तेजेन्द्र शर्मा विशेष : उर्मिला शिरीष का संस्मरण - मानवीय जीवन का संवेदनात्मक आख्यान

SHARE:

(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...

(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)

--

मानवीय जीवन का संवेदनात्‍मक आख्‍यान

उर्मिला शिरीष

तेजेन्‍द्र शर्मा हिन्‍दी के ऐसे प्रवासी कहानीकार हैं जो दो देशों के बीच वैश्‍विक दुनिया में आ रहे परिवर्तनों के बीच मानवीय तथा मानवीय संबंधों की अंतरतहों तक पहुँचकर उसे मनोवैज्ञानिक ढंग से अभिव्‍यक्‍त करते हैं। उनकी कहानियों में विषयों की विविधता है। क्‍योंकि उनका स्‍वयं का अनुभव संसार बहुआयामी तथा व्‍यापक है उनके यहाँ पात्रों में इतने रूप हैं कि लगता है देशी-विदेशी कस्‍बाई और महानगरीय जीवन से उठाये गये पात्र... उनकी गहरी संवेदनात्‍मक दृष्‍टि का अद्‌भुत और जीवंत रूप पाठकों के भीतर उतरकर एक अटूट-सा संबंध स्‍थापित कर देता है। कहानी में बहती संवेदना की अंतरधारा इन तमाम जीवन प्रसंगों भावनाओं संबंधों को सहज ही आत्‍मसात करने में मदद करती है। कहानी का फलक इतना विराट होता है जिसमें हमारा जीवन अपनी समग्रता में प्रतिबिम्‍बित हो उठता है। एक अच्‍छी कहानी वही होती है जो सहज ढंग

से अपने होने की प्रतीति करवा दे। तेजेन्‍द्र शर्मा की कहानियां निजी विचार-विचारधारा तथा प्रवृत्ति को थोपती नहीं है बल्‍कि वह छूकर निकल जाती है। तेजेन्‍द्र अपनी बात कहने के लिए कहानीपन से छेड़खानी नहीं करते हैं। कहना चाहिए, उनकी कहानियां अपनी समग्रता में मानवीय जीवन का संवेदनात्‍मक आख्‍यान है।

अब तक प्रकाशित तीन कहानी संग्रहों ‘ढिबरी टाइट', ‘देह की कीमत' तथा ‘बेघर आँखें' में संकलित कहानियाँ परिवार, समाज तथा वैश्‍विक जीवन से संबद्ध समस्‍याओं, विषमताओं तथा सरोकारों को व्‍यापक परिप्रेक्ष्‍य को उठाती हैं...। वैयक्‍तिक जीवन से लेकर विदेशी ज़मीन के बीच फैला उनका अनुभव संसार इस बात का एहसास करवाता है कि कहानीकार की अंतरदृष्‍टि जीवन को देखती रहती है... उसका अन्‍वेषण करती है...। ‘ढिबरी टाइट' कहानी उस समय को व्‍यक्‍त करती है जब हमारे देश के युवा पैसा कमाने, घर बसाने और अपने सपनों को पूरा करने के लिए काम की तलाश में विदेश चले जाते थे। आज की तरह परिस्‍थितियां आसान न थीं मगर विदेश में जाकर पैसा कमाने का लोभ भी कम न था... आकर्षण की पराकाष्‍ठा इतनी कि सब कुछ दाँव पर लगाकर विदेश में जाकर रहना इन तमाम अपमानों और आत्‍महीनताओं को दबा देता था, सहनीय बना देता था जो विदेशों में प्रायः होता था। अपने गाँव से बाहर निकला युवक इन तल्खियों को चुपचाप पी जाता था जो रोजमर्रा की जिंदगी में मिलती थीं। कहानी का नायक गुरमीत भी विदेशी वस्‍तुओं के आकर्षण से अपने को रोक नहीं पाता है लेकिन अकेलेपन का भय भी अंदर ही अंदर बैठा रहता था “विदेश में अकेले पड़ जाने का खौफ़ गुरमीत की आँखों में स्‍पष्‍ट रूप से दिखाई दे रहा था। सात समुद्र पार करके विदेश जाने वाली ललक थी गुरमीत में पर एक ही समुद्र के उस पार पहुँचकर उसका दिल दहल गया था।” यह खौफ़ कुवैत के नियम कायदों का था... वहाँ के वातावरण का वहाँ की पुलिस का था। ‘मैं' गुरमीत के इस भय को समझता है महसूस करता है इसलिए वह उसकी मनःस्‍थिति को भी समझता है जब उसे पता चलता है कि गुरमीत बेहद उदास है, टूटा हुआ है तब उसको अपना जाना ज़रूरी लगता है। ‘मैं'... को... जो घटनाक्रम पता चलता है... वह खौफ़नाक तो होता ही है दर्दनाक भी होता है गुरमीत की पत्‍नी को डिलीवरी होनी होती है प्रसव पीड़ा होते ही वह पति को फ़ोन करती है... ‘तेज रफ़्‍तार से गाड़ी चलाते गुरमीत को पुलिस पकड़ लेती है... चार दिन के लिए अंदर डाल देती है, उसके लाख समझाने और गिड़गिड़ाने के बावजूद वहाँ की पुलिस वाले उसकी एक बात नहीं सुनते हैं नतीजतन प्रसव पीड़ा से छटपटाती पत्‍नी... कुलवंत घर में ही बच्‍चे को जन्‍म दे देती है ‘छोटी बच्‍ची के अलावा घर में कोई नहीं होता है... चारों तरफ फैले रक्‍त को देखकर बच्‍ची खौफ़ से रोती चिल्‍लाती रहती है ‘नवजात शिशु की मौत हो जाती है.. कुलवंत की भी ....तथा भूख से बच्‍ची भी मर जाती है... चौथे दिन जब गुरमीत छूटकर आता है तो इस दर्दनाक मंजर को देखकर स्‍तब्‍ध रह जाता है उसकी समझ में नहीं आता है कि वह क्‍या करें...क्‍या नहीं...? लेकिन अब वह शांत नहीं रहता है... उसके भीतर का हिंसक मनुष्‍य अपनी पत्‍नी तथा बच्‍चों की मृत्‍यु का बदला लेने के लिए हिंसक हो उठता है... वह रह-रहकर एक ही बात बोलता है- ‘दिनेश जी, मैं अब यहाँ नहीं रहूँगा जी, पर जाने से पहले सबका काम तमाम कर दूँगा। किसी हरामजादे को नहीं छोडूंगा।'

दूसरे देश में कानून के हत्‍थे चढ़े ऐसे अनेक युवक अपने जीवन की सुधियाँ सपने समान होते देखते रहते हैं। गुरमीत भी सब कुछ लुटाकर वापस लौट आता है क्‍योंकि वापस लौटना ही उसकी नियति होती है। लंबे समय तक चुपचाप अंदर ही अंदर घुटते हुए गुरमीत का यूँ एकाएक प्रसन्‍न होकर चिल्‍लाना, ‘‘कर दी सालों की ढिबरी टाइट... खा गया सालों को... उसकी नफ़रत और असमर्थता को दर्शाता है जिसके चलते वह यह तात्‍कालिक विरोध नहीं कर पाया था। व्‍यक्‍ति का स्‍वयं का दुःख अपमान और असहायता... को दूसरी घटनाएँ कैसे अपने से जोड़ लेती है... कि समूचे राष्‍ट्र का विनाश... उसकी घायल आत्‍मा को संतोष दे जाता है। गुरमीत की वह जानलेवा चुप्‍पी... चुप्‍पी के नीचे ठहरी... जमी नफ़रत की बर्फ, एकाएक इराकी फौजों द्वारा कुवैत पर किए गये आक्रमण और उसके बाद उस पर कब्‍ज़ा किए जाने को गुरमीत स्‍वयं की विजय के रूप में देखने लगता है...। उसे लगता है कुवैत को फौजों ने नहीं स्‍वयं उसने कब्‍जे में ले लिया है। यह कहानी इसीलिए महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली कहानी है क्‍योंकि यह एक व्‍यक्‍ति के माध्‍यम से एक देश की संवेदनहीन शून्‍य व्‍यवस्‍था को व्‍यक्‍त करती है। राजनीतिक घटनाएँ पीड़ित व्‍यक्‍ति के दर्द को सामूहिक दर्द में बदल देती हैं। कहानी गुरमीत के बहाने हमारे देश के उन युवकों के दर्द और विवशता को आवाज़ देती है जो अपने देश में काम न मिलने की वजह से बाहर जाकर अपने जीवन का ठिकाना ढूँढते हैं अपने लिए जगह तलाशते हैं। गाँव में बैठे उनके माता-पिता, बीवी-बच्‍चे... उनके लौटने का इंतज़ार करते रहते हैं। पराये मुल्‍क में अकेलेपन का भयावह रूप चित्रित किया गया है जहाँ मदद के लिए कोई आगे नहीं बढ़ता है..। यह कहानी जीवन में कई रूपों और व्‍यवस्‍था की विद्रूपताओं की कहानी है...। कहानी सत्‍य और सत्‍य के भीतर बहने वाली संवेदना की कहानी है जिसमें मनुष्‍य का आत्‍मिक मानसिक तथा नैतिक बल टूटकर बिखरता है और दर्द की गहरी रेखा सींच देता है जो रह रहकर सालता रहता है...।

मनुष्‍य का जीवन कई बार सब कुछ होते हुए भी अपने लिए ऐसी परिस्‍थितियां खड़ा कर लेता है जिनसे बाहर निकलने का रास्‍ता उसे नज़र नहीं आता है। नैतिकता की बात हो या परस्‍पर विश्‍वास की वह मानवीय कमज़ोरी के सामने टूट ही जाता है। भारत जैसे व्‍यक्‍ति का जीवन भंवर में इसीलिए फँस जाता है क्‍योंकि वह स्‍वयं पर काबू नहीं कर पाता है... उसे एक स्‍त्री का खालीपन उसकी आँखों में समाया... पवित्र सा आकर्षण अपनी ओर खींच लेता है और जो नहीं होना चाहिए था वही सब हो जाता है। दाम्‍पत्‍य जीवन की डोर विश्‍वास में बँधी होती है... लेकिन जहाँ एक ओर स्‍त्री है... जिसका पति उसके जीवन में अकेलेपन को दूर नहीं कर पाता है उसे बच्‍चा नहीं हो सकता... तमाम डॉक्‍टरों के इलाज और परामर्शों के बावजूद।

इस संग्रह की सबसे सशक्‍त और बेचैन कर देने वाली कहानी है ‘सिलवटें'। एक बार पढ़ने पर लगता है कि यह एक सामान्‍य कहानी है, बलात्‍कार से पीड़ित उसके घाव की पीड़ा सहन करती युवती की कहानी। आत्‍मसंघर्ष और आत्‍मपीड़ा की कहानी लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है लगता है... कहानी सामाजिक दृष्‍टि से कई प्रश्‍नों को उठाती है... बलात्‍कार हो जाने पर बदनामी में डर से कैसे वार्डन, प्राचार्य सभी चुप साध जाते हैं और ‘मैं' यानी उस लड़की को भी सब कुछ भूल जाने को कहते हैं। लड़की एकाएक नितान्‍त अकेली हो जाती है। समाज में अपने वजूद को तलाशती अपने आत्‍मसम्‍मान को बचाती हुई, उसके साथ नाटक में काम करने वाला विजय हर क्षण उसको दिलासा देता है... उसके प्रति सहानुभूति की भावना रखता है। यहाँ तक कि उसके साथ विवाह करने के लिए तैयार हो जाता है। लड़की को लगता है कि विजय से अधिक महान व्‍यक्‍ति कोई नहीं हो सकता। दोनों का जीवन सामान्‍य चलने लगता है। बेटा पैदा होने के बाद भी लड़की उस घटना को विस्‍मृत नहीं कर पाती है उसे इसलिए अलग रखती है ताकि इस घटना को भूल सके। विजय विवाह के पूर्व रखी उस शर्त को भी भूल जाता है। दोनों के बीच बढ़ती दरार और चुप्‍पी इतनी सघन हो जाती है कि उसका दम घुटने लगता है। तब विजय बताता है कि वह उसको इतना प्‍यार करता था कि उसे पाने के लिए नींद का फायदा उठाकर उसका बलात्‍कार करता है ताकि उसका मनोबल टूट जाने पर विवाह कर सके। लड़की भी मन की बात बताती है कि उसे कई वर्षों से वह बात मालूम थी। मगर वह इस बात से बीमार हो गयी थी कि विजय में अपना गुनाह कबूल करने का साहस नहीं था...। वह चाहती थी कि विजय अपना गुनाह कुबूल कर ले...। अंत पढ़कर लगता है कि यह काल्‍पनिक घटना ही हो सकती है लेकिन जीवन का दायरा इतना विराट है और मनुष्‍य का मन रहस्‍यों से भरा.... कहाँ कौन सी घटना, मनोविज्ञान की भाषा में कहूँ तो ग्रन्‍थि बनकर मन को बीमार बना दे और मनुष्‍य की जिजीविषा को खतम कर दे, कहा नहीं जा सकता है। बलात्‍कार जैसी घटनाओं में पुरुष का सम्‍मान आत्‍मबल कहीं भी टूटता या कम होना नज़र नहीं आता हैं जबकि स्‍त्री पूरे जीवन उसी आत्‍मग्‍लानि, आत्‍मपीड़ा में घुलती हुई न्‍याय पाने का इंतजार करती रहती है। कहानी का एक पक्ष जहाँ वह अपने ममत्‍व को भी नहीं बख्‍़शती है। बेटे की उपस्‍थिति उसे नागवार गुजरती है, संघर्षपूर्ण मानसिकता को उद्‌घाटित करता है। स्‍त्री मन की तमाम परतों को खोलती यह कहानी पाठकों के मन को आलोड़ित कर देती है। एक पुरुष कलाकार स्‍त्री मन में उतरकर उसके मनोविज्ञान को गहराई से समझता है और उसकी व्‍यथा को बेहद तटस्‍थता के साथ व्‍यक्‍त करता है। इस कहानी की कुछ पंक्‍तियाँ स्‍त्री जीवन की मानसिकता को व्‍यक्‍त करती हैं -“मैं उन्‍हें कैसे समझाती कि मैं उनके समान महान नहीं हो सकती। मैं एक हाड़मांस की बनी साधारण स्‍त्री हूँ। मुझे जब चोट लगती है तो दर्द होता ही है। मुझे देवी बनना नहीं, इंसान बने रहना ही अभिरुचिकर लगता है।”

इंसानियत, भावनाएँ और मानवीय संबंधों में पैसे का आना कितना बड़ा सच सामने लाता है यह ‘देह की कीमत' कहानी में देखा जा सकती है। इल्लीगल तरीके से विदेश जाकर पैसे कमाने की अभीप्‍सा इंसान को कितनी मुसीबतों में डाल देती है और वह विदेश में अपनी पहचान तब भी ज़ाहिर नहीं कर पाता है जब मौत उसके सामने खड़ी होती है। तीसरी दुनिया के देशों में बेरोजगारी की क्‍या व्‍यवस्‍था रही है पर विदेश में रहकर पैसा कमाने का लालच भारतीय परिवारों में कम नहीं रहा है। अवैध रूप से नौकरी करना वहाँ जाकर रहना क्‍योंकि वहाँ कोई भी छोटा मोटा काम करने पर पैसा अधिक मिलता है... की मानसिकता और लालच के शिकार हरदीप का हश्र वही होता है जो अवैध तरीके से जाने वाले भारतीयों या किसी भी व्‍यक्‍ति का हो सकता है। टोकियो में चोरी छुपे काम करने वाला हरदीप अपना पारिवारिक बिजनेस त्‍यागकर पत्‍नी परमजीत की बात न मानकर वहाँ रहता है बीमार पड़ने पर डॉक्‍टर को भी नहीं दिखा पाता है और चक्‍कर खाकर बस की टक्‍कर से से मर जाता है...। सभी दोस्‍त मिलकर उसके लिए पैसा इकट्‌ठा करते हैं ताकि उसकी लाश को भारत भिजवाया जा सके। दूतावास में काम करने वाले नवजोत सिंह का सुझाव रहता है कि हरदीप की लाश का यहीं क्रिया करम कर दें पैसे उसकी पत्‍नी के नाम भिजवा दिये जायें। यहाँ आकर परिवार की पैसे को लेकर जो मनोवृत्ति सामने आती है वह रोंगटे खड़े कर देती है। हर कोई चाहता है कि पैसा हरदीप की माँ के नाम से आये। पुत्र की मृत्‍यु का कारण वह पत्‍नी को ठहराती है लेकिन दार जी (हरदीप के पिता) इस शोक में भी निर्णय लेते हैं कि ... पम्‍मी के नाम पैसा आये। कहानी में विदेश में भारतीयों की स्‍थिति का यथार्थ चित्रण किया गया है। साथ ही गै़र-कानूनी ढंग से गये युवकों के साथ कैसा व्‍यवहार किया जाता है यह भी लेखक ने जीवंत ढंग से बताया है। साथ ही रिश्‍तों की सच्‍चाई का असली रूप अब निर्ममता के साथ उभरकर आता है वह मानवीय संबंधों की कुरूपता को उजागर करता है... पम्‍मी जैसी युवतियों का जीवन इसके बाद क्‍या रह जाता है और किस तरह नारकीय जीवन न समाप्‍त होने वाली यातना में बदल जाता है। कहानी इन तमाम स्‍थितियों चरित्रों और तथ्‍यों को बड़े बारीक ढंग से व्‍यक्‍त करती है। कहानीकार का अनुभव यहाँ उन बातों और स्‍थितियों को विश्‍वसनीय ढंग से चित्रित करता है जो उसके अपने दायरे में आये हैं- “एक ही घटना आपके समूचे जीवन को कैसे तहस-नहस कर देती है।” ऐसी अनेक घटनाओं से जूझता मनुष्‍य फिर भी उसी स्‍थान पर जाने के लिए लालायित रहता है जहाँ उसके जीवन की कोई कीमत नहीं होती है। ‘देश की कीमत'... में कुछ दार्शनिक पक्ष भी आये हैं जहाँ मानवीय जीवन, जिजीविषा भावनाओं जैसे थोक निर्माता आदि का सूक्ष्‍म चित्रण लेखक ने किया है यह कहानी उस बदले हुए भारतीय समाज की तस्‍वीर प्रस्‍तुत करती है जहाँ युवकों में विदेश जाने का जबरदस्‍त आकर्षण था और तमाम एजेंसियां या एजेन्‍ट उनकी इन भावनाओं का शोषण कर उन्‍हें भेजने का प्रबंध करके अपना स्‍वार्थ पूरा कर लेते थे। यह कहानी हृासोन्‍मुख मूल्‍यों को व्‍यक्‍त करती है, जहाँ भाई भाई की मृत्‍यु से दुःखी नहीं है बल्‍कि या तो इसकी जगह काम करना चाहता है या उसके शव पर मिले पैसों को। यह कहानी उन युवतियों की व्‍यथा बयान करती है जहाँ हफ़्‍ते दस दिन पति के साथ रहने पर जीवन भर उसके नाम को ढोते हुए दुःख और अपमान भरी जिंदगी जीने को अभिशप्‍त रहती है।

मुझे युक्‍तियों में लेखक का जीवन अपनी कहानियों में कुछ और होता है आदर्शवादी संवेदनशील अपने लिए जगह तलाशता और व्‍यवहारिक जीवन में उसका अलग ही चेहरा दिखाई देता है। एक ऐसा चरित्र जो पत्‍नी को मारता पीटता है गालियां देता है। बच्‍चों के प्रति अपनी जिम्‍मेदारी से मुक्‍त घर में अभावों के बीच रहते बच्‍चों के प्रति किसी प्रकार की सहानुभूति और जिम्‍मेदारी महसूस नहीं होती... उसका काम प्रेस क्‍लब में जाकर शराब पीना, दूसरी औरतों के साथ संबंध बनाना, फिर उनका चित्रण अपनी कहानियों में करना। लेखक रमेशनाथ के चरित्र की एक-एक परत उसकी पत्‍नी लता खोलती है और स्‍वयं को मुक्‍त करने का, उसी तरह से जीवन जीने का जब ऐलान करती है तो लेखक घबड़ा जाता है। स्‍वप्‍न में देखी पत्‍नी लता की यह तस्‍वीर लेखक को अंदर तक हिला देती है पुरुष वर्चस्‍व की सत्ता हिलने लगती है। कहानी में पत्‍नी-पति से सीधे-सीधे संवाद न करके अंत में पता चलता है कि वह स्‍वप्‍न में अपने मन की भड़ास निकालती दिखाई देती है। मानवीयता का पक्ष एक लेखक के अंदर कहीं भी नज़र नहीं आता है बल्‍कि एक चरित्रहीन निर्मम ग़ैर जिम्‍मेदार लेखक जो सामान्‍य आदमी की तरह अपने परिवार का ख्‍़याल नहीं रखता है। वह सिर्फ अपनी कुत्‍सित मानसिकता में डूबा स्‍त्री को भोग मानकर उसके आंतरिक संसार को अपनी कहानियों में चित्रित करता है जिसका प्रतिवाद उसकी पत्‍नी के माध्‍यम से करवाया गया है। इसी प्रकार वह पत्‍नी को भी हमेशा खलनायिका के रूप में चित्रित करता है। एक सामंती प्रवृत्ति का पुरुष पति, पिता, मित्र, परिचित जो किसी के प्रति ईमानदार नहीं है। तेजेन्‍द्र लेखकों की दुनिया के एक हिस्‍से का सच व्‍यक्‍त करते हैं यह पूर्ण सत्‍य नहीं हो सकता क्‍योंकि पूरी लेखक बिरादरी इस तरह के पतनशील मूल्‍यों की पर्याय नहीं हो सकती। कहानी में गति है इसलिए यह कहानी बिना किसी अवरोधक के पढ़ी जाती है।

पति-पत्‍नी के कोमल संबंधों, कैंसर जैसी बीमारी की दर्दनाक पीड़ा झेलती सुरभि की कहानी (अपराधबोध का प्रेत) को पढ़ते हुए कैंसर रोग की भयावहता और दर्द नसों में दौड़ने लगता है। नरेन जो कि एक असफल लेखक है पत्र पत्रिकाओं से लौटती कहानियों को लेकर, उसके मन में हताशा और ही हीन भावना भर जाती है वहीं सुरभि है जो कहानियाँ कविताएँ लिखती आ रही है लेकिन उसके मन में अपनी रचनाओं को प्रकाशित करने का कोई विचार नहीं आता है। क्षण-क्षण करीब आती मृत्‍यु को पत्‍नी की आँखों में जीर्ण शीर्ण होती देह में देखना नरेन के लिए कम मारक नहीं होता है... दो बच्‍चों की चिंता और कहीं एक बात यह कि सुरभि की रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करवाने की क्षणिक आकांक्षा जो नरेन के मन में अपराध-बोध पैदा कर देती है वह आत्‍मग्‍लानि से भर जाता है और सोचता है कि अपने इस कुत्‍सित विचार के लिए वह सुरभि से माफी माँग लेगा लेकिन तब तक सुरभि इस लोक से विदा ले चुकी होती है। तेजेन्‍द्र शर्मा की मनोविज्ञान पर पकड़ है वह आदमी के अंदर उठने वाले विचारों को भी चरित्र में ढाल देते हैं। बिना इस बात की परवाह किए हुए कि उसका परिणाम क्‍या होगा या उससे एक आदमी की छवि किस तरह की बनेगी? आदमी में कमी न हो, बुराइयाँ न हों या वह मानवीय कमजोरियों का गुलाम न हो... यह बात कहानीकार कई-कई प्रसंगों के माध्‍यम से कह देना चाहता है। बीमार स्‍त्री का अपने घर परिवार को लेकर मृत्‍यु शय्‍या पर पड़े हुए चिन्‍ता करना, बच्‍चों के भविष्‍य को लेकर पति से दूसरा विवाह न करने की बात मनवाना, एक माँ के सहज ममता की गहरी पीड़ा और कामना की प्रतिक्रिया ही हो सकती है। जीवन का ऐसा विकृत रूप गहरी निराशा को ही जन्‍म दे सकता है जो यह कहानी देती है।

‘क़ब्र का मुनाफ़ा' कहानी दिखाती है कि मनुष्‍य की इच्‍छाओं के कितने रूप हो सकते हैं। भौतिक वस्‍तुओं और सुखों से ऊबा हुआ व्‍यक्‍ति अपने मरने पर भी अपने लिए सुविधाओं का मोह नहीं त्‍याग पाता है। जीव की अंततः नियति मिट्‌टी में मिल जाना है। पृथ्‍वी पर रहते हुए वह कई जातियों, समुदायों और धर्मों में बंधा होता है लेकिन कुछ लोग जैसे नादिरा- जाति धर्म और सम्‍प्रदाय से अलग केवल एक ही सत्ता में विश्‍वास करते हैं और उसी के अनुसार अपने जीवन को जीते भी हैं और बच्‍चों में वैसे ही संस्‍कार डालना चाहते हैं इस कहानी के दोनों पात्र नज़म और ख़लील जै़दी अपने लिए क़ब्र खरीद लेना चाहते हैं ताकि मृत्‍यु के बाद एक खूबसूरत शरीर को दफ़न किया जा सके। ख़लील को नादिरा की हर बात से, हर कार्य से शिकायत रहती है। स्‍त्री के स्‍वतंत्र व्‍यक्‍तित्‍व की पहचान या उसका अपने अस्‍तित्‍व को लेकर स्‍वाधीन होना सामंती और जमींदार खून को बर्दाश्‍त भी कैसे होगा? पुरुष की पराजय जैसे खलील के लिए सबसे बड़ी पराजय होती है। नादिरा की बातों में हिन्‍दुस्‍तान को लेकर जो समन्‍वयवादी दृष्‍टि है वह उसकी देशी चेतना का प्रतिबिम्‍ब है। घर का वातावरण उसे किसी क़ब्रिस्‍तान से कम  नहीं लगता है। लेकिन वह समाज के लिए कुछ करना चाहती है। उसे यह बात बर्दाश्‍त नहीं होती है कि ख़लील तथा नज़म क़ब्रें बुक करवायें। क़ब्रों की कीमतें बढ़ती जा रही हैं नादिरा जब क़ब्रों को कैन्‍सिल करवाने के लिए फोन करती है तो पता चलता है कि उनकी कीमत बढ़ गयी है और उनको यह जानकर खुशी होती है कि अब इन्‍फ्लेशन की वजह से उन क़ब्रों की कीमत हो गयी है ग्‍यारह सौ पाउंड। यानी आपको कुल चार सौ पाउंड का फायदा।

‘ख़लील ने कहा- क्‍या चार सौ पाउंड का मुनाफा बस साल भर में। उसने नज़म की तरफ देखा। नज़म की आँखों में भी वही चमक थी। नया धंधा मिल गया था।'

भौतिकवादी सोच इंसान को कितना मेटीरियलिस्‍टिक बना सकती है कि क़ब्रों से भी मुनाफा कमा लेना चाहता है बल्‍कि उसे एक नये बिज़नेस के रूप में स्‍थापित करके पैसा कमाना चाहता है। नज़म और खलील की बातचीत में जो संकेत दो देशों के परिवेश, विचार और जीवनशैली को लेकर आये हैं वे उनकी सोच को व्‍यक्‍त करते हैं। किस देश में कितना करप्‍शन है इसके लिए वे व्‍यवस्‍था को दोषी ठहराते हैं; पर वे स्‍वयं व्‍यवस्‍था को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं इसका उन्‍हें कोई अवरोध भी नहीं है। पैसा सुविधाएँ और उपभोक्‍तावादी जिंदगी के लिए मानवीय मूल्‍यों भावनाओं और संवेदनाओं को भी अगर त्‍यागना पड़े तो उन्‍हें कोई मलाल नहीं होगा। कहानी एक अलग पृष्‍ठभूमि पर लिखी गयी है। लेखक का अनुभव, खोजपरक दृष्‍टि तथा रचनात्‍मक प्रतिबद्धता इस कहानी में दिखाई देते है।

अपने देश लौटकर कोई नहीं जाना चाहता है न वहाँ जाकर व्‍यवसाय करना चाहता है। हिन्‍दुस्‍तान में रहने वाले मुसलमान अलबत्ता अपने देश की प्रशंसा करते हैं, देश को याद करते हैं। शायद यह हिन्‍दुस्‍तान के संस्‍कारों और मिट्‌टी का असर रहता होगा अन्‍यथा विदेश में रहने वाले लोग हिन्‍दुस्‍तान की कमियों का रोना पहले रोते हैं भले ही बाहर के देशों में वे कितना भी अपमानजनक जीवन क्‍यों न जिएँ; पर पैसे की सत्ता सबसे बड़ी होती है जो नशे की तरह रगों में बहने लगती है। इन प्रवृत्तियों का चित्रण तेजेन्‍द्र शर्मा ने बखूबी किया है।

‘पासपोर्ट का रंग' कहानी दोहरी नागरिकता की घोषणा के बीच आशा निराशा का जीवन जीते गोपालदासजी के जीवन के उत्तरार्द्ध की कहानी है जहाँ वह लंदन में रहकर स्‍वयं को अकेला बंधा हुआ तथा लाचार महसूस करते हैं। दूसरे देश में रहने वाले गोपालदासजी को इस बात का गहरा दुःख रहता है कि जिन अंग्रेजों को अपने देश से निकालने के लिए उन्‍होंने गोली खाई थी उन्‍हीं अंग्रेजों के देश में उन्‍हें रहने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। बेटे के साथ रहते हुए उन्‍हें तब स्‍वदेश लौटने की आशा बंधती है जब पता चलता है कि प्रधानमंत्री ने दोहरी नागरिकता की घोषणा की है। गोपालदासजी भारतीय उच्‍चायोग जाते हैं पता करते हैं, अपने मित्रों से बात करते हैं लेकिन घोषणा साकार नहीं होती। सरकारी घोषणाओं को अमल में लाने के लिए जिन प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ता है उसमें टाइम तो लगता ही है लेकिन गोपालदासजी उस समय का कब तक इंतज़ार करें। अखबार में छपी खबर को वे ऑफिस में दिखाते हैं। उनके भीतर जमा आक्रोश फूट पड़ता है। बेटे का दोस्‍त उन्‍हें समझाता है। बेटे को लगता है कि पिता बीमार होते जा रहे हैं उनको इस बीमारी से निकालना ज़रूरी है। अपनी कर्मभूमि की तपिश इंसान में जिजीविषा बढ़ा देती है गोपालदास जी को आभास हो जाता है कि दोहरी नागरिकता का लाभ यूँ ही लंबा खिंचता जायेगा। बच्‍चे जब उन्‍हें बुलाने जाते हैं तो देखकर स्‍तब्‍ध हो जाते हैं कि “गोपालदास जी एकटक छत को देखे जा रहे थे। उनके दायें हाथ में लाल रंग का ब्रिटिश पासपोर्ट था और बाएँ हाथ में नीले रंग का भारतीय पासपोर्ट। उन्‍होंने ऐसे देश की नागरिकता ले ली थी जहाँ के लिए इन दोनों पासपोर्टों की ज़रूरत नहीं थी।” गोपालदासजी की हताशा उन्‍हें मृत्‍यु तक ले जाती है यह कहानी इतिहास में ले जाती हैं। इतिहास में भी इस साम्राज्‍यवादी सत्ता की याद दिलाती है जिसने भारत पर राज किया था। अंग्रेजों को निकालने के लिए करोड़ों लोगों ने अपना बलिदान दिया था; उसी देश में गोपालदास जी जैसे स्‍वतंत्रता सेनानी का रहना कितना कठिन होता होगा इसे युवा नयी पीढ़ी समझ नहीं सकती। उनके बेटे को इस बात का मलाल भी रहता है कि अब बातों को याद करने से क्‍या फायदा है। दासता की बेड़ियाँ जिन साम्राज्‍यवादियों ने पहनायी थी वे उस यातना को विकृत नहीं कर सकते हैं। वही चोट, वही यातना गोपालदासजी अपने परिवार के बीच रहकर भुला नहीं पाते हैं और चाहते हैं कि वापस लौट जायें। बच्‍चों के प्रेम और मोह में बंधे गोपालदासजी अंग्रेजों द्वारा अतीत में दिया गया दर्द और अपमान जो उनके हाथ से लेकर आत्‍मा में बसा होता है मृत्‍यु का कारण बन जाता है।

अपने प्रिय (चाँदनी) की स्‍मृतियों का पवित्र स्‍थल घर... मकान दलालों के कारण कैसे विवादास्‍पद बना दिया जाता है यह ‘बेघर आँखें,' कहानी पढ़कर महसूस किया जा सकता है। महानगरों में यह समस्‍या विकट रूप ले चुकी है। लंदन जाकर बस चुके ‘मैं' यानी शुक्‍ला अपना मकान एक दलाल के माध्‍यम से किराये पर दे जाते हैं। बाद मैं पता चलता है कि दलाल नायर से वह किराया लेकर स्‍वयं खर्च कर देता है। नौबत मकान खाली करवाने पर आ जाती है। नायर कहता है कि इस घर में भूत का वास है। रात में गला दबाता हुआ लगता है। अंत में सूरी साहब मकान खाली करवाने वालों को बुलाते हैं और नायर का सामान फिंकवा देते हैं शुक्‍ला चाहकर भी कुछ भी नहीं कर पाते हैं। नायर अपनी तीसरी पत्‍नी के साथ बेघर हो जाता है और शुक्‍ला को लगता है कि उसकी प्‍यारी पत्‍नी चाँदनी की आँखें भटकती रहेंगी बेघर होकर।

तेजेन्‍द्र शर्मा ने अपनी रचना प्रक्रिया में लिखा भी है ‘इसीलिए मेरी कहानियों में, ग़ज़लों में, कविताओं में मेरे आसपास का माहौल घटनाएँ और विषय पूरी शिद्दत से मौजूद रहते हैं। मैं अपने-आपको अपने आसपास से कभी भी अलग करने का प्रयास नहीं करता।' उनकी एक-एक कहानी में परिवेश की जो जीवंत परतें खुलती हैं वह कहानी को एकदम सजीव तथा प्रभावशाली बना देती हैं। परिवेश कहानी को विश्‍वसनीय तो बनाता ही है, वैश्‍विक परिवेश तेजेन्‍द्र शर्मा की कहानियों में नवीनता विविधता और पठनीयता जैसी विविधताओं को शुमार करता है। तीनों संग्रह में कुछेक कहानियों को छोड़कर लगभग सभी कहानियाँ लम्‍बी हैं। बार-बार जो चीज़ मन को दुःखी कर देती है वह है ‘कैंसर' जैसी भयावह बीमारी का कई कहानियों में चित्रण... इसलिए मृत्‍यु का चित्रण भी इन कहानियों में आता है। मृत्‍यु से पैदा हुआ दुःख नैराश्‍य और जीवन अस्‍तित्‍व को लेकर उठने वाले सवाल पाठकों को मर्माहत कर देते हैं। दूसरे देशों का माहौल वहाँ जाकर बसे भारतीयों का जीवन; वहाँ की मानसिकता वहाँ की भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक परिस्‍थितियों और पक्षों के बीच बसे लोगों का जीवन व्‍यापक और विविध रूपों में इन कहानियों में अभिव्‍यक्‍त हुआ है यही तेजेन्‍द्र शर्मा की विशेषता भी है और पहचान भी।

--

साभार-

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: तेजेन्द्र शर्मा विशेष : उर्मिला शिरीष का संस्मरण - मानवीय जीवन का संवेदनात्मक आख्यान
तेजेन्द्र शर्मा विशेष : उर्मिला शिरीष का संस्मरण - मानवीय जीवन का संवेदनात्मक आख्यान
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgfsGMncVRpBgAWPTDXV9f-71eSse3LEYJMqMxm0IxOH1FUTllwlQgnSV1VLUIQ1osGRlirF3_nugnFuUf2z40y9553MpMICi_WZVoZLxNhdTLE-DjjlaxIQ1SXgPSgAPVihFHd/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgfsGMncVRpBgAWPTDXV9f-71eSse3LEYJMqMxm0IxOH1FUTllwlQgnSV1VLUIQ1osGRlirF3_nugnFuUf2z40y9553MpMICi_WZVoZLxNhdTLE-DjjlaxIQ1SXgPSgAPVihFHd/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2012/10/blog-post_3886.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2012/10/blog-post_3886.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content