(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
भीतर की बातें
: ज़कीया ज़ुबैरी
कहते हैं कि लेखक कभी नहीं मरता। मेरा मानना है कि तेजेंद्र शर्मा जैसा लेखक यदि स्वयं को मारने का प्रयास भी करे तो उसका लेखन उसे मरने नहीं देगा। तेजेंद्र शर्मा की लेखन प्रक्रिया एक मामले में अनूठी है। वह अपने आसपास होने वाली घटनाओं को देखते हैं, महसूस करते हैं, और अपने मस्तिष्क में मथने देते हैं। जबतक कि घटना कहानी का रूप नहीं ग्रहण कर लेती। तेजेन्द्र जितने अच्छे कहानीकार हैं उतने ही अच्छे इन्सान भी हैं और बेहद अच्छे दोस्त भी।
तेजेंद्र शर्मा एक ख़ुदा-तरस इन्सान है जो कि ज़मीनी हक़ीकत से जुड़ा हुआ है। दूसरों को हंसाने वाला, ख़ुश रखने वाला यह इन्सान, हज़ारों दुख अपने सीने में छिपाए दिन रात इसी कोशिश में रहता है कि कैसे किसी का भला कर दिया जाए। यह संवेदनशील व्यक्ति केवल कहानीकार ही नहीं, कवि भी है और मानव मन की दुखती रगों को पकड़ता है। तेजेंद्र की कहानियां और कविताएं उसके साहित्यिक जीवन का दर्पण हैं।
मुझसे कहा गया है कि मैं तेजेंद्र के बारे में कुछ लिखूं। उस हिसाब से मुझे अपने लेख की शुरूआत उनके जन्म स्थान, जन्म तिथि, शिक्षा, नौकरी आदि आदि से करनी चाहिये। किन्तु जिस तेजेंद्र से मेरा परिचय है उसके लिये यह सब बेमानी है। तेजेंद्र शर्मा अपने आप को केवल एक इन्सान समझता है और इससे अधिक वह आपको बताना भी नहीं चाहता। अंग्रेज़ी की उच्चतम डिग्री हासिल करने के बाद भी तेजेंद्र अपनी सी लगने वाली हिन्दी में लेखन करता है जिसमें पंजाबी और उर्दू का तड़का लगा रहता है।
जब मेरे हाथ में तेजेंद्र की किताब ये क्या हो गया ! आई तो पूरी किताब फरफरा कर देखिये और जल्दी जल्दी उसकी फ़ेहरिस्त पढ़ने लगी। एक नाम पर आकर अटक गई। इस नाम ने मुझे अचानक मेरे बचपन में ले जाकर खड़ा कर दिया। आज़मगढ़ में इस्तेमाल होने वाली ढिबरी की याद ताज़ा हो उठी। कहानी का नाम था ढिबरी टाइट। मैंने सबसे पहले इसी कहानी को पढ़ने का निर्णय लिया और उसे दो बार पढ़ डाला। उन दिनों मेरे पति हस्पताल में दाख़िल थे जबकि मैं और मेरा बेटा अहमद उनकी देखभाल कर रहे थे। मैं उसी कमरे में बैठी हिन्दी की कहानियों की किताब पढ़ रही थी। पति की आवाज़ सुनाई दी, "किस किताब में डूबी हुई हैं आप? ज़रा हमें भी तो पता चले कि क्या पढ़ाई हो रही है।'
"कुछ नहीं बस एक कहानी ने परेशान कर रखा है। "
"अरे भाई ज़रा हम भी तो सुनें कि ऐसी कौन सी कहानी है! "
बस इसी तरह तीसरी बार मैं ढिबरी टाइट पढ़ गई। अन्तर केवल इतना था कि अबकी बार अपने पति और पुत्र को सुना रही थी। कहानी ख़त्म करके जो अपने शौहर के चेहरे पर नज़र पड़ी तो देखा कि आंखों के कोनों में पानी का वह क़तरा ठहरा हुआ था जो बरस पड़ने को बेचैन था। और मेरा जवान बेटा, जो कि यहीं ब्रिटेन में पला बढ़ा है, भी कहानी के असर से बेहद प्रभावित था।
वैसे दुखी कहानी लिख कर पाठकों को रुला देना। या फिर त्रासद फ़िल्में बना कर श्रोताओं का मन भारी कर देना आसान काम है। किन्तु तेजेन्द्र शर्मा की अधिकतर कहानियां उसी स्थिति में ले जाकर खड़ा कर देती हैं जिसका वह ज़िक्र कर रहा होता है। और फिर ढिबरी टाइट जैसी कहानी पढ़ कर शर्मिन्दग़ी का अहसास भी होता है कि आज के ज़माने में जब तमाम दुनियां में ह्युमन राइट्स और बराबरी की चर्चा हो रही हो, तो उस मुल्क़ में जो कि पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में होने का दावा करता हो, वहां इस प्रकार का अत्याचार, ऐसी बेदिली !
लेखक तेजेन्द्र शर्मा से मेरा परिचय अभिव्यक्ति नाम की एक वैब पत्रिका के माध्यम से हुआ। दरअसल मैं कराची गई हुई थी। इंटरनेट पर पन्ने पलट रही थी। अचानक एक हिन्दी की वैबज़ीन दिखाई दे गई और उसमें एक कहानी दिखी - पासपोर्ट का रंग। कहानी के साथ जो चित्र छपा था उसमें ब्रिटेन और भारत के पासपोर्ट भी दिखाई दे रहे थे - यानि कि मेरा अतीत और वर्तमान। बस यूं ही कहानी पढ़नी शुरू कर बैठी। जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ी मुझे महसूस हुआ जैसे कहानी के मुख्य पात्र बाऊजी की आत्मा मेरे जिस्म में प्रवेश करती जा रही है और मैं ठीक वही महसूस कर रही हूं जो कि बाऊजी महसूस कर रहे होंगे। कहानी पूरी पढ़ जाने के बाद बेचैनी इस क़दर बढ़ गई कि मैं रात देर तक अपने कमरे में ही चहलकदमी करती रही। तेजेन्द्र शर्मा के परिचय में पढ़ लिया था कि वह लन्दन के ही रहने वाले हैं। बस लन्दन वापिस पहुंचते ही उनका टेलिफ़ोन नम्बर ढूंढ निकाला ; उनसे उनकी किताबें मंगवाईं और कहानियां पढ़नी शुरू कर दीं। तभी मन में विचार आया कि इन कहानियों को उर्दू में अनुवाद करवाना चाहिये ताकि सरल हिन्दी में लिखी यह कहानियां उर्दू भाषी पाठकों तक भी पहुंच सकें। और तब प्रकाशित हुआ तेजेन्द्र शर्मा का उर्दू में पहला अनूदित कहानी संग्रह - ईंटों का जंगल।
मैंने यह भी महसूस किया है कि तेजेन्द्र शर्मा जहां कहानियां अच्छी लिखते हैं, ठीक उसी तरह कहानियों के शीर्षक भी ऐसे चुनते हैं कि नाम पढ़ कर ही इन्सान कहानी पढ़ने को मजबूर हो जाता है। जैसे किसी घर का ख़ूबसूरत दरवाज़ा देख कर घर के अन्दर का रख-रखाव, सजावट व रहने वालों का अन्दाज़ा बाहर से ही हो जाता है। तेजेन्द्र की कहानियों में मुझे देह की क़ीमत, काला सागर, मुझे मार डाल बेटा, बेघर आंखें, क़ब्र का मुनाफ़ा - वैसे देखा जाए तो सभी कहानियां उच्चकोटि की कहानियां लगती हैं - कुछ मज़बूत तो कुछ बहुत मज़बूत। मैंने उनकी सभी कहानियां पढ़ी हैं। कोई कहानी भी ऐसी नहीं जिसे कमज़ोर कहा जा सके। वैसे पसन्द अपनी अपनी..... !
तेजेन्द्र की कहानियों में मुझे छोटे छोटे जुमले और पारंपरिक व्याकरण से हट कर वाक्यों की संरचना बहुत आकर्षक लगती है। उनकी यह विशिष्ट संरचना वाक्य के अर्थ ही बदल देती है। मेरा मतलब है कि वह जहां एम्फ़ैसिस देना होता है अपने हिसाब से हिसाब बराबर कर लेते हैं।
तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों की एक विशेषता यह है कि कहानी शुरू करना तो आपके बस में है किन्तु छोड़ना नहीं। कहानी अपने आपको पढ़वा कर ही दम लेती है। उसकी कहानियां मकड़ी के जाल की तरह पाठक के किनारे लिपट जाती हैं। कहानी जब तक पूरी न पढ़ ली जाए छोड़ी नहीं जाती। कभी कभी तो हैरान हो जाती हूं कि तेजेन्द्र अपनी हर कहानी के लिये इतने नये विषय कहां से ढूंढ लाते हैं। अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हम भी इन विषयों से रूबरू होते हैं, मगर एक फिसलती हुई नज़र डाल कर आगे बढ़ जाते हैं।
तेजेन्द्र शर्मा ने अपनी लिखी पहली ही कहानी प्रतिबिम्ब में मानवीय प्र.ति को आम कहानीकारों से बिल्कुल अलग हट कर महसूस किया है। बात मामूली है ; हम रोज़मर्रा कि ज़िन्दगी में उससे दो चार होते हैं मगर सरसरी सी निगाह डालते हुए आगे बढ़ जाते हैं। किन्तु तेजेन्द्र की निगाह से किसी भी बिन्दु का बच के निकल पाना संभव नहीं। प्रतिबिम्ब के राम मोहन कोहली की निष्फलता और कुण्ठा का चित्रण बहुत सजीव है। सान्ध्य कालेज के उनके विद्यार्थी पढ़ाई में दिलचस्पी नहीं लेते। वे केवल इम्तहान में पास होने के लिये क्लास में आते हैं। यह दुःख राममोहन के लिये रोग बन जाता है, "उनकी प्रतिभा जैसे अपने आप से नाराज़ होकर उनका रक्त चूसने लगी थी। अब राममोहन सुबह दस बजे सो कर उठते। " इस एक वाक्य से पूरी तरह अन्दाज़ा हो जाता है कि राममोहन किस हद तक व्यथित हो गये होंगे। जिस स्थिति ने उन्हें व्यथित किया वह उनके लिये कितनी अहम थी। आमतौर पर हम इन सूक्ष्म बिन्दुओं को पकड़ नहीं पाते; किन्तु तेजेन्द्र की कहानियां पढ़ने के बाद सोचते हैं 'अरे हमने कभी यह सोचा ही नहीं था कि विद्यार्थियों की रुचि यदि ज्ञान से उठ जाए तो उस्ताद जीते जी मर सकता है ! "
काला सागर एक रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानी है। इस कहानी में एक वायुयान दुर्घटना के माध्यम से तेजेन्द्र शर्मा इन्सान की भावनाओं, सोच एवं प्रतिक्रिया का खुल कर चित्रण किया है। यह सोच कर मन अवसाद से भर जाता है कि क़रीबी रिश्तेदार भी अपने अज़ीज़ों की मौत से दुःखी होने के स्थान पर अधिक से अधिक मुआवज़ा पाने और लाभ उठाने की होड़ में शामिल हो जाते हैं। प्रेमचन्द की कफ़न के बाद मुझे लगता है कि तेजेन्द्र की यह कहानी मानव मन के पतन की श्रेष्ठतम कहानी कही जा सकती है। वैसे यह भी कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य को एअरलाइन के पेशे से जुड़ी कहानियां सबसे पहले तेजेन्द्र शर्मा ने ही दी हैं।
इसी तरह एक कहानी है कैंसर ; जो इस विषय पर लिखी गई सबसे अनूठी कहानी है। तेजेन्द्र इस कहानी में केवल पूनम की कटी हुई छाती और उससे पति-पत्नी सम्बन्धों में आए बदलाव तक अपने आपको सीमित नहीं रखते। तेजेन्द्र इस कहानी को एक बहुत ऊंचे धरातल पर ले जाकर समाप्त करते हैं। पाठक भौंचक रह जाता है कि क्या कैंसर को इस ढंग से भी समझा जा सकता है। तेजेन्द्र शारीरिक कैंसर से बहुत आगे बढ़ जाते हैं और समाज में अपने आसपास फैले कैंसर की चिन्ता तक पहुंच जाते हैं। डा. पिण्टो कैंसर का इलाज तो आधुनिक दवाओं से करते हैं मगर जीसस क्राइस्ट की तस्वीर की ओर देख कर अपनी छाती पर क्रास बनाते हैं और कहते हैं कि, "मैं तो केवल इलाज करता हूं, ठीक तो यह करते हैं ! " कहीं कोई पड़ोसन पीर साहब से तावीज़ बनवा कर लाती है तो कहीं कोई देवी सिर हिला हिला कर पूनम के ठीक होने की बात कहती है। अति तो तब हो जाती है जब बार्न अगेन क्रिश्चन मि. मेहरा से कहते हैं, "आप कनवर्ट हो कर बार्न अगेन ईसाई बन जाइये। जीसस आपकी पत्नी को ठीक कर देंगे। तेजेन्द्र का लेखक इस कैंसर को लेकर परेशान है। यह कहानी अपने आप में एक अद्भुत कहानी है।
लन्दन में बसने के बाद तेजेन्द्र की कहानियों में एक निश्चित बदलाव दिखाई देता है। क़ब्र का मुनाफ़ा एक बिल्कुल नई सोच की कहानी है। बाज़ार संस्कृति ने मनुष्य के मन में जो परिवर्तन पैदा किये हैं, यह कहानी उसे एक चुटीली ज़बान में बहुत ख़ूबसूरती से पेश करती है। कहानी के चार मुख्य पात्र एक दूसरे से भिन्न भी हैं और पूरक भी। उनका बड़प्पन और कमीनगी कहानी में बहुत शिद्दत से उभर कर आते हैं। मौत और क़ब्र कहानी में नये आयाम पा जाते हैं। मौत के साथ भी तेजेन्द्र शर्मा एक खिलण्दड़ेपन से डील करते हैं।
ठीक इसी तरह तरकीब कहानी का थीम उस विषय को लेकर चलता है जो कि सदियों से होता आ रहा है किन्तु किसी भी कहानीकार ने इसे उठाने का साहस नहीं किया। तेजेन्द्र ने हंसते बोलते सब कह दिया। वहीं जब रोमाण्टिक लिखने पर आए तो एक बार फिर होली जैसी कहानी की रचना कर दी। हर कहानी में अनोखे इन्सानी जज़बात और समस्याएं उठाई गयी हैं। और उन सबके साथ पूरा पूरा न्याय भी किया गया है।
तेजेन्द्र शर्मा ने लन्दन में एक मुहिम चला रखी है कि ब्रिटेन में बसे हिन्दी लेखकों की रचनाओं में ब्रिटेन के सरोकार दिखाई देने चाहियें। उनकी राय में हम जिस देश में बस जाते हैं हमें अपने लेखन में उस देश के माहौल, स्थितियां, सभ्यता एवं शब्दों का इस्तेमाल करना चाहिये। वे यह सब केवल कहते नहीं हैं करके भी दिखाते हैं। जहां क़ब्र का मुनाफ़ा, पासपोर्ट का रंग, अभिशप्त, कोख का किराया, तरकीब, मुझे मार डाल बेटा, देह की क़ीमत, ढिबरी टाइट, ये क्या हो गया ! छूता फिसलता जीवन, पापा की सज़ा, और टेलिफ़ोन लाइन आदि कहानियां हमें विदेश के जीवन से परिचित करवाते हैं तेजेन्द्र की कविताएं और ग़ज़लें भी उनकी मुहिम का प्रमाण हैं।
तेजेन्द्र की कविताओं और ग़ज़लों में टेम्स नदी, ब्रिटेन की पतझड़, लन्दन की बरसात, हैरो शहर, प्रवासी जीवन, सभी स्थान पाते हैं। टेम्स और गंगा में तुलना करते हुए तेजेन्द्र कहते हैं -
"बाज़ार संस्कृति में नदियां नदियां ही रह जाती हैं
बनती हैं व्यापार का माध्यम, मां नहीं बन पाती हैं "
अपनी एक ग़ज़ल में तेजेन्द्र प्रवासियों पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं
"तरह तरह के परिन्दे बसे हैं आके यहां
सभी का दर्द मेरा दर्द बस ख़ुदारा है
यहां जो आ गया इक बार, बस हमारा है। "
ठीक इसी तरह ब्रिटेन की पतझड़ पर तेजेन्द्र अपनी कविता के माध्यम से टिप्पणी करते हैं,
"पत्तों ने ली अँगड़ाई है, क्या पतझड़ आया है?
इक रंगोली बिखराई है, क्या पतझड़ आया है?"
प्रवासी साहित्य एवं नॉस्टेलजिया को लेकर तेजेन्द्र ने समय समय पर अपने विचार पूरी बेबाकी से व्यक्त किये हैं। कुछ लेखक उनके विचारों से सहमत नहीं हैं और इसे लेकर कभी कभी ग़लतफ़हमियाँ भी पैदा हो जाती हैं। सच तो यह है कि तेजेन्द्र स्वस्थ नॉस्टेलजिया के ख़िलाफ़ नहीं हैं। किन्तु जो लेखन केवल नॉस्टेलजिया के साथ ही जुड़ा रहे और स्थानीय सरोकारों से अनभिज्ञ बना रहे, ऐसे साहित्य से तेजेन्द्र को ऐतराज़ है। उनका कहना है कि "जो कुछ हमारे आसपास घटित हो रहा है ; दिखाई दे रहा है, एक संवेदनशील लेखक होने के नाते भला हम उससे निरपेक्ष कैसे रह सकते हैं?" उनका यह भी मानना है कि विदेश में रचा जा रहा साहित्य भारत में रचे जा रहे साहित्य से तभी अलग पहचान बना सकता है यदि उसमें स्थानीय विषय और सरोकार दिखाई दें। भला हम जब भी कलम उठाएं तो क्यों अपने अपने देश की ओर ताकें और नॉस्टेलजिया से भरपूर लेखन से पन्ने रंगते चले जाएं। हमारे साहित्य को ब्रिटेन, अमरीका, युरोप या खाड़ी देशों का हिन्दी साहित्य बनना है न की हिन्दी का विदेशी साहित्य। हम जहां रहते हैं, हमें उसे अपना घर मानना होगा।'
वे प्रवासी साहित्य से बरते जा रहे सौतेलेपन के ख़िलाफ़ भी मुहिम चलाए हुए हैं। वे इसे मुख्यधारा के साहित्य के साथ जुड़ा हुआ देखना चाहते हैं। दरअसल यह लेखक जिन्हें हम तेजेन्द्र शर्मा कहते हैं, अक्सर अपनी साफ़ सुथरी बातों से बेलाग तबसरा के कारण विवादों में घिर जाते हैं, उन्हें ग़लत समझ लिया जाता है। सच तो यह है कि उनका उद्देश्य केवल प्रवासी साहित्य को मज़बूत और प्रगतिशील बनाना है।
तेजेन्द्र शर्मा की ग़ज़लों की एक सी.डी. भी बनी है। उसमें एक ग़ज़ल मुझे बहुत प्रिय लगती है,
"बहुत से गीत ख़्यालों में सो रहे थे मेरे
तुम्हारे आने से जागे हैं कसमसाए हैं। "
इस शेर में कसमसाए शब्द का प्रयोग इतना ख़ूबसूरती से किया गया है कि पाठक को वह सब महसूस हो जाता है जो कि शायर कहना चाहता है। यदि किसी दोस्त ने धोखा दे दिया तो ऐसे शेर की रचना कर डाली जो शायद हर व्यक्ति के दिल की बात बन जाये,
"जग सोच रहा था कि है वो मेरा तलबगार
मैं जानता था उसने ही बरबाद किया है "
तेजेन्द्र अपने शब्दों से अपनी ग़ज़ल का माहौल पैदा कर जाते हैं,
"रास्ते ख़ामोश हैं और मंज़िलें चुपचाप हैं
ज़िन्दगी मेरी का मक़सद सच कहूं तो आप हैं "
शिक़ायत करने का एक अनूठा अन्दाज़ उनकी इस ग़ज़ल में देखा जा सकता है -
"ये जो तुम मुझको मुहब्बत में सज़ा देते हो
मेरी ख़ामोश वफ़ाओं का सिला देते हो।
हाथ में हाथ लिये चलते हो जब ग़ैर का तुम
मेरी राहों में कई कांटे बिछा देते हो। "
यह अशआर वज़न में हैं, या नहीं है, मुझे इससे कोई सरोकार नहीं है। मैं ग़ज़ल की तकनीकी विशेषज्ञ नहीं हूं। किन्तु एक बात सीधी है कि यह साफ़ साफ़ पता चलता है कि यह इन्सान अपने व्यक्तित्व में नाज़ुक ख़्यालात और कोमल जज़बात समेटे है। तेजेन्द्र की ग़ज़लें कुछ अच्छे गाने वाले अब महफ़िलों में भी गा रहे हैं। वैसे उनकी 16 कहानियों का भी एक ऑडियो सी.डी. बनाया गया है - यानि कि पहली प्रवासी ऑडियो बुक ।
तेजेन्द्र शर्मा एक भावुक, दोस्त-परस्त और तुनुक मिजाज़ से इन्सान हैं। कोई बात बुरी लग जाए तो दोनों होंठों को आपस में जैसे सी लेते हैं। बिल्कुल चुप हो जाते हैं। मगर कभी बहस करने पर आ जाएं तो अपनी बात मनवा कर ही दम लेते हैं।
तेजेन्द्र को क़रीब से जानने का मौक़ा उस वक्त मिला जब वह मेरे पति की जीवनी ब्लैक अण्ड व्हाइट अंग्रेज़ी में लिख रहे थे। यह किताब क़रीब 265 पन्नों की है जो कि तेजेन्द्र ने लगभग तीन महीनों में पूरी कर दी। काम करने में जिन्न (जीनी) हैं। जो काम सिर पर लेते हैं उसे पूरा करने में दिलो जान से जुट जाते हैं। ब्लैक अण्ड व्हाइट के लिये मेरे पति सलीम अहमद ज़ुबैरी का इंटरव्यू लेते थे, फिर लिखते थे। और किताब को केवल लिखा ही नहीं, उसके प्रकाशन की ज़िम्मेदारी भी अपने सिर ले ली। और अंततः किताब के विमोचन का संचालन भी स्वयं किया। यहां मैं यह कहना चाहूंगी कि यह जीवनी जिसने भी पढ़ी, उसने गीली आंखों से स्वीकार किया कि यह पुस्तक एक सांस में अपने को पढ़वा लेती है। इस पर याद आया कि हां तेजेन्द्र ने अपने लेखन की शुरूआत तो अंग्रेज़ी में लिखने से ही की थी। उन्हें हिन्दी, अंग्रेज़ी, पंजाबी और उर्दू पर समान अधिकार है। जो भी ज़बान बोलते हैं साफ़ सुथरी बोलते हैं। उन्हें बोलते देखकर महसूस होता है कि उन्हें भाषाओं से भी मुहब्बत है। हर भाषा को इज्ज़त देते हैं और बहुत ख़ूबसूरती से बिना झिझक इस्तेमाल करते हैं।
तेजेन्द्र ने वर्ष 1995 में अपनी दिवंगत पत्नी इन्दु जी के नाम पर इन्दु शर्मा कथा सम्मान की स्थापना की। आज यह सम्मान समारोह लन्दन के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में प्रति वर्ष आयोजित किया जाता है। उन्होंने कथा यू.के. संस्था की स्थापना की जो कि भारत से प्रकाशित सर्वश्रेष्ठ कहानी संग्रह या उपन्यास को तो सम्मानित करती ही है ; यह ब्रिटेन में रचे जा रहे हिन्दी साहित्य को भी पद्मानंद साहित्य सम्मान से नवाज़ती है। इस कार्यक्रम के लिये लन्दन में तीन चार महीने पहले ही काम शुरू हो जाता है। हम जैसे सभी सहायक एवं समर्थक उनकी डांट खाने के लिये तैयार हो जाते हैं क्योंकि हम डायरी रख कर भी काम करना भूल जाते हैं और तेजेन्द्र बिना डायरी के भी हम सब के काम याद रखते हैं। और काम के न होने पर या तो कह देते हैं या फिर मुंह सिल लेते हैं। हमलोग मुंह बन्द वाली स्थिति से बहुत घबराते हैं क्योंकि हर समय हंसने और हंसाने वाला इन्सान अगर अचानक चुप्पी साध ले तो परेशानी तो होगी ही।
तेजेन्द्र शर्मा का सेन्स ऑफ़ ह्यूमर सबको उनसे जोड़े रखता है। इस देश में जहां लोगों के पास अपने लिये समय नहीं होता, वहां राह चलते लोग इन्हें रोक कर दुआ सलाम करते हैं। चलते फिरते लोगों के दुःख परेशानी दूर करने चल पड़ते हैं। कहीं भी किसी को किसी भी प्रकार की परेशानी हो ; किसी के कार्यक्रम का संचालन करना हो ; पुस्तक की समीक्षा करनी हो ; किसी की पत्रिका का मुफ़्त संपादन करना हो, आवाज़ केवल एक शख़्स को ही दी जाती है - तेजेन्द्र शर्मा। यदि किसी को भी हिन्दी या अंग्रेज़ी में अपना भाषण लिखवाना हो या फिर समोसों और मिठाई का इन्तज़ाम ही क्यों न हो, ज़हन में इनका ही नाम आता है।
एक मज़ेदार बात, साहब को अच्छी भली कार चलानी आती है मगर चलाते नहीं हैं - क्योंकि लाइसेंस ही नहीं बनवाया है। हर काम करते हैं पैदल चलकर या फिर पब्लिक ट्रांस्पोर्ट पर सफ़र करके। इसके बावजूद किसी को किसी भी काम के लिये मना नहीं करेंगे। यदि गांधी जी जीवित होते तो इन्हें अवश्य ही अपने आश्रम में रख लेते ; अपनी पदयात्रा में भी साथ रखते और खाना भी पकवाते, क्योंकि तेजेन्द्र के हाथ का बना खाने की लोग फ़रमाइश करते हैं। कम मसालों में लज़ीज़ शाकाहारी भोजन कम वक़्त में पका कर परोस देते हैं। मैं आजतक यह नहीं समझ पाई कि तेजेन्द्र हैं क्या !
सितम्बर 2007 में मुझे अपने शौहर के साथ भारत जाने का अवसर मिला। दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर तेजेन्द्र शर्मा एवं पत्रकार अजित राय हमें लेने आए थे। हमारा सफ़र दिल्ली के सिरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम से शुरू हुआ जहां तेजेन्द्र के कहानी संग्रह का विमोचन डा. गोपीचन्द नारंग की मौजूदगी में हुआ और उन्हें प्रथम संकल्प सम्मान से भी सुशोभित किया गया। उस कार्यक्रम की विशेषता यह थी कि साहित्य के ऊंचे नामों की मौजूदगी में भी तेजेन्द्र के कहानी संग्रह बेघर आंखें का विमोचन उनकी मां ने किया। उसके बाद जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में मेरा भाषण था वहां से यमुना नगर, कुरुक्षेत्र, करनाल, वाराणसी, आज़मगढ़, गया, एवं कानपुर में हर जगह वे दोनों हमारे साथ रहे। उन्हीं के माध्यम से मेरी मुलाक़ात डा. नामवर सिंह, श्री राजेन्द्र यादव, असग़र वजाहत, गिरिराज किशोर एवं संगीतकार रवीन्द्र जैन से हुई। उन्होंने हमें कहीं महसूस ही नहीं होने दिया कि हम अपने शहर लन्दन से कहीं दूर आ गये हैं। हमारा ख़्याल कुछ इस तरह रखा जैसे कि अलादीन का जिन्न। जो बात हमारे मन में होती वह काम ये कर चुके होते।
उसी यात्रा के दौरान हम फ़रीदाबाद भी गये। मैं हमेशा जानना चाहती थी कि तेजेन्द्र के व्यक्तित्व में इतने सारे गुण कैसे आ जुड़े; वे कहां पढ़े; क्या खाया पिया; किसके साथ रहे; किसने तरबीयत दी, क्योंकि उनके संस्कार ठेठ भारतीय हैं। ठीक वैसे ही जैसे कि हम किताबों में पढ़ा करते थे - नीति-शास्त्र की किताबें। आज के ज़माने के स्कूलों के पाठ्यक्रम में शायद इसे इतना महत्वपूर्ण नहीं माना जाता। ऐसा लगता है जैसे कि तेजेन्द्र उन्हीं किताबों में से निकले एक पात्र हैं। ज़ाहिर है कि एक सहज मानवीय जिज्ञासा मन में लिये मैं फ़रीदाबाद पहुंची जो तेजेन्द्र का घर है और जहां उनका परिवार रहता है। हम मालूम करना चाहते थे कि सूरज की किरणें कहां से निकल कर जगमगा रही है।
फ़रीदाबाद के उस छोटे से साफ़ सुथरे घर में हंसते मुस्कुराते, धुले धुलाए परिवार वालों से मिल कर मालूम हो गया कि चिकने चिकने पात का स्त्रोत क्या है। तेजेन्द्र का छोटा सा परिवार - मां, दो बहनें, एक बड़ी और एक छोटी, बड़े जीजाजी और प्यारी सी भांजी नूपुर - इन सबने बहुत प्यार से हमारा स्वागत किया। तेजेन्द्र की आंखों की चमक उस समय और भी तेज़ हो गई थी। ख़ामोश बैठे वह निहार रहे थे कि उनके परिवार से हमलोग थोड़े से समय में अच्छी तरह बातें कर लें।
परिवार का हर सदस्य चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कुराहट लिये हमसे बात कर रहा था। मां - जिनको तेजेन्द्र मां ही कहते हैं और जो तेजेन्द्र को आज भी ‘काका' ही कहती हैं - अपने पुत्र के साथ मद्धम सुर में पंजाबी में बात कर रही थीं। उनकी बातें सुन कर पहली बार अहसास हुआ कि पंजाबी भी इतनी सुरीली भाषा हो सकती है। रसीली तो हमेशा ही लगती थी क्योंकि तेजेन्द्र जब कभी कोई चुटकुला सुनाते हैं (जो कि वे आम तौर पर बात बात पर सुनाते हैं) और हंसाते हैं तो उसमें पंजाबी ज़बान की टोन और चाशनी अवश्य मिली रहती है। कहा जाता है कि चुटकुला और गाली दोनों ही पंजाबी ज़बान में ज़्यादा ही चटपटे लगते हैं किन्तु उस दिन मां, बेटे और भाई बहनों की आंखों में जो एक दूसरे के लिये मुहब्बत और इज्ज़त देखी, तो अहसास हुआ कि तेजेन्द्र किस बेशबहा ख़ज़ाने के मालिक हैं।
तेजेन्द्र अक्सर बातों और अपने साक्षात्कारों में अपने बाऊजी का ज़िक्र करते हैं। बाऊजी की साहित्यिक सूझबूझ, उनकी शायरी जो कि वह उर्दू में करते थे या फिर पंजाबी में, अक्सर उनके अशआर सुनाते हैं और यह भी बताते हैं कि जब स्कूल के किसी फ़ंक्शन में तेजेन्द्र को गीत गाना होता था तो बाऊजी से हाथ के हाथ लिखवा लिया करते थे। अपने स्कूल की स्टेज पर लहक लहक कर गा कर तालियां बजवा कर आ जाते थे जो कि बाऊजी के लिये सबसे बड़ी कमाई होती थी। और आज भी तेजेन्द्र उसी शिद्दत से अपनी लिखी ग़ज़लें गा कर सुनाते हैं।
मां और तेजेन्द्र की बातों से मालूम हुआ कि बाऊजी बहुत ही निपुण किस्म के इन्सान थे - हरफ़नमौला - जो कि शौक़िया लकड़ी का काम भी कर लिया करते थे; नई साइकिल फ़िट कर लिया करते थे; यहां तक कि कपड़ों की सिलाई भी स्वयं ही कर लेते थे। तेजेन्द्र वर्षों साइकिल पर ही कॉलेज जाते, ट्यूशन पढ़ाने जाते और नौकरी पर भी जाया करते। पहले बाऊजी की पुरानी साइकिल ही इस्तेमाल करते। फिर बाऊजी ने पुत्र की मेहनत और लगन देख कर एक नई साइकिल एसेम्बल कर दी जिसका नाम था वेयरवेल । तेजेन्द्र के लिये यह वेयरवैल साइकिल ख़ासी वैरी वैल साबित हुई! एक तो पिता का मुहब्बत भरा तोहफ़ा और उनका आशीर्वाद सब मिलाकर तेजेन्द्र वह बने जो आज हमारे सामने हैं।
तेजेन्द्र ने बताया था कि मां ने बच्चों को बहुत प्यार, तमीज़ और तहज़ीब जैसे संस्कारों से पाला पोसा। मां से मिलने के बाद अन्दाज़ा हो गया कि वह ख़ुद कितनी ज़हीन महिला हैं - अपने चारों तरफ़ के वातावरण से चौकस और मेहनती महिला। उस शाम तेजेन्द्र के घर के बरामदे में बैंत से बुने सोफे व कुर्सियों पर बैठे बातें करते करते इतनी रात हो गई कि अहसास ही नहीं हुआ कि वापिस भी जाना है। बहनों ने बेहद स्वादिष्ट शाकाहारी भोजन पकाया था। गरमा गरम फुलके परोसे जा रहे थे। मेरे शौहर खाये भी जा रहे थे और वाह वाह करते खाने की तारीफ़ भी किये जा रहे थे। बीच बीच में मां की आवाज़ सुनाई दे जाती, “तारीफ़ां घट करो जी ते /यान ला के रोटी खावो। एह मांह दी दाल लवो, एह खास तौर ते तुहाडे लई ही बनाई है। काके ने सानूं दस्स दित्ता सी कि तुहानू बहुत चंगी लगती है। ममी सारे वक़्त बस मां का किरदार ही निभाती रहीं और देखती रहीं कि कोई खाली पेट न उठ जाए। ख़ुद भूखी बैठीं हम सब को खिलाती रहीं और हमारे ज़ोर देने पर यही जवाब देतीं कि मैं सबके बाद खाती हूं। यह वाक्य और यह कुरबानियां जो किताबों में पढ़ा करते थे, आज भी फ़रीदाबाद में पाई जाती हैं - तेजेन्द्र के घर।
हमें तो वक़्त का अहसास नहीं रहा किन्तु मां को अपने बेटे के आराम की फ़िक्र लगी थी। बहुत प्यार से तेजेन्द्र की ओर देख कर बोलीं, “लगदा है काके नूं नींद आ गई है। एह सवेरे जल्दी उठ जांदा है। जदों निक्का सी तां सवेरे साड्ढे पंज वजे उठके दुध लयांदा सी। वापस आके नहा धो के, नाश्ता करके स्कूल जांदा। दिन-ब-दिन वड्डा होंदा गया पर ऐसने अपना रुटीन नहीं बदलया। अज वी सवेरे ही उठ्ठ जांदा है।
उनके वाक्य ने हमतक उनका आशय पूरी तरह पहुंचा दिया था कि मां का प्यार चाहता है कि हम उसके पुत्र को अब सोने दें और अपने आपको कार में बिठा कर इंडिया इंटरनेशनल सेन्टर की तरफ़ रवाना हों। यह सब इसलिये ताकि उनका काका अब सो सके। मां का प्यार जैसे हर वक़्त बेचैन रहता है बरसने के लिये।
चलते हुए उन्होंने मुझे बहुत सुन्दर सी चुनरी की चादर भेंट की और मेरे पति को कुर्ता। उस चादर से आज भी उस मां की मुहब्बत और ख़ुलूस की महक आती है जो कि एक मां ही दे सकती है . तेजेन्द्र की मां।
घर से बाहर निकलते हुए मेरे शौहर का पांव सीढ़ी से फिसला और वे बस मुंह के बल गिरने ही वाले थे कि तेजेन्द्र की मज़बूत बाहों ने उन्हें संभाला और सहारा दिया . गिरने नहीं दिया।
ऐसे मां बाप के हाथों पले बढ़े तेजेन्द्र आज ऐसी इन्सानियत का नमूना हैं जो आज के ज़माने में केवल किताबों के शेल्फ़ों पर सजी किताबों तक ही सीमित है।
उस सारे यात्राकर्म में मेरे पति और मैं यही महसूस करते रहे कि तेजेन्द्र के चरित्र का बहुत अहम हिस्सा उनकी सकारात्मक सोच है जो उन्हें आगे भी बढ़ाती है और पीछे भी धकेलती है। परन्तु वह उन चूंटियों की तरह अपनी पीठ पर ज्ञान का बोझ लिये ऊपर चढ़ने की कोशिश में हैं जिन चूंटियों के अज़्म और तहम्मुल को देख कर तैमूरलंग उठ खड़े हुए थे - जंग पर जाने को।
तेजेन्द्र भी साहित्यक जंग लड़े जा रहे हैं। भारत से ब्रिटेन में आकर बसना पड़ा। आरम्भ में संघर्ष का दौर चला फिर हालात से समझौता कर लिया और रेलगाड़ी की रफ़्तार से दौड़ने लगे। ब्रिटेन में रह कर प्रवासी साहित्य को भारत एवं अन्य देशों में स्थापित करने की जद्दो-जहद में लगे हैं। इस बात पर चिन्ता व्यक्त करते हैं कि भारतीय साहित्यकार एवं आलोचक बिना पढ़े ही प्रवासी साहित्य को दोयम दर्जे का साहित्य घोषित कर देते हैं। वे साहित्य को ख़ेमों में बांटने के पक्षधर भी नहीं हैं। उनका कहना है कि प्रवासी साहित्य भी हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा का एक हिस्सा है। उसे किसी प्रकार के आरक्षण की आवश्यकता नहीं है। दूसरी तरफ़ वे प्रवासी लेखकों को भी यह बताते चलते हैं कि नॉस्टेलजिया ही साहित्य नहीं होता। वे उन्हें नॉस्टेलजिया से बचने की सलाह देते हैं।
अपने बच्चों को लेकर तेजेन्द्र बहुत भावुक और प्रोटेक्टिव हैं। अपनी पुत्री दीप्ति से उन्हें विशेष जुड़ाव है। लन्दन के शुरूआती दिनों की कठिनाई भरी ज़िन्दगी में पिता-पुत्री ने सुबह चार चार बजे उठ कर दिन की शुरूआत की है। दीप्ति की एक ख़ास आदत का ज़िक्र भी करते हैं कि जब वह विश्वविद्यालय से बी.ए. बिज़नेस एडमिनिस्ट्रेशन यानि कि बी.बी.ए. कर रही थी वह अपने पापा को कहा करती थी कि वे उसके ‘लेसन ’ यानि कि पाठ को ज़ोर ज़ोर से पढ़ें ताकि वह उनके पढ़ने के अन्दाज़ से ही अपने विषय को समझ पाये। दीप्ति की शक्ल अपनी दिवंगत मां इन्दु से हू-बहू मिलती है यानि कि वह भी बहुत ही सुन्दर है। वह कम उम्र में ही आजकल रॉयल बैंक ऑफ़ स्कॉटलैण्ड के वेस्टएण्ड इलाक़े में एरिया मैनेजर हैं। दीप्ति के पति अरुण ने भी बरमिंघम के एस्टन स्कूल ऑफ़ मैनेजमेण्ट से एम.बी.ए. की डिग्री हासिल की है। तेजेन्द्र अपने इक़लौते दामाद को बाक़ायदा एडमायर करते हैं। दीप्ति और अरुण ने तेजेन्द्र को यश जैसे प्यारे से राजदुलारे नाती का नाना होने का सुख भी प्रदान किया है।
तेजेन्द्र के घर पर यदि फ़ोन करें तो कई बार एक आवाज़ फ़ोन उठाती है जो कि हू-बहू तेजेन्द्र की आवाज़ से मिलती है। किन्तु दो ही वाक्यों के बाद वह आवाज़ कहती है, “अभी पापा को देता हूं। ” कई बार तो लगता है कि तेजेन्द्र स्वयं फ़ोन पर हैं और हमारे साथ एक्टिंग कर रहे हैं। इस आवाज़ का मालिक है मयंक - तेजेन्द्र शर्मा का पुत्र। मयंक ने ब्रूनेल विश्वविद्यालय, लन्दन से कम्प्यूटर साइंस में डिग्री हासिल की है और आजकल प्राइस वाटर हाउस कम्पनी में जेम्स बॉण्ड का रोल अदा करते हैं यानि कि आई.टी. फ़ॉरेन्ज़िक एक्सपर्ट हैं। मयंक की ख़ासियत यह भी है कि लन्दन में अपनी स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय की पढ़ाई करने के बावजूद वह अपनी बहन की ही तरह हिन्दी पढ़, लिख और बोल सकते हैं। 2008 में गांधी जी के जन्मदिन पर तेजेन्द्र ने मयंक की सगाई उसकी तीसरी कक्षा से मित्र मुंबई की उन्नति से की है। बेहद प्यारी जोड़ी है। भगवान उनको हमेशा ख़ुश रखे यही दुआ है हमारी।
तेजेन्द्र के दत्तक पुत्र ऋत्विक अभी वॉरिक विश्वविद्यालय से बी.एस सी. गणित की पढ़ाई कर रहे हैं। तेजेन्द्र अक्सर उसे अपना छोटा-मोटा पुत्तर भी बुलाते हैं।
मुझे तेजेन्द्र के साथ बातचीत करते हुए कभी कभी बहुत कठिनाई पेश होती है। मुझे पता ही नहीं चलता कि वे एक्टिंग कर रहे हैं या गंभीरता से कोई बात कह रहे हैं। शायद इसमें एक बहुत बड़ा हाथ उनके टेलिविज़न और फ़िल्मों के साथ लम्बे रिश्ते का भी है। आज अपनी रोज़मर्रा के जीवन में दोस्तों से छेड़छाड़ करके कहकहे लगा कर हंसने में काफ़ी हिस्सा एक्टिंग का होता है !
कई मायनों में तेजेन्द्र फ़िल्मी जानकारी के एन्साइक्लोपीडिया हैं। किसी के मुंह से किसी फ़िल्म का नाम निकल जाए तो उसका पूरा इतिहास बता देते हैं। मैंने अक्सर देखा है कि उनके मित्र वर्ग में जब कभी किसी फ़िल्मी मुद्दे पर बहस हो जाती है तो असलियत जानने के लिये एक ही व्यक्ति को फ़ोन किया जाता है - तेजेन्द्र शर्मा। वैसे तेजेन्द्र की जानकारी के विषय में एक बात और दिमाग़ में आती है। मेरे पति के दिल में स्टेण्ट डाला जाना था क्योंकि उनकी आर्ट्रीज़ ब्लॉक हो गई थीं। उस समय भी मेरे पति तेजेन्द्र से ही मालूम कर रहे थे कि किस प्रकार का स्टेण्ट डलवाया जाना चाहिये - यानि सच में तेजेन्द्र हर-फ़न-मौला हैं।
तेजेन्द्र मज़े मज़े में अपने आप को तेजेन्द्र शर्मा फ़रीदाबादी कहते हैं और साथ ही ब्राह्मण होने का ऐलान कर देते हैं। मैं एक मामले में उनको पण्डित मानती हूं कि वे किसी भी मज़हब का अनादर नहीं करते किन्तु हर मज़हब की गहरी जानकारी रखते हैं। वे घन्टों किसी भी मज़हब के अच्छे बुरे पहलुओं पर बात कर सकते हैं। मैं अक्सर उनसे पूछ बैठती हूं कि क्या क़ुरान में यह लिखा है। इसीलिये उनकी कहानियों में शोध की झलक साफ़ दिखाई देती है। ज़िन्दगी की सच्चाइयों के क़रीब, अनोखी, अनकही, भावुक और पठनीय कहानियां। तेजेन्द्र शर्मा कि कहानियों का स्तर ऐसा है कि उन्हें टेक्स्ट-बुक का हिस्सा बनाया जा सके। उनका लिखने का अपना एक स्टाइल है जो उनके व्यक्तित्व की पहचान भी है।
--
साभार-
COMMENTS