(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
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ज़िन्दगी में एक दोस्त रहता था
धीरेन्द्र अस्थाना
तेजेन्द्र शर्मा के बारे में सोचना ज़िन्दगी से फिसल गये एक कीमती स्वप्न को तलाशने जैसा है। इस स्वप्न के खो जाने के पीछे यकीनन अस्सी प्रतिशत जिम्मेदारी मेरी होगी लेकिन बीस प्रतिशत की जिम्मेदारी तो तेजेन्द्र को भी लेनी चाहिए। कहानीकार मोहन राकेश ने कहा था - ज़िन्दगी में एक दोस्त तो होना ही चाहिए। जिसके दो दोस्त होते हैं वह भाग्यशाली है। तीन दोस्त तो हो ही नहीं सकते।
आज सोचता हूँ तो लगता है कि तेजेन्द्र मेरा दूसरा दोस्त बनता इससे पहले ही रिश्तों में ग्रहण लग गया। उसने मेरी ज़िन्दगी में एक ख़्वाब की तरह प्रवेश किया और जब तक मैं अपनी चेतना में उसका दर्जा और अहमियत तय करता, वह फिसल गया। हवाई जहाज उसका जीवन था इसलिए रिश्तों में भी वह ‘हवाई गति' का कायल है। लेकिन संबंध अपना हक माँगते हैं। वे गति में नहीं विश्राम में जीना चाहते
हैं। मैं आज भी नहीं समझ सका हूँ कि मेरी ज़िन्दगी का दूसरा दोस्त बनते-बनते तेजेन्द्र शर्मा का नाम का प्यारा सा शख़्स सहसा एक बेगानी सी सूरत में क्यों ढल गया। बरसों-बरस ऐसा चला कि उसके जाने के बाद मुझे पता चलता कि तेजेन्द्र लंदन से आया था और चला गया। एक संकोची, इंट्रोवर्ट शख़्स ऐसे में क्या करेगा। उदास होगा। मैं उदास होता था। बहरहाल, बात सन् 1990 के आरंभ की। दिल्ली के जश्नों से देश निकाला मिल गया था। चंद दोस्तों की भागदौड़ और प्रभाष जोशी की कृपा से जनसत्ता, मुंबई के फीचर संपादक के रूप में जीवन की फिर से बहाली हुई- सन् 1990 के जून में। ‘जो मारे जाएंगे' नाम का कहानी संग्रह छपने के लिए अरुण माहेश्वरी (वाणी प्रकाशन) को देकर सपरिवार मुंबई प्रस्थान किया नया शहर, नयी नौकरी, नयी चुनौती, नये लोग। सबमें सामंजस्य चल ही रहा था कि एक सुबह दफ़्तर के फोन पर किसी ने मुझे याद किया। मैं हैरान। मुझे कौन पूछ रहा है। अभी तो दफ़्तर के दरो-दीवार तक मुझे कौतुक से निहार रहे हैं। आवाज़ आयी- मेरा नाम तेजेन्द्र शर्मा है। रहता तो बम्बई (तब मुम्बई नहीं हुआ था।) में ही हूँ लेकिन फिलहाल दिल्ली से आ रहा हूँ। मेरे पास दस किताबों का एक बंडल है। किताब का नाम है ‘जो मारे जाएंगे' मुझे लगता है कि आप मुझसे मिलना पसंद करेंगे।
अरे! मैं स्तब्ध रह गया। परिचय का यह एक अनूठा तरीका था जो मुझे भा गया। शाम को हम मिले। मेरी किताब की दस प्रतियों के साथ। तेजेन्द्र शर्मा की अनौपचारिकता, बेबाकी और बिंदास चरित्र कहीं मुझे छू गया। चेतना में एक स्वप्न ने बनना शुरू किया। रिश्तों को ऐसे ही धुंधलकों तथा अनाम तारों से ही बुनना होता है। यह उनकी स्वाभाविक प्रक्रिया है। हमने मिलना-जुलना शुरू किया। एअर इंडिया का फ़्लाइट परसर एक संवेदनशील कहानीकार भी है, इस जानकारी ने दिल को सुकून दिया। फिर कुछ समय बाद तेजेन्द्र ने अपना पहला कहानी संग्रह ‘काला सागर' भेंट किया। मैंने कहानियाँ पढ़ीं और मुझे लगा कि इस पर कुछ लिखना चाहिए। ‘काला सागर' पर मेरी टिप्पणी ‘जनसत्ता सबरंग' के 9 दिसंबर 1990 के अंक में प्रकाशित है। यह टिप्पणी इस प्रकार थी-
‘हिन्दी के एक युवा कवि की कहानियों में दुख चमकीला होता है। लेकिन दुःख के लिए मशहूर एक वरिष्ठ कथाकार के यहाँ दुःख प्रायः रहस्यमय होता है। उसे खोजना पड़ता है, उसके ही इर्द-गिर्द, उसके ही भीतर। एक और वरिष्ठ उपन्यासकार-चिंतक-कवि के यहाँ दुःख मनुष्य को मांजता है और एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार के यहाँ दुःख मनुष्य को ध्वस्त कर देता है। तो दुःख के इतने आकार प्रकार होते हुए भी अभी तक यह साफ नहीं हो सका है कि एकदम ठीक-ठीक किसी रचनाकार ने दुःख को देखा है?
मुंबई के युवा कथाकार तेजेन्द्र शर्मा भी यह दावा नहीं करते कि उन्होंने दुःख को देखा है। उनके यहाँ दुःख एक अंधेरा है और उन्हें लगता है कि अंधेरे का रंग पीला होता है, अवसाद की तरह। ‘काला सागर' तेजेन्द्र शर्मा का पहला कहानी संग्रह है जिसमें उनकी दस कहानियाँ शामिल हैं। दसों कहानियों में दुख का यह पीला अवसाद सतह पर कोहरे की तरह उपस्थित है- कहीं आगे बढ़कर किसी चरित्र को लीलता हुआ, कहीं उपेक्षित बच्चे सा स्तब्ध खड़ा हुआ तो कहीं किसी की छाती में मौन रुदन सा कलपता हुआ।
तेजेन्द्र बहुत संयमी कथाकार हैं। वह खिलवाड़ नहीं करते। न भाषा के साथ, न भावों के साथ और न ही पात्रों के साथ। इसका एक लाभ उन्हें यह मिला है कि उनके चरित्र सहज, सरल, विश्वसनीय और प्राणवाण हो उठते हैं। जैसे -काला सागर, उड़ान, ग्रीन कार्ड और ईंटों का जंगल में। नुकसान यह हुआ है कि इस अतिरिक्त तटस्थता से कहीं-कहीं पात्र बेहद निर्जीव, यांत्रिक और रागात्मक ऊष्मा से कतई वंचित हो कर पुतले जैसे बन गए हैं। जैसे -क्रमशः, दंश और प्रतिबिंब में। जिन कहानियों में पात्रों को लेखकीय रागात्मकता भी मिली है और निर्वैयक्तिक क़िस्म की दूरी भी, वे कहानियाँ बेहद जीवंत हो उठी हैं।
तेजेन्द्र की दूसरी विशेषता है विषय-वैविध्य और अनुभव के एक नए द्वार पर पड़ी उनकी थाप। तेजेन्द्र पेशे से विमान परिचारक हैं इसलिए इस संसार के कुछ ऐसे अनुभव उनके यहाँ आ जुटे हैं जो हिन्दी कथा परिदृश्य में अब तक शायद अनुपस्थित ही थे। इस दृष्टि से उड़ान, काला सागर और ग्रीन कार्ड तेजेन्द्र की अविस्मरणीय कहानियाँ हैं, अद्भुत भी। मानवीय संवेदना के सूखते हुए तंतु और रिश्तों की गर्माहट पर छाता हुआ स्वार्थ का अंधेरा इन तीनों कहानियों में उसी पीले अवसाद की तरह मौजूद है जिसकी बात ऊपर की गई है।
प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच साँस लेते रह कर विमान परिचारिका बनने का स्वप्न लिए संघर्ष करती निम्न मध्यम वर्गीय लड़की वीनू की कथा तेजेन्द्र ने बड़े कौशल और रागात्मक वेग से बुनी है। वीनू के स्वप्न, उसके संघर्ष, स्वप्न के पूरा होने की स्थिति और अंततः स्वप्न के ध्वस्त हो जाने की परिणति पाठक को सहसा बहुत उदास और अकेला कर देती है, ठीक वीनू की तरह- ‘आँखों के सामने अंधेरा सा छा रहा है। क्या अंधेरा पीला भी होता है?' यहाँ पीला रंग किसी चमत्कार को पैदा करने के लिए नहीं लाया गया है बल्कि उस अवसाद को रेखांकित करने के लिए उपस्थित है जब सारे संघर्ष फिजूल और तमाम प्रतिबद्धताएँ व्यर्थ ठहरा दी जाती हैं और हम छला हुआ सा अनुभव करते हैं। छले जाने का यह दुःख ‘काला सागर' में भी मौजूद है- विमल महाजन की छाती में, किसी मर्मांतक हाहाकार सा। प्लेन क्रेश हो गया है। यात्री मारे जा चुके हैं। आतंकवादियों ने इस दुर्घटना की जिम्मेदारी ली है। विमल महाजन पर जिम्मेदारी है कि वे यात्रियों के संबंधियों को सांत्वना दें और उन्हें लंदन ले जाएँ मृतकों की शिनाख़्त के लिए। इतने सारे यात्रियों के मारे जाने से शोकाकुल हैं विमल महाजन लेकिन आश्चर्य कि संबंधियों को मुआवजे और लंदन घूमने का मौका मिल जाने की औचक खुशी है। अपने दुख में किसी अनाथ की कातरता से अकेले हैं विमल महाजन।
‘ग्रीन कार्ड' एक चालाक नौजवान अभय पर केन्द्रित है जो साधारण सा क्लर्क है लेकिन विदेश में बसने का ख्वाब रखता हैं वाक्पटु है और इस वाक्पटुता से वह शारदा नामक विदेश में नौकरी करने जा रही लड़की की भावनाओं का शोषण करता है और बिना किसी को बताए उससे शादी कर लेता है। वह चाहता है कि शारदा अमेरिका पहुँच कर उसके लिए भी ‘ग्रीन कार्ड' हासिल कर ले ताकि वह भी अमेरिका सैटिल हो जाए। ग्रीन कार्ड मिलने में हो रही देरी उसे सहन नहीं होती और वह दूसरी लड़की सुगंधा के साथ बंधने की तैयारी कर लेता है। सुगंधा से विवाह हो इससे पहले ही अचानक शारदा लौट आती है। परिणाम अभय को शारदा भी ठुकरा देती है और सुगंधा भी। चालाकी का यह हश्र उसे अकेला कर देता है। भाषागत कसाव व कथ्य से संतुलित ट्रीटमेंट के कारण ‘ग्रीन कार्ड' भी तेजेन्द्र की यादगार रचना बन उठी है। ‘ईंटों का जंगल' में मुंबई का शाश्वत दुःख ‘मकान' उजागर हुआ है। जतन से बचाए पैसों से अपना खुद का मकान खरीद पाने का सपना इस कहानी में चिथड़ा होकर बिखरा है। बहुत आत्मीयता से लिखी गई यह कहानी मुंबई वासियों के उस त्रास और यातना को रेखांकित करती है जो वे दलालों, मकान मालिकों और बिल्डरों के बीच फंसे भुगत रहे हैं।
अंत में एक उल्लेख ज़रूरी लगता है कि परकाया प्रवेश में तेजेन्द्र को दक्षता हासिल है। यानी स्त्रियों की यातना, दुःख और हर्ष को तेजेन्द्र ने ठीक उसी तरह जिया है जैसे कोई स्त्री ही जी सकती है। कुछ कहानियों में तेजेन्द्र लड़खड़ा भी गए हैं और यह स्वाभाविक भी है। आखिर किसी भी लेखक के पहले कहानी संग्रह में सारी कहानियाँ तो मिसाल नहीं बनतीं न! यह अलग बात है कि बननी चाहिए।'
बहरहाल, मुंबई में यह अपना आरंभ था और यह आरंभ दिलकश तथा दिलचस्प बनता जा रहा था। दोस्तों का एक नया संसार आबाद हो रहा था। इसी के साथ प्रगाढ़ हो रहे थे तेजेन्द्र के साथ अपने रिश्ते। लेकिन एक भावुक और नशीली रात ज़िन्दगी ने एक भयावह सच से साक्षात्कार कराया। पता चला कि मरणांतक स्थितियों को प्राप्त होती बेहद स्वप्निल, खूबसूरत तथा ममतालु स्त्री का पति है तेजेन्द्र। इस तथ्य ने दिल को चोट भी पहुँचायी और ग़मजदा भी किया। उस अद्भुत तथा अप्रतिम स्त्री का नाम इंदु शर्मा था जो कैंसर जैसे भयावह रोग के पंजे में छटपटा रही थी। तेजेन्द्र के साथ दोस्ती परवान चढ़ रही थी। और उसी के बरक्स एक जीवंत स्त्री के संवेदन तंतु अपाहिज हो रहे थे। यह एक मर्मांतक विलाप का समय था जब हम एक दोस्त की अर्धांगिनी को लगातार विलुप्त होता देख रहे थे।
फिर वह नहीं रही। हम काठ हो गये। जाते तो सब हैं। इंदु भी गयी। दुखद यह हुआ (जिसका अहसास मुझे बहुत बाद में हुआ) कि इंदु के जाने के बाद पता चला कि तेजेन्द्र शर्मा के भीतर का तमाम ममत्व और संवेदना दरअसल इंदु शर्मा का अक्श था इंदु के शेष होते ही उसके भीतर सोये गणितज्ञ ने आदमक़द होना शुरू कर दिया। हो सकता है यह बात सच न हो। पर मुझे ऐसा लगा था। शायद दोस्ती का क्षरण तभी से चुपचाप आरंभ हुआ होगा जो कालान्तर में एक अबोले में बदल गया। इंदु की स्मृति को अमरत्व देने के लिए तेजेन्द्र ने ‘इंदु शर्मा कथा सम्मान' देना आरंभ किया। दूसरा सम्मान इस खाकसार को मिला। उस सम्मान समारोह में मैंने एक बेहद संक्षिप्त धन्यवाद ज्ञापन का पाठ किया जो इस प्रकार था।
‘आँखों में नमी, हँसी लबों पर
क्या हाल है क्या दिखा रहे हो।'
आज सुबह से मैं ठीक इसी मनःस्थिति के साथ निरंतर मुठभेड़ में हूँ। लग रहा है कि धारासार स्मृतियों के बनैले अंधकार में मुझे निहत्था छोड़ दिया गया है। शब्दों का सजग चयनकर्ता होने के बावजूद शब्द मेरा साथ छोड़ रहे हैं और मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि कहाँ से शुरू करूँ? दरअसल, मैं सुख और दुःख के बेहद नाजुक मोड़ पर खड़ा हुआ हूँ और समझ नहीं पा रहा हूँ कि मुझे किस तरफ निकलना है।
आज 10 अप्रैल है। उस दिन भी 10 अप्रैल थी। मेरे उपन्यास ‘हलाहल' पर निर्माणाधीन धारावाहिक के पहले एपिसोड की शूटिंग की शाम। और सुबह-सुबह यह बुरी खबर आ गई कि इंदु शर्मा चल बसीं। एक तरफ अपने रचे पात्रों को जीवित देखने का रोमांच था, दूसरी तरफ एक जीवित रिश्ता ज़िन्दगी से निकल गया था।
इंदु शर्मा शुभ थी, सुंदर थी, कोमलतम थी, फिर भी वह हार गई थी। तेजेन्द्र और इंदु से जुड़े सारे मित्र अवाक थे और मैं एक ठोस सन्नाटे से जड़! अतीत में घटी अनेक घटनाएँ ओस की तरह निःशब्द झर रही थीं। 9 जून 1991 की रात बारिश कहर की तरह टूटी थी और मेरे घर की समूची छत को तूफान उड़ा ले गया था। 10 जून की सुबह इंदु भाभी ने खाना बनाकर तेजेन्द्र के हाथ भेज दिया था।
फिर एक दिन, दिन के समय लंदन से फोन आ गया। इंदु भाभी लंदन से बता रही थीं कि मैंने कितना ‘टची' उपन्यास (हलाहल) लिख मारा है और उनकी सहेलियों में उसे पढ़ने की होड़ लग गई है।
इलाज के लिये जाते समय गाड़ी में भाभी उन्हीं दिनों ‘धर्मयुग' में छपी मेरी कहानी ‘मेरी फर्नांडिस क्या तुम तक मेरी आवाज़ पहुँचती है' पढ़ती रही थीं और बेहोश होने से पहले तेजेन्द्र को कह गई थीं कि धीरेन्द्र को बधाई दे देना। और वह पहली मुलाकात जब मैं इंदु भाभी को देख चकाचौंध हो गया था। इतनी खूबसूरत और जहीन औरत का पति है यह तेजेन्द्र, मैंने सोचा था। लेकिन दूसरे ही पल जब एक कोने में ले जाकर जीवंत तेजेन्द्र हताशा से टूट कर फुसफुसाया था कि तुम्हारी भाभी को कैंसर है तो बदन का तमाम रक्त जैसे किसी ने सोख लिया था।
ऐसी भयावह बीमारी से लगातार मुस्कुराते रह कर भिड़ी रहने वाली भाभी को हम इतनी जल्दी खो बैठे, यक़ीन नहीं है। मेरे साथ यह हादसा घटता तो शायद मैं बच नहीं पाता। तेजेन्द्र न सिर्फ बचा हुआ है बल्कि उसके संघर्ष में भाभी की जिजीविषा भी आ मिली है।
तेजेन्द्र की इस ताक़त को सलाम और इस सम्मान के लिए इसलिए आभार कि इसके कारण मैं इंदु भाभी के थोड़ा और करीब आ गया हूँ।
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