(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईय...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
संस्कृतियों के संगम की ख़ूबसूरत कथाएँ
राजेन्द्र यादव
तेजेन्द्र शर्मा की कहानियाँ अप्रवासी भारतीयों के लेखन के उस मिथ को तोड़ती हैं कि वे प्रेमचंद्र कालीन कहानियों से ऊपर नहीं उठ पातीं- वही रोमानी भावुकता, वही तकलीफ सहने आदर्शवादी पात्र, वही कला और वही शैली। कहीं कोई प्रयोग नहीं, न कहीं सांचे को तोड़ने का साहस। मगर कृष्ण बिहारी, सुषम वेदी और तेजेन्द्र, ऐसे लेखक हैं जो मुख्य भूमि में लिखी जाने वाली किन्हीं कहानियों से उन्नीस नहीं हैं।
एक अत्यन्त विकसित सभ्यता और गतिशील संस्कृति के साथ, आप जब जुड़ते हैं तो अपने आप में सिमट जाते हैं। पिछड़ जाने की कुंठा को अपनी संस्कृति और अतीत की महानताओं की आड़ में बार-बार छिपाने की कोशिश, अपनी आइडेन्टिटी बचाने का एकमात्र रास्ता उन्हें पलायन में दिखाई देता है। वे हिन्दी सेवा या कहें हिन्दी रक्षा की अपेक्षा
हिन्दुत्व से ज़्यादा मोहाच्छन्न होते हैं। पश्चिमी सभ्यता की व्यापक और आक्रामक उपस्थिति, उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा उस हिन्दुत्व से चिपके रहने को मजबूर करती है, जिसे वे पच्चीस-पचास साल पहले अपने साथ लेकर गए थे। जब वे दो-चार साल में घर लौटते हैं तो यहाँ के बदलते राजनैतिक हिन्दुत्व को देख कर हक्के-बक्के रह जाते हैं। उन्हें लगता है असली हिन्दुत्व तो वह है, जिसे हम अपने भीतर पाले हैं। उसी की रक्षा के लिए वे अंधाधुंध पैसा भेजते हैं, जो यहाँ के भ्रष्ट और पति साधु-साध्वियों की एय्याशियों के लिए अपार सुविधाएँ प्रदान करता है।
यही नहीं, यहाँ से रोज़-रोज़ पहुँचने वाले साधु-संत, भगवान उनके इसी ‘जड' और ‘विकास वंचित' हिन्दुत्व की जड़ों में पानी देते रहते हैं। भारत की समाज विरोधी गतिविधियों और आतंकवाद राजनीति के एकमात्र स्रोत, यही विदेशों में बसे भारतीय हैं। उनके अपने ‘घैटो' हैं, अपनी मित्र मंडलियाँ और वार-त्यौहार हैं। वे अपने बनाए ‘भारत' से मुक्त नहीं हो पाते। इनमें जो हिन्दी में लिखते हैं, वे अनिवार्यतः कवि भी हैं। और आज भी अपने नॉस्टेल्जिया की गिरफ्त में हैं।
वे जब यहाँ आते हैं तो उनकी शरणस्थली वह लेखक वर्ग है, जिसे हिन्दी के लेखक-बुद्धिजीवी ख़ारिज किए होते हैं। हाँ, ये बाहर जाकर इनकी सेवाएँ लेते हैं, अपना अर्थशास्त्र सुधारते हैं और भेंट पूजा के साथ, विदेश-यात्रा के तमग़े लेकर लौटते हैं। वे ही बदले में, आतिथ्य स्वरूप, इनके लिए गोष्ठियाँ, स्वागत और रचनाओं के प्रकाशन की व्यवस्था करते हैं।
मगर, तेजेन्द्र उन कहानीकारों में हैं, जिनकी रचनाओं को आप मुख्यधारा के किसी भी कहानीकार के साथ पढ़ सकते हैं। उनके अनुभवों का भूगोल ही विस्तृत नहीं है, बल्कि पात्रों की मानसिकता और स्थितियाँ भी अलग होने का रोमांच देती हैं।
उदाहरण के लिए, ‘पासपोर्ट का रंग' ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जो एक साथ दो देशों में रहना चाहता है, भारत में भी, इंग्लैंड में भी- बल्कि कहें कि ग़मे रोजग़ार ने उसे विदेश में भले ही शरण दी हो, मगर अपना देश छूटता नहीं है। मूलतः यही थीम, कहीं न कहीं, तेजेन्द्र की हर कहानी की आंतरिक बुनावट में गुंथी है, वे चाहे खुद उसके प्रति सचेत न हों। दो देशों में, या कहें कि दो मानसिकताओं में बँटा हुआ आदमी। इसके लिए, तेजेन्द्र ने बड़ी ही स्वाभाविक स्थितियों का चुनाव किया है। हम कहीं भी जाते हैं और रहने के दौरान किसी से प्यार हो जाता है, उसे हम अपने जीवन में शामिल कर लेते हैं और इसी घरेलू वातावरण से शुरू होता है, वह द्वंद्व, जिसे अपने से छूट न पाने के नॉस्टेल्जिया का नाम दिया जा सकता है।
मैं तेजेन्द्र की कला की तारीफ करूंगा कि उन्होंने बेहद रोचक, सहज और सार्थक ढंग की कहानियाँ लिखी हैं, जो पाठक को परदेसी की आत्मा में झांकने का मौका देती हैं। वहाँ किसी का भी जीवन अपना नहीं है, सब एक-दूसरे से जुड़कर ‘अन्य' बनना चाहते हैं, चाहे वह ‘नरक की आग' का राजेश हो, जो नरेश को ‘रोल मॉडल' मानकर उसकी नकल करता है और नतीजे में अपने आपसे दूर हो जाता है। अनुष्ठा अपने को लेडी डायना के जीवन में ढालना चाहती है। नतीजतन, उसके साथ भी लगभग वही दुर्घटना हो जाती है जो डायना के साथ हुई- यानी सम्बन्धों के टूटने बनने की प्रक्रिया।
वैसे तो, हर कहानी, पीछे छूटे हुए से मुक्त न हो पाने की छटपटाहट से ही पैदा होती है- उसी में आने हैं, भविष्य के सपने या गाँव-घर की स्मृतियाँ, होली दीवाली या दूसरे मनोवैज्ञानिक पेंच। ‘क़ब्र का मुनाफा' ऐसे मुसलमान दोस्तों की कहानी है जो न अपने भीतर के लखनऊ को निकाल पाए हैं, न कराची को और अपने लिए खरीदी गई क़ब्रों की जगहों को मुनाफे में बेचकर सफलता का संतोष पाते हैं। यह मरते-मरते विदेश से कुछ न कुछ झटक लेने का लालच है।
विदेशों में, विशेषकर, इंग्लैंड में बसे हिन्दुस्तानियों के पारिवारिक बदलाव और तनावों की ये कहानियाँ, वहाँ के जीवन के द्वंद्वों, सही-गलत चुनावों और एक दिन फिर वापस देश पहुँचने के सपनों के आसपास बुनी गई हैं। ये दो संस्कृतियों के संगम की खूबसूरत कथाएं हैं।
कहते हैं अच्छी कहानी को आप दुबारा पढ़कर भी वही पहला आनंद लेते हैं। मैं भी तेजेन्द्र की कहानियों को दुबारा पढ़ना चाहूँगा; क्योंकि ‘घर' छोड़ देने या बदल देने के बावजूद किसी की आँखें हैं कि वहीं, उन्हीं दीवारों से चिपकी छूट गई हैं।
(अजय नावरिया से बातचीत के आधार पर)
साभार-
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