अपनी अपनी गीता सरिता गर्ग निरंजन कुमार अपनी गद्दी पर बैठे टुकुर टुकुर दुकान के हर कोने को गहरी दृष्टि से देखे जा रहे थे । ऐसा लग रहा था की ...
अपनी अपनी गीता
सरिता गर्ग
निरंजन कुमार अपनी गद्दी पर बैठे टुकुर टुकुर दुकान के हर कोने को गहरी दृष्टि से देखे जा रहे थे । ऐसा लग रहा था की नज़रों ही नज़रों मैं वे दूकान के हर हिस्से को स्कैन कर के दिमाग के सांचे मैं फिट कर रहे थे। जिस गद्दी पर बैठे बैठे उन्होंने जीवन के ३२ बसंत निकल दिए थे आज वही गद्दी....। कल भी घड़ी ठीक ९ बजाएगी, घड़ी के ९ बजने और निरंजन कुमार के मन के बीच सालों से गहरा सम्बन्ध चला आ रहा है। ९ बजते ही निरंजन कुमार के तन बदन मैं फुर्ती आ जाती थी । अजीब सी बेचैनी जाग जाती थी ,जल्दी से अपना tiffin उठा वे दूकान के लिए निकल जाते ठीक दस उनकी दुकान का shutter उठ जाता और देखने वाले अपनी घड़ी मिला लिया करते। बड़े ही मधुर दुकानदार थे वे,चाहे ग्राहक १०० -२०० का हो या लाख का सभी से उसी मुस्कराहट से बातचीत किया करते। भला ग्राहक आया तो उसका गला नहीं काटा और चतुर आया तो उससे ठगे नहीं गए ये ही उनकी दुकानदारी का मूलमंत्र था। अपनी पसीने की एक एक बूंद को इस दूकान के ईंट गारे को उन्होंने सींचा था। बचपन की बाल सुलभ खुशियों को ,जवानी की अल्हड़ मस्तियों को उन्होंने इसे दुकान की गद्दी पर न्योछावर कर दिया था। उनके पिताजी ने जब इस दूकान की गद्दी उन्हें सौंपी थी,तो उनके सर पर ५ बहनों की शादी की जिम्मेदारी थी। भाइयों को पढ़ाया था। सर पर थोड़ा कर्जा भी था। बस तभी से गिल्ली डंडा छोड़ वे मीटर मापने लग गए। उनकी बनिया बुद्धि के आगे बड़े से बड़ा एमबीए भी पानी भरता था क्योंकि ये बुद्धि महज किताबी ज्ञान नहीं थ। बल्कि जीवन मैं सीखे हुए अपने अनुभव से संचित खजाना थी।
आज उसी गद्दी पर बैठने का उनका अंतिम दिन था। कल इस दुकान के पत्थरों पर नहीं,उनके हृदय पर फावड़े चलेंगे । अपनी दुकान को उन्होंने कभी भी नए furniture से नहीं सजाया। आज भी गद्दी ही थी काउंटर नहीं। टेक लगाने को बड़े मसनद ही थे ,आरामदायक झूलने वाली कुर्सियाँ नहीं। शीतल जल स्टील के ग्लास मैं ही दिया जाता नए फैशन के कांच के ग्लासेस में नहीं। हालांकि बच्चे ने सुझाया था की नए ढंग का furniture बनना चाहिए,पर निरंजन बाबू मानते थे गृहलक्ष्मी सीधे सादे वेश मैं बड़ी प्यारी लगती है, ये तो वेश्याओं को नित नए ढंग से ग्राहकों को लुभाने को सजना पड़ता है। ग्राहक सच्चाई और ईमानदार दुकानदारी से ज्यादा इम्प्रेस होता है न की भड़काऊ और चालबाज़। जिसके पास ऑफर करने को क्वालिटी हो उसे व्यर्थ के आडम्बर की कोई जरूरत नहीं।
सरकार से फरमान जारी हो चुका था की रोड widening के अंतर्गत जो भी दूकान बीच मैं आती थी उसे फोड़ दिया जाए। शहर मैं मेट्रो रेल परियोजना शुरू होने वाली थी। सरकार ने फरमान जारी कर दिया था किसी भी तरह का दांव पेंच काम नहीं आया। निरंजन बाबू के लिए यह दूकान माँ के सामान थी इसी दूकान के चलते उन्होंने अपनी तीनों बेटियों की शादी की थी। बेटे की गृहस्थी बसा के दी थी चारों धाम
तीर्थ यात्रा हो आये थे घर मैं रामायण भागवत का पाठ करवा दिया था। कई नल प्याऊ खुलवा दिए थे । एक साधारण गृहस्थ के सारे कर्तव्य पूर्ण हो चुके थे। अब उनके जीवन की सांध्य वेला चल रही थी । ताश पत्ते जुआ शराब शबाब महफिल नाच गाना गुरु सत्संग का उन्हें जीवन मैं कभी शौक रहा ही नहीं । यार दोस्त कभी उनके दूकान पर जमावड़ा डाल ही न सके। एक समय था जब नित नया मनलुभावन माल लाकर वह ग्राहकों को आकर्षित कर सेल बढ़ाने में सतत प्रयत्न शील रहते थे। अब वैसी बात नहीं थी। अब ये दुकान केवल उनकी जीविकोपार्जन का साधन नहीं बल्कि उनके आनंद का धाम भी थी। पत्नी बहु पोतों मैं व्यस्त थी । लड़के ने अपना business कर लिया था । लड़कियां अपनी ससुराल में मग्न थी। इसी दूकान ने अब उन्हें एक प्रेमी की तरह अपनी बाहों मैं जगह दे दी थी । पान चबाते हुए वे गद्दी पर पंहुचते, सुबह का अखबार पढ़ते,फिर आने वाले ग्राहकों से हंसी ठिठोली करते उन्हें माल बेचते। रेडियो लगाकर अपना मनपसंद कार्यक्रम सुनते । पर अब.......
निरंजन बाबू बड़ी बेचारगी से उठे । पत्नी ने उन्हें जगाया। उठ कर करते भी क्या ?पत्नी बेटे बहु बच्चें सभी उनका दर्द समझ रहे थे । पर कर भी क्या सकते थे । सुनी सुनी आँखों से टीवी देखते हुए उन्होंने रोटी खायी। और फिर जाकर लेट गए। नींद भी आँखों से कोसों दूर थी। मूक दर्शक की भाँति वे घर मैं होने वाली चहल पहल को देखते रहे। उनसे ज्यादा दुखी, बेकार और निराशाजनक इंसान उन्हें दुनिया मैं और कोई न लगा। क्या करें वे कहाँ जाए?दो चार दिन ऐसे ही गुजर गए । निरंजन बाबू कुंठा से ग्रसित हो गए,वे सारा समय खिन्न रहते थे जान से ज्यादा पोता पोती उन्हें अब सुहाते न थे । सूर्य कब उगा और अस्त हुआ उन्हें कोई भान न था।
एक दिन बड़ी जबरदस्ती पत्नी उन्हें सुबह उठाकर morning walk के लिए ले गयी। निरंजन बाबू बड़े ही अनमने भाव से उठे। उनके पास इसके अलावा कोई चारा न था। पार्क मैं जाकर वे बेंच
पर बैठ गए। इससे पहले दूकान की ओर भागते समय ऐसा किसी को बेंच पर बैठे देखते तो कहते,निखट्टू होगा काम नहीं होगा इसके पास जो ऐसा बेंच पर बैठा सुस्ता रहा है,और बड़ा ही इतराते हुए जाते। आज उनकी सोच उन्हें याद आ रही थी। वे बेंच पर सर झुकाए कुछ देर बैठे रहे। ठंडी हवा का जब बदन को स्पर्श हुआ तो बहुत भला लगा। सामने उनके हमउम्र योग कर रहे थे उन्हें देखना भी अच्छा लगा । छोटे छोटे बच्चे झूले झूल रहे थे कितने सुंदर लग रहे थे । ये उम्र मैं वे पिताजी के tiffin की थैली पकड़ ललचाई नज़रों से दुसरे बच्चों को देखते हुए दुकान जाया करते थे। वोह गोल गोल झुला वो अम्मा की बांह थामे रंगबिरंगी नीली पीली आइसक्रीम के लिए जिद करते बच्चे,वो बाबाजी का बायस्कोप, सिनेमा, तमाशा कुछ भी तो नहीं किया उन्होंने । अपना बचपन जिया ही कहाँ। बचपन से ही सिखाया गया था,खेलना कूदना तो बुरे बच्चों के लक्षण हैं, अच्छे बच्चे तो ठीक समय ही दूकान पर लग जाते हैं महनत करते है कमाते हैं। जवानी भी जी भर के कहां जी पाए। जीवन में कहीं सुख उन्हें प्राप्त होता तो केवल पत्नी की देह से। थके मांदे आते जी भर के पत्नी को प्यार करते और सो जाते। कभी पत्नी के साथ तमाशा देखने का मन भी होता तो अम्मा कहती,लाज शर्म तो पता नहीं कहां गयी घर मैं जवान बहने है बीवी को लिए तमाशा देखने चले। सामने देखा पत्नी अपने वाकिंग फ्रेंड्स के साथ घर गृहस्थी के कुछ रहस्य शेयर करने मैं मशगूल थी। कितनी शांत स्निग्ध लग रही थी। परिवर्तन के नियम को कितना ग्रेसफुली अपनाया था उसने। पार्क से लौटे समय वाद्य यन्त्र सिखाने के इंस्टिट्यूट के साइनबोर्ड पर उनकी नज़र पड़ी। मन मैं एक इच्छा जगी की वे भी सितार बजाना सीखें। बचपन से ही उन्हें सितार बजाने का बड़ा शौक था। चश्मा ठीक कर उन्होंने ज़ल्दी टाइमिंग नोट की। अब वे जो भी सीखेंगे अपनी संतुष्टि और सैटिस्फैक्शन के लिए। ना की इस डर से की पता नहीं कौन सी विद्या जीवन मैं कब काम आ जाए ,या फिर दूसरों को इम्प्रेस करने की लालसा से।
अब निरंजन बाबू जल्दी से उठते हैं,पार्क जाते हैं ,योग की कक्षाए लगाते हैं, दोस्तों से गपशप लगाते हुए वापिस आते हैं। फिर नाश्ता कर सितार सीखने जाते हैं फिर थोड़ा सा आराम कर शाम को पत्नी के साथ मैरिज@निरंजन.कॉम का काम देखते हैं। इस नए नाम से उन्होंने एक कंपनी खोल ली है। कंपनी समाज के बंधुओं की मदद से गरीब कन्याओं का सामूहिक विवाह करवाती थी। कितनी ही गरीब कन्याओं का उद्धार इस वज़ह से हो चुका था। निरंजन बाबू को इस काम मैं असीम तृप्ति मिलती थी। सच ही है जीवन जीने के लिए अपनी अपनी गीता का मार्गदर्शन लेना पड़ता है।
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