(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बध...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
सच कहके दुश्मनों में इज़ाफ़ा किया बहुत
- देवमणि पांडेय
नवभारत टाइम्स, मुम्बई में कनिष्क विमान दुर्घटना पर आधारित तेजेन्द्र शर्मा की कहानी 'काला सागर'' पढ़कर मैं स्तब्ध रह गया था। मेरे लिए वह सर्वथा एक नया अनुभव संसार था कि लंदन की धरती पर भौतिकता की चमक से आक्रांत भारतीय व्यक्ति कैसे अपनी पारिवारिक त्रासदी भूलकर संवेदनहीनता के महासागर में डूबता चला जाता है। अनुभव जगत की इसी नवीनता के चलते देखते ही देखते 'काला सागर' का अनुवाद कई भाषाओं में हो गया। अनुभव के नए संसार और विषय के नएपन के कारण ही तेजेन्द्र की तरकीब, ढिबरी टाइट, देह की कीमत और कब्र का मुनाफा जैसी कहानियां अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुईं।
बहरहाल 'कालासागर ' के समय मुझे यह भी पता नहीं था कि तेजेन्द्र मुम्बई में हैं। किसी मित्र के हवाले से पहला फ़ोन उन्हीं का आया। पहली मुलाक़ात में ही मैं उनका ऐसा पारिवारिक सदस्य बन गया कि जब तक इंदु जी स्वस्थ थीं उन्होंने बिना भोजन किए कभी वापस नहीं आने दिया। तेजेन्द्र में कम मिलने जुलने की आदत थी, इसलिए मुम्बई में उन्हें कम लोग जानते थे। मुम्बई ने उन्हें तब जाना जब 1990 में उनका पहला कहानी संग्रह 'कालासागर' प्रकाशित हुआ।
मैंने कथाकार.संपादक अरविंद जी से बात की और 'कथाबिम्ब' की ओर से 'कालासागर ' का लोकार्पण हुआ। मैंने संचालन किया। डॉ. प्रबोध गोविल स्वयं डा. अरविंद ने अभिपत्र पढ़े। गोविंद मिश्र, डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर, जितेन्द्र भाटिया, विश्वनाथ सचदेव, राहुलदेव और धीरेन्द्र अस्थाना ने 'कालासागर ' की कहानियों पर विचार व्यक्त किए। मुम्बई के रचनाकार प्रमुखता से उपस्थित थे। इस कार्यक्रम में इन्दु जी भी मौजूद थीं और फिर एक दिन इन्दु जी नहीं रहीं।
इंदु शर्मा कथा सम्मान की अनौपचारिक पहली बैठक जब हुई तो उसमें दो ही लोग थे . मैं और तेजेन्द्र शर्मा। हम लोग वर्सोवा में गंगा.जमुना इमारत के उस फ़्लैट में बैठे थे जिसके दरवाज़े पर लगी नेम.प्लेट पर लिखा था.''तेजेन्द्र, इंदु, दीप्ति और मयंक का घर'' तेजेन्द्र ने कहा. ''मैं इंदु के नाम से हर साल एक कथाकार को ग्यारह हज़ार रूपए का पुरस्कार देना चाहता हूं''। मैंने पूछा कि क्या आप हर साल यह धनराशि जुटा लेंगे? तेजेन्द्र ने जवाब दिया. ''मैं इंदु की स्मृति के सम्मान के लिए हर साल यह रकम अपनी जेब से ख़र्च करूंगा। उस वक़्त मैंने एक सुझाव दिया कि वरिष्ठ कथाकारों को तो पुरस्कार और सम्मान मिलते ही रहते हैं क्यों न हम इसके लिए 40 साल की उम्र सीमा निर्धारित कर दें। तेजेन्द्र ने तत्काल इस सुझाव को स्वीकार कर लिया। हमने यह भी गुंजाइश रखी कि विशेष परिस्थितियों में उम्र सीमा में एक.दो साल की छूट भी दी जा सकती है। चर्चा के दौरान हम इस निष्कर्ष पर पंहुचे कि पुरस्कार को अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिष्ठित करने के लिए पहला पुरस्कार मुम्बई के बाहर के कथाकार को दिया जाए और अगर वह कोई महिला हो तो और भी बेहतर है।
नवभारत टाइम्स के तत्कालीन संपादक विश्वनाथ सचदेव के कक्ष में निर्णायक समिति की बैठक हुई। सर्वसम्मत्ति से वर्ष 1995 के लिए पहला पुरस्कार गीतांजलिश्री को कहानी संग्रह 'अनुगूंज ' के लिए देने का फ़ैसला लिया गया। जब हम नभाटा कार्यालय से बाहर निकल रहे थे तो वहां के एक पत्रकार मित्र ने कटाक्ष किया. पहला पुरस्कार तो धीरेन्द्र अस्थाना को ही गया होगा। धीरेन्द्र जी मेरे और तेजेन्द्र के घनिष्ठ मित्र हैं। हमें ख़ुशी हुई कि हमने कोई ऐसा क़दम नहीं उठाया था जिससे हम पर उंगलियां उठतीं। वैसे देखा जाए तो धीरेन्द्र जी ने जनसत्ता की नगर पत्रिका 'सबरंग ' के ज़रिए मुम्बई के साहित्यिक परिदृश्य में धूम मचा रखी थी। उसी साल उनका कहानी संग्रह 'उस रात की गंध ' भी काफी चर्चित हुआ था। पुरस्कार की सूची में भी उनका नाम टॉप पर था मगर उन्हें यह पुरस्कार अगले साल यानी 1996 में मिला। उसके बाद अखिलेश (शापग्रस्त)1997, देवेन्द्र ;शहर कोतवाल की कविता,1998 और मनोज रूपड़ा (दफ़न) 1999 तक आते आते इंदु शर्मा कथा सम्मान ने अखिल भारतीय स्तर पर जो प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता अर्जित कर ली थी वह दुर्लभ है।
इंदु शर्मा कथा सम्मान की अखिल भारतीय प्रतिष्ठा के साथ ही इसके आयोजन की गरिमा भी चर्चा का विषय बनी। साहित्यिक आयोजनों में प्रायः - अध्यक्ष, अतिथि वगैरह दस - बारह लोग मंच पर होते हैं और उनका भाषण श्रोताओं को धराशाई कर देता है। आयोजन भी प्रायः एक-डेढ़ घंटे विलम्ब से शुरू होता है। इस सम्मान समारोह में इस माहौल को बदलने की कोशिश की गई। यह समारोह नरीमन पाइंट स्थित एअर इंडिया सभागार में 5 बजे आयोजित था। आमंत्रण पत्र में छापा गया. कृपया सुरक्षा कारणों से 4.45 बजे अपना स्थान ग्रहण कर लें। एअर इंडिया नाम में कुछ ऐसा असर था कि 4.30 बजे ही आधा हाल भर गया और 5 बजते बजते तो हाउसफ़ुल हो गया। ठीक 5 बजे पर्दा खुला और उदघोषक के रूप में मैंने माइक संभाल लिया। मंच पर सिर्फ़ चार ही लोग थे. डॉ. धर्मवीर भारती, प्रो. जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, कथाकार गीतांजलिश्री और तेजेन्द्र शर्मा। डेढ़ घंटे में कार्यक्रम समाप्त हो गया। लोगों का कहना था. इतना सुंदर, सुरुचिपूर्ण और संतुलित कार्यक्रम महानगर में इससे पहले कभी नहीं हुआ।
उन दिनों मैं संझा जनसत्ता में 'साहित्यनामचा' नामक साप्ताहिक स्तंभ लिखता था। मेरे बारे में मशहूर था कि मैं किसी को नहीं बख़्शता यानी सबके खिलाफ़ लिखता हूं। इस कार्यक्रम में मुझे कोई ऐसा निगेटिव पॉइंट मिल ही नहीं रहा था कि मैं कोई विपरीत टिप्पणी करूं। अचानक मेरा ध्यान तेजेन्द्र के लिबास पर गया। डार्क कलर के कुर्ता.पाजामा के ऊपर वे काले रंग की एक जैकेट पहने हुए थे जिसकी लंबाई घुटनों के नीचे तक जाती थी। पूरे कार्यक्रम पर एक सकारात्मक टिप्पणी करने के बाद मैंने अंत में लिखा. ''तेजेन्द्र शर्मा इस कार्यक्रम में नए फैशन का एक ऐसा सूट पहनकर आए थे जिसमें वे पूरे जादूगर लग रहे थे, बस हाथ में छड़ी की ही कमी थी।'' आलम यह था कि इसे पढ़कर शहर में जगह जगह ठहाके लग रहे थे।
वैसे इस समारोह में गीतांजलिश्री भी आधुनिक और आकर्षक परिधान में इतने सलीक़े से सज.संवर कर आईं थीं कि बिलकुल अभिनेत्री लग रहीं थीं। लोग उनके सुंदर व्यक्तित्व को मुग्धभाव से देख रहे थे। जब कवि विजय कुमार ने उनका परिचय प्रस्तुत किया तो मालूम पड़ा कि वे सचमुच अभिनेत्री हैं और रंगमंच से जुड़ी हुई हैं। रात में प्रेस क्लब में मित्रों के बीच यह चर्चा गर्म थी कि हिन्दी लेखकों को हमेशा दीनहीन और बेचारा दिखने के बजाय तेजेन्द्र और गीतांजलिश्री की तरह कम से कम मंच पर तो शानदार दिखना चाहिए।
इंदु शर्मा कथा सम्मान के आयोजन की ऊंचाई का अंदाज़ा इससे भी लगाया जा सकता है कि इस मंच को डॉण् धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, राजेन्द्र यादव, कन्हैयालाल नंदन, ज्ञानरंजन, गोविन्द मिश्र, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित और कामतानाथ जैसे रचनाकार अपनी उपस्थिति से गरिमा प्रदान कर चुके हैं। इसके श्रोता समुदाय में भी डॉण् धर्मवीर भारती, पुष्पा भारती, गुलज़ार, दूधनाथ सिंह, कमलाकांत त्रिपाठी, कवि विनोद कुमार श्रीवास्तव और पत्रकार राहुलदेव जैसे प्रतिष्ठित क़लमकार शामिल हो चुके हैं। यह एकमात्र ऐसा आयोजन था जिसमें मुम्बई के सारे नामचीन रचनाकार मसलन. डॉण् सूर्यबालाए सुधा अरोड़ा, जितेन्द्र भाटिया, धीरेन्द्र अस्थाना, अरविन्द, विजय कुमार, अनूप सेठी, विभारानी, संतोष श्रीवास्तव आदि के साथ ही रामनारायण सराफ जैसे प्रतिष्ठित उद्योगपति नियमित रूप से उपस्थित होते थे।
इंदु शर्मा कथा सम्मान के आयोजन से ही कलाकारों द्वारा कहानीपाठ की एक नई शुरुआत हुई। पुरस्कृत कहानीकारों की कहानियों का पाठ अभिनेता दिनेश ठाकुर, राजेन्द्र गुप्ता, सुरेन्द पाल और स्वयं तेजेन्द्र शर्मा ने किया। कहानी की ऐसी असरदार प्रस्तुति का श्रोताओं ने जमकर लुत्? उठाया। तेजेन्द्र शर्मा में लोगों को जोड़ने की अद्भुत क्षमता है। इसी हुनर के कारण वे इंदु शर्मा कथा सम्मान को ब्रिटेन में शुरू कर पाए और उसे 'हाउस ऑफ लॉड्र्स' तक ले जाने में कामयाब हो पाए। वहां बसने के बाद भी सम्मान की निरन्तरता कायम रही' अब तक 14 रचनाकारों को सम्मानित किया जा चुका है। यानी कि वर्ष 2009 में इंदु शर्मा कथा सम्मान 15वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। ब्रिटेन में भले ही उम्र सीमा की पाबन्दी हटा दी गई मगर चयन की गुणवत्ता और पारदर्शिता कायम है। एक तरफ़ चित्रा मुदगल, संजीव, विभूतिनारायण राय और असग़र वजाहत जैसे स्थापित लेखकों ने इसे ग्रहण करके इसकी विश्वसनीयता बढ़ाई तो दूसरी और महुआ माजी जैसी युवा कथाकार की पहली कृति को सम्मानित करके उनकी रचनात्मकता को रेखांकित करने का श्रेय भी इस सम्मान ने हासिल किया। जिन्होंने 'मैं बोरिशाइल्ला' उपन्यास को पढ़ा है वही इस चयन की सार्थकता को समझ सकते हैं। पहली कृति को अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिलने पर एक रचनाकार को कैसी प्रसन्नता और संतुष्टि मिलती है इसे सिर्फ़ महुआ माजी ही बयान कर सकती है।
तेजेन्द्र शर्मा के अपने तर्क हैं और अपनी ज़िद। अगर आप उनकी ग़ज़ल में कोई शब्द या कहानी में कोई लाइन तब्दील कराना चाहें तो मुमकिन नहीं। उनकी राय या असहमति किसी के लिए परेशानी का सबब बन सकती है। उदय प्रकाश की कहानी 'मोहनदास' का क़िस्सा आपको मालूम ही है। एक बार प्रो. जगदम्बा प्रसाद दीक्षित और तेजेन्द्र में साम्यवाद को लेकर बहस छिड़ गई। तेजेन्द्र ने हक़ीक़त बयान करनी शुरू कर दी कि रूस में कैसे लड़कियां डॉलर के पीछे भागती हैं। दीक्षित जी इस क़दर उखड़ गए कि हाथापाई की नौबत आ गई। बाद में तेजेन्द्र ने मुझसे कहा. ''मैं मार्क्सवाद के खिलाफ़ नहीं हूं, केवल छद्म मार्क्सवादी लेखन और सोच के खिलाफ़ हूं। मेरा मानना है कि मार्क्सवादी शासन व्यवस्था सभी देशों में फ़ेल हो गई क्योंकि उनकी सोच प्रगति के विरुद्ध थी। मार्क्सवादी लेखक ख़ुद को प्रगतिशील कहते हैं लेकिन मार्क्सवादी शासन व्यवस्था अभिव्यक्ति की आज़ादी और प्रगति के विरुद्ध है। '' जहां तक असहमति का सवाल है धीरेन्द्र अस्थाना की कहानी 'मानसी' के अंत से तेजेन्द्र इस सीमा तक असहमत थे कि उन्होंने उसके समानांतर एक कहानी लिखी और कोरे आदर्शों की धज्जियां उड़ाते हुए नायक नायिका के प्यार को जिस्मानी परिणति तक पहुंचा दिया।
कुल मिलाकर तेजेन्द्र यारबाश आदमी हैं। वे लगातार दोस्तों के संपर्क में रहते हैं और अपनी रचनात्मक प्रगति को दोस्तों के साथ शेयर भी करते हैं। वे दोस्तों की कामयाबी पर ख़ुशी भी व्यक्त करते हैं। एक दिन रात में डेढ़ बजे उन्होंने मुझे फोन किया। बोले - यार, लंदन के सबसे बड़े शायर-समीक्षक प्राण शर्मा का हिन्दी ग़ज़ल पर एक लेख प्रकाशित हुआ है। उसमें तुम्हारी तारीफ़ करते हुए उन्होंने तुम्हारे दो शेर कोट किए हैं। मैं पढ़कर इतना एक्साइट हो गया कि इतनी रात को फ़ोन घुमा दिया।
आपने एक चीज़ पर गौर किया होगा। हिन्दी कवियों की तुलना में उर्दू शायरों की लोकप्रियता और सामाजिक असर ज़्यादा होता है। इसका कारण यह है कि वे अपनी रचनाओं को तीन माध्यमों से लोगों तक पहुंचाते हैं। मंच (मुशायरा), संगीत (ऑडियो-वीडियो) और पत्र-पत्रिकाएं (प्रकाशन)। तेजेन्द्र भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। उनकी संगीतमय ग़ज़लें 'रेडियो सबरंग डॉट कॉम' पर सात समंदर पार भी सुनी जा रही हैं। प्रमुख इंटरनेट पत्रिकाओं में उनकी कहानियां पूरी दुनिया में पढीं जा रहीं हैं। देश-विदेश के मंचों पर वे कविता और कहानी पाठ एक कलाकार की तरह करते हैं और श्रोता समुदाय उसका भरपूर आनंद उठाता है। उनकी इस कला के प्रशंसकों में डॉ. नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव और अशोक वाजपेयी जैसे दिग्गज रचनाकार शामिल हैं।
ब्रिटेन में बसने के बाद तेजेन्द्र ने ब्रिटेन को अपना लिया। उनकी रचनाओं में वहां का समाज, संस्कृति, मौसम और माहौल जीवंत रूप में मौजूद है। चाहे टेम्स की धार हो, हैरो की शाम हो, पतझड़ की उदासी हो या लंदन के धमाकों की आवाज़ हो . तेजेन्द्र की रचनाओं में हर मंज़र सांस लेता हुआ दिखाई देता है। 'कालासागर' से लेकर 'कब्र का मुनाफा' तक नज़र डालिए तो वक़्त की रफ़्तार के साथ उनकी कहानियों में भाषा, दृष्टि, और अभिव्यक्ति का ग्राफ लगातार ऊँचाई की और जाता हुआ दिखाई देता है। आलोचकों ने भले ही उनका पर्याप्त नोटिस न लिया हो मगर उनके प्रशंसकों की संख्या में लगातार इज़ाफ़ा हुआ है। मैं समझता हूं कि तेजेन्द्र एक ऐसे कामयाब लेखक हैं जिसे समीक्षकों के प्रमाणपत्र की ज़रूरत नहीं हैं। मगर उन्हें प्रवासी लेखक के रूप में देखने की बजाय हिन्दी लेखक के रूप में देखने की आवश्यकता है। कामयाबी से रश्क होना स्वाभाविक है। तेजेन्द्र सच बोलकर दुश्मनों में इज़ाफ़ा कर लेते हैं। किसी का शेर है.
घाटे का हमने ज़ीस्त में सौदा किया बहुत
सच कहके दुश्मनों में इज़ाफ़ा किया बहुत
घाटा शब्द से एक बात याद आई। तेजेन्द्र जब मुम्बई में थे तो ज़रूरतमंद दोस्तों को दिल खोलकर उधार देते थे। पिछली मुलाक़ात में मैंने उनसे पूछा कि क्या सारी उधारी वापस मिल गई। उनका जवाब था. पचास.पचपन हज़ार अभी भी बकाया हैं।
उनकी स्पष्टवादिता तारीफ़ के काबिल है। यहां थे तो कहते थे . एअर इंडिया में पर्सर यानी वेटर हूं। वहां जाकर कहते हैं. लंदन की रेल में ड्राइवर हूं। मेरी दुआ है कि उनकी यह स्पष्टवादिता महफूज़ रहे।
अंत में
एक बात और- तेजेन्द्र को फिल्मी संगीत से गहरा लगाव है। पहली मुलाक़ात में जब उन्हें मालूम हुआ कि उनकी तरह मैं भी शैलेन्द्र और साहिर का फैन हूं तो उन्होंने इन दोनों गीतकारों के चुनिंदा गीतों के एक-एक कैसेट खु़द रिकार्ड करके मुझे भेंट किया। एक बार 'महाराष्ट्र मानस' पत्रिका के संपादक आत्माराम जी ने मुझसे कहा. दो दिन में मुझे संगीतकार नौशाद पर एक फ़ीचर चाहिए। मुझे कोई रास्ता नहीं सूझा तो मैं शाम को तेजेन्द्र के घर पहुंच गया। उन्होंने आधे घंटे में नौशाद के सारे हिट गीतों का ऐसा विवरण प्रस्तुत कर दिया जैसे नौशाद पर पीएचडी की हो। जहां तेजेन्द्र कुछ भूलते थे वहां इंदु जी याद दिला देती थीं। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी बताया कि फिल्मी 'पाक़ीज़ा' के गीत ''यूं ही कोई मिल गया था सरे राह चलते चलते '' में जो रेल की सीटी सुनाई देती वह किस तरह का रहस्य निर्मित करती है। और यह भी उदघाटित कर दिया कि सहायक ग़ुलाम मोहम्मद के निधन के बाद नौशाद के कैरियर में कैसे डाउन फ़ॉल शुरू हो गया।
तेजेन्द्र का एक प्रिय गीत है. '' मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी, सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी।'' यह गीत उनके व्यक्तित्व का पर्याय है। इस गीत में आधुनिकताए बदलाव और विचारधारा के साथ ही अपनी मिट्टी से जुड़ने की जो ललक है वह आज भी तेजेन्द्र में है और मेरा विश्वास है कि आगे भी कायम रहेगी। वसीम बरेलवी का शेर है.
जहां रहेगा वहीं रोशनी लुटाएगा
किसी चिराग़ का अपना मकां नहीं होता
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देवमणि पांडेय - परिचय
4जून1958 को सुलतानपुर (उ.प्र.) में जन्मे देवमणि पांडेय हिन्दी और संस्कृत में प्रथम श्रेणी एम.ए. हैं। अखिल भारतीय स्तर पर लोकप्रिय कवि और मंच संचालक के रूप में सक्रिय हैं। अब तक दो काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. 'दिल की बातें' और 'खुशबू की लकीरें'। मुम्बई में एक केंद्रीय सरकारी कार्यालय में कार्यरत पांडेय जी ने फिल्म 'पिंजर', 'हासिल' और 'कहां हो तुम' के अलावा कुछ सीरियलों में भी गीत लिखे हैं। फिल्म 'पिंजर' के गीत ''चरखा चलाती माँ'' को वर्ष 2003 के लिए ‘बेस्ट लिरिक आफ दि इयर' पुरस्कार से सम्मानित किया गया । आपके द्वारा संपादित सांस्कृतिक निर्देशिका 'संस्कृति संगम' ने मुम्बई के रचनाकारों को एकजुट करने में अहम भूमिका निभाई है।
सम्पर्कः देवमणि पाण्डेयः ए.2ए हैदराबाद एस्टेट, नेपियन सी रोड, मालाबार हिल, मुम्बई . devmanipandey@gmail.com / www. radiosabrang.com
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