(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
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प्रवासी भारतीय जगत की कहानियाँ
ज्ञान चतुर्वेदी
कहानी लिखने की कला चाहे लाख बदल गयी है, परंतु उन कहानीकारों की ट्रेडीशनल तरीके के लिखी कहानियाँ अभी भी आपको पकड़ती हैं जो एकदम ‘टेक्स्ट बुक' की शर्तों पर लिखी सी लगती हैं। तेजेन्द्र शर्मा की कहानियाँ उनमें से ही हैं। फिर तेजेन्द्र प्रवासी भारतीय हैं। लंदन में रहते हैं। वहाँ भी सामाजिक रूप से बेहद सक्रिय रहते हैं। उनके पास प्रवासी जीवन के जो अनुभव हैं, वे हमारे लिए तो विरले हैं ही- मुझे लगता है कि प्रायः प्रवासी लोगों के पास भी अनुभव और क़िस्सों का इतना समृद्ध ख़जाना नहीं है। इस अनुभव को उन्होंने अपनी कहानियों में बखूबी समेटा भी है। उनकी कहानियाँ इस मामले में आमतौर पर लिखी जा रही हिन्दी कहानियों से अलग तथा महत्त्वपूर्ण है कि वे अपनी प्रायः कहानियों के जरिये हमें प्रवासी समाज से रू-ब-रू कराते हैं।
तेजेन्द्र शर्मा के पास क़िस्से भी हैं और क़िस्सागोई भी। भाषा से खेलना भी उन्हें बढ़िया आता है। उर्दू-हिन्दी के लोकभाषा तथा प्रवासी हिन्दी भाषी की अपनी अंग्रेजीदां हिन्दी का सटीक इस्तेमाल करके वे चुटीले संवाद बनाते हैं और कहानी की भाषा में वह रवानगी कायम रखते हैं जो पाठक को कथा से बांधकर रखती है।
तेजेन्द्र शर्मा के अंदर एक व्यंग्यकार भी कहीं बैठा है जो रह रहकर यहाँ-वहाँ जागता है तथा कहानी में हस्तक्षेप भी करता है। कई बार यह हस्तक्षेप कहानी को चुटीला बनाता है तो कई बार कहानी के सहज प्रवाह में बाधा बनता है और कई बार वह कहानी पर थोपा हुआ सा हो जाता है। उसी के तहत मुझे ‘क़ब्र का मुनाफा' कहानी याद आती है। कहानी का अंत एक सपाट व्यंग्यकार द्वारा रचा अंत है और कहानी को नये अर्थ देकर नई ऊँचाई भी देता है। जीवन ऐसा हिसाबी-किताबी हो गया है कि ‘क़ब्र का मुनाफा' कमाया जा सकता है और मरने जीने को भी एक नये धंधे में तबदील किया जा सकता है। पर इसी कहानी में तेजेन्द्र शर्मा का व्यंग्यकार वहाँ कहानी अनामंत्रित आ जाता है जहाँ वह कहानी के बीच सोशलिस्ट, कार्ल मार्क्स, केपिटेलिज़्म और दोगले मार्क्सवादियों का जिक्र उस जगह लाते हैं जहाँ वह जिक्र अनावश्यक ही नहीं बल्कि वह कहानी के बीच में रुकावट सा है। लगता है कि है एक लेखक कहानी के बहाने अपने कुछ हिसाब-किताब चुकाने पर तुला है। जब हम ‘क़ब्र का मुनाफा' की बात कर ही रहे हैं तो बता दूँ कि एक बेहद बेजोड़ क़िस्से को कहते-कहते तेजेन्द्र इसीलिये चुक गये हैं कि वे एक साथ बहुत सी बातें कहने के फेर में मूल कथा से बार बार यहाँ-वहाँ हो जाते हैं। इससे कहानी में अनावश्यक विस्तार आ जाता है और मूल बात dilute होती चली जाती है। मजे की बात यह कि इतना होने पर भी कहानी अपने बेजोड़ विषय के कारण फिर भी याद रह जाती है। ऐसी ही कहानी ‘एक ही रंग' का क़िस्सा है। तेजेन्द्र शर्मा ने यह कहानी एक भारतीय माहौल में लिखी है। इसमें प्रवासी जीवन के बावजूद एक भारतीय दृष्टि दिखती है जो तेजेन्द्र ने अभी भी बचाकर रखी है। सुदर्शनलाल नाई और बाबूराम नाई दोनों ही फुटपाथ पर अटाला जमाकर हजामत की अपनी दुकान चलाने वाले, दोनों के बीच की बिजनेस की प्रतिद्वंद्विता और इनके बीच लोकल नगर निगम की राजनीति। यह एक बेहद ज़हीन प्लाट हो सकता था और काफी हद तक तेजेन्द्र इसे निभा भी ले गये- परंतु कहानी के बीच में वे फिर यहाँ-वहाँ अटक कर कहानी के प्रवाह को तोड़ देते हैं कहानी का अंत अलबत्ता ‘क़ब्र का मुनाफा' की भांति ही बेहद सधा हुआ और बांधने वाला है। काश कि पूरी कहानी में ही तेजेन्द्र इसी चुस्त वाक्य रचना और भाषा का ख़्याल रखते। मुझे तेजेन्द्र की कहानियाँ पढ़ते हुये बार बार यह लगा है कि वे कहानी में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाली टिप्पणियाँ ज़रूर डाल देते हैं जबकि एक अच्छी रचना में लेखक का यूँ आकर जगह घेरने की कोशिश करना उसको कमज़ोर ही करते हैं। वे कई बार संवादों तथा विवरण में सरलीकरण तथा दोहराव के शिकार भी हो जाते हैं। उन जैसा कहानी कला का जानकार इस सबसे बच सकता है क्योंकि एक अच्छी कहानी और बहुत अच्छी कहानी के बीच में बातें ही तो आड़े आ जाती हैं।
‘ढिबरी टाइट' एक खूबसूरत कथा है और प्रवासी भारतीय के जीवन के उस भयंकर यथार्थ से परिचित कराती है जो केवल एक प्रवासी भारतीय के जीवन में ही आ सकता है। यह उन लोगों की कहानी भी है जो अपना संपन्न भारतीय संसार छोड़कर मात्र इसीलिये प्रवासी जीवन चुन लेते हैं क्योंकि उन्हें ‘फॉरेन रिटर्न;' ‘विदेश में काम करने' आदि का झूठा क्रेज है। यह कहानी इसलिये बाँधती है क्योंकि तेजेन्द्र इसमें कहीं भी मूलकथा से भटकते नहीं है और कहानी के सहज अंत पर पहुँच जाते हैं जहाँ गुरमीत कुवैत पर हमले की खबर सुन पढ़कर हर्षोल्लास में कह रहा है कि कर दी सालों की ढिबरी टाइट।
ऐसी ही अच्छी कहानी, बल्कि बेहद अच्छी कहानी ‘पासपोर्ट का रंग' है। यह उन लोगों की मानसिक व्यथा की मार्मिक कथा है जो भारत की ज़मीन से उखड़कर प्रवासी मिट्टी से रोप तो दिये गये हैं परन्तु भारत की मिट्टी की याद में वे उस प्रवासी मिट्टी में मुरझा रहे हैं। वे बूढ़े जिनके बच्चे विदेश जा चुके हैं, मजबूरीवश बच्चे के पास पहुँच जाते हैं कि अकेलापन नहीं काटेगा। परन्तु वे वहाँ जाकर भी भारतीय रहना चाहते हैं और दोहरी नागरिकता की भारतीय घोषणा के बाद उत्साह से झलक-झलक जा रहे हैं। गोपालदास जी कैसे इस एक घोषणा से इतना उत्साहित हो जाते हैं कि लंदन में सभी उन्हें पागल मानने लगते हैं- इस बात को तेजेन्द्र इतने संयत तथा सधे ढंग से कह डालते हैं कि कहानी के अंत में जब कथानायक उस देश का नागरिक हो जाता है जहां उसे किसी पासपोर्ट की आवश्यकता नहीं रह जाती- तो पाठक ठगा सा रह जाता है। कदाचित कथानायक की नियति मृत्यु ही थी जो उसे सारी नागरिकताओं से मुक्त कर देती है।
‘कैंसर' फिर एक ऐसी कथा है जहां तेजेन्द्र एक बड़ी कहानी कहने से चूक गये हैं। पत्नी को छाती का कैंसर हो जाने पर उनके पारिवारिक जीवन से अचानक कैसी उथल-पुथल होती है और मानसिक स्तर पर कैसा द्वन्द्व चलता है तथा इमोशनल स्तर पर क्या-क्या गुज़रता है कहानी इसकी बन सकती थी, बन भी रही थी, पर वह कीमोथिरेपी डियोथिरेपी आदि के डिटेल्स देने के मोह के कारण और कहानी के अंत में अचानक ही उसे एक चलताऊ सी व्यंग्य रचना में तब्दील कर देने के कारण सब गड़बड़ा जाता है। कैंसर के मरीज के लाइलाज हो जाने पर किसी नीमहकीम, जाप मंत्र वाले, धर्म के ठेकेदार आदि अपना उल्लू सीधा करने में लग जाते हैं यदि इसी की कहानी कहनी थी तो कहानी दूसरे तरह से चलनी चाहिये थी। अच्छी भली चल रही कहानी के अंतिम दो तीन पैराग्राफ में ये प्रसंग लाकर और इस कैंसर से उस कैंसर को जोड़ने की कोशिश पूरी कहानी को बिठा देती है। काश कि तेजेन्द्र दो अलग-अलग कहानियों को न मिलाते और अलग-अलग लिखते तो दोनों बेहतर रहतीं क्योंकि दोनों में कहानी को कहने की शर्तें भाषा तथा कहने के स्तर पर अलग होनी है। एक अच्छी कहानी में तेजेन्द्र की यह चूक पाठक को सालती है। ‘कैंसर' यदि शुरुआती तेवर को ही कायम रखती हुई आगे बढ़ती, ‘जनरलाइज्ड' टिप्पणियों से बचती और अंत तक आते आते ‘दूसरे क़िस्म के कैंसर की सामान्य सी बात पर समाप्त न होती तो एक बहुत अच्छी कहानी बन जाती। मुझे ऐसा प्रतीत होता है। (हो सकता है कि मैं गलत होऊं।) कि कदाचित तेजेन्द्र ने या तो पहले अंत सोचकर फिर कहानी लिखी या फिर अच्छी भली चलती कहानी को अचानक ही कहीं भी अंत कर देने की गलती कर डाली।
इस टिप्पणी को मैं तेजेन्द्र की दो अच्छी कहानियों के ज़िक्र के साथ समाप्त करूंगा। ‘काला सागर' और ‘देह की कीमत' के क़िस्से ऐसे माहौल के हैं जिन्हें कदाचित तेजेन्द्र ही बयां कर सकते थे। ‘देह की कीमत' में गैरक़ानूनी तौर पर जापान में प्रवेश करके वहाँ काम करने वाले की त्रासद कथा है जिसकी अचानक मौत से एकदम नये किस्म की त्रासद स्थितियाँ जन्म लेती हैं। ये त्रासदियाँ एक गैरक़ानूनी मृत शरीर को वापस देश भेजने की भी है और वहाँ उसके दोस्तों द्वारा एकत्रित किये गये तीन लाख रुपयों पर पूरे परिवार की गिद्धदृष्टि से भी उत्पन्न होती हैं। ‘देह की कीमत' जो तीन लाख का ड्राफ्ट जापान से मृतक की अस्थियों के साथ आता है, वह मृतक की देह की कीमत है या नवविवाहित की देह की कीमत है- उस देह की जो इसने पाँच माह के वैवाहिक सुख के लिये उसे पति को सौंपी जो बाद में ग़ैरकानूनी ढंग से जापान चला गया? एक मुकम्मल कहानी कही है तेजेन्द्र ने और किस्सागोई की शर्तों पर अच्छी बांधने वाली कहानी कही है। इसी तरह ‘काला सागर' की कथा भी तेजेन्द्र ही कह सकते थे। वे एअरलाइन्स में काम कर चुके हैं और इस स्थिति को कदाचित देख भी चुके हैं जहाँ हवाई दुर्घटना में मारे गये रिश्तेदारों का शव लेने के लिये विदेश यात्रा की विवशता को भी लोन, खरीददारी तथा ‘प्लेयर' की ‘फॉरेन ट्रिप' में बदल देते हैं। यह भी हर तरह से एक मुकम्मल कहानी है।
तेजेन्द्र की कहानियों की चर्चा करते हुये मुझे बार-बार लगता रहा कि हमें यह याद करना ही होगा कि हिन्दी कहानी की गौरवशाली परंपरा में ये कहानियाँ कहाँ ठहरती हैं। ये कहानियाँ इन रूपों में तो बेजोड़ हैं कि ये प्रवासी भारतीय जगत की कहानियाँ कहती हैं जो हिन्दी कथा में बहुत कम उपलब्ध है। पर जब कहानी कला, कहानी की भाषा, कहने को तरीके और कहानी के सौंदर्यशास्त्र पर इन कहानियों को तौलते/कसते हैं तो ये कहानियाँ बार-बार पहुँचकर भी चूक-चूक जाती हैं। हिन्दी कहानियों की परंपरा से ख़ूब परिचित और ज़हीन तेजेन्द्र शर्मा स्वयं मूल बात खू़ब समझते होंगे। मुझे लगता है कि उनके पास इतने सारे अलग क़िस्म के क़िस्से कहने को हैं कि यदि वे डूबकर लिखें (जैसा कि उन्होंने ‘पासपोर्ट का रंग' में किया है।) तो हिन्दी कथा संसार में उनका एक अलग स्थान बन सकेगा। हम जैसे उनके मित्र और शुभचिंतक उनसे यह उम्मीद करें तथा करते रहें तो यह गलत न होगा।
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