(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
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बुकर प्राइज़ की जगह देखना चाहते हैं तेजेन्द्र कथा यूके सम्मान को
सूरज प्रकाश
बुकर प्राइज़ की शुरुआत लगभग 40 बरस पहले हुई थी। एक बरस छोड़ कर दिया जाने वाला ये सम्मान अब तक सात भारतीय लेखकों की कृतियों पर भी दिया जा चुका है। सम्मान के लिए पात्र होने के लिए किताब के साथ स्तरीय होने के अलावा बस, एक ही शर्त जुड़ी होती है कि उसका अंग्रेज़ी अनुवाद उपलब्ध हो।
साहित्य की किसी भी विधा से चुने गये एक अध्यक्ष और दो सदस्यों वाली बुकर प्राइज़ चयन समिति दुनिया भर के विभिन्न शहरों में बैठकें करती है और पहले दौर में 15 किताबों की सूची शार्टलिस्ट करती है। ये सूची सार्वजनिक नहीं की जाती।
चयन के दूसरे चरण में छ: पुस्तकें चुनी जाती हैं। इस सूची को सार्वजनिक किया जाता है। बाकी काम फिल्मों के सबसे बड़े अंतर्राष्ट्रीय सम्मान ऑस्कर की तर्ज पर होता है और पूरी दुनिया में फैले पाठक तब छ: में से एक किताब का चयन करते हैं।
बुकर प्राइज़ के लिए चुनी गयी किताब के साथ बहुत बड़ी पुरस्कार राशि तो जुड़ी हुई है ही, नाम, सम्मान और कई भाषाओं में कृति के अनुवाद की असीम संभावनाएं और करोड़ों पाठकों तक सीधी पहुंच के रास्ते इसी सम्मान से खुलते हैं। शॉर्टलिस्ट किये गये 6 लेखक भी खासा नाम और नावां कमाते हैं और उनके ऑडियो, वीडियो और प्रिंट मीडिया में प्रकाशित इंटरव्यू मीडिया और पाठक जगत में जगह पाते हैं। उनकी किताबों की बिक्री भी बढ़ती ही है।
बेशक हमारा पन्द्रह बरस पुराना इंदु शर्मा कथा सम्मान बुकर प्राइज़ की तुलना में अभी काफी पीछे है लेकिन अगर आपके पास तीन बातें हों तो आपको सफलता की सीढ़ियां चढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। ये तीन चीज़ें हैं ड्रीम, डिज़ायर एंड विज़न यानि सपना, उसे पूरा करने की अदम्य इच्छा और आकाश का-सा फैलाव लिये विज़न।
तो कथा यूके के कर्ता-धर्ता तेजेन्द्र शर्मा अपने इन्हीं तीन गुणों के आधार पर एक दिन दुनिया भर में दिये जाने वाले साहित्यिक पुरस्कारों की पांत में कथा यूके सम्मानों को बुकर प्राइज़ के आस पास देखना चाहते हैं। बेशक दोनों सम्मानों के स्वरूप में और दायरे में जमीन आसमान का फर्क है लेकिन सपना तो वही होता है ना जो हमें सोने न दे, न कि वह जो हम नींद में देखते हैं। तेजेन्द्र का यही सपना इन सम्मानों को बंबई के एयर इंडिया ऑडिटोरियम से ले कर लंदन के हाउस ऑफ लार्ड्स तक ले गया है। बेशक अब तक का ये सफर इतना आसान कभी नहीं रहा है लेकिन एक कहावत है ना कि पानी के जहाज सबसे ज्यादा सुरक्षित बंदरगाह पर होते हैं लेकिन वे बंदरगाह पर ठहरे रहने के लिए बने नहीं होते। तो यही बुकर प्राइज़ की बराबरी वाला सपना भी वे एक दिन पूरा करके दिखायेंगे। सपने को पूरा करने की अपनी कूवत, नीयत और हिम्मत के साथ तेजेन्द्र अपने इस सपने को भी पूरा कर ले जायेंगे।
कथा यूके के सम्मानों को वे आज उस मुकाम तक तो पहुंचा ही चुके हैं कि हर बरस जब अप्रैल के आस पास इन पुरस्कारों की घोषणा होती है कि उससे काफी पहले से देश भर में हर स्तर उस बरस की चयनित किताब को ले कर कयास भिड़ाये जाने लगते हैं और नाम उछाले जाने लगते हैं। ईष्ट मित्र, प्रशंसक, साथी रचनाकार, सभी तो बेसब्री से इन सम्मानों की घोषणा की राह देख रहे होते हैं उन दिनों।
एक बात और है। बुकर प्राइज़ की तरह न तो पिछले चौदह बरसों से कथा यूके के निर्णायक मंडल के नाम घोषित किये गये हैं और न ही अंतिम 6 की सूची में आयी किताबों का नाम ही सार्वजनिक किया जाता है। इसके अलावा, कथा यूके सम्मानों के चयन का आधार लेखक नहीं, किताब होती है और इसका सबसे बड़ा सुबूत यही है कि अब तक दिये गये चौदह में कम से कम 5 सम्मान लेखक या लेखिका की पहली कृति पर दिये गये हैं। बेशक तेजेन्द्र को और कई बार कथा यूके के भारतीय प्रतिनिधि के नाते मुझे भी सबसे ज्यादा इसी सवाल का जवाब देना पड़ता है। अक्सर और ज्यादातर हमसे पहला प्रश्न निर्णायक मंडल में शामिल विद्वानों के नामों का ले कर ही होता है। इस सवाल का जवाब तेजेन्द्र हमेशा यही दिया करते हैं कि पहला सच ये है कि साहित्य अकादमी में हर वर्ष चयन समिति के नाम सबको पता होते हैं और दूसरा सच हर बरस ये होता है कि पुरस्कारों की घोषणा से पहले पूरे देश को मालूम रहता है कि इस बरस किस भाषा में ये सम्मान किसकी झोली में डाला जाने वाला है। साहित्य अकादमी में यही दोनों सच कई बरसों से दोहराये जा रहे हैं। इसके बाद साहित्य अकादमी के काम करने के ढंग की पारदर्शिता, विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर कुछ भी कहना शेष नहीं रह जाता।
तेजेन्द्र आगे कहते हैं कि अगर हम निर्णायक मंडल की घोषणा नहीं करते तो कम से कम किसी भी तरह की सिफारिश या पक्षपात के आरोप से तो बचे ही रहते हैं, साथ ही इस आशंका से भी तो बचे रहते हैं कि घोषित किये जाने से पहले सम्मान के बारे में किसी को भी नहीं पता होता। और यही हमारे सम्मानों की पारदर्शिता, विश्वसनीयता, निष्पक्षता और ईमानदारी का प्रमाण है।
तेजेन्द्र अकूत मानसिक और शारीरिक ऊर्जा के भंडार हैं और कथा यूके के लिए हमेशा कुछ न कुछ बेहतर सोचने और करने में लगे ही रहते हैं। कथा यूके उनके लिए जीवन का आधार है, मानसिक बल है और जीवन धारा है। यही उनकी जीवन शक्ति है। उनके मन में कथा यूके के लिए कितना सम्मान है इस बात को इस किस्से से समझा जा सकता है।
शायद 2003 या 2004 में किसी मामूली सी तकनीकी गलती के कारण उनकी नौकरी पर बन आयी थी और उन्हें जबरन लम्बी छुट्टी पर घर पर बिठा दिया गया था। एक तरह का निलम्बन।
कथा यूके का आयोजन सिर पर था और सारी तैयारियां न केवल धन और समय मांगती थीं, ठंडे दिमाग से सोचने समझने और कुछ करने के लिए असीम मानसिक शांति की भी मांग करती थीं। बेरोजगार रहने और आर्थिक रूप से बेहाल रहने के बावजूद वे पूरी मुस्तैदी से सारी तैयारियों में लगे रहे और आयोजन बहुत सफल रहा। पूरे अरसे के दौरान उनके चेहरे पर कहीं शिकन तक नहीं थी। सम्मानित रचनाकार बहुत खुश हो कर वापिस लौटे।
मैं उस बार शायद दो हफ्ते के लिए उनका मेहमान रहा। पहले हफ़्ते तो उन्होंने यही कहा कि आयोजन के लिए छुट्टी ली है लेकिन दूसरे हफ्ते वे बाकायदा बैग ले कर ड्यूटी के लिए निकलते रहे और शाम के वक्त वापिस आते रहे। मुझे भारत आने के बहुत दिनों बाद पता चला कि वे उन दिनों नौकरी से बाहर थे, पगार नहीं मिल रही थी उन्हें और उन्होंने फिर भी किसी तरह न केवल मेरे आने जाने का टिकट जुटाया था बल्कि मेरे और परिवार के लिए हमेशा की तरह उपहार भी दिये थे। मुझे ये भी बहुत देर से पता चला था कि उनकी नौकरी न रहने की खबर उनके परिवार को भी नहीं थी। बेशक हम दोनों ने आपस में आज तक इस बात का जिक्र नहीं किया है लेकिन निश्चित ही अपनी व्यक्तिगत परेशानियों की काली छाया तेजेन्द्र कथा यूके के पूरे आयोजन पर नहीं पड़ने देना चाहते थे।
अपने खराब स्वास्थ्य, नौकरी पर एक के बाद एक आते संकट, किसी को भी तोड़ देने की हद तक बिगड़ चुकी पारिवारिक स्थितियों और बिलकुल अलग थलग पड़ जाने के मारक अनुभवों के बावजूद तेजेन्द्र हिम्मत नहीं हारते और एकला चलो रे की तर्ज पर न केवल पिछले नौ बरसों से इंगलैंड में कथा यूके की मशाल जलाये हुए हैं, उन्होंने वहां कहानी पाठ, कहानी कार्यशाला, गीत संगीत के कार्यक्रमों, नाटकों और भारत से पधारने वाले अमूमन सभी लेखकों की स्थानीय समुदायों से मुलाकात जैसे कई सार्थक सिलसिले शुरू किये हैं और इन सब प्रयासों के बेहतर उन्हें परिणाम भी मिले ही हैं। वे 9 बरस पहले जब लंदन गये थे तो वहां के हिन्दी रचनाकारों की इक्का दुक्का किताबें ही छपी थीं लेकिन ये तेजेन्द्र और उनकी कथा यूके की गतिविधियों और प्रेरणा का ही कमाल है कि इस अरसे में कई विधाओं में हिन्दी में तीस से भी अधिक किताबें न केवल आ चुकी हैं बल्कि पुरस्कृत भी हो चुकी हैं। इंगलैंडवासी रचनाकारों की आठ पुस्तकों को तो इस अरसे में कथा यूके के पद्मानंद साहित्य सम्मानों से ही नवाजा जा चुका है।
इतने बड़े आयोजन के लिए धन जुटाना कोई आसान काम नहीं होता। सम्मानित रचनाकार और यदि साथ में सम्मान प्रदान करने के लिए कोई वरिष्ठ लेखक भारत से ही जा रहा हो तो उसके लिए भी भारत से लंदन की वापसी टिकट, वीज़ा शुल्क, हफ्ते भर होटल में ठहराना, एयरपोर्ट पर रिसीव करना और छोड़ना, खाने पीने की व्यवस्था, घुमाना फिराना, उनके सम्मान में गोष्ठियां आयोजित करना, गीतांजलि बहुभाषीय समाज के सम्मान के लिए उन्हें बरमिंघम ले जाना, उन्हें व्यक्तिगत उपहार आदि दे कर सम्मानित करना, इन सबके लिए विदेशी मुद्रा में ढेर सारे धन, धैर्य, समय और स्रोतों की ज़रूरत होती है। ये सब तो है ही, भारतीय प्रतिनिधि का बिल्ला लगाये ये बंदा भी हर बरस लंदन जा धमकता है यानी एक और अदद बंदे पर यहां गिनाये गये सारे खर्चे!
इसके अलावा, शील्ड है, मानपत्र है, स्मारिका के लिए भाग दौड़ है, उसका प्रकाशन है, स्मारिका भारत से ले जाने की व्यवस्था है, दोशाला है, आयोजन स्थल का किराया है, जलपान है, निमंत्रण पत्र तथा स्मारिका के प्रकाशन और वितरण की व्यवस्था है, आयोजन के लिए हफ्ते भर की छुट्टी है, सारे आयोजन के लिए भाग दौड़ है, हाउस ऑफ लार्ड्स की औपचारिकताएं हैं। ये सारे काम तेजेन्द्र और अकेले तेजेन्द्र को करने होते हैं और वे पिछले नौ बरस से बखूबी कर रहे हैं। अगले दो आयोजनों के लायक धन हमेशा वे अपनी जेब से एहतियातन बचाये रखते हैं।
स्मारिका के लिए विज्ञापन जुटाना शायद किसी भी देश में सबसे मुश्किल काम माना जाता है लेकिन वे अपने अकेले के बलबूते पर इस काम को भी लंदन में सरअंजाम दे ही रहे हैं। वे स्मारिका के लिए विज्ञापन मांगने में कोई शर्म महसूस नहीं करते। उनका कहना है कि मैं एक पराये देश में हिन्दी का माहौल बनाने में और भारत के एक हिन्दी के लेखक को विदेश में सम्मान दिलाने और पाठक तैयार करने की मुहिम पर अकेले के दम पर लगा हुआ हूं, सरकार करोड़ों रुपये खर्च करके हिन्दी को यूएनओ में ले जाने के प्रस्ताव तक पास नहीं करवा पाती और कथा यूके अपने पुरस्कारों के लिए हाउस ऑफ लार्ड्स तक जा पहुंची है तो इतनी मदद तो सबको करनी ही चाहिये। इसके अलावा किसी भी भारतीय भाषा की सर्वोत्तम कृति के लिए लंदन में और वह भी हाउस ऑफ लार्ड्स में हर बरस दिया जाने वाला ये इकलौता सम्मान है तो इस सम्मान समारोह के अद्भुत पलों का साक्षी बनने के लिए जितने भी उदार और मेहरबान लोगों और संस्थाओं को जोड़ा जा सके, उतना बेहतर।
पिछले तीन बरस से लंदन में तेज को अपनी संस्था की गतिविधियों को नये और सार्थक आयाम देने के लिए एक नया हमसफ़र मिला है। ये हमसफ़र कथा यूके की सारी गतिविधियों में बराबरी से शरीक तो होता ही है, इसके लिए धन जुटाने, नये प्रोजेक्ट शुरू करने और चल रहे कामों को और नयी ऊंचाइयों तक ले जाने की तेजेन्द्र की कोशिशों में लगातार मानसिक और आत्मिक बल देता है। ये हमसफ़र उन्हें मिला है यूके की सरकार में काउंसिलर ज़किया ज़ुबैरी के रूप में। वे खुद बेहतरीन रचनाकार हैं और घनघोर पाठक हैं। भारत में पली बढ़ी, कराची में ब्याही और पिछले कई बरसों से लंदन में रह रहीं ज़किया जी संगीत, साहित्य और इतर विधाओं के ज़रिये हिन्दी-उर्दू के बीच नज़दीकियां लाने के मकसद से एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स नाम की संस्था चलाती हैं। कथा यूके के साथ मिल कर उन्होंने पिछले तीन बरसों में साहित्य और संगीत की दिशा में कई अहम काम किये हैं।
दोनों संस्थाओं की ईमानदार कोशिशों को इसी बात से समझा जा सकता है कि 26/11 के मुंबई हादसे के बाद उन्होंने लंदन में हिन्दी में लिखने वाले भारतीय कहानीकारों और उर्दू में लिखने वाले पाकिस्तान के लेखकों को एक ही मंच से पेश किया। मकसद यही दिखाना था कि साहित्य या अदब किसी भी तरह की सीमाओं से या मनमुटावों से बंधा नहीं होता और साहित्य ही है जो इन्सान को बेहतरी की राह पर ले जाने का काम कर सकता है। ज़किया ज़ुबैरी तेजेन्द्र के लिए या कथा यूके के लिए और इन दोनों के जरिये हिन्दी के लिए जो कुछ भी कर रही हैं, उसके लिए फ्रैंड, फिलास्फर एंड गाइड जैसा जुमला भी छोटा पड़ता है।
1995 में शायद जुलाई या अगस्त में जब पहला इंदु शर्मा कथा सम्मान बंबई के एयर इंडिया के भव्य ऑडिटोरियम में आयोजित किया गया था तो उसने कई इतिहास रच दिये थे। डॉक्टर धर्मवीर भारती को कई बरसों बाद बंबईवासियों ने मंच से बोलते और गीतांजलिश्री को उनके कहानी संग्रह अनुगूंज के लिए पहले इंदु शर्मा कथा सम्मान से सम्मानित करते देखा था। ये भी बंबई में पहली बार हो रहा था कि थियेटर का कोई मंजा हुआ कलाकार मंच से पुरस्कृत रचनाकार की कहानी का सधी हुई आवाज़ में पाठ कर रहा था। पूरे आयोजन की रूपरेखा न केवल बहुत सोच समझ कर बनायी गयी थी बल्कि आगे आने वाले बरसों के लिए इंदु शर्मा कथा सम्मान आयोजन एक मानदंड की तरह देखे और याद किये जाने लगे थे। ये आलम हो चला था कि हर बरस बंबई वासी वार्षिक इंदु शर्मा कथा सम्मान आयोजन की राह देखा करते थे। समय की पाबंदी, मंच के साथ कोई समझौता नहीं, व्यापक मीडिया कवरेज, हर मेहमान को निमंत्रण पत्र भेजने के अलावा फोन करके आमंत्रित करने की परम्परा तेजेन्द्र ने ही डाली थी। और ये परम्परा बिना किसी व्यवधान के तब तक चलती रही जब तेजेन्द्र को कुछ कारणों से भारत को ही विदा कहनी पड़ी। लेकिन तब उन्हें नहीं पता था कि संभावनाओं, उम्मीदों और कुछ कर दिखाने का एक और बड़ा और विस्तृत आकाश लंदन में उनकी राह देख रहा है।
लंदन तेजेन्द्र के लिए कई मायनों में लकी सिद्ध हुआ है। बेशक व्यक्तिगत स्तर पर कुछ घाटे के सौदे उनके हिस्से में आये हैं। इन घाटे के सौदों के लिए वे अपने सितारों को ही दोष दे कर चुप रह जाना पसंद करते हैं लेकिन ये तो जग जाहिर है कि वहां जा कर कथा सम्मान अंतर्राष्ट्रीय हुआ है, उसका नाम, प्रतिष्ठा और दायरा बढ़ा है बेशक उससे उम्मीदें भी बढ़ गयी हैं। ये लंदन जाने के कारण ही हुआ है कि कथा यूके सम्मान मुंबई के एयर इंडिया ऑडिटोरियम से चल कर हाउस ऑफ लार्ड्स की दहलीज लांघ पाये हैं और ये तेजेन्द्र के लिए, कथा यूके सम्मानों के लिए, हिन्दी के लिए और हम सब के लिए एक बहुत बड़ी छलांग है। कुछ ही कदमों में चांद छू लेने की सी छलांग। ऐसी ही कुछ और छलांगें हैं जो उनकी योजनाओं में हैं और वे इनके जरिये आकाश तक जाना चाहते हैं। आप उन पलों की कल्पना ही कर सकते हैं जब सात समंदर पार इंगलैंड की धरती पर हिन्दी की अपनी श्रेष्ठ किताब के लिए भारत से वहां गया हमारा लेखक सम्मानित हो रहा होता है। ये सम्मान तब सिर्फ उस लेखक का नहीं हो रहा होता, हिन्दी और पूरी भारतीय अस्मिता का सम्मान हो रहा होता है। अपने अकेले के बलबूते पर वहां तक पहुंचने की हिम्मत और जज्बा तेजेन्द्र में ही है।
कथा यूके को लेकर तेजेन्द्र इतने पोज़ेसिव और संवेदनशील हैं कि उसे और नयी ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए हर वक्त जुटे रहते हैं। एक आयोजन खत्म हुआ नहीं होता कि वे अगले आयोजन की तैयारियों में जुट जाना चाहते हैं। उनका बस चले तो एक सफल आयोजन की प्रेस रिलीज़ भेजने के साथ ही उसी लिफाफे में अगले सम्मान के लिए नामांकन मांगने के लिए अनुरोध भेज दें। (कथा यूके के सम्मानों के चयन प्रक्रिया का एक हिस्सा ये भी है कि हर वर्ष देश भर में लेखकों, संपादकों, प्रकाशकों, मित्रों और सुधि समीक्षकों को पत्र भेज कर उनसे पिछले तीन वर्ष के दौरान छपी, पाठकों और समीक्षकों द्वारा सराही और पसंद की गयी तीन किताबों की सिफारिश करने का अनुरोध किया जाता है।)
वे समय के इतने पाबंद हैं कि आयोजन के लिए पूरे बरस का खाका एक बरस पहले से बना कर रख लेते हैं और उसके हिसाब से चलने का न केवल खुद प्रयास करते हैं बल्कि मुझ पर लगातार ये दबाव रहता है कि उनके शेड्यूल का पूरा पालन हो। परफैक्शन तो हर काम में उन्हें इतना चाहिये कि पिछले दस बरस से कथा यूके के जुड़ा रहने और अपनी सामर्थ्य भर काम करने और उसमें कई नये आयाम जोड़ने के बावजूद मैं आज तक उनके परफैक्शन लेवल तक नहीं पहुंच पाया हूं। कहीं ज़रा सी चूक हुई नहीं कि साहब का मूड ऑफ। तब उन्हें मनाने की कोई तरकीब काम नहीं आयेगी। हां, बिना शर्त माफीनामा दाखिल करने से कुछ बात बन सकती है।
मुझे कथा यूके से जुड़े दसेक बरस तो हो ही गये होंगे। भारत में पांचों सम्मान समारोहों का तथा लंदन में एक तरह से 6 सम्मान समारोहों का साक्षी रहा हूं मैं। कथा यूके के काम करने के तरीकों को लेकर हम दोनों में गहरे मतभेद हैं, लेकिन हम दोनों ही अपनी-अपनी जिद की ढपली बजाते हुए अपने अपने तरीके से काम करते ही रहते हैं क्योंकि तेजेन्द्र की तरह मेरा भी ये मानना है कि ये सम्मान एक लेखक द्वारा अपनी दिवंगत लेखिका पत्नी की स्मृति में किसी तीसरे लेखक की श्रेष्ठ कृति को दिये जाने की एक ईमानदार कोशिश है और इसे जितना बेहतर, पारदर्शी, निष्पक्ष और स्तरीय बनाया जा सके, उतना ही अच्छा। और इस ईमानदार कोशिश में अगर मेरे अनगढ़ हाथों का थोड़ा-सा सहारा मिल रहा है तो ये मेरा सौभाग्य है।
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