प्रेरणा बात कुछ पुरानी है इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक बहुत ही कुलीन, भद्र सुलझी हुई कुशल और सच्चरित अध्यापिका थीं। वह एम. ए. कक्षा की ...
प्रेरणा
बात कुछ पुरानी है इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक बहुत ही कुलीन, भद्र सुलझी हुई कुशल और सच्चरित अध्यापिका थीं। वह एम. ए. कक्षा की संस्कृत विषय की व्याख्याता थीं। उनका नाम था प्रेरणा गौतम। यथानाम तथागुण वह सदमार्ग से भटके युवकों और व्यक्तियों को सचमुच प्रेरणा देती रहती थीं। कोई उज्जड्ड से उज्जड्ड इंसान ही क्यों न हो प्रेरणा जी उसे नेक राह पर चलने की प्रेरणा अवश्य देती रहतीं।
उनका मन तो सुंदर था ही तन भी निहायत खूबसूरत था। सुंदरता ने उनके गोरे-चिटटे बदन पर मानो चार चाँद लगा रखा था। रेशमी बाल और सुरमई आँखें देखते ही बनती थी। बल्कि, यूँ समझिए कि वह वाकई रूप की रानी थीं। उनका गोरा मुखड़ा देखकर लोग आहें भरकर रह जाते। उनका मन मसोस उठता।
उनकी अदाएं दरअसल बहुत निराली थीं। उनका हर अंदाज एकदम अनोखा था। जो व्यक्ति उनसे एक बार बात कर लेता वह मंत्रमुग्ध सा हो जाता। वह स्वयं को धन्य समझने लगता। उनके अंदर वे सभी गुण मौजूद थे जो किसी कुलीन और सभ्य स्त्री में होने चाहिए। उनके शरीर में गजब की जो लचक भी वह उनके हृदय पटल पर भी विराजमान थी।
साथ ही वह सच में इतनी दिलेर भी थीं कि उन्हें ऐसे शरारती बदमाश व्यक्तियों से तनिक भी भय न लगता था। उनकी दिलेरी का कोई जवाब ही न था। उनका विवाह न हुआ था। अभी तक वह क्वाँरी ही थीं। उनके माता-पिता और अग्रज मनमोहन गौतम भी बिल्कुल उन्हीं की तरह थे। मनमोहन गौतम भी बहुत ही सज्जन और दयालु पुरुष थें।
एक बार की बात है प्रेरणा जी की कक्षा में एक ऐसे उज्जड्ड विवेकहीन विद्यार्थी ने दाखिला ले लिया जो क्लास के बाकी अन्य छात्रों से उम्र में काफी बड़ा और बहुत ही उद्दंड था। उसका नाम था गोकरननाथ तिवारी। संस्कृत विषय का छात्र होते हुए भी उसे नीति और संस्कारों से कुछ भी लेना-देना न था। बड़ा ही मनचला और दिलफेंक युवक था। वह न तो कोई छोटा देखता और न बड़ा, जो जी में आता फौरन बक देता। उसे किसी का डर तो था नहीं अतः बोलने से पहले उसके परिणाम के विषय में तनिक भी विचार न करता था।
उसे किसी का लेशमात्र भी भय न था। उसका कद लगभग आठ फीट लंबा था। गर्दन भी जिराफ की तरह लंबी थी। रंग बिल्कुल गोरा और बदन दोहरी थी। इतना ही नही,ं वह पहले दर्जे का बड़ा वाचाल भी था। आयु कुछ अधिक हो जाने से अपनी उम्र से काफी कम उम्र के विद्यार्थियों के साथ बैठकर पढ़ने में उसका मन न लगता था। संस्कार उसे छू भी न गया था। वह इतना शरारती था कि कक्षा में हरदम इधर-उधर ताक-झाँक किया करता था। कभी किसी बाला को घूर-घूरकर निहारने लगता तो कभी किसी हसीन युवा अध्यापिका को।
गोकरन को कालेज में दाखिला लिए अभी कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन उसकी निगाह अचानक प्रेरणा जी पर पड़ गई। वह उन्हें देखते ही अपनी सुध-बुध खो बैठा। गुरु-श्ष्यि परंपरा को भूलकर वह मन ही मन उन्हें अपने मन के आइने में उतारने लगा। उनकी नजर कमसिन प्रेरणा जी के चेहरे पर जाकर अटक गई। मन में काम भावना उद्दीप्त होते ही वह अपने कर्म मार्ग से भटककर रतिमार्ग का अनुसरण करने में लीन हो गया।
इससे गोकरन नाथ की भूख-प्यास तो मिट ही गई उसके नेत्रों से रातों की नींद भी उड़ गई। वह कामपीड़ा से अंदर ही अंदर तृषित रहने लगा। अब वह रातोंदिन उन्हीं के बारे में सोच-सोचकर दुबला होने लगा। अब वह मन ही मन कुढ़-कुढ़कर जीने लगा। अगर उसका वश चलता तो वह प्रेरणा जी को अपने बाहुपाश में कसकर अपने सीने से लगा लेता। यह सोचते ही उसके मन में घुटन सी होने लगती।
वह उनके कोमल, सुंदर कपोलों को चूमकर अघा जाता। भ्रमर बनकर नरम, गुलाबी अधरों का मधुरस चूसकर तृप्त हो जाता। उसके दिल के अरमान पूरे हो जाते। उसकी हसरत मिट जाती। वह नीबू को इस प्रकार निचोड़ डालता कि एकदम रसहीन हो जाता लेकिन,
महाविद्यालयीन अनुशासन और सामाजिक मर्यादाओं के सामने वह बहुत ही विवश था। उन पर उसका कोई जोर न था। वह अपने मन की पीड़ा किसी को बताकर दिल का बोझ हल्का करने में असमर्थ था। किसी से कुछ बताने में बदनामी का जोखिम था।
मन में एक बार तृष्णा समा जाने पर अतृप्त पुरुष कुमार्ग पर अग्रसर हो जाता है। काम वासना के दलदल में फँसते ही वह व्यभिचारी बन जाता है। उसे फिर और कुछ दिखाई नहीं देता है। आँख होते हुए भी वह बिल्कुल अंधा हो जाता है। उसका मन नियंत्रित नहीं रहता है। मस्तिष्क अनियंत्रित हो जाता है। काम तृष्णा से व्यथित इंसान का दिल काबू में नहीं रहता है। उसे हर वक्त काम ही काम दिखाई देने लगता है। आखिरकार उसकी हालत ऐसी हो जाती है कि वह मानसिक रोगी बन जाता है। ऐसी ही कुछ दशा गोकरननाथ की हो गई।
मन बेकाबू होते ही अपनी कुदृष्टि के चलते गोकरन, प्रेरणा पर डोरे डालने की असफल कोशिश करने लगा। वह हमेशा इस जुगत में लगा रहता कि सुंदरता की मूरत प्रेरणाजी को अपने वश में कैसे करूँ? उसे मैं अपनी ओर किस तरह आकृष्ट करूँ? अगर, मुझे वशीकरण मंत्र आता तो चुटकी बजाते ही उसे अपनी उँगलियों के इशारे पर नचाता। पर, प्रेरणा इन बातों से एकदम अनजान थीं। उन्हें गोकरन की हरकतों का कुछ पता ही न चल पाता। वह हरदम अपनी धुन में ही लगी रहती थीं। उन्हें इतनी फुर्सत ही न थी कि वह मसखरे गोकरन की किसी हरकत पर ध्यान दे पातीं। उन्हें बस अपने काम से काम था।
हर अच्छा अध्यापक अपनी कक्षा के छात्रों को भलीभाँति पहचानता है। वह उनकी नस-नस से वाकिफ होता है। वह उनकी खूबियों और कमजोरियों पर अपनी कड़ी निगाह रखता है। पुरुष किसी स्त्री को किस चेष्टा या कुचेष्टा से देखता है वह तुरंत समझ जाती है। पुरुष की कुचेष्टा को समझते ही वह सजग हो जाती है।
छात्रों से भरी कक्षा में गोकरन की बार-बार की ऊटपटांग कारगुजारियों से एकदम बेखबर प्रेरणा को कुछ ही दिन बाद यह अहसास होने लगा कि गोकरन सचमुच एक लफँगा है। वह पढ़ने-लिखने का शौकीन नहीं वरन केवल बातूनी है। यहाँ आकर यह अपना समय गुजारता है। इससे दूसरे विद्यार्थियों पर भी असर पड़ सकता है। विद्यार्थी किसी दिन उनका उपहास कर सकते हैं। इससे मेरी जग हँसाई हो सकती है। शिक्षक यही कहने लगेंगे कि अपने छात्रों पर प्रेरणा का कोई नियंत्रण नहीं है। बहुत ही कमजोर शिक्षिका है।
किंतु, उन्हें यह तनिक भी आभास न हुआ कि गोकरन उन्हें अपना दिल दे बैठा है। वह उन्हें बेइंतहा चाहने लगा है। प्रेरणा जी मन लगाकर चुपचाप अपना काम करती जा रही थीं। नतीजा यह हुआ कि उनके प्रति गोकरन की फब्तियाँ आए दिन बढ़ने लगीं। वह जब ही होता उन पर छींटाकसी करने लगता। वह उन्हें ऐसी नजरों से देखता जैसे भूखे शेर की तरह अवसर मिलते ही उन पर झपट पड़ेगा। वह बारंबार उन्हें चक्षु निमंत्रण देकर आमंत्रित करने का यत्न करता।
समयचक्र इसी प्रकार पंख फैलाकर तीव्रगति से उड़ता रहा। एक दिन की बात है विद्यार्थी अपनी कक्षा में बैठे हुए थे कि इतने में प्रेरणा जी का यकायक आगमन हुआ। कक्षा में उनके दाखिल होते ही गोकरन ठहाके मारकर हँस पड़ा। यह बात प्रेरणा को बहुत नागवार गुजरी। देखते ही देखते वह एकदम आग बबूला हो उठीं। उनके तन-बदन में आग लग गई। पलक झपकते ही उनका पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया।
एक बार उनके जी में आया कि लाओ इस मजनूं की औलाद के गाल पर दो-चार चाटें खीचकर जड़ दूँ। यह सदा के लिए अपनी आदत भूल जाए पर, फिर यह सोचकर कि इससे कालेज का माहौल बिगड़ सकता है। उदंड के संग उदंडता करना जायज नहीं है। अनियंत्रित को नियंत्रित कर लेना ही बुद्धिमानी है। शिक्षक का कार्य बिगड़े को सुधारना है।
मूर्ख को ज्ञान देकर उसे सही रास्ते पर लाना है। सदैव जैसे को तैसा आचरण उचित नहीं है। मन में यह विचार आते ही तत्काल अपने मन पर नियंत्रण रखते हुए बड़े संयम के साथ बोलीं-क्यों मिस्टर गोकरन! आज आपको बड़ी हँसी आ रही है। क्या बात है, इस प्रकार आपके हँसने का रहस्य क्या है? आपकी इस भौंड़ी हँसी का मकसद क्या मैं जान सकती हूँ? यह सुनते ही गोकरन की सिट्टी-पिट्टी अकस्मात गुम हो गई।
प्रेरणा जी का कठोर वचन कानों में पड़ते ही उसकी हक्की-बक्की बंद हो गई। उसके ओठ मानो सिल गए। ऐसा लगने लगा जैसे वह गूँगा और बहरा हो गया है। एक चुप हजार चुप, उसके मुँह से एक शब्द भी न निकले। मारे भय के वह थरथर काँपने लगा। यही नहीं, वह अब उनसे नजर मिलाने की जुर्रत भी न कर पा रहा था। वह उनकी ओर न देखकर बगलें झाँकने लगा। उसकी यह धृष्टता प्रेरणा को लेशमात्र भी अच्छी न लगी।
क्षणभर बाद वह फिर बोलीं-अच्छा मिस्टर गोकरन जरा खड़े हो जाइए।
यह सुनकर गोकरन शुतुरमुर्ग की भाँति अपनी गर्दन जमीन की ओर नीची करके बड़ी निर्लज्जता से बोला-मैडम! जितना सब लोग खड़े होने पर दिखाई देते हैं उतना मैं बैठे रहने पर भी दिखाई दे रहा हूँ। मेरी ऊँचाई इतनी है कि आप मुझे ऐसे ही देख लीजिए। मुझे खड़े होने की कोई जरूरत नहीं है। उसकी जिद देखकर प्रेरणा जी शेरनी की तरह दहाड़ते हुए डपटकर बोलीं-मिस्टर गोकरन! मैंने कहा बिना किसी नानुकर के खेड़े हो जाइए वरना ठीक न होगा। मैं पूरी कक्षा के सामने आपको लज्जित नहीं करना चाहती। मेरा इरादा आपको शर्मिंदा करने का कतई नहीं है। मुझे आपसे आज कुछ पूछना है।
तब डरते-डरते गोकरन बोला-मैडम! अब अगर, आप कहती ही हैं तो लीजिए मैं खड़ा हो जाता हूँ। इतना कहकर वह गुमसुम खड़ा हो गया। प्रेरणा फिर बोलीं-इधर आइए मेरे पास। यह सुनना था कि हमेशा गुर्राने वाले शेरदिल नौजवान के होश-हवास ही गुम हो गए। पलभर में ही उसे अपनी नानी याद आने लगी।
वह सोचने लगा हे परमात्मा! अब मेरे साथ क्या होने वाला है। यह औरत ही है या कोई बला? आज यह मेरे साथ ऐसा रूखा बर्ताव क्यों कर रही है? इसकी मंशा क्या है। हमेशा हँसमुख रहने वाली देवी रुद्र रूप धारण करके आज एकाएक धधकती ज्वाला कैसे बन गई? आज यह बिगड़ खड़ी क्यों हो गई? क्या वाकई मेरी शामत आने वाली है।
कहने का तात्पर्य यह कि उस वक्त उसके मस्तिष्क में तरह-तरह की खिचड़ी पक रही थी। वह दुविधा का शिकार हो गया। वह प्रेरणा को कभी जीवनदायिनी अपनी प्रेयसी समझने लगता तो कभी साक्षात मृत्युदायिनी रणचंडी। उसका कलेजा मारे भय के कभी काँप उठता तो कभी सोचने लगता कि लगता है अब चिड़िया शायद मेरे बुने जाल में फँसने वाली है। ईश्वर की मर्जी से मेरी दाल अब गलती हुई नजर आ रही है।
यदि एक बार यह मेरे जाल में उलझ गई तो आजीवन मुक्त न हो पाएगी। मौका मिलते ही इसका सारा गुरूर तोड़कर चकनाचूर कर दूँगा। यह हमेशा-हमेशा के लिए मेरी हो जाएगी। मेरी दासी बनकर छटपटाती ही रहेगी। मैं इसके दिल पर बेखटके खुलकर राज करूँगा। इसका रूप-रंग सब मेरा हो जाएगा।
यह सोचता हुआ गोकरन जैसे-तैसे प्रेरणा के निकट पहुँचा। तब तक प्रेरणाजी ने कड़क आवाज में पूछा-गोकरन! क्या माजरा है? आपका मन पढ़ाई में क्यों नहीं लगता है।
यह सुनकर गोकरन लज्जा का अनुभव करते हुए बोला-मैडम! सच बात यह है कि मेरा बाप इलाके का एक कुख्यात गुंडा और बदमाश था। बल्कि, यह कहिए कि वह एक डाकू था। वह लोगों के घरों में डकैती डालता था। उसे हमें पढ़ाने-लिखाने की तनिक भी फिक्र न थी। पढ़ाई-लिखाई को वह सदैव व्यर्थ समझता था।
वह एक लंबी सांस लेकर बोला-मैडम! काफी समय बाद लूटपाट का जीवन त्यागकर सुधरने पर उसे किसी तरह हम भाई-बहनों को पढ़ाने-लिखाने की सुध आई। तक तक हमारी उम्र ज्यादा हो चुकी थी। आप देख ही रहीं हैं मेरी अन्य सहपाठी मुझसे उम्र में बहुत छोटे हैं। ऐसी स्थिति में इनके बीच बैठकर पढ़ना-लिखना मेरे वश की बात नहीं है। मुझे लज्जा महसूस होती है। अब यह मेरी नौकरी करने की उम्र है पढ़ने-लिखने की नहीं। अब आप ही बताइए मेरा मन पढ़ाई में कैसे लग सकता है।
गोकरन की व्यथा सुनते ही प्रेरणाजी शांत मन से बोलीं-अच्छा! अगर, ऐसी ही बात है तो कहीं जाकर नौकरी कीजिए। नाहक ही अध्ययन में अपना कीमती समय इस प्रकार क्यों बर्बाद कर रहे हैं? दूसरी बात यह बताइए कि क्या हर कक्षा में आप अक्सर ऐसा ही करते हैं?
यह सुनते ही गोकरन ने मुस्कराकर कहा-मैडम! बाकी कक्षाओं में भला ऐसी हसीन चीजें कहाँ है जैसी इसमें हैं। एक बात और आज-कल कोई नौकरी इतनी आसानी से मिलती ही कहाँ है? देश में मेरे जैसे न जाने कितने शिक्षित अभागे युवक बेरोजगार बनकर दर-बदर की खाक छानने को विवश हैं। आज उन्हें कोई पूछता भी नहीं है। ऐसे में मायूस होकर वे नाना प्रकार के अपराध करने पर आमादा हैं। पढ़-लिखकर कृषि कार्य में ही हाड़तोड़ मेहनत करनी है तो शिक्षा-दीक्षा का क्या अर्थ रह जाता है? शिक्षा संस्कार की जननी है। वह सबको संस्कार देकर योग्य और काबिल बनाती है।
तब प्रेरणा जी गोकरन के व्यंग्यमय तर्कों को अनसुनी करते हुए उदारतापूर्वक बोलीं-चिंता मत कीजिए। यदि आप नौकरी करने के ही इतने प्रबल इच्छुक हैं तो मैं आपको वचन देती हूँ कि आपको नौकरी मैं दिलाऊँगी।
चोर की दाढ़ी में तिनका होता ही है गोकरन अब भी दुविधाग्रस्त ही था। अभी तक उसकी दुराशा कम न हुई। फिर भी वह कुछ साहस जुटाकर बोला-परंतु, मैडम! मैं कोई ऐसी-वैसी छोटी-मोटी नौकरी न करूँगा। यदि नौकरी करूँगा तो आन, बान, शान और शोहरत वाली ही करूंगा।
यह सुनकर प्रेरणाजी हँसकर गंभीरता से बोलीं-मैं आपको ऐसी-वैसी नहीं बल्कि, शोहरत और शानदार नौकरी ही दिलाऊँगी। ऐसा कीजिए यह लीजिए मेरे घर का पता और कल सुबह अपने सभी प्रमाण पत्रों के साथ वहाँ आ जाइए। कालेज से फर्सत मिले पर वह घर गई और अपने भाई से गोकरन को कोई अच्छी नौकरी दिलाने का अनुरोध किया।
गोकरन काम तृष्णा में अंधा तो हो ही चुका था घर पर बुलाने का प्रेरणा का आमंत्रण मिलते ही वह फूलकर कुप्पा हो गया। उसके हृदय में प्रसन्नता की लहरें उठने लगीं। उसका कलेजा जोर-जोर से धड़कने लगा। मन बल्लियों उछलने लगा। मनमृग कुलाचें मारने लगा। उसके मन ख्याल आने लगा कि ऐसा मालूम होता है मेरी सोच पूर्णतया गलत थी। अंततः मेरी चिंता बिल्कुल निर्मूल ही साबित होती दिखाई दे रही है। मन में यह विचार आते ही उसकी मुराद पूरी होती हुई नजर आने लगी। उसकी सारी उदासी तनिक देर में न मालूम कहाँ छू-मंतर हो गई। उसका मन मयूर मस्त होकर नृत्य करने लगा।
गोकरन सोचने लगा अब पंछी लगभग मेरे बिछाए जाल में फँसने को सहर्ष राजी है। घर पर आने का खुले मन से निमंत्रण देना इसका सबूत है। मगर, दूसरे ही पल उसके मन में आता कि कहीं ऐसा न हो कि अपने घर पर प्रेम से बुलाकर यह चतुर चिड़िया उल्टे मुझे ही अपने बिछाए हुए जाल में फँसा दे। पाने के फेर में अनायास ही कहीं मुझे लेने के देने न पड़ जाएं।
स्त्रीजाति का कोई भरोसा थोड़े ही है। इन्हें जब स्वयं परमपिता जगदीश्वर ही नहीं जान सकता तो पुरुष की तो बिसात ही क्या है। किसी पुरुष की क्या मजाल कि किसी ललना को पहचान सके। पलक झपकते ही स्त्री कई रूप धारण कर सकती है। उसके पास कई रूप विद्यमान हैं। खुश होने पर वह किसी की तकदीर बना भी सकती है और बिगाड़ भी सकती है। उसमें देवी का रूप भी मौजूद है और पिचासिनी का भी। वह वरदान भी देती है और नाराज होने पर अभिशाप भी। वह जैसे पुरुष को जन्म देती है वैसे ही उसे मिटा भी सकती है। मन में ध्यान आते ही गोकरन की रूह काँप उठती। उसे दिन में तारे नजर आने लगते।
दिन इसी तरह सोच-विचार करते बीत गया। शाम ढल गई और रात हो गई। गोकरन की उलझन किसी भी सूरत में कम न हुई। वह सारी रात्रि सो न सका। रातभर करवटें ही बदलता रहा। सबेरा होते ही वह बिस्तर से उठा और तैयार होकर मुस्कराते हुए प्रेरणा के घर की ओर चल पड़ा। मार्ग में वह यह फिल्मी गाना गुनगुनाता रहा आज उनसे पहली मुलाकात होगी.....। इसके साथ ही वह सोचता रहा कि आज मेरा सपना साकार होगा। मेरा सारा खटका मिट जाएगा। मैं धन्य हो जाऊँगा। वह मुझसे जब एकांत में अकेले मिलेगी तो जीभर उसे प्यार करूँगा। मैं खुद को उस पर न्यौछावर कर दूँगा। आज मुझे जो खुशी मिलेगी वह मुझे जीवन भर नहीं मिल पाएगी। मैं ऐसा करूँगा, मैं वैसा करूँगा। मेरा भरपूर प्रेम पाकर वह फिर कभी भूलकर भी मुझसे अलग न हो सकेगी। वह हरदम मेरे ही ख्यालों में खोई रहेगी।
इतने में प्रेरणा का घर आ गया। गोकरन ने वहाँ जाते दरवाजे पर लगे डोरबेल को बजा दिया। घंटी की आवाज सुनते ही प्रेरणा ने दरवाजा खोल दिया। उस समय वह घर में अकेली थीं। उसमें कोई दूसरा व्यक्ति न था। दरवाजे के बाहर गोकरन को खड़े देखकर वह बोलीं-आ गए मिस्टर गोकरन! आइए अंदर आइए।
घर के अंदर जाते ही वहाँ किसी और को न देखकर गोकरन के मन में हिलोरें उठने लगीं। उसका मन मचल उठा। प्रेरणा जी ने उसे करीने से सजे सोफे पर बैठने का संकेत किया। वह धम्म से उसमें बैठ गया। उसमें बैठते ही वह उसके अंदर धँस गया। उसे वहीं बिठाकर प्रेरणाजी रसोई के भीतर चली गईं।
उनके वहाँ से हटते ही गोकरन पुनः अपने स्वप्निल संसार में पूर्ववत विचरण करने लगा। तब तक प्रेरणा जी एक खूबसूरत तश्तरी में चाय के दो प्यालों के साथ तरह-तरह के नमकीन और बिस्कुट सजाकर ले आईं। लीजिए चाय पीजिए मिस्टर गोकरन! वह मुस्कराकर बोलीं। गोकरन ने बेधड़क चाय का एक कप उठा लिया और थोड़ी सी नमकीन मुँह में डालने के बाद चास की चुस्कियाँ लेने लगा।
उसके मन में अब भी वहीं कुचेष्टा थी। वह चाहते हुए भी कुछ समझने में एकदम असमर्थ था। वह मानो किंकर्तव्यविमूढ़ बन चुका था। एक-एक पल बिताना उसे भारी लग रहा था। वहाँ उसका दम घुँटने लगा। वह बारंबार यही सोचता कि प्रेरणा अब मुझसे क्या कहने वाली है। यह मुझे जीवनदान देगी या भूखी बाघिन के जैसे कहर बनकर मुझ पर औचक टूट पड़ेगी?
प्रेरणाजी एक कुशल और अनुभवी अध्यापिका थीं। वह गोकरन के उत्पाती मन के भावों और उसकी उलझन को काफी हद तक भाँप चुकी थीं। उन्हें यह ताड़ते तनिक भी देर न लगी कि मुझे इस वक्त घर में अकेली पाकर यह मुझे किस निगाह से देख रहा है लेकिन, प्रतिकार स्परूप वह उससे कुछ बोलीं नहीं।
प्याले की चाय खत्म होते ही प्रेरणा जी कहने लगीं-मिस्टर गोकरन! अब आप एक काम कीजिए। आप जिले के पुलिस कप्तान के दफ्तर चले जाइए। मनमोहन गौतम मेरे बड़े, सगे भाई हैं। वहाँ जाकर उनसे मिल लीजिए। वह आपकी पूरी मदद करेंगे। आपको नौकरी मिल जाएगी। आपका सारा खटका मिट जाएगा। आपकी परेशानी हमेशा के लिए दूर हो जाएगी।
यह सुनते ही मारे दहशत के गोकरन का कलेजा थर्रा उठा। वह मन ही मन सोचने लगा कि लगता है यह अब अपने असली रूप में आ गई है। यह मुझे पुलिस के पास भेजकर काल कोठरी में भिजवाने का इंतजाम कर चुकी है। अब यह मुझे हर हाल में जेल भिजवाकर ही रहेगी। आज इसने मुझे कैसे संकट में डाल दिया। वहाँ चला जाऊँ तो भी बुरा और न जाऊँ तो भी बुरा। जाने पर जेलगृह जाने का खतरा और न जाने पर हाथ आती हुई नौकरी न मिलने का खतरा है।
तत्पश्चात यह सोचकर कि शायद मेरी शंका बेकार हो और सच्चाई कुछ और ही हो। लाओ वहाँ जाकर अपने मन की तसल्ली तो कर ही लूँ। बाद में जो होगा देखा जाएगा। मन में यह विचार आते ही गोकरन बड़े उत्साह में आकर कप्तान साहब के आफिस की ओर चल दिया। वहाँ जाकर जब उसने मनमोहन गौतम के बारे में पूछा तो उसे जो कुछ भी मालूम हुआ उसे सुनते ही वह दंग रह गया।
मनमोहन गौतम ही पुलिस कप्तान हैं यह जानकर उसे बड़ा ताज्जुब हुआ। उसके हाथों के ताते उड़ गए। वह भौंचक्का सा होकर दाँतों तले उँगली दबा लिया। उसका माथा ठनकने लगा। उसकी समझ में न आ रहा कि अब क्या करूँ? तभी उसके मन में आया कि वास्तव में अब जान की खैरियत नहीं है। मैं कितना बदनसीब हूँ कि कड़ाही से निकलकर चूल्हे में आ गिरा। यह आदमी पुलिस वाला तो है ही प्रेरणा का सगा भाई भी है। यह आज मुझे जिंदा न छोड़ेगा। मेरी मति मारी गई थी जो स्वयं ही चलकर शेर की माँद में आ पहुँचा।
इसके बावजूद नौकरी पाने की लालच में गोकरन कुछ हिम्मत करके कप्तान साहब के पास जाकर बड़े अदब से हकलाते हुए नमस्ते सर! कहकर बोला-जी मेरा नाम गोकरननाथ है। मुझे आपके पास प्रेरणा मैडम ने भेजा है। अरे भई! इतना भयभीत क्यों हो रहे हैं? कप्तान साहब ने हँसकर पूछा। अगर, ऐसे ही घबराएंगे तो पुलिस की नौकरी कैसे करेंगे। इतना कहकर तदंतर उन्होंने अपनी मेज की दराज से दरोगा की भर्ती के लिए एक फार्म निकालकर उसकी ओर बढ़ाते हुए बोले-इसे सही-सही भरकर अपनी समस्त सनदों की छाया प्रति लगाकर अभी मुझे दीजिए। ध्यान रहे इसमें कोई काट-पीट न होने पाए।
फार्म हाथ में आते ही गोकरन ने फौरन भरकर उसे कप्तान साहब के हाथ में थमा दिया। तब गौतम जी मुस्कराकर बोले-अब आप बेफिक्र घर जाइए। आपके घर चिट्ठी पहुँच जाएगी। भरती के दिन समय से आ जाइएगा। अब समझिए कि आपकी नौकरी पक्की हो गई। हम आपको दरोगा बनाएंगे। इससे आपकी जिंदगी में खुशहाली छा जाएगी।
गौतम बाबू को धन्यवाद देकर गोकरन ने अपने घर की राह पकड़ ली किंतु उसकी अंतर्रात्मा कचोट उठी। अपनी घटिया मानसिकता और तुच्छ सोच पर उसे अपार दुःख हुआ। अगले ही रोज कालेज में जाकर अपराधबोध मन से सबके सामने ही उसने प्रेरणाजी से माफी माँगते हुए कहा-विशाल हृदया देवी इस बदकिस्मत को क्षमा कर दीजिए। आप सचमुच कितनी महान हैं। मैं आपको क्या से क्या समझता रहा और आप क्या निकलीं? मैं आप पर सदैव बुरी निगाह ही रखता रहा। आप जैसी सुशीला और पवित्र आत्मा वाली नेक स्त्री चिराग लेकर ढूँढ़ने पर भी इस दुनिया में न मिलेगी।
उसकी पीड़ा देखकर प्रेरणाजी बोलीं-गोकरननाथ! अगर, मैं तुम्हारी अंटशंट बातों पर ध्यान देती तो तुम्हारे जैसे बिगड़ैल छोकरों का सुधार कैसे होता? देर आयद दुरुस्त आयद, अपनी भूल का अहसास होने पर तुमने अपने अंदर छिपे शैतान को मार दिया। इससे बढ़कर मेरे लिए दूसरी खुशी और क्या होगी? अब तुम निश्चिंत होकर घर जाओ।
अंत में एक पखवाड़े बाद ही गोकरननाथ को दरोगा की नौकरी मिल गई। ट्रेनिंग के बाद उन्हें दरोगा बना दिए गए। गोकरन को सारी झंझटों से छुटकारा मिल गया। पर, नौकरी मिलते ही गोकरन को प्रेरणाजी के साथ अपनाए गए बचकाने और व्यवहार पर बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई। अपने कर्मों पर बड़ा पश्चाताप हुआ। दरोगा जी का हृदय आत्मग्लानि से भर उठा। प्रेरणा ने उन्हें ऐसी प्रेरणा दी कि उस दिन से उन्होंने फिर किसी सुंदरी को न छेड़ने की कसम खा ली।
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राजभाषा सहायक
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उत्तर मध्य रेलवे मुख्यालय
इलाहाबाद
उम्दा सीख देती कहानी
जवाब देंहटाएंआपका इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (17-11-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
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