प्रसन्नता की बात है कि चिकित्सा विशेषज्ञों ने स्वयं ही चिकित्सा –सेवा में फैले हुए बौद्धिक भ्रष्टाचार का संज्ञान लिया है, जो स्वयं चिकित्सा...
प्रसन्नता की बात है कि चिकित्सा विशेषज्ञों ने स्वयं ही चिकित्सा –सेवा में फैले हुए बौद्धिक भ्रष्टाचार का संज्ञान लिया है, जो स्वयं चिकित्सा सेवा में भ्रष्टाचार का जनक तो होता है ही अपितु सारे समाज में भी भ्रष्टाचार की जड़ें मज़बूत करने व शाखाएं फैलाने में भी लिप्त रहता है। निश्चय ही अन्य विशेषज्ञ –संस्थाओं, संस्थानों द्वारा भी ऐसे कदम उठाना चाहिए। सामान्य जन की अपेक्षा बौद्धिक वर्ग, सम्माननीय जनों व उनकी संस्थाओं का सदा ही अधिक दायित्व होता है।
अभी हांल में ही चिकित्सा विशेषज्ञों ने चिकित्सा-सेवा व चिकित्सक वर्ग में व्याप्त विशेषज्ञता- सेवा-भ्रष्टाचार के बारे में चिंता व्यक्त करते हुए –अनावश्यक टेस्ट कराना, एक्सपायरी की दवा देना, विशेष कम्पनी के ही दवाएं लिखना व खरीदवाना, गैर आवश्यक दवाओं का प्रयोग व अनावश्यक शल्य-क्रियाएँ आदि पर ध्यान दिलाया।
यह भी कहा गया कि “आँख मूँद कर डाक्टर को फोलो न करें रोगी “--- यह बात सर्वथा अनुचित है वह भी एक चिकित्सा–व्यक्तित्व विशेषज्ञों द्वारा। क्या रोगी या रोगी के साथी पर इतना समय होता है एवं वे चिकित्सा-तकनीक से इतने भिज्ञ हैं कि चिकित्सक की बात समझ सकें। उन्हें कुछ भी कह कर समझाया जा सकता है। सभी विशेषज्ञ–सेवाओं में ऐसा होता है जबकि चिकित्सा तो अति-विशिष्ट विषय है। यह परामर्श एक ऐसे दुधारे अस्त्र की भांति है जो दोनों पक्षों के लिए हानिकर भी है और स्वयं चिकित्सा–संस्था के लिए दुविधा की असहज स्थिति प्रदान करने वाली एवं समाज के लिए विषाणु समान तथा जन आचरण के विपरीत। बिना खुली लंबी बहस, वाद-विवाद, जन-संपर्क व जन अभियान के ऐसा परामर्श एकांगी सोच ही कही जायगी।
जहां डाक्टर को भगवान मानने की बात की जाती थी वहाँ एसी सोच भगवान के बाद अब धरती के भगवान के प्रति भी असम्मान व अविश्वास की उत्पत्ति से अंततः रोगी का ही अहित होगा। जब तक रोगी को चिकित्सक पर पूर्ण विश्वास नहीं होगा त्वरित व उचित इलाज़ संभव नहीं। चिकित्सक अत्यधिक अविश्वास व रोक-टोक के कारण त्वरित व समुचित चिकित्सा से विरत होने लगेंगे। सब कुछ एक मशीन की भांति चलने लगेगा। रोगी-चिकित्सक सौहार्द समाप्त होने से सेवा भी मशीनी होजायगी। क्या पेड़ में रोग लगने पर पेड़ को ही काट दिया जाना चाहिए बजाय उसकी चिकित्सा के। समाज में, चिकित्सकों में व्याप्त भ्रष्ट आचरण से कठोरता से निपटा जाय ..न कि समष्टि में वैर, विद्वेष, अविश्वास व असंतोष की उत्पत्ति का परामर्श दिया जाय।
साथ ही चिकित्सा जगत को भी यह सोचना होगा कि इस सब की नौबत आई ही क्यों। चिकित्सकों व चिकित्सा जगत में भ्रष्टाचार आद्योपांत फैला हुआ है इसमें कोई शक नहीं है। जब तक स्वयं चिकित्सा जगत अपने अंदर व्याप्त..लालच, लोभ, धन-लोलुपता, का अंत नहीं करता ये परिस्थियां आती ही रहेंगी। उन्हें अपने आचरण, चिकित्सा-आचरण-नियम, शिक्षा प्राप्ति व समाप्ति के समय लिए गए अत्रि-शपथ या हिप्पोक्रेटिक शपथ को ध्यान में रखना होगा ताकि रोगी व समाज को आप पर, तथाकथित धरती के भगवान पर विश्वास स्थापित हो। साथ ही बड़ी बड़ी कंपनियों द्वारा दी जाने वाली चिकित्सा-सुविधाओं की लोलुपता से उपभोक्ता वर्ग अनावश्यक ही अत्यधिक सुविधाओं जिनका रोगी की सेवा से कोई सम्बन्ध नहीं होता व फाइव-स्टार सुविधा वाले चिकित्सालयों का उपभोग का लालच नहीं छोड़ेंगे यह समस्या प्रगति ही करेगी।
हमारी सारी चिकित्सा-पद्धति ...विदेशी एवं अंग्रेज़ी में होने के कारण भी भ्रष्टाचार का एक कारण बनती है। सिर्फ २% प्रतिशत जनता ही अंग्रेज़ी जानती है और भ्रष्टाचारियों के चंगुल में फंसती है। अतः स्वदेशी चिकित्सा-पद्धतियों का प्रसार महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है।
वास्तव में वैज्ञानिक, सामाजिक, साहित्यिक, मनो-वैज्ञानिक, प्रशासनिक व चिकित्सा-जगत .. आदि समाज के लगभग सभी मन्चों व सरोकारों से विचार मन्थित यह विषय उतना ही प्राचीन है जितनी मानव सभ्यता। आज के आपाधापी के युग में मानव-मूल्यों की महान क्षति हुई है; भौतिकता की अन्धी दौढ से चिकित्सा -जगत भी अछूता नहीं रहा है। अतः यह विषय समाज व चिकित्सा जगत के लिये और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। आज जहां चिकित्सक वर्ग में व्यबसायीकरण व समाज़ के अति-आर्थिकीकरण के कारण तमाम भ्रष्टाचरण व कदाचरणों का दौर प्रारम्भ हुआ है वहीं समाज़ में भी मानव-मूल्यों के ह्रास के कारण, सर्वदा सम्मानित वर्गों के प्रति, ईर्ष्या, असम्मान, लापरवाही व पैसे के बल पर खरीद लेने की प्रव्रत्ति बढी है, जो समाज, मनुष्य, रोगी व चिकित्सक के मधुर सम्बंधों में विष की भांति पैठ कर गई है। विभिन्न क्षेत्रों में चिकित्सकों की लापरवाही,धन व पद लिप्सा, चिकित्सा का अधिक व्यवसायीकरण की घटनायें यत्र-तत्र समाचार बनतीं रहती हैं। वहीं चिकित्सकों के प्रति असम्मानजनक भाव, झूठे कदाचरण आरोप, मुकदमे आदि के समाचार भी कम नहीं हैं। यहां तक कि न्यायालयों को भी लापरवाही की व्याख्या करनी पढी है। अतः जहां चिकित्सक-रोगी सम्बन्धों की व्याख्या एवं समाज़ व चिकित्सक जगत के पारस्परिक तादाम्य , प्रत्येक युग की आवश्यकता है, साथ ही निरोगी जीवन व स्वस्थ्य समाज की भी। आज आवश्यकता इस बात की है कि चिकित्सक-जगत, समाज व रोगी सम्बन्धों की पुनर्व्याख्या की जाय, इसमें तादाम्य बैठाकर इस पावन परम्परा को पुनर्जीवन दिया जाय ताकि समाज को गति के साथ-साथ द्रढता व मधुरता मिले।
संस्कृति व समाज़ में काल के प्रभावानुसार उत्पन्न जडता, गतिहीनता व दिशाहीनता को मिटाने के लिये समय-समय पर इतिहास के व काल-प्रमाणित महान विचारों, संरक्षित कलापों को वर्तमान से तादाम्य की आवश्यकता होती है।
विश्व के प्राचीनतम व सार्व-कालीन श्रेष्ठ साहित्य, वैदिक-साहित्य में रोगी -चिकित्सक सम्बन्धों का विशद वर्णन है, जिसका पुनःरीक्षण करके हम समाज़ को नई गति प्रदान कर सकते हैं।
चिकित्सक की परिभाषा—
ऋग्वेद -(१०/५७/६) मे क्थन है--"यस्तौषधीः सममत राजानाःसमिता विव ।
विप्र स उच्यते भि्षगुक्षोहामीव चातनः ॥"--जिसके समीप व चारों ओर औषधियां ऐसे रहतीं हैं जैसे राजा के समीप जनता, विद्वान लोग उसे भैषजज्ञ या चिकित्सक कहते हैं। वही रोगी व रोग का उचित निदान कर सकता है।.... अर्थात एक चिकित्सक को चिकित्सा की प्रत्येक फ़ेकल्टी (विषय व क्षेत्र), क्रिया-कलापों, व्यवहार व मानवीय सरोकारों में निष्णात होना चाहिये।
रोगी व समाज का चिकित्सकों के प्रति कर्तव्य--देव वैद्य अश्विनी कुमारों को ऋग्वेद में "धीजवना नासत्या" कहागया है... अर्थात जो अपनी स्वयम की बुद्धि एवं स्थापित सत्य पर विश्वास की भांति सब को देखते एवं सबके प्रति व्यवहार करते हैं। अतः रोगी व समाज़ को चिकित्सक के परामर्श व कथन को अपनी स्वयम की बुद्धि व अन्तिम सत्य की तरह विश्वसनीय स्वीकार करना चाहिये। ऋग्वेद के श्लोक १०/९७/४ के अनुसार—
-"औषधीरिति मातरस्तद्वो देवी रूप ब्रुवे ।
सनेयाश्वं गां वास आत्मानाम तव पूरुष ॥"------औषधियां माता की भांति अप्रतिम शक्ति से ओत-प्रोत होतीं हैं....हे चिकित्सक! हम आपको, गाय, घोडे, वस्त्र, ग्रह एवम स्वयं अपने आप को भी प्रदान करते हैं।.....अर्थात चिकित्सकीय सेवा का ऋण किसी भी मूल्य से नहीं चुकाया जा सकता। समाज व व्यक्ति को उसका सदैव आभारी रहना चाहिये।
चिकित्सकों के कर्तव्य व दायित्व---
१. रोगी चिकित्सा व आपात चिकित्सा- ऋचा ८/२२/६५१२-ऋग्वेद के अनुसार—
"साभिर्नो मक्षू तूयमश्विना गतं भिषज्यतं यदातुरं ।"-- अर्थात हे अश्विनी कुमारो! (चिकित्सको) आप समाज़ की सुरक्षा, देख-रेख, पूर्ति, वितरण में जितने निष्णात हैं, उसी कुशलता व तीव्र गति से रोगी व पीढित व्यक्ति को आपातस्थिति में सहायता करें। अर्थात चिकित्सा व अन्य विभागीय कार्यों के साथ-साथ आपातस्थिति रोगी की सहायता सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
२. जन कल्याण- ऋचा ८/२२/६५०६ के अनुसार—
" युवो रथस्य परि चक्रमीयत इमान्य द्वामिष्ण्यति ।
अस्मा अच्छा सुभतिर्वा शुभस्पती आधेनुरिव धावति ॥"--हे अश्वनी कुमारो! आपके दिव्य रथ ( स्वास्थ्य-सेवा चक्र) का एक पहिया आपके पास है एक संसार में। आपकी बुद्धि गाय की तरह है। --चिकित्सक की बुद्धि व मन्तव्य गाय की भांति जन कल्याण्कारी होना चाहिये।उसे समाज व जन-जन की समस्याओं से भली-भांति अवगत रहना चाहिये एवम सदैव सेवा व समाधान हेतु तत्पर।
३. रोगी के आवास पर परामर्श—ऋग्वेद-८/५/६१००-कहता है-
"महिष्ठां वाजसात्मेष्यंता शुभस्पती गन्तारा दाषुषो ग्रहम ॥"--गणमान्य, शुभ, सुविज्ञ, योग्य एवम रोगी की आवश्यकतानुसार आप ( अश्वनी कुमार-चिकित्सक) स्वयं ही उनके यहां पहुंचकर उनका कल्याण करते हैं।
४.-स्वयं सहायता( सेल्फ़ विजिट)—ऋचा ८/१५/६११७-में कहा है—
"कदां वां तोग्रयो विधित्समुद्रो जहितो नरा। यद्वा रथो विभिथ्तात ॥"--हे अश्विनी कुमारो! आपने समुद्र ( या रोग-शोक के ) में डूबते हुए भुज्यु ( एक राजा) को स्वयं ही जाकर बचाया था, उसने आपको सहायता के लिये भी नहीं पुकारा था। अर्थात चिकित्सक को संकटग्रस्त, रोगग्रस्त स्थित ज्ञात होने पर स्वयं ही, विना बुलाये भी पीडित की सहायता करनी चाहिये।
यदि आज का चिकित्सा जगत, रोगी, तीमारदार, समाज, शासन सभी इन तथ्यों को आत्मसात करें, व्यवहार में लायें, तो आज के दुष्कर युग में भी आपसी मधुरता व युक्त-युक्त रोगी-चिकित्सक सम्बन्धों को जिया जासकता है, यह कोई कठिन कार्य नहीं, आवश्यकता है सभी को आत्म-मंथन करके तादाम्य स्थापित करने की।
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डॉ श्याम गुप्त
धन्यवाद ..रवि जी
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