(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
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कविताएं
गिलहरी....
रहती है मेरे घर के पीछे
बाग़ के एक दरख़्त पर
उछलती, कूदती, फरफराती
एक डाल से दूसरी पर
बंदरिया-सी छलांग लगाती।
ये मेरे बाग़ की गिलहरी है।
इस देश के गोरे नागरिकों की
करती है नकल, अपनी
फ़रदार पूंछ को हिलाती है
अलग अलग दिशा में नचाती है
चेहरे पर रोब लाए
करती है प्रदर्शन, अपनी
अमीरी का, अपनी सुन्दरता का
हां, ये मेरे बाग़ की गिलहरी है।
अपने आगे के पैरों को देती है
हाथों-सी शक्ल और वैसा ही काम
कुतरती है सेब, मेरे ही बाग़ के
ऐंठती हुई करती है अठखेलियां
पेड़ों से टकराती ब्यार से
उफ़! ये मेरे बाग़ की गिलहरी।
जब जी चाहे पहुंच जाती है
मेरे ज़ीने पर, मेरे स्टोर में
कुतर डालती है, दिखाई देता है जो भी
मैं, बस सुनता हूं आवाज़ें
घबराता हूं, मांगता हूं दुआ
पुस्तकों की ख़ैरियत की।
मुझे भक्त बना देती है
ये जो है मेरे बाग़ की गिलहरी।
एक दिन सपने में मेरे आ खड़ी होती है
चेहरे पर दंभ, रूप से सराबोर
गदराया बदन, दबी मुस्कुराहट
आज आने वाली है उससे मिलने
उसकी दूर की एक रिश्तेदार!
उस शहर से जहां बीता था मेरा बचपन
हां वो भी तो एक गिलहरी ही है।
ग़रीबी के बोझ से दबी
सिमटी, सकुचाई, शरमाई
अपने सलोने रंग से सन्तुष्ट
संग लाई है अपने अमरूद
बस वही ला सकती थी
महक मेरे शहर की मिट्टी की
पाता हूं वही महक कभी अमरूद में
तो कभी उसमे जो मेरे शहर की गिलहरी है।
मेरे बाग़ की गिलहरी को नहीं भाती
गंवई महक अमरूद की, या फिर
मेरे शहर की मिट्टी की वो गंध
जो मेरे शहर की गिलहरी ले आई है
अपने साथ, अपने शरीर अपनी सांसों में।
वह रखती है अपनी मेहमान के सामने
केक, चीज़ और ड्राई फ़्रूट
कितनी भी खा ले, पूरी है छूट
कितने बड़े दिलकी मालकिन है
वो जो मेरे बाग़ की गिलहरी है।
मेरे शहर की गिलहरी सीधी है सादी सी
निकट है प्र.ति के, सरल और मासूम
बस खाती है पेड़ों के फल, कैसे पचाए
केक, चीज़ और ड्राई-फ़्रूट
देखती है, मुस्कुराती है, पूछती है हाल
अपनी मेज़बान के, उसके परिवार के।
परिवार यहां नहीं होता, सब रहते हैं
अलग अलग, यह मस्त देश है
ऊंचे कुल की दिखती है वो
जो मेरे बाग़ की गिलहरी है।
भसुनोए तुम यह सब नहीं खाती हो
इसी लिये सेहत नहीं बना पाती हो
मुझे देखो, कितना ख़ूबसूरत देश है मेरा
कैसा है मेरा स्वरूप, रंग रूप।.. देखो
मेरे बाग़ में कितने सुन्दर पेड़ हैं
रंग बिरंगी पत्तियों वाले पौधे!
यहां का हरा रंग कितना गहरा है!
यहीं आ बसो, यहां है कितना सुख
कितनी शान, मौज है मस्ती है।
आत्ममुग्ध हो जाती है, जो
मेरे बाग़ की गिलहरी है।
चुप नहीं हो पाती है, जारी है
बोलना उसका और इठलाना।
मेरे देश में इन्सान से अधिक
होती है परवाह हमारी
यही है वो देश जहां कभी
अस्त नहीं होता था सूर्य
जब कभी उदय होता है पूर्व में
तब भी चमकता है मेरा यह
पश्चिम का देश। और चमकने
लगता है चेहरा, मेरे बाग़ की गिलहरी का।
शांत किन्तु .ढ़ आवाज़ में
देती है जवाब, गिलहरी मेरे शहर की।
माना कि तुमु हो बहुत सुन्दर और सुगठित
धन और धान्य से भरपूर है शहर तुम्हारा।
तुम्हारे देश में हैं सुख, सुविधाएं और आराम।
देखो मेरी ओर, देखो मेरे इस साधारण बदन को,
यह तीन उंगलियां जिसकी हैं
उसका नाम है राम! इस तरह देती है सुख
मुझे असीम, वो जो मेरे शहर की गिलहरी है।
यह घर तुम्हारा है इसको न कहो बेगाना
जो तुम न मानो मुझे अपना, हक तुम्हारा है
यहां जो आ गया इक बार, बस हमारा है.
कहां कहां के परिन्दे, बसे हैं आ के यहां
सभी का दर्द मेरा दर्द, बस ख़ुदारा है.
नदी की धार बहे आगे, मुड़ क़े न देखे
न समझो इसको भंवर अब यही किनारा है.
जो छोड़ आये बहुत प्यार है तुम्हें उससे
बहे बयार जो, समझो न तुम, शरारा है.
यह घर तुम्हारा है इसको न कहो बेगाना
मुझे तुम्हारा, तुम्हें अब मेरा सहारा है.
टेम्स का पानी
टेम्स का पानी, नहीं है स्वर्ग का द्वार
यहां लगा है, एक विचित्र माया बाज़ार!
पानी है मटियाया, गोरे हैं लोगों के तन
माया के मकड़जाल में, नहीं दिखाई देता मन!
टेम्स कहां से आती है, कहां चली जाती है
ऐसे प्रश्न हमारे मन में नहीं जगा पाती है !
टेम्स बस है ! टेम्स अपनी जगह बरकरार है !
कहने को उसके आसपास कला और संस्कृति का संसार है !
टेम्स कभी खाड़ी है तो कभी सागर है
उसके प्रति लोगों के मन में, न श्रध्दा है न आदर है!
बाज़ार संस्कृति में नदियां, नदियां ही रह जाती हैं
बनती हैं व्यापार का माध्यम, मां नहीं बन पाती हैं !
टेम्स दशकों, शताब्दियों तक करती है गंगा पर राज
फिर सिक़ुड़ जाती है, ढूंढती रह जाती है अपना ताज!
टेम्स दौलत है, प्रेम है गंगा; टेम्स ऐश्वर्य है भावना गंगा
टेम्स जीवन का प्रमाद है, मोक्ष की कामना है गंगा
जी लगाने के कई साधन हैं टेम्स नदी के आसपास
गंगा मैय्या में जी लगाता है, हमारा अपना विश्वास!
क्या पतझड़ आया है?
पत्तों ने ली अंगड़ाई है
क्या पतझड़ आया है
इक रंगोली बिखराई है
क्या पतझड़ आया है?
रंगों की जैसे नई छटा
है छाई सभी दरख़्तों पर
पश्चिम में जैसे आज पिया
चलती पुरवाई है
क्या पतझड़ आया है?
पत्तों ने कैसे फूलों को
दे डाली एक चुनौती है
सुंदरता के इस आलम में
इक मस्ती छाई है
क्या पतझड़ आया है?
कुदरत ने देखो पत्तों को
है एक नया परिधान दिया
दुल्हन जैसे करके श्रृंगांर
सकुची शरमाई है
क्या पतझड़ आया है?
पत्तों ने बेलों ने देखो
इक इंद्रधनुष है रच डाला
वर्षा के इंद्रधनुष को जैसे
लज्जा आई है
क्या पतझड़ आया है?
नारंगी, बैंगनी, लाल सुर्ख़
कत्थई, श्वेत भी दिखते हैं
था बासी पड ग़या रंग हरा
मुक्ति दिलवाई है
क्या पतझड़ आया है?
कोई वर्षा का गुणगान करे
कोई गीत वसंत के गाता है
मेरे बदरंग से जीवन में
छाई तरूणाई है
क्या पतझड़ आया है?
नहीं है कोई शान
इस देश के
नौजवानों ने
कर दिया है यह ऐलान
देश के लिए लड़ने
और जान देने में
नहीं है कोई शान
विश्वास के काबिल नहीं है
इस देश का नेतृत्व
देता है धोखा, करता है गुमराह
हिलाता है दुम उसके आगे
जो है इसका आका
इराक के युध्द से हमने ये सीखा
यह मानकर
हर जुम्मे की शाम
यहां का नौजवान
साथ लिए इक शबाब
जाता है पब में
पीने को शराब
भूल जाता है वो जवान
कि इस देश की भी रही है
इक परंपरा इक शान
अपने तो अपने परायों ने भी
इस मुल्क के लिए
लड़ाई है जान
यही देश था जनाब नैपोलियन और हिटलर का
गांधी की अहिंसा को समझा था यही देश
साम्राज्यवादी, पूंजीवादी और क्या क्या कहलाता है
फिर भी हर साल
लाखों शरणार्थी
अपने यहां लाता है
गुलाम था पूरा विश्व जिसका
जहां से शुरू हुई वर्तमान समाज की सोच
आम आदमी के हक की लड़ाई
विज्ञान की हर खोज, बीमार शरीर का इलाज
रेलगाड़ी क़ी सवारी
हवाई यात्रा की तैयारी
एक शिकायत है मुझे अपने आप से
इस देश में अपनीं मर्ज़ी से आया, कमाया, खाया
यहां से भेजा धन अपनी मां, बहन हर रिश्ते को
यहां का नागरिक कहलाया
फिर भी न जाने क्यों
इसे कभी अपना देश नहीं कह पाया.
मेरे पासपोर्ट का रंग
मेरा पासपोर्ट नीले से लाल हो गया है
मेरे व्यक्तित्व का एक हिस्सा
जैसे कहीं खो गया है.
मेरी चमड़ी क़ा रंग आज भी वही है
मेरे सीने में वही दिल धड़क़ता है
जन गण मन की आवाज़, आज भी
कर देती है मुझे सावधान !
और मैं, आराम से, एक बार फिर
बैठ जाता हूं, सोचना जैसे टल जाता है
कि पासपोर्ट का रंग कैसे बदल जाता है.
भावनाओं का समुद्र उछाल भरता है
आइकैरेस सूरज के निकट हुआ जाता है
पंख गलने में कितना समय लगेगा?
धडाम! धरती की खुरदरी सतह
लहु लुहान आकाश हो गया!
रंग आकाश का कैसे जल जाता है?
पासपोर्ट का रंग कैसे बदल जाता है?
मि्त्रों ने देशद्रोही कर दिया करार
लाख चिल्लाया, लाख की पुकार
उन्हें समझाया, अपना पहलू बताया
किन्तु उन्हें, न समझना था
न समझे, न ही किया प्रयास
मित्रों का व्यवहार कैसे छल जाता है!
कि पासपोर्ट का रंग कैसे बदल जाता है.
जगरांव से लुधियाना जाना,
ग्रामद्रोह कहलायेगा
लुधियाने से मुंबई में बसना
नगरद्रोह बन जायेगा
मुंबई से लंदन आने में
सब का ढंग बदल जाता है
पासपोर्ट का रंग बदल जाता है.
दोहरा नागरिक
मुझसे अपना होने के मांगता है दाम
वो, जो कभी मेरा अपना था.
समझता है कमज़ोरी, दिल की मेरे
भावनाओं का मेरी उड़ाता है मज़ाक
कहता है सरे आम
चाहे रहो किसी और के हो कर भी
बस चुकाओ मेरे दाम
और लिखदो अपने नाम के साथ मेरा नाम !
मेरे बदन से नहीं आयेगी उसे
किसी दूसरे के शरीर की गंध
उसे नहीं रखना है मुझे
करके अपनी सांसों में बंद
कद्र ओहदे की करे, इंसां को नहीं जाने
मुझ से अपनी ज़ुबां में वो कभी न बात करे
उसे बस रहता है मेरी पूंजी से ही काम
फिर चाहे मैं लिख दूं उसके नाम के साथ अपना नाम !
अपना बनाने की भी रखता है शर्तें
भूल जाता है प्यार की पहली शर्त
कि प्यार शर्तों पर नहीं किया जाता
मेरे हर काम पर लगेगी पाबंदी
मुझे सदा होंगी अपनी हदें पहचाननी
कभी उससे नहीं रखनी होगी कोई अपेक्षा
हर वक्त पीना होगा बेरूख़ी का कड़वा जाम
तभी लिख पाऊंगा उसके नाम के साथ अपना नाम !
ऐ इस देश के बनने वाले भविष्य
ऐ इस देश के बनने वाले भविष्य
काश!
मैं तुम्हें
अपने देश के बनने वाला भविष्य
कह पाता! और मिलता मुझे
सुकून! शांति ! और सुख!
उठो इस देश के भविष्य
और वस्तुस्थिति को पहचानो
अब तुम्हें उठाना है
पढ़ाई के अतिरिक्त
और भी एक बोझ!
यह मज़दूर की सरकार है
मज़दूर को
बोझा ढोना, आना ही चाहिये.
मज़दूर की सरकार का हुक्म है
तुम्हें पढाई के लिये
उठाना होगा
और भी अधिक कर्ज़
यही है तुम्हारा फ़र्ज़
पहले महंगा हुआ पेट्रोल
फिर पार्किंग
सुपर मार्केट हुई
सुपर महंगी
अब मकानों को देखने के
भी लगेंगे दाम
हे राम !
इस देश के बनने वाले भविष्य
का वर्तमान
घमासान ! परेशान !
बोझा उठाओ, जुट जाओ
देखना
कहीं कमर ना मुड़ ज़ाए
भविष्य कहीं
कुबड़ा ना हो जाए !
मैं जानता था उसने ही बरबाद किया है
घर जिसने किसी ग़ैर का आबाद किया है
शिद्दत से आज दिल ने उसे याद किया है.
जग सोच रहा था कि है वो मेरा तलबगार
मैं जानता था उसने ही बरबाद किया है.
तू ये ना सोच शीशा सदा सच है बोलता
जो ख़ुश करे वो आईना ईजाद किया है.
सीने में ज़ख्म है मगर टपका नहीं लहू
कैसे मगर ये तुमने ऐ सैय्याद किया है.
तुम चाहने वालों की सियासत में रहे गुम
सच बोलने वालों को नहीं शाद किया है.
ज़िन्दगी को मज़ाक में लेकर
कुछ जो पीकर शराब लिखते हैं बहक कर बेहिसाब लिखते हैं
जैसा जैसा ख़मीर उठता है, अच्छा लिखते, ख़राब लिखते हैं.
रूख़ से परदा उठा के दर परदा, हुस्न को बेनकाब लिखते हैं
होश लिखने का गो नहीं होता, फिर भी मेरे जनाब लिखते हैं.
साकी पैमाना सागरो मीना, सारे देकर ख़िताब लिखते हैं
अपने महबूब के तस्व्वुर को, ख़ूब हुस्नो शबाब लिखते हैं.
लिखने वालों की बात क्या कहिये, जब ये बन कर नवाब लिखते हैं
यार लिख डालें ज़हर को अमृत, आग को आफ़ताब लिखते हैं.
जो भी मसला नज़र में हो इनकी, ये उसीका जवाब लिखते हैं
ज़िन्दगी को मज़ाक में लेकर, ज़िन्दगी की किताब लिखते हैं.
आदमी की ज़ात बने!
हरेक शख्स को है प्यार अपने नग़मों से
यहां किसी के लिए वाह कौन कहता है;
वो शख्स जिसको ग़ुमां है कि वो ही बेहतर है
अकेला कांच के घर में ही बंद रहता है.
कोई कहे मैं बाएं हाथ से ही लिखूंगा
मेरे सफ़ों पे तो मज़दूर या किसां होंगे;
मुझे तो भूख या ग़र्दिश से सिर्फ़ निस्बत है
जहां के दर्द मेरे हर्फ़ में अयां होंगे.
कोई है और भी जो प्रेम का पुजारी है
कहे कि चाह में उसकी सदा मैं गाऊंगा;
मेरा हबीब ही मेरा ख़ुदा है सब जानें
उसी की याद में दिन रात मैं बिताऊंगा.
किसी को प्यार है कुदरत के हर नज़ारे से
ज़मीं से, चांद से, सूरज से हर सितारे से;
कलम से उसके नई बात जब निकलती है
मचल के मिलती है हर मौज तब किनारे से.
कि मैं ही मैं हूं , चलो सोच ऐसी दफ़न करें
हरिक को दाद मिले और कोई बात बने;
फ़िदा जो अपने पे होना हमारा छूटे तो
विवाद ख़त्म हो, और आदमी की जात बने.
तो लिखा जाता है
दिल में जब दर्द जगा हो, तो लिखा जाता है,
घाव सीने पे लगा हो, तो लिखा जाता है.
ख़ुशी के दौर में लब गुनगुना ही लेते हैं
गम-ए-फ़ुरकत में भी गाओ, तो लिखा जाता है.
हाल-ए-दिल खोल के रखना, तो बहुत आसां है
हाल-ए-दिल दिल में छुपा हो, तो लिखा जाता है .
अपनी ख़ुद्दारी पे हम, लाख करें नाज़ ऐ दोस्त
अपनी हस्ती को मिटाओ, तो लिखा जाता है .
ग़ैर अपनों को बनाना, भी कोई होगा हुनर
ग़ैर को अपनी बनाओ, तो लिखा जाता है .
बनी तस्वीर जो टूटे, तो ग़म तो होता है
टूटी तस्वीर बनाओ, तो लिखा जाता है .
यूं तो इक रोज़ फ़ना, सबने ही होना है यहां
जान का दांव लगाओ, तो लिखा जाता है .
लोग फिरते हैं यहां, पहने ख़ुदाई जामा
खुद को इन्सान बनाओ, तो लिखा जाता है.
बहुत से गीत ख्यालों में....
बहुत से गीत ख़्यालों में सो रहे थे मेरे
तुम्हारे आने से जागे हैं, कसमसाए हैं
जो नग़मे आजतक मैं गुनगुना न पाया था
तुम्हारी बज़्म में ख़ातिर तुम्हारी गाए हैं.
मेरे हालात से अच्छी तरह तू है वाकिफ़
ज़माने भर की ठोकरों के हम सताए हैं
तेरे किरदार की तारीफ़ में जो लिखे थे
उन्हीं नग़मों को अपने दिल में हम बसाए हैं.
फूल, तारे औ चांद पड़ ग़ये पुराने हैं
अपने अरमानों से यादें तेरी सजाए हैं.
साकी पैमाना सागरो मीना, किसके लिए
तेरे मदमस्त नयन मुझको जो पिलाए हैं.
मेरी मजबूर सी यादों को चिता देते हो
.
ये जो तुम मुझको मुहब्बत में सज़ा देते हो
मेरी ख़ामोश वफ़ाओं का सिला देते हो.
मेरे जीने की जो तुम मुझको दुआ देते हो
फ़ासले लहरों के साहिल से बढ़ा देते हो.
अपनी मगरूर निगाहों की झपक कर पलकें
मेरी नाचीज़ सी हस्ती को मिटा देते हो.
हाथ में हाथ लिए चलते हो जब गैर का तुम
मेरी राहों में कई कांटे बिछा देते हो.
तुम जो इतराते हो माज़ी को भुलाकर अपने
मेरी मजबूर सी यादों को चिता देते हो.
ज़बकि आने ही नहीं देते मुझे ख्वाबों में
मुश्किलें और भी तुम मेरी बढ़ा देते हो.
राह में देख के भी, देखते तुम मुझको नहीं
दिल में कुछ जलते हुए ज़ख्म लगा देते हो.
कैसे कह दूं कि तुम्हें, याद नहीं करता हूं
कैसे कह दूं कि तुम्हें, याद नहीं करता हूं
दर्द सीने में हैं, फ़रियाद नहीं करता हूं.
तेरा नुक्सान करूं सोच नहीं सकता मैं
मैं तो दुश्मन को भी बरबाद नहीं करता हूं.
तेरी तारीफ़ सदा सच्ची ही की है मैंने
झूठे अफ़साने मैं ईजाद नहीं करता हूं.
साकी पैमाने से यारों मुझे है क्या लेना
किसी मैख़ाने को आबाद नहीं करता हूं.
मेरे अरमानों को तुमने है कुचल डाला सनम
मैं शिकायत कभी सय्याद नहीं करता हूं.
औरत को ज़माने ने बस जिस्म ही माना है
औरत को ज़माने ने बस जिस्म ही माना है
क्या दर्द उसके दिलका कोई नहीं जाना है.
बाज़ार में बिकती है घरबार में पिसती है
दिन में उसे दुत्कारें, बस रात को पाना है.
मां बाप सदा कहते, धन बेटी पराया है
कुछ साल यहां रहके, घर दूजे ही जाना है.
इक उम्र गुज़र जाती, संग उसके जो शौहर है
सहने हैं ज़ुलम उसके, जीवन जो बिताना है.
बंटती कभी पांचों में, चौथी कभी ख़ुद होती
यह चीज़ ही रहती है, इन्सान का बाना है.
बन जाती कभी खेती, हो जाती सती भी है
उसकी न चले मर्ज़ी बस इतना फ़साना है.
सारों को पूजो
नजर में जो हों, उन नजारों को पूजो
कहीं चश्मों, नदियों, पहाड़ों को पूजो
कभी पूजो गिरजे व मस्जिद शिवालय
समाधी व रोज़ा, मज़ारों को पूजो
कभी पूजो गर्मी, कभी पूजो सर्दी
खिज़ां को कभी, फिर बहारों को पूजो
कभी पूजो बुत को, कभी बुतकदों को
कभी चांद सूरज व तारों को पूजो
कभी पूजा करते हो, वीरान राहें
कभी जा के उजडे द़यारों को पूजो
जिन्हें देखा भाला, नहीं आज तक है
उन्हीं आसरों को, सहारों को पूजो
यहां लोग मिलते हैं पूजा के काबिल
करिश्मों कभी चमत्कारों को पूजो
यूं मुर्दों को सजदे, बजाओगे कब तक
जो है पूजना, जानदारों को पूजो
तुम्हें अपने घर पर ही मिल जाएंगे वो
जो हकदार हैं, उन बेचारों को पूजो
भला तेज ने, कब तुम्हें आ के टोका
जो हैं पूजने योग सारों को पूजो.
सहमें सहमें आप हैं
मस्जिदें ख़ामोश हैं, मंदिर सभी चुपचाप हैं
कुछ डरे से वो भी हैं, और सहमें सहमें आप हैं.
वक्त है त्यौहार का, गलियां मगर सुनसान हैं
धर्म और जाति के झगड़े बन गये अब पाप हैं.
रिश्तों की भी अहमियत अब ख़त्म सी होने लगी
भेस में अपनों के देखो पल रहे अब सांप हैं.
मुंह के मीठे, पीठ मुड़ते भोंकते खंजर हैं जो
दाग़ हैं इक बदनुमा, इन्सानियत पर, शाप हैं.
राम हैं हैरान, ये क्या हो रहा संसार में
क्यों भला रावण का सब मिल, कर रहे अब जाप हैं.
ये कैसा पंजाब हैं लोग!
पढ़ने से जो समझ न आए
ऐसी बनी किताब हैं लोग.
इज्जत़ जिससे नहीं झलकती
अब ऐसा आदाब हैं लोग.
दूजे का नुक्सान करे जो
ऐसा बने हिसाब हैं लोग.
बालों को बदरंग जो कर दे
ऐसा बने ख़िज़ाब हैं लोग.
चढे नशा न कभी भी जिसका
ऐसी बनी शराब हैं लोग.
कोई करे न किसी की चिन्ता
ऐसे हुए ख़राब हैं लोग.
ढोल बजे और पांव न थिरके
ये कैसा पंजाब हैं लोग?
अपनों से दूर चल पड़ी अपनों की चाह में
अपनों से दूर चल पड़ी अपनों की चाह में
अन्जान कोई मिल गया, अन्जानी राह में.
अन्जान होके भी मुझे अपना सा वो लगा
इन्सानियत बसती दिखी उसकी निगाह में.
अपनों की बेरूख़ी से थी बेज़ार हो चली
करती हूं मुहब्बत उसे अब बेपनाह मैं.
है दर्द मेरा दूर से ही बांट लेता वो
हूं उसकी इबादत का कर रही गुनाह मैं.
वो राम कृष्ण है मेरा, है मेरा वली भी
आखिर में उसके दिल में ही लूंगी पनाह मैं.
अपने वतन को
शान में तेरी अब मैं गीत नहीं गाता हूं
अब तो जीवन में बस बुराई देख पाता हूं.
कितने दीवानों ने थी जान लुटा दी तुम पर
ना कभी याद में उनकी दिये जलाता हूं.
जो मुझसे पहले थे, तुझको वो मां बुलाते थे
अजीब बेटा हूं मैं दूर घर बसाता हूं.
सरहदों पे जो ठिठुरते हैं जां लड़ाते हैं
उनकी ख़ातिर ना एक शब्द गुनगुनाता हूं.
शाम होते ही जाम हाथ में आ जाता है
दोस्तों संग बैठ पीता और पिलाता हूं.
ना ख़ून मांगूं और ना तुमको दूं मैं आज़ादी
बसन्ती रंग से चोला नहीं सजाता हूं.
तल्ख़ियों से भरी होती है शायरी मेरी
ख़ुशी के नग़में नहीं आज मैं बनाता हूं.
तेरे जहान में इन्सान परेशान यहां
तमाम उम्र गुज़ारी, तलाश में तेरी
छुपा हुआ है मेरे दिल की धड़क़नों में तूं
पुकारता रहा मैं आरती आज़ानों में
मैं भूल बैठा कि इन्सानियत तेरा घर है
हज़ारों पोथियां लिख डालीं शान में तेरी
तुझे परमात्मा, अल्लाह और ख़ुदा जाना
तुम्हारे नाम पर कर डाला कत्ले आम यहां
भजन सुने, पढ़ी नमाज़ सुबहो-शाम यहां
कोई अपने को कहे बेटा, कोई पैग़म्बर
कोई कोई तो यहां ब्रह्म बना बैठा है
कहां तू सो रहा है कमली वाले मुझको बता
तेरे जहान में इन्सान परेशान यहां
हिन्दी की दुकानें
हम उनके करीब आये,
और उनसे कहा
भाई साहिब,
हिन्दी की दो पुस्तकों का है विमोचन .
यदि आप आ सकें ,
और संग औरों को भी ला सकें
तो हिन्दी की तो होगी भलाई,
और हो जायेगा प्रसन्न
हमारा तन और मन!
सुनकर वो मुस्कुराये,
अपने लहज़े में हैरानी भर लाये
हिन्दी की दो दो पुस्तकों का विमोचन
एक साथ ! और वो भी लंदन में!
यह आप में ही है दम !
वैसे किस दिन रखा है कार्यक्रम ?
शनिवार शाम को रखा है भाई
आप तो आइये ही, अपने मित्रों
को भी लेते आइयेगा
कार्यक्रम की शोभा बढ़ाइयेगा.
शनिवार शाम !
उनकी मुस्कुराहट हो गई गायब
और बोले वो तब
अरे तेज भाई, शनिवार
ही तो ऐसा है वार
जब सुपर मार्केट से सौदा सुलुफ
लाता है सारा परिवार .
घर में हूवर लगता है
भरने होते हैं बिल
ऐसे में
किसी कार्यक्रम में जाने को
भला किसका करेगा दिल?
सुन कर उनकी समस्या
मैं गड़बड़ा गया,
सूने हॉल का दृश्य
मेरे दिल को दहला गया.
जब कोई नहीं आयेगा
तो कार्यक्रम कैसे होगा सफल
किन्तु विमोचन का कार्यक्रम
था बिल्कुल अटल!
फिर मैंने सोचा, और उनको उबारा
दिया एक मौका था उनको दोबारा
चलो मेरे भाई, हम हैं तैयार
विमोचन का कार्यक्रम
रख लेते हैं रविवार !
हमें विश्वास है कि अबकी बार
साथ होगा आपका सारा परिवार !
सुनकर वो कुछ सकपकाये
हल्का सा बुदबुदाये
रविवार !
परिवार की अच्छी कही
सप्ताह भर खटती पत्नी
इसी दिन तो कर पाती है आराम .
बेटी को तो वो भी नसीब नहीं
ए-लेवेल का है एग्जाम!
बेचारी हिन्दी!
सुपर मार्केट , आराम और एग्जाम
के बीच फंसी खड़ी है
समस्या बहुत बड़ी है .
हिन्दीभाषी को लगता है
कि जैसे वह अंग्रेजी बोलने वाले
का दास है
हिन्दी यदि बहू
तो अंग्रेजी सास है .
हिन्दी जब देखती है चहुं ओर
तो पाती है बहुत सी दुकानें
जो उसके नाम पर चल रही हैं
भोली जनता को छल रही हैं .
वहां आते हैं मंत्री और सभासद
बातें होती हैं बड़ी बड़ी
बौने हैं उनके कद
अपने बच्चों को अंग्रेजी स्क़ूल
में भेज कर
वे करते हैं आव्हान, सब
हिन्दी स्कूलों में भेजो
अपनी अपनी संतान.
खाली बातें करने से
उनकी जेबें भरती हैं
हिन्दी सिकुड़ती है
उसकी हालत बिगड़ती है .
किन्तु फिर भी कुछ दीवाने हैं
हिन्दी है शमा तो वो परवाने हैं
हिन्दी की शमा जलाने को
अपना घर जलाते हैं
शमा तो जलती ही है
खुद भी जल जाते हैं .
कल अचानक ज़िन्दगी मुझ को मिली
जिन्दगी आई जो कल मेरी गली
बंद किस्मत की खिली जैसे कली.
ज़िन्दगी तेरे बिना कैसे जियूं
समझेगी क्या तू इसे ऐ मनचली.
देखते ही तुझको था कुछ यूं लगा
मच गई थी दिल में जैसे खलबली.
मैं रहूं करता तुम्हारा इन्तज़ार
तुम हो बस, मैं ये चली और वो चली.
तुमने चेहरे से हटायी ज़ुल्फ़ जब
जगमगाई घर की अंधियारी गली.
छोड़ने की बात मत करना कभी
मानता हूं तुम को मैं अपना वली.
चेहरा यूं आग़ोश में तेरे छिपा
मौत सोचे वो गई कैसे छली.
हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाना है!
भारत का प्रवासी दिवस अंग्रेज़ी में मनाना है
लेकिन हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाना है.
पांच दशकों से बन रही है हिन्दी राजभाषा
अगले पांच में बन पाएगी, नहीं कोई आशा
अभी अहिन्दी-भाषी राज्यों को समझाना है
लेकिन हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाना है.
नौकर की, दादी नानी की भाषा बनी हिन्दी
राजा के माथे लगती है अंग्रेज़ी की बिन्दी
ये क्या हुआ है आज भला कैसा ये ज़माना है
लेकिन हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाना है.
हमारे बच्चे हिन्दी के निकट नहीं जाएंगे
टीवी पर विदेशी चैनल ही उन्हें भायेंगे
भारतीय संस्कृति का पाठ उन्हें नहीं पढ़ाना है
लेकिन हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाना है.
तीज लोहडी दशहरा भला कैसे मनाएं
हम संत वैलेण्टाइन से फुरसत भी तो पाएं
त्यौहार हर विदेशी, सभी को मनाना है
लेकिन हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाना है.
हिन्दी की राजनीति चल रही भरपूर
हिन्दी की रोटियां सिक रहीं हुज़ूर
हिन्दी की दुकानों को यूं ही चलाना है
लेकिन हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाना है.
नव वर्ष की पूर्व सन्ध्या पर
प्रत्येक नव वर्ष
की पूर्व सन्ध्या पर
लेता हूं नए प्रण
अपने को बदलने के
और
समाज को भी.
पचास प्रण ले चुका हूं
लेकिन
प्रण रह गये प्रण ही
न जाने कब
बनेंगे यह प्रण
मेरे प्राण.
कितने अरबों प्रण
जुड़ ज़ाते हैं
हर वर्ष, नववर्ष
के आने पर
और बह जाते हैं
नव वर्ष की पूर्व संध्या
पर बहती सुरा में.
डरता भी हूं
जब देखता हूं
मेरे प्रण कतार के पीछे .
मारीशस, लंदन, सूरीनाम
के प्रस्ताव
या फिर दिल्ली सरकार
की योजना, उसके भी पीछे.
चाहता हूं
जीवन , जो बचा है
बिता सकूं
पहले लिए प्रणों को
कार्यान्वित करने
और उन्हें पूरा होते
देखने में. भूल जाऊं
नये प्रण !
पुतला ग़लतियों का
ग़लतियां किये जाता हूं मैं
हर वक्त
गलतियां ही गलतियां
कोई सहता है, कोई होता है परेशान
फिर भी मुझ पर करता है अहसान
क्योंकि मैं बाज़ नहीं आता
और किये जाता हूं गलतियां.
गलतियां करना फ़ितरत है मेरी
आम तौर पर
माफ़ी मांगने में हो जाती है देरी
अभी पहली से निजात नहीं पाता
कि कर बैठता हूं एक और
क्योंकि इन्सान नहीं हूं मैं
मैं हूं एक पुतला
गलतियों का.
कुछ को रहती है ताक
पकड़ने को गलती मेरी
फंसती है मछली जब
हो जाते हैं बेचैन
करने को मेरा दामन चाक
कहते हैं मुझे नकारा
मैं देखता रह जाता हूं बेचारा
क्योंकि करता हूं मैं गलतियां.
कुछ वो भी हैं, जो हैं मेरे अपने
जिनके संग मैंने देखे हैं सपने
अपेक्षाओं पर उनकी
कभी न उतरा खरा
रहा हमेशा ही डरा डरा
उनकी दहश्त सदा डराती है
और मुझसे गलतियां करवाती है.
कर्मभूमि
बहुत दिन से मुझे
अपने से यह शिकायत है
वो बिछड़ा गांव, मेरे
सपनों में नहीं आता .
वो भोर का सूरज, वो बैलों की घंटियां
वो लहलहाती सरसों भी
मेरे सपनों की चादर को
छेद नहीं पाते .
और मैं
सोचने को विवश हो जाता हूं
कि इस महानगर की रेलपेल ने
मेरे गांव की याद को
कैसे ढंक लिया !
विरार से चर्चगेट तक की लोकल के
मिले जुले पसीने की बदबू
मेरे गांव की मिट्टी की
सोंधी ख़ुशबू पर
क्योंकर हावी हो गई !
बुधुआ, हरिया और सदानंद
के चेहरों पर
सुधांशु, अरूण और राहुल
के चेहरे
कैसे चिपक गये !
मोटरों और गाड़ियों का प्रदूषण
गाय भैंसों के गोबर पर
कैसे भारी पड ग़या !
गांव के नाम पर, मुझे
नीच साहुकार, गंदी गलियां
और नालियां ही, क्यों
याद आती हैं ?
छोटे छोटे लिलिपुट
बड़ी बड़ी ड़ींगें हांकते
मेरे सपनों के कवच में
छेद कर जाते हैं!
भ्रष्ट राजनीति के
गंदे खेल ही
मेरे दिमाग़ को क्यों
मथते रहते हैं !
इस महानगर ने अपनी झोली में
मेरे लिये
न जाने क्या छुपा रखा है
कि यही
मेरी कर्मभूमि बन गया है .
मकड़ी बुन रही है जाल
मकड़ी बुन रही है जाल!
ऊपर से नीचे आता पानी
जूठा हुआ नीचे से
बकरी के बच्चे का
होगा अब बुरा हाल
मकड़ी बुन रही है जाल!
विनाश के हथियार छुपे
होगा जनसंहार अब
बचेगा न तानाशाह
खींच लेंगे उसकी खाल
मकड़ी बुन रही है जाल!
ज़माने का मुंह चिढ़ाकर
अंगूठा सबको दिखाकर
तेल के कुंओं की खातिर
बिछेंगे अब नरकंकाल
मकड़ी बुन रही है जाल!
बादल गहरा गये हैं
चमकती हैं बिजलियां
तोप, टैंक, बम्ब लिए
चल पड़ी सेना विशाल
मकड़ी बुन रही है जाल!
मित्र साथ छोड़ रहे
भयभीत साथी हैं
गलियों में सड़कों पे
दिखते ज़ुल्म बेमिसाल
मकड़ी बुन रही है जाल!
लाठी है मकड़ी क़ी
भैंस कहां जाएगी
मदमस्त हाथी के
सामने खड़ा कंगाल
मकड़ी बुन रही है जाल!
बच्चों की लाशें हैं
औरतों के शव पड़े हैं
बमों की है गड़गड़ाहट
आया जैसे भूचाल!
मकड़ी बुन रही है जाल!
संस्कृति लुट रही है
अस्मिता पिट रही है
मकड़ी क़ो रोकने की
किसी में नहीं मजाल
मकड़ी बुन रही है जाल!
मकड़ी क़े जाले को
तोड़ना जरूरी है
विश्व भर में दादागिरी
यही है बस उसकी चाल
मकड़ी बुन रही है जाल!
तुम्हारी आवाज़
तुम्हारी आवाज़
एक जादू है,
जो सर चढ़ क़र बोलता है
और एक तिलिस्म की तरह
मेरे पूरे व्यक्तित्व पर छा जाता है .
कहीं दूर बजती
पवित्र घंटियों सी है
तुम्हारी आवाज़
मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे
सब तुम्हीं से तो पवित्रता पाते हैं .
तुम्हारी आवाज़, एक विद्युत तरंग है ,
जो मेरे दिल की
धड़क़न को
चलाती है, धड़क़ाती है
और जीवित रखती है .
अमृत की सी, मधुर है
तुम्हारी आवाज़
देवताओं और असुरों को
युध्द करवाती है, और स्वयं
अमर हो जाती है .
नूपुर की झंकार सी है
तुम्हारी आवाज़
नृत्य की सारी सीमाओं
को तोड़, नटराज की मूर्ति
में समा जाती है .
तुम्हारी आवाज़ ही
कृष्ण की राधा है,
विष्णु की लक्ष्मी है,
शिव की पार्वती है
और यही है राम की जानकी.
सत्य है तुम्हारी आवाज़
शाश्वत है, शिव है , सुन्दर है,
मेरी आत्मा को
अपने रथ में बिठा
तीनों लोकों के दर्शन करवाती है .
तुम्हारी आवाज़ आदि है , अनादि है
उसका ना कोई पर्याय है
न ही कोई विलोम
तुम्हारी आवाज़ को ही सब
उच्चारते हैं !
दरख़्तों के साये तले
दरख्तों के साये तले
करता हूं इंतजार
सूखे पत्तों के खड़कने का
बहुत दिन हो गये
उनको गये
घर बाबुल के .
रास्ता शायद यही रहा होगा
पेड़ों की शाखों
और पत्तियों में
उनके जिस्म की खुशबू
बस कर रह गई है.
पत्ते तब भी परेशान थे
पत्ते आज भी परेशान हैं
उनके कदमों से
लिपट कर, खड़कने को
बेचैन हैं .
मगर सुना है
कि रूहों के चलने से
आवाज नहीं होती .
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साभार-
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