बात कुछ उन दिनों की है, जब मैं कक्षा छः में था। एक पुस्तक पाठ्यक्रम में थी हमारे पूर्वज की कहानी। जिनकी कहानियां पढ़ते समय लगता था, कि क्...
बात कुछ उन दिनों की है, जब मैं कक्षा छः में था। एक पुस्तक पाठ्यक्रम में थी हमारे पूर्वज की कहानी। जिनकी कहानियां पढ़ते समय लगता था, कि क्या मैं भी ऐसा लिख सकता हूं। यही वह समय भी था जब मैं पिताजी के द्वारा अमर चित्रकथा श्रृंखला की डाक से मंगवायी पुस्तकें पढ़ने लगा था। उनको पढ़ता और उनके पात्रों सा बनने का प्रयास करता। खेल खेलता। उनके ही सपने देखता। वीर अभिमन्यु, ,लव-कुश, बभ्रुवाहन और प्रहलाद की सचित्र कहानियां अधिक भातीं। घर के पुस्तकालय की एक पुस्तक वीर बालक मुझे सर्वाधिक प्रिय थी उसको मैं बार-बार पढ़ता। कई बार कुछ लिखने का प्रयास किया, कल्पनाएं कीं; पर असफल रहा। घर पर उपलब्ध धार्मिक, साहित्यिक, नैतिक व सामाजिक विषयों की पुस्तकें पढ़ता । समय के साथ-साथ मैं भी कक्षा बारह में पहुंच गया ,जिसके लिए मैं तहसील मुख्यालय में स्थित उस समय के एकमात्र इण्टर कालेज पुवायां इण्टर कालेज पुवायां को प्रतिदिन साइकिल से जाता। समय के साथ परीक्षा दे डाली। हर वर्ष की भांति ही छुटि्टयों आ गईं। बाजार में पत्र-पत्रिकाओं की कमी न थी खरीदकर पढ़ने की इच्छा भी थी पर न जेब में पैसे होते और न ही घरेलू परिस्थितियां इसकी अनुमति देतीं। जिसकी कमी मैं घर के पुस्तकालय की पुस्तकें पढ़कर पूरी करता। मेरे घर पर उस समय हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, बंगला, असमिया की मौलिक पुस्तकों के अतिरिक्त उड़िया, तमिल, तेलुगू, मलयालम, रूसी, फ्रैन्च , कन्नड़, उर्दू की अनुवादित विविध विषयों की पर्याप्त पुस्तकें थीं जिनको हमारे पिताजी ने बड़े मनोयोग से पैसा जोड़-जोड़ कर खरीदा था और वह स्वयं इनको रुचि से पढ़ते और दूसरों को पढ़वाते थे। उनको हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत के अलावा बंगला, असमिया, गुजराती, मराठी भाषायें आती थीं। पुस्तकालय की जिस पुस्तक ने मुझमें राष्ट्रभक्ति के बीज डाले वह प्रथम राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त की भारत-भारती थी जो आज भी जीर्णावस्था में सुरक्षित है।
इण्टर का परीक्षाफल आने ही वाला था कि बिहार से अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी कर डां. सुधीर पाण्डेय का वापस आना हुआ। पिताजी ने उनको दुकान देते हुए कहा-यही काम शुरू करो। उन्होंने पहली ही भेंट में मुझसे पूछा, कि क्या कुछ लिखते-विकते भी हों। मैंने कहा, नहीं तो ,मैं कैसे लिख सकता हूं। फिर लिखना प्रारम्भ कैसे किया जाता है यह भी मुझे नहीं मालूम। इसके बाद उन्होंने मुझे अपनी छपी हुई कुछ कहानियां दिखायीं और कहा-देखो ऐसे लिखा जाता है। किसी भी कार्य के लिए ईमानदारी से कोशिश करनी पड़ती है। लिखकर मुझे दिखाओ। मैंने कहा- ठीक है आज से ही प्रयास करता हूं। उस दिन के बाद दो-तीन दिन तक प्रयास तो किये पर सफल न हो सका एक दो उल्टी सीधी पंक्तियां बनी वह भी किसी को दिखाने का साहस न हुआ। हां कापी और कलम हर समय साथ में रखने
लगा कि पता नहीं कब इनकी आवश्यकता पड़ जाये। एक दिन की बात है कि घर के पिछवाड़े की ओर खाली पड़ी जगह में बहुत सारी तितलियां उड़ रही थीं। कुछ बच्चे उनको पकड़ने के लिये प्रयासरत थे। मन में आया क्यों न इन पर लिखा जाये। मन में अन्दर ही अन्दर गुनगुनाने लगा। बाद में बन गयी बच्चों के लिए मेरी प्रथम काव्यरचना-तितली और पिछले चार-पांच वर्षों की उधेड़-बुन किसी निष्कर्ष पर पहुंची। इसी सप्ताह नागेश पाण्डेय संजय का बड़ागांव आना हुआ। उनको दिखाया, तो वह बहुत प्रसन्न हुए और रचना में कुछ सुधार कर सुझाव दिया; कि इसे बालदर्शन मासिक कानपुर को भेजो। जिसके काव्यखण्ड का मैं आजकल अतिथि संपादक हूं। मैंने अगले एक -दो दिन में डां.सुधीर पाण्डेय से मार्गदर्शन लेकर डाक से भेज दी। जून 1991 से आरम्भ इस यात्रा की प्रसन्नता उस दिन चार गुनी हुई । जब डाक से बालदर्शन मासिक का नवम्बर 91 अंक विशेषांक रूप में आया और उसमें अपनी प्रकाशित रचना इस रूप में देखी-
फूलों पर मंडराती तितली, चंचल पंख हिलाती तितली,
डाल-डाल पर फूल-फूल पर, है देखो इठलाती तितली।
फूलों का मकरन्द चूसकर, चंचल पंख हिलाती तितली,
रंग भरे परिधान पहनकर, बगिया में है आती तितली॥
इससे मिली प्रशंसा ने मेरा उत्साह बढ़ाया। लेखनी चल पड़ी और चिड़िया, हम बच्चे, श्रम का पथ, हाथी दादा, तिरंगा, भारत के हम बच्चे हैं, हम बच्चे हैं प्यारे, होली, दीवाली, जाड़े की ऋतु, गरमी आई, मच्छर जी, दादा जी आदि विषयों पर लिख डाला। एक-दो स्थानों पर छपा भी। एक बार अति उत्साह में डांट खानी पड़ गयी। जब बालदर्शन मासिक की मुख्य संपादक मानवती आर्य्या जी को बेला शीर्षक कविता भेजी। उन्होंने उत्तर में डांटते हुए लिखा ; कि बेला का पेड़ नहीं बेल होती है। सुधार कर पुनः भेजना। पर मेरा साहस न हुआ। हालांकि रचना में उनके निर्देशानुसार सुधार किया उनका वह औषधि सम पत्र आज भी मेरे पास सुरक्षित है। उस दिन यह अनुभव हुआ, कि अच्छे लेखन के लिए इस क्षेत्र के जानकारों का मार्गदर्शन भी आवश्यक है। यह मेरा सौभाग्य है कि इस क्षेत्र में मुझे नागेश पाण्डे संजय के अतिरिक्त डा. गिरिजानंदन त्रिगुणायत आकुल, डा. देशबन्धु शाहजहांपुरी, डा. रामनारायण त्रिपाठी पर्यटक का सहयोग व मार्गदर्शन बराबर मिला।
22 नवम्बर 1992 को अमरउजाला हिन्दी दैनिक बरेली के स्तम्भ-बच्चों का कोना में छपने वाली पहली रचना श्रम का पथ के मनीआर्डर से आये पारिश्रमिक 40/- ने बड़ी प्रेरणा दी। क्योंकि वह मेरी पहली अपनी पूंजी थी जिसको मैं अपने विवेक से व्यय कर सकता था। वह रचना थी-
श्रम का पथ अपनाओ बच्चों,
उच्च सफलता पाओ जी।
मन के सारे अन्धकार को,
देखो दूर भगाओ जी।
गांधी जैसा त्याग करो,
नेताजी सा विश्वास रखो।
हार करो स्वीकार नहीं,
उर में सच्ची आस रखो॥
इसके बाद कविता, बालकथा, आपके ज्ञान के लिए, अमर उजाला में खूब छपे और आने वाले पारिश्रमिक का पत्र-पत्रिकाओं को खरीदने या डाकव्यय में लगाता। एक-दो महीने के अन्तराल पर नागेश जी आते उनको रचनाएं दिखा मार्गदर्शन लेता। उनका बालसाहित्य के प्रति समर्पण मेरा उत्साह वर्धन करता। मैं भी जी. एफ. कालेज शाहजहांपुर से एम. ए. हिन्दी साहित्य में कर बी.एड. के लिए एस.एस. कालेज शाहजहांपुर आ गया और अध्ययन के साथ ही एक निजी संस्थान में स्वव्यय पूर्ति हेतु शिक्षण भी करने लगा। यहीं पर शिक्षण के साथ-साथ साहित्य सृजन में रत व उ.प्र. हिन्दी संस्थान से तुलसी सम्मान प्राप्त डां. आकुल से सहयोग व मार्गदर्शन मिला। जिनकी उस समय तक कई पुस्तकें छप चुकी थीं। उनसे समय-समय पर विविध साहित्यिक विषयों पर चर्चा होती।
प्रतापगढ़ उ.प्र. से श्री प्रदीपनारायण सिंह के सम्पादन में त्रैमासिक पत्रिका प्रतापशोभा निकलती थी जिसका प्रत्येक अंक एक विशेषांक होता था। मैंने उनको पत्र लिख दिया कि आप चाहें तो मैं इसके बालसाहित्यांक का अतिथि सम्पादन कर सकता हूं। उनकी स्वीकृति ने मुझे प्रथम सम्पादन का अनुभव दिया। यह अंक नवम्बर 1997 में निकला। प्रशंसा-आलोचना दोनों मिले। मेरी लेखन यात्रा बच्चों और बड़ों दोनों के लिए चलती रही।
3 जुलाई 1999 से 21 जुलाई 1999 तक द्रौपदी देवी इण्टर कालेज बदायूं में शिक्षण किया वहां डां. बृजेन्द्र अवस्थी, उमाशंकर शुक्ल राही और उर्मिलेश शंखधार से मिलने सौभाग्य-मार्गदर्शन का अनुभव मिला। 23 जुलाई 1999 से राजकीय सेवा में उत्तराखण्ड पिथौरागढ़ आ गया। जहां हिन्दी शिक्षक पद पर अनवरत कार्य करते हुए साहित्य साधना में लगा हुआ हूं। राजकीय सेवा में आने के बाद सृजन को अधिक गति मिली। अर्थकी समस्या के हल होने के बाद विविध साहित्यिक यात्राओं के लोभ को न रोक सका। बालसाहित्य के लिए पहली यात्रा जयपुर की हुई जिसमें बच्चों का देश मासिक द्वारा प्रथम द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में राष्ट्रीयता की भावना और बालसाहित्य पर पत्र वाचन के लिए आमंत्रित किया गया था। उसके बाद तो इस तरह की यात्राओं के अनेक अवसर मिले चर्चाओं ,वरिष्ठ बालसाहित्यकारों से सम्पर्क आशीर्वाद ने इनको चिरसम्रणीय बना दिया।
जून 1991 से प्रारम्भ हुई प्रकाशन की यात्रा में स्काउट प्रभा, नालन्दादर्पण, राष्ट्रधर्म, बच्चे और आप ,बालसाहित्य समीक्षा, विश्वज्योति, देवपुत्र, बालप्रहरी, अणुव्रत बच्चों का देश,
उत्तर उजाला, दै.नवज्योति, बालवाटिका, दै.स्वतंत्रवार्ता, दै.सन्मार्ग ,दै.रांची एक्सप्रेस डेली हिन्दी मिलाप, बालसेतु, नई दुनिया, अपना बचपन आदि दो सौ से अधिक पत्र-पत्रिकाएं सहभागी बन चुकी हैं उन्होंनेे प्रकाशन का अवसर दे आगे बढ़ाया है। कई बालगीत संकलनों में छपा। बालगीतों के अलावा बालकविता, बालकथा ,शब्दजाल निबन्ध, शिशुगीत, जानकारी आदि विधाओं में लिखा। अन्तरजाल पत्रिकाओं में साहित्य शिल्पी, सृजनगाथा, कविताकोश, स्वर्गविभा, रचनाकार आदि ने प्रकाशित-प्रसारित कर धन्य किया। संजय साहित्यिक मंच खुटार शाहजहांपुर से सम्मानों का श्रीगणेश बालकन जी वारी इण्टर नेशनल दिल्ली ,बालप्रहरी अल्मोड़ा आदि तक पहुंचा।
मेरी अब तक हमबच्चे ( बालगीत -2001), बिना विचारे का फल ( पद्यकथा-2004), क्यों बोलते हैं बच्चे झूठ (निबन्ध-2006), मुखिया का चुनाव (बालकथा-2010), आओ मिलकर गाएं ( बालगीत-2011) और दैनिक प्रार्थना ( 2012) पुस्तकें छप चुकी हैं। एक दर्जन से अधिक प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं। बच्चों के मध्य मैं आज भी बच्चा ही हूं। उनमें घुल मिलकर उनको अधिकाधिक जानने-समझने का प्रयास करता हूं। आवश्यकता होने पर उनको प्रोत्साहन-मार्गदर्शन देता हूं। मैं यह आवश्यक समझता हूं ,कि बिना बालकों से जुड़े उनके बाल मनोविज्ञान, उनकी आवश्यकताओं को समझे श्रेष्ठ बालसाहित्य का सृजन नहीं किया जा सकता। और न ही उनके लिए सृजित साहित्य की सार्थकता हो सकती।
मैं अन्य बाल साहित्यकारों से भी चाहूंगा कि वह भी अपने आपको अधिकाधिक बच्चों से जोड़ें। उनके बदलते परिवेश सामाजिक सरोकारों और आवश्यकताओं को समझे तदनुसार बालसाहित्य का सृजन कर उनके पथदर्शक हितचिन्तक बनें।
-‘‘उपरोक्त आलेख मेरा अपना स्वरचित मौलिक अब तक किसी भी अन्तरजाल पर अप्रकाशित है। ''
दुबौला-रामेश्वर-262529 पिथौरागढ़- उत्तराखण्ड,
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