मैं बबली हूँ बुधवार का दिन था और सवा दस बजे का समय । इतने में ताज एक्सप्रेस आकर राजा की मंडी स्टेशन पर पर खड़ी हो गई। वहाँ गाड़ियों में बि...
मैं बबली हूँ
बुधवार का दिन था और सवा दस बजे का समय। इतने में ताज एक्सप्रेस आकर राजा की मंडी स्टेशन पर पर खड़ी हो गई। वहाँ गाड़ियों में बिना टिकट लोगों की धर-पकड़ चल रही थी। स्क्वॉड टीम के सदस्य इतने सतर्क और सजग थे कि क्या मजाल कोई चिड़िया पर भी मार सके। स्क्वॉड मेंम्बर पूरे प्लेटफार्म पर घात लगाकर इधर-उधर खड़े थे। कोई भी धोखेबाज मुसाफिर उनकी आँखों में धूल -झोंककर भाग न जाय। इसलिए स्टेशन पर भारी तादाद में रेल सुरक्षा बल और राजकीय रेलवे पुलिस के जवान भी तैनात थे। वे बड़ी मुस्तैदी से अपना काम कर रहे थे। उनकी पैनी नजर से चोर-उचक्कों का बचकर नौ दो ग्यारह होना बड़ा दुष्कर था।
वे स्टेशन के आस-पास सैर और तफरीह करने वाले उठाईगीरों को दौड़ा-दौड़ाकर खूब धुनाई करते। इतनी चौकसी के बाद भी कभी-कभी कुछ लोग बिना टिकट और बिना किसी आरक्षण के ही सफर करने को उतारू हो जाते हैं। प्लेटफार्म पर ताज एक्सप्रेस में छानबीन चल ही रही थी कि पाँच-छः लड़के सुरक्षा कर्मियों पर नजरें गड़ाए पिछले जनरल कोच से उतर कर भागने की फिराक में गेट पर अटके खड़े थे। उन पर निगाह पड़ते ही पुलिस वालों के कान खड़े हो गए।
वे पहले से अधिक चौकन्ना हो गए और लपककर बोगी के गेटों को घेऱकर खड़े हो गए। उनका इशारा मिलते ही स्क्वॉड टीम के कुछ सदस्य भी तुरंत वहाँ पहुँच गए। अब टिकटविहीन जंगली और उज्जड्ड मुर्गे स्क्वॉड के बिछाए हुए जाल में फँसने के लिए विवश हो गए। स्क्वॉड टीम को देखते ही उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। अब उनकी बाँग को सुनने वाला वहाँ कोई भी न था। वे पंख फड़फड़ाते ही रह गए। एक-एक कर सब बेटिकट वनमुर्गे पकड़े गए। उनकी सारी चालाकी धरी की धरी रह गई। एक बार स्क्वॉड के पंजे में आ जाने पर बचकर निकल भागना कोई बच्चों का खेल नहीं। फंदा मजबूत देखकर किसी लफंगे ने फिर भागने की जरा भी जुर्रत न की। पकड़े गए टिकटहीन बदमाश मनमर्जी खूब इधर-उधर रेल गाड़ियों की सैर करते थे। उस दिन वे स्क्वॉड के चंगुल में आ गए। बचकर फरार होने के सभी रास्ते बंद थे। पर, थे वे बड़े शातिर। रेल का भाड़ा और जुर्माना देने के नाम पर उन कंगलों की जेबों में एक फूटी कौड़ी भी न थी।
कुछ देर बाद तलाशी लेने पर स्क्वॉड के हाथ कुछ भी न लगा। बड़े चले थे जुर्माने के तीन सौ तीस-तीस रूपए की पर्ची काटने। पूरी टीम की उम्मीदों पर जरा सी देर में ऐसा पानी फिरा कि वे अपना सा मुँह लेकर हाथ मलते रह गए। पर, एक बात है, वे भी कुछ कम न थे। बड़े ही गजब के हिम्मती थे। अपनी दाल गलती न देखकर उन्होंने अपने चंगुल में फँसे उन लड़कों को ले जाकर रेलवे मजिस्ट्रेट के पास पेश कर दिया।
मजिस्ट्रेट साहब बड़े ही सख्त और कायदे-कानून के पाबंद थे। नियमों का उल्लंघन करके बिना टिकट यात्रा करने वाले लोग उन्हें फूटी आँख भी न सुहाते थे। उन्हें ऐसे लोगों को सबक सिखाने के भाँति-भाँति के हथकंडे मालूम थे। बदमाशों के साथ जरा भी सहानुभूति और उदारता न दिखाते। उन पर ऐसा तगड़ा जुर्माना ठोंकते कि उन्हें छठी का दूध याद आ जाता। मजिस्ट्रेट साहब पकड़े गए छोकरों का हुलिया देखते ही सारा माजरा समझ गए।
उन्होंने मुख्य टिकट निरीक्षक दिनेश कुमार सक्सेना से मुस्कराकर पूछा- सक्सेना जी! क्या बात है?
सक्सेना जी हँसकर बोले-सर, ये चोर-उचक्के और उठाईगीर हैं। रेल गाड़ियों में मुफ्त यात्रा करते हैं और टिकटधारी मुसाफिरों का सामान चुराकर रफूचक्कर हो जाते हैं। मौका मिलते ही उनका बैग, थैला और सूटकेस आदि उड़ा लेते हैं। यही नहीं सर,ये इतने मक्कार हैं कि पुरूषों की जेब तो काटते ही हैं, बेचारी असहाय स्त्रियों के गहनों पर भी अपना हाथ साफ करते हैं। आज बड़ी मुश्किल से हाथ आए हैं। सर ! इन मुफ्तखोरों के पास बहुत ढूँढ़ने- खखोरने पर एक कानी कौड़ी तक न मिली। इसलिए अब आपके पास लाया हूँ। इतना ही नहीं सर,ये झपटमार बड़े ही चालू पुर्जे के हैं। पूछने पर घरबार का अता-पता भी नहीं बताते। जनाब, शराफत और ईमानदारी से तो ये रेल का किराया और जुर्माना देने से रहे और मेरी समझ में कुछ भी न आ रहा है कि इनके साथ अब कैसा सलूक किया जाय। जनाब! आप खुद ही फैसला करें।
तब मजिस्ट्रेट साहब उन लड़कों से बोले- क्यों भई ! सारा काम तो मुफ्त करते ही हो, लेकिन बिना टिकट के रेल का सफर करना भी क्या कोई भलमंसी है? मेरे सामने अब तुम लोगों की कोई आनाकानी नहीं चलने वाली है। टालमटोल करने के बजाय चुपचाप पाँच सौ पचास-पचास रूपए फटाफट जुर्माना भर दो। एक बात और, कान खोलकर सुन लो, आइन्दा भूलकर भी बिना टिकट के सफर करने की कोशिश न करना।
पर, वे छोकरे थे बडे ही ढीठ। एक लड़का बबलू एकदम नौसिखिया था। गिरोह से नया-नया जुड़ा था। अभी वह अपने साथियों से चोरी-चकारी के अवगुणों की प्रशिक्षुता ट्रेनिंग ही ले रहा था। मजिस्ट्रेट के सामने जाते ही मानो वे बिल्कुल गूँगे और बहरे हो गए हों। उनके चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगीं। उनका मुँह उतर गया। मानो उन्हें साँप सूँघ गया हो। वे कुछ बोले नहीं।
बस, एक -दूसरे का मुँह ताकते रहे। चोर की दाढ़ी में तिनका होता ही है। इसलिए उन्हें कुछ कहने का साहस ही न हुआ। मजिस्ट्रेट साहब के सामने भला वे क्या सफाई देते? मजिस्ट्रेट साहब समझ गए कि जब इन तिलों में तेल नहीं है तो अनायास पत्थर पर सिर मारने से क्या फायदा? अगर निकलना ही होता तो सीधी ऊंगली से ही घी निकल जाता। तब हमें उसे टेढ़ी करने की नौबत ही न आती।
वह बोले-ठीक है सक्सेना जी, इन्हें हवालात के हवाले करके रातभर जेल की ठंडी-ठंडी हवा खाने दीजिए। अक्ल ठिकाने आ जाएगी। यदि कोई घर का पता बताए तो खबर भेजकर घर वालों को यहाँ बुला लीजिए। इसके बाद मजिस्ट्रेट साहब के हुक्म की तामील के साथ पुलिस वाले उन्हें ले जाकर जेल की सलाखों के पीछे ढकेल दिए।
दिन तो जैसे-तैसे बीत गया। शनैः-शनैःरात हो गई। जेल में ओढ़ने के लिए दो-दो लड़कों के हिसाब से उन्हें एक-एक कंबल ही दिया गया। आधी रात के बाद अचानक बैरक की बिजली गुल हो गई और चारों ओर घुप अंधेरा छा गया। सब लोग अपना-अपना कंबल तानकर सो गए।
तभी कुछ शरारती लड़कों को न जाने क्या सूझी कि वे अपने एक साथी बबलू के साथ कुछ गड़बड़ करने की फिराक में आपस में खुसुर-फुसुर करने लगे। मानो उनकी मति मर गई। वे जेल में ही ऐसा ताना-बाना बुनने लगे कि बबलू की इज्जत पर हाथ डालने की सोचने लगे। वे उसके साथ दुराचार का खेल खेलने का मन बना लिए। उनके हृदय में कामतृष्णा रूपी पाप जागृत होने से वे एकाएक विचलित हो उठे। उन्हें रह-रहकर काम पीड़ा सताने लगी।
मन विकल होते ही नींद उनकी आँखों से बहुत दूर चली गई। उनमें नींद आने का नाम ही न था। उन अभागों को यह भी भय न रहा कि अगर किसी की अचानक आँख खुल गई तो क्या होगा? जरा सी देर में कलई खुलते ही उन पर भारतीय दंड संहिता की एक और धारा जुड़ जाएगी। इन बातों से बिल्कुल बेखबर वे अपनी मस्ती में चूर थे।
इतने गाढ़े वक्त में भी उनकी मृग तृष्णा जोर मारने लगी। रात के सन्नाटे में अपना मन बहलाने के इरादे से धीरे-धीरे वे बबलू के साथ छेड़छाड़ और उलूल-जुलूल हरकत करने लगे।
इतने में उनकी छेड़खानी से परेशान होकर एकाएक बबलू की आँख खुल गई। भला जीते जी कोई मक्खी थोड़े ही निगल सकता है। अत्याचारी के साथ लड़ मरना ही ठीक है। इसलिए नींद से जागते ही बबलू ने आव देखा न ताव, उनकी दनादन धुनाई शुरू कर दी। वह उन्हें मरने-मारने पर उतारू हो गया। उसने जमकर उनका विरोध किया और फिर बोला- अगर मैं अभी सबको जगाकर तुम लोगों की कारस्थानी बता दूँ तो पलभर में सारा भाँडा फूट जाय।
किन्तु,कामांधता की मदहोशी में कल्लू,कालिया और बब्बन पर चिकने घड़े की भाँति उसकी धमकी का कोई असर न पड़ा। लातों के भूत भला बातों से कहीं मानते हैं? वे बस, बार-बार यही सोचते कि नई चिड़िया है, न जाने कब फुर्र हो जाय और वे हाथ मलते रह जायं। मान न मान मैं तेरा मेहमान,वे अपनी मनमानी करने पर ही तुले हुए थे।
बबलू के आगे कोई जोर न चलता देखकर वे अचानक भूखे भेडियों की तरह खींचतान करते हुए उस पर झपटने लगे। यह देखकर बबलू क्रोध के मारे आग बबूला हो गया। गुस्से से उसका खून खौलने लगा। आँखें लाल-पीली करके जोर-जोर से चीखने और चिल्लाने लगा।
इसके बाद वह दहाड़ते हुए बोला-कमीनों ! मैं भी तुम लोगों जैसा एक इंसान हूँ, कोई पशु नहीं। लेकिन तुम सब इंसान नहीं, शैतान हो। मनुष्य के नाम पर कलंक हो। तुममें जरा भी मानवता नहीं है। अगर मैं चाहूँ तो अभी देखते ही देखते तुम्हारी जान के लाले पड़ जाएंगे। मौत तुम लोगों के सिर पर नाचेगी। तभी कालिया बोला- बबलू नानी के आगे ननिहाल की बातें करना व्यर्थ है। अपना भाषण बंद करो वरना, ठीक न होगा। तुम बात का बतंगड़ न बनाओ तो ही ठीक है। इसी में तुम्हारी भलाई है। टीम में रहना है तो हम जैसा चाहेंगे, वही होगा।
उसकी यह बात बबलू के सीने में तीर बनकर चुभने लगी। वह गरजकर बोला- तो क्या कर लेगा तू? मेरी भी एक बात तू कान खोलकर सुन ले,मैं तेरी इन गीदड़ भभकियों में नहीं आने वाला। उनका शोरगुल सुनकर बैरक के बाकी लड़के भी जाग गए। इतने में वहाँ बड़ा हल्ला-गुल्ला मच गया। शोरगुल सुनकर जेल के सिपाही, जेलर और डिप्टी जेलर दौड़कर बैरक में पहुँच गए।
वहाँ जाते ही जेलर साहब गुर्राकर बोले- क्या माजरा है? इतना शोर क्यों मचा रहे हो? क्या तुम लोगों की शामत आ गई है? चुपचाप सो जाओ वरना, अभी हड्डी-पसली बराबर कर दूँगा। मेरा नाम विक्रम सिंह है। तब बबलू धीरे से मिनमिनाता हुआ बोला- साहब ! मैं इन दुष्टों के साथ नहीं सो सकता। क्योंकि ये दुष्ट नींद में मेरी इज्जत से खिलवाड़ करने की कोशिश रहे थे। मेरे साथ कामक्रीड़ा करके अपनी प्यास बुझाना चाहते हैं।
इतने में डिप्टी जेलर कुँअर प्रताप बोले- क्या बकते हो? इनकी ये मजाल कि हम लोगों के रहते हुए तम्हारे साथ कोई उलटी-सीधी हरकत करें। बिल्कुल नामुमकिन। मैं इनकी खाल निकलवाकर उनमें भूसा भरवा दूँगा। तुम चुपचाप सो जाओ। इसके बाद जेलर और डिप्टी जेलर ने बारी-बारी उन बदमाशों की खूब खबर ली। उन्हें खूब डाँट पिलाई। वे बेचारे शर्म से पानी-पानी हो गए। उनका सारा नशा देखते ही देखते हिरन हो गया। मार के आगे भूत भी भाग जाते हैं। वे गिड़गिड़ाते हुए माफी मॉगने लगे।
लेकिन बबलू की दर्दभरी शिकायत सुनकर जेलर साहब का सिर चकराने लगा। वे चुप न रह सके। विचलित हो उठे। आखिर, जेल के मुखिया जो ठहरे। उनके कंधों पर सबसे ज्यादे जिम्मेदारी थी। वह बड़ी उलझन में पड़ गए।
अपनी शंका दूर करने की गरज से उन्होंने बबलू से पूछा- अरे, इन्होंने कोई उलटी-सीधी हरकत तो नहीं कर दी? बबलू बेचारा क्या कहता ? सकुचाते हुए बोला- अरे साहब ! इनका इरादा तो यही था। ये सारे दरिन्दे हैं।
तब डिप्टी जेलर कुँअर प्रताप बोले-सर, मुझे तो कुछ गड़बड़ लगता है। दाल में कुछ न कुछ काला जरूर है। इनके चक्कर में कहीं लेने के देने न पड़ जायं। अपनी नौकरी पर कोई आँच आए, इससे पहले अस्पताल भेजकर इसका मेडिकल करा लेते हैं। इन शैतानों का क्या भरोसा ?
यह सुनकर जेलर साहब बोले- आप ठीक ही कहते हैं। पर, डाक्टरी चेक अप के लिए कैदी और हवालाती को जेल से बाहर ले जाने से पहले उसका पूरा हुलिया और पहचान के दो निशान लेना बहुत जरूरी है। चोर-बदमाशों का क्या ठिकाना कि कब आखों में धूल झोंककर नौ दो ग्यारह हो जाएं।
उनका आदेश मिलते ही एक सिपाही बबलू से बोला- निशान दिखाओ। बबलू का चेहरा बिल्कुल साफ था। कहीं अदना सा भी कोई दाग-धब्बा न था। वह बोला-सर,कोई निशान नहीं है। लीजिए,आप ही देखिए। बड़े गौर से मुआयना करने के बाद बबलू से सिपाही बोला- फिर,कपड़े उतारो। कहीं न कहीं, कोई न कोई चिह्न अवश्य मिलेगा। यह सुनते ही बबलू की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई । उसके समझ में कुछ भी न आ रहा था कि अब वह क्या करे। वह मन ही मन डिप्टी जेलर को कोसने लगा और रिरियाते हुए बोला-साहब,जो जी में आए कीजिए। लेकिन, मैं सबके सामने कपड़े उतारने में असमर्थ हूँ।
यह सुनकर जेलर साहब भड़क उठे। वह गुस्से में भरकर कहने लगे-क्यो,क्या हुआ?जब चोरी और हेराफेरी करने में शर्म नहीं आती तो अब क्यों? मेरी बात मानो,सीधे-सीधे कपड़े उतार दो वरना,अभी छठी का दूध याद दिला दूँगा। दबाव पड़ते ही बबलू बेचारा बगलें झाँकने लगा।
उसकी सारी चतुराई भूल गई। उसकी आनाकानी देखकर सिपाही से डिप्टी जेलर कॅुअर प्रताप बोले-देखते क्या हो? जब यह नहीं मान रहा है तो जबरदस्ती उतार दो। भई, शरीफजादे की इज्जत-आबरू का मामला है। अब तो इसका मेडिकल तो कराना ही पड़ेगा न। इसे लाज लग रही है। यह हमारी कस्टडी में है अगर यहाँ इसके साथ कुछ गड़बड़ होने पर अपनी इज्जत भी खतरे में पड़ जाएगी। इसके चलते अपनी नौकरी पर कोई आँच आए,इससे पहले ही हमें सजग हो जाना चाहिए। इसकी करूण पुकार ने तो हमारी नींद ही उड़ा दी।
यह सुनकर बबलू भय से थर-थर कांपने लगा। आखिर, मरता क्या न करता ? जान मुसीबत में फँसी देखकर उसने जेलर साहब के पास जाकर उनके कान में धीरे से कहा- साहब,बड़ी गलती हो गई। अब आइंदा ऐसी कोई भूल न होगी। सर, मुझे क्या पता था कि सिर मुड़ाते ही ओले पड़ जाएंगे। इनके साथ रहते मुझे अभी कुछ ही दिन हुए हैं। सच बताऊँ साहब, मैं बबलू नहीं बल्कि, बबली हूँ। यह सुनते ही सबके कान खड़े हो गए। वे बिल्कुल दंग रह गए और आश्चर्य से एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।
उन्हें बड़ा ताज्जुब्ब हुआ कि लड़कों के संग लड़की? बड़ी अजीब बात है। कुछ देर सोचने के बाद जेलर साहब बोले- यह कैसे हो सकता है? फिर तुम इन छोकरों के साथ क्यों हो? मुझे साफ-साफ बताओ। कुछ छिपाने की जरूरत नहीं है। हो सकता है, मैं तुम्हारी कुछ मदद कर दूँ। मैं तुम्हारे बाप की उम्र के बराबर हूँ। इसलिए एकदम सच-सच बताओ।
तब बबली ने उन्हें बताया- साहब, मेरे पापा कमल कांत गुप्ता कानपुर में ऊँचे ओहदे पर सरकारी नौकर हैं। वह बड़े ही सज्जन, सुशील और ईमानदार हैं। बड़े ही अनुशासनप्रिय और उदार भी हैं। कर्तब्यनिष्ठा और सेवाभावना उनमें कूट-कूटकर भरी हुई है। उनकी सरलता और माधुर्यता का कोई जवाब ही नहीं। आस -पास के लोग उनकी बड़ी कद्र करते। वह हम बच्चों को सदैव नैतिकता की शिक्षा देते रहते। हमें सदैव सादा जीवन और उच्च विचार रखने की सलाह देते। कालोनी में उनका बड़ा मान-सम्मान था। घर में खाने-पीने की हमें पूरी आजादी थी। मनपसंद सादे और रंगीन कपड़े पहनने की खुली छूट थी। पर, फैशन के नाम पर नंगा नाच करना पिताजी को हरगिज पसंद न था। हम बहन-भाइयों को वह सदा यही समझाते कि बेढंगे वस्त्रों से मनुष्य बड़ा नहीं बनता है। व्यक्तित्व शिक्षा और ज्ञान से निर्मित होता है, शान-शौकत से नहीं। महान बनने के लिए भौड़े कपड़ों की नहीं, वल्कि ज्ञान की जरूरत है। क्योंकि वस्त्र ही मनुष्य का वह आइना है जिसमें गुण और शील को बेखटके देखा जा सकता है।
उसने फिर कहा- साहब,मेरी माँ यामिनी देवी कम पढ़ी-लिखी होने पर भी एक कुशल गृहणी थीं। वह पिताजी की हर काम में मदद करतीं। घर,डाकखाने,बिजली-पानी के दफ्तर और हमारे स्कूल आदि आने-जाने का काम वही सँभालतीं। उनके हाथों के बने स्वादिष्ट भोजन से हम लोग तृप्त हो जाते। फास्ट फूड को घर में एक संक्रामक रोग समझा जाता था। हम दो बहन और दो भाई थे। घर में हर सुख-सुविधा मौजूद थी। कहीं कोई कमी न थी। परिवार में बड़ी शांति थी। हम दो बड़े बहन-भाई कालेज में पढ़ रहे थे। छोटा भाई प्राइमरी में था। लेकिन साहब,किशोरावस्था में बच्चे अपने आस-पास जो कुछ भी देखते और सुनते हैं। वे उसी रेग में रंगते चले जाते हैं। अपरिपक्व और नासमझ बच्चे फिल्म और टेलीविजन में जैसा देखते हैं, वे वैसा ही बनने का प्रयास करते हैं। मैं भी इन चीजों की बड़ी शौकीन थी। कालेज से घर आते ही टी.वी.खोलकर बैठ जाती। यह मेरी सबसे बड़ी कमजोरी थी। मैं एक बार बिना खाए-पीए तो रह जाती पर,हर वक्त उससे चिपकी रहती।
सर,माता-पिता जब मुझे लाड़-प्यार से समझाने का प्रयास करते तो मैं मुँह फुला लेती थी। कभी-कभी बिस्तर में मुँह छिपाकर सिसकियां भरने लगती। बल्कि,,यों समझिए कि मैं फिल्म और टेलीविजन की दीवानी हो गई थी। जिससे माता-पिताजी बड़े चिंतित हुए। उन्होंने माँ को मुझ पर और अधिक ध्यान देने की हिदायत दी। माँ मुझे घंटों समझाती और पूरा प्रयास करतीं कि मैं राह बदलकर सही दिशा की ओर मुंड़ जाऊँ। पढ़-लिखकर कुल का नाम रोशन करूँ। जब घर में सब लोग सो जाते तो वह अपना आँचल फैलाकर ईश्वर से दुआ मांगतीं कि मुझे सद्बुद्धि मिले और मैं सुधर जाऊँ। इसके सिवा उन्हें और कुछ नहीं चाहिए। लेकिन, सर ! मैंने मानो न सुधरने की कस्म खा रखी थी। कोई सफलता हाथ न लगती देखकर मेरे माता-पिता मन मसोसकर रह जाते।
उन्होंने ज्यों-ज्यों दवा की, मेरा मर्ज त्यों-त्यों बढ़ता ही गया। मुझ अभागन पर कोई असर न पड़ा। मैं जैसे-जैसे सयानी होती गई, नए फैशन के मकड़जाल में उलझती चली गई। धीरे-धीरे मैं आधुनिकता के रंग में डूबती चली गई और खान-पान तथा फैशन की दुनियां में हवाई उड़ान भरने लगी। मैं अपनी हेयर स्टाइल किरण बेदी जैसी रखने लगी। भारतीय पहनावा छोड़कर जींस की टी शर्ट और पैंट पहनने लगी। मेरे स्पोर्ट शू आप देख ही रहे हैं। किसी के कुछ समझाने पर उलटा ही प्रभाव पड़ता था। मैं दिनोंदिन संस्कार विहीनता की ओर अग्रसर होती गई और लड़कों की वेश-भूषा अपनाकर उनके जैसे रहने लगी। लड़कियों के वेश में रहकर जीवन बिताना मुझे बोझ लगने लगा। रही-सही कसर मेरी दो सहेलियों ने पूरी कर दी। आडंबरपूर्ण दिखावे की चमक-दमक में मैं ऐसे खोई कि फिर उबरने का कोई रास्ता ही न बचा। एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा। मैं विनाशकाले विपरीत बुद्धि का शिकार हो गई।
मेरी दो सहेलियां माधवी ओर मोहिनी उम्र तथा अनुभव में मुझसे काफी आगे थीं। वे घाट-घाट का पानी पी चुकी थीं। उन्होंने मुझे एक ऐसी राह पर लाकर खड़ा कर दिया कि धीरे-धीरे मैं अपने जन्मदाता और रक्षक माता-पिता को अपना बैरी समझने लगी। अपने बहन-भाइयों को अनायास ही मारती-पीटती और उलटे-सीधे काम करके माँ-बाप को पीड़ा देती। उन्हें तरह-तरह से परेशान करती थी। कभी-कभी माँ से भी झगड़ने लगती। पर, मोहिनी ओर माधवी के बगैर मैं पलभर भी न रह सकती थी। मेरी हरकतों से तंग आकर पिताजी ने उन्हें घर आने पर रोक लगा दी। किन्तु, वे मौका देखकर आ धमकतीं। हम तीनों एक साथ बैठकर खूब गप-शप करती रहतीं।
साहब,सच बात तो यह है कि मैंने माँ-बाप की सलाह को कभी गंभीरता से न लिया। नतीजा यह हुआ कि आहिस्ता-आहिस्ता पढ़ार्ई में कमजोर होने से अध्ययन से मेरा मन ऊबने लगा। हमेशा अव्वल आने वाली लड़की इम्तहान में फेल होने लगी। खरबूजे को देखकर खरबूजे का रंग बदला तो मैं पढ़ाई से विमुख हो गई। मैं पढ़ाई-लिखाई तो छोड़ ही चुकी थी, अपने घर वालों को भी त्यागने का मन बनाने लगी। मोहिनी और माधवी ने न जाने कौन सा बदला लिया कि मुझ जैसी सीधी-सादी लड़की को इन गुन्डों की टीम में ठेल दिया।
मैं इनके ताने-बाने में ऐसे उलझी कि फिर घर की ओर न मुँड़ सकी। जबकि माता-पिता मुझे पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर और इंजीनियर बनाना चाहते थे। उनका बिचार था कि बच्चों को शिक्षा-दीक्षा देकर सुयोग्य बना दिया जाय। हम अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे तो कभी किसी के आगे हाथ नहीं पसारना पड़ेगा। उनकी नजर में हमारी शिक्षा ही उनके लिए संसार की सबसे बड़ी दौलत थी। उनका मानना था कि धन-दौलत कभी भी नष्ट हो सकती है। पर, ज्ञान मनुष्य के साथ जन्म भर रहता है। माँ-बाप का फर्ज भी यही है कि वे बच्चों का जीवन बनाने-सँवारने के लिए कोशिश करते रहें। जान-बूझकर कोई उन्हें आग में थोड़े ही झोंक सकता है।
माधवी और मोहिनी ने मेरी जान-पहचान इन दुष्टों से करा दी। आधुनिकता के मायाजाल में भटकी हुई मुझ जैसे नादान की इन्हें बहुत जरूरत थी। ऐसे लोगों के चंगुल में मेरी जैसी लड़कियां जल्दी फँस जाती हैं। क्योंकि ये इनके बड़े काम की होती हैं। जब जी चाहे इधर का माल उधर और उधर का इधर हो जाता है। परिचय होते ही इन्होंने मुझे ऐसा सब्जबाग दिखाए कि मैं इनके बुने ताने-बाने में उलझती चली गई। इनकी संगति में रहकर मैं कहीं की न रही। मैंने अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मारकर अपनी जिंदगी तबाह कर ली। मेरी इस बर्बादी के लिए कोई दूसरा जिम्मेदार नहीं है। वरना, मेरा जीवन सुरक्षित बच जाता। मैंने अपने परिवार के साथ अन्याय तो किया ही, द्वंद्व में फँसकर मैं अपने साथ भी कोई न्याय न कर सकी। तब जेलर साहब एक लंबी सांस लेकर बोले-अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। मेरी मानो घर चली जाओ। मैं तुम्हारी मदद करुंगा।
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