत न थी लेकिन, नाथूराम का चेहरा उतर गया। एक तो वह घर से भागा हुआ था दूसरे उसके पास यात्रा करने के लिए किराए के पैसे भी न थे। वह मुकद्‌दम दुलीचंद से बोला-पंडितजी मेरे पास किराए के पैसे नहीं हैं और मेरा घर भी काफी दूर है ऐसे में अब आप ही बताइए कि मैं अपने घर कैसे जाऊँगा।

मुझे कोई पास या अथॉरिटी दिला दीजिए।

यह सुनते ही दुलीचंद बोले-भई! अभी आप लोग ठेकेदार के आदमी हैं रेलवे के नहीं इसलिए इस काम में मैं आप सबकी कोई मदद नहीं कर सकता। घर जाने-आने का इंतजाम आप लोगों को खुद करना पड़ेगा। यह सुनकर नाथूराम की सारी खुशी न जाने कहाँ छू-मंतर हो गई। फिर उन्‍हें एक बड़ा ही विचित्र उपाय सूझा। उसने सोचा जब गैंग वाले स्‍थान तक हम लोग अपना गैंती, फावड़ा लेकर बिना किसी टिकट के ही चले जाते हैं और चले आते हैं तो झाँसी तक क्‍यों नहीं जा सकते। मन में यह विचार आते ही उसने अपने एक कंधे पर गैंती, फावड़ा और दूसरे पर गिट्टी छानने वाला लोहे का पंजा रख लिया।

इसके बाद कुतुब एक्‍सप्रेस में सवार हो गए। गाड़ी का समय सुबह का था पर दिन के साढ़े दस बजे आई और दोपहर बाद लगभग ढाई बजे झाँसी पहुँची। नाथूराम का घर स्‍टेशन से 12 किमी' दूर था ही और पास में पैसे भी न थे अतएव पैदल ही घर की राह पकड़ ली। घर पहुँचते ही उसकी माँ बहुत खुश हुई। मारे खुशी के उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसके कलेजे को बड़ी ठंडक महसूस हुई। अपने कलेजे के टुकड़े को पाकर वह निहाल हो गई मगर आव देखा न ताव उनके पिताजी बिगड़ खडै हुए। हव यकायक आग बबूला हो उठे। मारे क्रोध के वह एकदम तमतमा उठे।

वह अचानक अपनी अर्धांगिनी से बोले-अच्‍छा तो अब हमारा लाड़ला यह काम भी करने लगा है। इसके बाद उन्‍होंने कुछ सोचा न समझा, झट उसे मारना-पीटना शुरू कर दिया। चंद मिनट में अपने बेटे के कोमल गालों को मार-मारकर लाल कर दिया। उनका तमतमाया हुआ चेहरा देखकर नाथूराम की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। नाथूराम हक्‍का-बक्‍का रह गया। उसकी समझ में कोई भी माजरा न आ रहा था। बस उसके बाबूजी उसे तड़ातड़ चाँटे लगाए जा रहे थे।

तदंतर अपनी पत्‍नी से बोले-किसी दिन यह नालायक जेल चला जाएगा। जानती हो, इसके पास जो सामान है वह रेलवे का है यह इन्‍हें कहीं से चुरा लाया है। तब कहीं जाकर नाथूराम की समझ में आई कि मेरी पिटाई क्‍यों हो रही थी? मरता क्‍या न करता, तब कुछ साहस जुटाकर वह बड़ी मुश्‍किल से अपने बाबूजी! मुझे अनायास ही मार क्‍यों रहे हैं? मुझे मारिए मत बल्‍कि, तनिक मेरी बात तो सुन लीजिए। वह फिर नम्रतापूर्वक उनसे बोला- बाबूजी! मैंने चोरी नहीं की है। इन सामानों को मैंने नहीं चुराया है।

यह सुनते ही उसके बाबूजी नेत्र लाल-पीले करके बोले-अबे चुप कर। अब कहने-सुनने को बाकी ही क्‍या रह गया है। लगता है तू एक न एक दिन समाज के सामने मेरी गर्दन झुकाकर ही दम लेगा। ऐसी हरकत करते हुए तुम्‍हें शर्म आनी चाहिए। तेरे कामों को देखकर मुझे आज बहुत शर्मिन्‍दगी महसूस हो रही है। बेटा ! हमने भी दुनिया देखी है। इन बालों को यूँ ही धूप में सफेद नहीं किया है। हाँ मुझे यह भी मालूम है चोरी करके पकड़ जाने पर हर चोर यही कहता है। मैं तो बस यह जानता हूँ कि यह सामान रेलवे का है। क्‍या अब यही रह गया कि जिस महकमे से हमारे परिवार को रोटी-कपड़ा मिलता है तुम उसी का सामान चोरी करते रहो।

तब नाथूराम बोला-नहीं बाबूजी! मैं सच कहता हूँ कि मैंने चोरी नहीं की है। सच्‍चाई यह है कि मैंने भी रेलवे में गैंगमैन की नौकरी कर ली है। आपको यकीन न हो तो कल चलकर वहाँ पूछ लीजिएगा।

यह सुनते ही उसके बाबूजी चकित रह गए। अपने बेटे की नाहक मरम्‍मत करने पर उन्‍हें बड़ा अफसोस हुआ। उनके मन में बहुत रंज उत्‍पन्‍न हुआ। उनकी व्‍यथा उनके चेहरे पर साफ झलक रही थी। वास्‍तव में उस समय वह काफी व्‍यथित थे। तदोपरांत रात्रिकालीन भोजन खाते-पीते और आपस में बातचीत करते-करते रात व्‍यतीत हो गई। भोर होने को आ गया। पक्षी चहचहाने लगे। अभी कुछ ही देर में सूर्यदेव संसार को प्रकाशित कर देंगे।

नाथूराम के पिताजी बोले-अच्‍छा ठीक है। आज तुम्‍हारे साथ मैं भी कोशी कलाँ चलूँगा। इतना कहकर उन्‍होंने नाथूराम के खाने-पीने के लिए टीन के दो-तीन कनस्‍तरों में गेहूँ, चावल और दाल आदि भरवा लिया। इसके दोनों पश्‍चात बाप-बेटे आनन-फानन में रेलवे स्‍टेशन जा पहुँचे और गाड़ी में सवार होकर कोशी कलाँ पहुँच गए। वहाँ जाकर उन्‍होंने मुकद्‌दम दुलीचंद को अपना परिचय देते हुए उनसे कहा-भाई साहब! मैं भी झाँसी में अमुक गैंग का मुकद्‌दम हूँ। यह मेरा बेटा है। इसने मुझे बताया कि यह आपकी गैंग में नौकरी करने लगा है। क्‍या यह सच है?

उनका प्रश्‍न सुनका दुलीचंद ने कहा-अच्‍छा तो यह आपका लड़का है। हाँ, यह बिल्‍कुल सच है। यह लड़का पिछले एक सप्‍ताह से मेरी गैंग में नौकरी कर रहा है। इतना कहकर उन्‍होंने अपनी सारी आपबीती राम कहानी उन्‍हें सुना दी। तब जाकर नाथूराम के बाबूजी को कहीं विश्‍वास हुआ कि उनका बेटा चोर नहीं बल्‍कि रेलवे का वफादार गैंगमैन हो गया है। उनसे मिलकर दुलीचंद बहुत प्रसन्‍न हुए। उन्‍होंने नाथूराम से उनकी बड़ी तारीफ की। नाथूराम को अपने ईमानदार पिता पर बड़े गर्व का अनुभव हुआ।

समयचक्र इसी तरह चलता रहा। आहिस्‍ता-आहिस्‍ता तीन महीने बीत गए। धीरे-धीरे गर्मी से बरसात का मौसम आ गया। इसके बाद सावन भी बीतने को आ गया। इस बार श्रावण पूर्णिमा रविवार को थी। रक्षा बंधन वाले दिन बहनें अपने भाइयों की कलाइयों में राखी का पवित्र कच्‍चा धागा बाँधकर उनके दीर्घायु होने की कामना करती हैं। इस बार भी राखी के दिन ऐसा ही कुछ होने वाला था। रक्षा बंधन से एक दिन पहले शाम को दुलीचंद ने गैंग वालों से कहा-कल इतवार भी है और रक्षा बंधन का दिन भी इसलिए जिन लोगों को घर जाना है वे अपना काम जल्‍दी निपटाकर आज ही जा सकते हैं।

उस दौरान स्‍लीपर डालने का काम अझई के जंगलों के पास चल रहा था। यह सुनकर जो लोग आसपास के थे वे अपना काम जल्‍दी-जल्‍दी पूरा करके तत्‍काल अपने घर की ओर चल दिए परंतु नाथूराम और उसका एक अन्‍य सहकर्मी शारीरिक रूप से कमजोर थे अतः उनका काम जल्‍दी खत्‍म न हुआ। वे काफी देर तक अपने काम में तल्‍लीन रहे। उनका काम था कि पूरा होने का नाम ही न ले रहा था। एक बात और नाथूराम तथा स्‍वामीनाथ को किसी उपयुक्‍त रेलगाड़ी से ही अपने-अपने घर जाना था। उस वक्‍त उनके लिए कोई दूसरा उपयोगी तीव्रगामी साधन मौजूद न था। उनके लिए रेलगाड़ी का ही एक ऐसा सहारा था जिससे वे मुफ्‍त में ही घर पहुँच सकते थे।

जिस गाड़ी से उन्‍हें अपने घर जाना था वह दो-ढाई घंटे लेट थी। काम पूरा करके जब वे स्‍टेशन की ओर जाने लगे रेलवे फाटक के मोड़ पर पहुँचते ही उन्‍होंने देखा कि डाउन दिशा से एक तीव्रगामी गाड़ी आ रही है और एक स्‍त्री रेलवे लाइन पार करने जा रही है। यह देखकर उन्‍होंने उस औरत को आवाज देना शुरू कर दिया। हट जाओ, हट जाओ उधर मत जाओ। रूक जाओ। रेलगाड़ी आ रही है। बुरा समय आने पर मनुष्‍य की बुद्धि नष्‍ट हो जाती है। उसे न तो कुछ दिखाई पड़ता है और न सुनाई पड़ता है।

उस महिला को भी न तो कुछ सुनाई ही पड़ा और न ही कुछ दिखाई पड़ा। परिणाम यह निकला कि देखते ही देखते वह बेचारी रेलगाड़ी की चपेट में आ गई और क्षण भर में ही उसके बदन के आठ टुकडे हो गए। यह देखकर दोनों गैंगमैनों को अपार कष्‍ट हुआ। वे यह सोचकर दुखी हो गए कि आज हमारी नजरों के सामने ही एक स्‍त्री नाहक ही रेलगाड़ी से कटकर मर गई ओर हम कुछ न कर सके। उसका कहीं कोई अंग गिरा तो कहीं कोई अंग। मुख मंडल समेत गर्दन एक जगह तो पैर दूसरी जगह। धड़ कहीं और तो कलाइयाँ कहीं और जा पहुँचीं।

कहने का अभिप्राय यह कि उसके शरीर के आठ टुकड़े दो किमी. की दूरी में आठ जगह विखर गए। अपनी लापरवाही के चलते असमय ही वह काल के गाल में समा गई। उसके मरते ही उसका पति बेचारा विधुर हो गया। उस समय आजकल की तरह टेलीफोन की सुविधा उपलब्‍ध न थी कि उसका पति अपनी ससुराल में फोन करके पूछ लेता कि वह अभी पहुँची या नहीं। यदि यह सुविधा उस समय विद्यमान होती तो उसका पति टेलीफोन के जरिए उसकी खोज-खबर अवश्‍य लेता। यह दर्दनाक हादसा देखकर नाथूराम और स्‍वामीनाथ के नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी।

वे इतने द्रवित हुए कि इस वारदात की खबर देने की खातिर वे गेटमैन के पास जाकर बोले-भइया! हम भटनागर गैंग के आदमी हैं। मेरा नाम नाथूराम और मेरे मित्र का नाम स्‍वामीनाथ है। अपना काम समाप्‍त करके जब हम समपार फाटक पर पहुँचे तो हमने देखा कि डाउन दिशा से तेजगति से एक गाड़ी आ रही है और एक महिला लाइन पार करने की कोशिश कर रही है। हमने उसे रोकने का बहुत यत्‍न किया लेकिन, सब व्‍यर्थ। नतीजा यह निकला कि हमारे देखते ही देखते वह औरत आठ टुकड़ों में कट गई। अब आप ही बताइए कि हम क्‍या करें?

मानव की यह सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह अपनी जिम्‍मेदारियों को दूसरों पर थोपकर स्‍वयं को निश्‍चिंत रखना चाहता है। नाथूराम से यहीं बहुत बड़ी चूक हो गई। उस स्‍त्री के कटने-मरने की बात गेटमैन को बताकर उसने बड़ी भूल की। बल्‍कि यह समझिए कि बिना बुलाए ही एक बड़ी मुसीबत मोल ले ली। उनका कथन सुनते ही गेटमैन बोला-अरे बाबू! मैं गेट की केबिन में हूँ और मुझे नहीं पता कि यहाँ क्‍या हुआ? आप लोगों ने देखा हे तो आप लोग ही जानें। मैं अपने पी.डव्‍ल्‍यू. आई. को फोन लगा देता हूँ आप उनसे खुद बात कर लीजिए। मैं इस बारे में उनसे कुछ भी नहीं कह सकता। यह मेरे बूते की बात नहीं कि बिना मतलब ही मैं किसी झंझट में पड़ूँ।

इतना कहकर उसने अपने कार्य निरीक्षक को फोन पर बताया कि भटनागर गैंग के दो आदमी आपसे कुछ कहना चाहते हैं। इतना कहकर उसने टेलीफोन का रिसीवर नाथूराम के हाथ में थमाते हुए कहा-लीजिए, बात कीजिए। उधर से हलो की आवाज आते ही नाथूराम ने बताया-हलो सर नमस्‍ते। मैं भटनागर गैंग का गैंगमैन नाथूराम .....गेट से बोल रहा हूँ। मेरे साथ एक सहकर्मी स्‍वामीनाथ भी है। हम दोनों स्‍लीपर का काम निबटाकर घर जाने के मकसद से गाड़ी पकड़ने स्‍टेशन की ओर जा रहे थे कि एक स्‍त्री गाड़ी से कट गई। यह सुनना था कि रेलपथ निरीक्षक ने उन्‍हें हिदायत देकर कहा-अच्‍छा! आप लोग वहीं रुकिए और लाश का तनिक ध्‍यान रखिए, मैं अभी आता हूँ।

इसे ही कहते हैं गए थे रोजा खोलने और गले नमाज पड़ गई। नाथूराम अपने मित्र के साथ पहाड़ से गिरकर खजूर पर अटक गए। घर जाने के फेर में गेट पर ही उलझकर रह गए। अब उन्‍हें गैंगमैन के साथ चौकीदारी की जिम्‍मेदारी भी सौंप दी गई। वे बड़ी व्‍यग्रता से अपने निरीक्षक महोदय के आने का इंतजार करने लगे। इतने में आई.ओ.डब्‍ल्‍यू. स्‍थानीय पुलिस की जीप में बैठकर एक दरोगा और एक हवलदार के संग गेट पर पहुँच गए। उन्‍हें देखते ही नाथूराम और स्‍वामीनाथ की जान में कुछ जान आई।

उन्‍होंने सोचा-चलो कुछ देर से ही सही, अब हमें इस झंझट से मुक्‍ति मिल जाएगी। वहाँ पहुँचते ही दरोगाजी ने अपने टार्च की रोशनी में लाश के टुकड़ों का बड़ी बारीकी से मुआयना किया। इसके साथ ही उन टुकड़ों के एक किनारे गिरी पड़ी पोटली को भी उलट-पुलटकर देखा। उसमें एक दर्जन केले, एकाध किलो बॅूंदी के लड्‌डू, मीठी पूड़ियाँ और दो-चार राखियाँ पड़ी थीं। लाश के कुछ टुकड़ों में गहने भी थे। कान में सोने के कुंडल, नाक में नथ, दाएँ हाथ की कनिष्‍ठा उँगली में सोने की अँगूठी, कमर में चाँदी का कमरबंद, और पैरों में पाजेब तथा उनकी उँगलियों में बिछुए थे।

दरोगाजी ने लाश के टुकड़ों, उनमें पड़े आभूषणों और पोटली में रखे सामानों की फौरन एक सूची तैयार की और उस पर कार्य निरीक्षक के दसतखत के साथ नाथूराम तथा स्‍वामीनाथ का हस्‍ताक्षर भी करा लिए। तदोपरांत वह दोनों गैंगमैनों को सख्‍त लहजे में हड़काते हुए बोले-लाश के इन टुकड़ों और इस पौटली को जहाँ का तहाँ ज्‍यों का त्‍यों रहने दीजिए। इन्‍हें छूना मत। अब रात को इसका पंचनामा नहीं बन सकता है। सुबह इसका पंचनामा बनेगा। तब तक ध्‍यान रखना पड़ेगा कि इन्‍हें कोई कुत्‍ता-बिल्‍ली लेकर न भाग जाए। अगर इनमें से एक भी अंग या सामान गायब हुआ या कोई गड़बड़ी हुई तो तुम दोनों की खैरियत नहीं। मुझे सबेरे ये सब ज्‍यों का त्‍यों मिलना चाहिए।

इतना कहकर दरोगाजी हवलदार और रेलवे के कार्य निरीक्षक को लेकर वहाँ से चले गए। जाते समय आई.ओ.डव्‍ल्‍यू महाशय उनसे बोले-नाथूराम! तनिक सजग रहना। कोई लापरवाही न होने पाए। नौकरी पक्‍की होने का अवसर मिला है इसे खो मत देना।

उनका यह फरमान सुनते ही नाथूराम और स्‍वामीनाथ की हक्‍की-बक्‍की बंद हो गई। लेना एक न देना दो, वे ऐसे धर्म-संकट में जकड़ दिए गए जिसमें से बच निकलना उनके लिए बिल्‍कुल नामुमकिन था। वे पंखहीन पक्षी की भाँति छटपटाकर रह गए। बहनों से राखी बँधवाने की तमन्‍ना स्‍वप्‍न बनती दिखाई देने लगी। उनके मन की बात मन में ही रह गई। उनके सभी अरमान मिट्टी में मिलते नजर आने लगे। उनका घर जाना असंभव सा दिखाई देने लगा। तब नाथूराम ने स्‍वामीनाथ से कहा-अरे यार स्‍वामी! आज तो हम दोनों बहुत बुरे फँसे। लगता है अपना त्‍यौहार यहीं मन जाएगा। अपना कोई वश न चलते देख वे बेचारे मन मसोसकर रह गए।

अँधेरी रात में लाश की भलीभाँति निगरानी करने के विचार से बिखरी हुई लाश की दो किमी. की दूरी को आपस में बाँटने की गरज से नाथूराम ने अपने मित्र से कहा-भाई स्‍वामी अब जक ओखली में सिर दे ही दिया है तो मूसल से क्‍या डरना? ऐसा करो एक किमी. दूरी की देखभाल तुम करो और एक किमी. की मैं कर लेता हूँ। इससे हम दोनों को काफी सुविधा होगी। चार टुकड़े तुम्‍हारे हिस्‍से में और चार मेरे हिस्‍से में रहेंगे। पाँचवे टुकड़े के रूप में मुझे यह पोटली भी छोड़ दो। स्‍वामीनाथ सहर्ष राजी हो गया। वह तुरंत बोला- ठीक है।

तदंतर वे दोनों अपने-अपने हिस्‍से के टुकड़ों की जी जान से रखवाली करने में जुट गए। आधी रात के समय वीरानगी छा जाने से सांय-सांय की आवाज आने लगी। एक तो गर्मी और ऊमस भरा मौसम दूसरे जंगलों से घिरे निर्जन स्‍थान लाश के टुकड़ों की चौकीदारी वास्‍तव में बड़ा ही दुष्‍कर काम था। तभी स्‍वामीनाथ को भूख और प्‍यास सताने लगी। वह अपना धैर्य खोने लगा। वह भूख और प्‍यास से तड़पने लगा। वह जोर-जोर से चीखने-चिल्‍लाने लगा। अरे यार नाथू! मैं मर जाऊँगा। मुझे बहुत भूख लगी है। प्‍यास से मेरा गला सूख रहा है।

उसका बारंबार का चिल्‍लाना सुनकर नाथूराम का दिल पसीज गया। वह दौड़कर स्‍वामी के पास गया। स्‍वामी ने उस वक्‍त लुँगी पहन रखा था। नाथूराम ने तत्‍काल उसका तहमद खींच लिया और बोला-भाई स्‍वामी! इस तरह अधीर न हो, थोड़ा धैर्य रखो। इस समय पानी तो यहाँ से तीन किमी. दूर गाँव में जाने पर ही मिलेगा। यहाँ पानी का कोई जुगाड़ नहीं है। यह देखकर स्‍वामीनाथ बोला-अरे भई! यह क्‍या कर रहे हो, क्‍या मैं केवल लंगोट में ही रहूँगा?

तब स्‍वामीनाथ ने कहा-चिंता मत करो। मैं तुम्‍हारे लिए पानी पीने का इंतजाम करने जा रहा हूँ। तुम मेरे संग चलो। स्‍वामी तुरंत उसके साथ चल दिया। लाश के उन टुकड़ों को कुत्‍ते-बिल्‍लियों से बचाने के मकसद से नाथूराम उन्‍हें बारी-बारी उठाकर तहमद पर रखता गया और जहाँ जो अंग पड़ा था उनकी जगह कागज के टुकड़ों पर उनका नाम लिखकर गिट्टियों का छोटा-छोटा ढेर बनाकर उनमें दबाता गया। इस प्रकार नाथूराम ने लाश के सभी टुकड़ों और पोटली को उस लुँगी में बाँधकर एक नई तथा भारी-भरकम पोटली बना लिया।

लाश के टुकड़ों की गठरी को नाथूराम ने अपने सिर पर रख लिया और स्‍वामीनाथ से बोला-स्‍वामी! अब चलो मैं तुम्‍हें पानी पिला लाऊँ। इतना कहकर नाथूराम, स्‍वामी को लेकर गाँव की ओर चलने लगा। लाश के बोझ को सिर पर लेकर चलना दूभर था ही कि तभी रास्‍ते में उन्‍हें एक विशाल पेड मिल गया।

उसे देखते ही नाथूराम ने कहा-स्‍वामी ऐसा करो यह गठरी अपने कंधे में लटकाकर इस पेड़ पर चढ़ जाओ और इसे इस पर टाँग दो। यहाँ कोई खतरा न रहेगा। नाथू की यह सलाह स्‍वामी को जॅच गई। वह गठरी को अपने कंधे में लटकाकर पेड़ पर चढ़ने लगा तभी अकस्‍मात वह सरककर नीचे गिर पड़ी। उसके साथ ही शरीर का संतुलन बिगड़ जाने से स्‍वामीनाथ भी धड़ाम से जमीन पर आ गया। धरती पर गिरते ही उसके अंजर-पंजर ढीले हो गए। मारे दर्द के वह कराह उठा।

अब नाथूराम के सामने एक नई मुसीबत खड़ी हो गई। अभी तक तो गठरी को ही ढोना था अब मृतवत स्‍वामी भी उनके मत्‍थे पड़ गया। दरअसल नाथूराम के समक्ष अजीबोगरीब हालत पैदा हो गई। उसकी नन्‍हीं सी जान आफत में पड़ गई। संकट सुलझाने के लिए वह बड़ी माथा-पच्‍ची करने लगा। तभी उसके मन में ख्‍याल आया लाओ इस गठरी को टेलीफोन के इस खंभे पर लटका दूँ। इतने में स्‍वामी बेहोश हो गया। नाथूराम ने गठरी को उस खंभे में लगी एक खपच्‍ची के सहारे कसकर बाँध दिया।

इसके पश्‍चात वह स्‍वामी को जगाने लगा। स्‍वामी मूर्छित अवस्‍था में पड़ा था। बड़ी मुश्‍किल से नाथूराम उसे जगाने में कामयाब हुआ। दोनों गैंगमैन फिर गाँव की ओर चलना शुरू कर दिए। इतने में शेर की तरह दहाड़ते हुए एक आवाज आई, कौन है? इधर आओ वरना गोली मार दूँगा। मरता क्‍या न करता, जान मुसीबत में फँसी देखकर मारे भय के दोनों फौरन वहाँ पहुँच गए। वहाँ जाने पर हट्टे-कट्ठे लंबे-चौड़े तथा घोड़ों पर सवार लंबी-लंबी मूँछों वाली दो विशालकाय रोबीली मूर्तियों को देखकर उनके होश-हवास गुम हो गए। मानो दोनों साक्षात कोई दैव थे। नाथूराम और स्‍वामीनाथ की साँसे ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे अटककर रह गईं। उनके प्राण सूख गए।

पास जाते ही उस भयानक रूप वाले व्‍यक्‍ति ने फिर कहा-अच्‍छा तो तुम दोनों पुलिस के मुखबिर हो। हमारा पता-ठिकाना तलाश रहे हो। तुम दोनों की यह जुर्रत। अब तुम दोनों नहीं बचोगे। बच्‍चू! हमें पकड़वाना कोई बच्‍चों का खेल नहीं है। हमने पुलिस को चकरघिरनी बनाकर रख दिया है। अरे बेवकूफ हम डाकू हैं डाकू। अपने दुश्‍मन को गोली मारना हमारे बाएँ हाथ का खेल है। सच-सच बताओ कि तुम लोग कौन हो और यहाँ क्‍या कर रहे हो वरना ठीक न होगा।

तब नाथूराम ने उसे सब कुछ सच-सच बता दिया। उसने रेलवे का गैंगमैन होने की बहुत दुहाई दी मगर, सब व्‍यर्थ। उसे उसकी बात पर कतई यकीन ही न आ रहा था। तब नाथूराम ने उन्‍हें ले जाकर लाश वाली गठरी दिखाकर अपने गैंगमैन होने की कसमें खाई। इसके बाद कहीं जाकर उन्‍हें जैसे-तैसे विश्‍वास हुआ कि लगता है ये दोनों पुलिस के मुखबिर नहीं बल्‍कि, रेलवे के गैंगमैन ही हैं। तदोपरांत उस डकैत ने मार्ग बताते हुए उनसे कहा-गाँव जाने-आने में थक जाओगे। यहाँ पास में ही थोड़ी दूर सीधे चलकर दाएँ जंगल की ओर मुँड़ जाना। वहाँ हमारे गुरुजी मिलेंगे। तुम लोग वहाँ जाकर उन्‍हें हमारा परिचय देकर कहना कि तुम्‍हें हमने ही भेजा है। वहाँ तुम लोगों को खाना भी मिलेगा और पानी भी। बेखटके उनके पास चले जाओ क्‍योंकि गाँव तो बहुत दूर है और तुम्‍हारे इस साथी से चला भी नहीं जा रहा है।

उस डाकू चंदन सिंह की दिलेरी भरी बात सुनकर नाथूराम अपने साथी स्‍वामी को लेकर डाकुओं के बताए अड्‌डे पर जा पहुँचा। उन्‍हें देखते ही डाकू सरदार का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया। उसने उनके सामने एक ही साथ कई प्रश्‍न दाग दिया। मारे गुस्‍से के वह गरजते हुए बोला-कौन हो और यहाँ क्‍या कर रहे हो? लगता है तुम पुलिस के मुखबिर हो।

नाथूराम कुछ बोलता कि इससे पहले ही वह अपने साथियों से बोला-सतर्क हो जाओ और भागो। ऐसा लगता है यहाँ पुलिस पहुँच गई है। इतना कहने के साथ ही उसने एकदम निहत्‍था देखकर बंदूक की बट से नाथूराम के पेट और पीठ पर ताबड़तोड़ मारना आरंभ कर दिया। पलक झपकते ही उसने उसका कचूमर निकाल दिया।

तब नाथूराम बोला-आप कृपया पहले मेरी बात तो सुन लीजिए उसके बाद मारिए-पीटिएगा। हम कहीं भाग थोड़ ही जाएँगे।

यह सुनकर डाकू सरदार वीरा यकायक रुक गया। उसने उसे मारना बंद कर दिया। इसके बाद उसने पूछा-अब कहो क्‍या कहना है?

नाथूराम ने कहा-हम दोनों खुद ही किस्‍मत के मारे हैं। ऊपर से बगैर कुछ जानेबूझे ही आपने मेरी कुटाई शुरु कर दी। अजी! हम पुलिस के मुखबिर नहीं वरन रेलवे के गैंगमैन हैं। इसके बाद नाथूराम ने उसे सारी आपबीती बता दी। वीरा को जब पक्‍का भरोसा हो गया कि ये पुलिस के पाले हुए मुखबिर नहीं हैं तो उसने अपने एक साथी को आवाज देकर कहा-गर्मागर्म तंदूरी चिकन और रोटी तथा ठंडा पानी ले आओ। ये शत्रु नहीं बल्‍कि हमारे मेहमान हैं। इन्‍हें भरपेट खूब खिलाओ-पिलाओ। उसका हुक्‍म मिलते खाने-पीने की चीजें नाथूराम और स्‍वामीनाथ के सामने आ गईं। उन्‍होंने जमकर खाया-पिया।

डाकू वीरा भी क्‍या विचित्र आदमी था? दोनों गैंगमैनों को जी भरकर खूब मारा भी और खूब खिलाया-पिलाया भी। उनके खा-पी लेने के बाद उसने अपने दो साथियों को बुलाकर कहा-अब इन्‍हें घोडे़ पर बिठाकर आदरपूर्वक इनके मुकाम पर पहुँचा दो। इतना सुनते दो डाकुओं ने उन्‍हें घोडों पर बिठाकर सबेरा होने से पहले ही लाश की गठरी के पास पहुँचा दिया। उन्‍हें वहाँ छोड़कर दोनों डाकू देखते ही देखते नौ दो ग्‍यारह हो गए।

नाथूराम ने टेलीफोन के खंभे पर से गठरी को उतारा और उसे लेकर गेट पर जा पहुँचा। उसने फौरन गठरी को खोला और जो टुकड़ा जहां का था कागज की पर्ची देख-देखकर पुनः वहीं रख दिया। कुछ देर बाद सबेरा हो गया। तब तक न जाने कहाँ से अपनी साइकिल पर दूध के डिब्‍बे लेकर वहाँ एक दूधिया पहुँच गया।

नाथूराम की बुद्धि शायद, घास चरने चली गई थी। दूधिया को देखते ही वह उससे बोला-अरे भाई साहब! साइकिल खड़ी करके तनिक इधर तो आइए। कल शाम को यहाँ गाड़ी से एक औरत कटकर मर गई। उसे देखकर पहचानने का प्रयास कीजिए कि कहीं यह आपके गाँव की तो नहीं है? दूधिया अपनी साइकिल वहीं खड़ी करके लाश के उन टुकड़ों को देखने लगा। उसका चेहरा देखते ही दूधिया उसे तुरंत पहचान गया।

उसे पहचानते ही वह बोला-अरे भइया! यह तो पंडित देवव्रत की बीवी है। इतना कहकर वह साइकिल वहीं छोड़कर गिरता-पड़ता गाँव की ओर भागा। वहाँ जाकर हादसे की खबर सारे ग्रामीणों को दे दी। सुबह का समय था ही अतः ग्रामीण अभी घर ही थे। वारदात की भनक लगते ही स्‍त्री-पुरुषों की भीड़ के साथ देवव्रत भी बदहवास होकर सबसे पहले वहाँ पहुँच गए। गेट पर जाकर अपनी प्राणप्रिया पत्‍नी साक्षी के तन के कटे हुए टुकड़ों को देखकर एकदम गमगीन हो गए। वह अपनी सुधबुध खो बैठे। हाथ का टुकड़ा लेकर वह अचानक भागने लगे। नाथूराम ने बड़ी कठिनाई से उनसे वह टुकड़ा छीनकर वहाँ रखा।

इतने में दरोगा जयदेव पांडेय, हवलदार सुधाकर मिश्रा, आई.ओ.डव्‍ल्‍यू महोदय भी पुलिस की जीप से वहाँ जा पहुँचे। उन्‍हें देखते ही नाथूराम ने देवव्रत से कहा-अब दरोगाजी आ गए हैं। आपको जो कुछ भी कहना-सुनना है, अब उन्‍हीं से कहिए। वहाँ जाते ही दरोगा जयदेव पांडेय ने नाथूराम से कहा-चलो अब इन टुकडों को उठाकर इस थैले में डालो और गाँव में ले चलकर इसकी शिनाख्‍त कराते हैं। यह सुनते ही नाथूराम बोला-हुजूर! अब लाश को कहीं ले जाकर शिनाख्‍त कराने की जरूरत नहीं है। सामने से जनसैलाब आ रहा है। अभी वह खुद ही फैसला कर देगा कि यह स्‍त्री कौन है? इसके बाद उसने देवव्रत की ओर इशारा करके कहा-यह महाशय हैं कि कहते हैं यह इनकी अर्धांगिनी साक्षी की लाश है। यह सुनना था कि दरोगा जयदेव पांडेय ने देव्रवत को अपने पास बुलाकर पूछा-तुम्‍हारा नाम?

जी! देवव्रत। पंडितजी ने बताया। मरने वाली इस औरत का नाम? दरोगाजी ने पूछा।

जी! साक्षी। क्‍या इसे पहचानते हो? दरोगाजी ने फिर पूछा।

जी हाँ, यह मेरी पत्‍नी है। देवव्रत ने कहा।

इसका मतलब यह हुआ कि इस औरत को तुमने ही मारकर यहाँ डाला है। दरोगाजी ने कहा।

यह सुनते ही देवव्रत सन्‍न रह गए। फिर कुछ हिम्‍मत जुटाकर बोले-अरे हुजूर! आप यह कैसी बात करते हैं। मैं अपनी पत्‍नी को भला क्‍यों मारने लगा? यह तो अपने भाइयों को राखी बाँधने अपने मायके जाने के लिए घर से निकली थी। आज अभी मुझे भी वहाँ जाना था।

उनका कथन सुनकर दरोगा जयदेव पांडेय ने कहा-तब इससे तो यही साबित होता है कि तुमने अपनी बीवी को बहुत मारा-पीटा और इसे आत्‍महत्‍या करने के लिए विवश कर दिया। इसने तुमसे तंग आकर आत्‍महत्‍या कर ली। अब तुम जेल जाओगे तो सारी चौकड़ी भूल जाएगी।

दरोगाजी की बेसिर-पैर की ऊट-पटाँग बात सुनते ही देवव्रत पसीने-पसीने हो गए। वह विरोध पर उतर आए और बोले-सरकार मुझ पर ऐसा अन्‍याय मत कीजिए। एक तो मेरी जीवनसंगिनी बिछड़ गई दूसरे आप मुझे ही चक्‍कर में डालने पर उतारू हैंं। मैं तो लुट जाऊँगा, बर्बाद हो जाऊँगा। मैं कभी भूलकर भी अपनी घर वाली को नहीं सताया।

यह सुनना था कि दरोगा जयदेव बिगड़ खड़े हुए। वह बोले-देवव्रत क्‍या तुम्‍हारी बीवी साक्षी पागल थी?

नहीं सरकार! देवव्रत ने कहा। तब अब तुम्‍हीं बताओ यह औरत सरेआम रेलगाड़ी से कटकर क्‍यों मरी है। अब तुम कुछ भी कह लो लेकिन, यह स्‍पष्‍ट है कि इसे मरने के लिए तुमने मजबूर किया है। वरना, कोई अपनी जान नहीं देना चाहता है। हम इस लाश का पहले पोस्‍टमॉर्टम कराएँगे उसके बाद तुम्‍हें जेल भेजेंगे। तुम्‍हारा बचना मुश्‍किल ही नहीं बल्‍कि, पूर्णतया असंभव है। अब जो कुछ भी कहना है जाकर हमारे हवलदार सुधाकर मिश्रा से बात करो।

देवव्रत जब हवलदार के पास जाकर कहने लगे कि हवलदार साहब! मुझे बचने का कोई रास्‍ता सुझाइए तो वह बोला- देवव्रत भइया! मेरी बात सुनिए। साहब बहुत गुस्‍से वाले हैं। आप इनके मुँह मत लगिए नहीं तो मामला बिगड़ जाएगा। जानबूझकर अपनी ओर से कोई बेवकूफी मत कीजिए। कुछ ले-देकर समझौता कर लीजिए। दस हजार की गड्‌डी उनके मुँह पर दे मारिए वरन आप एड़ियाँ ही रगड़ते रह जाएँगे और कुछ भी न कर पाएँगे।

इतना सुनकर देवव्रत अपने घर चले गए और पाँच-पाँच हजार की पचास के नोटों वाली दो गडि्‌डयाँ लेकर हवलदार के पास गए। उनके पास जाकर उन्‍हें एक गड्‌डी देते हुए बोले-अब मेरी जान बख्‍श दीजिए। मेरी पत्‍नी का पोस्‍टमॉर्टम न कराइए। हवलदार सुधाकर को पैसे थमाते हुए दरोगाजी ने देख लिया। वह तुरंत बोले-अच्‍छा! तो मुझे रिश्‍वत देने की कोशिश कर रहे हो। अब तो तुम्‍हें जेल की हवा खिलानी ही पड़ेगी।

उनका तर्क सुनकर देवव्रत के पैरों तले से जमीन ही खिसक गई। वह बोले-सरकार ऐसा मत कीजिए। मुझ गरीब पर कुछ तरस खाइए। वरना मैं कहीं का न रहूँगा।

तब जाकर हवलदार से जल्‍दी बात करो। देवव्रत फिर हवलदार के पास गए और बोले-हवलदार जी! अब आप ही कुछ कीजिए। दरोगाजी तो मेरी बात सुनते ही भड़क जाते हैं।

उनकी गिड़गिड़ाहट देखकर हवलदार ने कहा-भइया! आपका काम मुफ्‍त में नहीं होगा। ऐसा कीजिए, साहब के आगे पांच हजार की एक गड्‌डी और सरका दीजिए। इसके बाद घर जाकर चैन से बंसी बजाइए।

देवव्रत परेशान तो थे ही इसलिए जेब से दूसरी गड्‌डी भी निकालकर चुपके से हवलदार के हाथों में पकड़ा दिए। यह देखकर दरोगा जयदेव पांडेय गदगद हो गए। उनकी बाँछें खिल गईं। वह हवलदार से बोले-हवलदार! जाने दो, यह बेचारा गरीब आदमी है। लाश इसे दे दो। हवलदार ज्‍योंही साक्षी की लाश के टुकड़े देवव्रत को देने लगा तभी दरोगा जी की नजर कटे हाथ पर पड़ गई। हथेली में से कनिष्‍ठा उँगली गायब थी। उन्‍होंने देखा कि पौटली में खाने-पीने का सब सामान मौजूद है। बाकी सब जेवर भी है। फिर उँगली किसने काट ली? वह दुविधा के शिकार हो गए। उनका संदेह बढ़ गया। उन्‍होंने सोचा-हो न हो सोने की अँगूठी के चलते इन गैंगमैनों में से ही किसी ने उँगली काटकर रख ली है।

उँगली न पाकर वह तनिक देर में आग बबूला हो गए। नाथूराम को बुलाकर बोले-अच्‍छा बच्‍चू! मेरी बिल्‍ली, मुझे ही म्‍याऊँ। ज्‍यादा होशियारी मत दिखाओ, चुपचाप उँगली वापस कर दो। जब सारा सामान ज्‍यों का त्‍यों सुरक्षित है तब एक उँगली ही क्‍यों गायब हुई?

यह सुनते ही नाथूराम बोला-सर! आप यह क्‍या कह रहे हैं? हम पर इल्‍जाम न लगाइए। हम दोनों चोर नहीं हैं। तब दरोगाजी बोले-अच्‍छा! यह बताओ, उँगली वाले हाथ की रखवाली किसके हिस्‍से में थी?

यह सुनकर नाथूराम ने कहा-स्‍वामी के पास पर इसका यह मतलब हरगिज नहीं कि उँगली उसने काट ली है। रात को क्‍या हुआ, इस बारे में उसने दरोगाजी को कुछ भी न बताया। यह सुनते ही दरोगाजी बौखला गए और बेंत का डंडा लेकर स्‍वामीनाथ पर टूट पड़े। उन्‍होंने उसे मारते-मारते बेदम कर दिया। यह देखकर नाथूराम को बहुत दुःख हुआ। वह बोला-दरोगाजी! आप नाहक ही हम पर अत्‍याचार कर रहे हैं। हमारे आई.ओ.डव्‍ल्‍यू . जो चाहें सो दंड दे सकते हैं। आपको हमें मारने-पीटने का कोई हक नहीं है। हम भी रेलवे के मुलाजिम हैं।

यह सुनना था कि दरोगाजी बोले-बकवास बंद करो। मैंने पहले ही कह दिया था कि कोई अंग खोने न पाए। तुम लोगों ने उँगली खो दी। इसकी सजा तुम्‍हें अवश्‍य मिलेगी। बात बनती न देखकर नाथूराम ने स्‍वामीनाथ से कहा-स्‍वामी! यह कैसी मुसीबत है यार? चलो अपना पंजा उठाओ और उँगली को ढूँढ़ो। रात तो काली हुई ही अब लगता है सारा दिन भी बेकार जाएगा। उसने सोचा-उँगली कटी तो थी ही थोड़ी-बहुत जुड़ी रही होगी और उठाते-रखते समय टूटकर इधर-उधर गिर गई होगी। साथ ही गाड़ी आते-जाते समय गिट्टियों के हिलने और उछलने के कारण उनमें धँस गई होगी।

अंततः दोनों ने मिलकर जहाँ कटा हुआ हाथ था वहाँ गिट्टियों को छानना प्रारंभ कर दिया। कुछ देर में उनकी मेहनत रंग लाई और अँगूठी सहित उँगली मिल गई। तब जाकर कहीं दरोगाजी से उनका पिंड छूटा। उँगली मिलने से उन्‍हें बड़ी राहत मिली। उनके मन को सकून मिला। मगर उँगली मिलते ही नाथूराम का रवैया एकदम बदल गया। उसने उँगली को उठाकर अपनी जेब में रख ली और दरोगा जी से बड़े गर्व के साथ बोला-दरोगाजी! यह उँगली अब आपको कतई न मिलेगी। आपने अनायास ही स्‍वामी बेचारे को मार-मारकर लहूलुहान कर दिया। यह उँगली अब कप्‍तान साहब के पास जाएगी। अगर लाश की इतनी ही चिंता थी तो आपको अपना भी एक आदमी यहाँ छोड़ना चाहिए था। यहाँ हम पर क्‍या गुजरी कोई पूछने वाला भी न था।

यह सुनते ही दरोगाजी का गर्म खून क्षण भर में ही ठंडा हो गया। कप्‍तान साहब का नाम सुनकर उनकी रूह काँप उठी। मारे भय के उनका कलेजा थरथराने लगा। वह हवलदार से बोले-अरे यार हवलदार! अब इस नई विपत्‍ति से कैसे छुटकारा मिलेगा? ऐसा करो देवव्रत वाले रुपयों में से एक-एक हजार इन कमबख्‍तों को दे दो। हवलदार ने तुरंत दो हजार रुपए यानी पचास-पचास के चालीस नोट निकालकर नाथूराम को देकर कहा-भाई! अब दरोगाजी का पीछा छोड़ भी दो। नाथूराम ने उन रुपयों को वहीं फेंक दिया और बोला-ये रुपए आप लोगों को ही मुबारक हों। मैं इन पर पेशाब भी करना पसंद न करूँगा। उस असहाय, गरीब ब्राह्‌मण से रिश्‍वत लेकर अब आप हमें रिश्‍वत दे रहे हैं। आपके पास थोड़ा-बहुत भी ईमान-धर्म है कि नहीं? आप जैसे हाकिम जब ऐसा ही करेंगे तो इस देश और समाज का क्‍या होगा? अगर मेरा वश चले तो देश के भ्रष्‍ट अफसरों को जेल में ठूँस दूँ। आप जैसा निष्‍ठुर प्राणी मैंने आज तक नहीं देखा।

यह सुनकर दरोगा जयदेव पांडेय झेंप गए। अब उनकी सूरत देखने लायक थी। वह हवलदार से बोले-भई हवलदार! इस बला से जान छुड़ाने के लिए इन्‍हें पांच-पांच सौ और दे दो। हवलदार सुधाकर ने तत्‍काल एक हजार और मिलाकर नाथूराम को दे दिया। यह देखकर कार्य निरीक्षक ने नाथूराम की ओर देखकर कहा-अरे यार नाथूराम! ले लो और मामला खत्‍म भी करो। जो हुआ सो हुआ, उसे भूल जाओ। उनका अनुरोध सुनकर नाथूराम बोला-साहब! आप हमारे बाँस हैं। आपका हुक्‍म सिर माथे पर। अगर ऐसी ही बात है तो हमें कुछ नहीं चाहिए और यह उँगली मैं दरोगाजी के हवाले कर देता हूँ।

यह कहकर उसने अपनी पॉकेट से उँगली और तीन हजार रुपए निकालकर वहीं फेंककर चलता बना। वह सचमुच बड़ा ही स्‍वाभिमानी पुरुष था। उसने उनसे एक पाई भी न ली। नाथूराम ने दरोगा जी को सरेआम बहुत लज्‍जित किया। उनकी हालत ऐसी हो गई मानो मारे शर्म के वह जमीन में ही धँस जाएँगे। एक गैंगमैन के आगे वह पानी-पानी हो गए। उनकी गर्दन झुकी की झुकी रह गई।

वह हवलदार से बोले-सुधाकर! मुझे ये रुपए नहीं चाहिए। इसे देवव्रत को लौटा दो। इन रुपयों के चलते आज मुझे बहुत शर्मिन्‍दगी झेलनी पड़ी। उन्‍होंने सारे रुपए देवव्रत को वापस कर दिया और आइंदा घूस न लेने-देने की कसम खा ली।

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  1. उन्‍होंने सारे रुपए देवव्रत को वापस कर दिया और आइंदा घूस न लेने-देने की कसम खा ली।

    --- काश इन घटनाओं का अंत यही हो.....


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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: अर्जुन प्रसाद की कहानी - गैंगमेन
अर्जुन प्रसाद की कहानी - गैंगमेन
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