(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
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कहानीकार तेजेन्द्र शर्मा से पाँच सवाल
- मोहन राणा
MOHAN RANA: Q.1
जो हम जी रहे हैं हम मानें अगर वह कहानी है तो फिर कहानी क्या है?
TEJENDRA SHARMA:
दरअसल मोहन जी, जो हम जी रहे हैं, साहित्य वहीं से जन्म लेता है। कहानी को मैं साहित्य की मूल विधा मानता हूं। हर साहित्यकार कुछ कहना चाहता है, इसलिये क़लम उठाता है। कहानी यदि अपने में घटनाक्रम लिए है तो निश्चित ही जीवन में से ही उठेगी। किन्तु जीवन को जस का तस लिख देना कहानी नहीं है। कहानी केवल घटना का विवरण नहीं है। एक ज़माना था जब कहानी में एक किस्सा होता था और यह बताया जाता था कि फिर क्या हुआ, उसके बाद क्या हुआ। उत्कण्ठा केवल यह जानने में होती थी कि अमुक घटना के बाद क्या हुआ। क्या हुआ से आगे न तो लेखक सोचता था और न ही पाठक। कहानी में बहुत बदलाव आया है। आज घटना में लेखक का imagination और purpose, जब दोनों डाले जाते हैं तब कहीं जा कर कहानी का जन्म होता है। कहानी स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा है। जो हो रहा है कहानी नहीं है। स्थूल के पीछे जो है यानि कि जो हो रहा है, वो क्यों हो रहा है। कहानी आज स्थितियों, पात्रों और घटनाओं को जितना explore करती ठीक लेखक को भी उसी तरह explore करती है। आज का लेखक कहानी सुनाने के बजाए कहानी दिखाने में विश्वास रखता है। वह कहानी को पूर्णविराम नहीं लगाता। कुछ पाठक के लिये छोड़ देता है। आज की कहानी यहां ख़त्म नहीं हो जाती, कि फिर वे हमेशा ख़ुश रहे। आज की कहानी उस ख़ुशी के टूटने से शुरू हो सकती है। आज की कहानी कई धरातलों पर एक साथ चलती है। घटना के पीछे की मार्मिक स्थितियों को interpret कर पाना कहानी है। आज कहानी एक पल की भी हो सकती है, एक घन्टे की भी एक दिन की भी। कहानी के लिये लम्बे काल की आवश्यकता नहीं होती। कहानी में यात्रा भीतरी होती है न की ऊपरी। यदि घटना ही कहानी बन सके तो पुलिस की एफ़.आई.आर. का रजिस्टर तो दुनिया का सबसे बड़ा कहानी संग्रह बन जाएगा। क्योंकि उसमें तो सच्चा जीवन लिखा होता है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा ही कहानी है।
MOHAN RANA, Q.2
कहानीकार यथार्थ के कई घरातलों में से एक अवयव को कहानी के लिए चुनता है उस चयन की प्रक्रिया में कहानीकार के रूप में आपकी क्या रचनात्मक कसौटी रहती है?
TEJENDRA SHARMA
बात यह है मोहन भाई कि मैं किसी विचारधारा विशेष के दबाव में लेखन नहीं करता। इसलिए मेरा यथार्थ मेरा अपना यथार्थ होता है किसी विचारधारा का मोहताज नहीं होता। हिन्दी के अधिकतर लेखक क्योंकि कुछ बड़े नामों को प्रभावित करने के लिए लिखते हैं इसलिए उनके यथार्थ के अवयव तयशुदा रहते हैं। मेरी कहानियों का फ़लक आम हिन्दी कहानी से एकदम अलग रहता है। मैं 22 साल एअर इंडिया में फ़्लाइट परसर रहा। मैनें अपनी ज़िन्दगी एक अलग किस्म के संसार में बिताई है। मेरे लिये एक पायलट का विमान उड़ाना, क्लर्क का प्रॉविडण्ट फ़ण्ड से उधार लेना, एअर होस्टेस का जीवन, विमान दुर्घटना, क़ब्र का कारोबार, जापान में इन्सान का लावारिस लाश बन जाना - सभी कहानी के विशेष अवयव बन जाते हैं। मेरा मुख्य उद्देश्य अपने आपको ख़ुश करना नहीं है। मेरा मुख्य उद्देश्य है पाठक के साथ एक संवाद पैदा करना। जो मैं सोच रहा हूं, वह पाठक तक पहुंचे, यह मेरा मुख्य उद्देश्य रहता है। इसलिए मैं यथार्थ का वोह अवयव अपनी कहानी के लिये चुनता हूं जो कि माइक्रोकॉस्म बन कर पूरे समाज का प्रतिनिधित्व कर सके। इससे मैं अपने आप को दोहराने से बच जाता हूं। मेरे लेखन के केन्द्र में आम आदमी के साथ जीवन को महसूस करना है। किन्तु वोह आम आदमी लन्दन का भी हो सकता है, जापान का भी और अमरीका का भी। मैंने अपने आप को केवल भारत के मज़दूर और किसान से नहीं जोड़ रखा है। मुझे अपनी हर कहानी में एक नयापन लाने का शौक़ है। मैं इसलिये भी किसी तयशुदा तरीक़े से अपनी कहानी नहीं लिखता। जैसा जैसा मेरा विषय रहता है, वैसा वैसा मेरा यथार्थ होता है। मैं अपनी कहानियों में नारी बन कर भी सोचता हूं, महसूस करता हूं। आम आदमी बन कर भी सोचता हूं, महसूस करता हूं। दरअसल इन्सानी जीवन रिश्तों के माध्यम से एक दूसरे से जुड़ा हुआ है, रिश्ते मुझे बहुत प्रभावित करते हैं। मैं इसलिये बार बार रिश्तों की गहराई से पड़ताल करता हूं और जब जब रिश्ते अर्थ से संचालित होते हैं, मेरी कहानी का यथार्थ बन जाते हैं। एक कहानीकार के तौर पर मैं अपने आप को मूलतः हारे हुए व्यक्ति के साथ खड़ा पाता हूं, जीतने वाले के साथ जश्न नहीं मना पाता।
MOHAN RANA: Q.3
तथ्य बदलते रहते हैं सामाजिक स्थितियाँ बदलती रहती हैं, भूगोल भी बदलते रहते हैं, उनके प्रति हमारी प्रतिक्रिया बदलती रहती है, यथार्थ की संक्रमणशील प्र.ति के बारे में क्या कहानीकार को सचेत नहीं रहना चाहिए? क्या आप हमेशा हारे हुए व्यक्ति के साथ जुड़े रहेंगे?
TEJENDRA SHARMA
मोहन भाई आपका सवाल तो बहुत बढ़िया है मगर इसका जवाब शायद भारत के स्थापित लेखक भी न दे पाएं। वस्तुस्थिति यह है कि हिन्दी साहित्य अधिकतर एक पार्ट-टाइम एक्टिविटी है। पार्ट-टाइम नौकरी ी नहीं है - केवल एक्टिविटी। हिन्दी साहित्य में शोध-परक लेखन का रिवाज ही नहीं है। तथ्य कितने भी बदल जाएं, इतिहास भूगोल चाहे नये रूप धर लें हम केवल मज़दूर, किसान और व्यवस्था-विरोध पर ही लिखते जाएंगे। चाहे आप किसी मल्टी-नेशनल कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं, या फिर उसकी पत्नी हैं या किसी बैंक के जनरल मैनेजर हैं - लिखेंगे आप मज़दूर, शोषण, सत्ता-विरोध आदि आदि। ज़्यादा से ज़्यादा हो गया तो नौकरानी पर लिख लिया। पिछले साठ साल के हिन्दी साहित्य में क्या समाज में हुए वैज्ञानिक परिवर्तन स्थान पाते हैं? हमारी पीढ़ी दुनियां की सबसे भाग्यशाली पीढ़ी है। हमने अपने ज़माने में वो गांव या कस्बा देखा है जहां बिजली नहीं होती थी। हमारे सामने सामने कोयले की रेलगाड़ी ने डीज़ल का रूप धरा और फिर बिजली से चलने लगी। हमारी पीढ़ी ने इन्सान को चान्द पर उतरते देखा। दिल बदलने की शल्य चिकित्सा हमारे ही सामने हुई। फ़ोटोकॉपी, कम्प्यूटर क्रान्ति, मोबाइल फ़ोन सब हमारे सामने बने हैं। हिन्दी के लेखन में इन क्रान्तियों का कितना इस्तेमाल हुआ है। हम तो अपने लेखकों को बिकने वाली पत्रिकाओं में छपने नहीं देना चाहते। हम प्रगतिशील लोग धर्म के मामले में बहुत मॉडर्न हैं और परम्पराओं के विरुद्ध हैं। किन्तु जहां तक लेखन का सवाल है वही दकियानूसी रवैया रखते हैं। बंगला देश के जन्म पर हिन्दी का पहला उपन्यास मैं बोरिशाइल्ला 2007 में आता है जिसे कथा यू.के. सम्मानित करती है। लेकिन आपको ऐसा लेखन मिलता कहां है? मल्टीनेशनल कम्पनियों और बाज़ारवाद के विरुद्ध पन्ने पर पन्ने काले किये जा रहे हैं।
क्या हमारे साहित्य में ग्लोबलाइज़ेशन को समझने जैसी कोई चीज़ भी दिखाई दी है कभी? मेरी कहानियां शुरू से ही हिन्दी कहानियों के पिटे पिटाये ढर्रे से अलग ज़मीन पर लिखी गई हैं। काला सागर, ढिबरी टाइट, देह की क़ीमत, क़ब्र का मुनाफ़ा, तरकीब, पापा की सज़ा, मुझे मार डाल बेटा, एक बार फिर होली, पासपोर्ट का रंग, बेघर आंखें, कोख का किराया, टेलिफ़ोन लाइन जैसी कहानियां आपको और किस लेखक ने दी हैं। मैं शायद उन गिने चुने लेखकों में शामिल हूं जिनके लेखन में आज का समाज जगह पाता है। मैनें तो लन्दन में मुहिम चला रखी है कि हमें अपने लेखन को भारत का प्रवासी साहित्य नहीं बनाना है बल्कि हमें इसे ब्रिटेन का हिन्दी साहित्य बनाना है। इसके लिये ज़रूरी है कि हम ब्रिटेन में रहते हुए केवल नॉस्टेलजिया से ग्रस्त न रहें और अपने आसपास के जीवन को अपने साहित्य में उतारें। मैं जिस हारे हुए व्यक्ति की बात करता हूं वो कभी नहीं बदलता। वो हर युग में होता था, होता है और रहेगा। मेरा हारा हुआ व्यक्ति हिटलर या रावण नहीं है। यदि अमरीका इराक़ अथवा अफ़गानिस्तान में हार जाता है तो वो मेरा हारा हुआ व्यक्ति नहीं है। दुर्योधन या दुःशासन मेरे हारे हुए लोग नहीं हैं। जिस हारे हुए आदमी की बात मैं कर रहा हूं वो कमज़ोर आदमी है जिसके साथ अन्याय हो रहा है। जिसे सदियों से दबाया जा रहा है। वो हारा हुआ आदमी भारत में है तो ब्रिटेन में भी है और अमरीका में भी है। जिस आदमी को सद्दाम ने दबा रखा था वो भी हारा हुआ आदमी था। जिस किसी की साथ अन्याय होता है - मेरा हारा हुआ आदमी वोह है। और मैं बेझिझक उसके साथ सदा खड़ा रहूंगा।
MOHAN RANA: Q4
लंदन में रहते हुए कभी अस्मिता का प्रश्न उठा है?
TEJENDRA SHARMA
देखिये राणा साहब, 11 दिसम्बर 1998 को मैं लन्दन में बसने के लिये आया। उस समय मेरी आयु 46 वर्ष थी। मेरे पास कोई नौकरी नहीं थी। और न ही कोई बहुत बड़ा बैंक बैलेन्स था। मैं एअर इण्डिया की शाही नौकरी छोड़ कर आया था जहां अमरीकी डॉलर में पगार मिलती थी और भारतीय रुपये में खर्चा करता था। मुझे अपने परिवार को पालना था। लन्दन शहर ने मुझे पहले बीबीसी में समाचार वाचक की नौकरी दी और फिर ब्रिटिश रेल में ड्राइवर की । यानि कि उस उम्र में मुझे नौकरी नहीं, नौकरियां मिलीं - और वो भी एकदम भिन्न क्षेत्रों में। 1999 में इन्दु शर्मा कथा सम्मान का प्रोग्राम करने के लिये मुंबई गया था। वर्ष 2000 में पहला कार्यक्रम लन्दन के नेहरू केन्द्र में हुआ जिसमें भारतीय उच्चायोग की पूरी शिरकत थी। छः वर्षों तक यह सिलसिला नेहरू केन्द्र में चला और फिर वर्ष 2006 से हिन्दी का यह कार्यक्रम ब्रिटेन की संसद यानि कि हाउस ऑॅफ़ लॉर्ड में आयोजित होने लगा। इस कार्यक्रम के साथ ब्रिटेन के आंतरिक सुरक्षा मंत्री श्री टोनी मैक्नल्टी भी जुड़ गये। यानि कि अंग्रेज़ी के गढ़ में हिन्दी साहित्य के अकेले अंतर्राष्ट्रीय सम्मान का आयोजन होने लगा। पचास या साठ के दशक में जो भारतीय यहां बसने आए थे उन्हें ज़रूर अस्मिता की समस्या से दो दो हाथ होना पड़ा होगा किन्तु इस बीच टेम्स में बहुत सा पानी बह चुका है।
मेरे हिसाब से एक आम इन्सान के रहने के लिए ब्रिटेन दुनिया का सबसे बढ़िया देश है। यहां आदमी को आदमी समझा जाता है और एक वैलफ़ेयर स्टेट होने के नाते यहां आम आदमी को जो सुविधाएं उपलब्ध हैं वो विश्व के किसी और देश में संभव नहीं है। भारत के मार्क्सवादी जिस सामाजिक परिवेश की बात करते हैं, एक अलग अन्दाज़ में वो यहां इस देश में दिखाई देता है और भारत की रामराज्य की सोच भी यहीं आकर पूरी होती है। इसके मुक़ाबले एक आम भारतीय को असम और महाराष्ट्र में अस्मिता का सवाल परेशान कर सकता है। उसे यह महसूस करवाया जाता है कि सुन्दर मुंबई मराठी मुंबई। ब्रिटेन में रेशियल डिस्क्रिमिनेशन एक अपराध है जिसकी कड़ी सज़ा है। भला ऐसे देश में मेरे सामने अस्मिता का सवाल कैसे खड़ा हो सकता था? सुना जाता है कि ब्रिटिश रेल में मुझे जो नौकरी मिली वो पहले केवल गोरे अंग्रेज़ को ही मिला करती थी। वैसे यदि आपको याद हो तो भारत में भी अंग्रेज़ों के ज़माने में ट्रेन ड्राइवर अधिकतर एंगलो इण्डियन ही हुआ करते थे। मेरे साथ यहां किसी भी प्रकार का भेदभाव कभी नहीं हुआ। हां भारतीय लोग ज़रूर खेमों में बंटे हुए हैं। कोई गुजराती है तो कोई पंजाबी, कोई हिन्दु है तो कोई मुसलमान ! मेरे दोस्तों में अंग्रेज़ भी हैं, काले भी हैं और दक्षिण एशियाई मूल के लोग भी हैं। जिस प्रकार यहां के समाज ने मुझे अपनाया है ठीक उसी तरह मैंने भी इस समाज को अपना बनाया है। मेरे कहने पर टोनी मैक्नल्टी हाउस ऑॅफ़ लॉर्ड में पांच वाक्य हिन्दी के ज़रूर बोलते हैं। मुझे नहीं मालूम इससे उनकी अस्मिता पर कोई आंच आती है या नहीं।
MOHAN RANA Q5:
कहानी के अंत में क्या कभी यह सवाल आपके मन में उठा है कि 'क्या सच मेरा साक्षी है?"
TEJENDRA SHARMA
मोहन भाई एक बात याद रखिये, “कोई कहानी सच नहीं होती, और कहानी से बड़ा सच कोई नहीं होता।” एक कवि और कहानीकार के सच में भी अन्तर होता है। कवि का एक अपना सच होता है जो कि आवश्यक नहीं की शाश्वत सत्य ही हो। कवि अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने भीतर का सत्य खोज सकता है। यह ज़रूरी नहीं है कि वह अपना सच अपने पाठकों के साथ बांटे ही। यह भी आवश्यक नहीं कि पाठक को उसका सच समझ में आ ही जाए। क्योंकि सच तो यह है कि हर कवि अपने पाठक के साथ संवाद क़ायम करने में रूचि नहीं रखता। कोई कवि शैली और कीट्स की तरह अपने पाठक को अपनी दुनियां का हिस्सा बनाना चाहता है। शैली की तरह चाहता है कि वेस्ट-विण्ड इस विश्व को तहस नहस कर दे जिसमें से एक नयी दुनियां जन्म ले जिसमें न भूख हो, न ग़रीबी और न लाचारी। तो वहीं कुछ ऐसे भी कवि हैं जो अपनी अन्तर्यात्रा को ही कविता मानते हैं। वहीं कहानीकार का सत्य सामाजिक होता है। उसकी कहानियां समाज में से निकलती हैं। हर कहानी का कोई न कोई आधार होता है। कहानी महज़ घटना नहीं होती है। उसमें लेखक की कल्पना शक्ति एवं उद्देश्य शामिल होने ज़रूरी हैं।
कहानी में केवल सच का होना काफ़ी नहीं है। जो लिखा जाए वो केवल सच हो उससे बात नहीं बनती। दरअसल उसका सच लगना बहुत ज़रूरी है, उसका विश्वसनीय लगना पहली शर्त है। अगर कहानी का सच पाठक का सच बन कर सच्चाई का एक माइक्रोकॉज़्म बना देता है, तो सच विश्वसनीय बन जाता है। मेरी जो कहानियां हादसों या घटनाओं पर आधारित हैं, उनमें उन हादसों और घटनाओं के बारे में आप मेरे सच के दर्शन करते हैं। मेरी कहानी काला सागर में कनिष्क विमान दुर्घटना के बारे में मेरा सत्य आप तक पहुंचता है। उस दुर्घटना के अर्थ मैंने अपने ढंग से निकाले हैं उसकी व्याख्या की है।
सच बहुत प्रकार का होता है। एक सच है कि किस्सागोई के अन्दाज़ में जो जैसा घटित होता गया, वैसे बताते गये। मगर आज की कहानी इससे बदल गई है। आज हम किसी भी घटना या दुर्घटना के पीछे की मारक स्थितियों को पकड़ना चाहते हैं। यहां आकर लेखक का व्यक्तित्व भी अपना किरदार निभाता है। वो जैसा उन मारक स्थितियों को समझता है समझ पाता है वह उन्हें ठीक उसी तरह परिभाषित भी करता है। फिर एक सच्चाई होती है जो, कुछ लेखक चाहते हैं, कि काश यह सच हो जाए, समाज में यह बदलाव आ जाए। यह मुख्य तौर पर उन कहानियों में होता है जहां लेखक अपने पाठकों को एक बेहतर दुनियां का सपना दिखाता है। वह अपना सच औरों तक पहुंचाना चाहता है। क्योंकि मैं अपने विषयों की लिखने से पहले छानबीन करता हूं, कुछ शोध भी करता हूं और सबसे बड़ी बात मुझ पर किसी राजनीतिक विचारधारा का कोई अतिरिक्त दबाव नहीं होता, इसलिये मेरी कहानियों में से सच कभी ग़ायब नहीं होता। दिक्कत उन लेखकों की है जो उस विचारधारा में विश्वास नहीं करते जिसके दबाव में वे लिखते हैं। उन्हें यह सवाल शायद सताता हो। मेरी कहानियां इंटेलेक्चुअल जुगाली नहीं हैं, बल्कि ठोस ढंग से समाज के साथ जुड़ी हुई हैं। मेरी हर कहानी में सच मेरा साक्षी होता है। यह इसलिये क्योंकि मेरी प्र.ति ही ऐसी है। इसलिये मेरे मन में यह सवाल कभी उठता ही नहीं।
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साभार-
बहुत दिलचस्प जानकारी , मुझे भी मेरे कई सवालों के जवाब मिले है ....बहुत -बहुत शुक्रिया
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