यह एक राहत देने वाली बात है कि केन्द्र सरकार देश के सभी नागरिकों के लिए सरकारी अस्पतालों में 1 नवंबर से मुफ्त में दवा दी जाना शुरू हो...
यह एक राहत देने वाली बात है कि केन्द्र सरकार देश के सभी नागरिकों के लिए सरकारी अस्पतालों में 1 नवंबर से मुफ्त में दवा दी जाना शुरू हो गई है। इस योजना को लागू करने में यह एक अनिवार्य शर्त भी जोड़ी गई है कि सभी सरकारी अस्पतालों व स्वास्थ्य केंद्रों के चिकित्सक उपचार के लिए केवल जेनेरिक दवाएं लिखने के लिए ही बाध्यकारी होंगे। इस शर्त से न केवल गरीब गंभीर रोगी इलाज के दायरे में आ जाएंगे, बल्कि दवा कंपनियों को ब्रांडेड दवाओं के दाम भी घटाने को मजबूर होना पड़ेगा। लेकिन ऐसा तभी संभव होगा जब केंद्र व राज्य सरकारें ऐसे चिकित्सकों के विरुद्ध कड़ा रुख अपनाने को खड़ी दिखें, जो मुफ्त में दवा योजना लागू हो जाने के बाद भी पर्चों पर ब्रांडेड दवाएं लिख कर नियमों को धता बताने में लगे हों ? क्योंकि हमारी सरकारें जिस तरह से तेल और उर्वरक कंपनियों के आगे लाचार खड़ी दिखाई देती हैं, कमोबेश यही स्थिति बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के साथ भी है। इसीलिए न केवल ब्रांडेड दवाएं जेनेरिक दवाओं की तुलना में 1,123 फीसदी मंहगी हैं, बल्कि मूल्य के बरक्स असरकारी भी नहीं हैं। जबकि राष्ट्रीय दवा मूल्य प्राधिकरण की ओर से दवाओं में मुनाफे का आंकड़ा महज सौ फीसदी ज्यादा रखने की छूट दी गई है। मसलन लागत से दोगुनी से ज्यादा कीमत में दवा बाजार में नहीं बेची जा सकती है।
केंद्र सरकार ने इसी साल नवंबर से देश के सभी सरकारी चिकित्सालयों में जीवन रक्षक समेत हर प्रकार की दवायें मुफ्त में मुहैया करा दी हैं। केंद्र यदि इस योजना को ठीक से पालन कराने में सफल होता है तो यह योजना उसे 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव में गाय की पूंछ पकड़कर वैतरणी पार कराने का मंत्र भी साबित हो सकती है। क्योंकि 2009 के चुनाव में सप्रंग को विजयश्री परमाणु बिजली के टोटकों की बजाय मनरेगा जैसी गरीब लोगों को सीधे लाभ पहुंचाने वाली योजना को अमल में लाने से ही मिली थी। इस दृष्टि से यह योजना यदि राष्ट्रीय फलक पर कारगर साबित होती है और यदि भविष्य में इसमें धन की कमी आड़े नहीं आती है तो संप्रग लोक को लुभाने में एक बार फिर से कामयाब हो सकती है। हालांकि जिन प्रदेशों में गैर कांग्रेसी सरकारें हैं, वे इस योजना को प्रदेश सरकार की योजना बताकर श्रेय लूटने की होड़ में लग गयी हैं।
वित्तीय साल 2012-13 के छह माहों के लिए योजना आयोग द्वारा फिलहाल इस ‘मुफ्त दवा योजना' के मद में महज 100 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं। जबकि आम लोगों का दवा खर्च इससे कहीं ज्यादा है। इसलिए यह योजना यदि पूरी ईमानदारी से लागू होती है तो 12 वीं पंचवर्षीय योजना में इस पर करीब 28,560 करोड़ रुपये खर्च आएगा। इसलिए इस मद में धन राशि बढ़ाने के लिए केंद्र व राज्य सरकारें उस धनराशि को भी जोड़ सकती हैं, जो वीआईपी इलाज के बहाने सरकारी पेशेवरों और नेताओं के उपचार में खर्च की जाती है। इस उपाय से उपचार में जो भेदभाव बरता जाता है, उस मानसिकता को तो निजात मिलेगी ही साथ ही देश का यह तथाकथित वीआईपी तबका सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने को भी बाध्यकारी होगा तो न केवल सरकारी चिकित्सा सुविधाएं दुरुस्त होंगी, बल्कि आम लोगों में इस सुविधा के प्रति विश्वसनीयता की फिर से बहाली होगी। शासन-प्रशासन के सीधे सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने से चिकित्सकों में पर्चे पर ब्रांडेड दवाएं न लिखने का भय भी बना रहेगा। यही भय उस गठजोड़ को तोड़ सकता है, जो कंपनियों और चिकित्सकों के बीच अघोषित रुप से जारी है। यह एक ऐसी व्यवस्था है, जिसने नैतिक मानवीयता के सभी सरोकारों को पलीता लगाया हुआ है। इसी वजह से दवा कारोबार मुनाफे की हवस में तब्दील हुआ है।
दरअसल फिलहाल देश में स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च इतना बढ़ गया है कि 78 फीसदी आबादी को यदि सरकारी स्वास्थ्य सेवा मुफ्त में उपलब्ध नहीं कराई जाती है तो वह जरुरी इलाज से ही वंचित हो जाएगी। फिलहाल देश की केवल 22 फीसदी आबादी ही सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने पहुंचती है। इस मुफ्त में दवा योजना के अंतर्गत सप्रंग सरकार की मंशा है कि 2017 तक 58 फीसदी मरीजों का इलाज सरकारी अस्पतालों में हो। इस मकसद पूर्ति के लिए ही इस योजना को देश में मौजूद 1.60 लाख उपस्वास्थ्य केंद्रों 23000 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और 640 जिला चिकित्सालयों में नवंबर 2012 से अमल में ला दिया गया है। एम्स, चिकित्सा महाविद्यालयों से जुड़े अस्पताल और सेना व रेलवे के अस्पतालों में मुफ्त दवा योजना लागू नहीं होगी।
चिकित्सक बेजा दवाएं पर्चे पर न लिखें इस नजरिये से स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक ‘आवश्यक दवा सूची' (ईडीएल) भी तैयार की है। इस सूची में 348 प्रकार की दवाएं शामिल हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने स्वायत्तता बरतते हुए राज्य सरकारों को कुछ दवाएं अलग से जोड़ने की भी छूट दी है। इस लिहाज से भिन्न भौगोलिक परिस्थितियों, जलवायु कारणों तथा प्रदूषित पेयजल के कारण क्षेत्र विशेष में जो बीमारियां सामने आती हैं, उनके उपचार से जुड़ी दवाएं राज्य सरकार इस सूची में जोड़ सकती हैं। हालंकि तमिलनाडू में पिछले 15 साल से और राजस्थान में अक्टूबर 2011 से जरुरी जीवनरक्षक दवाएं सरकारी अस्पतालों में निशुल्क बांटी जा रही हैं। मध्यप्रदेश सरकार ने भी बीपीएल कार्डधारियों को मुफ्त में इलाज कराने की सुविधा हासिल कराई हुई है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दिशा निर्देश पर गठित डॉ. के श्रीनाथ रेड्डी के नेतृत्व में चिकित्सा व दवा विशेषज्ञों के एक समूह ने मुफ्त दवा योजना का प्रारुप तैयार किया है। इस प्रारुप में यह प्रस्ताव भी शामिल है कि दवाओं की खरीद पर 75 फीसदी राशि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय खर्च करेगा जबकि 25 प्रतिशत राशि राज्य सरकारों को खर्च करनी होगी। इस योजना को मंजूर करते वक्त केंद्रीय मंत्रीमण्डल ने इस प्रस्ताव को भी मंजूर किया है कि दवाएं थोक में खरीदी जाएंगी। इस खरीद के लिए केंद्रीय सरकारी दवा खरीद एजेंसी का भी अलग से गठन किया जाएगा। दवाओं की थोक में खरीद का केंद्रीयकरण इस योजना को पलीता लगा सकता है ? क्योंकि दवा कंपनियां जिस तरह से वर्तमान में चिकित्सकों को लालच देकर उन्हें ब्रांडेड दवाएं लिखने को बाध्य करती हैं, वही काम ये कंपनियां दवा खरीद समिति के लोगों को कमीशन देकर अपनी दवाएं खपाने में लग जाएंगी। इस कारण वे जेनेरिक दवाएं भी महंगी होती चली जाएंगी, जिनकी स्वास्थ्य मंत्रालय ने सूची तैयार की है,और वही दवाएं पर्चे पर लिखने को चिकित्सकों को बाध्य किया गया है। दरअसल अब होना तो यह चाहिए कि दवा खरीद का शत-प्रतिशत विकेंद्रीकरण हो। जो दवाएं सूचीबद्ध की गई हैं, उनके मूल्य का निर्धारण ‘राष्ट्रीय दवा मूल्य प्राधिकरण' करे। यही दवाएं अस्पताल और अस्पताल में बाईदवे उपलब्ध न होने पर दवा की दुकानों पर मिलेंं। दवाओं के रैपरों पर हिन्दी में मूल्य के साथ यह लिखा भी बाध्यकारी होना चाहिए कि यह दवा मुफ्त में मिलने वाली दवाओं की सूची में शामिल है। इससे मरीज को न तो चिकित्सक ब्रांडेड दवा लिख पाएंगे और न दवा विक्रेता रोगी को जबरन ब्रांडेड दवा थोप पाएंगें। इस नीति को अमल में लाने से ब्रांडेड दवाओं के मूल्य भी धीरे-धीरे नियंत्रित होने लग जाएंगे। मूल्य नियंत्रित होंगे तो चिकित्सकों को दवा कंपनियों द्वारा जो कमीशन और देश-विदेश मुफ्त में सैर करने की सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं, वे भी खत्म होंगी। नतीजतन कालांतर में ब्रांडेड और मंहगी दवाएं चिकित्सकों द्वारा लिखे जाने के चलन से भी बाहर हो जाएंगी। बहरहाल मुफ्त दवा योजना नीति है तो बेहतर लेकिन इसकी सार्थकता तभी कारगर साबित होगी जब इसका सख्ती से पालन हो।
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।
COMMENTS