रमाशंकर शुक्ल का आलेख :पुरुष मनोविज्ञान और नारी

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भारतीय पांडित्य परंपरा के पोषक संस्कारों के बीच पलने के बाद भी मेरा मन नारी के सम्बन्ध में प्राचीन संस्कारों को हूँ-ब-हूँ स्वीकार करने को न...


भारतीय पांडित्य परंपरा के पोषक संस्कारों के बीच पलने के बाद भी मेरा मन नारी के सम्बन्ध में प्राचीन संस्कारों को हूँ-ब-हूँ स्वीकार करने को नहीं करता. मैंने मनु स्मृति पढ़ी तो आस्था की बजाय क्रोध और चिढ़ फूटता रहा. यद्यपि आनन-फानन नारी विषयक धारण बदलने वाली नहीं है, फिर भी प्रगति के स्वरुप को देखकर मन में संतोष होता है. साथ ही स्त्रियों के अनेक व्यवहारों को लेकर आपत्ति भी.
मैंने वशिष्ठ, व्यास, ब्रह्मा, चन्द्रमा, परासर आदि दिव्य पुरुषों के जीवन की अनेक किम्वदंतियों को पढने-जानने के बाद पाया कि स्त्री-पुरुष के बीच बनाये गए मानदंड वस्तुतः छलावे के अलावा और कुछ नहीं हैं. पूरा का पूरा मामला यौन शुचिता का है. यदि किसी को किसी स्त्री के साथ पर पुरुष के संबंधों पर आपत्ति है तो इसलिए कि वह उस महिला को लेकर या तो उस पुरुष से ईर्ष्या कर रहा है या फिर अपने अस्तित्व को लेकर असुरक्षित महसूस कर रहा है.

महिला को रोकने के लिए पुरुष धार्मिक आख्यानों का सहारा लेता है, जहाँ पर पुरुष गमन घोर पाप के रूप में दर्शाया गया है. अब जब ज्ञान के सारे रास्ते खुल चुके हैं या फिर खुलते जा रहे हैं तो एक बात स्पष्ट होती जा रही है कि यौन शुचिता का मामला पाप और पुण्य का तो कम से कम नहीं ही है. क्योंकि खुद प्रकृति इस वर्जना और गर्जना को नहीं स्वीकार करती. एक मानव समाज को छोड़ दें तो प्रकृति के हर उपादान यौनिक स्वच्छंदता को स्वीकार करते हैं. समाजशास्त्र के अध्येता इस बात को बखूबी जानते हैं कि विवाह नामक संस्था यौनिक अराजकता से बचने के लिए बनाई गयी थी. क्योंकि तब के लोगों को डर लगाने लगा था कि कहीं खूबसूरत महिलाओं को पाने के लिए अनेक पुरुष आपस में भिड़ न जाएँ. और यह चिंता आज भी कायम है. कहते हैं कि सुन्दर पत्नी खुद में एक मुसीबत है. इसलिए कि पति को जीवन भर उसकी रखवाली करनी होगी.

बतौर पत्रकार, साहित्यकार, समाजसेवी और शिक्षक मैंने जो दुनिया आज तक की तारीख में देखी है, उसके मुताबिक पवित्र से पवित्र व्यक्ति की भी कामना स्त्री को भोगने की होती है. बल्कि धार्मिकता का प्रदर्शन करने वाले लोग इस दिशा में तो और भी लोलुप और जागरूक हैं. सामान्य बात हैं कि विश्वास पाने के लिए वेश, भाषा और भूषा का बहुत महत्व होता है. आज के ज़माने में इसे विज्ञापन कहा जा रहा है. यह अपना हित साधने का एक सशक्त साधन है. चन्दन, चोटी, खडाऊं और संस्कृतनिष्ठ भाषा विश्वास प्राप्ति के लिए इसी रूप में बहुत से लोगों का विज्ञापन है. पंडित लोग बुरा न मानें. आखिर इस सवाल का क्या उत्तर है कि जब आपके हृदय में ईश्वर का निवास है और आप परमानंद में डूबे हुए हैं तो चोटी-चन्दन का औचित्य क्या है? इसके उपयोग से तो यही साबित होता है कि उत्पाद में अभी विश्वास नहीं हुआ है, इसलिए कम लोग आकर्षित हो रहे हैं. ज्यादा से ज्यादा लोग आकर्षित हों, इसलिए चन्दन ब्रांड और चोटी ध्वज के रूप में इस्तेमाल किया जाय. 


एक बार मै लखनऊ  में एक कमाऊ विभाग में एक बड़े अफसर से मिलने गया. उनके गेट पर मोटे-मोटे अक्षरों के लिखा था कि "कृपया ट्रांसफर-पोस्टिंग के लिये संपर्क न करें." बाद में मालूम हुआ कि कर्मचारियों और अधिकारियों के ट्रांसफर करने और मोटी रकम वसूलने के लिए वे कुख्यात हैं. अक्सर चारदीवारियों पर लिखा मिल जाता है कि "यहाँ पेशाब करना मना है"  और लोग उसी जगह पर पेशाब करते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि जो विज्ञापित किया जाता है, वस्तुतः वह वहाँ नहीं होता. इसी तरह जिस व्यक्ति द्वारा यौन शुचिता की बात की जाती है, तो उसका अर्थ यह नहीं होता कि वह उससे परहेज करता है. बल्कि मतलब यह हुआ कि उसके घर में यौनिक स्वच्छंदता का खतरा मंडरा रहा है और वह परोक्षतः उसे रोकने की कोशिश कर रहा है.


यहाँ एक शब्द की और ध्यान दिलाना आवश्यक है. संस्कृत में एक शब्द है संभ्रांत. यह उस व्यक्ति, समूह और समाज के लिए प्रयोग किया जाता है, जो पढ़ा-लिखा और सौम्य हो. उसमे लोगों को सम्मान देने और रिश्तों को समझाने का कौशल निहित हो. अर्थात उद्दंड न हो. लेकिन यह प्रचलित अर्थ रूढ़ है. वस्तुतः संभ्रांत शब्द का मुख्यार्थ है "सं" उपसर्ग के साथ "भ्रांत" व्यक्ति. भ्रांत का अर्थ है भ्रमित. तब इसका सीधा अर्थ होता है कि जो भली-भांति भ्रमित ओह और लोगों को भ्रमित कर सके.


नारी विषयक पुरुष की सोच में इस अवधारणा को समझा जा सकता है. वाकई यह संभ्रांत वर्ग नारी को लेकर भ्रमित है. मनुष्य की पांच इन्द्रियां होती हैं. पांच कर्मेन्द्रियाँ होती हैं. ये पाँचों मिलकर पचीस की संख्या बनती है. संभ्रांत लोग पेट की भूख के बाद भोजन को जायज मानते हैं. आवश्यक मानते हैं. नींद की मांग पर सोने को जायज मानते हैं. विचार आने पर उसकी अभिव्यक्ति को जायज मानते हैं. कुल मिलकर शारीर की समस्त मांगों पर आपूर्ति को उचित और आवश्यक मन जाता है. साथ ही नवीनता को जीवन का प्राणत्व माना जाता है. क्योंकि स्थिरता को मृत्यु की संज्ञा दी जाती है. फिर क्यों यौनिक नवीनता के लिए स्थिरता का आग्रह? अकेले इसी सुख से देवता और ईश्वर क्यों नाराज होते हैं. इस मामले में ईश्वर को या फिर किसी देवता को नाराज होते तो कभी नहीं देखा गया, लेकिन देवदूतों को अक्सर नाराज होते देखा जाता है.


एक प्राकृतिक व्यवस्था के तहत मानव मन स्वतंत्रता का आकांक्षी है. वर्जनाएं इन्ही आकांक्षाओं का हनन कराती हैं. परस्त्रीगमन या पर पुरुष गमन की लालसा शाश्वत है. या दूसरे शब्दों में विजातीयता के प्रति आग्रह जीव समुदाय मात्र की मूल चेतना और प्रकृति है. इसके हनन के प्रयास से यह आकांक्षा समाप्त नहीं बलवती होती है. जैसे पानी के प्रवाह को कुछ दिन के लिए तो रोका जा सकता है, किन्तु लम्बे समय तक नहीं. पानी का दबाव ज्यादा हुआ तो सारे तटबंध टूट जायेंगे. और तटबंधों का टूटना सदैव विनाशकारी होता है. क्योंकि तब वह अनुशासन की सीमायें पार कर चुका होता है.


डा० रमा शंकर शुक्ल
पुलिस अस्पताल के पीछे
तरकापुर रोड, मिर्ज़ापुर
उप्र. २३१००१
मो- ०९४५२६३८६४९
प्रकाशित पुस्तकें :
१- "ब्रह्मनासिका" उपन्यास
२- "ईश्वर खतरनाक है" व्यंग्य काव्य संग्रह
३- "एक प्रेत यात्रा" काव्य संग्रह
शीघ्र प्रकाश्य
"पितर" कहानी संग्रह
लेखक शिक्षक, पत्रकार और समाजसेवी हैं. समकालीन पात्र-पत्रिकाओं में शताधिक लेख, कहानियां, कवितायें प्रकाशित.

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