तेजेन्द्र शर्मा की कहानी - एक ही रंग

SHARE:

(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...

(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)

---

एक ही रंग

तेजेन्द्र शर्मा

सबके मुंह पर एक ही बात थी। सुबह, शाम हर व्यक्ति उस दीवार के विषय में ही चर्चा कर रहा था। आख़िर जयहिन्द स्कूल के अहाते की दीवार थी। जयहिन्द स्कूल - अंधा मुगल क्षेत्र का अग्रणी स्कूल। बातें दीवार की ही थीं।

'आख़िर यह दीवार क्यों उठाई जा रही है?'

'जब अब तक इसके बिना स्कूल चल रहा था तो अब इसकी ऐसी क्या आवश्यकता आन पड़ी है?'

'यह सरकार बजट तो घाटे के बनाती ही है, काम भी घाटे के ही करती है!'

'अच्छा भला स्कूल था, उसे जेल बनाया जा रहा है!'

'कभी किसी बात का सही पहलू भी सोचा करो। अब बच्चे स्कूल से भागकर आवारागर्दी करने से बच जाएंगे।'

'प्रिंसिपल का कितना हिस्सा होगा?'

'अरे यह काम करप्शन - मेरा मतलब कार्पोरेशन का है।'

'फिर तो एक बात साफ़ हो गई। ठेकेदारी और हेराफ़ेरी में तो चोली दामन का साथ है। ऊपर से नीचे तक माल बनेगा और बंटेगा।.......'

'दीवारें तो बंटवारे का ही काम करती हैं; चाहे बर्लिन की दीवार हो या दिलों की, काम तो उसका बांटना ही है।'

यानि कि जितने मुंह उतनी बातें। किंतु इन सब बातों से बेख़बर दीवार उठती ही गई। दीवार का अस्तित्व ना तो अध्यापकों को ही पसंद आया था और ना ही विद्यार्थियों को। सबको ही पहले वाले खुले वातावरण की आदत-सी पड़ गई थी। अध्यापक पहले तो कारर्पोरेशन को कोसते नहीं थकते थे।.......'स्कूल है या ओपन एयर थियेटर!' किंतु अब वही दीवार उन्हें जैसे काटने लगी थी।

किंतु एक व्यक्ति ऐसा भी था जो उस दीवार को देखकर मन ही मन कार्पोरेशन और प्रिंसिपल को दुआएं दे रहा था। उस दीवार को देखकर वह मन ही मन लड्डू बनाए जा रहा था। आंखों में एक अद्भुत चमक लिए उस दीवार में वह अपना भविष्य देख रहा था।

वह था सुदर्शन नाई!

वैसे पूंजी के नाम पर उसके पास दिखाने को कुछ विशेष नहीं था। एक पुरानी-सी कुर्सी - दुनिया की एकमात्र कुर्सी जिसे छोड़ने पर सभी चैन की सांस लेते थे। एक पुराना सा शीशा जो जगह-जगह से धुंधला पड़ चुका था और एक पुरानी सी संदूकची जिसमें उससे भी पुराने औज़ार रखे रहते। इन्हीं चीज़ों के सहारे वह किसी तरह अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचे जा रहा था।

माल तो ऊपर से नीचे तक बंट रहा था। उसने भी अपना चक्कर चला ही लिया। और फिर काम भी तो कोई बहुत बड़ा नहीं था। केवल एक मोड़ ही तो देना था। दीवार में कुछ ऐसे मोड़ दिलवा दिये कि वहां एक बिना किवाड़ की छोटी-सी दुकान दिखाई देने लगी।

दीवार पूरी होते ही उसने वहां सीमेंट की दो चादरें डलवा लीं और साथ ही एक दरवाज़ा भी लगवा लिया। अब वह एक अदद दुकान का मालिक था। अब तक उसके ग्राहकों को कांग्रेस और जनसंघ की बातें सुनने को मिलती थी। किंतु अब सुदर्शन नाई की सोच, बातचीत, जीवन केवल एक ही विषय पर आधारित था -दीवार। दीवार कैसे कटवाई; सीमेंट की शीट कहां से लाया; कौन से कबाड़िये से दरवाजा लिया।

'लालाजी, अब तो दलिद्र कट गये। हम भी दुकान वाले हो गये। सालों बीत गये थे जी पटरी पर बैठे.......आपसे क्या छुपा है, आप तो मेरे परमानेन्ट ग्राहक हैं.......बस जी दो पैसे जोड़ लूं इसको हेयर कटिंग सैलून बना दूंगा। ऐसे मौके की दुकान तो पगड़ी पर भी नहीं मिलेगी.......लालाजी ज़रा दीवारें तो देखिये.......ख़ास ओवरसियर से कह के सीमेंट भरवाया है.......चाहे बाकी की दीवार टूट जाए, पर मेरी दुकान को कुछ नहीं होगा...'

'ठीक है, ठीक है, सुदर्शन लाल, जरा ध्यान से; कहीं कट नहीं लग जाए।' लाला मुकंदलाल उकताए से बोले।

सुदर्शन लाल उनके वाक्य पूरे होने की प्रतीक्षा नहीं कर सका। उससे पहले ही लालाजी के पांव की जूती बन गया। घिघियाने लगा, 'आपके भरोसे दिन काट रहा हूं, लालाजी। ज़रा दया दृष्टि रखियेगा। कहीं कोई दुश्मनी ना निकाल ले।'

'क्यों किसी से वैर, विरोध हो गया है क्या?'

'नहीं लालाजी, भला मैं किसी से क्यों दुश्मनी मोल लूंगा। आप लोगों का आशीर्वाद बना रहे तो हम जैसे गरीबों के दिन भी आसानी से कट जायेंगे। हमारे भगवान तो बस आप ही हैं।'

सुदर्शनलाल का अंतिम वाक्य लाला मुकंदलाल को विशेष ही भा गया। उन्होंने खड़े-खड़े ही भगवान कृष्ण का विराट स्वरूप धारण कर लिया। ज्ञान के चक्षु खोले। मुकुंद गीता का उपदेश शुरु हो गया,' सुदर्शनलाल, तू चिंता छोड़ और बेफिक्र होकर यहां रह। आज के दौर में जिसने हाथ नहीं मारा, वह बेवकूफ़ है। हमारे सामने कितने ही शरीफ़ लोगों ने करोड़ों के घपले किये और आज भी ईमानदारी और समाज सेवा का लेबल लगाए बड़ी शान से कारों में घूमते हैं। स्साले.......! पैसा काला और कार सफेद!....... तुमने तो कुछ किया ही नहीं। यह दौलत ट्रांसपोर्ट वाला लक्ष्मीदास एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में मामूली क्लर्क था। आज उसी कंपनी का मालिक है। अब तू ही बता, इतना पैसा इसके पास कहां से आया। ईमानदारी से तो यह हो नहीं सकता। अपने मालिक की मौत के कुछ अर्से बाद ही उसकी पत्नी को धोखा देकर सब कुछ हड़प गया.......लक्ष्मीदास से चौधरी लक्ष्मीदास हो गया.......इलाके में दबदबा है, शान है! सब लोग अपने दुखड़े लेकर उसी के पास ही जाते हैं।.......हमें क्या भैया, जो जैसा करेगा वैसा भरेगा।' लाला मुकंदलाल ने ठण्डी सांस भरी।

लाला मुकंदलाल निकले ही थे कि चंदरभान जी आ बैठे। ग्राहक देखते ही सुदर्शनलाल की दीवार फिर खड़ी हो गई। वही सीमेंट शीट, वही दरवाज़ा, ''साबजी, जरा इधर भी .पा-दृष्टि रखियेगा। गरीब आदमी हूं। आप लोगों की हजामत करके पेट पालता हूं।''

चन्दरभान सामने लगे धुंधले शीशे में अपना चेहरा देखने का असफल प्रयत्न करते हुए बोले, 'भई, आजकल तो जिसकी लाठी उसकी भैंस का ज़माना आ गया है। अब वो अंग्रेज़ों का ज़माना तो है नहीं कि शेर और बकरी एक घाट पर पानी पियें। अगर कोई लाठी है तो उसे घुमाते रहो, दनदनाते रहो और चैन की बंसी बजाते रहो। वरना जब तक चलती है चलाते रहो।'

सुदर्शनलाल को उसकी बात कोई विशेष अच्छी नहीं लगी। कैंची से उनकी मूंछें ठीक करने लगा, 'वैसे तो इंदिरा कांग्रेस के चौधरी लक्ष्मीदास अपने खास आदमी हैं। पिछले दस साल से उनकी हजामत बना रहा हूं। कभी भी शिकायत का मौका उन्हें नहीं दिया। उन्होंने भरोसा दिलाया है कि कोई भी मुश्किल होगी तो संभाल लेंगे।

चौधरी लक्ष्मीदास का नाम चंदरभान जी के गले में बेर की गुठली की तरह फंस गया, 'जरा बच कर रहना। पिटा हुआ मोहरा है। पिछले चुनाव में चारों खाने चित्त गिरा था। हारा हुआ जुआरी और खोटा पैसा मुश्किल से ही साथ देते हैं।'

सुदर्शनलाल को चंदरभान की बेवक्त की रामायण कुछ भाई नहीं। उसके अंदर का 'नायक' तनकर खड़ा हो गया। जैसे महाभारत में भीष्म पितामह ने अपने सामने खड़े तुच्छ योध्दाओं की ओर हुंकार फेंकी हो, 'बाऊजी, भगवान का दिया खाते हैं। किसी के घर भीख मांगने नहीं जाते। यहां बैठा हूं अपने दम पर। किसी लाला या चौधरी के सहारे नहीं। दस साल हो गये यहीं बैठ कर लोगों की हजामत बनाते। यह दीवार तो कार्पोरेशन ने अब बनवा दी। मैं.......तो आप जानते हैं कब से यहीं हूं। यहां काम करते-करते कितनों के खोखे और कितनों के घर बुलडोज़रों की नजर होते देखे हैं।.......सच कहता हूं बाऊजी, कोई मेरी दुकान की तरफ आंख उठाकर देखे, उसकी तो मैं मां.......!' सुदर्शनलाल हांफने लगा था।

चंदरभान जी भी सुदर्शन लाल के नाटक का आनन्द लेने लगे। वैसे भी वे तो राजनीतिज्ञ थे। भांति-भांति के अदाकारों के अभिनय वे प्रतिदिन देखा करते थे। उन्होंने घड़ी देखी। समय उनके पास कम था। सुदर्शन लाल को टालते हुए बोले, 'ठीक है भई, हमें तो खुशी है कि तुम यहां टिके रहो। ठीक-ठाक आदमी हो, पुराने आदमी, सौ लिहाज शर्म! सुना नहीं नया नौ दिन, पुराना सौ दिन।'

समय ऊंट से भी कहीं अधिक अननुमेय होता है। एक बार ऊंट का तो संभवतः पता चल भी जाए कि वह कौन-सी करवट बैठेगा। किंतु समय कब करवट बदलेगा किसी को कुछ भी ज्ञान नहीं होता। समय के विषय में तो बड़े-बड़े ज्ञानी ध्यानी कुछ नहीं कह पाते। फिर सुदर्शन लाल तो सीधा-सादा नाई ही था।

समय ने करवट ली और सुदर्शन लाल की 'दीवारी दुकान' के समीप ही एक और खोखा कुकुरमुत्ते की तरह उभर आया। यह खोखा बाबूराम नाई का था। अभी कुछ ही दिन पहले नगर निगम वाले उसका खोखा गिरा गये थे। बाबूराम भी इसी इलाके में कई वर्षों र्से काम करता रहा है। उसका खोखा पहले आर्य समाज मंदिर के पिछवाड़े में था। हफ्ता तो वह नियमित रूप से दे रहा था, फिर भी निगम वालों को कभी-कभी तो अपना काम भी दिखाना होता है ना। सो कभी-कभी हफ्ता देने वाले भी उस चपेट में आ ही जाते हैं।

अब इसका क्या करें कि बाबूराम के हाथ में सुदर्शन लाल से कहीं अधिक सफ़ाई थी। अब क्योंकि बाबूराम का खोखा नया था तो उसने पैसे लगाकर शीशा भी नया लगवाया, कुर्सी भी माडर्न और सामान भी नया। सुदर्शन लाल की दुकान भी खोखा ही लगती थी और बाबूराम का खोखा भी सुंदर-सी दुकान लगता था। ग्राहकों का भी क्या दोष। उन्हें भी चमक-दमक वाली बाबूराम की 'खोखा सैलून' ही पसंद आने लगी। चंदरभान, लाला मुकंदलाल और चौधरी लक्ष्मीदास जैसे सुदर्शन लाल के पक्के ग्राहक भी कन्नी कतरा कर बाबूराम के यहां जाने लगे।

सुदर्शन लाल की दीन वाचक मुद्रा पर किसी को तरस नहीं आया, उसकी ख़ुशामद से कोई नहीं पसीजा। अब उसका काम ठण्डा पड़ने लगा। एक दिन चंदरभान जी वहां से गुज़रे तो सुदर्शन लाल ने जैसे उन्हें पकड़कर बैठा ही लिया, 'लालाजी, कोई नाराज़गी है? बहुत दिनों से दर्शन नहीं हुए आपके?'

'सुदर्शन लाल', चंदरभान दार्शनिक मुद्रा में पहुंच गये, 'बहुत दिन गुज़ार लिये सादगी में। अब तो सजावट और बनावट का जमाना है। बाबूराम की दुकान कभी देखी है, कितनी साफ़ सुथरी है। हर चीज कितनी सुंदर लगती है। तुम्हारे यहां क्या रखा है?-चूं-चूं करती चारपाई, कुर्सी है तो अब गिरी कि तब गिरी और उस पर तुम्हारा शीशा! .......नगद नारायण को हवा लगवाओ। ऊपर साथ तो कुछ ले जाओगे नहीं! .......ग्राहक वापिस लाने हैं तो बाबूराम से बेहतर दुकान सजाओ।'

सुदर्शन लाल के दिमाग क़ो यह बात जंच गई। निर्णय ले लिया कि अब तो दुकान को हर हाल में बेहतर बनाना ही है। सप्ताह भर में ही नई कुर्सी, नया शीशा, रंग-बिरंगे विदेशी डिब्बों में देशी पाउडर, डिटॉल की शीशी, क्रीम, शेविंग क्रीम, आफ्टर शेव लोशन, वगैरह, वगैरह आ गये। और तो और उसने अपने कपड़े भी बदल डाले। पजामें की जगह पतलून और उस पर सफ़ेद कोट। कमी थी तो केवल एक वस्तु की - बाबूराम सरीखी हाथ की सफ़ाई की।

यत्न तो काफ़ी करता रहा सुदर्शन लाल कि उसके पुराने ग्राहक फिर उससे हजामत बनवाने लगें। किंतु उखड़ी फ़ौज और उखड़े ग्राहकों का लौटना बहुत कठिन होता है। उसके सारे प्रयत्न और ख़र्चा बाबूराम की बढ़ती लोकप्रियता को नहीं रोक पाये।

ताश के खेल में जीतने वाले खिलाड़ी को बहुत आनंद आता है। किंतु हारते हुए खिलाड़ी को सब बेमानी लगता है। सुदर्शन लाल में भी हीन भावना ने घर कर लिया। काम में भी उसकी रुचि कम होने लगी। झुंझलाहट में वह अब दुकान पर भी कम ही रहता। विवशता में छटपटाता तो खूब किंतु इससे तो कुछ हो नहीं सकता था। मुंह पर अंगोछा डाले खाट पर लेटा रहता। ग्राहकों से खिंचा रहता। स्कूल के अध्यापक भी उसकी बदमिजाज़ी का शिकार होने लगे।

अध्यापकों में अभी सुदर्शन लाल के विरुध्द कानाफूसी चल ही रही थी कि वह स्कूल के प्रिंसिपल से उलझ बैठा। प्रिंसिपल ने केवल इतना भर ही कह दिया था कि वह दुकान से उड़ते बालों का थोड़ा ध्यान रखे क्योंकि बाल उड़कर कक्षा की ओर जाते थे और विद्यार्थियों को कठिनाई होती थी। बस उखड़ गया सुदर्शन लाल।

यह उखड़ना सुदर्शन लाल को खासा महंगा पड़ गया। उसी शाम को थाने से बुलावा आ गया। थानेदार की तू-तड़ाक और एक करारे थप्पड़ ने सुदर्शन लाल को धरती पर ला बिठाया, हरामज़ादे, अब अगर कभी तेरी शिकायत आई तो बंद कर दूंगा।.......एक तो गैर-कानूनी खोखा बना रखा है, उस पर स्कूल के मास्टरों से ही बदतमीज़ी करता है। खाल खींच लूंगा साले की।'

घबराया, परेशान, दुःखी और अपमानित सुदर्शन लाल जब वापिस दुकान पर पहुंचा तो एक बात तो उसके मन में बैठ चुकी थी कि यह प्रिंसिपल और अध्यापक उसकी दुकान वहां से उठवा देना चाहते हैं। यही लोग हैं जो उसकी रोज़ी-रोटी पर लात मारना चाहते हैं।.......दो बेटियां हैं, उनका विवाह भी करना है। दुकान पर भी ख़ासा व्यय हो चुका है। उस पर शनि बाबूराम सिर पर आ बैठा है। और अब यह राहु और केतु - प्रिंसिपल और थानेदार! उसका दिल बैठा जा रहा था।

प्रतिशोध ! उसके दिमाग में एक चिंगारी सुलगने लगी थी। इन सबसे अपने अपमान का प्रतिशोध कैसे ले।....... 'सांसी' गली के अपने दोस्तों से कहकर एक दो का ख़ून करवा दे ! .......ख़ून ना सही पर एक दो की टांगें तो तुड़वा ही दे ! स्साले ! सारी उमर के लिए पंगु हो जाएंगे! ...खारिये मुहल्ले का जग्गुदादा भी तो मेरे से ही हजामत बनवाता है.......उसी को कहता हूं.......उससे तो थानेदार भी घबराता है.......सात आठ खून तो पहले भी कर चुका है.......आजतक तो एक बार भी नहीं पकड़ा गया.......पर क्या मेरे लिए कुछ करने को तैयार होगा? .......सोशल एजुकेशन सेंटर के भटनागर साहिब हैं, वो भी मिलते तो बहुत प्यार से हैं.......उनसे बात करूं.......शायद कोई तोड़ निकल आए स्थिति का.......वैसे तो चौधरी लक्ष्मीदास भी मेट्रोपालिटन काउन्सिल के मेंबर रह चुके हैं.......पहले तो कार्पोरेटर, भी थे.......नगर निगम में भी तो उनकी खासी साख है.......यह वह क्या सोचने लगा। भटनागर साहिब या चौधरी जी से मिलकर उसका प्रतिशोध कैसे पूरा होगा? .......किंतु बला तो टलेगी.......

ठेठ मध्यम वर्ग के बाबू की तरह उसे भी अस्तित्व की ही चिंता सताने लगी थी। वह भी प्रतिशोध का केवल सपना ही देख रहा था। सचमुच का प्रतिशोध ना उसके बस में था और ना ही वह ले सकता था।

पिछली बार जब सुमेरचंद उससे वोट मांगने आए थे तो कह रहे थे, 'सुदर्शन लाल, नगर निगम का कोई भी काम हो तो बेझिझक चले आना।' अब तो निगम के स्कूल से ही टकराव हो गया था। और दुकान गिरने का डर भी निगम की ओर से ही था। वह डर अब दिल में गहरा बैठा जा रहा था।

अन्ततः वह सभी को मिलने गया, अपनी दारुण गाथा सुनाई। सबसे दिलासा मिला - किंतु केवल दिलासा ही मिला। सुदर्शन लाल ने अपनी जान-पहचान के जो भ्रम पाल रखे थे वे एक-एक करके धराशाई हुए जा रहे थे।

सुमेरचन्द के यहां भी गया था, 'अरे सुदर्शन लाल, तू रती भर चिंता ना कर। मेरे होते तेरी छाया को भी कोई हाथ नहीं लगा सकता।.......वो क्या है कि मैं तो आज किसी काम से कुरूक्षेत्र जा रहा हूं। लौटकर सब ठीक कर दूंगा। इस बीच अगर ज़रूरत पड़े तो डॉ भारद्वाज से मिल लेना। वो तेरी सहायता अवश्य करेंगे.......कह देना, मैंने भेजा है।'

सुदर्शन लाल कातर स्वर में कराह उठा, 'बाऊजी, यह लोग मुझे बरबाद करके रख देंगे। वो इस दीवार को सीधा करके मेरी इस दुकान को बंद कर देना चाहते हैं। कल भी पुलिस आई थी। वो तो मैं ही ताला लगाकर खिसक गया.......नहीं तो.......ना जाने, यह थानेदार क्यों अध्यापकों के साथ मिलकर मुझे उजाड़ने पर तुल गया है।'

सुमेरचन्द ने फिर दिलासा हाथ में पकड़ा दिया, 'कहा ना सुदर्शन लाल, तू दिल छोटा ना कर। अगर मेरी गैरहाजिरी में कुछ भी हो गया, तो भी मैं तुम्हें वापिस वहीं ला बैठाऊंगा। अरे देश में कोई कायदा-कानून भी है या नहीं? तुम अदालत से 'स्टे आर्डर' ला सकते हो। डर किस बात का है?

और सुमेरचंद सुदर्शन लाल को कुरूक्षेत्र के मैदान में अकेला युध्द करने को छोड़कर स्वयं यात्रा पर रवाना हो गये।

शंका और दुविधा से घिरा सुदर्शन लाल अपनी दुकान पर आ बैठा। दुकान को बचाने की अंतिम तैयारी के बारे में विचार कर रहा था। अध्यापकों, प्रिंसिपल, थानेदार और राजनीतिज्ञों के चक्रव्यूह में वह अकेला घिर गया था। सामने एक भयानक काला अंधेरा था.......और कुछ भी नहीं। मन उसे कहीं टिक कर बैठने नहीं दे रहा था। उठा और चौधरी लक्ष्मीदास के यहां पहुंच गया, 'चौधरी साहिब, वर्षों आपकी सेवा की है, और भविष्य में भी करता रहूंगा। इस समय बचा लीजिये।'

नगर निगम के इस दैत्य से लड़ने वाला हर्क्युलिस उसे चौधरी लक्ष्मीदास में ही दिखाई दे रहा था।

चौधरी साहिब को तो आज वोट मांगने नहीं थे। फिर क्यों भला विनम्रता से बात करते, 'अपनी औकात में रहो मिस्टर। कौन सी सेवा की बात कर रहे हो। अरे वो तो हम ही तुम पर तरस खाकर तुमसे हजामत बनावा लिया करते थे, नहीं तो तुम जानते ही क्या हो? कभी बाबूराम का काम देखा है? .......सब को काम प्यारा होता है चाम नहीं। उस दिन मुकंदलाल तुम्हारी दुकान पर बैठा मेरे बारे में बकवास करता रहा और तुम उसकी हां में हां मिलाते रहे।.....'हम तुम्हें गरीब जानकर तुम पर दया करते रहे और तुम अपने आपको तीसमार खां समझने लग गये।.......हर किसी से झगड़ा, हर एक से लड़ाई.......अरे नाखून कटवाई तक मांग लिया करते थे।.......आज कौन-सा लेकर मुंह लेकर आए हो? .......जाओ अपनी दुकान पर जाकर शीशा देखो। सब दिखाई देगा जो तुमने औरों के साथ किया है।'

अंधेरी गफ़ा में सुदर्शन लाल अकेले ही भागा जा रहा था। गुफ़ा बहुत संकरी थी। पैरों के नीचे छोटे-बड़े पत्थर बिछे हुए थे। उसके पांव ज़ख्मी हुए जा रहे थे। उनमें से लहू निकल रहा था। पर उसे तो इस गुफा से बाहर निकलना ही था। बस भागा जा रहा था। गुफ़ा का अंत ना तो सुझाई दे रहा था और ना दिखाई। कभी गुफ़ा की बाईं और टकराता तो कभी दाईं ओर। उसकी कोहनियां भी छिल गई थीं। शरीर पसीने से तरबतर हो रहा था। सांस फूलती जा रही थी। एकाएक उसका सिर गुफ़ा की दीवार से टकराया। सिर फटा और चारों ओर लहू के छींटे बिखर गये। सुदर्शन लाल ने चौंककर आंखें खोलीं। अपने शरीर को टटोला। रक्त तो कहीं नहीं था। फिर वो स्वप्न!

नगर निगम का ट्रक आकर रुका। उसमें से निगम के कर्मचारी भी निकले और पुलिस वाले भी। मुंह पर बड़े-बड़े दांत, बड़ी-बड़ी मूंछें लिए वे भयानक चेहरे आगे बढ़े। सुदर्शन लाल का सारा सामान उठाया और ट्रक में पटक दिया। सुदर्शन लाल अपने सामान से लिपट गया। 'मर जाऊंगा, सामान नहीं जाने दूंगा।'

बहुत से लोग इकट्ठे हो गये। बाबूराम अपने खोखे को ताला लगाकर भाग लिया। पुलिस वालों का डंडा हवा में लहराया। सुदर्शन लाल के माथे पर एक लाल रेखा उभर आई। देखते-ही देखते दुकान का दरवाज़ा भी उतर गया। सुदर्शन लाल पागलों की तरह चिल्लाए जा रहा था, 'हरामज़ादों! देख लो! हो गई तुम्हारे मन की मुराद पूरी। दीवार सीधी नहीं होने दूंगा। चाहे मुझे भी दीवार में चिनवा दो। छोडूंगा नहीं कमीनों! गरीब के पेट पर लात मारी है। महंगी पड़ेगी.......कुत्तों.......।'

सब कुछ शांत हो गया। दीवार सीधी हो गई। सुदर्शन लाल फिर वहां से पांच गज़ दूर वृक्ष के नीचे अपने पुराने सामान के साथ रोटी का जुगाड़ करने जा बैठा।

दो मज़दूर उस दीवार पर रंग करने आ पहुंचे थे। एक ने बीड़ी सुलगा ली थी। डिब्बे में रंग मिलाया। और काम शुरु। सुदर्शन लाल अपने भविष्य पर रंग पुतता देख रहा था। देखता रहा। सुदर्शन लाल की दोनों आंखों से आंसू टपक पड़े। उसने महसूस किया कि दीवार पर किया रंग, ढलते सूरज का रंग और उसके आंसुओं का रंग एक ही है।

--

साभार-

COMMENTS

BLOGGER: 1
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: तेजेन्द्र शर्मा की कहानी - एक ही रंग
तेजेन्द्र शर्मा की कहानी - एक ही रंग
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgfsGMncVRpBgAWPTDXV9f-71eSse3LEYJMqMxm0IxOH1FUTllwlQgnSV1VLUIQ1osGRlirF3_nugnFuUf2z40y9553MpMICi_WZVoZLxNhdTLE-DjjlaxIQ1SXgPSgAPVihFHd/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgfsGMncVRpBgAWPTDXV9f-71eSse3LEYJMqMxm0IxOH1FUTllwlQgnSV1VLUIQ1osGRlirF3_nugnFuUf2z40y9553MpMICi_WZVoZLxNhdTLE-DjjlaxIQ1SXgPSgAPVihFHd/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2012/10/blog-post_4878.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2012/10/blog-post_4878.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content