(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
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कहानी के लिए विचार आवश्यक है, विचारधारा नहीं....
(लंदन में रचनाकार तेजेन्द्र शर्मा के साथ हरि भटनागर की हुई बातचीत के मुख्य अंश)
ह.भ. : वह कौन सा शहर था जब आपके मन में रचनाकार या लिखने का अंकुरण हुआ ?
ते.श. : मैं बहुत छोटा था जब मेरे बाऊजी का तबादला दिल्ली हो गया था। मैंने अपना बचपन, स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी सभी दिल्ली में ही महसूस किये। प्रेम की अनुभूति भी उसी शहर में हुई और बेवक़ूफ़ियां भी उसी शहर में कीं। ज़ाहिर है हर प्रेमी कवि होता है; शायद इसी लिये मैंने भी शुरूआत कविता से की थी लेकिन मैं लिखता अंग्रेज़ी में था। क्योंकि बी.ए. ऑनर्स अंग्रेज़ी में की थी और एम.ए. भी अंग्रेज़ी में ही की थी इसलिये जीवन अंग्रेज़ीमय ही था। अभी पच्चीस का भी नहीं हुआ था कि लॉर्ड बायरन पर मेरी पहली पुस्तक प्रकाशित हो गई थी और अगले ही साल जॉन कीट्स वाली पुस्तक भी मार्केट में आ गई थी। घर में मां और बाऊजी के साथ पंजाबी और बाहर अंग्रेज़ी। हिन्दी और हिन्दी वालों से अपने आपको बचा कर ही रखता था। किन्तु इन्दु जी से मुलाक़ात के बाद हिन्दी वालों के प्रति रवैया नरम हो गया क्योंकि वे हिन्दी में एम.ए. कर रही थीं। उनके लिए प्रेम के बाद एक दो कविताएं भी लिखी थीं, किन्तु कभी भी अपने कवि होने का मुग़ालता नहीं पाला था।
ह.भ. : यह तो बहुत विचित्र सी स्थिति कही जाएगी। फिर हिन्दी के साथ जुड़ाव कैसे हुआ और कब? और कहानी लेखन कब से शुरू हुआ?
ते.श. : हरि भाई, दरअसल इन्दु जी से विवाह के पश्चात एअर इंडिया में फ़्लाइट परसर की नौकरी के लिये मेरा चयन हो गया। इन्दु जी ने दिल्ली विश्वविद्यालय के आई.पी. कॉलेज से एम.ए. हिन्दी में पास की थी। मुंबई में आकर उन्होंने पीएच.डी. करने की मंशा ज़ाहिर की। उनका विषय था हिन्दी के आधुनिकतम उपन्यासों की प्रवर्तियों का अनुशीलन। उन्होंने 1975-80 के बीच प्रकाशित करीब 100 उपन्यासों पर काम शुरू कर दिया। इस तरह मुझे जगदीश चन्द्र, अमृत लाल नागर, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, विवेकी राय, राही मासूम रज़ा, हिमांशु जोशी, मन्नु भण्डारी, भीष्म साहनी और कृष्णा सोबती जैसे लेखकों के उपन्यास पढ़ने का मौक़ा मिला। अंग्रेज़ी में तो पहले से ही लिखता था। बस सोच लिया कि इस तरह की चीज़ें तो मैं भी लिख सकता हूं। पहली कहानी अपने लेक्चरर श्री श्याम मोहन ज़ुत्शी के जीवन से प्रभावित हो कर लिखी - प्रतिबिम्ब। कहानी देख कर इन्दु जी हंसने लगीं। उन्होंने समझाया कि मैं सोचता तो अंग्रेज़ी में हूं और लिखता हिन्दी में हूं। इस कारण मेरी भाषा हिन्दी न लग कर खिचड़ी सी लगती है। सोच तो एकाएक बदली नहीं जा सकती। इसलिये बेहतर होगा कि मैं पंजाबी में सोचना शुरू करूं और हिन्दी में लिखूं। इससे मेरी भाषा, व्याकरण, स्ट्रक्चर आदि सभी ठीक हो जाएंगे। उनका मूलमंत्र मन में बसाए मैंने अपनी कहानी दोबारा लिखी जो कि नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो गई। हौसला बढ़ा और मैं कहानी विधा से जुड़ता गया। मैं कहानी लिखता और इन्दु जी मेरी कहानी को दुरुस्त करने में मेरी सहायता करतीं। अपनी अकाल मृत्यु तक वे अपना कहानी धर्म निभाती रहीं।
ह.भ. : लिखते ही यानि क़लम जब अपने फ़ॉर्म में आई तो क्या किसी विचारधारा का रंग आपके अंदर रंगत डाल रहा था?
ते.श. : हरि भाई बहुत से लोग आम आदमी के बारे में शोर मचाते रहते हैं, दरअसल मैंने हमेशा आम आदमी के बारे में ही सोचा - वो आम आदमी जो मेरे अनुभव क्षेत्र में आता है। मैंने एक भी कहानी ऐसे विषय या चरित्र पर आधारित नहीं लिखी जिसे मैं अच्छी तरह जानता नहीं। इसलिये मेरी कहानियों के चरित्र एवं परिवेश नकली नहीं लगते। मैं मज़दूर और किसान को नहीं जानता किन्तु पाइलट और विमान को समझता हूं। इसलिये मैंने उन्हीं विषयों पर लिखा जिनकी समझ थी। काला सागर, देह की कीमत, ढिबरी टाइट जैसी रचनाएं इसीलिये लिखी जा सकीं क्योंकि मैं एअर इण्डिया में फ़्लाइट परसर की नौकरी करता था और उन विषयों को समझ सकता था। मैं घोषित मार्क्सवादी नहीं हूं। मैं कोई भी काम आधा अधूरा नहीं करता। यदि मैं कार्डधारी होता तो संपूर्ण रूप से समर्पित होता। मुझे दूसरे का दर्द अपना दर्द महसूस होता है। दर्द औरत का भी हो सकता है, आदमी का भी और हालात का भी। मैं मानव मात्र की पीड़ा को समर्पित हूं। बचपन में एक मोनो-एक्टिंग कम्पीटीशन में पहला पुरस्कार मिलने पर मुख्य अतिथि से ऑटोग्राफ़ मांगे थे। उन्होंने लिखा था, “औरों के चेहरे की मुस्कुराहट को अपनी हंसी समझो।” उनकी बात को बहुत गहराई तक पल्ले बांधते हुए औरों की पीड़ा को अपना दर्द भी मानने लगा।
ह.भ. : विचार किसी बहती जलधारा की तरह आपकी पूंजी बन गया या आपने इसे प्रयास कर अर्जित किया?
ते.श. : मैं विचार और विचारधारा को एक नहीं समझता। भारत में यह मान लिया जाता है कि या तो आप मार्क्सवादी हैं या फिर दक्षिणपन्थी। जबकि यह सच नहीं है। मैं मार्क्सवाद के विरुद्ध नहीं हूं। किन्तु मैं भारत के छद्म मार्क्सवादी लेखकों के विषय में ज़रूर एक धारणा रखता हूं। विचार सामाजिक भी हो सकता है और निजी भी। जबकि विचारधारा को आमतौर पर राजनीति से जोड़ कर देखा जाता है। मेरे लेखन में राजनीति नहीं दिखाई देगी। मैं बाज़ारवाद के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी नहीं करता। न ही मैं पूंजीवाद को दिखावे की गालियां देता हूं। किन्तु मेरे लेखन में इन व्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ विचार ज़रूर दिखाई दे जाएगा। आपने तो मेरी कहानी क़ब्र का मुनाफ़ा को स्वतन्त्रता के बाद की बीस महत्वपूर्ण कहानियों में शामिल किया है। आप ही सोचिये कि मैंने मौत जैसे गंभीर विषय को किस तरह बाज़ारवाद से जोड़ा है। आपको मेरे लेखन में राजनीति नहीं दिखाई देगी। मेरा मानना है कि कहानी के लिए विचार आवश्यक है, विचारधारा नहीं। शेक्सपीयर के सभी महान नायक हेमलेट, मेकबेथ, ओथेलो और किंग लीयर बड़े लोग हैं। किन्तु उनके दर्द आम आदमी के दर्द बन कर उभरते हैं। यहां तक कि शाइलॉक जैसे चरित्र को भी शेक्सपीयर मानवीय बना देता है। विचार लेखक के भीतर से जन्म लेता है जबकि विचारधारा ऊपर से थोपी जाती है। महत्वपूर्ण यह है कि आप कहना क्या चाहते हैं।
ह.भ. : कथ्य और शिल्प के महायुद्ध में आप किसकी तरफ़दारी करेंगे ?
ते.श. : जैसा कि मैंने अभी अभी कहा है कि महत्वपूर्ण यह है कि आप कहना क्या चाहते हैं। यदि आपके पास कहने को कुछ है ही नहीं तो आप चाहे कितनी भी सरकस कर लें वो इंटेलेक्चुअल अय्याशी से अधिक कुछ भी नहीं बन पायेगी। मैं तब तक कहानी नहीं लिखता जब तक मेरे पास कुछ नया कहने को नहीं होता। यदि आपका कथ्य मज़बूत है तो सादगी में भी महत्वपूर्ण बन कर निखरेगा। हां यदि शिल्प आपके कथ्य को उभारता है और कथ्य का हिस्सा बन जाता है तो उसका स्वागत है। मैं उदाहरण के तौर पर उदय प्रकाश की दो कहानियों का ज़िक्र करना चाहूंगा। उनकी कहानी तिरिछ में एक नये शिल्प का प्रयोग किया गया था। बेटा अपने पिता की त्रासदी को यह सोच कर दोबारा जीता है कि उनके साथ यह यह इस तरह घटित हुआ होगा। इससे पहले इस प्रकार के शिल्प का प्रयोग लगभग न के बराबर दिखाई देता है। इस कहानी में शिल्प कहानी का महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाता है । मेरे हिसाब से तिरिछ हिन्दी की महानतम कहानियों में से एक है। किन्तु वही उदय प्रकाश अपनी लम्बी कहानी मोहनदास में जब शिल्प का प्रयोग करते हैं, तो पूरा का पूरा शिल्प थोपा हुआ लगता है। पाठक को इस बात में कोई रुचि नहीं है कि कहानी का घटनाक्रम जब घटित हो रहा था तो उदय प्रकाश की पीठ का दर्द कैसा था, उन्होंने ग़ाज़ियाबाद में शिफ़्ट किया था या नहीं, मोनिका लेविंसकी और बिल क्लिंटन का किस्सा कब घटित हुआ था। यदि उदय प्रकाश का यह सारा समाचार वाचन उस कहानी से हटा दिया जाए तो भी मोहनदास के दर्द में कोई कमी नहीं आयेगी। बल्कि इसे हटा देने से मोहनदास की त्रासदी अधिक सघन बन कर उभरेगी।
ह.भ. : विचारधारा को क़लम के लिये कितना ज़रूरी मानते हैं?
ते.श. : अख़बार में कॉलम लिखने के लिए किसी राजनीतिक विचारधारा की आवश्यकता हो सकती है, किन्तु साहित्य अलग किस्म की विधा है। इसमें जुनून ज़रूरी है। विचारधारा लेखक को सीमित करती है। विचारधारा से अलग विचारों की तरफ़ जाने से रोकती है। इससे लेखन में दोहराव बनने का ख़तरा रहता है। यदि हर लेखक किसान, मज़दूर और भ्रष्टाचार के बारे में ही लिखता रहेगा तो लेखन में नवीनता नहीं बचेगी। एक मज़ेदार स्थिति यह भी है कि आप रोज़ा-नमाज़ करने के बावजूद वामपन्थी लेखक और राजनीतिज्ञ हो सकते हैं किन्तु मन्दिर जाने वाला व्यक्ति वामपन्थी जमात का हिस्सा नहीं बन सकता। हिन्दी में शोध करके लिखने की प्रवृत्ति न के बराबर है। इसलिये भी लेखन में नवीनता मुश्किल से आती है। उस पर अगर विचारधारा लेखन पर हॉवी बनी रहेगी तो लेखन आम आदमी से दूर होता जाएगा। हम देख भी रहे हैं कि किसी ख़ास विचारधारा के कारण पाठक हिन्दी साहित्य से दूर होते चले गये हैं। विचारधारा वाली कविता तो लेखकों तक को समझ नहीं आती है; जबकि आज भी तुकान्त कविता (जिसमें विचार की कमी कभी भी नहीं थी, क्योंकि बिना विचार के साहित्य संभव नहीं है) की पंक्तियां स्वयंमेव होंठों पर आ जाती हैं।
ह.भ. : आप अपने लेखन पर किस का प्रभाव मानते हैं ?
ते.श. मेरे लेखन पर किसी लेखक विशेष का प्रभाव होगा, मैं ऐसा नहीं मानता। वैसे इन्सान के रूप में मुझ पर कई लोगों का प्रभाव है। मुझ पर सबसे पहला प्रभाव मेरे पिता (जिन्हें मैं बाउजी कहता था) का है। मैंने ईमानदारी उनसे ही सीखी है। मैं उन ही की तरह साफ़गोह हूं। मेरी यह आदत बहुत बार मुझे मुश्किलों में डाल देती है। अपनी मां से मैंने सीखा है कि पैसे की कमी कोई मायने नहीं रखती। यदि सूझ बूझ से घर चलाया जाए तो कम पैसों में भी गुज़ारा हो जाता है। मेरी मां ने हमें साफ़ सुथरा रहना सिखाया। जब मैं दसवीं में था तो एक सोशल एजुकेशन सेन्टर के इंचार्ज हुआ करते थे ईश्वर स्वरूप भटनागर। मेरे बाउजी का तबादला शोघी (शिमला के निकट) हो गया था, तब मैं एक वर्ष भटनागर साहब के घर रहा। उनके व्यक्तित्व से बहुत कुछ सीखने को मिला। वे चाहते थे कि मैं वकील बनूं। उनके जीवन से प्रभावित हो कर दो कहानियां लिखीं दंश और रिश्ते। फिर मेरे दोस्त हरदीप की बहन हरजीत का शायद मेरे व्यक्तित्व पर सबसे अधिक प्रभाव था। वे मुझ से चार वर्ष बड़ी थीं। लेकिन मेरे बाउजी समेत सभी उनको दीदी कह कर बुलाते थे। मेरी साहित्य में रूचि पैदा करने में सबसे बड़ा हाथ उन्हीं का था। एक समय ऐसा भी था जब मैं उनके बिना जीने के बारे में सोच ही नहीं सकता था। उनका विवाह भी मैंने स्वयं अख़बार में इश्तहार दे कर करवाया था। कॉलेज में मेरे लेक्चरर श्री श्याम मोहन ज़ुत्शी ने मुझे साहित्य की व्याख्या करनी सिखाई। मुझे बेहद प्यार करते थे। मेरी पहली हिन्दी कहानी प्रतिबिम्ब, उनके ही जीवन पर आधारित थी। इन्दु ने पहले मित्र के रूप में और फिर पत्नी के रूप में मुझे संवारा। मैं जीवन की बहुत सी बातों से अनभिज्ञ था। उसने मुझे बेहतर इन्सान एवं कहानीकार बनने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। मुझे दीप्ति और मयंक जैसे दो प्यारे से बच्चे दिये। यहां लन्दन में आदरणीय ज़कीया ज़ुबैरी जी ने मुझे आम आदमी से जुड़ना सिखाया और हिन्दी एवं उर्दू साहित्य में पैदा हुई नकली दूरियों को पाटने की अपनी मुहिम में मुझे अपने साथ जोड़ा। उन्होंने मेरे साहित्य को उर्दू जगत के पाठकों तक अनुवाद के ज़रिये पहुंचाया। वैसे मित्रों की तो लम्बी सूची है। किन्तु इन लोगों का मेरे व्यक्तित्व पर गहरा असर माना जा सकता है।
ह.भ. : आप क्यों लिखते हैं?
ते.श. : मैं लिखता हूं क्योंकि मुझे महसूस होता है कि मेरे पास कहने के लिये कुछ है और मैं अपने विचार पाठकों के साथ बांटना चाहता हूं। मैं एक संवेदनशील व्यक्ति हूं। हर घटना और विचार को अपने कोण से देख एवं महसूस कर सकता हूं। कनिष्क विमान दुर्घटना को केवल दुर्घटना मान कर 329 लोगों की मृत्यु पर केवल शोक प्रकट करके चुप नहीं बैठ जाना चाहता। मैं इस घटना के पीछे की मारक स्थितियों को देखने की कुव्वत रखता हूं। मैंने अपनी कहानी काला सागर में दुर्घटना में मारे गये यात्रियों एवं कर्मीदल के सदस्यों के परिवार के सदस्यों की अमानवीय सोच को बेनक़ाब करने का प्रयास किया है। हर व्यक्ति उस हवाई हादसे से क्या फ़ायदा उठाने का प्रयास कर रहा है। मेरे भीतर का लेखक यह जानने को बेचैन था। रिश्तों की गरमाहट किस तरह अर्थ से संचालित होने लगी है, यह देख कर बहुत से विचार मेरे दिमाग़ में कुलबुलाने लगे। मैं मानवीय रिश्तों में आई गिरावट को काग़ज़ पर उतारने के लिये मजबूर था। मैं अपने आपको हमेशा हारे हुए व्यक्ति के निकट पाता हूं। मैं जीतने वाले के साथ तालियां नहीं बजा पाता। वह हारा हुआ व्यक्ति नारी भी हो सकती है, ग़रीब भी, दलित भी और मध्यवर्गीय भी। मेरे हिसाब से एक बहुत अमीर व्यक्ति भी हारा हुआ व्यक्ति हो सकता है। ज़रूरत है एक सही लेखकीय नज़रिये की। मैं केवल अपने आप को ख़ुश करने के लिये नहीं लिखता। मेरी हार्दिक इच्छा यही होती है कि मेरा लिखा हर शब्द मेरे पाठकों तक पहुंचे। मेरा लिखा यदि पाठक, विद्यार्थी, आलोचक पढ़ते हैं तो मुझे अच्छा लगता है। मेरे लिये पाठकीय प्रतिक्रिया बहुत मायने रखती है।
ह.भ. : आप कैसे लिखते हैं। रचना-प्रक्रिया क्या है? गर विषय मिला तो क्या तत्काल लिख डालते हैं या उसके लिए बही-खाते का सा व्यवहार करते हैं?
ते.श. : जहां तक कविता और ग़ज़ल का सवाल है, मैंने पाया है कि सायास नहीं लिख पाता। ऐसा नहीं होता कि कोई विषय तय करके उस पर कविता या ग़ज़ल लिख दी जाए। कभी कभी तो एक दिन में पन्द्रह बीस शेर अपने आप लिखे जाते हैं। जबकि कई बार महीनों गुज़र जाने के बाद भी कविता की एक पंक्ति भी नहीं लिख पाता। यह सच है कि जिस विषय पर गहराई से विचार चल रहा होता है, वे स्वयं अपने आपको लिखवा लेते हैं। मैं विदेश में बसे लेखकों को हमेशा कहता हूं कि अपने लेखन में अपने अपनाए हुए देश के सरोकारों को स्थान दें ताकि हमारा साहित्य भारत में रचे जा रहे साहित्य से भिन्न बन सके। मैं अपनी ग़ज़लों और कविताओं में इस बात का ख़्याल रखता हूं। मुझे लंदन की पतझड़ में कविता दिखाई देती है तो ब्रिटेन कहता सुनाई देता है, “जो तुम न मानो मुझे अपना, हक़ तुम्हारा है ध् यहां जो आ गया इक बार, बस हमारा है ।”
वहीं कहानी लेखन एकदम अलग है। यहां विचार, कथ्य, शिल्प सभी मिलकर एक नई रचना को जन्म देते हैं। मैं वर्ड्सवर्थ के कविता के सिद्धान्त को अपने समग्र लेखन पर लागू करता हूं। जब वह कहता है कि, “Poetry is but a spontaneous overflow of powerful feelings, recollected in tranquillity.” मैं उससे पूरी तरह सहमत हो जाता हूं। यहां महत्वपूर्ण केवल स्पॉन्टेनियस ओवरफ़्लो नहीं है बल्कि रिक्लेक्टिड इन ट्रेंक्विलिटी है। जब तक घटना से दूरी नहीं बनेगी तब तक घटना कहानी नहीं बनेगी। मैं विषय को अपने दिमाग़ में पकने देता हूं। पहले कहानी दिमाग़ में लिखी जाती है फिर पन्नों पर उतरती है। मज़ेदार बात यह भी है कि जब कहानी पन्नों पर उतर रही होती है, यह वो कहानी नहीं होती जो कि दिमाग़ में रची गई थी। यह कहानी अपना रूप स्वयं तय करती चलती है। स्थितियों, चरित्रों और परिवेश को कहानी अपने भीतर समेटती जाती है। मैं कभी अपने चरित्रों पर अपनी भाषा नहीं थोपता और न ही उनसे अपनी भाषा को प्रभावित होने देता हूं। मेरे चरित्र बंबइया हिन्दी भी बोल लेते हैं और पंजाबी या दक्षिण-भारतीय लहजा भी अख़्तियार कर लेते हैं। बेघर आंखें में तो मराठी और गुजराती का इस्तेमाल भी हुआ है। मेरा प्रयास यह रहता है कि चरित्रों को खुली छूट दूं और उनकी सोच पर अपनी विचारधारा का दबाव न डालूं। शायद इसीलिये मैं अपने लेखन को भाषणबाज़ी बनाने से बचा पाता हूं। मैंने कहानियां एक बैठक में भी पूरी की हैं; तीन चार दिन से एक सप्ताह में भी पूरी की हैं। वहीं कुछ कहानियां ऐसी भी हैं जो तीन चार साल से आधी अधूरी रखी हैं, अभी तक पूरी नहीं हो पाई हैं। दरअसल मेरी अधिकतर कहानियां विदेशों में ही लिखी गईं। जब एअर इण्डिया में नौकरी करता था तो विदेशों के होटलों में रह कर और अब पिछले दस वर्षों से ब्रिटेन में बसने के बाद लन्दन में।
ह.भ. : आप विचारधारा के दबाव को महत्वपूर्ण मानते हैं या जीवन को? मार्क्स के इस कथन को आप किस रूप में लेते हैं कि विचारधारा फ़ॉल्स कान्शियसनेस है जबकि जीवन ट्रू कान्शियसनेस है ?
ते.श. : विचारधारा जीवन के लिए है, साहित्य के लिए है, किन्तु जीवन और साहित्य विचारधारा के लिये नहीं हैं। जिस प्रकार हम भोजन करके पेट की भूख शान्त करते हैं, विचारधारा हमारी दिमाग़ी भूख को शान्त करती है, हमारी ज़िन्दगी का स्वरूप तय करती है। जब हम किसी विचारधारा के दबाव में आकर लिखते हैं तो हम अपने आप को क़ैद कर लेते हैं और उससे बाहर नहीं सोचते। मैं जयनंदन की कहानियां पसन्द करता था किन्तु उनकी कहानियों के शीर्षक तक सीमित होते जा रहे हैं। बाज़ारवाद, भ्रष्टाचार, मज़दूर जैसे थीम उनकी कहानियों में बार बार उभरते रहते हैं। साहित्य इस विचारधारा के बाहर भी होता है। विचारधारा यदि हमें जीवन का लुत्फ़ उठाने से रोके; ज़िन्दगी की तारीफ़ न करने दे; हर चीज़ में बस कमियां ढूंढना ही सिखाए तो मैं यही कहूंगा कि ऐसी विचारधारा का कोई महत्व नहीं है। नरेन्द्र कोहली ने महाभारत और रामायण न भी लिखी होती तो भी वे एक अच्छे कहानीकार, व्यंग्यकार, उपन्यासकार के रूप में स्थापित हो सकते थे। किन्तु एक ख़ास विचारधारा के कारण वे केवल रामायण और महाभारत के लेखक बन कर रह गए हैं। उनका नाम हिन्दी के महत्वपूर्ण लेखकों की सूचि में शामिल नहीं किया जाता। अच्छा लेखक विचारधारा का मोहताज नहीं होता। साहित्य महसूस करने की चीज़ है। साहित्य किसी राजनीतिक या धार्मिक विचारधारा का पैम्फ़लेट नहीं है।
ह.भ. : लिखने के लिये लेखक संगठनों की अपरिहार्यता के हिमायती हैं ?
ते.श. : लिखने के लिये किसी संगठन की आवश्यकता नहीं होती। जैसे पायलट बनने, मज़दूर बनने, क्लर्क बनने के लिये किसी संगठन की आवश्यकता नहीं होती। हां लेखक बनने के बाद किसी संगठन का सदस्य बना जा सकता है। जैसे फ़िल्मी लेखकों का एक संगठन है फ़िल्म राइटर्स एसोसिएशन जो अपने सदस्यों के हितों की देखभाल करने का प्रयास करता है। यदि संगठन लेखक के लेखन को प्रभावित करने लगता है, तो मैं उस संगठन का विरोध करूंगा। संगठन का काम लेखकों के हित में काम करने तक सीमित होना चाहिये। हां यह हो सकता है कि संगठन लेखकों से अपने नियमों के पालन की ताकीद कर सके। किन्तु हिन्दी का कोई भी लेखक किसी संगठन के कारण महान् नहीं बन पाया है। केवल प्रगतिशील लेखक संघ का सदस्य होने से किसी का साहित्य प्रगतिशील नहीं बन जाता। लेखक जो भीतर से महसूस करता है, उसका लेखन वैसा ही होता है।
ह.भ. : पुरस्कार की हाय-तौबा क्या आपके दिल को सुकून देती है? आप ख़ुद एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मान के वली हैं; पुरस्कार से रचनात्मकता का दिल ठण्डा होता है किसी हद तक : या कि हमें यश की भंवर में डाल देता है और हम उसी में डूबते चले जाते हैं?
ते.श. : हरि भाई, देखिये हर चीज़ का एक तो होता है वैचारिक रूप और दूसरा होता है उसका असली स्वरूप। दोनों में अन्तर होता है। दहेज एक विचार के रूप में जब शुरू हुआ होगा तो बहुत अच्छा लगता होगा कि बड़े लोग मिल कर नये वर वधु को जीवन शुरू करने के लिये रोज़मर्रा के इस्तेमाल की चीज़ें लेकर देदें ताकि उन्हें अपना जीवन आरम्भ करने में कठिनाई का सामना न करना पड़े। ठीक जैसे एक तरफ़ मार्क्स की थियोरी है और दूसरी थी वामपन्थी देशों की सरकारें - जिन्होंने अपने नियम ख़ुद बना लिये थे जिनका मार्क्स से कुछ लेना देना नहीं था। इसी प्रकार पुरस्कार और सम्मान भी सिद्धान्त रूप से बहुत ख़ूबसूरत विचार कहे जा सकते हैं। किन्तु फिर इसमें घुसपैठ करते हैं राजनीति, विचारधारा, जान पहचान आदि आदि। यानि कि पुरस्कारों की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगने शुरू हो जाते हैं। देखिये बात यह है कि हर लेखक साहित्य अकादमी को कुछ ख़ास नामों का ग़ुलाम घोषित करने से नहीं चूकता किन्तु जब उसे यह पुरस्कार मिलता है तो ख़ुशी ख़ुशी उसे स्वीकार कर लेता है। आपने ठीक कहा कि हम लंदन के हाउस ऑफ़ लार्ड्स में प्रतिवर्ष अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान का आयोजन करते हैं। हमारी संस्था कथा यू.के. न तो लेखक के क़द से आतंकित होती है; न किसी बिन-मांगी सिफ़ारिश की परवाह करती है और न ही आलोचना से डरती है। हम अपने अपेक्षा.त युवा ( ! ) निर्णायकों के नाम घोषित नहीं करते किन्तु उनका काम सबको दिखाई देता है। हमें देख कर प्रसन्नता होती है कि लंदन का बुकर पुरस्कार किसी युवा लेखक के पहले उपन्यास को सम्मानित करने से नहीं डरता। हमने भी अपने में रचना की गुणवत्ता का सीधा सा मानदण्ड अपनाते हुए अपने इतने छोटे कार्यकाल में डर हमारी जेबों में व मैं बोरीशाइल्ला को सम्मानित किया जो कि अपने लेखकों के पहले उपन्यास हैं। यदि सम्मान एवं पुरस्कार लेखक के स्थान पर लेखन को मिलने लगे, तो लोगों का विश्वास पुरस्कारों में बढ़ने लगेगा।
ह.भ. : आपने अब तक जो लिखा वह असूदगी देता है क्या ?
ते.श. : सच्ची बात तो यह है कि हर रचना के पूरी होने पर एक अहसास होता है कि बहुत ख़ूबसूरत रचना रची गई है। किन्तु जल्दी ही अपने भीतर का आलोचक कहता है - कसर रही, कसर रही। काला सागर कहानी शायद 1986 या 1987 में लिखी थी। जो बाद में 1990 में संग्रह में शामिल हुई। आप यकीन मानिये कि दो वर्ष पहले जब पूर्णिमा जी को उनकी वेबसाईट अभिव्यक्ति के लिये यह कहानी भेजी तो फिर से उस पर काम किया। यानि कि भीतर का लेखक हमेशा ही यह मान कर चलता है कि कोई भी रचना अंतिम सत्य नहीं है और रचना में बेहतरी लाने की संभावना वर्षों बाद भी बनी रहती है। अपनी पहली अंग्रेज़ी पुस्तक के प्रकाशन के 31 वर्ष पश्चात और पहली हिन्दी कहानी छपने के 28 वर्ष बाद अजित राय एवं गीताश्री की मित्र जोड़ी ने नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेन्टर में जब मेरा कहानी पाठ रखा तो उसमें राजेन्द्र यादव, अशोक वाजपेयी, कृष्ण बलदेव वैद, कुंवर नारायण, असग़र वजाहत, नासिरा शर्मा, ममता कालिया, पद्मा सचदेव, उषा महाजन, प्रमोद कुमार तिवारी, विकास नारायण राय जैसी हस्तियों के सामने कहानी सुनाने का अद्भुत आनन्द महसूस किया। जब सभी ने मुक्तकण्ठ से कहानी क़ब्र का मुनाफ़ा की तारीफ़ की तो पहली बार महसूस हुआ कि मेरी तीस साला मेहनत को सराहा जा रहा है। मुझ पर एक अतिरिक्त ज़िम्मेदारी आन पड़ी है कि अब उससे कमतर रचना नहीं लिखनी है।
ह.भ. : भारत से आप लन्दन शिफ़्ट हुए, लेखन में उसका कोई फ़ायदा ?
ते.श. : भारत से लन्दन आने से पहले मेरे तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके थे। मेरे कहानी संग्रह ढिबरी टाइट को महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका था। कुछ लोग तेजेन्द्र शर्मा के कहानीकार रूप से परिचित हो चुके थे। मेरी कहानियों के थीम एवं कैनवस अन्य हिन्दी कहानीकारों से भिन्न थे। काला सागर, ढिबरी टाइट, चरमराहट, देह की कीमत जैसी कहानियां प्रकाशित हो चुकी थीं। उड़ान कहानी को देवेश ठाकुर, हत्यारा कहानी को महीप सिंह और काला सागर कहानी को पुष्पपाल सिंह अपनी श्रेष्ठ कहानियों के संकलनों में शामिल कर चुके थे। लन्दन शिफ़्ट होने के बाद मैंने प्रवासी जीवन को केवल दूर से देखना छोड़ अब महसूस करना शुरू कर दिया। मेरी कहानियों के थीम, ट्रीटमेंट और भाषा में बदलाव आने लगा। मैंने एक मुहिम शुरू की कि हिन्दी कथाकारों को अपने साहित्य में ब्रिटेन के सरोकार लाने होंगे। मैंने ब्रिटेन में बसे भारतीयों के जीवन को समझने का प्रयास किया। यहां के श्वेत लोगों से दोस्तियां शुरू कीं ताकि उनके जीवन को समझने का मौक़ा मिल सके। अंग्रेज़ के घर को भीतर से देखा। उनके दिल में झांकने की कोशिश की। अभिशप्त कहानी के माध्यम से एक ऐसे प्रवासी का जीवन दिखाने का प्रयास किया जो कि गुजरात के एक छोटे शहर से ब्रिटेन में बसने आता है। उसकी आंखों में एक सपना है - अपने परिवार के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने का सपना। उसके सपने किस तरह धराशाई होते हैं। फिर मेरी कलम से मुझे मार डाल बेटा, ये क्या हो गया!, कोख का किराया जैसी कहानियां निकलीं जो कि संपूर्ण रूप से ब्रिटेन की हिन्दी कहानियां कहलाने के योग्य हैं। जब ज़कीया ज़ुबैरी जी के पति सलीम अहमद ज़ुबैरी की जीवनी अंग्रेज़ी में लिखने का मौक़ा मिला तो ब्रिटेन के पाकिस्तानी मुसलमान परिवेश को जानने का अवसर मिला। इस अनुभव से क़ब्र का मुनाफ़ा, तरकीब, एक बार फिर होली कहानियां निकलीं। मैंने हमेशा महसूस किया था कि हिन्दी लेखक मुसलमान थीम और चरित्रों पर कहानी लिखने से परहेज़ करते हैं, या शायद डरते हैं। यह भी हो सकता है कि अनुभव की प्रमाणिकता का अभाव रहा हो। मैंने एक बार फिर होली कहानी अभिव्यक्ति की पूर्णिमा वर्मन के आग्रह पर लिखी। इस कहानी में मैंने एक किंवदन्ती को तोड़ने का प्रयास किया है। इस कहानी की नायिका एक भारतीय मुसलमान लड़की है। जिसे एक हिन्दू लड़के से प्यार के जुर्म में ज़बरदस्ती विवाह करके कराची भेज दिया जाता है। इस लड़की को पाकिस्तान में जाकर बसने में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इस लड़की का तक़िया क़लाम है - हमारे इण्डिया में तो ऐसा होता है। मैंने दिखाया है कि सभी मुसलमान एक से नहीं होते। वे पहले इन्सान होते हैं। मेरी कहानी पापा की सज़ा के सभी किरदार गोरे अंग्रेज़ हैं। छूता फिसलता जीवन और टेलिफ़ोन लाइन कुछ अलग ढंग से ब्रिटेन के जीवन पर टिप्पणी करती कहानियां हैं। वहीं बेघर आंखें ब्रिटेन में बसे एक भारतीय द्वारा मुंबई में अपने फ़्लैट को खाली करवाने की प्रक्रिया है। किन्तु इस प्रक्रिया से जुड़ी हैं उसकी दिवंगत पत्नी की यादें। इस तरह यह कहानी कई परतों में खुलती है। मुझे लगता है कि लन्दन में बसने के बाद से मेरे लेखन में पुख़्तापन और अधिक परिपक्वता आई है। और कहानियों में एक नया परिवेश भी आया है - रेलवे का परिवेश।
ह.भ. : लन्दन में आप क्या करते हैं ?
ते.श. : जब लन्दन आया था तो अनिश्चितता के बादल सिर पर मंडरा रहे थे। एअर इण्डिया की पक्की नौकरी छोड़ कर चला आया था जिसमें डॉलर में कमाता था और भारतीय रुपयों में ख़र्च करता था। यहां लंदन में कुछ पक्का नहीं था। तीन महीने बेकारी के देखे। फिर बीबीसी रेडियो सेवा में हिन्दी समाचार वाचक की नौकरी से शुरूआत की। यहां अचला शर्मा, ओंकारनाथ श्रीवास्तव, विजय राणा, शिवकान्त, ममता गुप्ता, भारतेन्दु विमल, सलमा ज़ैदी और नरेश कौशिक जैसे स्थापित रेडियो पत्रकारों के साथ काम करने का अवसर मिला। किन्तु मन को चैन नहीं था। कुछ नया करने की चाह। बस एक दिन रेलगाड़ी चलाने की धुन सवार हो गई। अर्ज़ी दे दी। चयन हो गया। और एक साल भर की ट्रेनिंग के बाद बन गया ट्रेन ड्राइवर। एक नई दुनिया नया जीवन। रेलगाड़ी चलाते वक़्त ग़ज़लों के शेर बहुत दिमाग़ में आया करते थे। मैंने अपनी बहुत सी ग़ज़लें लन्दन के बार्किंग स्टेशन पर खड़ी गाड़ी में लिखी हैं। होता यूं था कि बार्किंग पर यात्रा समाप्त होती थी। वहां दस बारह मिनट के बाद यात्रा वापिस शुरू होती थी। बस उस दस बारह मिनट में ग़ज़ल के चन्द शेर हो जाते थे। अगस्त 2006 में एक हादसा हुआ जब मैं रेलगाड़ी से नीचे उतरते हुए लाइनों में गिर पड़ा। क़रीब दो वर्षों तक अपनी चोट का इलाज करवाता रहा। अब इसी साल यानि कि 2008 की जुलाई में मुझे वापिस काम शुरू करने का अवसर मिला है। अब मैं नये प्रशिक्षार्थियों को क्लास रूम में रेलगाड़ी चलाना सिखाता हूं। है न विचित्र किन्तु सत्य वाली स्थिति!
ह.भ. : आपकी दिनचर्या ? लन्दन में लिखने का माहौल है ?
ते.श. : लन्दन आने के बाद से मेरी दिनचर्या तयशुदा तरीक़े से कभी नहीं चली। पहले चार महीने तो नौकरी की तलाश में बीते। फिर बीबीसी रेडियो में काम लगा। फिर रेलवे में। जब रेलगाड़ी चलाता था तो शिफ़्टों में काम करता था। कभी सुबह चार बजे काम शुरू होता था तो कभी रात को एक बजे समाप्त होता था। इसलिये लिखने का कोई निश्चित समय नहीं था। हां लन्दन आने के बाद मैंने अपने आप को कम्प्यूटर पर हिन्दी में काम करना सिखाया। और यह कला केवल अपने तक सीमित नहीं रखी, ब्रिटेन के हर लेखक को सिखाना चाहा। इसके लिये मैंने लन्दन के अतिरिक्त अन्य शहरों में भी कम्प्यूटर पर हिन्दी में काम करने की कार्यशालाएं की। अब मैं अपनी रचना सीधी कम्प्यूटर पर टाइप करता हूं। लिखने का अभ्यास धीरे धीरे कम होता जा रहा है। शायद बाद मरने के मेरे काले किये काग़ज़ अब न मिलें। मेरे मरने के बाद मेरे कम्प्यूटर की हार्ड ड्राइव ही हाथ लगेगी। जहां तक माहौल का सवाल है यहां हर आदमी अपने अपने काम में लगा रहता है और साथ ही साथ लेखन करता रहता है। संस्था के स्तर पर गीतांजलि बहुभाषी समुदाय भारतीय भाषाओं के लेखन के लिये लगातार प्रयास करता रहा है। उन्होंने अपने सदस्यों के संकलन भी प्रकाशित किये हैं, जिनमें भारतीय भाषाओं की कविताओं को अंग्रेज़ी में अनुवाद करवा कर (एक तरफ़ भारतीय भाषा और सामने वाले पृष्ठ पर अंग्रेज़ी अनुवाद रहता है) छपवाया है। कथा यू.के. ने कथा-गोष्ठियों के माध्यम से एक माहौल पैदा किया है। वरना दूरियां और व्यस्तता माहौल पैदा करने में खासी बड़ी बाधा साबित होते हैं।
ब्रिटेन में हिन्दी लेखन प्रवासियों की पहली पीढ़ी ही करती है। उनमें कुछ पिचहत्तर से ऊपर हैं कुछ पैंसठ से। जो चालीस से ऊपर वाली पीढ़ी है वो भी पहली ही पीढ़ी है। पुरानी पीढ़ी के अधिकतर लोग इंटरनेट से दोस्ती नहीं बना पाए। पत्रिकाएं आसानी से मिलती नहीं। भारत से लाद कर लाने वाल घरेलू सामान इतना होता है कि पुस्तकें अंतिम अनिवार्यता की सूचि में आती हैं। इसलिये हमारे यहां के अधिकतर लेखन हिन्दी के नये रचे जा रहे साहित्य की जानकारी नहीं पैदा कर पाते। जो लेखक जैसा भी लिखता है, उसे महसूस होता है कि वही श्रेष्ठ साहित्य है। यहां भी गीतांजलि समुदाय ने एक महत्वपूर्ण काम किया है कि रवीन्द्र कालिया एवं ममता कालिया को बरमिंघम में बुलवा कर कहानी कार्यशाला करवाई और कुंवर बेचैन को बुलवा कर कविता कार्यशाला करवाई। जिससे स्थानीय लेखकों को भारत में लिखे जा रहे साहित्य की पहचान हो सके। कहते हैं न राह कठिन है डगर पनघट की। बस कुछ कुछ वैसी ही हालत है। भारत की ही तरह हमारे लेखक आपस में एक दूसरे का साहित्य भी नहीं पढ़ते। और हमने भी भारत से सीखा है कि हिन्दी की पुस्तकों पर पैसा व्यर्थ नहीं करना चाहिये। इसलिये हम एक दूसरे की किताबें ख़रीदते नहीं!
ह.भ. : आप विषय-वस्तु में तात्कालिकता के हिमायती हैं या .........में ऐतिहासिक क्रम के ?
ते.श. : किसी भी घटना पर तत्काल लेखन आम तौर पर चिर-स्थाई नहीं बन पाता। समाचार की ही तरह बासी हो जाता है। सुनामी पर आई कविताओं की बाढ़ में से कितनी महत्वपूर्ण बन पाई हैं? फ़िल्मों में यह काम आई. एस जौहर किया करते थे। इधर घटना हुई कि उनकी फ़िल्म फ़्लोर पर गई। ठीक उसी तरह 9/11 पर भी कविताओं का एक लम्बा सा सिलसिला चल निकला। बहुत से लोगों ने तो पूरे पूरे संकलन ही प्रकाशित कर दिये। तात्कालिकता वर्ड्सवर्थ के सिद्धान्त में से रेक्लेक्टिड इन ट्रैन्कविल्टी को अनदेखा कर देती है। मैंने भी कैंसर पर कहानियां लिखी हैं; विमान दुर्घटना और बाबरी मस्जिद पर कहानी लिखी है। किन्तु तभी लिखी है जब उन घटनाओं से एक तटस्थ दूरी बन गई। साहित्य भावनाओं की उल्टी करना नहीं है। साहित्य किसी भी घटना को एक परिप्रेक्ष्य में समझने का मौक़ा देता है। विचारों की जुगाली अच्छे साहित्य की पहली अनिवार्य शर्त है।
ह.भ. : लंदन में रहते हुए नोबेल पुरस्कार विजेताओं से कोई रचनात्मक भिड़ंत हुई क्या ?
ते.श. : यह सवाल ठीक वैसा ही है जैसे कि कोई किसी मुंबई निवासी से पूछे कि “भाई मुंबई में रहते हो, कभी फ़िल्मी सितारों से मुलाक़ात होती है क्या”? या फिर दिल्ली वाले से पूछ बैठें कि क्यों भैया, राजनेता से तो मुलाक़ात हो ही जाती होगी। वहां तो बुकर अवार्ड वालों को मिलने के लिये भी उनके एजेण्ट के माध्यम से संपर्क करना पड़ता है। हमारी स्थिति वहां ठीक वैसी ही है जैसी कि क्षेत्रीय फ़िल्मों के कलाकारों की हिन्दी सिनेमा के मुख्यधारा के हीरो लोगों के सामने होती है। अंग्रेज़ी के स्थापित लेखक, कलाकार या फिर मीडियाकर्मियों से मुलाक़ात कोई आसान बात नहीं है। देखिये हिन्दी का लेखक एक विदेशी भाषा में विदेशी सरोकारों की कहानियां कहता है। उसे उसके अपनाए देश के स्थानीय लेखक तो जानते तक नहीं। अंग्रेज़ी लेखकों की बैठक आम तौर पर किसी पब या कैफ़े में रखी जाती है जहां हर प्रतिभागी अपनी कॉफ़ी ख़ुद अपने पैसों से ख़रीदता है। या फिर उस गोष्ठी में शामिल होने के लिये पांच या दस पाउण्ड देने पड़ते हैं। हिन्दी वाला चक्कर नहीं कि आप पहले तो लोगों को आने के लिये मिन्नत करे; फिर उन्हें भोजन भी करवाएं फिर भी अगला या तो आए नहीं और आए तो आप पर हज़ार अहसान जताए। नोबल पुरस्कार विजेता लेखकों की एक अलग दुनियां है। जिस दिन किसी से मुलाक़ात हो जाएगी आप सबसे ज़रूर चर्चा करूंगा।
ह.भ. : फ़िल्म - नाटक में रुचि ?
ते.श. : मुझे फ़िल्म और नाटक में ठीक उतनी ही रुचि है जितनी कि साहित्य में। मैं न तो उस साहित्य को समझ पाता हूं जो कि स्वभाव से एलिटिस्ट हो और न ही वो आहिस्ता आहिस्ता घिसटता सिनेमा पसन्द कर पाता हूं। मेरी रुची मुख्यधारा के सिनेमा में है जिसे की बॉलीवुड सिनेमा कहा जाता है। हिन्दी सिनेमा में हमेशा से ही अच्छी फ़िल्में भी बनती हैं और कमज़ोर फ़िल्में भी। एक समय था जब शांताराम, नितिन बोस, महबूब ख़ान, सोहराब मोदी, जैसे लोग महत्वपूर्ण फ़िल्में बनाते थे। फिर राज कपूर, गुरूदत्त, बी.आर. चोपड़ा जैसे निर्देशकों का ज़माना आया। बिमल राय, ऋषिकेश मुखर्जी, शशधर मुखर्जी, गुलज़ार, बासु चटर्जी, ने फ़िल्मों को नये अर्थ दिये। आजकल भी जो फ़िल्में बन रही हैं उनमें ब्लैक, चीनी कम, निःशब्द, लगान, तारे ज़मीन पर, हल्ला बोल, धर्म, आदि फ़िल्में हमें आश्वस्त करती हैं कि मुख्यधारा का हिन्दी सिनेमा समय के साथ साथ मैच्योर हो रहा है। हमारे यहां अमिताभ बच्चन, संजीव कुमार, बलराज साहनी, नसीरुद्दीन शाह, पंकज कपूर और ओम पुरी जैसे महान कलाकारों की फ़िल्में हैं। मैं हिन्दी फ़िल्मी गीतों को किसी भी महान हिन्दी कविता से कमतर नहीं समझता। शैलेन्द्र, साहिर, शकील, कैफ़ी आज़मी, भरत व्यास, मजरूह, हसरत, आनन्द बख़्शी, जावेद अख़्तर, निदा फ़ाज़ली और गुलज़ार ने हमें बहुत उच्च-स्तरीय फ़िल्मी गीत दिये हैं। जब मैं लन्दन से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका पुरवाई का संपादन कर रहा था, तो मैंने एक अंक विशेष तौर पर निकाला था - हिन्दी साहित्य और हिन्दी सिनेमा। मैंने उस विशेषांक में गुलशन नंदा पर एक छः पन्नों का लेख विशेष तौर पर लिखवाया था। उस विशेषांक में अपने संपादकीय में मैंने सवाल उठाया था कि हिन्दी साहित्य पर अच्छा हिन्दी सिनेमा क्यों नहीं बनता, जबकि बंगाली, पंजाबी, अंग्रेज़ी (साहित्य एवं फ़िल्मों), रूसी साहित्य पर सार्थक सिनेमा बार बार बनता है। और मेरा प्रिय विषय है हिन्दी फ़िल्मी गीत। मेरी निजी राय यह है कि जिस तरह हज़ारों साहित्यकारों में से चन्द एक साहित्यकार ही ऐसे हैं जो महत्वपूर्ण लेखन की रचना करते है; ठीक उसी तरह कुछ एक फ़िल्मी गीतकार ऐसे हैं जिन्होंने किसी भी तरह की हिन्दी कविता से बेहतर रचनाएं फ़िल्मों के माध्यम से दी हैं। उसे भी साहित्य का एक हिस्सा मानना चाहिये। यह एक अलग किस्म की विधा है। याद रहे फ़िल्मी गीतकार फ़िल्मों के बाहर भी कवि या शायर हैं, हालांकि उनकी फ़िल्मी रचनाएं अधिक लोकप्रिय हैं। वहीं साहित्य से जुड़े कवि एक भी फ़िल्मी गीत लिख पायेंगे, इसमें मुझे शक़ है। फ़िल्मी गीतों ने हमारे लोक गीतों को भुला दिया है। आज जन्म, विवाह, त्यौहार आदि सभी अवसरों के लिये फ़िल्मी गीत मौजूद हैं। क्या किसी ने राखी या होली के मौके पर किसी महान हिन्दी कवि की कोई रचना गाते हुए सुनी है? मुझे ऐसी फ़िल्मों में न तो रुचि है और न ही मेरे पास उनके लिये समय है जो संप्रेषण नहीं करतीं। मेरे लिये कहानी और स्क्रीनप्ले फ़िल्म के सबसे महत्वपूर्ण अंग हैं। फ़िल्म का जो महल बनता है उसकी नींव स्क्रीनप्ले और कहानी हैं। अच्छी कहानी का ख़राब स्क्रीनप्ले अच्छी फ़िल्म नहीं बनने देगा। सच तो यह है कि कमज़ोर कहानी और ख़राब स्क्रीनप्ले वाली फ़िल्म को अमिताभ बच्चन, दिलीप कुमार, नसीरुद्दीन शाह या ओम पुरी भी बचा नहीं सकते। अपने फ़िल्मी शौक़ के चलते अन्नु कपूर द्वारा बनाई गई फ़िल्म अभय में नाना पाटेकर, मुनमुनसेन और बेंजामिन गिलानी के साथ काम करने का अवसर मिला। इस फ़िल्म में मेरे पुत्र मयंक ने मुख्य बाल कलाकार की भूमिका निभाई थी।
नाटक का शौक़ बचपन में रामलीला के दिनों से है। पहली भूमिका बाल कृष्ण की निभाई थी। फिर अंगद का बचपन का चरित्र निभाया। नाटक हरिश्चन्द्र तारामती में उनके पुत्र रोहिताश्व का काम किया। फिर जैसे जैसे बड़ा होता गया तो तारामती, मन्थरा, और अन्ततः सीता के किरदार तक पहुंच गया। हमारी रामलीला में स्त्री पात्रों की भूमिका भी पुरुष ही निभाते थे। फिर आहिस्ता आहिस्ता यात्रा कॉलेज के मंच तक पहुंची। साथ ही साथ ऑल इण्डिया रेडियो में ड्रामा वॉयस बन गया। दिल्ली स्टेशन के महान् रेडियो निदेशकों के साथ काम किया जिन में सत्येन्द्र शरत, कुमुद नागर और दीनानाथ जी शामिल हैं। उसी काल में दिल्ली दूरदर्शन पर स्कूल टेलिविज़न के लिये अंग्रेज़ी कार्यक्रमों के लिये कलाकार के रूप में चुन लिया गया। फिर टेलिविज़न पर और फ़िल्मों में अभिनय के मौक़े मिले। मुंबई में मंच पर नाटकों में भाग लिया। शांति नाम के सीरियल में बहुत से एपिसोड लिखने का अवसर मिला। फिर लन्दन में आकर बीबीसी हिन्दी सेवा के नाटकों में अभिनय का मौक़ा मिला। यहां अहिन्दी-भाषी कलाकारों को लेकर एक दो घन्टे का नाटक हनीमून निर्देशित किया। साथ ही साथ अपनी ही कहानी अभिशप्त का नाट्य मंचन भी किया। मैं मूलतः एक कलाकार हूं। जब ग़ज़ल लिखता हूँ तो गुनगुना के लिखता हूँ। कहानीपाठ करता हूँ तो कहानी को एक चलचित्र की तरह पेश करने का प्रयास करता हूँ।
ह.भ. : जिस पेशे में हैं, उसके अनुशासन का आपकी लेखन-प्रक्रिया पर कोई सकारात्मक असर?
ते.श. : मेरे पेशे का मेरे लेखन पर पहले दिन से सकारात्मक असर ही रहा है। जब मैं एअर इण्डिया में फ़्लाइट परसर था, तो मेरे पेशे ने मेरा परिचय ऐसी दुनिया से करवाया जो आम हिन्दी लेखक की पहुंच से कहीं बाहर की चीज़ थी। इसी कारण मेरी कहानियों के थीम एकदम अलग किस्म के रहे। इस नौकरी में विदेश के होटलों में कई कई दिन ठहरने को मिलता था। इसलिये मेरी अधिकतर कहानियां विदेशी शहरों में ही लिखी गईं। परसर होने की वजह से ही विदेश के दौरे लगते थे और विदेश का अनुशासन मेरे जीवन में आया जो कि लेखन की निरंतरता का कारण भी बना। चीज़ों को, घटनाओं को देखने का नज़रिया भी बदला। लन्दन में बसने के बाद बीबीसी रेडियो में काम करने का मौक़ा मिला। रेडियो जर्निलज़्म ने सोच में एक नया मोड़ पैदा किया। सोच की परिपक्वता कुछ हद तक आगे बढ़ी। किन्तु वहां एक समस्या भी थी। क्योंकि सारा दिन समाचार अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद करता था। तो जैसे लिखने का सुख मिल जाता था। शायद यही कारण रहा होगा कि अचला शर्मा ने भी बीबीसी में काम शुरू करने के बाद कहानी लेखन पर जैसे विराम सा लगा दिया था। ओंकारनाथ श्रीवास्तव सरीखे कवि भी चुप्पी साध गये। अब शुरू हुआ मेरा नया दौर। मैंने लन्दन में रेलगाड़ी चलानी सीखी और ट्रेन-ड्राइवर बन गया। कभी सुबह चार बजे काम पर पहुंचना होता था तो कभी रात डेढ़ बजे काम ख़त्म होता। इस नई दुनिया में या तो सुबह मेरी अपनी होती, या फिर शाम। मेरा लेखन रेलगाड़ी की ही तरह पटरी पर आने लगा। एक विचित्र सी अनुभूति आपके साथ बांटना चाहूंगा। मेरी अधिकतर ग़ज़लों के शेर रेलगाड़ी चलाते चलाते दिमाग़ में आते। मैं अगले ब्रेक में उन शेरों को काग़ज़ पर उतार कर रख लेता। फिर घर पहुंचने के बाद कम्प्यूटर पर उन शेरों को पॉलिश करता। और ग़ज़ल पूरी हो जाती। मुझे ग़ज़ल का तकनीकी ज्ञान बिल्कुल नहीं है। मैं हमेशा गुनगुना कर लिखता है। जो मेरी गुनगुनाहट में सही बैठ जाता है, मैं मान लेता हूं कि वज़न में ही होगा। मैं मात्राएं नहीं गिन सकता। मेरी ग़ज़लें गायक को बिना कसरत किये गाने में मुश्किल नहीं होती। मैं इसे ही अपनी सफलता मान लेता हूं। मैंने अपनी अधिकतर ग़ज़लें लन्दन के बार्किंग स्टेशन पर उस समय लिखी हैं जब मैं गाड़ी की यात्रा समाप्त होने पर दूसरी तरफ़ से गाड़ी चलाने का उपक्रम शुरू करता था। वहां क़रीब दस से तेरह मिनट तक का समय मिलता था। कई बार तो इतनी देर में ग़ज़ल के पांच शेर तक हो गये। इस तरह मेरे लेखन में मेरे पेशे ने सकारात्मक भूमिका अदा की है।
ह.भ. : भारतीय हिन्दी कहानी की आज जो स्थिति है उस पर आप क्या सोचते हैं ?
ते.श. : हिन्दी कहानी आज एक बहुत सशक्त विधा के रूप में उभरी है। इस समय वरिष्ठ पीढ़ी, मध्यम पीढ़ी एवं नई पीढ़ी की लेखिकाएं और कहानीकार कहानियां लिख रहे हैं। और सभी लेखक महत्वपूर्ण कहानियां दे रहे हैं। एस.आर. हरनोट, उदय प्रकाश, अरुण प्रकाश, अवधेश प्रीत, जयनंदन, अनामिका आदि बहुत अच्छा लिख रहे हैं। युवा पीढ़ी के संजय कुन्दन, मनीषा कुलश्रेष्ठ, विमल चन्द्र पाण्डेय, मुहम्मद आरिफ़, नीलाक्षी सिंह, तरुण भटनागर, चन्दन पाण्डेय, प्रत्यक्षा और अल्पना मिश्र आदि महत्वपूर्ण कहानियां लिख रहे हैं। दरअसल मुझे आपकी कहानियां बहुत प्रभावित करती हैं। आपकी कहानियां छोटी छोटी होती हैं और उनका काल बहुत छोटा होता है - कुछ घन्टों का या ज़्यादा से ज़्यादा एक दिन का। आपकी कहानियों में दृष्यात्मकता कमाल की होती है। पूरी कहानी आंखों के सामने सजीव दिखाई देती है। आपकी कहानियों में किस्सागोई न होते हुए भी आपकी कहानियां रुचिकर होती हैं। हमारी कहानियों में एक समस्या है कि हम अभी भी शोधपरक कहानियां नहीं लिखते हैं। हमारी पीढ़ी एक मामले में बहुत भाग्यशाली है। हमारी पीढ़ी ने जितने बदलाव इन्सानी जीवन में देखे हैं, वे अचंभित कर देने वाले हैं. मैं उस गांवनुमा रेल्वे स्टेशन पर भी रहा हूं जहां रात को लैम्प या मोमबत्ती जलानी पड़ती थी. हमारी मां ने वर्षों कोयले की अंगीठी और मिट्टी के तेल का स्टोव जला कर खाना बनाया है. हमारी पीढ़ी ने बिजली से चलने वाली रेलगाड़ी भी देखी है, जम्बो जेट विमान और कान्कॉर्ड भी, हमारी जीवन काल में मनुष्य चांद पर कदम भी रख आया. हमारे ही सामने दिल बदलने का आपरेशन हुआ और बिना शल्य चिकित्सा के आंखों का इलाज. हमारी ही पीढ़ी ने कैसेट, वीडियो कैसेट, सी.डी., डी.वी.डी., एम.पी.3 इत्यादि एक के बाद एक देखे. हमने अपने सामने भारी भरकम फोटो-कॉपी मशीन से लेकर आज की रंगीन फैक्स मशीनों तक का सफर तय किया. हमारी पीढ़ी मोबाईल फोन एवं कम्प्यूटर क्रांति की गवाह है. हमारी पीढ़ी के लेखक के पास लिखने के इतने विविध विषय हैं कि हमारे पुराने लेखकों की आत्मा हैरान और परेशान होती होगी. वे दोबारा इस सदी में आकर लिखना चाहेंगे। यह सब बदलाव हमारे साहित्य में भी परिलक्षित होने चाहियें। दूसरे हमें दोहराव से बचना होगा। हम इतना अधिक बाज़ारवाद, पूंजीवाद, भ्रष्टाचार आदि आदि पर लिखते हैं कि घूम फिर कर वही वही लिखे जाते हैं। जीवन थ्री-डायमेन्शनल है ; और हमें केवल एक ही डायमेन्शन को नहीं पकड़े रहना चाहिये।
ह.भ. : कहानी के अतिरिक्त किस विधा में मन रमता है ?
ते.श. : ग़ज़ल कहने का प्रयास भी करता हूं और उसे सुनने पढ़ने में आनन्द की अनुभूति भी होती है। मुझे लगता है कि ग़ज़ल के एक शेर में जो कुछ कहा जा सकता है वो आज की आधुनिक कविता कई कई पन्नों में नहीं कह सकती। आज की कविता के मुक़ाबले ग़ज़ल बहुत दिनों तक याद भी रह जाती है। मैंने कविताएं भी लिखी हैं और ग़ज़लें भी। कुछ ऐसे विषय भी दिमाग़ में आते हैं जिन्हें कविता की सघनता की आवश्यकता होती है। उसे लेख या कहानी में नहीं पिरोया जा सकता। दुष्यन्त कुमार ने हमारे सामने एक बहुत ख़ूबसूरत सी राह खोली है जो हमें बताती है कि ग़ज़ल अब केवल रूमानी नहीं रह गई, आज हम ग़ज़ल के मीटर में समाज से जुड़ी हर बात कह पाते हैं। प्रवासी जीवन पर एक शेर कहा है - नदी की धार बहे आगे, मुड़ के न देखे / न समझो इसको भंवर, अब यही किनारा है ।
ह.भ. : प्रवासी शब्द क्या आपको ठीक लगता है ? प्रवासी लेखन का हिन्दी लेखन के समक्ष जो रुख़ है, उस पर राय?
मुझे प्रवासी साहित्य का अर्थ समझ में नहीं आता। ब्रिटेन, अमरीका, युरोप, खाड़ी, सुरीनाम, मॉरीशस आदि आदि में लिखा जाने वाला हिन्दी साहित्य भला एक ही शीर्षक के नीचे कैसे रखा जा सकता है? यदि किसी देश में रच जा रहे साहित्य में उस देश के सरोकार ही नहीं हैं तो वो साहित्य किस काम का? मज़ेदार बात यह है कि अंग्रेज़ी, जर्मन, फ़्रेंच, डच आदि भाषाओं में कहीं प्रवासी साहित्य नहीं है। फिर हिन्दी की ही यह मजबूरी क्यों है? मेरा अपना प्रयास है कि मेरा रचा हुआ साहित्य ब्रिटेन का हिन्दी साहित्य कहलाए। इसके लिये मैं अपने साहित्य् में ब्रिटेन की ज़िन्दगी दिखाता हूं, उसकी ऋतुओं, माहौल, दबावों को अपने साहित्य में चित्रित करता हूं। फिर वो चाहे कविता हो ग़ज़ल या फिर कहानी। मेरे लेख भी ब्रिटेन में बसे भारतीयों के सरोकारों को ले कर हैं। विदेश में बसे हिन्दी लेखकों की पहली समस्या है नॉस्टेलजिया। अधिकतर लेखक इससे बाहर नहीं आ पाते। उनके साहित्य में दिखाई देता भारत केवल उनके दिमाग़ में जीवित होता है। उस भारत का भारत में भी कोई अस्तित्व नहीं होता। फिर समस्या होती है प्रकाशन की। ब्रिटेन, अमरीका, कैनेडा, दुबई आदि से इक्का दुक्का पत्रिकाएं अवश्य प्रकाशित होती हैं किन्तु हिन्दी का पाठक वर्ग तो मुख्यतः भारत में ही है। हमें भारत के संपादक, आलोचक, पाठक गंभीरता से नहीं लेते। हमारी रचनाएं अधिकतर प्रवासी विशेषांकों की मोहताज होती हैं। हमें लेखन की मुख्यधारा का हिस्सा नहीं माना जाता। भारत के अधिकतर आलोचक एवं साहित्यकार बिना हमारा साहित्य पढ़े ही उस पर फ़तवे जारी कर देते हैं। हमारे अधिकतर लेखकों को अपनी पुस्तकें प्रकाशित करवाने के लिये प्रकाशकों को पैसे देने पड़ते हैं। मुझे अब भी लगता है कि समुद्र पार रचना संसार से पहले हमारे साहित्य को मुख्यधारा तक पहुंचाने के बारे में सोचा ही नहीं गया। आपने तो अमरीका, कनाडा, ब्रिटेन, युरोप, खाड़ी देशों की कहानियों के संकलन का स्वयं संपादन किया है आपने देखा है कि हमारा साहित्य अपनी एक अलग पहचान रखता है। भारत में एक समस्या यह भी है कि साहित्य को खेमों में बांट कर रखा गया है। या तो आप वामपन्थी हैं या फिर संघ से जुड़े हैं। यक़ीन मानिये विदेश में ऐसा कुछ नहीं है। हमारे पास भारतीय राजनीति के लिये समय ही नहीं है। हम लिखते हैं क्योंकि लिखना हमारी मजबूरी है। हम लिखे बिना रह ही नहीं सकते।
ह.भ. : राजेन्द्र यादव कविता को साहित्य का प्रदूषण मानते हैं, आप इसकी वकालत करेंगे ?
मेरा मानना है कि यदि आपको अपने किसी मुद्दे की वक़ालत करनी है तो आपको अपनी बात ज़रा ज़ोर से कहनी पड़ेगी। जैसे मैं स्वयं कहता हूं कि हिन्दी साहित्य का सबसे अधिक नुक़सान हिन्दी जगत के दो सबसे बड़े नामों ने किया है। पीढ़ी दर पीढ़ी साहित्यकार उन दोनों हस्तियों को ख़ुश करने के लिये लिखते रहे और पाठकों को अपने से दूर करते चले गये। देखिये आप भी कहेंगे कि तेजेन्द्र जी आपकी बात सच्ची होते हुए भी खासी कठोर है। वही बात यादव जी की कविता के बारे में है। यदि यादव जी कोमल सुर लगा कर कविता की आलोचना करते तो शायद किसी तक उनकी बात पहुंचती ही नहीं। उन्होंने पूरी आधुनिक विधा को प्रदूषण कह कर अपने ही नहीं बहुत से मनों की बात कह दी। दरअसल मुझे आजतक समझ नहीं आया कि आधुनिक कविता को कविता क्यों कहा जाता है। उसमें और गद्य में आख़िर फ़र्क क्या है। दरअसल आजके बहुत से कवियों की कविताएं तो निकृष्ट किस्म का गद्य कहा जा सकता है। मैंने एक बार मित्रवर मंगलेश डबराल से उनके दफ़्तर में ही यह सवाल कर लिया कि आख़िर उनकी कविताओं में प्रोज़ क्यों दिखाई देती है। उनका जवाब बहुत ही कमाल का था, “आप ही बताइये कि कविता में प्रोज़ क्यों न हो?” भाई बात बहुत सीधी सी है कविता केवल विचार मात्र नहीं है। कविता गद्य लेखन से अलग विधा है। कविता की कुछ मूलभूत शर्तें होती हैं। कविता के शब्द अलग होते हैं। किन्तु आजकल तो कविता ने फटा सा चोला धारण कर रखा है। हम पोलैण्ड और हंगरी की नक़ल कर रहे हैं। हम भूल जाते हैं कि अतुकांत कविता टी.एस. ईलियट, डब्लयु. बी. येट्स, निराला, भारती, बाबा नागार्जुन ने भी की है। इसकी शुरुआत तो शेक्सपीयर ने की थी। किन्तु वे सब मीटर में अतुकांत कविता करते थे जिसमें कवित्त होता था। केवल विचार कविता नहीं हो सकता। विचार के लिये लेख लिखे जाते हैं, निबन्ध लिखे जाते हैं। कविता में एक स्पॉन्टेनियटी होना ज़रूरी है। आज कविता वो लोग लिख रहे हैं जिनका कविता से कुछ लेना देना नहीं। साहित्य में मुख्य चीज़ है संप्रेषण। यदि आपकी कविता कम्यूनिकेट नहीं करती तो काहे की कविता है। आज का कवि कहता है कि वह अपने भीतर का सच खोज रहा है। उसे पाठक की परवाह नहीं है। इसीलिये पाठक उसकी परवाह नहीं करता। आज की कविता ने पहले तो मंच खो दिया जो कि बहुत ही शक्तिशाली औज़ार था कवि के हाथ में। और अब पाठक भी गंवा दिया। राजेन्द्र यादव के शब्दों को सतही तौर पर न पढ़ कर यदि हम उनकी तह तक जाएं तो लगेगा कि वे ग़लत नहीं कह रहे।
ह.भ. : लंदन की सामाजिक व्यवस्था से आप ख़ुश हैं ?
देखिये हमने यह बहुत सुना है कि विदेश में आप दूसरे दर्जे के नागरिक हो जाते हैं। फिर आप विदेश क्यों जाते हैं। मैं पंजाब में पैदा हुआ। मैं दूसरे दर्जे का नागरिक तो मद्रास, कलकत्ता और मुंबई में भी हो जाता हूं। बिहारियों को मुंबई से भगाने के बयान सुनने में आते रहते हैं। मेरे हिसाब से ब्रिटेन जैसी सामाजिक व्यवस्था संसार के किसी भी और देश में नहीं हो सकती। यहां आम आदमी को इन्सान समझा जाता है। ब्रिटेन एक वेलफ़ेयर देश है। यहां आम आदमी को अपने इलाज के लिये पैसे नहीं ख़रचने पड़ते। मेरे एक दोस्त मुंबई से एच.एस.एम.पी. वीज़ा ले कर लन्दन पहुंचे। उनके अनुसार उन्होंने इस वीज़ा के लिये अढ़ाई लाख भारतीय रुपये ख़र्च किये थे। यहां आकर उनको हार्ट अटैक हो गया। तुरन्त उनकी एन्जियोग्राफ़ी और एन्जियोप्लास्टी हो गई। सब मुफ़्त में। बोले यार वीज़ा के पैसे तो वसूल हो गये। ब्रिटेन में टुच्चा भ्रष्टाचार नहीं है। हर वो चीज़ जो मार्क्सवादी चाहते हैं कि आम आदमी को मिलनी चाहिये, वह यहां ब्रिटेन में मिलती है। ग़रीब को रहने के लिये घर मिलता है; बेरोज़गारी का भत्ता मिलता है; हर चीज़ पाने के लिये जो कतार लगती है उसमें अमीर ग़रीब सभी एक दूसरे के पीछे खड़े होते हैं; पहचान वाले लोग कतार फान्द कर आगे नहीं जा सकते; दुकानदार आपको एक पेंस भी गिन कर वापिस करता है, यह नहीं कहता कि छुट्टा नहीं है; रिश्वत दे कर ड्राइविंग लाइसेंस या और कोई भी यदि भ्रष्टाचार है तो बहुत ऊंचे स्तर पर हो सकता है - आम आदमी को उसका सामना नहीं करना पड़ता। लन्दन शायद संसार का सबसे बड़ा मल्टी-कल्चरल शहर है जहां पूरे विश्व के लोग आकर बसे हैं। विदेशी यहां प्रॉपर्टी ख़रीद सकते हैं। हर तरह के इन्सान के लिए अवसर हैं, यहां तक कि खेलों में भी अन्य देशों के खिलाड़ी यहां क्रिकेट और फ़ुटबाल की लीगों में हिस्सा ले कर पैसा कमा लेते हैं। यहां के लोगों में एक मूलभूत ईमानदारी है। यहां इन्सान को तब तक मासूम समझा जाता है जब तक कि साबित न हो जाए कि वह बेईमान है। वहीं यह भी सच है कि कुछ पुराने लोग अभी भी मौजूद हैं जो कि रंगभेद को मानते हैं। किन्तु क्या हमारे अपने भारत में रंगभेद मौजूद नहीं है? हमारे यहां तो काले लोगों का मज़ाक कितनी बेदर्दी से उड़ाया जाता है ! फिर हमारे यहां तो लोगों का क्षेत्रीय आधार पर भी मज़ाक उड़ाने का रिवाज़ है। ब्रिटेन में शारीरिक तौर पर किसी कमज़ोरी के शिकार लोगों के लिये हर सुविधा मुहैया करवाने का प्रयास किया जाता है। बसों, रेलगाड़ियों, दफ़्तरों आदि में विकलांगों के लिये विशेष सुविधाओं का प्रबन्ध किया जाता है। यहां तक कि कार-पार्किंग के लिये विकलांगों एवं बच्चों के साथ वाली माताओं के लिये स्थान आरक्षित रखा जाता है। विकलांग को कभी भी असहाय होने का अहसास नहीं दिलवाया जाता। काश विश्व के सभी देश इन परंपराओं को अपना पाएं।
ह.भ. : लेखन के लिये लन्दन क्या उपयुक्त जगह है जहां से आप आसमान में पहुंच सकते हैं ?
लन्दन विश्व व्यापार का केन्द्र है। लन्दन विश्व संस्कृति का भी केन्द्र है। साउथ बैंक में, टेम्स नदी के किनारे कला और संस्कृति का अथाह समुद्र देखा जा सकता है। हिन्दी के एकमात्र लेखक डा. सत्येन्द्र श्रीवास्तव ऐसे व्यक्ति हैं जो कि लन्दन के कला और संस्कृति के केन्द्रों के साथ दिल से जुड़े हैं। उन्होंने रिश्तों को एक दूरी से निभाना सीख लिया है। यदि किसी को आमन्त्रित भी करते हैं तो साउथ बैंक में ताकि बातचीत भी कला और संस्कृति के केन्द्र में हो सके। मैं उनका दिल से आदर करता हूं। सत्येन्द्र जी का कहना है कि जिस प्रकार वे बनारस के घाटों को अपने दिल में बसाए हैं ठीक उसी तरह लन्दन स्वयं उनकी आत्मा है। यदि एक मीरा है तो दूसरा राधा है। जिस देश में भारतीय मूल के नायपॉल, सलमान रश्दी और विक्रम सेठ जैसे लोग लेखन कर रहे हों और विश्व स्तर का लेखन कर रहे हों, उससे अधिक उपयुक्त जगह भला और कौन सी होगी ? लन्दन में लेखन का एक ख़ास लाभ यह भी है कि हम भारत की तरह किसी प्रकार के राजनीतिक दबाव या विचारधारा से प्रेरित हो कर साहित्य नहीं रचते। हम जो देखते और महसूस करते हैं, वैसा ही साहित्य रचते हैं। हिन्दी के लेखक भारत भर में भी पार्ट-टाइम लेखक हैं जो समय मिलने पर ही साहित्य रचना करते हैं। ठीक उसी तरह या तो लंदन के हिन्दी-लेखक सेवा निवृत लोग हैं - जैसे कि गौतम सचदेव, उषा राजे सक्सेना, प्राण शर्मा, उषा वर्मा, डा. कृष्ण कुमार आदि या फिर नौकरी-पेशा जो पार्ट-टाइम में लिख लेते हैं। और फिर शहरों की दूरियां बहुत ज़्यादा हैं और रेल के किराए अत्यधिक। यानि कि लन्दन से यॉर्क तक का वापसी का टिकट सत्तर पाउण्ड से अधिक का होता है (यदि रियायती टिकट मिल जाए तो)। साहित्य सेवा के लिये जेब से इतने पैसे ख़र्च पाना आसान नहीं होता। दूसरे हर लेखक अपने आप को सबसे बेहतरीन लेखक होने का मुग़ालता पाले बैठा है। हमारे कुछ लेखकों पर थीसिस और पेपर भी लिखे जा रहे हैं। इस कारण साहित्य के लिए अद्भुत माहौल होने के बावजूद हिन्दी साहित्य को उसका लाभ नहीं मिल पा रहा है। हिन्दी का लेखक न तो मुख्यधारा के जीवन से जुड़ पाता है और न ही यहां की समस्याओं को अपनी समस्या मान पाता है। माहौल उपलब्ध है, सबकुछ मौजूद है ज़रूरत है तो बस उसे इस्तेमाल करने की। मेरे जैसे व्यक्ति के लेखन में लन्दन के जीवन का ज़बरदस्त योगदान है। मैं यदि लन्दन में न बसने आता तो एक अद्भुत अनुभव संसार से वंचित रह जाता।
ह.भ. : आपके लेखन में परिवार वालों को दिलचस्पी है ?... किस तरह लेते हैं?
इस प्रश्न का उत्तर देना मेरे लिए बहुत आसान नहीं है। इसका उत्तर टुकड़ों टुकड़ों में देना होगा। मेरे बाऊजी का निधन 1993 में हो गया था। तब तक काला सागर कहानी संग्रह आ चुका था और ढिबरी टाइट कहानी प्रकाशित हो चुकी थी। बाऊजी मेरी कहानियां पढ़ कर सन्तुष्ट हो जाते थे कि बेटा उनके लेखन स्टाइल से प्रभावित न हो कर, अपना एक निजि स्टाइल बना रहा है। मेरी मां को जब मेरे लेखन पर बहुत लाड आता है तो वे कह उठती हैं, “काका, मैनूं तेरियां कहानियां बहुत चंगियां लगदियां नें। बस जिवें गुलशन नन्दा दे नॉवल होन्दे ने नां, ... बड़ियां इन्टरेस्टिंग होन्दियां ने तेरियां कहानियां। मेरी मां ने गुलशन नन्दा के तमाम उपन्यास पढ़े थे। उनकी साहित्य को आंकने का मुख्य मानदण्ड है साहित्य का रुचिकर होना। इन्दु जी ने तो मेरे लेखन को संवारा ही था। इसलिये उनकी रुचि तो सर्वविदित है। किन्तु वे मेरी बहुत कठोर आलोचक भी थीं। शायद इसीलिये मेरे लेखन में निखार भी आता गया। मेरी बेटी दीप्ति मेरी सभी कहानियां पढ़ती थी और उन पर अपनी बेबाक राय भी देती थी। किन्तु विवाह की ज़िम्मेदारियां, परिवार की देखभाल और बैंक की बड़ी अफ़सर होने के दबाव अब उसे समय ही नहीं देते कि वह मेरी कहानियां पढ़ने के लिए समय निकाल पाए। नैना, मेरी वर्तमान पत्नी, एक समय मेरे साहित्य की सबसे अधिक प्रतिबद्ध पाठक थी। उसने मेरी अधिकतर कहानियां प्रकाशन से पहले पढ़ी हैं और अपनी राय भी दी है। किन्तु कुछ समय से हम दोनों एक दूसरे के कामों में कम दख़ल देते हैं और उसका शिकार मेरे साहित्य भी हुआ है। मेरा छोटा पुत्र ऋत्विक हिन्दी समझ तो लेता है किन्तु पढ़ नहीं सकता। इसलिये उसे मेरे साहित्य का कोई ज्ञान ही नहीं है। दीप्ति और ऋत्विक के बीच है मयंक - यानि कि मेरा बड़ा पुत्र। वह ठीक इन्दु की ही तरह मेरे साहित्य की आलोचना भी करता है और विषय, कथ्य और चरित्र-चित्रण पर अपनी बेलाग राय भी देता है। किन्तु वह भी लगातार मेरा साहित्य पढ़ नहीं पाता है क्योंकि उसकी नौकरी उसे बहुत व्यस्त रखती है। कुल मिला कर मेरे परिवार को मेरे साहित्य लिखने से कोइ दिक्कत नहीं होती यदि समस्या खड़ी होती है तो वो है मेरे आयोजक रूप की। उनको लगता है कि मैं कथा यू.के. के कामों से इस क़दर जुड़ गया हूं कि उनका समय भी मैं हिन्दी को देने लगा हूं। इस सोच के कारण कभी कभी परेशानी हो जाती है।
ह.भ. : लंदन में जो कहानी या कविता लेखन हो रहा है, ध्यान खींचता है क्या ?
हरि भाई, जैसा मैंने पहले भी कहा है कि 1999 तक लन्दन के हिन्दी के वर्तमान लेखकों में से किसी एक का भी अपना निजी कहानी संकलन प्रकाशित नहीं हुआ था। हां, कहानियां कई लोग लिख रहे थे। किन्तु एक विधा के तौर पर कहानी बहुत लोकप्रिय नहीं थी। कथा यू.के. ने अपनी कथा-गोष्ठियों के माध्यम से कहानी विधा पर काम करना शुरू किया। आज स्थिति यह है कि पिछले नौ वर्षों में उषा राजे सक्सेना के तीन, दिव्या माथुर और महेन्द्र दवेसर के दो, गौतम सचदेव, शैल अग्रवाल, कादम्बरी मेहरा, उषा वर्मा के अपने कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। नरेश भारतीय, भारतेन्दु विमल एवं प्रतिभा डावर के अपने उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। हमारी मुहिम के चलते हमारे लेखकों की कहानियां अब ब्रिटेन के परिवेश और सरोकारों पर आधारित होने लगी हैं। इस प्रकार अभी कहानी विधा अपने पहले दशक में ही अपनी पहचान बनाने का प्रयास कर रही है। इसलिये हम यहां की कहानी की तुलना उदय प्रकाश या अखिलेश की कहानियों से नहीं करना चाहते ; किन्तु वहीं यह भी सच है कि हमारे लेखकों की कहानियों की एक अपनी पहचान उभर रही है। ब्रिटेन के लेखक हंस, कथादेश, नया ज्ञानोदय, वर्तमान साहित्य, साक्षात्कार, रचना समय, कथन जैसी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। इस लिहाज़ से देखा जाए तो ब्रिटेन में कहानी लेखन को लेकर निरुत्साहित होने की ज़रूरत बिल्कुल नहीं। मेरा अपना मानना है कि यदि बारह कहानियों के कहानी संग्रह में एक महत्वपूर्ण और दो अच्छी कहानियां सम्मिलित हैं तो कहानी संग्रह सफल है। और ऐसे लेखक भी हैं जिनके अभी तक कहानी संग्रह तो प्रकाशित नहीं हुए लेकिन जो छिटपुट कहानियां लगातार लिख रहे हैं।
जहां तक कविता का सवाल है ब्रिटेन में मोहन राणा उस प्रकार की कविता लिख रहे हैं जो कि आज की कविता कही जा सकती है ; जिस कविता की तुलना भारत के बड़े कवियों की कविताओं के साथ की जा सकती है। उनकी कविता आम पाठक से संप्रेषण नहीं करती केवल प्रबुद्ध लोगों को समझ आ सकती है। गौतम सचदेव और सत्येन्द्र श्रीवास्तव, डा. कृष्ण कुमार यहां के अन्य बड़े कवि हैं। अतुकांत कविता करने वाले कवियों की एक लम्बी सी सूचि है जिसमें दिव्या माथुर, उषा राजे सक्सेना, शैल अग्रवाल, उषा वर्मा, निखिल कौशिक, पद्मेश गुप्त शामिल हैं। अचला शर्मा की रेडियो नाटकों की दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कई लोग ग़ज़लें भी लिखते हैं। यानि कुल मिला कर स्थिति उत्साहवर्धक ही कही जा सकती है।
ह.भ. : इधर आप क्या लिख रहे हैं ?
मैंने पिछले वर्ष अंग्रेज़ी में एक जीवनी लिखी थी - सलीम अहमद ज़ुबैरी के जीवन पर। बहुत दिनों बाद अंग्रेज़ी में कुछ काम किया था। आजकल योजना चल रही है कि मैं अपना पहला उपन्यास अंग्रेज़ी में ही लिखूं। हो सकता है कि मैं अपनी ही किसी कहानी को आधार बना कर उपन्यास की शुरूआत कर दूं। योजना दिमाग़ में साफ़ होती जा रही है। अब बस उसे काग़ज़ पर उतारने की प्रक्रिया शुरू करनी है। लक्ष्य यह रख रहा हूं कि छः से नौ महीने के बीच उपन्यास तैयार हो जाना चाहिये। देखते हैं कहां तक अपनी सोच में सफल हो पाता हूं।
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साभार-
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