(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बध...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
तेजेन्द्र जी मेरे कितने परिचित ए कितने अपरिचित !
- इला प्रसाद
सोच रही हूँ कि तेजेन्द्र जी को कितना जानती हूँ । जब कहती हूँ कि जानती हूँ तो मेरा मतलब होता है कि मैं जानती हूँ कि इस परिस्थिति विशेष में इस व्यक्ति की प्रतिक्रिया यह होगी। तो तेजेन्द्र जी को मैं इतना तो जानती ही हूँ कि जब भी कहीं हिन्दी. साहित्य की बात होगी उस दिशा में कुछ करने की कोई ठोस योजना बनेगी तो तेजेन्द्र जी वहाँ होंगे।
प्रवासी साहित्य जैसे मुहावरों से तेजेन्द्र जी परहेज करते हैं और ऐसी बातें होने पर अपने तर्क ज़ोरदार शब्दों में देते हैं। विदेशों में बसे भारतीय साहित्यकारों को हिन्दी साहित्य की मुख्य धारा में स्थान दिलाने की उनकी कोशिशें अन्जानी नहीं अब, किसी के लिए।
अपने व्यक्तिगत अनुभव से जानती हूँ कि किसी नए लेखक को प्रोत्साहित करने में भी वे सबसे आगे रहते हैं।
तब मेरे अन्दर की लेखिका ने बस कलम उठाई ही थी। ई-मेल मेरी लिखी पहली कहानी थी जो ‘‘अभिव्यक्ति'' में छपी थी। उस कहानी पर पाठकीय प्रतिक्रिया स्वरूप जो पहला ई-मेल मुझे अगले ही दिन प्राप्त हुआ ए वह तेजेन्द्र शर्मा का था। ढेर सारी प्रशंसा और प्रोत्साहन से भरा पत्र। मैंने उसे आज तक संभाल कर रक्खा हुआ है॥ किसी नए लेखक को शुरुआत में ही इतना खूबसूरत पत्र मिल जाए तो वह एक उपलब्धि ही होती है। मैंने दिल से उनका शुक्रिया अदा किया। याद आया कि कुछ ही समय पहले मैंने अभिव्यक्ति पत्रिका में ही ‘‘काला सागर'' कहानी पढ़ी थी, जो मुझे बहुत अच्छी लगी थी। वह इन्हीं की थी। ई-मेल कहानी पर मुझे कई ई-मेल मिले। उस कहानी ने मुझे कई मित्र दिए किन्तु तेजेन्द्र जी का अन्दाज़ अलग था।
मैंने पत्र का जवाब दिया तो इतनी अपेक्षा नहीं थी कि वे मुझसे पत्राचार का सिलसिला कायम रखेंगे। वेब पत्रिकाओं में सिर्फ उनकी कहानियाँ ही नहीं, उनके बारे में भी पढ़ा था। जानती थी कि वे वरिष्ठ लेखक हैं, प्रवासी साहित्य की दुनिया में सुपरिचित नाम हैं और एक व्यक्ति न होकर अपने आप में एक संस्था हैं।
यह भी स्मरण आया कि ‘‘शान्ति'' मेरा प्रिय सीरियल था और मैं घर पर होने पर उसे देखना कभी नहीं भूलती थी। उस सीरियल के लेखक का नाम कहीं अवचेतन में बना रह गया होगा और अमेरिका आने पर बाकी कड़ियाँ जुड़ गईं हैं।
किंतु तेजेन्द्र जी ने कुछ ही समय बाद ‘‘ई-मेल'' कहानी को ‘‘पुरवाई'' में जगह दी। मेरी रचनाओं को पढ़ते रहे और बीच-बीच में प्रतिक्रिया देते रहे। ‘‘खिड़की'' कहानी सबसे पहले मैंने उन्हें ही भेजी थी। उनके सुझाव भी मिले। उसकी कुछ पंक्तियाँ उनके अनुसार व्यर्थ का विवाद पैदा करतीं। बाद में कृष्ण बिहारी जी ने उस कहानी को जब ‘‘निकट'' में जगह दी तो उन्हीं पंक्तियों पर ठीक वही टिप्पणी दी जो तेजेन्द्र जी दे चुके थे। मैंने वे पंक्तियाँ हटवा दीं और आज भी उस निर्णय को लेकर आश्वस्त हूँ कि वह एक सही कदम था।
पत्राचार का सिलसिला चलता रहा।
मैं भी बड़ी बेबाकी से अपने विचार व्यक्त करती रही और धीरे-धीरे यह अनुभव किया कि कहीं अगर कुछ अच्छा लिखा गया तो तेजेन्द्र जी न सिर्फ उसे पढ़ते हैं बल्कि दूसरों को उसे पढ़ने को प्रेरित भी करते हैं। वेब पर उपलब्ध तमाम पत्रिकाओं खबरों को वे मुझसे पहले पढ़ चुके होते हैं और इतना ही नहीं वे मुझसे अपेक्षा भी करते हैं कि मैं उसे पढ़ूँ। जो अच्छा है, उसकी प्रशंसा करूँ। क्योंकि यह उनका सहज स्वभाव है।
किसी सम्पादक मित्र की टिप्पणी थी कि हिन्दी साहित्य का दुर्भाग्य ही यही है कि हिन्दी के जो स्थापित लेखक/कवि हैं, वे पढ़ते नहीं केवल लिखते हैं। लिखते हैं और चाहते हैं कि बाकी जनता उन्हें पढ़े।
तेजेन्द्र जी इसके अपवाद हैं।
उनकी स्पष्टवादिता से भी कई बार रू-ब-रू हुई हूँ । विश्व हिन्दी सम्मेलन के दौरान जानना चाहा कि क्या वे आ रहे हैं तो उनका जवाब था कि वे ऐसे सम्मेलनों में जाना पसन्द नहीं करते। तीन मिनट बोलने की फ़ीस बहुत ज़्यादा है। उनका यह वक्तव्य मैंने सम्मेलन में अपने मित्रों को सुनाया भी था और हम सब जानते हैं कि इस के पीछे छिपा व्यंग्य कितना सही था।
पत्रों के ही माध्यम से मैंने यह भी जाना है कि वे आलोचना और प्रशंसा दोनों में ईमानदार हैं। उनकी कटु आलोचना से भी साक्षात्कार कर चुकी हूँ, हालांकि उस घटना का उल्लेख करना नहीं चाहती।
ब्रिटेन के साहित्यकारों की तो वे आवाज बन चुके हैं। अमेरिका के साहित्यकारों को उनसे सबक लेना बाकी है।
व्यक्ति तेजेन्द्र से मैं कभी नहीं मिली। हो सकता है भविष्य में ऐसे अवसर आएँ। मेरा उनसे परिचय पत्रों तक ही सीमित रहा है किन्तु उनके बारे में इतना कुछ पढ़ चुकी हूँ, इतना कुछ उनका लिखा पढ़ चुकी हूँ, रेडियो सबरंग पर उन्हें सुन चुकी हूँ, पत्रों से सम्पर्क में रही हूँ कि नहीं लगता कि उनसे अपरिचित हूँ। हालांकि यह भी उतना ही सच है कि लेखक तेजेन्द्र जी के व्यक्तित्व के भी कई पहलू ऐसे होंगे ही जिनसे मेरा कोई परिचय नहीं है।
मैंने उन्हें जितना जाना है वह मुझे उनके एक अच्छे लेखक होने के अतिरिक्त एक अच्छे इन्सान होने के प्रति आश्वस्त करता है।
उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा है, वह मेरी पूँजी है।
उनके प्रोत्साहन ने मेरे अन्दर के लेखक को ऊर्जा दी है। वे सहज ही किसी को अपना मित्र बना लेते हैं, यह उनका एक और विशेष गुण है।
साहित्य की दुनिया में तेजेन्द्र जी एक लम्बा सफर तय कर चुके हैं। सतत अध्यवसाय रत, इस कर्मठ इन्सान से आगे भी यहाँ के हिन्दी भाषा और साहित्य को कई अपेक्षाएँ हैं।
उन्हें मेरी शुभकामनाएँ!
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साभार-
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