(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
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मित्रता की डोर में बंधी एक लेखनी
: वेद मोहला
तेजेन्द्र शर्मा का जीवन एक भारी-भरकम गठरी की तरह है; बांधे ही नहीं बंधता। उसे एक ओर से बांधिए, तो उनका व्यक्तित्व कहीं दूसरी ओर से झांकता दिखाई देगा। दूसरी ओर जाइए, तो आप उन्हें किसी तीसरे स्थान से आपको निहारते हुए पाएंगे। न जाने कितने कोणों से विभिन्न लोग उन्हें बांधने या उन पर बिल्ला लगाने के प्रयत्न कर चुके हैं, परन्तु वे सभी असफल रहे, क्योंकि वे बंधनमुक्त हैं, उन पर कोई बिल्ला टिकता ही नहीं।
तथ्य प्रस्तुत हैं। पता नहीं किस बिल्ले से आप उन्हें पहचानते हैं - कहानीकार (5 कहानी संग्रह), कवि (1 कविता संग्रह), अनुवादक (ब्रिटेन के होम आफिस और स्वास्थ्य मंत्रालय में हजारों दस्तावेज बिखरे पड़े हैं), जीवनी लेखक (1 पुस्तक अंग्रेंजी में), आलोचक (2 पुस्तकें अंग्रेंजी में), नाटक-कार (धारावाहिक 'शांति’ दूरदर्शन के लिए), अभिनेता (नाना पाटेकर के साथ अन्नू कपूर की फिल्म 'अभय’ मन-मोहक अभिनय), निर्देशक (3 नाटक केवल लिखे ही नहीं, उनका निर्देशन भी स्वयं ही किया)। और भी न जाने क्या-क्या !
तेजेन्द्र की सृजनात्मक पोटली को आप किसी भी दिशा से क्यों न देखें, उसमें आप ऐसी दो डोरियों को पाएंगे जिन्होंने समस्त गठरी में ताना-बाना फैला रखा है - एक है उनकी क़लम और दूसरी है मित्रता। जीवन के हर मोड़ पर न जाने किस प्रकार नए मित्र उनके सामने प्रकट होते रहे और अपना प्रभाव न केवल तेजेन्द्र पर बल्कि उनकी लेखनी पर भी छोड़ते गए। अपने इस कथन की पुष्टि के लिए मैं उनके जीवन की कुछ झलकियां प्रस्तुत करूंगा।
वह एक हिन्दी भाषी परिवार में नहीं, एक पंजाबी परिवार में जगरावां नामक स्थान में 21 अक्टूबर 1952 को जन्मे। परिवार पंजाबी, स्थान पंजाब, किन्तु पिता नंदगोपाल मोहला को था चस्का उर्दू का। उसी भाषा में लिखते थे - गीत, ग़़ज़लें और उपन्यास। ऐसे माहौल में पले-बढ़े युवक से अपेक्षा की जा सकती है कि उसे पंजाबी या उर्दू पर अधिकार होगा और वह उन्हीं के दायरे में पनपेगा। परन्तु नहीं, तेजेन्द्र तो निकले अंग्रेंजी के दीवाने। न केवल उस भाषा में एम. ए. किया, बल्कि उसी भाषा में लिखना भी आरम्भ कर दिया। बड़े ठसके से उन्होंने लार्ड बायरन की प्रसिद्ध कविता ‘डान जुआन’, जिसके प्रकाशन के 190 वर्ष बाद आज भी आलोचक उसकी पंक्तियों में कवि के चरित्र के सुराग ढूंढ़ते फिरते हैं, पर आलोचनात्मक पुस्तक लिख मारी मात्र 25 वर्ष की आयु में। मानो वह पर्याप्त नहीं था, उन्होंने जान कीट्स की दो अधूरी कविताओं हाइपीरियन और फ़ॉल ऑफ़ हाइपीरियन की भी साहित्यिक चीर-फाड़ कर डाली और उनकी दूसरी पुस्तक अंग्रेंजी में ही प्रकाशित हुई ‘जॉन कीट्स - दि टू हाइपेरियन्स’।
अपनी अंग्रेंजी विद्वता पर उन्हें गर्व था और उसी भाषा के साथ जीवन-पर्यन्त जुड़े रहने के सपने भी देखने लगे थे। परन्तु तब प्रवेश किया उनके जीवन में इन्दु ने एक पत्नी के रुप में। इन्दु ने सारी जीवन-प्रणाली में उलट फेर ला दिया। उन्होंने न केवल हृदय पर कब्ज़ा जमाया, बल्कि अपने पति के दुनिया को देखने के ढंग ही बदल डाला। इन्दु थीं हिन्दी की, उसी में जीती थीं, उसी में सोचती थीं और जब भी अवसर मिलता उसी भाषा में लिखती भी थीं। अपने पति को अंग्रेंजी के सम्मोहन से उन्होंने किस प्रकार छुड़ाया, वह अपने आप में एक रहस्यमय गाथा है, जिसकी गहराई में गए बिना भी हम देखते हैं कि बहुत जल्द ही तेजेन्द्र न केवल अच्छी हिन्दी सीख गए अपितु उसमें लिखने भी लगे। एक के बाद एक कहानियां उनकी लेखनी से बहने लगीं जिनमें से कुछ ‘काला सागर’ में पैठकर एक संग्रह के रुप में हमारे सामने आईं। 1994 में ऐसा ही एक संग्रह ‘ढिबरी टाइट’ के नाम से प्रकाशित हुआ और महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत भी हुआ। इस संग्रह का समर्पण भी कुछ खास रंग लिये है - ‘इन्दु के लिए - जो मेरी पत्नी होते हुए भी मेरी मित्र है’। यानि कि तेजेन्द्र ने मित्रता को रिश्तों से हमेशा ऊपर रखा।
जीवन की दिशा निर्धारित हो चुकी थी - काम उन्हें एअर इंडिया की उड़ानों के माध्यम से यूरोप ले जाता और दो बच्चों के साथ पत्नी भारत में रहकर उनपर जान न्योछावर करतीं। तेजेन्द्र दुनिया के किसी भी कोने में हों, किसी भी तरह के लोगों में अपनी कहानियों के पात्र ढूंढ़े, उनका दिल सदा रहता इंदु जी के आस-पास ही। वह एक मधुर जीवन था, जिसमें प्रेमतरंगें खिलवाड़ करती थीं। वैवाहिक जीवन के वे सोलह-सत्रह वर्ष एक स्वप्न की तरह बहुत तेजी से बीत गए और एक दिन तेजेन्द्र को आभास हुआ कि उनकी समस्त खुशियां को डसने एक नाग बड़ी तीव्रता से उनकी ओर बढ़ रहा है। वह नाग था कैंसर। इससे पहले कि वे स्वयं को उस नाग से लड़ने के लिए तैयार कर सकें, सब कुछ समाप्त हो गया - इंदुजी को कैंसर निगल गया।
वह एक क्रूर घात था - जीवन के उत्कृष्ट काल में तेजेन्द्र विधुर हो गए। इंदुजी क्या गईं, सब कुछ चला गया; बचा तो मात्र उनके प्रेम के सागर का साया। चारों ओर अंधकार छा गया था। जीवन का बोझ एक मृत शरीर ढो रहा था। व्यक्ति स्वयं को तो किसी प्रकार संभाले, परन्तु बच्चों को तो हवाई जहाज पर बिठाकर साथ लिए तो नहीं घूम सकता था। उन अबोध बच्चों की मां तो चल ही बसी थी, पिता (तेजेन्द्र) भी जीविकार्जन के लिए देश-विदेश की खाक छानते फिर रहे थे।
यह तो ठीक है कि उनका वृहत परिवार था, परन्तु बच्चों की देखभाल का पूरा उत्तरदायित्व लेने को कोई तैयार नहीं था। और जो तैयार थे, उनकी अपनी व्यक्तिगत समस्याएं थीं। दादी मां ने बच्चों को संरक्षण दिया अवश्य, परन्तु वह समस्या का स्थायी समाधान तो नहीं था।
तब तेजेन्द्र के जीवन में चिराग़ लेकर आईं नैनाजी। वह एक पारिवारिक मित्र थीं । लंदन में रहती थीं। अपनी यात्राओं के दौरान जब भी तेजेन्द्र लंदन आते थे, उन्हीं के निवास पर ठहरते थे, इस कारण वे परिस्थिति से पूरी तरह परिचित थीं। वे तेजेन्द्र से विवाह के लिए तैयार हो गईं इस वचन के साथ कि वे बच्चों को अपना सम्पूर्ण मातृत्व देंगी। परन्तु उनकी एक शर्त थी - वे भारत में नहीं रहेंगी। यह एक टेढ़ा प्रतिबंध था, परन्तु तेजेन्द्र ने उसे स्वीकार कर लिया बच्चों के पालन-पोषण के लिए। जब अपने प्राणों से भी प्रिय इंदु के निधन के एक वर्ष के भीतर ही उन्होंने नैनाजी से विवाह रचा लिया, तो उनके अनेक मित्र अवाक रह गए, परन्तु यह कथा शोक काल में प्रणय लीला की नहीं, अपितु कर्तव्य के आगे दिल पर पत्थर रखने की है।
1998 में नई पत्नी नैनाजी के साथ इंगलैण्ड में जीवन को नए सिरे से शुरू करना इतना सरल सिद्ध नहीं हुआ, जितना तेजेन्द्र ने सोचा था। आप भले ही बायरन और कीटस पर समीक्षाएं लिखते हों और हिन्दी में आपकी कहानियां धड़ल्ले से छपती हों, एक नियोजक को 46 वर्ष का व्यक्ति किसी काम का नजर नहीं आता। वह जिस द्वार पर जाते, वह द्वार उन्हें बन्द मिलता। जिस नियोजक को आवेदन पत्र भेजते, वह या तो अधिक आयु का बहाना लगाता या कहता कि आप ‘आवश्यकता से अधिक योग्यता’ रखते हैं।
बी.बी.सी. लंदन के वर्ल्ड सर्विस विभाग में काम तो मिला, परन्तु वह इतना कम था कि उस पर जीवन निर्धारित नहीं किया जा सकता था। ले-देकर एक संस्था पूरे समय का एक काम देने को तैयार हुई - वह काम था दफ्तर में सफ़ाई करने का। तेजेन्द्र के नीचे से तो मानो जमीन ही खिसक गई। उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि यदि इंगलैण्ड में रहना है, तो यहां की कोई योग्यता प्राप्त करनी होगी।
संयोगवश तेजेन्द्र के पिता अपने जीवन काल में भारतीय रेल में कर्मचारी रह चुके थे। यह एक बड़ी प्यारी परम्परा है कि सारे संसार की रेल कम्पनियां आपस में एक प्रकार का भ्रातत्व भाव रखती आई हैं। यदि कोई व्यक्ति किसी रेल कम्पनी का कर्मचारी रहा हो, तो उसके बच्चों को संसार भर की रेल कम्पनियां प्राथमिकता देती है। वह पृष्ठभूमि यहां काम आई जिसके परिणामस्वरूप उन्हें ब्रिटिश रेल में एक वर्ष के वैतनिक प्रशिक्षण के बाद काम मिल गया और जीवन दोबारा से पटरी पर आता दिखाई पड़ा। नैनाजी ने अपने वचन के अनुसार पूर्वपत्नी के दोनों बच्चों को आजीवन वह प्यार दिया जो उन्होंने अपने पुत्र को दिया।
नई पत्नी, नया देश, नया काम - बाहर से देखें, तो सब कुछ ठीक-ठाक था, परन्तु तेजेन्द्र का हृदय पहली पत्नी के वियोग से त्रस्त था। वह एक ऐसी टीस थी जिसके बारे में तेजेन्द्र किसी से भी चर्चा नहीं कर सकते थे, अपनी नई पत्नी से भी नहीं। इंदु थीं कि भुलाए नहीं भूलती थीं। वे इंदु का नाम आकाश में लिख देना चाहते थे। पहले उन्होंने मुंबई में ‘इंदु शर्मा मैमोरियल ट्रस्ट’ की स्थापना की जिसका नाम लन्दन में बसने के बाद बदलकर ‘कथा यू.के.’ कर दिया गया। इस संस्था की ओर से ‘इन्दु शर्मा कथा सम्मान’ के अंतर्गत 40 वर्ष से कम आयु के (इंदु 40 वर्ष से कम आयु में चल बसी थीं) कलाकारों को प्रति वर्ष सम्मानित किया जाता था जो इंदु शर्मा के निधन के बाद पड़ने वाले उनके प्रथम जन्मदिवस से लगातार दिया जा रहा है। इस योजना के अंतर्गत गीतांजलिश्री, धीरेन्द्र अस्थाना, अखिलेश, देवेन्द्र और मनोज रुपड़ा आदि सम्मानित किए जा चुके हैं। लन्दन में बसने के बाद से तेजेन्द्र ने इस सम्मान का स्वरूप बदला और आयु सीमा हटा कर इसमें उपन्यास भी शामिल कर दिये। अब यह कार्यक्रम हर साल लन्दन के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में आयोजित किया जाता है।
इंगलैण्ड के प्रति धन्यवाद ज्ञापन के रुप में वर्ष 2000 से इस देश में रहने वाले साहित्यकारों को ‘पद्मानंद साहित्य सम्मान’ से आलंकृत किया जाता है। यह पुरस्कार सबसे पहले डाँ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव को प्रदान किया। बाद में दिव्या माथुर, नरेश भारतीय एवं भारतेन्दु विमल आदि इस सम्मान द्वारा अलंकृत किए जा चुके हैं।
इंगलैण्ड में रहकर पूरे समय काम करते हुए भी तेजेन्द्र शर्मा साहित्यिक गतिविधि बनाए हुए हैं। 1999 में ‘देह की कीमत’ और 2003 में ‘यह क्या हो गया’ नामक कहानी संग्रह हिन्दी पाठकों के सामने आए और 2007 में उनका कहानी संग्रह ‘बेघर आंखें’ प्रकाशित हुआ। उन्होंने कविता पर भी हाथ आजमाते हुए ‘ये घर तुम्हारा है’ के माध्यम से हमें कुछ कविताएं और ग़ज़ल भेंट की हैं जिनमें से कुछ गजलों को ‘एशियन कम्यूनिटि आर्टस’ ने संगीतबद्ध करके ‘साज-ए-दिल’ के नाम से एक सीडी के रुप प्रस्तुत किया है।
यह बात किसी से छिपी नहीं कि नैनाजी पूरे दिल से ‘कथा यूके’ की सभी गतिविधियों को न केवल अपना समर्थन देती हैं, अपितु उनमें सक्रिय सहयोग भी देती रही हैं। इंदु शर्मा के चरित्र की चर्चा, उनके चरित्र के उदगीतों को अनेक बार सुनकर भी कभी भी ईर्ष्या का भाव नहीं दर्शातीं, जो उनके हृदय की विशालता को प्रकट करती है। फिर भी एक बार मैंने तेजेन्द्र से पूछा: “आप जो ये पुरस्कार आदि देते हैं, इतने आयोजन आदि करते हैं, उन पर काफी खर्च आता होगा। क्यों बांध रखा है आपने यह सब अपने माथे?”
तेजेन्द्र जी की आंखें नम हो गईं। “यदि इंदु जीवित होतीं, तो मेरी सारी कमाई उनकी होती। अब तो मैं उनके नाम पर दिए गए पुरस्कारों आदि पर मात्र एक सप्ताह में अर्जित धन ही ख़र्च करता हूँ। शहंशाह ने ताजमहल बनवाते हुए शाही खजाने को खाली कर डाला था; भावनाओं के अपने ताजमहल पर तो मैं, तुलनात्मक रुप से आय का बहुत छोटा अंश ही लगाता हूँ।”
वे बहुत भावुक हो उठे थे। एक प्रकार से उसका लाभ उठाते हुए मैंने उनसे पूछा: “आपके लिए क्या अधिक महत्वपूर्ण है - सृजनशीलता या व्यक्तिगत सम्पर्क?” बिना किसी झिझक के उनका उत्तर था: “यदि आज के बाद मैं एक भी कहानी या कविता न लिखूं परन्तु अपनों के प्रति निष्ठावान बना रहूं, तो मैं बहुत संतुष्ट रहूंगा।”
इन्दुजी के बाद के जीवन में तेजेन्द्र के लिए मित्र बहुत महत्वपूर्ण रहे हैं। ऐसे मित्रों में से एक हैं ज़कीया जुबैरी। एक बार वे पाकिस्तान घूमने गईं थीं, तब उन्होंने कराची में तेजेन्द्र की एक कहानी पासपोर्ट का रंग इंटरनेट पर पढ़ी। कहानी अच्छी लगी, तो संपर्क किया जो आगे चलकर एक मित्रता में बदल गया। यह मित्रता देश और धर्म की सीमाओं के परे, एक दूसरे के प्रति आदर और परस्पर प्रेम पर आधारित है। तेजेन्द्र की ‘पासपोर्ट का रंग’ आदि कहानियां ऐसे ही अंतर्राष्ट्रीय बंधुत्व और मानवीय मूल्यों को हमारे समक्ष रखती हैं। इसी मित्रता ने तेजेन्द्र को ज़कीया के पति, जो एक व्यंग्यकार हैं, की जीवनी, ‘ब्लैक एण्ड व्हाइट’ अंग्रेंजी में लिखने को विवश कर दिया।
इसी प्रकार निखिल कौशिक तेजेन्द्र की कहानी ‘मुझे मार डाल बेटा’ पढ़कर सदा के लिए मित्र बन गए। पंजाबी के लेखक के.सी.मोहन, लन्दन के हिन्दी अधिकारी राकेश दुबे और सूरज प्रकाश ऐसे ही मित्रों में हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि तेजेन्द्र मुझे अपना मित्र मानते हैं। मैंने कम्प्यूटर देरी से सीखा। उस पर हिन्दी फ़ॉन्ट! हजारों रुपए खर्च किए, परन्तु कुछ विशेष सफलता नहीं मिली। जब तेजेन्द्र जी को पता चला, तो मुझे हिन्दी के युनिकोड फ़ॉन्ट का उपयोग सिखाना उन्होंने अपना कर्तव्य मान लिया और मुझे तब तक सहायता-निर्देश देते रहे, जब तक मैं कम्प्यूटर पर हिन्दी में कामकाज करने के योग्य न बन गया।
लगभग दो वर्ष पूर्व काम पर हुई दुर्घटना के कारण तेजेन्द्र की अपना काम कुशलतापूर्वक करने की क्षमता घट गई जिसके फलस्वरूप उनका अपने नियोजक से विवाद उठ खड़ा हुआ। स्वभावत: वे आर्थिक कठिनाई के दिन थे, परन्तु उन्होंने किसी को भी उसकी भनक तक न पड़ने दी। उन्हीं दिनों मेरे पुत्र के विवाह पर होने वाली संगीत-सभा जब संगीतकारों की टोली न आ पाने के कारण फीकी दिखाई दी, तो तेजेन्द्र ने कमान संभाली और एक ऐसा रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत किया कि सभी मेहमान वाह-वाह कर उठे। उनमें से अनेक आज भी तेजेन्द्र की तारीफ़ करते नहीं थकते।
आशा है कि ऐसे हर-फ़न-मौला तेजेन्द्र न केवल अपनी हास्य प्रवृति से बल्कि लेखनी से हम सब का मनोरंजन चिरकाल तक करते रहेंगे।
वेद मोहला पेशे से केमिकल इंजीनियर होते हुए भी लन्दन के वरिष्ठतम हिन्दी अध्यापकों में से एक हैं। ब्रिटेन के बच्चों को हिन्दी सिखाने के लिये हिन्दी की पुस्तकें एवं ऑडियो कैसेट भी तैयार किये हैं। भारतीय उच्चायोग द्वारा सम्मानित होने के साथ साथ ब्रिटेन की सरकार ने उन्हें एम.बी.ई. (मेम्बर ऑफ़ ब्रिटिश एम्पायर) की उपाधि से नवाज़ा है।
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