अर्थहीनता का अर्थ खोजती कहानियाँ मनोज श्रीवास्तव तेजेन्द्र शर्मा के भीतर कहीं कुछ दुख गया है। वह जितना कुछ हँसने की, स्ट्रीट स्मार्ट हो...
अर्थहीनता का अर्थ खोजती कहानियाँ
मनोज श्रीवास्तव
तेजेन्द्र शर्मा के भीतर कहीं कुछ दुख गया है। वह जितना कुछ हँसने की, स्ट्रीट स्मार्ट होने की कोशिश करता है, उतना उसके भीतर कुछ छिल-सा गया है। रक्त है उस छिले हुए स्थान पर। दवा-दारू भी की है, लेकिन वह एक स्थाई क्षत है। बहुत कोशिश करता है वह बाहर। महफिलें हैं, यारबाजी है, कहकहे हैं। लेकिन फिर नियति की वह चोट जैसे अंतरंग को शून्य कर देती है। एक खला-सी कहीं बन जाती है। बहुत से अंधेरों की धड़धड़ाती हुई ट्रेन जैसे उसके ऊपर से धड़धड़ाती हुई गुजर जाती है। वह ट्रेन ड्राइवर रहा है, लेकिन जिंदगी के बहुत से मोड़ों पर ‘ड्राइव' जैसे उसके हाथ से छूटती गई और एक निरन्तर घटती हुई त्रासदी के सामने सरेंडर करना ही पड़ा। लेकिन सरेंडर के पहले भी और बाद भी जिन्दगी के कैनवास पर फैले रंगों के मायने उसने ढूँढे। वह जो अब और सुनाई नहीं देता, हू इज हर्ड नो मोर- लगता है तेजेन्द्र उसी को सुनता रहा है। इस विराट सृष्टि में, इस अनन्त समय में वह जो एक ‘ब्लिंक' की तरह था- वह जो उसके भीतर की खला का, उसके भीतर के ब्लैंक का मालिक है- वही जैसे उस पर तब भी छाया हुआ है जब वह बहुत से दूसरे उपद्रवों और उत्पातों में, बहुत से शोरोगुल और दृश्यान्तरों में मुब्तिला है। एक असमर्पित निराशा-सी है, उसके लेखन में झांकती हुई। किसी का जिन्दगी के अनन्त में अलोप हो जाना क्या हमें-‘यहाँ और अब'- here and now में भरोसा करना सिखा देता है? तेजेन्द्र की कहानियां इसका उत्तर ‘न' में देती है।
तेजेन्द्र के प्रकट व्यक्ति से विपरीत उसकी कहानियां बहुत बहुत करुण हैं। अर्थहीनता का अर्थ खोजती हुई। ढिबरी टाइट में देखिए। अपनी करुणा में यह कहानी ‘उसने कहा था' की याद दिलाती है। इसलिए नहीं कि दोनों की पृष्ठभूमि पंजाबी है, इसलिए भी नहीं कि दोनों में किसी ‘वार' या ‘यु(' की पृष्ठभूमि है, बल्कि इसलिए कि दोनों में स्मृतियाँ हैं। गुंजित और प्रतिगुंजित होती हुइर्ं। दोनों में फ्रस्ट्रेशन है। फर्क है। एक में मृत्यु के ऊपर प्यार की विजय है। एक में प्यार के ऊपर मृत्यु की विजय है। एक में मूक कर देने वाला वाचाल प्यार है, दूसरे में मूक और स्तब्ध कर देने वाली मृत्यु है। सैनिक का बलिदान है एक में, नागरिक की बलि है दूसरे में। दोनों में आखिरी वाक्य एक टीस की रेख भीतर की जमीन पर खींच जाता है। कुवैत पर ईराकी सेना का आक्रमण। प्रकटतः असम्ब(। लेकिन अवसाद के आघात से ग्रस्त आदमी के लिए वह एक बहुत दूरवर्ती से, बहुत कमजोर से दिखने वाले संबंध का बहुत महीन तार भी जैसे किसी बड़ी हद तक एक अनुशोध है। एक आम आदमी की आत्यन्तिक असहायता की सम्पूर्ण स्थापना है वह। न केवल एक विदेशी परिवेश की असंवेदनशीलता के विरु( बल्कि शायद मृत्यु के देवता के समक्ष। नियति के समक्ष।
मृत्यु तेजेन्द्र के यहाँ एक तरह की अतार्किकता है। वह रीजन का ध्रुवान्त है। वहाँ मृत्यु का मेटाफिजिक्स नहीं है। बस वह है वहाँ। तर्क के विरु( तर्क करती हुई। एक प्वाइंट की तरह नहीं, एक प्रक्रिया की तरह। खिंची हुई। त्रिशंकु की तरह टँगी हुई। बार-बार सामने आते हुए सवाल की तरह। एक संक्रमण ;ट्रांजीशनद्ध की तरह नहीं, एक संक्रामण (Infection) की तरह। व्यापती हुई। मृत्यु कि जिसका कोई मापदंड नहीं है, क्राइटेरिया नहीं है। कैंसर नाम वाली कहानी को देखें या देह की कीमत को या उसी ढिबरी टाइट को- तेजेन्द्र जैसे किसी मृत्यु से लगातार argue कर रहे हैं, लेकिन मृत्यु जैसे अपने को मॉरलाइज़ कर ही नहीं रही।
अपने वास्तविक जीवन में जिन्दगी से इतना प्यार करने वाले तेजेन्द्र के यहाँ मृत्यु के बारे में इतनी अन्तर्दृष्टियाँ मिलेंगी, यह शुरू-शुरू में मैं उम्मीद ही नहीं करता था। कैंसर में यदि वह एक तरह की बायोलाजिकल फ्रीजिंग हैं तो देह की कीमत में वह उतनी ही निर्मम है, जैसे कफन में प्रेमचंद के यहाँ। मृत्यु जब संवेदना नहीं, एक स्ट्रेटेजी बन जाती है। जैसे कफन में गरीबी के कारण पनपी संवेदनहीनता है, वैसे देह की कीमत में आधुनिकता के दौर की संवेदनहीनताएँ हैंं। घीसू-माधव की तुलना में ये ज्यादा त्रासद लगती हैं, क्योंकि इन्हें जस्टिफाई करने के लिए गरीबी का लॉजिक भी अनुपलब्ध है। जीवन को मृत्यु ही violate नहीं करती, कई बार जीवन भी मृत्यु को violate करता है।
और फिर कैंसर, तेजेन्द्र एक वूंडेड स्टोरीटैलर हैं। कैंसर पर उनकी तीन कहानियाँ हैं। अपराधबोध का प्रेत, कैंसर और रेत का घरौंदा। मुझे इन कहानियों को पढ़कर याद आई हैं कुछ और कहानियाँ- ऐमी ग्रनबर्गर की ‘कीमोथिरेपी', एड्रियन रिच की ‘अ वूमैन डैड इन हर फोर्टीज', जेम्स की डिकी की ‘द कैंसर मैच' और पैट्रेशिया गोएडिक की ‘इन दा हास्पिटल' जैसी कहानियाँ- जो सबकी सब कैंसर पर हैं। कैंसर की पृष्ठभूमि इन कहानियों में होने का एक आनुभविक कारण हो सकता है, लेकिन एक बड़ा कारण यह है कि कैंसर के सामने मनुष्य की निरूपायता। कैंसर एक ही साथ कंसर्न भी है, कैथार्सिस भी। कहीं वो कॉमिक है तो कहीं वो कॉस्टिक। कौन कहता है कि जिंदगी ‘फेयर' है? बहुत से अन्याय हैं जिनका कोई जवाब नहीं मिलता बल्कि जो हमसे माँगते हैं- गहरी सहिष्णुता। सहने के अलावा रास्ता क्या है? सैमुअल जॉनसन ने कहीं कहा है�ः The prospect of death wonderfully concentrates the mind यहाँ तेजेन्द्र की कहानियों में भी एकाग्रता है, वह भी शायद मृत्यु के उसी आसन्न स्वभाव का परिणाम है, दीवार पर- सामने की दीवार पर- आनेवाली विडंबना की तस्वीरें झूल रही हैं और तेजेन्द्र उसे लिखते ही चले जा रहे हैं।
उनका बस चले तो समय को चूर चूर कर दें, बस नहीं चलता तो उस अनुभव को रीडीम कैसे किया जाये। एक कहानी लिखकर भी काम नहीं बनता। इसलिये बार-बार वे, अलग-अलग तरह से उसे लिखते हैं। बीमारी जैसे हमारे शरीर में नहीं, हमारे संबंधों में घर कर गई है। तो कैंसर संबंधों को व्याख्यायित करता है। वह एक बीमारी की तरह नहीं उभरता, एक मेटाफर की तरह नहीं उभरता, एक आईने की तरह लगता है जिसमें हर चेहरे, हर संबंध की सचाई सामने आ जाती है। यह ध्यान दें कि कैंसर-कथा की trilogy का नायक एक ही है नरेन। ‘तुम क्यों मुस्कुराए' और ‘कोष्ठक' नाम की दो अन्य कहानी का नायक भी नरेन है और उस कहानी में एक वाक्य है जो नरेन को पहचानने में मदद करता है “आण्टी, अंकल कितने ग्रेट हैं ना? अंग्रेज़ी लिट्रेचर में पढ़ाई की, एयरलाइन में नौकरी करते हैं और हिंदी में कहानियाँ लिखते हैं. है ना ग्रेट?” यह नाम बार-बार लगभग एक कंट्रास्ट की तरह 19वीं सदी के एक नरेन की याद दिलाता है। वह नरेन जो विवेकानंद में प्रोन्नत हुआ, इस नरेन के सामने आ जाता है जो ब्रेस्ट कैंसर से लड़ती अपनी पत्नी के जीवन की रक्षा के लिए हर किस्म के टोने-टोटके करने पर उतारू है। एक जगह विवेक का आनंद है और दूसरी जगह विवेक का समर्पण। क्या इसी समर्पण को कैंसरग्रस्त पूनम अपने पति का कैंसर कहती है ः “मेरा पति मेरे कैंसर का इलाज तो देवा से करवाने की कोशिश कर सकता है... मगर जिस कैंसर ने उसे चारों ओर से जकड़ रखा है... क्या उस कैंसर का भी कहीं कोई इलाज है?”
मैं एक और बात जो इन कहानियों में देखता हूँ, वह यह कि कई बार विदेशी पृष्ठभूमि दिखाने के बावजूद अपनी चरितार्थताओं में ये सब कहानियाँ खालिस हिंदुस्तानी हैं। प्रवासी मन के भीतर झांकने, उसकी समझ विकसित करने, उसकी दुश्वारियों को महसूस करने में तेजेन्द्र की कहानियाँ एक तरह का �ोत-संदर्भ हैं। वहाँ एक कटुता है तो एक तृष्णा भी है। वहाँ खोना और बिछुड़ना भी है और ग्लानि व पूर्वग्रह भी हैं। दो संसारों के बीच रहते हुए लोग इन कहानियों में हैं। भिन्न नैतिक संहिताओं और विचार-वीथिकाओं से एडजस्ट करते, करने में विफल होते लोग। तेजेन्द्र की कहानियों में ऐसे बहुत सारे चेहरे उभर कर सामने आते हैं। नादिरा, नज़म, गुरमीत, पंडित गोपालदास त्रिखा, हरदीप जैसे बहुत से चेहरे। इन कहानियों के प्रवासीपन पर मुझे वेस्ट इंडियन उपन्यासकार ज्यां राइस के शब्द याद आते हैं जिनसे मैं अपनी बात खत्म करूँगा ः Reading makes immigrants of us all. It takes us away from home, but more important, it finds homes for us everywhere.
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