(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
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अपने समय से आगे के यथार्थ की कहानियाँ
अजित राय
क्यूबा की फ़िल्म ‘मेमरीज़ आफ़ डेवलपमेंट' (निर्देशक-तोमास आलिया) का नायक एक सेलेब्रेटी लेखक है। फ़िल्म के पहले ही दृश्य में वह अपने पुराने टाइपराइटर पर कुछ लिख रहा है। हम पहला ही वाक्य पढ़कर चौंक उठते हैं जो सिनेमा के विशाल पर्दे पर किसी इबादत की तरह उभरता है- ‘भूमण्डलीकरण सबसे पहले उसकी पहचान मिटा देता है जिसके ख़िलाफ़ आपको लड़ना है। आपको पता ही नहीं चलता कि आपका शत्रु कौन है।' हिन्दी के ब्रिटिश लेखक तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों को पढ़ते हुए सहसा मुझे इसी फ़िल्म की याद आई। उनकी कहानियों में पता ही नहीं चलता कि ‘खलनायक' कौन है। पात्रों की नियति और हमारा उपभोेक्तावादी समय एक बड़े खलनायक की तरह छा जाते हैं। इन्हें पढ़ते हुए यह भी भ्रम होता है कि शायद ये क्षणिक अनुभवों के वृतांत हैं। साथ ही इसके ठीक विपरीत हमें नॉस्टेल्जिक यात्राओं पर ले जाते हैं! परन्तु ये दोनों बातें महज़ भ्रम हैं। उनकी हर कहानी सच्ची घटना पर
आधारित हैं जो पारिवारिक रिश्तों के भावनात्मक ताने-बाने से बुनी हुई है, लेकिन उनकी आख्यान शैली साहित्य का एक ऐसा आस्वाद पैदा करती है जो हिन्दी कथा-साहित्य में अलग पहचान रखती है।
पहली बार मैं उनसे 17 जनवरी 2007 को दुबई में मिला था। आबूधाबी के कथाकार कृष्ण बिहारी ने ‘खाड़ी देशों का द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन' आयोजित करवाया था और राजेन्द्र यादव के साथ मुझे भी सरकारी खर्चे पर बुलवाया था। लंदन से तेजेन्द्र शर्मा, मास्को से अनिल जनविजय और लंदन से ही ज़कीया जुबैरी भी आई हुई थी। वहाँ तेजेन्द्र को लेकर अजीबो-गरीब माहौल था। समारोह में वे सबसे खुलकर मिल रहे थे, बातचीत कर रहे थे। समारोह के बाद वे सीधे मेरे पास आए और कहा, “मैं तेजेन्द्र शर्मा हूँ। अपने बहुत अच्छा भाषण दिया।”
“धन्यवाद। मैं आपको जानता हूँ।” मैंने कहा।
यहां एक बात स्वीकार करूं कि तब तक मैं उन्हें रचनाकार नहीं मानता था। वैसे भी प्रवासी लेखकों के बारे में मेरी धारणा अच्छी नहीं थी। भारत में उन्हें विश्व हिन्दू परिषद के लिए धन जुटाने वाले एजेंट से अधिक नहीं समझा जाता है। मुझे याद है, दुबई सम्मेलन में राजेन्द्र यादव ने इसी वजह से तेजेन्द्र की एक किताब का लोकार्पण करने से मना कर दिया था। मैं सोचता था कि तेजेन्द्र यूं ही शब्दों की कुछ जुगलबंदी कर रहे होंगे। लेकिन कथा यू.के. के महासचिव के रूप में मैं उनके साथ की सराहना करता था।
इसी बीच न्यूयार्क में विश्व हिन्दी सम्मेलन में जाना तय हुआ। तेजेन्द्र इस बात पर ख़ुशी-ख़ुशी राजी हो गए कि मैं न्यूयॉर्क से लौटते हुए एक सप्ताह लंदन में भी ही रुकूं और ब्रिटिश संसद के उच्च सदन ‘हाउस आफ लार्ड्स' में आयोजित होने वाले 13वें ‘इंदु शर्मा अंतर्राष्ट्रीय कथा सम्मान' में शिरकत करूँ। न्यूयॉर्क में पता चला कि तेजेन्द्र ने बीबीसी को एक इंटरव्यू दिया है जिसमें विश्व हिन्दी सम्मेलन के औचित्य पर ही सवाल खड़े किए हैं। मैंने न्यूयॉर्क के पेंसिलवेनिया होटल के मीडिया सेंटर से उनके इंटरव्यू और पूरी बहस का प्रिंट आउट निकालकर पढ़ा।
हालांकि मैं तेजेन्द्र के कई तर्कों से सहमत नहीं था, फिर भी मुझे उनमें एक शार्पनेस दिखी। पहली बार मैंने एक रचनाकार के रूप में उनके बारे में गंभीरता से सोचा। वर्ष 2007 में महुआ माजी को उनके उपन्यास ‘मैं बोरिशाइल्ला' के लिए कथा यूके द्वारा सम्मानित किया गया था। मैं दस दिन तक लंदन में तेजेन्द्र के घर रहा और मुझे यह कहने में हिचक नहीं है कि जिस आत्मीयता और दरियादिली से उन्होंने मुझे अपने घर रखा, उतना मैं भी अपने किसी मित्र के लिए नहीं कर सकता। हम दिल्ली में रहते हैं; इसी संदर्भ में राजेन्द्र यादव ने ‘हंस' में एक संपादकीय लिखा था कि जब भी दिल्ली में अपना कोई परिचित मिलता है, हम उससे दो ही सवाल पूछते हैं- कहां ठहरे हैं? और कब जाएंगे? यह एक सच्चाई है। हममें एक और अजीब आदत है। जब हम काफी खुश होते हैं तो अपने दोस्तों से साझा करना चाहते हैं। अब लंदन से भारत फोन करना काफी महँगा तो है ही। अपने पैसे खर्च करते हुए हमारी जान निकल जाती है। तेजेन्द्र ने जिस उदारता से हमें अपने फ़ोन से बेरोक-टोक भारत फ़ोन करवाया, मैं दंग रह गया। यह क्या हो गया। लोग तो उसे हिन्दूवादी स्वार्थी अवसरवादी पंजाबी कहते नहीं थकते थे। मैं सच कह रहा हूँ। तेजेन्द्र में इस बात की हमें भनक तक न पड़ने दी कि वे बेरोज़गार हैं और कई तरह के तनाव झेल रहे हैं। चलते समय खुलकर उपहार ख़रीदे। एअरपोर्ट पर अच्छा नाश्ता करवाया और भीगी पलकों से हम विदा हुए।
पिछले वर्ष जब नासिरा शर्मा को कथा यू.के. का सम्मान मिला तो मैं एक महीने के लिए लंदन में रुका। उन दिनों मेरा मन काफ़ी उदास रहता था। आँखों की तकलीफ़ लगातार बढ़ रही थी। तेजेन्द्र और ज़कीया जी ने एक अच्छे डॉक्टर से मेरी आँखों की जाँच करवायी, लेकिन कुछ ख़ास फायदा नहीं हुआ। मुझे पढ़ने में काफी तकलीफ़ होती। सम्मान समारोह के बाद तय हुआ कि वेल्स जाया जाय घूमने। आमंत्रण निखिल कौशिक का था।
इस अवसाद की घड़ी में जब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था मैंने अचानक तेजेन्द्र शर्मा की एक कहानी पढ़ ली- क़ब्र का मुनाफा। और मैं चकित रह गया। इतनी उम्दा कहानी और वह भी मृत्यु जैसे विषय की लेकर मैंने आज तक नहीं पढ़ी थी। भारत में यह चर्चा होती रहती है कि हिन्दी कहानियों से मुस्लिम पात्र गायब हो रहे हैं। यह कहानी लंदन में बसे दो मुस्लिम परिवारों के बारे में है और जिस अंतरंगता के साथ है, उसे देखकर आश्चर्य होता है।
लंदन से निखिल कौशिक के शहर पहुंचने में बस ने छह घंटे लिए। मैंने इस दौरान तेजेन्द्र की बारह कहानियाँ पढ़ डालीं। पढ़ते हुए मेरी आँखों में पानी आ जाता। कई बार तो सब कुछ धुंधला धुंधला दिखने लगता। ‘देह की कीमत', ‘पासपोर्ट का रंग' और ‘चरमराहट' पढ़ते हुए उन पात्रों की हृदयविदारक पीड़ा से ख़ुद गुज़रा। ‘कोख की किराया', ‘मुझे मार डाल बेटा' तथा ‘अभिशप्त' में दुखों का ऐसा कोलाज है कि उससे सहज ही तादात्मीकरण हो जाता है। ‘पापा की सज़ा' और ‘छूता फिसलता जीवन' एक नये अनुभव लोक में ले जाती हैं। ‘एक बार फिर होली में' रिश्तों का ऐसा इंद्रधनुष है जिसे बड़ी बारीक़ी के साथ रचा गया है ‘बेघर आँखें' और ‘टेलिफोन लाइन' की शैली खिलंदड़ी ज़रूर है, लेकिन इसके भीतर की करूणा हमें हतप्रभ करती है ‘दीवार थी, दीवार नहीं थी' में मनुष्य की अतिवादी भावुकता के भीतर के अवसरवाद और लालच को देख पाना, सचमुच विस्मित करता है। उनकी एक कहानी ‘कोष्ठक' अपने संरचनात्मक ढाँचे की वजह से मुझे अति प्रिय है। हाल में मैंने उनकी दो अप्रकाशित कहानियां पढ़ी- ‘कल फिर आना' और ‘ओवर फ़्लो पार्किंग।' मैं कह सकता हूँ कि ये दोनों विषय हिन्दी कहानी में पहली बार आए हैं जहाँ तक मेरी जानकारी है।
तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों में एक केन्द्रीय तत्व है- परिवार। वे बार-बार निम्न मध्यवर्गीय पारिवारिक इच्छाओं का आख्यान रचते हैं। यहाँ भावुकता भी होती है और खिलंदड़ापन भी। भाषाई चमत्कार और ओढ़ी हुई बौद्धिकता सिरे से गायब होती है। इसके बावजूद एक प्रमुख बात इन कहानियों की महत्त्वपूर्ण बनाती है, वह है, उपभोक्तावादी समय में धन की भूमिका। आज रुपया इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है जितना मानव सभ्यता के इतिहास में कभी नहीं रहा। इस बात को वे ऐसे रचते हैं जैसे कच्चे दूध में घी छिपा रहता है या किसी नाटक में पार्श्व संगीत की तरह बजती कोई धुन, या किसी पेंटिंग की पृष्ठभूमि। ये कहानियाँ इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि ये अपने समय के आगे के यथार्थ को रचती हैं। यह बात ‘क़ब्र का मुनाफा' और ‘किराए की कोख' में देखी जा सकती है। आज हिन्दी कहानी को ऐसे लेखक चाहिए जो नये पाठक बना सकें। तेजेन्द्र उनमें से एक हैं उनके पास हमेशा नया यथार्थ होता है। ‘तरकीब' को कोई कैसे भूल सकता है। उनके पास वैश्विक अनुभव है। आज वे हिन्दी के अकेले कथाकार हैं जो ‘लोकल' और ‘ग्लोबल' एक साथ हैं।
अब मैं अपनी उस बात पर आता हूँ जहां से बात शुरू हुई थी। ‘मेमरीज़ ऑफ डेवलपमेंट' का लेखक इसलिए सेलेब्रेटी बन जाता है कि उसकी कहानियों में उसका निजी एकांत अपनी पूरी ताक़त के साथ उतर आता है। हर चरित्र के भीतर लेखक खुद प्रवेश करता है। उसका दुख निजता से निकलकर सार्वजनिक होता हुआ हमारे पूरे समय पर छा जाता है। तेजेन्द्र ठीक यही काम अपनी कहानियों में करते हैं। एक-एक शब्द उनकी आत्मा से निकलकर काग़ज़ पर आकार ग्रहण करते हैं। उन्हें पढ़ते हुए हम आसानी से ‘डी कोड' कर सकते हैं।
मेरी ज़िद है कि मैं उस व्यक्ति को बड़ा लेखक नहीं मान सकता जो एक बेहतर मनुष्य न हो। तेजेन्द्र की आभासी उपस्थिति उनकी वास्तविक उपस्थिति से अलग छवियों से भरी हुई है। यह उनका दुर्भाग्य है या हिन्दी की दुनिया का, कि सचमुच उन्हें ठीक से नहीं पढ़ा गया है। वे कभी नहीं कहते कि उन्हें महान लेखक माना जाए। उनकी इतनी भर ख़्वाहिश है कि उन्हें बस हिन्दी की मुख्यधारा में एक साधारण नागरिक की तरह स्वीकारा जाए। क्या यह एक स्वाभाविक इच्छा नहीं है इस बदलते समय में जब ख़ुद हिन्दी साहित्य अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा हो; तेजेन्द्र शर्मा जैसे लेखक उसकी शक्ति ही बनेंगे कमज़ोरी नहीं। वरना कौन किसकी परवाह करता है।
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साभार-
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