शहद सा अहसास है .... शहदाबा हिन्दुस्तान में ऐसे करोड़ों लोग हैं जिन्हें उर्दू रस्मुल ख़त तो नहीं आता मगर वे उर्दू ज़ुबान से मुहब्बत करते ह...
शहद सा अहसास है .... शहदाबा
हिन्दुस्तान में ऐसे करोड़ों लोग हैं जिन्हें उर्दू रस्मुल ख़त तो नहीं आता मगर वे उर्दू ज़ुबान से मुहब्बत करते हैं। शाइरी और उर्दू के ऐसे ही शैदाइयों के लिए वाणी प्रकाशन , दिल्ली समय – समय पर नायाब तोहफ़े लेकर आता है।
हाल ही में वाणी प्रकाशन ने हरदिल अज़ीज़ शाइर मुनव्वर राना का नया मज्मूआ ए क़लाम “शहदाबा” प्रकाशित किया है। अदब की दुनिया में दखल रखने वाले मुनव्वर राना को उनकी बेहतरीन शाइरी और शानदार नस्र निगारी (गद्य ) के लिए जानते है मगर वे नज़्में भी उसी मेयार की लिखते हैं इस बात का इल्म “शहदाबा” को पढ़कर हो जाता है।
मेरी हथेलियों में उस दिन नसीब वाली लक़ीर कुछ ज़ियादा ही इतरा रही थी जिस दिन ये ख़ूबसूरत किताब मेरे हाथ में आयी। किताब का नाम, “शहदाबा” मुझे बड़ा अजीब लगा मैंने फ़ौरन बाबा ( मुनव्वर साहब ) को फोन लगाया और पूछा कि बाबा इस लफ्ज़ के मआनी क्या हैं ? उन्होंने अपनी खनकती हुई बुलंद आवाज़ में कहा कि जिस तरह दो दरियाओं के बीच के इलाके को दोआबा कहा जाता है उसी तरह शहद के छत्ते जहां होते है वहाँ हम किसी को अगर मिलने का वक़्त देते है तो कहते है कि शहदाबे पे आ जाना ...बस उनका इतना कहना था कि किताब का पूरा सार मेरे सामने खुल गया।
“शहदाबा” में तक़रीबन तीस ग़ज़लें ,चालीस नज़्में ,एक गीत और कुछ
ऐसी कतरनें भी है जो लिबास का हिस्सा नहीं बन सकीं ऐसा मुनव्वर साहब कहते हैं।
किताब की पहली ग़ज़ल ही मुनव्वर साहब के उस फ़न का दीदार करवाती है जिसे ख़ुदा हर शाइर को अता नहीं करता और वो फ़न है ज़िंदगी के किसी भी पहलू से शे’र निकाल लेना :--
आँखों को इन्तिज़ार की भट्टी पे रख दिया
मैंने दिए को आंधी की मर्ज़ी पे रख दिया
अहबाब का सुलूक भी कितना अजीब था
नहला धुला के मिट्टी को मिट्टी पे रख दिया
वक्ते जुदाई हर जुदा होने वाला इसके अलावा और क्या कह सकता है :--
रूख्सत का वक़्त है ,यूँ ही चेहरा खिला रहे
मैं टूट जाउंगा जो ज़रा भी उतर गया
सच बोलने में क्या नफ़ा –नुक्सान है इस बात को बहुत से शाइरों ने कहा है मगर अंदाज़े मुनव्वर सबसे जुदा है :--
सच बोलने में नशा कई बोतलों का था
बस यह हुआ कि मेरा गला भी उतर गया
पिछले दिनों कानपुर में कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल साहब के जन्म दिन पे एक कवि-सम्मेलन- मुशायरा था उसमें उन्होंने एक विवादास्पद बयान पुरानी बीवियों को लेकर दे दिया और सियासत ने उस मज़ाक में से भी सियासत निकाल ली। उस मुशायरे में मुनव्वर साहब भी थे ,काश जायसवाल साहब ने मुनव्वर साहब का ये शे’र पहले पढ़ लिया होता :--
सोना तो यार सोना है चाहे जहां रहे
बीवी है फिर भी बीवी ,पुरानी ही क्यों न हो
जिस शख्स ने अपनी ज़िंदगी में गम से लेकर मसर्रत तक के तमाम रंग देखें हों और हर पल को ज़िंदादिली के साथ जिया हो वही इस तरह की शाइरी कर सकता है जैसी मुनव्वर राना करते हैं :--
ऐसा लगता है कि कर देगा अब आज़ाद मुझे
मेरी मर्ज़ी से उड़ाने लगा है सैयाद मुझे
एक किस्से की तरह वह तो मुझे भूल गया
इक कहानी की तरह वह है याद मुझे
मुनव्वर राना की शाइरी ज़्यादातर आम आदमी के रोज़-मर्रा के मसाइल ,घर –आँगन , रिश्तों के टूटते –संवरते ताने बाने के इर्द-गिर्द रहती है मगर जब बात रूमान की आती है तो मुनव्वर साहब ने ऐसे –ऐसे शे’र कहे हैं की रूमानियत ख़ुद शर्मिन्दा हो जाती है :--
मेरी हथेली पे होंठों से ऐसी मोहर लगा
कि उम्र भर के लिए मैं भी सुर्ख रू हो जाऊँ
“शहदाबा” हाथ में आते ही ज़हन पे ऐसा नशा तारी होता है कि फिर आँखें आराम नहीं करना चाहती, दिल करता है कि इसे एक साथ पढ़ डालें और फिर ऐसे शे’र बीच में आ जाते है जिन पर आँखों को बहुत देर ठहरना भी पड़ जाता है। ऐसी ही एक ग़ज़ल ये है :--
अच्छी से अच्छी आबो हवा के बग़ैर भी
ज़िंदा हैं कितने लोग दवा के बग़ैर भी
साँसों का कारोबार बदन की ज़रूरतें
सब कुछ तो चल रहा है दुआ के बग़ैर भी
बरसों से इस मकान में रहते हैं चंद लोग
इक दूसरे के साथ वफ़ा के बग़ैर भी
हम बेकुसूर लोग भी दिलचस्प लोग हैं
शर्मिन्दा हो रहें हैं ख़ता के बग़ैर भी
ज़ियादातर शाइर अपनी ग़ज़लों में रिवायती से नज़र आने वाले क़ाफ़ियों का इस्तेमाल करते हैं मगर मुनव्वर राना अपनी ग़ज़ल में ऐसे –ऐसे काफ़िये टांकते है कि उसके बाद सिर्फ़ ज़ुबान से यही निकलता है कि मुनव्वर साहब ऐसे क़ाफ़िये लाते कहाँ से हैं :--
दुनिया सुलूक करती है हलवाई की तरह
तुम भी उतारे जाओगे मलाई की तरह
माँ – बाप मुफ़लिसों की तरह देखते हैं बस
क़द बेटियों के बढ़ते हैं महँगाई की तरह
हमसे हमारी पिछली कहानी न पूछिए
हम खुद उधड़ने लगते हैं तुरपाई की तरह
“शहदाबा” में मुझे वो ग़ज़ल भी नज़र आयी जिसका मतला दो साल पहले मुनव्वर साहब से फोन पर सूना था और मैंने बी.एस ऍफ़ और पाकिस्तान रेंजर्स की अमृतसर में हुई शिखर वार्ता की निज़ामत करते हुए शहरे अमृतसर की शान में सुनाया था :--
ये दरवेशों की बस्ती है यहाँ ऐसा नहीं होगा
लिबासे ज़िंदगी फट जाएगा मैला नहीं होगा
मुनव्वर साहब की शाइरी हो और उसमें ज़िंदगी के फ़लसफ़ों की तस्वीर छुपी रह जाए ऐसा हो ही नहीं सकता :--
फिर हवा सिर्फ़ चराग़ों का कहा करती है
जब दवा कुछ नहीं करती तो दुआ करती है
कोशिशें करती चली आई है दुनिया लेकिन
उम्र वह पूँजी है जो रोज़ घटा करती है
शाइरी में आँखों पे बहुत से शे’र कहे गए हैं मगर “शहदाबा” की कतरन में से ये शे’र किसी भी अधूरे मुहब्बत नामे को पूरा कर सकता हैं और मेरा ये भी दावा है कि जिस की भी आँखों की शान में मुनव्वर साहब के ये मिसरे इस्तेमाल हो जायेंगे फिर वो आँखें इज़हारे मुहब्बत अपनी आँखों से ही करेंगी :-उसकी आँखें है सितारों में सितारों जैसी
किसी मंदिर में चराग़ों की कतारों जैसी
दुनिया के सबसे मुक़द्दस लफ्ज़ “माँ” को ग़ज़ल में लाने का ख़ूबसूरत इल्ज़ाम अगर किसी पे है तो वो है मुनव्वर राना। “माँ” लफ्ज़ का शाइरी में इस्तेमाल पहले रिवायत के खिलाफ़ माना जाता था मगर मुनव्वर साहब ने रिवायत से बगावत की , इस लफ्ज़ को महबूब से भी बड़ा दर्जा देकर इतने शे’र कहे कि अदब में कहीं भी माँ का अगर ज़िक्र होता है तो मुनव्वर राना का नाम बड़े एहतराम के साथ लिया जाता है। “शहदाबा” की गज़लें और नज़्मों में भी मुनव्वर साहेब के मिसरे “माँ” की कदम बोसी करते नज़र आते हैं।
चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है
मैंने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है
“शहदाबा” में मुनव्वर साहब की एक बिल्कुल ताज़ा ग़ज़ल भी है जिसका मतला उन्होंने नई उम्र की ख़ुदमुख्तारियों को मुख़ातिब हो कहा है और उसका एक शे’र फिर से एक ज़िंदगी की हक़ीक़त बयान करता है।
एक बार फिर से मिट्टी की सूरत करो मुझे
इज़्ज़त के साथ दुनिया से रूख्सत करो मुझे
जन्नत पुकारती है कि मैं हूँ तेरे लिए
दुनिया गले पड़ी है कि जन्नत करो मुझे
अब बात “शहदाबा” की नज़्मों की हो जाए, नज़्म का पैकर ग़ज़ल से बिल्कुल मुख्तलिफ़ है। “शहदाबा” में पाबन्द और आज़ाद दोनों तरह की नज़्में हैं। यूँ तो “शहदाबा” की तमाम नज़्में अपने आप में कई सदियाँ समेटे हुए हैं मगर कुछ छोटी – छोटी नज़्में इंसानी फितरत ख़ास तौर पे मरदाना फितरत को सोचने पे मजबूर करती हैं। एक नज़्म है “गुज़ारिश” जिसकी ये पंक्तियाँ रूह को झिंझोड़ कर रख देती हैं :---
जिस्म की बोली लगते समय वह ज़्यादातर ख़ामोश रहती है.. ,लेकिन किसी को अपने होंठ चूमने की इजाज़त नहीं देती... जब कोई उसे मजबूर करता है ...तो वह हाथ जोड़ते हुए ..सिर्फ़ इतना कहती है ...कि ..यह होंठ मैं किसी को दान कर चुकी हूँ ...और बड़े लोग दान की हुई चीजें ..कभी नहीं लेते।...
एक नज़्म है एहतिसाबे गुनाह उसके ये मिसरे देखें ...
एक दिन अचानक उसने पूछा ...तुम्हे गिनती आती है ...मैंने कहाँ हां ..उसने पूछा पहाड़े ..मैंने कहाँ हां ..हां ..
फिर उसने फ़ौरन ही पूछा ..हिसाब भी आता होगा ..
मैंने गुरुर से अपनी डिग्रियों के नाम लिए ..उसने कहा बस! बस।...अब मुझसे किये हुए वादों की गिनती बता दो ...मैं तुम्हें मुआफ़ कर दूंगी।...
ऐसे ही एक नज़्म है ओल्ड गोल्ड ये नज़्म आज के दौर के हर घर की कहानी सिर्फ़ चार मिसरों में बयान करती है :--
लायक़ औलादें ..अपने बुज़ुर्गों को ड्राइंगरूम ..के क़ीमती सामान की तरह ...रखती हैं ...उन्हें पता है कि ..एंटीक
.को छुपा कर नहीं रखा जाता ...उन्हें सजाया जाता है।
“शहदाबा” में मुनव्वर साहब की कुछ पाबन्द नज़्में हैं जिनमें से एक नज़्म तो सोनिया गांधी जी ने अपने घर में फ्रेम करवाकर लगा रखी है। इसके एक दो बंद आपको पढ़वाता हूँ ..
एक बेनाम सी चाहत के लिए आयी थी
आप लोगों से मुहब्बत के लिए आयी थी
मैं बड़े बूढ़ों की ख़िदमत के लिए आयी थी
कौन कहता है हुकूमत के लिए आयी थी
अब यह तक़दीर तो बदली भी नहीं जा सकती
मैं वह बेवा हूँ जो इटली भी नहीं जा सकती
मैं दुल्हन बन के भी आयी इसी दरवाज़े से
मेरी अर्थी भी उठेगी इसी दरवाज़े से
इशारों –इशारों में मुनव्वर साहब किस तरह सोनिया गांधी के मन की बात को अपनी नज़्म में कह जाते है ;--
आप लोगों का भरोसा है ज़मानत मेरी
धुंधला धुंधला सा वह चेहरा है ज़मानत मेरी
आपके घर की ये चिड़िया है ज़मानत मेरी
आपके भाई का बेटा है ज़मानत मेरी
है अगर दिल में किसी के कोई शक निकलेगा
जिस्म से खून नहीं सिर्फ़ नमक निकलेगा
“शहदाबा” में मुनव्वर साहब की एक और ख़ूबसूरत नज़्म है जो उन्होंने “सिन्धु दर्शन” महोत्सव के लिए लिक्खी थी। बात नब्बे के दशक के आख़िरी साल की है जब मुनव्वर साहब को अडवानी जी ने लद्दाख में सिन्धु दर्शन कार्यक्रम का न्योता दिया। मुनव्वर साहब सिन्धु नदी पर नज़्म लिखने के लिए अपनी फ़िक्र को बार –बार तकलीफ़ दे रहे थे मगर उनकी पसंद का मिसरा ज़हन में नहीं आ रहा था। अचानक उनकी 5 - 6 बरस की बेटी ने कहा अब्बू क्या कर रहे हो, उन्होंने कहा की बेटे कविता लिख रहा हूँ ,मुनव्वर साहब ने सिन्धु –दर्शन का निमन्त्रण बच्ची को दिखाया। बच्ची ने पहाड़ों और नदी की तस्वीर देख कर सवाल पूछा कि ये नदी कहाँ से कहाँ तक जाती है ? बस मुनव्वर साहब को अपनी नज़्म का मिसरा मिल गया। उन्होंने उस वक़्त बच्ची से कहा कि बेटे ये नदी कहाँ से आती है कहाँ जाती है इसमें हमारा कोई रोल नहीं है ,ये हमारी पैदाईश से पहले की है। मगर बाद में मुनव्वर साहब ने सोचा कि एक बाप , एक दोस्त और एक टीचर की हैसियत से बच्ची को अब ये समझाना चाहिए कि सिन्धु नदी का हिन्दुस्तान के लिए क्या महत्व् है और फिर वो शानदार नज़्म उन्होंने अपनी बेटी को समर्पित की। उसी ख़ूबसूरत नज़्म के एक –दो बंद :--
सिन्धु सदियों से हमारे देश की पहचान है
यह नदी गुज़रे जहां से समझो हिन्दुस्तान है
चाँद तारे पूछते हैं रात भर बस्ती का हाल
दिन में सूरज ले के आ जाता है इक सोने का थाल
ख़ुद हिमालय कर रहा है इस नदी की देख भाल
अपने हाथों से ओढ़ाया है इसे कुदरत ने शाल
इस नदी को देश की हर इक कहानी याद है
इसको बचपन याद है इसको जवानी याद है
यह कहीं लिखती नहीं है मुंह ज़बानी याद है
ऐ सियासत तेरी हर इक मेहरबानी याद है
अब नदी से कौन बतलाये ये पाकिस्तान है
यह नदी गुज़रे जहां से समझो हिन्दुस्तान है
जब सिन्धु दर्शन महोत्सव में मुनव्वर साहब ने ये नज़्म सुनाई तो तत्कालीन उप प्रधानमंत्री श्री लाल कृष्ण अडवानी ने इन्हें गले लगा लिया।
“शहदाबा” मुनव्वर साहब की बाकी सब किताबों से अल्हेदा है क्यूंकि हिंदी में उनकी ये पहली किताब है जिसमे उनकी ग़ज़लों के साथ – साथ पाठकों को नज़्मों का भी लुत्फ़ मिलता है।
“शहदाबा” वाणी प्रकाशन ,दरियागंज ,दिल्ली से डाक द्वारा भी मंगवाई जा सकती है। “शहदाबा” की ग़ज़लें, “शहदाबा” की नज़्में शाइरी के एक नए चेहरे को हमारे मुख़ातिब खड़ा कर देती हैं। एक बात और मैं दावे के साथ कहता हूँ कि अगर आप “शहदाबा” पढ़ेंगे तो मुनव्वर साहब को तो अपनी दुआओं में याद करेंगे ही मगर उनके साथ – साथ आप मेरे हक़ में भी दुआ को हाथ उठाएंगे।
आख़िर में “शहदाबा” की इसी कतरन के साथ आपसे इजाज़त की ईश्वर मुनव्वर साहब की उम्र दराज़ करे और उन्हें कभी ये ना कहना पड़े ...।
हमसे मुहब्बत करने वाले रोते ही रह जायेंगे
हम जो किसी दिन सोये तो फिर सोते ही रह जायेंगे
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विजेंद्र शर्मा
बी.एस.ऍफ़, मुख्यालय
बीकानेर ..vijendra.vijen@gmail.com
आपकी यह बेहतरीन रचना बुधवार 24/10/2012 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंवाह ! पढ़ते पढ़ते जी नहीं भरा ! जब ये ज़िंदगी की किताब हाथों में आएगी...तो न जाने क्या होगा !
जवाब देंहटाएंमुनव्वर राना साहब हमारे बहुत पसंदीदा शायर हैं ! हालाँकि ये अजीब सी बात है... कि उनकी रचनाएँ इतनी पसंद आईं हमें, कि हम वो शेर, नज़्में तो भूल गये...मगर उन्हें नहीं भूले ! उनसे मिलने की बहुत तमन्ना है !
समीक्षा बहुत अच्छी लगी...और कुछ शेर तो..बस........ शब्द ही नहीं हैं, बयान करने को...
धन्यवाद !
सादर !!!
भाई श्री विजेंद्रजी, आप कहाँ फौज में चले गए,आप फौज में रह कर अदब की इतनी अच्छी खिदमत कर रहे हैं, काश आप अपना सारा समय साहित्य सेवा में लगाते तो हम जैसों का न जाने कितना भला होता|फिर भी पुनः एक और समीक्षा केलिए वाधाइयाँ|
जवाब देंहटाएंanitaa jee our vermaa saahab , bahut bahut shukriyaa aapko ek aaftaab ke baare men jugnu kee tanqeed pasand aayi ....
जवाब देंहटाएंregards
vijendra
जानकारी पूर्ण पोस्ट , मुन्नवर राना जी को सुनना या पढ़ना किसी उपहार से कम नहीं , आभार आपका ....
जवाब देंहटाएंजानकारी पूर्ण पोस्ट , मुन्नवर राना जी को सुनना या पढ़ना किसी उपहार से कम नहीं , आभार आपका ....
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