कविता संग्रह उसका रिश्ता जरूर माओ से होगा दिनकर कुमार अग्रज कथाकार प्रियंवदजी के लिए अनुक्रम उसका रिश्ता जरूर माओ से होगा ...
कविता संग्रह
उसका रिश्ता जरूर माओ से होगा
दिनकर कुमार
अग्रज कथाकार प्रियंवदजी के लिए
अनुक्रम
उसका रिश्ता जरूर माओ से होगा 1
मालगाड़ी का गार्ड 2
रंगों की शोभायात्रा में 3
ड्राइंग रूम में टीवी 4
हम यंत्र हैं 5
औरों के लिए 6
मानचित्र की लकीरों को स्वीकार नहीं करती भूख 7
बातें नई नहीं होती 8
चानडुबी 10
जब जब बंदूकों ने छापा अखबार 11
निर्वासन 12
बिहारी 13
घंटी की तरह बज उठता है हर आदमी 15
हाहिम में एक दिन 16
भूमंडलीकरण के अश्व पर सवार होकर घृणा 17
पुस्तक मेले में सम्मोहित करती है पुस्तकें 18
एक हत्यारे शहर में वसंत आता है 19
यह जो प्रेम है 21
वसंत हमें अपने पंख दे दो 22
आबादी विषाद पी रही है 24
अवसाद 26
मुरझाई हुई फसल के भीतर 28
रात 31
बारिश की प्रतीक्षा 32
जैसे तेज धूप में 33
लखीमपुर में कविता 34
गणतंत्र में मौत 36
बंद 37
सहजता आती नहीं 38
सुनहरा सपना 39
आऊंगा आपके पास 41
गणतंत्र के देवता से संबोधित 42
खारघुली में एक दिन 43
मधुबनी चित्रकला 45
सूखे वृक्षों की प्रार्थना 46
हरियाली ओढ़कर 47
पहले आपकी आदमकद प्रतिमा बनाएंगे 49
किरासन के बारे में 50
स्त्री वेद पढ़ती है 53
बुरा वक्त 54
भूलने की आदत ठीक नहीं 58
हरियाली 61
विषाद की कविता 63
पहली तारीख की कविता 65
भावहीन चेहरों के जंगल में 66
मिट्टी के प्यार में 68
चेहरे पर भूख के हस्ताक्षर थे 69
विषाद ने चेहरों को चूमा था 71
धरती हंसेगी 72
अंत में बचेगा पश्चाताप 74
वर्ष की अंतिम कविता 75
उसका रिश्ता जरूर माओ से होगा
उसका रिश्ता जरूर माओ से होगा
वह देश के हालात से बेचैन बना रहता है
वह उजड़ती हुई आबादी की पीड़ा को अपने
सीने में सुलगते हुए पाता है उसे अन्याय के
सारे मंजर चुनौती देते हुए नजर आते हैं
वह ठंडे चूल्हों और भूखे बच्चों को देखकर
ईश्वर या भाग्य को नहीं कोसता
वह नदियों को बिकते हुए देखकर
किसानों को आत्महत्या करते हुए देखकर
खेतों को रौंदकर बसाए जा रहे विशेष आर्थिक क्षेत्र को देखकर
जंगलों को उजाड़कर कारखानों को बसते हुए देखकर
गुस्से से अपनी मुट्ठी भींच लेता है
उसका रिश्ता जरूर माओ से होगा
अभी तक उसने गंवाई नहीं है रीढ़ की हड्डी
अभी तक वह शामिल नहीं हुआ है भेड़ों की जमात में
अभी तक उसके सीने में बची हुई है बेचैनी
उसकी आंखों में है बदलाव का मानचित्र
अभी तक वह सच्चा है
इसीलिए उसका रिश्ता जरूर माओ से होगा
उसे घोषित किया जाएगा आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा
फर्जी मुठभेड़ मे उसकी हत्या की दी जाएगी।
मालगाड़ी का गार्ड
वह सूनेपन की बांहों में बांहें डालकर
सफर करता है
अंधेरा उसके संग खेलता रहता है
आंख मिचौली
जुगनू उसे निराशा की घड़ियों में
देते हैं तसल्ली
सबसे पीछे रह जाने में कितनी पीड़ा होती है
जहां न कोई चाय की दुकान हो
जहां न हो कोई दो बातें बोलने के लिए
पेड़ों से चाहे कुछ भी कहा जाए
आदमी की तरह वे जवाब नहीं देते
वह सूनेपन की बांहों में बांहें डालकर
सफर करता है
इतनी खामोशी होती है वह
भूलने लगता है अपनी ही आवाज की प्रतिध्वनि को
पटरियों पर पहियों की घरघराहट
एक संगीत पैदा करती है
जिसमें खोया हुआ वह वर्षों तक
बिना रुके चलता रह सकता है
यौवन से लेकर बुढ़ापा तक।
रंगों की शोभायात्रा में
अमलतास और पलाश ने रचा है ब्रह्मपुत्र के किनारे
रंगों का अनोखा जगत
जहां आकाश लाल और पीले रंग में
बंटा हुआ नजर आता है
जहां तीखी धूप में लाल रंग का चुनर
लहराता हुआ नजर आता है
कंक्रीट के जगत की कड़वाहट पर हावी हो गया है
अमलतास का रंग और जेठ के महीने में
शहर के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक
फैलता जाता है जहां पलाश की पिचकारी से
बिखरता दिखाई देता है पीला रंग
चांदी की तरह ब्रह्मपुत्र की जलधारा
नीली रंग की पहाड़ियां नारी की तरह
अंगरड़ाई लेती हुई नजर आती है और पल भर के लिए
भीड़ का सारा शोर गुम हो जाता है
रंगों की शोभायात्रा में बहता चला जाता हूं।
ड्राइंग रूम में टीवी
ड्राइंग रूम में टीवी देखती है स्त्री
किरदारों का महंगा पहनावा और जादुई प्रसाधन
स्त्री को लेकर जाता है तिलिस्म के जगत में
जहां अधूरे सपने पंख लगाकर उड़ने लगते हैं
ड्राइंग रूम में टीवी देखते हैं बच्चे
विज्ञापनों में परोसे जा रहे चाकलेट पेय पदार्थ खिलौने
बच्चों के मन में जागने लगती हैं आकांक्षाएं
पिता की मितव्ययता पर क्रोध आने लगता है बच्चे को
ड्राइंग रूम में टीवी देखता है पुरुष
वह आतंकित होने लगता है अमानवीय खबरों
सुख से अघाई हुई स्त्रियों असमय ही बालिग हो चुके
बच्चों को किरदारों के रूप में देखकर।
हम यंत्र हैं
हम यंत्र हैं
विचरण करते हैं यंत्र जगत में
घड़ी की सूइयों में बंधी हुई है हमारी सांसें
अनुशासन है हमारे जीवन का मंत्र
प्रतिदिन हम जागते हैं घड़ी देखकर
बदहवास की तरह शुरू करते हैं दिनचर्या
आईने में गौर से देख भी नहीं पाते ठीक से खुद को
तेजी से खाते हैं नाश्ता पीते हैं चाय
दौड़ते हुए पहुंचते हैं बस अड्डे तक
यंत्रों से खचाखच भरी हुई बस में
हम भी लटक जाते हैं किसी तरह
बदहवासी की हालत में ही हम दाखिल
होते हैं अपने-अपने दफ्तर में
अपनी-अपनी धमनियों से रक्त निचोड़कर
शाम के वक्त हम लौट जाते हैं अपने-अपने
रैन बसेरे में
घड़ी की सूइयों को देखकर पीते हैं चाय
पढ़ते हैं अखबार देखते हैं टीवी
घड़ी की सूइयां जब कहती है हम बत्ती
बुझाकर सो जाते हैं
हम यंत्र हैं
विचरण करते हैं यंत्र जगत में
भावनाओं को हम पहचानते नहीं
संवेदनाओं को हम जानते नहीं।
औरों के लिए
औरों के लिए अपने कलेजे का लहू
कितना उड़ेलोगे
और कितना बचा ही रह गया है लहू
जब गहराती है रात और थम जाता है शोर
तब क्या सुनाई देती है तुम्हें
अपने भीतर की करुण पुकार
अपनी खामोश सिसकियों की व्याख्या
क्या तुम कर सकते हो शब्दों में
औरों को रोशनी पहुंचाने के लिए
बाती को जलाए रखने के लिए
दीप में तेल की जगह
कब तक जलाते रहोगे अपना लहू
कभी सुनते हो तुम अपने ही दिल की बात
अपने सपनों अपनी हसरतों का क्या
कभी रख पाते हो ख्याल अपनी पसंद की
जिंदगी को चुनने के लिए कभी ठिठकते हैं क्या तुम्हारे कदम
औरों के लिए अपने कलेजे का लहू
कितना उड़ेलोगे
और कितना बचा ही रह गया है लहू।
मानचित्र की लकीरों को स्वीकार नहीं करती भूख
मानचित्र की लकीरों को स्वीकार नहीं करती भूख
इसीलिए लांघकर आते हैं वे सीमा को नदी को पर्वत को
इसीलिए संतरियों को रिश्वत में देते हैं अंतिम जमा पूंजी
महिलाएं सौंप देती हैं अपना शरीर
मानचित्र की लकीरों को स्वीकार नहीं करती भूख
भले ही अघाए हुए लोग बनाते हैं संकीर्ण दायरे
तय करते हैं कठोर नियम और राजनीति के प्रावधान
पहचान पत्र राशन कार्ड नागरिकता के प्रमाण पत्र
मानचित्र की लकीरों को स्वीकार नहीं करती भूख
इसीलिए कितने लोग अपना ठिकाना खोकर
भटकते रहते हैं बंजारे की तरह मनुष्य होकर भी खोकर
मानवीय मर्यादा को कीट-पतंगों की तरह।
बातें नई नहीं होती
बातें नई नहीं होती अक्सर पता चलता है
पहले ही कही जा चुकी हैं ऐसी बातें
ऋग्वेद की प्रार्थना दोहराई जाती है
किसी सूफी कवि की रचना में-
‘एकजुट हो जाओ, एक दूसरे से बातें करो
तुम्हारे विचारों में हो तालमेल
साझी हों तुम्हारी क्रियाएं और उपलब्धियां
साझी हों तुम्हारे हृदय की आकांक्षाएं
इसी तरह कायम हो तुम्हारे बीच एकजुटता’
बातें नई नहीं होती अलग-अलग समय में
होती रहती है ऐसी बातों की पुनरावृत्ति
यातनाओं से मुक्ति पाने के लिए जब
बुद्ध कहते हैं विवेक जगाने के बारे में
जब उपनिषद बताते हैं विद्या से ही संभव
है मुक्ति तक इस तरह के विचार बन जाते हैं कालातीत
जनमानस में रचे-बसे हुए कालिदास
भारवी, वाणभट्ट की अनुभूतियां व्यक्त होती हैं
किसी नए कवि की रचना में समस्त धर्म ग्रंथ के
विचार को पेश करते हुए गाते हैं कवि चंडीदास-
‘सवारो ऊपरे मानुष सत्य’
महाभारत करता है उद्घोष-
मनुष्य से बढ़कर कुछ भी नहीं है
तब पैदा होता है सवाल
इतना अधिक ज्ञान इतने सारे विचार
फिर भी क्यों है इतनी घृणा
इतना अंधविश्वास इतनी संकीर्णता
इतनी कुरीतियां इतनी बर्बरता इतने अत्याचार।
चानडुबी
नीले पहाड़ को चूमकर
हवा ने मेरे चेहरे पर
बिखेर दिया नीलापन
पानी में कांपती रही
तुम्हारी परछाई
मलाहिन अकेले ही
चप्पू चलाती रही
नाव में उछलती रही
रंग-बिरंगी मछलियां
चानडुबी की खामोशी
इस कदर गहरी थी
जैसे वह ठोस बन गई हो
और पत्ते गंवा चुके पेड़
प्रार्थना कर रहे थे
तुमने सिर्फ आकृति देखी थी
चानडुबी पहुंचने से पहले
पहचान पाई थी बाहरी रंग
चानडुबी ने तुम्हें खोल दिया
पुरानी गांठ की तरह
और तुमने मुझे महसूस किया
जीवंत धड़कन की तरह
अनाम फूल की गंध की तरह
और चानडुबी तुम्हारी आंखों में
झिलमिलाती रहेगी
मेरी कविता।
* चानडुबी : असम में स्थित एक झील
जब जब बंदूकों ने छापा अखबार
सामूहिक चीख शिलालेखों में समाहित हो गई
मुखपृष्ठ पर यशोगान की टपकने लगी लार
जब-जब बंदूकों ने छापा अखबार
शव और श्मशान का बदल गया अर्थ
वैवाहिक दावत बन गई मृत्यु-
अधर में लटका हुआ सच
बिलबिलाता रहा और झूठ बार-बार
मुंह चिढ़ाता रहा-
सरकारी विकास के आंकड़ों की धुन पर
भरतनाट्यम करते रहे पेशेवर कलाकार
साहित्य की रीढ़ में आतंक चिपक कर
रह गया और बोल चाल की भाषा में
बंदूक द्वारा तय किए गए सांकेतिक शब्द ही
संदर्भ न होने पर भी व्यवहृत होते रहे
बलात्कार और डकैती सांस्कृतिक समाचार
के अंतर्गत छपते रहे और राशिफल में
भय और आशंका का फलादेश कौंदता रहा
जब-जब बंदूकों ने छापा अखबार
समय की दरकने लगी ठोस दीवार
और हिंसा की आड़ में दमकती हुई प्रकृति
भविष्य के खेत में अनजाने ही
उपजाती रही बंदूक के पौधे
वयस्क होते रहे बंदूक के पौधे
और एक दिन उनकी आपसी लड़ाई में
निर्णायक की भूमिका निभाता रहा अखबार।
निर्वासन
नदी के इस छोर से आती तुम्हारी पुकार दूसरी छोर से मैं सुन सकता हूं
पत्थरों पर अंकित मांझी की विरह गाथा को मन की आंखों से पढ़ सकता हूं
जब वीरानी का चादर नदी के सीने पर पसर जाए तो मैं मांझी बन सकता हूं
मैं सभ्यता के कूड़ेदान से दूर आबादी की सड़ांध से दूर वन में भी रह सकता हूं
जब किसी गीत का राग उत्कर्ष पर हो तब गायन को रोका नहीं जाता
तालाब में सपने देखने वाली मछलियों को तेजाब डालकर अंधा नहीं किया जाता
भूख से बिल-बिलाते हुए बच्चों के मुंह में सूखे हुए स्तन को नहीं ठूंसा जा सकता
पेड़ के छाल को पीसकर अकालग्रस्त क्षेत्र में मरने वालों को नहीं बचाया जा सकता
वसंत आता है तो ड्राइंगरूम के रंगीन कैलेंडरों में कैद हो जाता है
महलों के भीतर शीशे के कलात्मक हिस्सों में कैद बुलबुल रोती है
यातनाओं की सुरंग में वर्तमान का चेहरा पूरी तरह गुम हो जाता है
जब अंतड़ियों में ऐंठन होती है तब प्रेम की सारी बातें हवा हो जाती हैं
पतझड़ के मौसम में मैं तुम्हारे लिए हरियाली बटोर कर नहीं ला सकता
मैं झड़े हुए पीले पत्तों पर अपने लहू से किसी का नाम नहीं लिख सकता
मैं ठंड से ठिठुरते हुए भिखारियों की प्रार्थना का अर्थ नहीं बयान कर सकता
अपने हृदय में जलती आग को मैं नदी के उस पार तुम्हारे हृदय तक नहीं पहुंचा सकता
न जाने कितनी पुकार जलधारा की वेग में गुम होकर गूंगी हो जाती है
न जाने कितने शोक गीत उत्सव के शोर में दबकर विलीन हो जाते हैं
न जाने कितने सपने पथराई हुई आंखों की पगडंडी में राह भूल जाते हैं
न जाने कितने मांझी किनारे के बहुत करीब पहुंचकर चुपचाप डूब जाते हैं।
बिहारी
जन्म से यह संबोधन मेरे लिए
पिघला हुआ शीशा है
मेरे कानों में सुलगता हुआ
मेरे सीने में उबलता हुआ
अश्वेत की तरह
अछूत की तरह
अंग्रेजीराज में घोषित अपराधी कौम की तरह
बिहारी का संबोधन
चाबुक की तरह मेरे वजूद को
लहूलुहान करता है
देश जबकि नस्लों का अजायबघर बन गया है
श्रेष्ठ नस्लों के लिए मेरा बिहारी नस्ल
उपहास का विषय बन गया है
गरीबी, पिछड़ापन, अंधविश्वास
जातिगत टकराव, निरक्षरता, बेकारी
बिहारी नस्ल की परिभाषा बन गई है
श्रेष्ठ नस्लों की निगाह में बिहार एक नरक है
जहां से लाखों लोग पलायन और केवल पलायन
कर रहे हैं
महानगरों और अमीर प्रांतों में पशुओं की तरह
श्रम कर रहे हैं और बदले में घृणा और केवल घृणा
पा रहे हैं
जन्म से यह संबोधन मेरे लिए एक
अश्लील-सी गाली है
जिसे सुनते हुए मैं शर्म से सिर झुका लेता हूं
जिस तरह मेरे लाखों भाई परदेश
में सिर झुकाते हैं।
घंटी की तरह बज उठता है हर आदमी
घंटी की तरह बज उठता है हर आदमी
अभाव और असुविधा के नगर में उमस
और घुटन से गुजरते हुए अक्सर चौराहे पर
वाहनों की लंबी कतार में जर्जर सिटी बस के भीतर
अचानक कोई सुरीली धुन बजने लगती है किसी की जेब में
कोई जोर-जोर से कहता है कि वह पहुंचने ही वाला है
कोई इत्मीनान से पूछता है कि कल फिर मिलना है
भले ही बारिश हो और डूब जाए समूचा नगर
घंटी की तरह बज उठता है हर आदमी
फुटपाथ पर चलते हुए या बाजार से गुजरते हुए
यंत्र की तरह शुरू होती है बातचीत बीच-बीच में
खोखली हंसी हाथों को झटककर चेहरे की मुद्राएं बनाकर
हवा में ही आदमी मुखातिब होता है अदृश्य आदमी से
एक छोटे से यंत्र में उड़ेलने की कोशिश करता है भावनाएं
लेकिन यंत्र की खूबी है कि वह भावनाओं को भी
रूपांतरित कर देता है औपचारिकताओं में।
हाहिम में एक दिन
पहाड़ी नदी ने आमंत्रित किया था
किसी दिन आ जाओ
अपनी मशीनी दिनचर्या का दरवाजा खोलकर
किसी दिन भूलकर घड़ी की सरकती हुई सुइयों को
किसी दिन भूलकर शहर के बोझिल नियमों को
पहाड़ी नदी का संगीत सुनने के लिए गया था
पेड़ों की घुमावदार कतार के नीचे
सूखे पत्तों पर बैठकर होश गंवाने के लिए गया था
शिराओं में चौबीस घंटे प्रवाहित होने वाले तनाव को
छोड़ आया था शहर की सीमा पर
पहाली नदी के सीने में चट्टानों की शृंखला थी
बांस की नाव पर जा रहे थे कुछ मांझी
झूम की खेती कर रही थीं गारो लड़कियां
पहाड़ी नदी की टीस सीने में लेकर लौट आया था।
भूमंडलीकरण के अश्व पर सवार होकर घृणा
भूमंडलीकरण के अश्व पर सवार होकर घृणा
नगर-नगर गांव-गांव घूमती फिरती है
रिश्तों को तब्दील कर देती है उत्पाद में
भावनाओं को तब्दील कर देती है सौदे में
भूमंडलीकरण के अश्व पर सवार होकर घृणा
इतिहास के चेहरे पर कालिख पोत देती है
मानवीय मूल्यों का कत्ल करती है
भाई को भाई का दुश्मन बना देती है
भूमंडलीकरण के अश्व पर सवार होकर घृणा
एक प्रांत को लड़ाती है दूसरे प्रांत से
एक जाति को दूसरी जाति से
राष्ट्र के भीतर पैदा करने लगती है कई छोटे-छोटे राष्ट्र।
पुस्तक मेले में सम्मोहित करती है पुस्तकें
पुस्तक मेले में सम्मोहित करती हैं पुस्तकें
मायावी रोशनी में घूमती हुई भीड़ का हिस्सा बनना
कितना सुखद लगता है
हर चेहरे पर पढ़ने की भूख लिखी होती है
आंखों में होता है कौतूहल का भाव
पुस्तक मेले में सम्मोहित करती हैं पुस्तकें
आवरण को पढ़ते हुए पन्नों को पलटते हुए
प्रदर्शित पुस्तकों पर नजरें दौड़ाते हुए
किसी दूसरी ही दुनिया में पहुंच जाते हैं लोग
जहां ज्ञान का समंदर लहरा रहा होता है
पुस्तक मेले में सम्मोहित करती हैं पुस्तकें
शब्दों का प्रदेश पुकारता है हमें
आओ भूलकर यथार्थ के दंश
आओ भूलकर गृहस्थी की टीस
हम तुम्हारे सीने में फैलाएंगे उजाला
जगत को देखने की दृष्टि देंगे।
एक हत्यारे शहर में वसंत आता है
एक हत्यारे शहर में
वसंत आता है
तो सिर झुकाकर चलता है
कायरता से कातर नजरों को
उठा नहीं पाता
चाय पी रहा इंसान
अचानक दो टुकड़ों में
विभाजित हो जाता है
वसंत उस तरफ देखता नहीं
अखबार में दूसरे दिन
नरमुंड की तस्वीर देखता है
पहाड़ियों से गोलीबारी की आवाज
सुनाई देती है
वसंत चौंकता नहीं
वह लहूलुहान झरने से अपना चेहरा धोता है
और पानी का रंग
बदल जाने पर
उसके भीतर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती
सुनसान बाजार में कोई लाश
मक्खियों से घिरी बाट जोहती है
वसंत लाश को लांघकर आगे बढ़ जाता है
उसे भयानक खामोशी और
बंद दरवाजों से कोई फर्क नहीं पड़ता
एक हत्यारे शहर में
वसंत आता है
तो गुलमोहर पेड़ों पर नहीं
खिलते
बल्कि सड़कों पर खिलते हैं
और रौंद डाले जाते हैं।
यह जो प्रेम है
शाम भी घायल हुई थी
बांसुरीवादक के विषाद से
बादलों ने रोकर जाहिर किया
अपना मातम
किसी की राह देख रही थी
रात
जिसे बिछाकर सो गया था
भिखारी
धुएं से सराबोर आबादी
के बीच भी
बचा हुआ था जीवन
हर मोर्चे पर चोट खाने के
बावजूद भी
आदमी भूल नहीं पाया था
प्रेम।
वसंत हमें अपने पंख दे दो
वसंत हमें अपने पंख दे दो
और आकाश हमें उड़ने दो
इस छोर से लेकर
उस छोड़ तक
हमारे अंगों को उज्ज्वल बनाओ वसंत
जैसे फूटते हैं कोंपल
खिलती हैं कलियां
रंग बिरंगी
हम ऊब चुकी हैं अपनी अट्टालिकाओं से
सुविधाओं से भौतिकता से
पालतू कुत्तों से नौकरों से
बगीचे की कृत्रिम हरियाली से
हमारी उत्तेजना का कोई पड़ाव नहीं
कामसूत्र से लेकर ब्लू फिल्म तक
हमारे सिलीकोन से भरे वक्ष
शल्यक्रिया से कसी गई योनि
संसार का सर्वश्रेष्ठ पुरुष हमें मिला नहीं
रुपए पैदा करने वाला यंत्र
हमें दबोचता है हर रात और
खामोश हो जाता है
नितंब और वक्ष की रेखाएं
अश्लील नहीं हैं जितनी अश्लील हैं
बाजार की निगाहें
समाज की नैतिकता
वसंत हमें तृप्त कर दो
अपने आलिंगन में कसकर
नसों में तेज कर दो
रक्त प्रवाह।
आबादी विषाद पी रही है
आबादी विषाद पी रही है
कदम कदम पर है
बारूदी सुरंग
अत्याधुनिक हथियारों का जखीरा
भूमिगत गुस्सा
लाशें पहचानी नहीं जातीं
चेहरे के भी होते हैं
अनगिनत टुकड़े
पहचानते हैं तो सिर्फ गिद्ध
जो आकाश से
उतरते हैं हुजूम बांधकर
बयान और जांच
जांच और रिपोर्ट
आयोग और कमेटी
सच और झूठ
देश इसी बासी
दिनचर्या में जीता है
हत्या के बाद तलाशी
और सुरक्षा के कड़े प्रबंध
चंद बेरोजगार युवकों की
गिरफ्तारी
फर्जी आत्मसमर्पण
और शांति का दिखावा
हिंसा की शराब उन्होंने ही पिलाई
उन्होंने ही उन्माद फैलाया
उन्होंने कहा देश उनकी जेब में
रहना चाहिए
उन्हीं के चेहरे पर मृतकों के लिए
शोक है
क्या अब बाजार में शोक का
मुखौटा भी बिकता है।
अवसाद
दुःख की पराकाष्ठा पर पहुंचकर
किस आघात की प्यास
अभी भी बनी हुई है
नागफनी के जंगल में
नंगे पैर दौड़ते रहे
सुख की तलाश में
प्रेम के बदले में
अपनी झोली में
बटोरते रहे घृणा
धातु नहीं था
न ही कोई
दुर्लभ रत्न ही था
फिर भी कसा गया था
कसौटी पर
पेशेवर जौहरी कहते रहे
पत्थर का टुकड़ा है
किसी ने प्रेम के बदले में
मांग लिया हृदय
किसी ने प्रेम के बदले में
मांग लिया
हृदय की स्वतंत्रता
रिक्त पात्र की तरह
इस देह में से
उड़ेल लिया गया
भावनाओं का
कतरा-कतरा
और कहा जाता है
रिश्तों का कर्ज चुकाते हुए
प्राण दे दो
उत्तरदायित्व के नाम पर
शहादत जरूरी है
आघातों की प्रतीक्षा में
रोम-रोम करुणरस के
अनुवाद बन गए हैं
नैनों में अवसाद रह गए हैं।
मुरझाई हुई फसल के भीतर
मुरझाई हुई फसल के भीतर कोई संभावना नही है
ठूंठ बन चुके पेड़ मुसाफिर को छाया नहीं दे सकते
सिद्धांतहीन समाज में बर्बर पशुओं का राज है
गरीबी की रेखा आत्महत्या के लिए सबसे मुनासिब जगह है
विचारधाराओं की लाश गिद्ध चबा रहे हैं
अघाए हुए चेहरों पर क्रूरता के भाव हैं
झुलसी हुई तितली की तरह वसंत तड़प रहा है
खुशहाली के सपनों पर प्रतिबंध घोषित है
नहीं देख सकेंगे बच्चे सपने नहीं देख सकेंगे
नहीं पूछ सकेंगे लोग सवाल नहीं पूछ सकेंगे
लहूलुहान कदमों से मुसाफिर नहीं चल सकेंगे
कीचड़ के भीतर स्वर्ग का दृश्य नहीं देख सकेंगे
बलिवेदी पर सिर रखकर हम नहीं मुस्करा सकेंगे
श्मशान में बैठकर उल्लास के गीत नहीं गा सकेंगे
गुलामी के आदी परिंदे खुलकर नहीं उड़ सकेंगे
हम जहर को अमृत समझकर नहीं पी सकेंगे
तय था पहले कि अंधेरा निर्वासित होगा
बंजर खेतों में भी बीज अंकुरित होंगे
पत्थर जैसे होंठो पर भी मुस्कान खिलेंगे
गोदामों में से लक्ष्मी बाहर निकल आएगी
सड़े हुए पानी को तालाब से निकाल दिया जाएगा
संविधान की किताब से आजादी बाहर निकलेगी
घुटनों के बल झुके हुए लोग सीधे खड़े होंगे
चूल्हें सुलग उठेंगे और आनाज का पर्व होगा
नदियों का सागर से मिलना तय किया गया था
मौसम पर सबका अधिकार तय किया गया था
फूलों का बेखौफ होकर खिलना तय किया गया था
झोपड़ी तक रोशनी का पहुंचना तय किया गया था
भावनाओं को सहेजकर रखना तय किया गया था
ईश्वर को दुकानदारी से अलग रखना तय किया गया था
पनघट तक प्यासों का जाना तय किया गया था
जीवन का जीवन जैसा होना तय किया गया था
विश्वास के साथ हमने अपना जीवन सौंपा था
हमने अंगूठे काटकर मतपेटी में डाल दिए थे
हम आश्वासन की शराब पीकर सो गए थे
हम विकास की धुन पर नाचने लगे थे
हमने गणतंत्र के सम्मान में सिर झुका दिया था
हमने बेहिचक हर आदेश-अध्यादेश माना था
हमने आस्था के साथ तिरंगे को चूमा था
हमने बुलंद आवाज में राष्ट्रगीत गाया था
इसके बावजूद जहर को नसों में घोला गया है
इसके बावजूद ईश्वर को चकले पर बेचा गया है
इसके बावजूद सत्य को संसद में दफनाया गया है
इसके बावजूद मजदूरों के हाथ काटे गए हैं
इसके बावजूद किसानों से हल छीने गए हैं
इसके बावजूद मांओं की मांगें उजाड़ी गईं हैं
इसके बावजूद चांदनी में तेजाब मिलाया गया है
इसके बावजूद हमें मनुष्य से कीड़ा बनाया गया है
और अब झूठ की पूजा इसी तरह जारी नहीं रह सकती
महलों में लक्ष्मी का नृत्य जारी नहीं रह सकता
ठंडे चूल्हों से लिपटे बच्चों की सांस जारी नहीं रह सकती
प्रयोगशालाओं में हमारी अंतड़ियों की जांच जारी नहीं रह सकती
राजनीति के चाबुक की फटकार आबादी बर्दाश्त नहीं कर सकती
बहू-बेटियों को निर्वस्त्र कर चौराहे पर प्रदर्शन जारी नहीं रह सकता
सुलगती हुई ज्वालामुखी को फटने से हरगिज रोका नहीं जा सकता।
रात
रात के ठंडे हाथों ने छुआ मुझे
स्याह होंठों पर फूटे अस्फुट बोल
बांसुरी की आवाज सो गई
कोमल सपनों की पंक्तियों ने कहा
चुनो अपनी इच्छा से चुनो
दूध की बारिश हवा महल की रोशनी
रात ने अपनी मांसल बांहें फैला दी
पेशेवर अंदाज में मुस्कराई
आओ आओ
समा जाओ
जख्मों से रिसते लहू को भूल जाओ
दिन ने जो बिखेरा था तुम्हें
गलियों में चौराहों पर
आओ समेट लूंगी
अणुओं को परमाणुओं को
वेदना को भावना को
रात ने भराई आवाज को
संयमित किया
और सुनाने लगी लोरी
चिड़िया ने आंखें मूंद ली
सड़क किनारे सो गए
मजदूर-भिखारी-कुत्ते
रात के ठंडे हाथों ने छुआ मुझे
और मैंने पराजय की पोशाक
उतार दी।
बारिश की प्रतीक्षा
सुबह उठते ही बारिश की प्रतीक्षा शुरू हो जाती है
पेड़ों को भी बारिश की प्रतीक्षा है
चिड़ियों को भी
झुलसे हुए पहाड़ों को भी
और सूखे हुए हृदय को भी
कहां से आते हैं बादल के टुकड़े
अठखेलियां करते हैं धूप के साथ
कहां चले जाते हैं
बादल के टुकड़े
शाम को कहते हैं
आज भी बारिश नहीं हुई
शायद कल हो
इसी आशा के साथ
उमस की नींद में गुम होने की
कोशिश शुरू हो जाती है
फिर सपने में दूध की बारिश का दृश्य
पेड़ों का झुरमुट और झरने
लहराते बाल और खिलखिलाहट का संगीत
ताजगी से भरपूर हवा।
जैसे तेज धूप में
जैसे तेज धूप में फैलती है पसीने की खुशबू
जैसे काले रंग का ईश्वर विश्वसनीय बनता है
जैसे रोटी छा जाती है समस्त विचारधाराओं पर
जैसे पीड़ा की छटपटाहट से विकृत होते हैं चेहरे
उसी तरह संशोधन होता है सभ्यता का संविधान बदलता है
अब अपनी इच्छा से मरना अपराध नहीं है
अब जीने के लिए वैसे भी अवसर नहीं है
न पहले की तरह धरती है न पहले की तरह मौसम है
श्मशान में उत्सव का शोर हो या राष्ट्रीय उल्लास हो
संसद में मजाक के साथ गरीबी को गेंद की तरह उछालते रहें
प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े की रस्सी पर जारी रहे नट का खेल
अब ताली बजाने की घड़ी है एक राष्ट्रव्यापी ताली
सपने में देवी दर्शन देगी और बलि मांगेगी
तुम अपने सबसे प्रिय व्यक्ति की बलि चढ़ाओगे
सपने में देवता आएंगे और सती बनाने का निर्देश देंगे
तुम अपने परिवार की स्त्री को जीवित सती बनाओगे
जो भी था मनुष्य की तरह था अब पशु की तरह भी नहीं है
हृदय में जंगल है सूनापन है और एकांत के आंसू हैं
अब हम एक मुट्ठी धूप लेकर अपने घावों को सेंकना शुरू करेंगे
पसीने की खुशबू से रात में महक उठेंगे रजनीगंधा के फूल।
लखीमपुर में कविता
बारिश रुकी हुई थी खेलामाटी में
हमारी अगवानी करने के लिए
बूंदों ने चूमा समूचे शरीर को
धुल गई सारी कलुषता
अरुणाचली महिला के चेहरे पर
खिले फूलों को देख रहा था
जो सड़क किनारे बैठी मनिहारन
के गले की ताबीज को छू रही थी
अब सो गए होंगे सारे पेड़
रात भर जो दुहरा रहे थे प्रार्थना
जिसे सुना रवींद्र बरा ने
सुना था नीलमणि फुकन ने
शहर भी नहीं गांव भी नहीं कस्बा भी नहीं
पगडंडियों ने कहा मुसाफिर
थोड़ी सी हरियाली अपने साथ ले जाओ
पतझड़ के मौसम में काम आएगी
जब कविता फैलने वाली थी सुगंध बनकर
तब पालकी से राजा उतरे और
उनके सिपाहियों ने घेर लिया इलाके को फिर
भाषण आश्वासन का दौर चला
समय पर शुरू नहीं हो सका कार्यक्रम
पर गुलाल की तरह पुती हुई थी कविता
मासूम चेहरों पर जिनकी आंखों में
चमक रही थी कविता सिर्फ कविता
और ब्रह्मपुत्र का उत्तरी छोर है
जहां अंधेरा है विषाद है और
कागजी फूल जैसी आजादी है और
कविता कोमल हथेलियों में चिंगारी की तरह है।
गणतंत्र में मौत
आखरी बार वह कातर स्वर में चीखा था, मां
तब शाम उतर रही थी जब एक
वाहन में उसे ठूंस कर ले जाया गया था
वह एक सुबह थी
जब उसकी लाश क्षत-विक्षत हालत में सड़क पर पड़ी थी
अलग-अलग आशंका और अंदाजा की कसौटी पर
हत्या के प्रति हम बनाते हैं दृष्टिकोण
हमने बाजीगरों को देखा है जो
हवा में हाथ लहराकर शांति और सद्भाव
पैदा करते हैं और फिर गायब कर देते हैं
तांत्रिकों को देखा है जो
हर मृत्यु की सूचना पर भावविहीन होकर
तस्वीरें खिंचवाते हैं और
रोगियों का इलाज झाड़फूंक कर करते हैं
गतणंत्र अब तांत्रिकों के लिए ही बचा है
जो जानते नहीं तंत्र या मंत्र
जो पूछते हैं असाधारण सवाल
जो भूख और सरकार के बारे में
पैदा करते हैं संशय
उन्हें इसी तरह एक एक कर
घर से खींचकर बाहर किया जाता है
मुर्दागाड़ी में ठूंस दिया जाता है।
बंद
छत्तीस घंटे तक लुप्त रही चेतना
तेज बुखार से तपता रहा शरीर
अवचेतन दिमाग में घूमते रहे
भूखे बच्चे कुली मजदूर किसान
सड़क किनारे बैठे भिखारी
तकिए की जगह दस्तखत किया हुआ
एक बयान
जिस पर चमकते रहे खून के छींटे
दिमाग में घूमती रही तस्वीर
क्षत-विक्षत पांच शव और
तिरंगा झंडा
खाकी वर्दी और आधुनिक हथियार
एक खामोशी में लिपटा रहा शरीर
सहमने का डरने का चुप होने का
यह मौसम नहीं था
अभी अभी तो आया था वसंत
धोया था ब्रह्मपुत्र के जल में पैर
अभी-अभी तो उसने हृदय को छुआ था
वह भी लपटों से झुलस ही गया होगा
वह नहीं जानता भूगोल
राजनीति अर्थशास्त्र और कूटनीति
इस चेतना का क्या करें
जो एक टीस की तरह है
इतना सारा दर्द लेकर
नहीं मुस्करा सकते हैं
बुरा मानेगा वसंत, माने
बुखार चला गया
छोड़ गया है चिड़चिड़ापन
कष्ट सहने की शक्ति बढ़ गई है।
सहजता आती नहीं
मैं भी आपलोगों की तरह सहज होना चाहता हूं
चाहकर भी हो नहीं पाता
मरघट में आपलोगों के साथ
उत्सव में शरीक नहीं हो पाता
कितनी सहजता से चलती है
आपलोगों की जिंदगी
सुबह भीमसेन जोशी की भैरवी
सुनते हुए चाय और सैंडविच
अखबार की सुर्खियां
देश पर हल्की फुल्की चिंता
दोपहर में माया का विस्तार
और माया का संकुचन
शाम को पंडित जसराज का गायन
और अंग्रेजी पत्रिकाओं के पृष्ठों पर
मुर्दों की भंगिमाओं कानिरीक्षण
चाय की प्याली के साथ
औपचारिक बातचीत
भोजन की मेज पर
विटामिन और कैलोरी की सजावट
गुलाम अली की गजल के साथ
नींद की बांहों में समा जाने की प्रक्रिया
किस कदर सहज है
जो सहजता मुझे नहीं आती
क्षमा कीजिएगा
मैं आपलोगों की तरह
नहीं बन सकता सर्द संवेदनशून्य
बुत की तरह।
सुनहरा सपना
आपके पास देश के लिए सुनहरा सपना है
कैमरे के सामने बैठे हैं आप
पढ रहे हैं हमलोगों के भाग्य का लेख
आपके सामने एक गिलास पानी है
और अगल-बगल में संतरी या दरबारी हैं
हम आपकी तस्वीर देखते हैं
आप हमारी पहुंच से बहुत दूर हैं
आपने बढ़िया सूट पहन रखी है
अच्छे संवाद रट रखे हैं
शेरो शायरी का भी ठीक से रियाज किया है
आप शोक की बातों में भी हल्कापन लाने के लिए
मिला देना चाहते हैं मनोरंजन
आपके पास अर्थतंत्र है
जिसे आपके सहोदरों ने
चूसा है बटोरी है मलाई
और फेंक दी है जूठन हमारे लिए
आपके वक्तव्य से
और जटिल हो जाएगी हमलोगों की जिंदगी
आप थपथपाएंगे अपनी पीठ
अपने आला दिमाग और जुबान पर
इतराएंगे आप
और हम राशन की खोज में
किरासन की खोज में
भटकते फिरेंगे अश्वत्थामा की तरह
वह जो सुनहरा सपना आप हमें दिखाते हैं
उससे मौज मनाएंगे आपके सहोदर ही
आपने प्रशस्त कर दिया है मार्ग
हमारा कौर छीनने का मार्ग
हम कैसे बजाएं ताली
अपनी बदहाली की भविष्यवाणी सुनकर।
आऊंगा आपके पास
खरोंचों की वजह से टपकते हैं लहू
इतना घायल है भीतर का हिस्सा
जहां अनुभूतियों का जन्म होता है
आपकी मुस्कराहट से पोंछता हूं जख्म
तरोताजा हो जाता हूं
मैं वृक्ष नहीं हूं न ही सागर न ही चट्टान
मनुष्य होने की सीमाओं को जानता हूं
दौड़ते हुए गिरते हुए उठते हुए
हताशा से गंदा होता है वजूद
आप के पास धोता हूं वजूद
इतनी निर्मल हैं आप
जैसे जलधारा हों
मैं आपके दामन में सिर छिपाकर
काट नहीं सकता उम्र
मुझे और भी मोर्चे पुकारते हैं
इतनी कोमलता परोसती हैं आप
भीतर का पाषाण पिघलने लगता है
और मैं खुद को विश्वास दिलाता हूं
कि नहीं मैं कमजोर नहीं हुआ हूं
भीगे हुए आंखों के कोर मैं जतन के साथ
सबसे छिपा लेता हूं
इसी तरह लड़ते हुए
जख्मी होकर
आऊंगा आपके पास
धोऊंगा अपने घाव
बटोरूंगा निर्मलता
और आपका निश्छल प्रेम।
गणतंत्र के देवता से संबोधित
तुम लोग गुप्त मंत्रणा करो
महल के गुप्तकक्ष में बैठकर
प्रजा भूख से बिलबिलाती रहे
नील गगन के तले
रातें गुजारती रहे
तुमलोग जारी रखो मंत्रणा
अपने खुफियातंत्र को
और विकसित करो
और लंबी करो वह सूची
जिनमें विरोध करने वालों के
नाम दर्ज हैं
एक-एक को निकालो घर से
मार दो किसी चौक पर गोली
घोषणा कर दो
और एक मुठभेड़ में मारा गया
तुम्हारा आतंक फैलते हुए
हृदय-हृदय में समा जाए
गोली की तरह
तुमलोग दावत खाओ
खून और मांस का निर्यात करो
बना दो एक राष्ट्र को
गैस चेंबर
कीड़े-मकोड़े की तरह
मरते रहें हम
घुट घुटकर
मरघट पर राज करो
लाशों के सिंहासन पर बैठो
हे गणतंत्र के देवता!
खारघुली में एक दिन
(अवनी चक्रवर्ती के लिए)
कविता की फर्श थी कविता की छत थी
इर्द-गिर्द थी सिर्फ कविता
ऐसा दिनचर्या की शुष्क कोठरी से निकलकर
कभी-कभी होता है
जब भावनाओं में जीते हैं हम
जो तनाव भीतर था
और शहर में था
उससे बेखबर थी लेटी हुई पहाड़ियां
धूप सेंकती हुई नदी
समतल की आबादी और चीख से अलग
किसी पवित्र टापू पर
हमलोग पी रहे थे कविता की शराब
हौले-हौले गा रहे थे
जगजीत सिंह पॉल राब्सन
सुमन बनर्जी मेंहदी हसन
सामने की पहाड़ी पर गा रही थी कोयल
चारमिनार सिगरेट की राख बनकर
हमारे सामने झड़ रहा था समय
काफ्का की जटिलता पर हमने बात की
कस्बों-गांवों में मिट्टी में सनी हुई
लोककथाओं का जिक्र हुआ
के सच्चिादानंद का प्रेमगीत वक्त की लपटों से
झुलसा हुआ था
पहाड़ पर बनी कच्ची सीढ़ियों पर चढ़ते हुए
शहरी जिंदगी की आदत के मुताबिक हांफने लगा
किलेनुमा हवेलियों को देखा
जो पहाड़ों को छीलकर जख्मी कर
स्थापित किए गए हैं
कविता छककर पीने के बाद
और कोई प्यास नहीं बची थी
परोस दिया गया था भोजन
हम गोधूलि का एक हिस्सा बनकर
चढ़ते रहे घुमावदार सीढ़ियों पर
फिर उतरते रहे
नवग्रह मंदिर के सामने से
शाम औ शहर के सीने में।
मधुबनी चित्रकला
बादल ने तुम्हारे चेहरे को चूमकर
दामन निचोड़ दिया
सूखी नदियां
जीवित हो उठीं
पके फल ने तुम्हारी गंध
को समेट लिया
अपने भीतर
वृक्ष ने धरती को उपहार दिया
अस्सी कोस की दूरी पर
किसी ने जलाया चिराग
सोहर और समदाओन की धुन
सुनकर देवता मुग्ध हो गए
किसान ने हल चलाया
बीज बोया
खेत को सींचा
माटी से तुम अंकुरित हुई
कच्ची मिट्टी की दीवार पर
तुम्हारा विषाद
आंसू और मुस्कान
बन गए मधुबनी चित्रकला।
सूखे वृक्षों की प्रार्थना
सूखे वृक्षों की प्रार्थना हरियाली के लिए हैं
सूखे खेतों की प्रार्थना बरसात के लिए है
भूखे बच्चों की प्रार्थना अनाज के लिए है
सूने हृदय की प्रार्थना सुकून के लिए है
अब मौसम छिपाए जाते हैं तहखानों के भीतर
अब सिंचाई विभागीय कागजों में खो जाती है
अब अनाज सड़ जाते हैं गोदामों के भीतर
और घुटन की कैद में सिसकता है सुकून
मुस्कराहट की बिजली भी नहीं कौंधती
आंखों से बरसात भी नहीं हो पाती
कायदे से सीधा खड़ा भी नहीं हुआ जाता
घुटनों के बल पूरी आबादी घिसट रही है
सबके पास मीठे वायदे हैं और सुनहरे सपने हैं
एक अदद देश है नक्शा है और इतिहास है
संविधान है गोली है लाठी है कानून है
वर्दी है हिस्सा है रिश्वत है अनुदान है
वृक्षों की तरह एक ही स्थान पर खड़े रहकर
चट्टान की तरह अपनी जुबान को सीकर
खेतों की तरह दरारों की पीड़ा सहकर
अब तुम कब तक स्वयं को जीवित कह सकोगे।
हरियाली ओढ़कर
हरियाली ओढ़कर छिपा नहीं सकता वसंत
अपना पीला चेहरा जो बुखार के मरीज की तरह
थका थका सा है
अधिक देर तक देखा नहीं जा सकता वसंत का चेहरा
पीलापन कचोटने लगता है हृदय को
अब हम एक नींद का आशा में बिस्तर पर फैल जाएंगे
और मौसम के सपने देखेंगे
सफेद पर्वतमाला से प्रवाहित दूध का झरना देखेंगे
लहलहाती हुई फसल देखेंगे
सरसों के फूल देखेंगे
बारिश की बूंदों में भींगते हुए हम
उल्लास के साथ वृक्षों के बीच
नृत्य का सपना देखेंगे
फिर एक घड़ी हमें पुकारेगी
जब एक घुटन हमारी प्रतीक्षा में बैठी होगी
हमारे सिरहाने में
और जैसे कोई पुराना कर्ज वसूल रहा हो
वैसे ही एक पीले रंग का दिन
दरवाजे और रोशनदान से हमें
आवाज दे रहा होगा
जैसे तलुए में चुभती हैं फटे जूते की कील
वैसी ही एक दिनचर्या
फुसफुसाएगी कानों में
अब समय है कि वसंत आएगा
पैबंद लगी हरियाली को ओढ़कर
सामने बैठकर मुस्कराएगा
तब बुखार से तप रहा होगा उसका
समूचा शरीर
कांप रहे होंगे उसके हाथ
धीरे-धीरे गंवाता जाएगा वह अपना होश।
पहले आपकी आदमकद प्रतिमा बनाएंगे
पहले आपकी आदमकद प्रतिमा बनाएंगे
फिर भव्य समारोह आयोजित कर
आपका अनावरण करेंगे
आपकी याद में पत्थर पर शिलालिपि लिखेंगे
किसी सड़क किसी गली किसी पुल का नाम
आपके नाम पर रख देंगे
आपकी समाधि बगीचे में बनाएंगे
संगमरकर के खूबसूरत पत्थर लगवाएंगे
आपकी समाधि पर चढ़ाए जाएंगे फूल
जिन्हें मुरझाने के बाद फेंकने के लिए तैनात होगा माली
आपकी तस्वीरें संग्रहालय में प्रदर्शित करेंगे
बचपन किशोरावस्था और यौवन की भंगिमाएं
आपकी याद में बहाए जाएंगे नकली आंसू
आपके विचारों को सभ्यता के दीमक चाटते रहेंगे
आप अपनी महानता के बोझ से दब जाएंगे
इस कदर दब जाएंगे कि
बची रह जाएगी
प्रतिमा, समाधि या तस्वीरें।
किरासन के बारे में
रात भर दौड़ता रहा अश्वत्थामा
कंक्रीट के जंगल में इस छोर से उस छोर तक
किरासन की तलाश में
खाली पीपा हाथ में लटकाए
अश्वत्थामा की अंतड़ियां भूख से ऐंठ रही थी
देवलोक में भी किरासन नहीं था
पाताल लोक में भी किरासन नहीं था
मर्त्यलोक में भी किरासन नहीं था
ब्रह्मांड घूमकर भी एक बूंद किरासन
तलाश नहीं पाया अश्वत्थामा
झोपड़ी में उपेक्षित पड़े थे अनाज
बिलख रहे थे छोटे-छोटे जीव
जो नहीं जानते थे कुछ भी
तेल कुएं के बारे में
मुक्त अर्थनीति के बारे
बाजार के गणित के बारे में
अश्वत्थामा की जेब में रुपए थे
पर दुकानों में किरासन नहीं था
नुक्कड़ की औरत के पास भी
किरासन नहीं था जिसके पति को
पुलिस पकड़कर ले गई थी
जिसकी आंखें रोते-रोते सूज गई थी
जिसकी आवाज फंस गई थी गले में
किरासन के बारे में देवताओं का
बयान भी अखबार के भीतरी पन्ने
पर छपा कि समुद्र मंथन से
एक बूंद भी किरासन हासिल नहीं हुआ
किरासन के लिए सुर-असुर संग्राम
भी नहीं हुआ- न ही देवलोक में
छिपाकर रखा गया एक बूंद किरासन
किरासन के बारे में कोई चर्चा नहीं थी
संसद में मयखाने में कोठे पर कोई भी
किरासन के बारे में कुछ कहने के लिए
तैयार नहीं था कि किरासन के बगैर
कैसे जिएगा अश्वत्थामा कैसे सुलगेगा स्टोव
जबकि कोयला और लकड़ी और रसोई गैस
का वैकल्पिक प्रबंध है फिर किसलिए
किरासन को मुद्दा बनाया जा रहा है
विपक्ष ने कहा किरासन आम आदमी के
जीने के लिए जरूरी चीज है
पक्ष ने कहा कि आम आदमी के लिए
भाषण-आश्वासन का पर्याप्त इंतजाम है
और कागज पर किरासन की नियमित
आपूर्ति की गई है विश्वास न हो तो
तेल निगम से पूछ लें
अश्वत्थामा जिससे भी मिला सबसे पहले
किरासन के बारे में पूछा
सभी ने उसे गौर से देखा और
किसी ने भी नहीं बताया किरासन का पता
अश्वत्थामा को हर राहगीर एक खाली पीपा
नजर आया जो महीनों से या वर्षों से
खाली पड़ा है सूख चुका है
अश्वत्थामा को कालाबाजार का सुराग मिला
वह मीना बाजार, कपड़ा बाजार, बर्तन बजार को
पारकर भी पहुंच नहीं पाया वहां जहां
संभ्रांत चेहरे मौजूद थे जो किसी आपूर्ति मंत्री
किसी आपूर्ति विभाग के अफसर किसी दलाल
किसी पेट्रोल पंप के मालिक किसी सड़कछाप गुंडे
के चेहरे थे जो किरासन से नहाए हुए थे
दौड़ते-दौड़ते थक गया अश्वत्थामा
पीपा साथ लिए सड़क किनारे लुढ़क पड़ा अश्वत्थामा
खाली पीपा को पकड़कर रोता रहा अश्वत्थामा
किरासन की याद में आंसू बहाते हुए
अश्वत्थामा ने थूका राष्ट्र के माथे पर
अश्वत्थामा ने थूका मुक्त अर्थनीति पर
अश्वत्थामा ने थूका संभ्रांत चेहरों पर
किरासन का सपना देखने के लिए
गहरी नींद में सो गया अश्वत्थामा।
स्त्री वेद पढ़ती है
स्त्री वेद पढ़ती है
उस मंच से उतार देता है
धर्म का ठेकेदार
कहता है
जाएगी वह नरक के द्वार
वह कैसा वेद है
जिसे पढ़ नहीं सकती स्त्री
जिस वेद को रचा था
स्त्रियों ने भी
जो रचती है
मानव समुदाय को
उसके लिए कैसी वर्जना है
या साजिश है
युग-युग से धर्म की दुकान
चलाने वालों की साजिश है
बनी रहे स्त्री बांदी
जाहिल और उपेक्षिता
डूबी रहे अंधविश्वासों
व्रत-उपवासों में
उतारती रहे पति परमेश्वर
की आरती और
खून चूसते रहे सब उसका
अरुंधतियों को नहीं
रोक सकेंगे निश्चलानंद
वह वेद भी पढ़ेगी
और रचेगी
नया वेद।
बुरा वक्त
होंठ फटकर बहता है खून
विषाद दौड़ता है धमनियों में
चौबीस घंटे
सुलगती रहती हैं आंखें
बुरा वक्त है
पैरों में चुभती है
फटे हुए जूते की कील
वेष बदलकर कर्जदाता
हरेक मोड़ पर दामन पकड़ते हैं
बुरा वक्त है
बैरंग चिट्ठियों में
आती हैं बुरी खबरें
हर दस्तक कलेजे को
जख्मी कर देती है
बुरा वक्त है
कीचड़ से सनी हुई पतलून
सिगरेट की राख से
कमीज में सुराख
फटी हुई जुराबें
जेब में जरूरत की चीजों की सूची
बुरा वक्त है
बुखार से तपती है
फूल जैसी कोमल बच्ची
रात भर सिहरता रहता हूं
सर्दी की बारिश में
भीग रहे अनाथ बच्चे की तरह
बुरा वक्त है
बुदबुदाना चाहता हूं कविता
पर कविता की जगह
मुंह से निकलते हैं
अजीब शब्द जैसे
रोटी, किरासन, दवा...
बुरा वक्त है
मुस्कराने की कोशिश में
इस कदर बिगड़ जाता है चेहरा
लोग विदूषक समझ लेते हैं
दयनीय भंगिमा पर
ठहाके लगाते हैं
बुरा वक्त है
शव की तरह सर्द
आत्मदया से झुका हुआ सिर
दर्द से बिलबिलाते हुए भी
चुप्पी साधनी पड़ती है
बुरा वक्त है
गणित की सीढ़ियां चढ़ता हूं
फिसलता हूं
चोट खाकर भी
बेहयाई के साथ कहता हूं-
कुछ हुआ नहीं
बुरा वक्त है
युद्धविराम खत्म होने से पहले
ही आक्रमण शुरू हो जाता है
दुख को
युद्ध की नीतियों से
कोई लेना-देना नहीं होता
बुरा वक्त है
पत्नी के चेहरे पर
अपने दहशतजदा चेहरे की
परछाई देखता हूं
जिसकी खामोशी तेजाब की तरह
फैल जाती है समूचे वजूद पर
बुरा वक्त है
आशावाद का टूटा हुआ आइना
विकृत तस्वीर दिखाता है
हताशा के जबड़े में अपने
सपनों को छटपटा कर
दम तोड़ते देखता हूं
बुरा वक्त है
इसीलिए उदासी
मेरी बांहों में बांहें डालकर
अंधेरे रास्ते पर
चल रही है
इसीलिए
अदृश्य शत्रुओं के शिविर में
उत्सव का माहौल है और
चक्रव्यूह का सातवां द्वारा बंद है।
भूलने की आदत ठीक नहीं
भूलने की आदत ठीक नहीं
फिर भी
एक के बाद एक घटनाएं-
दुर्घटनाएं
भूल जाता हूं
दर्द से बेहाल होकर गाने वाली
चिड़िया का नाम
रातभर किसी को
आवाज देने वाली
चिड़िया का नाम
भूल जाता हूं
शरत में खिलने वाले
उस फूल का नाम भी
याद नहीं रहता
जो सुबह होते ही
मिट्टी में मिल जाता है
भूल जाता हूं
प्रेम के क्षण
घृणा के क्षण
क्रोध के क्षण
जिन क्षणों की याद में
सम्राटों ने
संगमरमर के स्तंभ बनाए
ऐसे समस्त असाधारण क्षणों को भी
भूल जाता हूं
जिन शब्दों की शक्ति ने
जीवन को उज्ज्वल बनाया
और सपनों की दुनिया
रचने की क्षमता दी
उन शब्दों को भी
भूल जाता हूं
लोग घाव को भूल जाते हैं
शत्रुता को भूल जाते हैं
कर्ज को भूल जाते हैं
कर्त्तव्य को भूल जाते हैं
संबंधों को भी भूल कर
अर्जित करते हैं सुख
परंतु मैं सुख के लिए
आत्मतृप्ति के लिए
भूल नहीं पाता
दिनचर्या की नागफनी की टीस
अर्थशास्त्र के विकराल जबड़े
की ज्यामिति
जब तक चेतना है
तब तक ही
हां तब तक ही
शल्यक्रिया का आतंक है
नशे की अवस्था में
नींद की अवस्था में
स्मृति सो जाती है
चेतना है तो दर्द है
यही वजह है कि
देश भूल जाता है इतिहास को
परंपरा को
संस्कृति को
आबादी भूल जाती है-
भूख-प्यास-निरक्षरता-रोग
वोट-नोट-लोकतंत्र-लाठीतंत्र
घर से निकलने पर
रास्ता भूल जाता हूं
परचून की दुकान जाना
भूल जाता हूं
मित्रों को नववर्ष की बधाई देना
भूल जाता हूं
शत्रुओं के चेहरे
भूल जाता हूं
भूलने की आदत ठीक नहीं
फिर भी
जल्दबाजी में
जीवन की आपाधापी में
अपने आपको
भूल जाता हूं।
हरियाली
हरियाली ने आमंत्रित किया
समा जाओ
मुक्त हो जाओ
घृणा से
होड़ से
विकृतियों और आडंबर से
हरियाली ने मेरे चेहरे का पीलापन
यत्न से साफ किया
जैसे जख्मों पर रख दे
कोई मरहम
जसे लंबे सफर के दौरान कोई
तर कर दे गले को
शीतल जल से
बुदबुदाते रहे प्रार्थना के बोल
कतार में खड़े वृक्ष
और नाविक के गीत सुनकर
विह्वल होती रही नदियां
मिट्टी ने पैरों को चूमा
मां की तरह
फफोले
गायब हो गए
हरियाली के नशे में
डूबा हुआ मैं
कंक्रीट के जंगल का मुहावरा
भूल गया हूं।
विषाद की कविता
विषाद के कंधे पर
सिर रखकर फुसफुसाता हूं-
कहीे आप को खबर न हो जाए
किस कदर उदास हूं मैं
किस कदर
टूटा हूं मैं
वीरान पगडंडी पर
पैदल चल रहा हूं
हवा कानों में कहती है-
कितना कुछ बदल गया है
तुम भी क्यों नहीं बदलते?
पीड़ा को लेकर
कैसे मैं आपके पास आऊं?
आपकी खुशियों की कालीन
मैली हो जाएगी
धुंधले हो जाएंगे
खुशहाली के चित्र
बोझिल हो जाएगा
आपके दावतखाने का माहौल
यहां ठीक है
अपने सलीब को
लटकाकर अपने कंधे पर
घिसटता रहूं मैं
जब तक साहस है
जब तक दम है
फिर आप शोध करें
पद चिन्हों पर
लहू के धब्बों पर
महानता पर
अवदानों पर
कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
पहली तारीख की कविता
महीने की पहली तारीख की कविता में
पिछले महीने का बकाया
अवसाद होता है
समय पर नहीं चुकाए गए
कर्जों की चिंता होती है
एक साथ अनगिनत
भावनाओं का
उतार-चढ़ाव होता है
महीने की पहली तारीख की कविता में
जीवन की विकृति-सी
परिभाषा होती है
अपनी धाराएं गंवा देनेवाली
नदियों की करुण पुकार होती है
किसी प्यासे मुसाफिर की
थकान होती है
समय की लंबी आह होती है
महीने की पहली तारीख की कविता
रोजमर्रा की जरूरत की चीजों की
सूची में तब्दील हो जाती है
गृहस्थी के दबाव से कांपते रहते हैं
समस्त स्नायुतंत्र
मस्तिष्क की कोशिकाओं में
विचारधारा के साथ
अर्थतंत्र के विषाणु का
संघर्ष तेज हो जाता है।
भावहीन चेहरों के जंगल में
भावहीन चेहरों के जंगल में
विचारधाराओं की
भ्रूणहत्या होती है
पशुओं के पास
कोई विचारधारा नहीं होती
लहू और मांस का सेवन कर
पशु तृप्ति के डकार लेते हैं
घिनौने अवसरों को झपटने के लिए
पाखंड रचा जाता है
बयान दिए जाते हैं
समितियां गठित होती हैं
अदृश्य नाखूनों से
सपनों के कोमल अंग
नोचे-खसोटे जाते हैं
रीढ़ गंवाने के बाद
सीधे होकर
लोग चल नहीं पाते
प्रस्तावों के कंकड़ फेंककर
सड़े हुए पानी के तालाब में
कोई हलचल पैदा नहीं की जा सकती
किसी खंडहर की ईंट की तरह
आबादी
वीरानी का शोकगीत
सुनती रहती है।
मिट्टी के प्यार में
मिट्टी के प्यारे में
तिल-तिलकर जलता है जीवन
बारुद की गंघ से
बौराती है हवा
मतपेटियों से बाहर
निकलता है
अपाहिज भविष्य
नपुंसक वर्तमान का सिर
घुटनों के बीच झुका रहता है
अध्यादेशों से
सुलगते नहीं चूल्हे
अधिनियमों से
बुझती नहीं भूख
संविधान के सपने
देखते हुए
पीढ़ियां खप जाती हैं
संविधान के आदर्श
महलों में
मुखौटे पहनते हैं
मिट्टी के प्यार में
मिट्टी के पुतले
सोने जैसे जीवन को
मिट्टी में मिलाने से
नहीं हिचकते।
चेहरे पर भूख के हस्ताक्षर थे
चेहरे पर भूख के हस्ताक्षर थे
इसलिए
सामूहिक रूप से पारित किया गया
भर्त्सना का प्रस्ताव
सलाह दी गई
संभ्रांत लोग नजर झुकाकर चलें
नाक पर रख लें रूमाल
काला चश्मा पहनें
पुटपाथों पर मक्खियों से घिरी
लाश हो
या अद्धमूर्च्छित नरकंकाल हो
द्रवित होने की जरूरत नहीं है
अपनी दया अपनी करुणा
अपने लिए बचाकर रखें
वसीयत में
बच्चों के नाम लिख जाएं
गौर नहीं करें-
वातानुकूलित रेस्त्रां के शीशे पर
चेहरे गड़ाए खड़े
कीड़े-मकोड़े पर
प्रस्ताव की प्रतिलिपियां
जेब में हमेशा रखें
और नंग-धड़ंग आबादी से
खुद को दूर रखें
चेहरे पर भूख के हस्ताक्षर थे
इसीलिए
मनुष्यों की कतार से
खारिज हुए मनुष्य।
विषाद ने चेहरों को चूमा था
विषाद ने चेहरों को चूमा था
अकालग्रस्त खेतों की दरारों की तरह
कांप उठे थे होंठ
रात भर वे लोग प्लेटफार्म पर
गाते रहे थे प्रार्थना
जो गंगा नहाने गए थे
‘पाप कटे- दिन फिरे’
इसी तरह की कामना में
तिल-तिल कर
जलाते रहे जीवन
वे मेरे लोग थे-
जिन्होंने धरती को उर्वर बनाया
जिन्होंने बीज का आविष्कार किया
जिन्होंने फसल उपजाई
जिन्होंने बादल की पूजा की
लोकतंत्र के गुलाम-
हर पांच साल बाद अंगूठा काटकर
मतपेटियों में डालते रहे
अपने सपनों से
अपने सहज-सरल जीवन से
कटते रहे-सहते रहे।
धरती हंसेगी
पगडंडियों ने फुसफुसाकर कहा
मुसाफिर
अपनी थकान सौंप दो
बारिश में भींगने वाली चिड़िया की तरह
तरोताजा होकर
आगे बढ़ो
अमराई ने कहा
हृदय में भर लो
गंध-मिठास-नशा
बुरे वक्त में
जीने के लिए
इनकी जरूरत पड़ेगी
फसल ने कहा
गौर से देखो मुझे
मेरे ही प्यार में
जलता है धरती का जीवन
मैं ही हूं
तुम्हारी कविता में
मेरे लिए ही
इतना हाहाकार
इतने सारे समझौते
इतने सारे युद्ध
मैंने गहरी सांस लेकर
जीवन से कहा-
थका भी नहीं हूं
टूटा भी नहीं हूं
सिर्फ कड़वाहट बढ़ गई है
चिड़चिड़ापन बढ़ गया है
तनाव से शिराएं फूलने लगी हैं
मगर
एक विश्वास कायम है कि
तस्वीर बदलेगी
धुंध छंटेगी
धरती हंसेगी।
अंत में बचेगा पश्चाताप
अंत में बचेगा पश्चाताप
जीवन से
कोई शिकायत नहीं रहेगी
न ही समय पर
आरोप लगाया जा सकेगा
पश्चाताप के आंसू
धो डालेंगे
घाव-खरोंच-दर्द
दायित्वों के सामने
पराजय से झुका हुआ सिर
शर्मिंदगी से भारी पलकें
साजिशों के हथियार
इक तरफ उपेक्षित पड़े रहेंगे
झूठ के बने मुखौटे
दीवारों पर लटकते रहेंगे
अंत में बचेगा पश्चाताप
एक युद्ध
जो लड़ा नहीं गया
और निर्णय सुना दिया गया।
वर्ष की अंतिम कविता
वर्ष की अंतिम कविता
बुदबुदा रहा हूं
बटोरना चाहता हूं
कुछ दिलफरेब शब्द
चिपकाना चाहता हूं
चेहरे पर एक प्रायोजित मुस्कान
जख्मों का हिसाब
आज की रात भूल जाना चाहता हूं
भूल जाना चाहता हूं-
प्याज की कीमत
किरासन की कालाबाजारी
ठंडे चूल्हे की प्रार्थना
पांडुलिपियां कुतर रहे
चूहों को
भूल जाना चाहता हूं
घिनौने खलनायकों के चेहरे
जी टीवी के परदे से लेकर
दीवारों के पोस्टरों में साल भर
बेहयाई के साथ
मुस्कराते रहे
देश को गेंद की तरह
उछालते-खेलते रहे
वर्ष की अंतिम कविता में
दार्शनिकता घोलने की
कोशिश करता हूं
शरणार्थी शिविर में
भूखों मर गए हैं चौबीस बच्चे
सरकारी दफ्तर में वेतन न मिलने पर
एक कर्मचारी ने
विषपान कर लिया है
कितने जवान सपने
मुठभेड़ों में मारे गए हैं
इन सब विवरणों को
काश! भूल पाता
तो आपकी तरह
मुरदे जैसी खामोशी ओढ़कर
चुप ही रहता।
दिनकर कुमार
जन्म : 5 अक्टूबर, 1967, बिहार के दरभंगा जिले के एक छोटे से गांव ब्रहमपुरा में।
कार्यक्षेत्र : असम
कृतियां : तीन कविता संग्रह, दो उपन्यास, दो जीवनियां एवं असमिया से पैंतालीस पुस्तकों का अनुवाद।
सम्मान : सोमदत्त सम्मान, जस्टिस शारदाचरण मित्र स्मृति भाषा सेतु सम्मान, जयप्रकाश भारती पत्रकारिता सम्मान एवं शब्द भारती का अनुवादश्री सम्मान।
संप्रति : संपादक, दैनिक सेंटिनल (गुवाहाटी)
संपर्क : हाउस नं. 66, मुख्य पथ, तरुणनगर-एबीसी, गुवाहाटी-781005 (असम),
ई-मेल : dinkar.mail@gmail.com
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