नरेन्द्र कोहली ग्रीनेकर स्वा मी को देखकर सारा जेन फार्मर प्रसन्न हो उठीं, “स्वामी जी! आपका स्वागत है। मुझे विश्वास नहीं था कि आप सचमुच...
नरेन्द्र कोहली
ग्रीनेकर
स्वामी को देखकर सारा जेन फार्मर प्रसन्न हो उठीं, “स्वामी जी! आपका स्वागत है। मुझे विश्वास नहीं था कि आप सचमुच आ ही जाएँगे। ․․․”
“क्यों ? मैंने अपनी स्वीकृति तो भेज दी थी।”
“बड़े लोग अपनी स्वीकृति तो तत्काल भेज देते हैं।” सारा मुसकरा रही थीं, “उसके पश्चात् सोचना आरंभ करते हैं फिर उन्हें ज्ञात होता है कि उनके पास कुछ और काम भी हैं। उनकी कुछ कठिनाइयाँ भी हैं। उन्हें कुछ सुविधाएँ भी चाहिए।․․․ कार्यक्रम की तिथि आने तक उनकी क्षमायाचना भी आ जाती हैं।”
स्वामी हँसे, “तो आप आयोजकों की कठिनाइयों से काफी जूझ चुकी हैं; किंतु मैं बड़ा आदमी नहीं हूँ।”
“अच्छा! विश्वप्रसिद्ध शिकागो धर्म सम्मेलन का महानायक बड़ा आदमी नहीं है।” सारा बोलीं, “आपके पास निमंत्रणों की कमी है क्या। आप जब चाहें, अपनी व्यस्तता की आड़ में मेरे तो क्या, किसी के भी निमंत्रण का तिरस्कार कर सकते हैं।”
“खैर। अब तो मैं आ गया हूँ।․․․” स्वामी बोले, “आपको मान लेना चाहिए कि मैं बड़ा आदमी नहीं हूँ। या फिर मैं व्यस्त नहीं हूँ। किंतु मुझे सब से अधिक प्रसन्नता यह मनवाने में होगी कि मैं अपने वचन का पक्का हूँ। वचन-पालन, भारतीय जीवन का एक महत्वपूर्ण मूल्य है।”
“मान लिया; किंतु आपको यहाँ कोई विशेष आर्थिक लाभ होने वाला नहीं ंहै। सत्य तो यह है स्वामी जी! हमारी संस्था बहुत साधनसंपन्न नहीं है।”
“आर्थिक लाभ भारतीय संन्यासी का लक्ष्य नहीं है। धन के लिए धर्मप्रचार और धनार्जन के लिये व्याख्यान - ये दोनों ही मुझे अनुचित लगने लगे हैं।” स्वामी भी मुसकरा रहे थे।
“तो आप देख लें।” सारा ने कहा, “यह ग्रीनेकर पिस्काटाका नदी पर एक प्रकार से ग्रीष्म ऋतु में एकांत शरणस्थली थी। नदी के किनारे की समतल भूमि पर तंबुओं में कम धनी साधक निवास करते हैं। इसका नाम ‘सनराइस कैंप' है। धनी आगंतुक पहाड़ पर स्थित ग्रीनेकर सराय में रहते हैं। बीच की ढालू भूमि पर, पहाड़ के कुछ निकट, एक बड़ा सा तंबू खड़ा किया गया है। आप देख सकते हैं, उस पर श्वेत ध्वज फहरा रहा है। उसे हम ‘दि आयरिनियन' या ‘शांति सदन' कहते हैं। इसी में व्याख्यान तथा विभिन्न मतों की उपासना होती है।․․․”
“बहुत सुंदर प्रबंध है।” स्वामी ने कहा।
“आपके लिए सराय में प्रबंध है। आप अपने आप को टिका लें, व्यवस्थित कर लें। अपनी योजना बना लें। आपकी सुविधानुसार हम आपके व्याख्यानों का संयोजन कर लेंगे।” सारा ने कहा, “आपके आने की संभावना से ही लोगों में पर्याप्त उत्साह है। मुझे पूरा विश्वास है कि आपके भाषणों को वे उतना ही आकर्षक पाएँगे, जितना कि धर्म संसद के श्रोताओं ने पाया था। “हाँ।” वे रुकीं, “हम उतनी भीड़ जुटा पाएँगे, क्योंकि हमारे अपने नियम हैं और हमारे सहभागी, मात्रा व्याख्यानों के श्रोता ही नहीं हैं। धर्म को अपने जीवन और व्यवहार में उतारने के लिए प्रयत्नशील साधक हैं।”
“मैं समझता हूँ।”
“आप जानते ही हैं कि ग्रीनेकर समाज की स्थापना इसी वर्ष हुई है।” सारा ने कहा, “यह एक प्रकार से धर्म संसद का ही परिणाम है। हम धर्म संसद को पीछे छोड़ आए हैं, क्योंकि हम परंपरागत धर्म का अतिक्रमण कर अपने युग के अनुकूल एक धर्म का निर्माण करना चाहते हैं। हमारा लक्ष्य, विविध धर्मों के सामंजस्य के आदर्श को व्यवहार में ढालना है।”
“यह एक अच्छा आध्यात्मिक आविष्कार हो सकता है।” स्वामी ने कहा, “यह संस्थान किराए पर लिया गया है क्या ?”
“नहीं! अपने पिता से प्राप्त संपत्ति में से कुछ एकड़ मैंने ‘ग्रीनेकर धर्म सम्मेलन' के लिए अलग कर दिए हैं।” सारा बोली, “इसमें कोई भी निर्माणधर्मी विचार रखा जा सकता है; किंतु मात्रा मूर्तिभंजकों के लिए इसमें कोई स्थान नहीं है। ध्वंस में मेरा कोई विश्वास नहीं है।”
स्वामी टहलने निकल गए थे। नदी के साथ जंगली फूलों से लदे खेत थे। उनसे परे, पहाड़ी पर एक वन सा था। अपने अनियंत्रिात प्राकृतिक विकास की दृष्टि से वह वन ही था; किंतु नयनाभिराम होने के कारण उपवन भी माना जा सकता था। नदी से उसकी दूरी लगभग एक मील की रही होगी।․․․ जहाँ तहाँ लंबे ऊँचे पाईन वृक्ष थे। स्वामी, पाईन को चीड़ कहना भी पसंद करते थे। भारतीय वृक्षों में पाइन, चीड़ का सगोत्रीय प्रतीत होता था; किंतु ग्रीनेकर का यह वृक्ष पूरी तरह से पाइन भी नहीं था। यह बहुत ऊँचा और घेरदार था और उसकी छाल लाल थी। जाने इसे यहाँ के लोग क्या कहते होंगे।․․ चीड़ के ये वृक्ष ग्रीनेकर का महत्वपूर्ण अंग थे।
स्वामी लौटे तो सारा ने उन्हें सूचना दी, “प्रसिद्ध समाजशास्त्री और आपके पुराने मित्रा फ्रैंकलिन बी․ सैनबोर्न भी आए हुए हैं। आशा है, आप उनसे मिलकर प्रसन्न होंगे।”
“अवश्य। उनसे भेंट हुए बहुत दिन हो गए हैं।”
“पर आपको उन्हें इस भीड़ में खोजना पड़ेगा।” सारा ने कहा, “खोज लेंगे या मैं किसी को यह दायित्व सौंपूँ?”
“नहीं! नहीं! मैं खोज लूँगा। आपके पास और इतने काम हैं।”
स्वामी ने फ्रैंकलिन को खोज लिया। वे बड़ी गर्मजोशी से मिले।
“कैसे हैं स्वामी जी!”
“ओह! आपने ‘स्वामी जी' कहना सीख लिया है।”
“और भी बहुत कुछ सीखा है।” फ्रैंकलिन बी․ सैनबोर्न ने कहा, “धर्म संसद के पश्चात् आप से भेंट ही नहीं हुई। आप इतने बड़े आदमी हो गए हैं।”
“मित्रों के मुख से ऐसे उपालंभ अच्छे नहीं लगते।” स्वामी हँसे, “हाँ! माँ ने इतना दौड़ाया है कि अपने कुछ मित्रों से भी दूर हो गया हूँ।”
“यहाँ किस किस से मिले आप?”
“अभी तो किसी से भी भेंट नहीं हुई हैं।” स्वामी ने कहा, “आपसे पूछना ही चाहता था कि कौन-कौन आया हुआ है।”
“बॉस्टन के डबल्यू․ जे․ कॉलविल यहाँ हैं। प्रायः प्रतिदिन बोलते थे। माना जाता है कि किसी प्रेतात्मा के प्रभाव में बोलते हैं।”
“क्यों? क्या किसी मनुष्य के समान नहीं बोलते?” स्वामी ने पूछा।
“नौटंकी न करें, तो मनुष्य के समान बोलें।” फ्रैंकलिन ने कहा, “वे मनुष्य से कुछ महान बन कर बोलना चाहते हैं, इसीलिए कहते हैं वे किसी प्रेतात्मा के नियंत्रण में हैं। जो कुछ बोला जाता है, वह प्रेतात्मा ही बोलती है। उसे प्रमाणित करने के लिए कुछ ऊटपटांग हरकतें भी करते हैं।”
“और?”
“यूनिवर्सल ट्रुथ की संपादिका भी यहाँ जमी बैठी हैं ; और पूरे विश्वास के साथ अपनी आध्यात्मिक शाक्ति से रोगियों का उपचार कर रही हैं।”
“कितने लोगों को नीरोग कर दिया?”
“मुझे तो रोगियों का ही नहीं, संपादिका का भी रोग बढ़ता दिखाई दे रहा है।”
“इसीलिए सारा कह रही थीं कि यहाँ कोई भी निर्माणधर्मी अपने विचार रख सकता है। मेरा विचार है कि अपनी आध्यात्मिक शक्ति से रोगियों का उपचार करने वाली वे संपादिका बहुत शीघ्र ही संसार के सारे अँधों में आँखें बाँटती दिखाई देंगी।” स्वामी हँसे, “यह बहुत ही विचित्रा जमघट है․․․”
“मैं भी सोच रहा था कि इन सबके बीच आप․․․।”
“मुझे नहीं आना चाहिए था?”
“नहीं! नहीं! आपका आना तो बहुत सार्थक है। कोई तो उनको अध्यात्म का वास्ततिक रूप दिखाए।” फ्रैंकिलन ने कहा, “और विचित्रा तो ये लोग हैं ही। सामाजिक नियमों की कोई विशेष चिंता नहीं करते हैं। मुक्त और प्रसन्न हैं।”
“यह भी एक प्रकार का मोक्ष है।” स्वामी हँस पड़े।
पूर्वाह्न के आरंभिक व्याख्यान सराय के निकट के तंबुओं में हो चुके थे। उसके पश्चात् प्रायः लोग चीड़ों के नीचे चले गए।․․․ थोड़ी ही दूरी पर खड़ा व्यक्ति भी शायद ही देख पाता कि धरती तक झुकी उन शाखाओं के नीचे कुछ लोग बैठे हैं। ऐसे व्याख्यानों को सुनने के लिए, इससे अधिक उपयुक्त स्थान की कल्पना भी कठिन थी। यह स्थान संसार की सारी विघ्न बाधाओं से परे था। सड़क से यह इतनी दूरी पर था कि सड़क पर से गुज़रते वाहनों का शब्द यहाँ तक नहीं आ सकता था। वहाँ तो पक्षियों का कलरव था, या फिर वक्ता का मंद मंथर स्वर, जो उस वृक्ष की धरती तक झुकी शाखाओं से छन कर आता था।
श्रोतागण अपनी इच्छा और सुविधा के अनुसार धरती पर लोट रहे थे। कुछ वृद्ध लोगों के लिए कुर्सियों का प्रबंध था। अधेड़ और युवा लोग पूर्णतः स्वच्छंद थे। कुछ चित लेट कर सुन रहे थे और आकाश की ओर ताक रहे थे। जाने उन्हें आकाश की नीलिमा दिखाई पड़ रही थी अथवा उनकी दृष्टि चीड़ की शाखाओं से ही उलझ कर रह जाती थी। कुछ अपनी कुहनियों के बल लेटे हुए व्याख्यान सुन रहे थे और बेध्याने ही, आस पास की झाडि़यों से सूखी टहनियाँ, पत्ते अथवा पुष्प चुनते जा रहे थे।․․․
स्वामी को सारा फार्मर ने व्याख्यानों का क्रम बता दिया था․․․ “और स्वामी जी! आप शुक्रवार को एक अतिरिक्त व्याख्यान देंगे।․․․”
“अतिरिक्त?”
“हाँ! और लोगों के समान आप भी प्रतिदिन अपनी इच्छा से अपने श्रोताओं को एकत्रित कर बोलने को स्वतंत्र हैं।” सारा ने कहा, “किंतु शुक्रवार को आप हमारे अनुरोध पर, एक अतिरिक्त अथवा विशेष भाषण देंगे।”
“विषय भी निश्चित् है?”
“मेरी इच्छा है कि आप ‘ईश्वर की वास्तविकता' पर प्रकाश डालें।”
“सप्ताहांत तक मुझे रोके रखने का कोई विशेष कारण?” स्वामी मुस्करा रहे थे।
“कारण तो वही है, जो धर्म संसद के दिनों में हुआ करता था।” सारा भी मुस्कराई, “हम चाहते हैं कि आपके आकर्षण में लोग तब तक रुके रहें।․․․ और एक कारण यह है कि श्रीमती सारा ओली बुल ने अगस्त के प्रथम तीन सप्ताह तक के लिए कमरे किराऐ पर लिए हैं। उनके साथ उनके कुछ अतिथि भी आ रहे हैं- प्रख्यात् लेखक और समीक्षक की पत्नी श्रीमती एडविन पर्सी विप्पल तथा प्रसिद्ध गायिका सुश्री एम्मा थर्सबी। मैं चाहती हूँ कि आपका यह विशेष भाषण वे लोग भी सुनें। श्रीमती बुल ने भी कुछ ऐसा ही आग्रह किया है।”
“श्रीमती सारा ओली बुल ․․․।” स्वामी स्मरण करने का प्रयत्न कर रहे थे।
“आप उन्हें नहीं जानते ?”
“शायद अभी तक हमारी भेंट नहीं हुई है।” स्वामी ने कहा।
“श्री ओली बुल के विषय में तो सुना है न ?”
“हाँ! नार्वे के प्रसिद्ध वायलनवादक। पर उनका तो देहांत हो चुका है न ?”
“हाँ! श्रीमती बुल चौदह वर्षों से उनकी विधवा हैं। उन्होंने न दूसरा विवाह किया है, न करने का विचार है।”
“भारत में इस बात के लिये हम उनको चरित्रवान महिला मानेंगे।”
“अपने विवाह से पहले, श्रीमती बुल, सुश्री सारा थॉर्प थीं। मेरा और उनका नाम एक ही है- सारा” सारा जेन फार्मर हँस पड़ी, “पर उससे हमारा व्यक्तित्व एक जैसा नहीं हो जाता। वे महान हैं। मैं तो उनका पासंग भी नहीं हूँ।”
स्वामी की जिज्ञासा बढ़ गई, “मेरा विचार है कि मैं न उनको जानता हूँ, न उनके महत्व को।”
“उनके पिता ऑनरेबल जोसफ जी․ थॉर्प धनाढ्य काठव्यापारी-लंबरमैन- थे। वे ‘मेडिसन' के स्टेट सेनेटर थे।” सारा जेन फार्मर ने बताया, “अपनी किशोरावस्था में श्रीमती बुल अपने परिवार के साथ राजसी प्रासाद जैसे भवन में रही थीं। मेडिसन में उनका घर सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। बाद में वह विस्कॉनसिन का ‘गवर्नर रेसिडेंस'- राजनिवास - बन गया था। उनकी माता श्रीमती थॉर्प, लौह संकल्प की सुदृढ़ महिला थीं। वे नगर के सामाजिक जीवन की धुरी थीं। ‘यैंकी हिल' का यह विशाल भवन नगर के सामाजिक जीवन का सर्वस्वीकृत केन्द्र था। वहाँ साहित्य, नाट्य, संगीत, दर्शन, अध्यात्म तथा ऐसे क्षेत्रों से संबंधित होने वाले सम्मेलनों तथा विराट भोजों के निमंत्रणों की बड़ी माँग थी। स्वभावतः थॉर्प परिवार नगर में आने वाले कीर्तिवान लोगों को अपने यहाँ निमंत्रित कर उनका सत्कार करता था।․․․”
“काफी महत्वपूर्ण परिवार है।”
“जी! और काफी रोचक भी।”
“रोचक!”
“ऐसे ही एक समारोह में साठ वर्षीय विधुर ओली बुल की भेंट बीस वर्षीय सारा से हुई और दोनों एक दूसरे की ओर आकृष्ट हुए। किशोरी सारा, काले बालों वाली, गंभीर ही नहीं कुछ अवसन्न प्रकृति की सुंदरी थी। भावुक थी, संगीत से प्रेम करती थी और अपनी माँ की नीति के कारण अपने समवयस्क युवाओं के अस्तित्व से सर्वथा अनभिज्ञ थी। उत्तेजना उसके स्वभाव में थी। वैसे आदर्शवादी और संवेदनशील लड़की थी। जब वह सत्रह वर्षों की थी तो अपनी माँ के साथ ओली बुल के एक कंसर्ट में गई थी। वहीं उसने यह निश्चय किया था कि एक दिन वह उनकी पत्नी बनेगी। तीन वर्षों के पश्चात् जब पुनः उनकी भेंट हुई, वह अपने उसी निश्चय पर अडिग थी।”
“और ओली बुल?”
“ओली बुल पहली ही भेंट में सारा के प्रेम में लिप्त हो चुके थे। किंतु प्रौढ़ावस्था और किशोरावस्था का यह प्रेम सारा की माँ के असाधारण व्यक्तित्व की सहायता के बिना कभी पूर्णता को प्राप्त न होता। अपने पति की आपत्तियों को रौंदते हुए श्रीमती थॉर्प ने इस प्रेम को प्रोत्साहित किया।․․․”
“स्वयं किशोरी की माँ ने? आश्चर्य!”
“सितंबर 1870 में उनका विवाह हो गया। यह विचित्रा विवाह था। दोनों की अवस्था में चालीस वर्षों का अंतर तो था ही। उन दोनों की सामाजिक पृष्ठभूमि और स्वभाव में भी बहुत अंतर था। सारा बुल का संबंध अत्यंत परंपरावादी मध्यपश्चिमी परिवार से था। ओली बुल का संबंध परंपराविरोधी, कलाकारों के स्वच्छंद परिवार से था। फिर भी दंपती में प्रेम था। सब कुछ ठीक ही चला होता किंतु श्रीमती तथा श्री थॉर्प, उनका पुत्र जोसेफ, श्रीमती थॉर्प की सखी श्रीमती एब्बी शेपले और उसके दो बच्चे सदा ही बुल दंपती के साथ चिपके रहे - अमरीका में भी और यूरोप में भी। कई वर्षों तक यह दल उनके साथ लगा रहा, उनके साथ यात्राएँ करता रहा, वादविवाद करता रहा, और निरंतर उन्हें परामर्श देता रहा। उनके मामलों में हस्तक्षेप करता रहा। उच्छृंखल और सनकी ओली बुल को पालतू और सम्मानजनक जामाता बनाने का प्रयत्न होता रहा। स्थिति काफी विस्फोटक थी। अंततः श्रीमती थॉर्प इस निष्कर्ष पर पहुँचीं कि वह उनकी पुत्री के लिए उपयुक्त वर नहीं था। उन्होंने अलगाव का प्रबंध किया; और वे सारा तथा 1871 में जन्मी उसकी बच्ची ओलिया को साथ लेकर अपने घर मेडिसन आ गईं।”
“वे लोग पृथक हो गए?”
“नहीं! यह न तो विवाहविच्छेद था, न तलाक।” सारा जेन फार्मर ने कहा, “जैसे जैसे सारा बड़ी और स्वतंत्र हुई, वह अपनी माँ का तोड़ बन गई। दो वर्षों तक घर में बँधी रह कर अंततः उसने अपने माता पिता के शासन के प्रति विद्रोह किया। मेडीसन से विदा ली और नार्वे में अपने पति से आ मिली। उसके पश्चात् वे पति पत्नी, एक कंसर्ट वायलनिस्ट का शांत और एकांत जीवन बिताते रहे। अब सारा के माता पिता का उसके जीवन में कोई हस्तक्षेप नहीं था। यद्यपि उन दोनों परिवारों में एक प्रकार का समझौता हो गया था।”
स्वामी सारा जेन फार्मर की ओर देखते रहे।
“सारा बुल ने अपने अव्यावहारिक पति के काम काज का प्रबंध अपने हाथों में ले लिया। एक प्रकार से वे ही कंसर्ट यात्राओं का प्रबंध करने लगीं। आवश्यक होने पर अपने पिता से ऋण भी ले लेतीं। वे अपने घर की सर्वेसर्वा हो गईं। अपने वृद्ध और निश्चयविहीन पति से वे प्रेम ही नहीं करती थीं, उन्हें पूजती थीं। वे अब ओली बुल की योग्य और समर्थ पत्नी हो गई थीं।․․․ इस बीच मेडिसन से ऊब कर श्रीमती थॉर्प अपने परिवार को ले कर कैंब्रिज चली आईं, जहाँ उनके पुत्र जोसफ ने प्रसिद्ध कवि लांगफैलो की छोटी पुत्राी से विवाह कर उन्हें अपार प्रसन्नता दी।”
“श्रीमती बुल क्या अपने पति के देहांत के पश्चात् अमरीका आईं ?”
“नहीं! सारा बुल और उसके पति भी नार्वे से अमरीका आ गए थे। उन्होंने थॉर्प परिवार से स्वतंत्र कैंब्रिज में ही ब्रैटल स्ट्रीट पर अपना अमरीकी घर बनाया। 1880 में ओली बुल का देहांत हो गया; किंतु सारा बुल तब भी ब्रैटल स्ट्रीट के अपने उसी घर में रह रही हैं। वह बुद्धिजीवियों का अड्डा है।”
“उनसे मिलना काफी रोचक और लाभदायक होगा।” स्वामी ने प्रसन्न मन से कहा।
अगले दिन स्वामी प्रातः ही एक घने चीड़ के वृक्ष के नीचे जा पहुँचे। उन्होंने पाल्थी मार ली और पत्तों से ढँकी उस धरती पर सुखासन में बैठ गए। बहुत दिनों के पश्चात् धरती पर बैठे थे। धरती का स्पर्श जैसे माँ की गोद जैसा था। उनकी पलकें भारी हो रही थीं और क्रमशः उनकी आँखें बंद हो गईं।․․․
जब आँखें खुलीं, तो देखा कि अनेक लोग उनके आसपास आ बैठे थे और उन्हें कुछ उत्सुकता से देख रहे थे․․․
“क्या बात है भाई?” स्वामी ने सहज भाव से पूछा।
“कैसे बैठै हैं आप?” एक व्यक्ति ने कहा, “हमारे यहाँ तो कोई भी ऐसे नहीं बैठता।”
“ये बैठने की हिंदू पद्धति है।” स्वामी ने मुसकरा कर कहा, “इसे हम सुखसन कहते हैं। जिसका अर्थ होता है, सुख से बैठना।”
“आपकी भाषा में सारे शब्दों का अर्थ होता है?”
“हाँ!”
“तो आपके नाम का भी अर्थ होगा।”
“है।”
“क्या है?”
“ईश्वर का नाम है सच्चिदानन्द। सत्, चित् और आनन्द। मेरा नाम है- विवेकानन्द। चित् और आनन्द- अर्थात् जाग्रत आनन्द।”
“आप यहाँ बैठे हुए क्या कर रहे थे?”
“ध्यान!”
“वह क्या होता है?”
“ध्यान, एक प्रकार की प्रार्थना है और प्रार्थना ही ध्यान है।”
“उसका लाभ क्या है? ”
“लाभ! ओह मैं भूल गया था कि यह अमरीका है, जहाँ प्रत्येक क्रिया को लाभ की तुला में तोला जाता है।” स्वामी हँसे, “भारत में हम लाभों से मुक्त होने के लिए साधना करते हैं।”
“वह क्या होता है?”
“यह ऐसा ही है कि एक व्यक्ति प्रयत्न करता है कि उसका मस्तिष्क विचारों से भर जाए; और दूसरा प्रयत्न करता है कि उसका मस्तिष्क सर्वथा विचारशून्य हो जाए।”
भीड़ ने स्वामी को आश्चर्य से देखा।
“देखो! विचारों के बवंडर से नीन्द नहीं आती। हम विक्षिप्त से होने लगते हैं।” स्वामी ने कहा, “और मस्तिष्क विचारशून्य हो जाए तो हम पूर्ण शांति का अनुभव करते हैं। एकाग्रता के चरम को प्राप्त करते हैं। वही ध्यान है। सघन ध्यान का अर्थ है - विचारशून्यता।”
“वह कोई अच्छी बात तो नहीं है।” भीड़ ने कहा, “विचारों से शून्य हो जाना - किसी ईडियट के समान।”
“नहीं, विचारशून्यता का अर्थ ईडियट हो जाना नहीं है।” स्वामी बोले, “जब किसी स्थान पर वायु भरी होती है तो वहाँ गतिहीनता होती है। वायु से शून्य होते ही उसे भरने के लिए चारों ओर से पवन दौड़ता है। वहाँ झंझावात आ जाता है, आँधी आती है। कितनी ऊर्जा भर जाती है वहाँ।”
“हाँ! यह तो होता है।”
“वैसे ही विचारों से ठुँसे मस्तिष्क में कोई गति नहीं होती। विचारशून्यता एक उच्चतर मानसिक स्थिति है। यदि हम एक क्षण भी विचारशून्य रहें तो महान् ऊर्जा का आगमन होगा।”
“यह अध्यात्म है या फिजि़क्स?” एक व्यक्ति ने पूछा।
“हिंदू चिंतन में अध्यात्म और फिजि़क्स एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं।” स्वामी बोले, “फिजि़क्स के नियम भी तो ईश्वर ने ही बनाए हैं। फिजि़क्स ईश्वर का मस्तिष्क है। उसको जानना, ईश्वर के मस्तिष्क को जानना है।”
भीड़ ने कुछ विस्मय से स्वामी को देखा ः यह पहला व्यक्ति था जो ईश्वर की चर्चा कर रहा था, किंतु विज्ञान का विरोध नहीं कर रहा था। वह तो ईश्वर से उसका संबंध बता रहा था।․․․
“ज्ञान का रहस्य ही एकाग्रता है।” स्वामी ने पुनः कहा, “आत्मा एकाग्र हो कर, अपनी संपूर्णता में ईश्वर से प्रेम कर, अपना विकास करती है।”
“यह आत्मा क्या है?” एक व्यक्ति ने कहा, “चिंतन तो मस्तिष्क करता है।”
“आत्मा, चिंतन का सिद्धांत पक्ष है, और मस्तिष्क व्यवहार पक्ष। मस्तिष्क उसकी प्रक्रिया या उपकरण है। आत्मा स्पिरिट से माईंड तक की नली है।”
भीड़ में एक प्रकार का कलरव सा हुआ। स्पष्ट नहीं था कि वे विस्मित थे, इसलिए कलरव कर रहे थे या स्वामी का कथन उनकी बुद्धि के ऊपर से गुज़र गया था।
“तो यह आत्मा यहाँ, इस संसार में क्या करने आई है?” किसी एक ने पूछा।
चारों और शांति छा गई। कलरव सो गया। स्वामी समझ रहे थे कि यह उनके श्रोताओं की गंभीर जिज्ञासा थी।
“सारी आत्माएँ लीला कर रही हैं।” स्वामी बोले, “अंतर इतना ही है कि कुछ जानते बूझते कर रही हैं, कुछ अनजाने।”
“तो धर्म का अर्थ क्या रह गया?”
“इस लीला में जानते बूझते सम्मिलित होने की प्रक्रिया को सीखना ही धर्म है।”
“यह कैसे संभव है?”
“क्यों? आप कोई खेल नहीं खेलते?”
“खेलते हैं।”
“तो यह जानते बूझते ही तो खेलते हैं कि यह एक खेल है। आप जानते हैं कि उस खेल के कुछ नियम हैं। उन नियमों को सीखते हैं। उनके अनुसार चलने का प्रयत्न करते हैं। करते हैं या नहीं ?”
“कभी कभी नियम तोड़ते भी हैं।․․․” वह हँसा।
“अपना स्वार्थ साधने के लिए।” स्वामी भी हँसे, “ रेफरी की दृष्टि बचा कर।”
वह व्यक्ति पुनः हँसा।
“जीवन में रेफरी की दृष्टि बचाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।” स्वामी बोले, “क्योंकि ब्रह्मांड का रेफरी सीटियाँ बजाता हुआ हमारे आसपास नहीं घूमता। दिखता तो वह है ही नहीं, आप जब चाहें उसे भुला भी सकते हैं।․․”
“जीवन के खेल के नियमों की पुस्तक भी तो कहीं नहीं मिलती।” भीड़ मेें से किसी ने कहा।
“वे नियम आपके हृदय पर अंकित हैं।” स्वामी बोले, “विभिन्न धर्मों की पुस्तकों ने अपने अपने दृष्टिकोणों से उन नियमों को आपके सामने प्रस्तुत किया है।”
“पर नियम तोड़ने पर रेफरी की सीटी तो नहीं बजती।”
“बजती है।” स्वामी बोले, “आपका हृदय निर्मल हो तो सुनाई भी देती है; किंतु आप उसे अनसुना कर सकते हैं। रेफरी आपको तत्काल खेल के मैदान से निकालने के लिए प्रकट नहीं होता; किंतु आप मानें या न मानें, पर यह सत्य है कि आपकी कॉनफिडेंशियल रिपोर्ट तत्काल ही लिख दी जाती है- वहीं, ऑन द स्पॉट।”
“पर यह सब हम को बताएगा कौन?”
“गुरु! गरु बताएगा! गुरु बताता है।”
“गरु कौन है ?”
“गुरु हमारा अपना ही उच्चतर आत्मतत्व है।” स्वामी बोले, “आप सुनेंगे, तो वह बताएगा। आप नहीं सुनेंगे, तो भी वह बताएगा। वह बताता ही रहता है। हाँ! आप अपने सुखों और स्वार्थों की रुई से अपने कानों को या तो इतना बंद कर लेते हैं, या उन्हें सांसारिक कोलाहल से इतना पूरित कर लेते हैं कि गुरु का स्वर सुनने में असमर्थ हो जाते हैं।”
स्वामी के चारों ओर एक सन्नाटा पसर गया।
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स्वामी उठ खड़े हुए।
उनके सामने और आसपास बैठे लोग भी उठे। वे कुछ इस प्रकार खडे़ हो गए, जैसे अध्यापक के कक्षा छोड़ने से पहले उसके विद्यार्थी उठ खड़े होते हैं। उन्होंने स्वामी के जाने के लिए मार्ग छोड़ दिया था। स्वामी मुसकरा कर उनके बनाए हुए उस मार्ग पर चल पड़े।
एक महिला कुछ तेज़ी से चलते हुए आई और उनके साथ चलने लगी।
“स्वामी! आपने हमें भी अपने समान हिंदू पद्धति से भूमि पर बैठना सिखा दिया है। मैं सोच भी नहीं सकती थी कि कभी मैं भी ऐसे भूमि पर बैठ सकूँगी।”
“सब बैठ सकते हैं।” स्वामी बोले, “जो प्रयत्न करे, वही बैठ सकता है। हाँ पश्चिम में शीत के कारण लोग भूमि पर नहीं बैठते। फिर उनके अंग अकड़ जाते हैं। उनमें इतना लचीलापन भी नहीं रह जाता कि वे पाल्थी मार कर भूमि पर बैठ सकें।”
“पर इससे हम अपनी पृथ्वी के निकट संपर्क मेंं आते हैं।” एक पुरुष भी उनके साथ चल रहा था।
“ये श्री चैपिन हैं - मेरे पति।” उस महिला ने कहा, “मैं श्रीमती चैपिन हूँ।”
स्वामी ने कुछ विस्मय से उसकी ओर देखा। वे तो उसके वस्त्रों और तौर तरीके से उसे विधवा मान बैठे थे।
“आप मेरी पत्नी के सौन्दर्य से विस्मित हो उठे हैं स्वामी!” उस पुरुष ने कहा, “इसमें आपका कोई दोष नहीं है। उसका सौन्दर्य सब को स्तब्ध कर देता है।”
“हाँ! आपकी पत्नी अत्यंत सुंदर महिला हैं।” स्वामी ने कहा, “पर मैं उससे स्तब्ध नहीं हूँ। प्रत्येक नारी का रूप प्रकृतिरूपा मेरी माँ के रूप के ही अनूरूप है। विस्मित तो मैं इसलिए हूँ कि वे सदा पूर्णतः काले वस्त्रों में क्यों रहती हैं। काले वस्त्र तो शोक का प्रतीक हैं।”
“मैं काले वस्त्रों में सुंदर लगती हूँ।”
“हाँ! वह तो आप लगती ही हैं।”
“आप प्रकृति को अपनी माँ कहते हैं?” चैपिन ने कुछ आश्चर्य से पूछा।
“हाँ! प्रकृति हमारी माँ है क्योंकि हमारा यह शरीर उसके ही अंश से बना है।”
“तो पृथ्वी भी अपकी माँ है?”
“मेरी ही क्यों, वह आपकी भी माँ हैं। आपका शरीर उसी से जन्मा है और अंततः उसी में समा जाएगा।” स्वामी ने कहा, “धरती पर बैठने से ऐसा अनुभव होता है, जैसे हम अपनी माँ की गोद में बैठे हैं। इसलिए हम लोग पृथ्वी पर बैठते हैं।”
“स्वामी! मैं डिट्रायट से हूँ- जूली एंड्रयूज।”
स्वामी ने देखाः एक और अत्यंत सुसंस्कृत महिला, जिसके लंबे बाल और सुंदर काली आँखें थीं, उनके सामने खड़ी थी।
“मैंने आपको पहली बार डिट्रायट में ही श्रीमती बागले के घर पर देखा था। आप अति विशिष्ट लोगों की भीड़ में घिरे हुए थे और मुझे अपने से बहुत दूर लगे थे। नहीं जानती थी कि यहाँ इस प्रकार आपका सान्निध्य पाने का सौभाग्य मिलेगा।”
“भारतीय महिलाओं के समान आपके केश लंबे और आँखें काली हैं।”
“इसीलिए वे मुझे भी बहुत प्रिय हैं। मैं उनकी अच्छी प्रकार देखभाल करती हूँ।” वह बोली, “मैं आपको एक निमंत्रण देना चाहती हूँ।”
“कैसा निमंत्रण?”
“यहाँ से कुछ दूर, समुद्र के पंद्रह मील भीतर मेरा एक द्वीप है। मैं वहाँ जा रही हूँ और चाहती हूँ कि आप भी मेरे साथ चलें।” वह बोली, “वहाँ प्रकृति का बहुत सुंदर रूप देखने को मिलेगा।”
“क्याँ वहाँ तैरना भी संभव है?”
“आप तैरना चाहेंगे?”
“हाँ! यदि संभव हो तो क्यों नहीं।”
“तैरने के कपड़े․․․।”
स्वामी हँस पड़े, “कोरा स्टॉकम ने मेरे लिए तैरने का वस्त्र तैयार किया है। और मैं एक बतख के समान जल संतरण का सुख अनुभव करता हूँ।”
“यह तो बहुत ही अच्छी बात है।” जूली ने कहा, “वह बहुत ही सुंदर और मनमोहक स्थान है। वहाँ तैरना बहुत ही आनन्ददायक है।”
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अगले दिन प्रातः स्वामी पुनः उसी चीड़ के वृक्ष के नीचे आ बैठे थे। किसी को सूचना नहीं दी गई थी न कोई निमंत्रण था, फिर भी जाने कैसे लोग स्वामी का पीछा करते हुए वहाँ आ गए थे। आज वे कल की तुलना में और भी व्यवस्थित और शांत थे। उनमें से प्रायः लोग स्वामी के ही समान भूमि पर सुखासन में बैठने का प्रयत्न कर रहे थे। अधिकांश सफल भी हो रहे थे।․․․ अन्यथा पैर फैला कर तो वे बैठ ही सकते थे।․․․
“परम तत्व की खोज करो।” स्वामी ने बोलना आरंभ किया, “छोटी मोटी चीज़ों के पीछे क्या जाना। सदा उच्चतम की खोज करो। उसी में शाश्वत आनन्द है। मुझे आखेट करना होगा तो मैं गैंडे का आखेट करूँगा। डकैती करनी होगी तो राजकोष को लूटूँगा। सदा उच्चतम को खोजो।․․․”
“सब कुछ हमारे ही वश में नहीं है।” भीड़ ने कहा।
“यदि आप स्वयं को बद्ध मानते हैं तो आप बद्ध हैं। यदि आप स्वयं को स्वतंत्र मानते हैं, तो आप स्वतंत्र हैं। मेरा मन कभी भी सांसारिक तृष्णाओं में बँधा हुआ नहीं था। क्योंकि इस सुनील आकाश के समान मैं भी सत्, चित् और आनन्द का प्रतिनिधि हूँ। तुम क्यों रोते हो ? न तुम्हारे लिए रोग है, न मृत्यु । क्यों रोते हो? न कष्ट तुम्हारे लिए है न दुर्भाग्य तुम्हारे लिए है। क्यों रोते हो? न विकार की तुम्हारे लिए भविष्यवाणी की गई थी, न मृत्यु की। तुम तो स्वयं परम अस्तित्व हो।”
स्वामी जैसे आध्यात्मिक आवेश का अनुभव कर रहे थे। प्रकृति के सान्निध्य ने उन्हें कैसा तो बदल दिया था। वे भूल गए थे कि वे अमरीकी श्रोताओं के सामने बैठे हैं, जिन्हें अद्वैत वेदांत का कोई आभास नहीं था। पर उससे क्या ․․․ आज वे वही कहेंगे, जो उनकी आत्मा कहना चाहेगी। यहाँ कोई विषय निर्धारित नहीं है। कोई टिकट खरीद कर नहीं आया है। कोई पाठ्यक्रम नहीं है। कोई परीक्षा नहीं है। आज उनकी आत्मा मुक्त हो कर बोलेगी․․․
“मैं जानता हूँ ईश्वर क्या है किंतु मैं उसे तुम्हारे सामने कह नहीं सकता। मैं जानता ही नहीं कि ईश्वर क्या है, तो मैं उसे तुम्हारे सामने कैसे कह सकता हूँ। ईश्वर को खोजने के लिए यहाँ - वहाँ क्यों जाया जाए ? खोज बंद करो। खोज की निरर्थकता का आभास ही ईश्वर है। खोज का समापन ही ईश्वर है। तुम अपने ‘स्व' में स्थित हो जाओ। वह ‘स्व', जो न स्वीकार किया जा सकता है, न वर्णित किया जा सकता है, जिसे अपनी हृदय की गहराई में देखा जा सकता है। वह तो अतुलनीय है, असीम है, अविकारी है - उस सुनील आकाश के समान। ओह! उस सात्विक को जानो - और किसी की खोज मत करो।
“जहाँ प्रकृति के परिवर्तनों की पहुँच नहीं है। सारे विचारों से परे का विचार। अविकारी, अचल, जिसकी घोषणा सारी पुस्तकें करती हैं और जिसकी पूजा सारे ऋषि करते हैं। ओह! वह सात्विक अस्तित्व! उसी को खोजो, और किसी की खोज मत करो।”
“अनुपमेय, असीम एकत्व - उससे कोई तुलना संभव नहीं है। ऊपर जल है, नीचे जल है, दाएँ जल, बाएँ जल, कोई लहर नहीं, कोई तरंग नहीं - पूर्ण शांति, शाश्वत आनन्द। ऐसा वह, तुम्हारे हृदय में आ जाएगा। और कुछ मत खोजो। उससे कहो, तुम ही हमारे पिता हो, तुम ही माता हो, तुम ही मित्रा हो। तुम ही इस संसार का भार वहन करते हो। अपने जीवन का बोझ वहन करने में हमारी सहायता करो। तुम ही हमारे मित्रा हो, हमारे प्रेमी हो, हमारे पति हो, तुम ही हम हो।
“उसने गीता में कहा है, ‘चार प्रकार के लोग मेरी पूजा करते हैं। कुछ इस भौतिक जगत के सारे सुख चाहते हैं। कुछ धन चाहते हैं, कुछ धर्म चाहते हैं। कुछ लोग मेरी पूजा करते हैं, क्योंकि वे मुझ से प्रेम करते हैं, वास्तविक प्रेम तो वही है, जो केवल प्रेम के लिए हो। मैं स्वास्थ्य, धन, जीवन अथवा मोक्ष नहीं माँगता। मुझे सहस्रों नरकों में भेजो, किंतु हे प्रभु! मुझे अपने से प्रेम करने दो। उस महान रानी मीरा बाई ने प्रेम के लिए प्रेम का सिद्धांत सिखाया।
“हमारी वर्तमान चेतना अनन्त चैतन्य सागर की एक बूंद मात्रा है। स्वयं को इस चेतना तक सीमित मत करो। आत्मा के विकास के लिए तीन बातों की कामना करनी चाहिए - मानव जीवन, उस अनन्त के लिए अदम्य तृष्णा, तथा तीसरे, किसी ऐसे गुरु की खोज, जिसने ईश्वर को पा लिया है। एक ऐसा महात्मा, जिसका मन, वचन और कर्म सात्विकता से परिपूर्ण है। जिसका एकमात्र आनन्द संसार का कल्याण करने में है। जो दूसरों के तिल मात्रा गुण को भी पर्वत के बराबर मानता है। इस प्रकार वह अपना और दूसरों का विकास करता है।
“‘योग' का अर्थ है, जोड़ना। स्वयं को ईश्वर से जोड़ना। स्वयं को वास्तविक ‘स्व' से जोड़ना। जो क्रियाएँ आज स्वतःचालित अथवा हमारे नियंत्रण से बाहर हैं, कभी स्वैच्छिक थीं। हमारा पहला काम है स्वतःचालित क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करना। योजना है, उन्हें पुनरुज्जीवित करना और उनका नियंत्रण प्राप्त करना। बहुत सारे योगी अपने हृदय की गति को भी नियंत्रित करते हैं।”
“हमें अपनी चेतना में वापस जाना और उन बातों को खोज निकालना है, जिन्हें हम भूल गए हैं। हमारी शक्ति साधारण है; किंतु उसका विकास किया जा सकता है। अपनी चेतना में जाकर सारे ज्ञान को बाहर निकालना भी योग है। अधिकांश क्रियाएँ और विचार स्वतःचालित हैं अथवा वह हमारी चेतना के नियंत्रण से मुक्त हैं। उनका केन्द्र रीढ़ की हड्डी के मूल में ‘मूलाधार चक्र' में है। प्रश्न है कि हम अपनी चेतना के मूल में कैसे पहुँचें। हम अपनी आत्मा, मन, बुद्धि और शरीर के माध्यम से उस चेतना से बाहर निकले हैं। और अब हमें अपने शरीर से वापस आत्मा तक जाना है। सब से पहले प्राण वायु पर नियंत्रण करना होगा, तब स्नायुतंत्र पर, तब मन और फिर आत्मा। किंतु इसमें हमें पूरी ईमानदारी से उच्चतम की - परम तत्व - आकांक्षा करनी होगी। सारी स्नायु ऊर्जा तथा शरीर के विभिन्न कोषाणुओं में स्थित ऊर्जा को एकाग्र कर, उस एकाग्र शक्ति को अपनी इच्छानुसार संचालित करना होगा। तब मन - जो तरल पदार्थ है - को केन्द्र में ले आओ। मन में परतें ही परतें हैं। जब एकाग्र स्नायु ऊर्जा रीढ़ की हड्डी में से गुज़ारी जाती है, तब मन की एक परत खुल जाती है। जब उसे एक ‘चक्र' में केन्द्रित किया जाता है, हमारे सामने संसार का एक और पक्ष खुल जाता है, इस प्रकार वह एक संसार से दूसरे संसार में चलती जाती है, जब तक कि वह मस्तिष्क के केन्द्र में पिनियल ग्लैंड (शंकु ग्रंथि) को नहीं छू लेती । यह शंकु ग्रंथि समग्र ऊर्जा का मूल स्थान है। यही हमारी गति तथा स्थिति का मूल स्थान है।
“इस विचार से अपना कार्य आरंभ करो कि हम अपने इस जन्म के सारे अनुभवों को समाप्त कर सकते हैं। हमें इसी जन्म में इसी क्षण में पूर्ण होने का लक्ष्य अपने सामने रखना है। सफलता उन्हें ही मिलती है, जो इसी क्षण में यह कार्य पूर्ण करना चाहते हैं। वही इसे प्राप्त कर सकता है, जो कहता है कि ‘मैं अपनी आस्था पर दृढ़ हूँ, चाहे जो भी हो जाए। पूरा प्रयत्न करो फिर भी तुम सफल नहीं होते, तो दोष तुम्हारा नहीं है। संसार चाहे तुम्हारी प्रशंसा करे अथवा निन्दा; संसार का सारा धन तुम्हारे चरणों में लोटे, या तुम संसार के सबसे निर्धन व्यक्ति हो जाओ; मृत्यु चाहे आज आए या सौ वर्षों बाद; अपने पथ से विचलित मत होओ। सारे अच्छे विचार अनश्वर हैं; और उन्हीं से बुद्ध और ईसा का निर्माण होता है।”
“सारे नियम वैविध्य में एकता खोजने का प्रयत्न हैं। ज्ञान प्राप्त करने का एक ही मार्ग है- शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक धरातलों पर एकाग्रता; और मानसिक शक्ति का प्रयोग कर अनेकता में एकता की खोज।”
“प्रत्येक वह पग जो एकता की ओर जाता है, नैतिक है; और जो अनेकता और विभाजन की ओर उठता है, वह अनैतिक है। उस एक को जानो, जो अद्वितीय है। वही पूर्णता है। वह, जो सब में अपनी अभिव्यक्ति करता है, वही सृष्टि का आधार है। सारे धर्मों को, सारे ज्ञान को इस बिंदु तक पहुँचना होगा।․․․”
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“मैं बॉस्टन से हूँ - वुड!” उन्होंने अपना परिचय देते हुए मिलाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया।”
स्वामी ने हाथ मिलाया।
“ओह, मैंने आपका परिचय नहीं कराया,” सारा जेन फार्मर ने कहा, “आप श्री वुड हैं। ‘क्रिश्चियन साईंस' के प्रकाश स्तंभ।”
“ ‘क्रिश्चियन साईंस' ठीक है।” श्री वुड ने कहा, “किंतु मैं श्रीमती वर्लपूल से संबंधित होना स्वीकार नहीं करता।”
“तो आप स्वयं को किस संप्रदाय के मानते हैं?” स्वामी मुसकरा रहे थे।
“मैं स्वयं को आध्यात्मिक ऊर्जा से मानसिक चिकित्सा करने वाला मानता हूँ -- केमिको फिजि़कल रिलिजिसो ट्रीटमेंट।․․․ आप चाहें तो दो एक विशेषण और भी जोड़ सकते हैं।”
“मैं मिल्स कंपनी से संबंधित हूँ-- श्रीमती फिग्स! यहाँ प्रतिदिन प्रातः एक कक्षा लेती हूँ।”
“आप महान् कार्य कर रही हैं।” स्वामी ने कहा।
“और मैं हूँ, श्रीमती मिल्स!”
स्वामी अब तक श्रीमती मिल्स को पहचान गए थे। वे दिन भर सारे क्षेत्र में उधम मचाती फिरती थीं। जाने कितनी ऊर्जा थी, उस महिला में।․․․ वैसे तो वे सब ही बहुत उत्साह में थे। इन लोगों की स्वच्छंदता देख कर कोई भी स्तब्ध रह जाएगा। किंतु ये लोग अच्छे और सात्विक जीव थे, बस कुछ सनक गए थे․․․
स्वामी समय समय पर और लोगों से भी मिले।․․․ प्रख्यात और अत्यंत सम्मानित एवं प्रभावशाली यूनिटेरियन पादरी, लेखक और समाज सुधारक, डॉ․ एवेरेट हेल भी वहाँ थे। अधुनातन अनुभवातीतवादी अॉटेविस ब्रुक्स फ्रॉथिंघाम भी थे। हेल परिवार की मित्रा तथा शिकागो में पब्लिक स्कूलों में कला शिक्षा की निर्देशक सुश्री जोसेफाइन लॉक भी थीं। पूर्वी कला के विशेषज्ञ अर्नेस्ट एफ․ फेनोलोज़ा भी थे। बु्रक्लिन एथिकल एसोसिएशन के डॉ․ लूइस जे․ जेन्स भी थे․․․
“स्वामी, आप शरद ऋतु में हमारे बु्रक्लिन में व्याख्यान देने आ रहे हैं न ?” डॉ․ जेन्स ने पूछा।
“ब्रुक्लिन में?”
“आप भूल तो नहीं गए कि आपको हमारे श्री हिगिंस ने व्याख्यानों के लिए ब्रुक्लिन में आमंत्रिात किया था।”
“वे जो युवा धनी वकील हैं और आविष्कारक भी हैं?”
“जी! वे ही।”
“मैं ने अभी निश्चित् नहीं किया है कि मैं उन व्याख्यानों के लिए अमरीका में रूकूँगा या नहीं।”
“निर्णय नहीं किया है?”
“नहीं।”
“पर श्री हिगिंस ने तो आपके निर्णय की प्रतीक्षा नहीं की है।” डॉ․ जेन्स ने कहा, “वे तो निमंत्रण के बाद से ही अपनी तैयारियों और प्रबंध में लगे हुए हैं।”
“क्या कह रहे हैं आप?”
“उन्होंने वहाँ इस संबंध में सारा प्रचार कार्य कर लिया है।”
“मैं न जाऊँ तो ?”
“उनका वह सारा समय, धन और परिश्रम व्यर्थ हो जाएगा, जो उन्होंने तैयारियों में लगाया है।” डॉ․ जेन्स ने कहा, “और बु्रक्लिन के लोग उन्हें झूठा और मक्कार मानेंगे।”
“पर मैंने उन्हें वचन नहीं दिया था।”
“मना भी नहीं किया था। अनिर्णय की बात और है।”
“तो मुझे जाना ही पड़ेगा।”
“जाएँगे?”
“और उपाय ही क्या है?”
डॉ․ जेन्स हँस पड़े, “सचमुच हिगिंस बड़े आविष्कारक हैं। उन्होंने आविष्कार कर लिया है कि आप जैसे लोगों के अनिर्णय को कैसे निर्णय में बदला जा सकता है।”
“आप प्रसन्न हैं?”
“आपके व्याख्यान सुनने का अवसर पा कर कौन प्रसन्न नहीं होगा?” डॉ․ जेन्स ने कहा, वैसे, आपको ग्रीनेकर में कैसा लग रहा है?”
“प्रसन्न हूँ। व्याख्यान देने, पढ़ाने आकर, पिकनिक मनाने तथा अन्य गतिविधियों में समय उड़ा चला जा रहा है।”
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30 जुलाई को आत्मावादी श्री․ डबल्यू जे․ कॉल्विल ग्रीनेकर सराय के हॉल में भाषण कर रहे थे। लगा बाहर पवन का वेग कुछ अधिक हो गया है। पर थोड़ी ही देर में वह पवन वेग झंझावात में बदल गया। कॉल्विल पूरी शांति से बोलते रहे। वे चाहते थे कि श्रोता भी पूर्ण शांति से सुनते रहें, क्योंकि सब कुछ ब्रह्म ही था, उससे विचलित होने की आवश्यकता नहीं थी। किंतु श्रोताओं की दृष्टि बाहर की ओर लगी हुई थी।․․․
इस क्षेत्र में हुआ प्रकृति का यह अनोखा विद्युत प्रदर्शन था। ऐसा शायद ही पहले कभी हुआ हो। एक बार तो लगा कि ग्रीनेकर के लोकप्रिय पडौस सनराइज़ को वह झंझावात पूर्णतः उखाड़ ही फेंकेगा। देखते ही देखते, तीन तंबू पूर्णतः उड़ गए। व्याख्यानों के लिए बनाया गया बड़ा तंबू भी, प्रायः उड़ ही गया था। पर वस्तुतः उड़ा नहीं, अनेक स्थानों से फट जाने के कारण झंझावात का वेग उन खिड़कियों, द्वारों से होकर निकल गया। तंबू इतना भी क्षतिग्रस्त नहीं हुआ था कि उसकी मरम्मत न हो पाती।
जो लोग अपने तंबुओं को गिरने से बचा रहे थे, उनके उस संघर्ष को सामान्यतः वर्षा और तूफान के साथ खींचतान माना जा रहा था; किंतु स्वामी के लिए यह प्रकृति के शक्तिप्रदर्शन के विरुद्ध मनुष्य की आत्मा का संघर्ष था ․․․ उनका मन प्रार्थना कर रहा था․․․ “भगवान का धन्यवाद् कि उसने मुझे निर्धन बनाया। भगवान का धन्यवाद् कि उसने तंबुओं में रहने वाले इन बच्चों को निर्धन बनाया। वे धनी छैले तो होटल में हैं। किंतु लोहे की स्नायु, इस्पात की आत्माओं और अग्नि जैसे दहकते उत्साह वाले लोग इन तंबुओं में हैं। मूसलाधार वर्षा हो रही है और झंझावात प्रत्येक पदार्थ को तहस-नहस करने पर तुला हुआ है। वे अपने तंबुओं को गिरने से बचाने के लिए, उनकी रस्सियों से टँगे हुए हैं। वे अपने आत्मबल के कारण प्रकृति से लोहा ले रहे हैं। इन वीर हृदयों को देखने से किस का भला नहीं होगा। मैं ऐसे लोगों को देखने के लिए सौ मील चल कर जा सकता हूँ। ईश्वर इनका कल्याण करे।”
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स्वामी उस चीड़ के वृक्ष के नीचे बैठे तो भीड़ ने कहा, “स्वामी! आप ग्रीनेकर के इन तांत्रिकों जैसी कोई बात नहीं करते। आप उनसे इतने भिन्न हैं।”
“तुम्हें क्या अच्छा लगता है ?”
“हमें आपका प्रवचन ही अच्छा लगता है। वह मन को आध्यात्मिक आनन्द से भर देता है।”
“तो वही सुनो। आत्मा को पदार्थ में बदलने के स्थान पर - जैसा कि ये लोग यहाँ कर रहे हैं, पदार्थ को ही आत्मा में बदल दो। प्रतिदिन एक बार तो असीम सौन्दर्य, शांति और आध्यात्मिक सात्विकता के संसार की एक झलक देखो; और दिन रात उसी में रहने का प्रयत्न करो। अलौकिक, भयानक अथवा रहस्यमय को न खोजो। उसे अपने पैर के अँगूठे से भी छूने का प्रयत्न मत करो। अपनी आत्मा को एक अखंड रस्सी के समान दिन रात तब तक ऊर्ध्वगमन करने दो, जब तक वह अपने प्रिय के चरणों को ही न छू ले। उस प्रिय को, जिसका सिंहासन तुम्हारे अपने ही हृदय में है।”
“ईश्वर में रमे हो। शरीर की किसको चिंता है। बुराई तुम्हें जकड़ ले, तो भी कहो- मेरे प्रभु, मेरे प्रिय! मृत्यु की पीड़ा में कहो - मेरे प्रभु, मेरे प्रिय! सृष्टि की सारी अकल्याणकारी शक्तियों के मध्य कहो - मेरे प्रभु, मेरे प्रिय! तुम यहीं हो। मैं तुम्हें देख रहा हूँ। तुम मेरे साथ हो और मैं तुम्हारा अनुभव कर रहा हूँ। मैं तुम्हारा हूँ। मुझे स्वीकार करो। मैं संसार का नहीं हूँ, तुम्हारा हूँ। प्रभु! मुझे त्यागो मत।
“प्रेम के हीरों को त्याग कर शीशे के मनकों के पीछे मत जाओ। यह जीवन एक बहुत बड़ा अवसर है। संसार में क्या रस खोज रहे हो। वह, जो आनन्द का उत्सव है - उस परम सत्ता को खोजो। अपना लक्ष्य ऊँचा रखो तो तुम सर्वोच्च चोटी तक पहुँचोगे।”
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श्रीमती सारा ओली बुल 3 अगस्त को ग्रीनेकर पहुँच गई थीं। उन्होंने स्वामी का शुक्रवार का व्याख्यान सुना, तो विस्मित रह गईं।
“एक हिंदू द्वारा, ईसाई श्रोताओं के सामने मुहम्मद का पक्ष प्रस्तुत करना। अद्भुत। यह अपने आप में इस सिद्धांत का प्रतिपादन करता है कि हमें प्रत्येक पैगंबर का सम्मान करना चाहिए, उनके उपदेशों को सम्मानपूर्वक सुनना और समझना चाहिए।” वे आह्लाद की स्थिति में थीं।
एम्मा थर्सबी ने उन्हें देखा, “मैंने तो निश्चय कर लिया है कि जब तक स्वामी यहाँ हैं, मैं भी यहीं टिकी रहूँगी। और उनके मुख से निकले प्रत्येक शब्द को सुनूँगी।”
श्रीमती एडविन पर्सी विप्पल ने उनकी ओर देखा, “मुझे लगता है, उनके मुख से निकला प्रत्येक शब्द सुनने योग्य नहीं, पलकों से चुनने योग्य है।”
“ठीक कह रही हैं आप।” श्रीमती बुल ने कहा, “मैं समझती हूँ कि उन्होंने यह भी बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा है कि प्रत्येक पैगंबर के अनुचरों को यह ध्यान रखना चाहिए कि वे अपने व्यवहार से लोगों में भ्रम उत्पन्न न करें।”
“किंतु होता एकदम उलटा है।” एम्मा ने कहा, “लोग प्रायः अपने व्यवहार से अपने पैगंबर को धूमिल, लांछिंत और कलुषित करते रहते हैं।”
“कैसा अच्छा विषय था ः पैगंबरों के माध्यम से ईश्वर द्वारा मनुष्य के सम्मुख सत्य का प्रकाश।” श्रीमती बुल ने कहा, “स्वामी के स्पष्ट चिंतन और वक्तव्य ने धैर्यपूर्वक, अवतार संबंधी पूर्वी धारणा के प्रति फैलाए गए भ्रमों और उनकी छिछली आलोचना का पूर्ण निराकरण कर दिया है। वक्तव्य असाधारण विद्वत्तापूर्ण था। सरल भाषा में दैनन्दिन के उदाहरणों से बातें स्पष्ट कर, श्रोताओं के लिए सब कुछ कितना सरल कर दिया उन्होंने।”
“और उस सुवक्ता की इस महान प्रार्थना पर भी विचार करें कि हम मुहम्मद के इतिहास और समय ही नहीं, मुहम्मद की अपनी आस्था पर भी न्यायपूर्वक विचार करें।” फ्रैंकलिन बी․ सैनबोर्न ने अपना मत प्रकट किया, “और अपने विचारों के आधार पर मानव जाति की जो भी सेवा उन्होंने की है, उसका विश्लेषण करें।”
“वाग्वैदग्ध्य तथा बुद्धि - प्रतिभा ने गरिमा और शालीनता के साथ अपना कार्य किया।” श्रीमती ओली बुल बोलीं, “स्वामी ने कहा कि हमें एक दूसरे के धर्म का भय छोड़ देना चाहिए। जो सिद्धांत सर्वमान्य हैं, उनकी ओर ध्यान देना चाहिए - आत्मा की अनश्वरता, ईश्वर का एकत्व, पिता और उसके पवित्र पुत्र, मानव जाति की भिन्नता और उनकी आवश्यकताओं की विविधता - इन सबका ध्यान रखना चाहिए। सबके सिद्धांतों के सत्य का सम्मान होना चाहिए। इन विचारों में किसी के प्रति घृणा का स्थान ही कहाँ है।”
वहाँ उपस्थित सब लोग उनसे सहमत थे, अतः मौन थे।
“स्वामी विवेकानन्द ने वह सब दिया जो एक महान् आत्मा ही दे सकती है।” अंततः श्रीमती बुल ही बोलीं, “वह एक घंटा अविस्मरणीय है। वहाँ उपस्थित सारे संप्रदायों - उनकी जो भी पृष्ठभूमि और विश्वास रहे हों - को स्वामी ने एक कर दिया, जैसे फिलिप ब्रूक्स ने यूनिटेरियन और एपिस्कॉलियंस को एक कर दिया था।”
“मैं तो समझती हूँ कि जो भी सत्य और शिव से प्रेम करते हैं, वे सब उन्हें अपना बिशप मानने के लिए उनकी शरण में आ गए हैं।” एम्मा थर्सबी ने जैसे अपना हृदय ही उँडेल कर रख दिया था।
“मैंने सुना है कि वे प्रतिदिन प्रातः पाइन कि किसी वृक्ष के नीचे भी व्याख्यान देते हैं।” श्रीमती ओली बुल बोलीं।
“हाँ! कुछ लोग तो उसको स्वामी पाइन कहने लगे हैं।” फ्रैंकलिन सैनबोर्न ने कहा।
“मैं उस वृक्ष को देखना चाहती हूँ।” श्रीमती ओली बुल बोलीं।
संध्या समय वे लोग उस ओर गए। सारा जेन फार्मर भी उनके साथ ही थीं। श्रीमती ओेली बुल ने बहुत ध्यान से उस सारे परिवेश को देखा। उनका ध्यान चीड़ के उस वृक्ष की ओर विशेष रूप से गया और वे उसकी लाल छाल को देख कर रुक गईं।
“आप लोगों ने ध्यान दिया है कि यह पाइन, यहाँ के साधारण पाइन से भिन्न है?” श्रीमती ओली बुल ने पूछा।
“है तो।” सारा जेन फार्मर ने कहा।
“यह पाईन बहुत ऊँचा और घेरदार है। इसकी छाल लाल है। यह साधारण पाइन नहीं है, यह लाइसेक्लोस्टर पाइन है।” श्रीमती ओली बुल ने कहा, “नार्वे में हमारे घर के आस पास इसी जाति के लाल छाल वाले चीड़ के वृक्ष उगते हैं।”
“तो हम भी इसे लाइसेक्लोस्टर ही कहेंगे।” सारा जेन फार्मर ने कहा, “और पर्वत पर के उस कुटीर को ‘नाइटिंगेल का बसेरा'; जिसमें सुश्री एम्मा थर्सबी टिकी हैं।”
“मैं गौरवान्वित हुई मिस फार्मर।” एम्मा परम प्रसन्न थीं।
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“स्वामी कल आप ने ईश्वर के स्वरूप के विषय में बताया था, क्या आप मनुष्य के स्वरूप के विषय में भी कुछ बताएँगे ?”
स्वामी ने अपने सामने भूमि पर बैठी उस भीड़ को देखा। उन्हें लगा, वे अमरीका के ग्रीनेकर में नहीं, किसी प्राचीन भारतीय गुरुकुल में बैठे हैं․․․
“आप ने कहा था कि हम शरीर नहीं, आत्मा हैं और आत्मा तो परमात्मा का अंश है। तो हम क्या हैं ?”
“न मैं शरीर हूँ, न शरीर का विकार हूँ। न मैं ये इंद्रियाँ हूँ न इंद्रियों का विषय हूँ। मैं सत्, चित्, आनन्द हूँ। मैं यह, मैं यह हूँ।”
“न मैं मृत्यु हूँ, न मृत्यु का भय, न मेरा कभी जन्म हुआ था, न कभी मेरे कोई माता पिता थे, - मैं सत् हूँ, चित् हूँ, आनन्द हूँ।”
“मैं पीड़ा नहीं हूँ, न मुझे कोई कष्ट है। न मैं किसी का शत्रु हूँ, न कोई मेरा शत्रु है। मैं सत हूँ, चित हूँ, आनन्द हूँ।”
“मैं निराकार हूँ, असीम हूँ, अनन्त हूँ, देशकालातीत हूँ, मैं सब में हूँ, मैं सृष्टि का आधार हूँ। मैं सत हूँ, मैं चित हूँ, मैं आनन्द हूँ।”
“आप, मैं और सृष्टि में सब कुछ वही पूर्ण हैं। उसके अंश नहीं, वरन् पूर्ण। उस परम के पूर्ण हैं।․․․”
“यह सब मानना कैसे संभव है स्वामी?”
“ज्ञान के अनुभव से।” स्वामी ने कहा, “इस को जान लो और इसके अनुभव का प्रयत्न करो।․․ एक बार अनुभव हो जाए तो․․․।”
स्वामी मौन हो गए। उनकी आँखें बंद हो गईं।
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स्वामी संध्या समय से ही उस चीड़ के नीचे बैठे हुए थे। इस समय उनके आसपास कोई नहीं था।
यहाँ की जलवायु कुछ ऐसी थी कि स्वामी को निरंतर भारत की याद आती थी। चीड़ के इस वन ने उन्हें सदा किसी प्राचीन गुरुकुल का स्मरण कराया था। यहीं वे भूमि पर बैठ कर उन्हें पढ़ा सके थे, क्योंकि यहाँ न तो सूर्य इतना दुर्बल था कि धूप निकलती ही नहीं; और धरती इतनी ठंडी हो जाती कि मनुष्य को उस पर लेट कर नीन्द ही न आती। न पवन इतना शीतल था कि मनुष्य के शरीर को कँपा कर, नीन्द को भगा देता। न ही आकाश से हिमपात होता था।․․․ भारत के किसी उष्ण खंड जैसी जलवायु थी। मनुष्य खुले आकाश तले सो सकता था․․․।
“मैं उन सब को शिवोऽहम शिवोऽहम पढ़ाता हूँ; और वे सब उसको दुहराते हैं। वे लोग भोले और निष्कलंक हैं।” स्वामी सोच रहे थे, “उनके श्रोता वास्तविक जिज्ञासु थे। उनका वेदांत से परिचय नहीं था। वे भारत के धर्मों से परिचित नहीं थे - न उन अवधारणाओं से, न उन उपासना पद्धतियों से। जिन्होंने आज तक केवल द्वैतवाद जाना था। ईश्वर को किसी अन्य लोक का भिन्न प्रकार का प्राणी माना था। स्वयं से बहुत शक्तिशाली और सर्वनियंता। अन्य कोई जीव ईश्वर से कोई समानता नहीं रखता था। न उसकी बराबरी कर सकता था, न उसका अंग हो सकता था, न उसके जैसा हो सकता था। साहसी और․․․ वे निश्चित रूप से वीर और साहसी हैं। मैं प्रसन्न और गौरवान्वित हूँ।․․․ मैं थोड़ा विश्राम करना चाहता था; किंतु ग्रीनेकर में दिन में प्रायः सात आठ घंटे बोलना पड़ता था। यही विश्राम था, यदि इसे विश्राम कहा जा सकता हो तो। किंतु यह ईश्वर की इच्छा थी। वह इसके साथ शक्ति और गौरव भी देता है।․․․
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साभार - साक्षात्कार जनवरी 08
प्रधान संपादक - देवेन्द्र दीपक
संपादक - हरि भटनागर
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