पुस्तक समीक्षा : रास्ते आवाज़ देते हैं

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रास्ते आवाज़ देते हैं .......... मेरी नज़र में ग़ज़ल संग्रह - रास्ते आवाज़ देते हैं ग़ज़लकार - दीपक गुप्ता समीक्षक - विजेंद्र शर्मा...

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रास्ते आवाज़ देते हैं .......... मेरी नज़र में

ग़ज़ल संग्रह - रास्ते आवाज़ देते हैं

ग़ज़लकार - दीपक गुप्ता

समीक्षक - विजेंद्र शर्मा

ग़ज़ल का पैकर कितना ख़ूबसूरत और आकर्षक है इस बात का अंदाज़ा इस से लगाया जा सकता है कि विशुद्ध हास्य के कवि भी अब अपना रूख़ ग़ज़ल की ओर कर रहें हैं। जहां तक कवि सम्मेलनों ओर हिंदी मंच का प्रश्न है दीपक गुप्ता एक ऊंचा मुकाम रखते हैं। हिंदी मंच पे ये नाम शानदार संचालन और स्तरीय हास्य कविताओं के लिए जाना जाता है।

हाल ही मैं दीपक गुप्ता की ग़ज़लों का मज्मूआ रास्ते आवाज़ देते हैं मंज़रे –आम पर आया है ,इस ग़ज़ल संग्रह में तक़रीबन नब्बे ग़ज़लें हैं। किताब की पहली ही ग़ज़ल से दीपक गुप्ता की शाइरी के तेवर पता चल जाते हैं :--

अगर मैं झूठ बोलूँ तो मेरा किरदार मरता है

जो बोलूँ सच तो फिर मेरा परिवार मरता है

अना ज़िंदा है गर तुझमें तो फिर तू ये बता मुझको

भला वो कौन है तुझमें कि जो हर बार मरता है

अपने इर्द-गिर्द घटने वाली घटनाओं से हास्य निकालने वाले दीपक गुप्ता के ग़ज़ल से मरासिम हुए कोई ज़ियादा वक़्त नहीं हुआ है सिर्फ़ छ साल के अपने शाइरी के सफ़र में दीपक गुप्ता ने उतने मील के पत्थर तो तय कर ही लिए हैं जहां तक बहुत से नए शाइर आते –आते थक जाते हैं , हताश होकर लौट जाते हैं या ग़ज़ल ख़ुद उन्हें खारिज कर देती है।

दीपक भाई ने कुछ ऐसे शे’र कहे हैं जिन्हें पढ़कर ये नहीं लगता कि हिंदी मंचों पे उन्होंने अपनी उम्र का एक तवील हिस्सा लोगों को हंसाते हुए गुज़ारा है :--

दौलत से ही तय होगा शोहरत से ही तय होगा

तेरा किरदार बोलेगा कि तेरा क़द कहाँ तक है

उड़ानों के नशे में है जाने कब कहाँ पहुंचें

परिंदों को पता क्या आसमां की हद कहाँ तक है

छोटी बहर का ये शे’र इस बात की दस्तक देता है की आने वाले वक़्त में शाइरी के आसमां पे दीपक गुप्ता नाम का सितारा बुलंद होने के लिए मचल रहा है :--

तख्ते शाही क़ुबूल कैसे हो

मेरे भीतर फ़क़ीर है साहिब

रास्ते आवाज़ देते हैं ,पूरी किताब में शाइर खुद्दारी और सच्चाई के साथ अपने किरदार की हिफ़ाज़त करता नज़र आता है। सख्त हालात में भी ज़मीर बचाए रखने की एक मुसलसल कोशिश जब शाइरी का पैराहन पहनती है तो दीपक गुप्ता की ग़ज़लें मुख़ातिब हो जाती हैं :--

बुरे को भी भला बोलूँ , नहीं मुझसे नहीं होगा

किसी को भी ख़ुदा बोलूँ , नहीं मुझसे नहीं होगा

बहुत अहसान हैं उनके मेरे सर पर मगर फिर भी

मैं उनका ही कहा बोलूँ , नहीं मुझसे नहीं होगा

दीपक गुप्ता मंज़िल की तरफ बिना देखे ये सोचकर अपना सफ़र किये जा रहे हैं कि एक दिन तो वो मुकाम हासिल होगा जिसके वे हक़दार हैं।

सफ़र में कहाँ हैं,नहीं जानते हम

कहाँ पर है मंज़िल ,क़दम जानते हैं

और दुनिया का वो रिश्ता जो पूरे जग को ज़ाहिर तो बड़ा ख़ूबसूरत होता है मगर भीतर से कितना खोखला है इसे भी दीपक भाई दो मिसरों में बयान कर देते हैं :---

रहे साथ बरसों पर इक दूसरे को

वो जानते हैं हम जानते हैं

दीपक गुप्ता की क़लम काग़ज़ पर भी इंसान की ज़िन्दगी से राब्ता रखने वाले फ़लसफ़े तलाश करती रहती है हालांकि ये तलाश सदियों से चली आ रही है बहुत से शाइरों ने इन बातों को पहले कहा भी है मगर अंदाज़े दीपक गुप्ता कुछ और ही है :---

जो ख़ुद का हो नहीं पाया किसी का हो नहीं सकता

उसे पाने का क्या हक़ है जो कुछ भी खो नहीं सकता

हवस क़ाबिज़ रही हो ज़िंदगी भर सोच में जिसकी

कभी आराम से वो क़ब्र में भी सो नहीं सकता

किसी भी शख्स की जब अना मर जाती है तो वो शख्स सिर्फ़ हड्डियों और मांस से बना एक ढांचा-भर रह जाता है उसमे फिर किसी से नज़र मिलाने का हौसला भी नहीं रहता। आज के दौर में अना को बचाए रखना एक दुशवारतरीन काम है, दीपक गुप्ता साहब किसी भी सूरत में अना की गिरफ़्त से आज़ाद ही नहीं होना चाहते और ना ही अना उनकी शाइरी से जुदा होना चाहती है :--

वक़्त क़िस्मत अना मुफ़लिसी और वो

ज़िंदगी भर मुझे आज़माते रहे

उनकी एक दूसरी ग़ज़ल का ये शे’र :--

अना ज़िंदा है मेरी इसलिए ज़िंदा हूँ मैं अब तक

नहीं तो ख़ुद की नज़रों में कभी का मर गया होता

और दीपक जी की आज तक की कमाई है ये शे’र :--

चंद रिश्ते ,अना और इज्ज़त

यार। मैंने कमाया बहुत कुछ

छोटी बहर में शे’र कहना आसान लगता है पर होता नहीं है ,आप को बात भी कहनी होती है वो भी लफ़्ज़ों की कंजूसी के साथ पर दीपक गुप्ता कम लफ़्ज़ों से गहरी और पते की बात बड़े सलीक़े के साथ कहने के फ़न से पूरी तरह वाकिफ़ हो गए हैं। उनके ये अशआर तो यही कहते हैं :---

रखकर ज़मीर गिरवी

बनते अमीर हो तुम

कविता में सौदेबाज़ी

कैसे कबीर हो तुम

*****

ऐसे मन मत मारा कर

हंसकर वक़्त गुज़ारा कर

मन के मनकेमहकेंगे

उसका नाम पुकारा कर

***
सच तो ये है सच ने ही

झूठा ख़्वाब दिखाया था

मुझमें इक ख़ामोशी ने

कितना शोर मचाया था

दीपक गुप्ता मूलतः हास्य कवि है। ये तो ग़ज़ल से उन्हें न जाने कैसे इश्क़ हो गया जो वे ग़ज़लकार भी हो गए, जिस तरह फूल अपनी ख़ुशबू से जुदा नहीं हो सकता ठीक उसी तरह दीपक भाई भी अपनी तख्लीक़ से मज़ाहियापन को जुदा नहीं कर सकते भले वे लाख कोशिश कर लें। उनके इसी मिज़ाज के कुछ रंग देखें :--

ख़त मिला महबूब का,मजमून गायब

दाल सब्ज़ी में हो जैसे नून गायब

दोस्तों ने इस क़दर मुझको उधेड़ा

भेड़ के तन से हो जैसे ऊन गायब

****

मानता हूँ ज़िंदगी जीना हुआ मुश्किल यहाँ

इसका मतलब ये नहीं मैं जीते जी ही चल बसूं

मज़ाहिया मिज़ाज के दीपक गुप्ता हंसी –हंसी में कई बार ऐसी बातें भी कह जाते हैं कि जिन्हें सुनकर फिर संजीदगी भी शर्मिन्दा हो जाती है :--

फ़क़त चार दिन की है ये ज़िन्दगानी

सभी को मगर हाय तौबा मची है

विधाता भी ख़ुद सोचता होगा आख़िर

ये किसके लिए मैंने दुनिया रची है

***

जमूरा भूख से जब पेट पकड़े छटपटाता है

अजब हैं लोग ,उसको भी महज़ करतब समझते हैं

****

बनाकर अपनी दुनिया को उसे बर्दाश्त भी करना

ख़ुदा मेरे। मैं तेरे हौसले की दाद देता हूँ

रास्ते आवाज़ देते है को पढ़ने के बाद मैं सोचने लगा कि ग़ज़ल की ओढ़नी में इतने ख़ूबसूरत बेल-बूंटे टांकने वाले शाइर की शाइरी की उम्र इतनी कम नहीं हो सकती फिर मालूम हुआ कि दीपक भाई की क़लम में ये कमाल यूँ ही नहीं आया है। दीपक गुप्ता इस मुआमले में बड़े ख़ुशनसीब हैं कि उन्हें कलंदर सिफ़त उस्ताद शाइर मंगल नसीम साहब जैसे द्रोण मिले हैं। दीपक गुप्ता के सुख़न में मंगल नसीम साहब के तवील (लम्बे) तजुर्बे की झलक साफ़ –साफ़ नज़र आती है तभी तो मामूली से दिखने वाले लफ़्ज़ भी काग़ज़ पर उतरते ही मआनीख़ेज़ हो जाते हैं :--

जीवन की हर मुश्किल का

जीवन ही कुछ हल देगा

***

पगले इक दिन उड़ जायेंगे

प्यार के पंछी पाला मत कर

***

सांप भी ये लगे सोचने

आदमी को डसें किसलिए

शाइरी में मुहावरों का इस्तेमाल हुनर माना जाता है और दीपक गुप्ता ने इस हुनर को अपनी ग़ज़लों में ख़ूब बरता है। कई बार मुहावरे ग़ज़ल में ज़बरदस्ती भी ठूस दिए जाते है और फिर ग़ज़ल ख़ुद उनसे परेशान हो जाती है मगर दीपक गुप्ता मुहावरों के प्रयोग से ग़ज़ल के हुस्न में इज़ाफ़ा करते हैं। मिसाल के तौर पे उनके कुछ शे’र :--

सैंकड़ा उससे हुआ पूरा कहाँ

जो पड़ा निन्यानवें के फेर में

***

कुछ भी बात थी जिसको

दिए वो तूल बैठा है

ज़रा से सूद की ख़ातिर

गवांकर मूल बैठा है

***

इक दिन मिट्टी होना है

ज़्यादा मत इतराया कर

***

जब अपना मुंह खोलो तुम

बात पते की बोलो तुम

सपनो। मुझको जगना है

नौ दो ग्यारह हो लो तुम

दीपक गुप्ता अपनी ग़ज़लों में प्रयोग बहुत करते हैं , ग़ज़ल पे जब भी नए – नए तजुर्बात आज़माए गए हैं उनकी पज़ीराई भी हुई है और कई दफा इन प्रयोगों ने ग़ज़ल को आहत भी किया है। दीपक साहब के कुछ इस तरह के तजुर्बे वाकई क़ाबिले दाद हैं :---

मौत जिसका बैनरहै

ज़िंदगी वो रैलीहै

***

मैं मुसाफ़िर था लोकलसी इकट्रेनका

मेरे ख़्वाबों को ज्यों राजधानी मिली

***

लोग रिटायरहोंगे जिससे

ऐसा इक दफ़्तरहै दुनिया

दीपक गुप्ता की शाइरी का मरकज़ वो आम आदमी है जो दुनिया के तमाम नज़ारे तो देखना चाहता है मगर अपनी अना को गिरवी नहीं रखना चाहता। इनकी शाइरी में ज़िंदगी के फ़लसफ़ों का दीदार आप कर सकते हैं ,कुछ नसीहतें भी हैं , आम आदमी की हताशा भी है और शाइरी के दूसरे भी मुखतलिफ़ – मुखतलिफ़ रंग भी। ग़ज़ल का अपना एक मिज़ाज होता है रूमानियत और जदीदियत ( आधुनिकता ) ने ग़ज़ल को अगर नए लिबास से सजाया है तो ग़ज़ल से उसका वो मिज़ाज भी छीना है। दीपक गुप्ता साहब की शाइरी में रिवायत की महक कम आती है। ग़ज़ल को रूमान पसंद है और रूमानियत दीपक साहब के यहाँ न के बराबर है उनकी पूरी किताब में रूमान के एक-दो शे’र बा-मुश्किल मिलते हैं। आज ग़ज़ल को एक –बार फिर से हुस्न,शबाब, ज़ुल्फ़,शराब , साकी ,पैमाने ,घटा ,गुलाब, चमन की ज़रूरत महसूस होने लगी है। रास्ते आवाज़ देते हैं में एक शे’र मुझे ऐसा नज़र आया जो ग़ज़ल को आईने में अपने पुराने चेहरे जैसा नज़र आ सकता है :--

फिर तुम्हारी याद में डूबा हुआ हूँ

फिर नशा-सा मुझपे छाए जा रहा है

दीपक साहब से गुज़ारिश है कि वे इस तरह के शे’र भी कहे जिससे ग़ज़ल को थोड़ा अपने होने का अहसास हो। दीपक भाई की ग़ज़लात में एक जैसे ख़यालात का बार – बार आना थोड़ा अजीब लगता है मगर इसे उनकी हुनरमंदी भी कहा जा सकता है कि एक ही मफ़हूम से वे अलग – अलग शे’र निकाल लेते हैं। हालांकि इस किताब में ऐसे अशआर भी हैं जो बार – बार ये सोचने पे मजबूर करते हैं कि ये शाइर हास्य कवि कैसे हो सकता है :--

ख़ुश्क आँखों को फिर से हरा कर गया

क्या गज़ब काम इक मसखरा कर गया

आज बेटे की बातों में वो तंज़ था

बाप को जीते जी अधमरा कर गया

ग़ज़ल में मक्ता रखने की एक रिवायत है , कई बार शाइर को मक्ता सिर्फ़ इस लिए कहना पड़ता है कि बस कहना है मगर दीपक गुप्ता अपने नाम का इस्तेमाल उसके सही लफ़्ज़ी मआनी के साथ करते हैं।

हिम्मत तो देखो दीपककी

आंधी से टकराने निकला

***

ज़िंदगी ने अँधेरे दिए थे मुझे

पर मैं दीपकथा जलना था जलता रहा

रास्ते आवाज़ देते हैं “ ग़ज़ल के एक नए ज़ायके का नाम है। आवरण पृष्ठ से लेकर छपाई तक की तमाम चीज़ें खूबसूरत है। आजकल बहुत सी किताबे इतनी जल्दबाजी में छाप दी जाती है कि उनमें प्रूफ की बहुत सी ग़लतियाँ रह जाती है मगर अमृत प्रकाशन ,दिल्ली और उसके प्रकाशक इस शानदार किताब के लिए मुबारकबाद के मुश्तहक़ हैं। सुख़न -शनास अदब पसंदों के लिए ये किताब दिलचस्पी का सबब हो सकती है। तनक़ीद कारों के लिए ये किताब बहुत काम की है उन्हें अपने आप से उलझने का सामान मिल सकता है और बड़े – बड़े नक्काद इसी सोच में गोते लगा सकते है कि दीपक गुप्ता ऐसे शे’र कह कैसे गया।

मेरे अहबाब हैरां हैं

मैं शायर हो गया कब से

बशीर बद्र ने कहा था कि “ग़ज़लें शराब पीती थीं , उन्हें नीम का रस पिला रहे हैं हम” सौ फीसदी सच है ये बात। हमारे अहद के बहुत से शाइर आज ये ही कर रहे हैं मगर रास्ते आवाज़ देते हैं “ पढ़ने के बाद ये तो कहा जा सकता है कि दीपक गुप्ता ग़ज़ल को नीम का रस नहीं बल्कि इसे खट्टी –मीठी शिकंजी पिला रहे हैं। ये इनका पहला मज्मूआ ए क़लाम है ,अभी दीपक साहब को बहुत सफ़र करना है। वो दिन भी बहुत जल्द आयेगा जब दीपक साहब की ग़ज़ल भी शराब पीती नज़र आएगी। इस संग्रह में जो ग़ज़लें हैं वे अरूज़ की कसौटी पे बा-क़ायदा खरी उतरती हैं। दीपक गुप्ता जिस तरह की शाइरी कर रहे है ये अदब के लिए एक अच्छा संकेत है मैं परवरदिगार से यही दुआ करता हूँ कि दीपक भाई इसी मेयार के शे’र मुसलसल कहते रहें :---

कोई जब पूछता है हमसे कहाँ रहते हो ?

हम इशारों में तेरे दिल का पता देते हैं

आपके हँसने हँसाने के अजब ये तेवर

आने वाली किसी मुश्किल का पता देते हैं

अगर आपको लगे कि मैंने जो शे’र कोट किये है वो वाकई दादों-तहसीन के हक़दार हैं तो आप उन्हें सीधे दाद दे सकते हैं उनका नंबर है .. 09811153282 और उनका मेल पता है kavideepakgupta@gmail.comरास्ते आवाज़ देते हैं “ ग़ज़ल से मुहब्बत करने वालों को निराश नहीं करेगी इतना मैं दावे के साथ कह सकता हूँ।

आख़िर में दीपक गुप्ता के इसी मतले के साथ ...

नहीं मालूम ये मुझको कि मेरी ज़द कहाँ तक है

ये मेरे शे बोलेंगे मेरी आमद कहाँ तक है

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समीक्षक - विजेंद्र शर्मा

संपर्क:

बी.एस.ऍफ़ ,मुख्यालय

बीकानेर ,vijendra.vijen@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. ram narayan haldhar ,kota,raj4:21 pm

    yaqeenan,Deepak Gupta ko main ,unaki Facebook posts ke aadhar par manch par sakriy kavi hi samajhta tha,lekin is samikshaa ke baad jaan paya ki mamla tagada hai,
    bahut badhiya samiksha aap dono ko badhaee

    जवाब देंहटाएं
  2. विजेंदर जी बहुत अच्छी समीक्षा की है |

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: पुस्तक समीक्षा : रास्ते आवाज़ देते हैं
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