शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी हावर्ड फास्ट बिगुल पुस्तिका-10 राहुल फाउण्डेशन लखनऊ शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी...
शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी
हावर्ड फास्ट
बिगुल पुस्तिका-10
राहुल फाउण्डेशन
लखनऊ
शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी
ISBN 978.81.906415.7.9
मूल्यः रु. 10.00
प्रथम संस्करण : जनवरी, 2008
प्रकाशक : राहुल फ़ाउण्डेशन
69, बाबा का पुरवा, पेपरमिल रोड, निशातगंज,
लखनऊ-226 006 द्वारा प्रकाशित
आवरण : रामबाबू
टाइपसेटिंग : कम्प्यूटर प्रभाग, राहुल फ़ाउण्डेशन
मुद्रक : क्रिएटिव प्रिण्टर्स, 628/एस-28, शक्तिनगर, लखनऊ
Chicago ke Shaheed Mazdoor Netaon ki Kahani
by Howard Fast
भूमिका
अपने संघर्ष के दौरान मज़दूर वर्ग ने बहुत-से नायक पैदा किये हैं। अल्बर्ट पार्सन्स भी मज़दूरों के एक ऐसे ही नायक हैं। यह कहानी अल्बर्ट पार्सन्स और शिकागो के उन शहीद मज़दूर नेताओं की है, जिन्हें आम मेहनतकश जनता के हक़ों की आवाज़ उठाने और ‘आठ घण्टे के काम के दिन’ की माँग को लेकर मेहनतकशों की अगुवाई करने के कारण 11 नवम्बर, 1887 को शिकागो में फाँसी दे दी गयी।
मई दिवस के शहीदों की यह कहानी हावर्ड फ़ास्ट के मशहूर उपन्यास ‘अमेरिकन’ का एक हिस्सा है। इसमें शिलिंग नाम का एक बढ़ई मज़दूर आन्दोलन से सहानुभूति रखने वाले जज पीटर आल्टगेल्ड को अल्बर्ट पार्सन्स की ज़िन्दगी और शिकागो में हुई घटनाओं और मज़दूर नेताओं की क़ुर्बानी के बारे में बता रहा है। शिलिंग लेबर पार्टी से जुड़ा एक ईमानदार मज़दूर कार्यकर्ता है, जो पार्सन्स को तब से जानता है जब वह समाजवादी नहीं बना था। हालाँकि वह पार्सन्स के विचारों से सहमति नहीं रखता था, लेकिन वह उसकी नेकदिली, ईमानदारी और मेहनतकश लोगों की सच्ची आज़ादी पाने के लक्ष्य के प्रति उसकी सच्ची भावना की पूरे दिल से इज़्ज़त करता था।
पार्सन्स जानता था कि ये मुट्ठीभर थैलीशाह अपनी मर्ज़ी से मज़दूरों के ख़ून की एक-एक बूँद निचोड़कर अपने ऐशो-आराम के सामान जुटाना बन्द नहीं करेंगे। वह मज़दूरों को संगठित होने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने की राह बताता था। उस वक़्त मज़दूरों से चौदह-चौदह, सोलह-सोलह घण्टे काम लिया जाता था। दुनियाभर में अलग-अलग जगहों पर दिन में आठ घण्टे काम कराये जाने की माँग को लेकर आन्दोलन हो रहे थे। ‘आठ घण्टे के काम के दिन’ को लेकर शिकागो शहर की मुख्य सड़क मिशिगन एवेन्यू पर अल्बर्ट पार्सन्स के नेतृत्व में मज़दूरों ने एक शानदार जुलूस निकाला।
दूसरी तरफ़, मज़दूरों की बढ़ती ताक़त और उनके नेताओं के अडिग संकल्प से डरे हुए उद्योगपति, फैक्टरी मालिक उन पर हमला करने और मज़दूर नेताओं की हत्या कर देने की घात में थे। उन्होंने पुलिस और पिंकरटन एजेंसी के गुण्डों को मज़दूरों पर हमला करने के लिए तैयार रखा था।
3 मई को तालाबन्दी के ख़िलाफ़ और आठ घण्टे के काम के दिन की माँग को लेकर हड़ताल कर रहे निहत्थे मज़दूरों पर पुलिस ने गोलियाँ चलायी जिसमें चार मज़दूर मारे गये। इस बर्बर दमन के विरोध में 4 मई की शाम को हे मार्केट चौक पर एक जनसभा रखी गयी। इस शान्तिपूर्ण जनसभा को क़रीब 180 पुलिसवालों ने घेर लिया और किसी के इशारे पर एक बम फटा जिसमें एक पुलिसवाला मारा गया और पाँच घायल हुए। फिर क्या था, पगलायी पुलिस ने अन्धाधुन्ध गोलियाँ चलानी शुरू कर दी। इस गोलाबारी में छह मज़दूरों की मौत हो गयी और 200 से ज़्यादा घायल हो गये।
अखबारों और मालिकों ने जुझारू मज़दूरों और उनके नेताओं के खिलाफ़ अन्धाधुन्ध प्रचार किया और उन्हें पकड़ने का अभियान छेड़ दिया गया। कुछ ही दिनों में सात नेता - स्पाइस, फ़ील्डेन, माइकेल श्वाब, एडॉल्फ़ फ़िशर, जॉर्ज एंजिल, लुइस लिंग्ग और ऑस्कर नीबे को गिरफ़्तार कर लिया गया। पार्सन्स को पुलिस नहीं पकड़ पायी लेकिन मुक़दमे वाले दिन वे ख़ुद ही अपने मजदूर साथियों के साथ कटघरे में खड़े होने के लिए अदालत पहुँच गये।
जिस तरह से मुक़दमा चला उससे बिलकुल साफ़ था कि मालिकों और सरकार ने हर कीमत पर मजदूर नेताओं को फँसाने की ठान ली है। सरकारी पक्ष ऐसा कोई सबूत नहीं पेश कर पाया कि उन आठ लोगों में से किसी ने भी बम फेंका है या उनमें से कोई भी बम फेंकने की साज़िश में शामिल था। नीबे के अलावा बाकी सबको मौत की सजा सुनायी गयी। बाद में फ़ील्डेन और श्वाब की मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया। इक्कीस साल के लिंग्ग ने अपने मुँह में डायनामाइट का विस्फोट करके जल्लाद को यह मौका नहीं दिया कि उसे फाँसी पर चढ़ा सके। शेष चार, अल्बर्ट पार्सन्स, स्पाइस, एंजिल और फ़िशर को 11 नवम्बर, 1887 को फाँसी दे दी गयी।
छह वर्ष बाद, इलिनॉय राज्य के गवर्नर जॉन एल्टजेल्ड ने नीबे, फ़ील्डेन और श्वाब को आजाद कर दिया और मौत की सजा पाने वाले पाँचों लोगों को मरने के बाद बरी करते हुए यह बताया कि उनके खिलाफ़ पेश किये गये ज्यादातर सबूत फ़र्ज़ी थे और मुक़दमा एक नाटक था।
शिलिंग उनके मुक़दमे के जज रहे पीटर आल्टगेल्ड को यह सारी कहानी सुनाता है और पार्सन्स की ज़िन्दगी के बारे में बताता है।
इस पुस्तिका में हमने पार्सन्स की पत्नी लूसी द्वारा अदालत में दिये गये बयान और पार्सन्स द्वारा अपनी पत्नी और बच्चों को लिखे गये पत्रों को भी शामिल किया है। पार्सन्स भले ही आज जीवित न हो, पर अगली पीढ़ियों को दिया गया उसका सन्देश और उसके विचार हमेशा जीवित रहेंगे। पार्सन्स के साथ ही फाँसी पर चढ़ाये गये उनके एक साथी स्पाइस ने लूट पर टिकी मानवद्रोही व्यवस्था के नुमाइन्दों को जो चेतावनी दी थी उसकी गूँज आज भी मद्धिम नहीं पड़ी है। उसने कहा था : ‘‘अगर तुम सोचते हो कि हमें फाँसी पर लटकाकर तुम मज़दूर आन्दोलन को...ग़रीबी और बदहाली में कमरतोड़ मेहनत करनेवाले लाखों लोगों के आन्दोलन को कुचल डालोगे, अगर तुम्हारी यही राय है - तो ख़ुशी से हमें फाँसी दे दो। लेकिन याद रखो...आज तुम एक चिंगारी को कुचल रहे हो लेकिन यहाँ-वहाँ, तुम्हारे पीछे, तुम्हारे सामने, हर ओर लपटें भड़क उठेंगी। यह जंगल की आग है। तुम इसे कभी भी बुझा नहीं पाओगे।...एक दिन आयेगा जब हमारी ख़ामोशी उन आवाज़ों से ज़्यादा ताक़तवर साबित होगी जिनका तुम आज गला घोंट रहे हो!’’
- बिगुल सम्पादक मंडल
शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी
आज घोषणा करने का दिन
हम भी हैं इंसान
हमें चाहिए बेहतर दुनिया
करते हैं ऐलान
घृणित दासता किसी रूप में
नहीं हमें स्वीकार
मुक्ति हमारा अमिट स्वप्न है
मुक्ति हमारा गान
‘‘मैं साफ़-साफ़ कहना चाहता हूँ,’’ शिलिंग ने बोलना शुरू किया, ‘‘मैं कहना चाहता हूँ ताकि पीट आल्टगेल्ड जान जाये कि मेरा मक़सद क्या है। माफ़ करना जज, यूँ समझ लो मैं बोलते हुए ही सोच रहा हूँ और यहाँ चलकर आते हुए मैंने बार-बार इस सवाल पर सोचा कि मुझे तुम्हें क्या कुछ बताना है। लेकिन बात समझ में आ जाये इसके लिए मुझे हर चीज़ को उसकी सही जगह पर रखना होगा। एक अच्छे जर्मन की तरह - जो ऐसा ही करता है। और मैं एक जर्मन की तरह ही सोचूँगा। यह एक ऐसी चीज़ है जिससे मैं बच नहीं सकता। हो सकता है इसीलिए मैंने पार्सन्स के बारे में बात करना तय किया है, स्पाइस, फिशर और एंजिल के बारे में नहीं। उनके बारे में इससे ज़्यादा और क्या कहूँ कि वे उस देश के रहनेवाले हैं जहाँ आज़ादी से बेतरह नफ़रत की जाती है, जज, बेतरह नफ़रत की जाती है। क्या तुम्हीं ने यह नहीं बताया था कि कैसे तुम्हारे बाप ने चाबुक की मदद से तुम्हें आज्ञाकारिता का पाठ पढ़ाया था? मैं फिर माफ़ी चाहूँगा। मैं बस यह बात साफ़ कर देना चाहता था कि मैं पार्सन्स के ही बारे में क्यों बात कर रहा हूँ, और उन तीनों के बारे में नहीं, जो जर्मन थे और आज़ादी की तलाश में वहाँ से चले आये थे।’’
‘‘तो पार्सन्स के बारे में ही बात शुरू करो,’’ जज ने ठण्डेपन से कहा।
‘‘ठीक है, पर याद रखना कि चारों ही थोड़ी देर में मर जाने वाले हैं।’’ जज ने कुछ नहीं कहा। उसकी आँखें फिरती हुई आतिशदान पर रखी घड़ी पर पड़ी। शिलिंग बोलता रहा -
‘‘मैं पार्सन्स के बारे में बहुत कुछ जानता हूँ पर मैं चीज़ों को उनकी सही जगह पर रखना चाहता हूँ। कुछ लोग अल्बर्ट पार्सन्स के खानदान से शुरू करेंगे। यह चीज़ अच्छी है या बुरी, मैं नहीं जानता, मैं ख़ुद ही कोई खानदानी आदमी नहीं हूँ। और इस देश में तो इस मामले में एकदम ही घालमेल है। एक ओर तो सम्पत्ति की वंशावली है।
मिसाल के तौर पर, अगर तुम्हारा बाप करोड़पति था तो तुम बड़े लोगों के बीच जगह पाने के हक़दार हो जाते हो; लेकिन दूसरी ओर आज़ादी की वंशावली भी है और मुझे लगता है कि इस आश्चर्यजनक और अजीब देश में यही सबसे बड़ा अन्तरविरोध है। आज़ादी की वंशावली - जो महज यहीं है, और कहीं नहीं, किसी देश, किसी जगह में नहीं है - यह कहती है कि अगर तुम्हारा पिता या तुम्हारे दादा का पिता आज़ादी के इन्क़लाब में लड़ा था तो अमेरिका तुम्हारा ऋणी है, ऐसा ऋण जो कभी नहीं चुकेगा। क्यों कह रहा हूँ मैं ऐसा? महज इसीलिए नहीं कि पार्सन्स का स्थान इस परम्परा में ऊँचा, बहुत ऊँचा है - माँ की ओर से उसका एक पूर्वज जनरल जॉर्ज वाशिंगटन का सहायक था और पिता की ओर से दो ख़ास पूर्वज थे - मेजर जनरल सैमुएल पार्सन्स जिसने मैसाच्युसेट्स की टुकड़ी का नेतृत्व किया था और कैप्टन पार्सन्स, मैं उसका पूरा नाम नहीं जानता, जो बंकर हिल की लड़ाई में घायल हुआ था। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि अमेरिका को केवल इन्हीं बातों के आधार पर नहीं समझा जा सकता, पर इन्हें छोड़कर भी भला कैसे समझा जा सकता है? अमेरिकियों के पास हम जर्मनों की तरह की स्मृतियाँ नहीं है। यहाँ कभी लार्ड, ड्यूक और जुंकर (राजे-रजवाड़े, जागीरदार) जैसे बुराई के अवतार नहीं थे, जो उनके शरीर और आत्मा दोनों को नष्ट कर देते। यहाँ ऐसा दौर कभी नहीं रहा था और इसलिए वे नहीं जानते कि यह क्या होता है। लेकिन इनके पास है वह अविश्वसनीय अन्तरविरोध, और आज़ादी की ऊँची वंश परम्परा जिनकी बात मैंने अभी-अभी की थी। पार्सन्स के बारे में बात करते समय हमें यह याद रखना चाहिए।
‘‘यह मुमकिन है कि पार्सन्स आज जो कुछ भी है, उसके ऐसा होने में यह चीज़ कम महत्त्वपूर्ण न हो। हमें पार्सन्स को ऐसा बनाने वाली कुछ चीज़ों को समझना होगा, सब तो समझ ही नहीं सकते क्योंकि शायद ही कोई आदमी हो जिसका जीवन एक रहस्यमय किताब न हो, जिसका इतना सारा भाग ऐसी गूढ़लिपि में न लिखा हो जिसे बस ख़ुदा ही बाँच सकता हो। लेकिन कुछ बातें तो हैं ही, जैसे यह सच्चाई कि पार्सन्स युद्ध में लड़ा था। यह सच है कि वह दूसरी तरफ़ से लड़ा था पर इसलिए कि वह टेक्सास में रहता था, वहीं काम करता था, और सोलह-सत्रह साल का लड़का भला अपने साथियों के ख़िलाफ़ कैसे जाता और वह जमकर लड़ा। किसी ने उसे कायर नहीं कहा। हालाँकि बाद में जिस तरह नीग्रो लोगों को फिर से ग़ुलाम बना दिया गया उसे वह पचा नहीं पाया। और उसने पुनर्निर्माण सरकार (अमेरिका में दास-प्रथा के ख़ात्मे के लिए हुए गृहयुद्ध के बाद बनी सरकार) का पक्ष लिया, उसमें काम करने लगा और फिर उसका एक अंग बन गया। और भी बहुत कुछ है जो मैं नहीं जानता।
जैसे यह कि बीस साल की उम्र में ही पार्सन्स सारी कठिनाइयों के बावजूद उतने साफ़ और खरे ढंग से कैसे सोच लेता था? ख़ैर, उसने अपना जीवन ख़ुद ही ढाला। वह नीग्रो लोगों का, कुचले हुए गोरे लोगों का और उन इण्डियन लोगों की तरफ़ से बोलने वाला बन गया जिन्हें लगातार पश्चिम की ओर खदेड़ा और नष्ट किया जा रहा था, ठीक उसी तरह जैसे जर्मनों ने ज़मीन हड़पने के लिए स्लाव लोगों का सफाया किया था।
‘‘बहुत कुछ है पार्सन्स के बारे में बताने को, पर वक़्त बहुत ही कम है, बस इतना है कि यहाँ-वहाँ से चुनकर कुछ टुकड़े सुना दूँ। जैसे उसकी पत्नी लूसी, जो आधी रेड इण्डियन और आधी स्पेनी थी, अकेले शान से खिलने वाले जंगल के गुलाबों की तरह साँवली, सुन्दर, हार न मानने वाली। एक दूसरे के लिए उनका प्यार पुराने ढंग के इश्क जैसा था, पर था खरा प्यार!... और क्या बताऊँ? वह छपाई करता था, अख़बारों में लिखता था, सम्पादन का काम करता था। पर सबसे पहले वह टाइप सेट करने वाला एक मज़दूर था। लेकिन उसके हाथ काम करने में कुशल थे; वह एक अच्छा बढ़ई था और जब-तब देहातों में मवेशियों के झुण्डों को चराने का काम भी कर लिया करता था। तुम ऐसे आदमियों को जानते हो जो औरत की तरह कोमल और इस्पात की तरह सख़्त हों? तुम फ़ौज में ऐसे आदमियों से मिले होगे। पार्सन्स ठीक ऐसा ही था। मैं समझता हूँ कि मैं और भी बहुत कुछ बता सकता हूँ, पर मैं उसकी वकालत नहीं कर रहा। बहुत-सी बातों में असहमत हूँ मैं उससे। मैं तो हे मार्केट (अमेरिका के शिकागो शहर का मुख्य बाज़ार) वाले मामले में एक-दो बातें बताना चाहता हूँ जो शायद तुम्हें मालूम न हों।
‘‘हाँ, मैं यह ज़रूर बताना चाहूँगा कि मैं पहली बार उससे कैसे मिला। तुमने यह पुरानी कहावत तो सुनी ही होगी कि ‘दिल तो बस एक बार देखता है, फिर तो आँखें ही देखती हैं।’ मैं उस दिन की याद करता हूँ जब पहली बार उस पर नज़र पड़ी। 1877 की बात है, बड़ी रेलवे हड़ताल के दिनों की, जब मज़दूर आन्दोलन जागा था, जैसे उसी समय जन्मा था। हड़ताल की प्रकृति ही जन्म जैसी थी। शुरू करते समय दरअसल कोई संगठन नहीं था। पहले एक जगह मज़दूरों ने काम बन्द किया, फिर दूसरी जगह, फिर एक और जगह और धीरे-धीरे वह एक ऐसी हड़ताल बन गयी जैसी इस देश में पहले कभी नहीं हुई थी और इसी के साथ मज़दूर आन्दोलन भी उठ खड़ा हुआ। पर कोई महत्त्वपूर्ण नेता नहीं था। नेतृत्व को भी हड़ताल की तरह स्वतःस्फूर्त ढंग से, आन्दोलन के बीच से पैदा होना था। अल्बर्ट पार्सन्स इसी रास्ते से आया।
हाँ, इसके पहले एक और बात : वह एक संगठनकर्ता रहा था, यूनियन का अच्छा कार्यकर्ता था, मीटिंगों में बोला था, लेकिन 1877 के जुलाई महीने में यहाँ मज़दूरों की वह मीटिंग हुई जैसी इसके पहले कभी नहीं हुई थी। मज़दूरों को बाज़ार की सड़क पर बुलाया गया और वे मेडिसन चौराहे के पास इकट्ठा हुए। कितने लोग थे वहाँ, भगवान ही जानता है। कोई बीस हज़ार कहता है, कोई तीस हज़ार। मैं तो बस यही बता सकता हूँ कि घण्टों तक वे आते ही रहे और फिर तो चेहरों का ऐसा सागर लहराने लगा जैसा मैंने अपनी ज़िन्दगी में कभी नहीं देखा था। जहाँ कहीं भी लोग खड़े हो सकते थे वहाँ ऊपर को उठे चेहरों का लहराता हुआ कालीन दिखता था। उनके ऊपर थीं मशालें और झण्डे। मुझे डर-सा महसूस होने लगा। यह भी लग रहा था जैसे ख़ुशी से रो पड़ूँगा। और तब अल्बर्ट पार्सन्स खड़ा हुआ और उसने बोला। तभी मैंने उसे पहली बार देखा।
‘‘तुमने उसे नहीं देखा है, है न? लेकिन तुमने तस्वीरें तो देखी हैं। कुछ अच्छी हैं उनमें। ऊँची भौंहें, सुन्दर काली आँखें, नाक और ठुड्डी रत्न की तरह तराशे हुए, काली रेशमी मूँछें। जहाँ तक सौन्दर्य को सराहने और उस पर अविश्वास करने की भी बात है, मैं तो ख़ुद ही बुद्धू जैसा दिखता हूँ। लेकिन पार्सन्स की बात और थी। बात मानो, आदमी भूल जाता था कि वह सुन्दर है, सामनेवाला बस उसे अपना मान लेता था और उसकी बात सुनता रहता था। मैं उसे सुनने लगा। मैंने उसकी बातों को लिखना चाहा पर बस शुरू में ही। उसके बाद मैंने लिखना बन्द कर दिया और बस सुनता रहा। जानते हो उसने कैसे शुरू किया? उसने कहा, ‘अमेरिकी साथियो! आज़ादी जिनकी रोटी है और स्वतन्त्रता जिनका दूध, मैं तुमसे न्याय और अन्याय की बात करना चाहता हूँ। आदमी के अधिकारों के बारे में नहीं, बल्कि आशाओं के बारे में, क्योंकि हमारे पास अधिकार बहुत कम हैं और आशाएँ बहुत-सी।’ इतना मुझे याद है और फिर लिखना बन्द कर दिया था मैंने। लेकिन बाद में मैंने ख़ुद से पूछा, उसमें कितना वास्तविक है? कितना सच है? और उसमें किस हद तक अभिनय है? वह बूथ जैसा लगा, एडविन बूथ (उस समय का एक अमेरिकी अभिनेता) जैसा! और हमारे लिए तब वह एक अजीब आदमी था।
‘‘मैं अगले दिन अपने लोगों के अख़बार के दफ़्तर में उससे मिला। हमने हाथ मिलाये, कुछ बातें हुईं। बात कर ही रहे थे कि पुलिस उसे पकड़ने आ गयी। तुम जानते ही हो, कैसे। दो थे, उन्होंने अपनी पिस्तौलें उसके पेट में लगा दीं। वे उसे पैदल सिटी हॉल तक ले गये, फिर हिकी के दफ़्तर। हिकी उस समय पुलिस चीफ़ था।
अफ़सरों से कमरा भर गया। उन्होंने उससे सवाल पूछे और जब उसने जवाब देने की कोशिश की तो उसके मुँह पर थप्पड़ों की झड़ी लगा दी। उन्होंने उससे पूछा कि टेक्सास के बाग़ी दोगले, शिकागो आकर गड़बड़ी करने का तेरा मतलब क्या था? जब उसने बताने की कोशिश की कि वह मज़दूर पार्टी की एक सभा में बोला था, उसने मज़दूरों को उनके मतदान के अधिकार के बारे में बताया था तो पुलिस ने उसे बन्द कर दिया और फिर पीटा। फिर उन्होंने उसे छोड़ दिया। पर उन्होंने उसे चेतावनी दे दी। उन्होंने उसे धमकाया कि यह बहुत ही आसान है कि किसी दिन वह किसी गली के नुक्कड़ पर मरा पाया जाये। उन्होंने कहा कि अगर उसने मज़दूरों को भड़काना जारी रखा तो हो सकता है किसी दिन कोई भीड़ उसे लैम्प पोस्ट से लटका दे। यह सब उसने लौटकर हमें बताया। हम उसका इन्तज़ार कर रहे थे।
‘‘इसी के बाद वह अल्बर्ट पार्सन्स सामने आया जिसकी मैं बात कर रहा हूँ।
तुम पार्सन्स जैसे आदमी को धमका नहीं सकते, तुम उसे पीट नहीं सकते, उसे जहाँ से आया था वहीं चले जाने को नहीं कह सकते। जो लोग चिल्लाते, गरजते और हाँकते हैं, ऐसे लोगों के साथ तो यह चल सकता है, लेकिन पार्सन्स जैसों के साथ, टेक्सास वालों के साथ, सौम्य, नम्र और शान्ति से बोलने वालों के साथ यह सब करना बेकार है।
‘‘आने वाले वर्षों में पार्सन्स क्या बन गया, इसे जानो और तब तुम समझोगे कि उसके जैसा बस एक और था, और वह था सिल्विस (एक और मज़दूर नेता)। सिल्विस मर गया लेकिन पार्सन्स की उन्हें हत्या करनी पड़ रही है। और पार्सन्स से मैं सहमत नहीं हूँ फिर भी मुझे तुम्हें यह सब बताना ही होगा। मैं चाहता हूँ कि तुम उस आदमी पर ग़ौर करो, देखो कि उसके साथ क्या हुआ। ... फिर, आठवें दशक के आखिरी वर्षों में हमने एकसाथ काम किया। मतदान में उसकी अभी भी आस्था थी और शिकागो में लेबर पार्टी दिन दूनी, रात चौगुनी बढ़ रही थी। कैसा आदमी था वह? वह थक नहीं सकता था। असफलता उसे और मज़बूत बना देती थी। हम सबके चेहरे अगर बुरी तरह उतरे होते, तब भी वह मुस्कुरा सकता था। वह एक शाम में चार-चार जगह भाषण देता था और तुम जानते ही हो कि जनता के बीच बोलने से ज़्यादा जानलेवा शायद ही कुछ हो। वह ‘‘नाइट्स ऑफ लेबर’’ (एक मज़दूर संगठन का नाम) में काम करता था। वह लिखता था। वह एकसाथ बीस काम करता था और फिर भी हमेशा पत्नी के लिए काफ़ी समय निकाल लेता था। सड़कों पर वह पत्नी के साथ ऐसे चलता जैसे दुनिया में उससे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण कुछ हो ही नहीं - दोनों एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले होते और एक दूसरे को निहारते चलते जैसे उन्होंने उसी दिन और उसी क्षण एक-दूसरे को खोज निकाला हो।
‘‘जैसा मैंने कहा, उसके लिए कुछ भी ज़्यादा नहीं था। अगले कुछ सालों में हमने उसे चुनाव लड़ाया - एल्डर मैन, फिर काउण्टी क्लर्क, फिर कांग्रेस। और वह सिर्फ़ अपने लिए नहीं, हमारे हर उम्मीदवार के लिए बोलता था। और इस सबके साथ उसने शिकागो में पहली ट्रेड्स असेम्बली बुलाने के लिए भी समय निकाल लिया। उसका पहला अध्यक्ष बना, अपने पेशे में टाइपोग्राफिकल यूनियन बनायी। और अगर कोई भी यूनियन बनाने में सलाह और ताक़त माँगता था तो पार्सन्स उसका मुफ़्त सलाहकार और सहयोगी बनने को तैयार रहता था। एक समय हम उसे अमेरिका के राष्ट्रपति के लिए लेबर पार्टी का पहला उम्मीदवार बनाना चाह रहे थे। पर जानते हो, उसकी उम्र ही नहीं थी। सोच सकते हो भला, वह सिर्फ़ पैंतीस का था। आज भी वह सिर्फ़ तैंतालिस का है।
‘‘पर मैं अपनी कहानी से भटक रहा हूँ। मुझे तुम्हारे धैर्य की परीक्षा लिए बिना जल्दी से जल्दी इसे संक्षेप में बता देना चाहिए। 1880 में वह लेबर पार्टी से अलग हो गया। क्यों? हम और तुम व्यावहारिक लोग हैं, पर पार्सन्स देख रहा था कि क्या हो रहा है। घूस, वोटों की ख़रीद-फरोख़्त, भ्रष्टाचार। एक बार उसने मुझसे कहा था, ‘तुम एक आदमी से बारह घण्टे काम कराते हो और उसे ज़िन्दा रहने की ज़रूरतों का आधा भी नहीं देते और ये उम्मीद करते हो कि वह सावधानी और ईमानदारी से वोट देगा। मैं सच कह रहा हूँ, अगर उसके बच्चे भूखों मरते हों तो उसके अपना वोट बेच देने की बात पर हैरान मत होना।’
‘‘मैंने उससे पूछा था कि वह क्या करने का इरादा रखता है। उसने कहा आठ घण्टे काम के दिन की लड़ाई के लिए काम करना और मज़दूरों को संगठित करना। उस समय ‘काम के घण्टे आठ’ आन्दोलन में हमारी ताक़त बढ़नी शुरू ही हुई थी। सारी ट्रेड यूनियनों ने मिलकर पार्सन्स को पूरे मध्य-पश्चिम अमेरिका में भेजा। वह हर जगह बोला। मैं देश के ऐसे एक भी आदमी को नहीं जानता जिसने मज़दूरों को इतना दिया हो जितना पार्सन्स ने। उसे आठ घण्टे काम के बारे में वाशिंगटन के बड़े सम्मेलन में शिकागो का प्रतिनिधि बनाकर भेजा गया। सम्मेलन में उसे उस कमेटी में चुन लिया गया जिसका काम वाशिंगटन में रहकर संगठित मज़दूरों के आन्दोलनों में तालमेल करना था और आठ घण्टे के काम के दिन के सवाल की गहराई से जाँच-पड़ताल करना था।
‘‘वाशिंगटन में पार्सन्स के साथ क्या हुआ, उसने वहाँ क्या देखा, यह मैं नहीं जानता। वह किस तरह का आदमी था, इसे हमेशा याद रखना चाहिए। अगर मुझे सन्तों में विश्वास होता तो मैं उसे एक सन्त कहता। लेकिन वह तो जीवन से इतना लबरेज़, रोज़-रोज़ के जीने के अन्दाज़ से इतना मुग्ध और इस क़दर इन्सान था कि क्या कहूँ। यह बात सन्तों में तो नहीं होती, या होती है? और वह अपनी पत्नी से पागलों की तरह प्यार करता था - ऐसा प्यार नहीं जिसे लोग शुद्ध प्यार कहते हैं, बल्कि ऐसा प्यार जिसमें दो व्यक्तियों के शरीर एक-दूसरे को समझते हैं। उन दोनों को एकसाथ देखते ही यह बात समझ में आ जाती थी। लेकिन वाशिंगटन में कुछ ऐसा हो गया कि वह बदल गया। उसने देखा कि देश पर शासन कैसे होता है और उसके बाद से उसकी बातों का ढंग बदल गया।
‘‘उसके बाद वह हमसे पूरी तरह अलग हो गया और अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर संघ (इण्टरनेशनल वर्किंग पीपुल्स एसोसिएशन) में शामिल हो गया। वह क्रान्तिकारी समाजवादी बन गया। अराजकतावादी? अराजकतावादी तो उसे कहा गया है, उसका बिल्ला लगाया गया है उस पर। मैं जानता हूँ वह क्या था! किसी भी हालत में मैं उसके ख़िलाफ़ रहूँगा लेकिन वह था वही, एक क्रान्तिकारी समाजवादी। उस बेहूदे कार्टून जैसा नहीं, जैसा कि उसे पूँजीपतियों के अख़बारों में दिखाया गया है - दोनों हाथों में बम लिये एक दाढ़ीवाला पागल और नीचे लिखा हुआ है अराजकतावादी। पार्सन्स ऐसा नहीं है। यह मानते हुए भी कि वह एक ऐसा आदमी है जिसने ग़लत रास्ता चुना, मैं यही कहूँगा कि वह ऐसा नहीं है।
‘‘और फिर भी जब मैं सोचता हूँ कि उसके बाद उसने क्या किया तो मैं भला किस हद तक उसकी बुराई कर सकता हूँ? वह लोगों के पास गया। वह कोयला क्षेत्रों में गया, पेनसिल्वानिया और इलिनाय के नरक जैसे नगरों में घूमा। वह खान मज़दूरों से बातचीत करता था, उन्हीं के साथ रहता था, हर हमेशा समाजवाद के लक्ष्य का प्रचार करता हुआ। फिर भी, यहाँ से पाँच सौ मील के दायरे में मज़दूरों का ऐसा कोई संघर्ष नहीं था, जिसमें उसने भाग न लिया हो। उसने अपने इण्टरनेशनल के पहले अंग्रेज़ी साप्ताहिक अख़बार ‘अलार्म’ की स्थापना की, उसका सम्पादन किया, ये तो तुम जानते ही हो। कुछ वर्षों पहले जब बड़ी-बड़ी हड़तालें हुईं, तब वह मज़दूरों के साथ था। ये मत सोचना कि उन्होंने पहले उसे मार डालने की कोशिश नहीं की थी। पिंकरटन्स (अमेरिका की पहली ख़ुफ़िया पुलिस, जिसका काम मज़दूरों का दमन करना, उनकी हड़तालें तोड़ना और उनके हितों को उठाने वाले नेताओं को मार डालना था) की टुकड़ियों को पार्सन्स को खत्म कर देने के गुप्त आदेश थे, मैंने अपनी आँखों से देखा है। औरों के लिए भी थे, पर लिस्ट में पहला नाम पार्सन्स का था। पुलिस को निर्देश थे कि पहला मौक़ा पाते ही उसे लाठियों से पीट-पीटकर मार डाला जाये। और उन्होंने इसकी कोशिश भी की, हरचन्द कोशिश की।
‘‘हे मार्केट की बात बताने से पहले और क्या है बताने को? जानना चाहोगे कैसे रहता था वह? उसके पास आजीविका का कोई निश्चित जरिया नहीं रह गया था। लूसी होशियार थी। मैंने देखा है कैसे वह पार्सन्स के पहन-पहनकर चिथड़ा हुए कपड़ों की मरम्मत करती थी। बची-खुची चीज़ों से खाना तैयार कर देती थी वह। ऐसे भी साल गुज़रे थे जब उसके पास कोई काम ही नहीं था। पश्चिम के हर अख़बार और हर छापाख़ाने की ब्लैकलिस्ट में उसका नाम था। तब उसके अपने लोग अपनी थोड़ी-सी कमाई में से उसे खिलाते थे। जब तक ज़बरदस्ती नहीं की जाती वह कुछ नहीं लेता था। उसने कभी कुछ माँगा नहीं, कभी शिक़ायत नहीं की। एक बार मैं उससे मिला तो उसने पूरे दो दिन से कुछ नहीं खाया था, पर एक घण्टे से ज़्यादा समय बीत जाने पर ही मैं समझ पाया कि भूख से उसे चक्कर आ रहे हैं।
‘‘मैं जानता हूँ मुझे मीटिंग की बातें दोहराकर तुम्हें बोर करना पड़ेगा क्योंकि ये सब हम दोनों जानते हैं। मैं तो अपने लिए कह रहा हूँ, तुम मुझे सुन रहे हो, इसके लिए शुक्रिया। लेकिन पहले मैं उस आदमी की बात पूरी कर लूँ। ये लोग आज उसे भले ही मार डालें पर वह मरेगा नहीं। कुछ लोग मरते नहीं हैं। हो सकता है हम दोनों का बाद में उससे वास्ता पड़े। इसीलिए मैं उसे समझना चाहता हूँ, अपने लिए भी और तुम्हारे लिए भी। वे कहते हैं कि समाजवाद विदेशी चीज़ है, लेकिन पार्सन्स में विदेशी क्या है? एक बार मैं टेक्सास-निवासी अमेरिकी सेना के एक मार्शल से मिला था। वह भी पार्सन्स की तरह था, शान्त, सौम्य, विनम्र। कभी आवाज़ ऊँची नहीं करता था और मानो माफ़ी माँगने के अन्दाज़ में बात करता था। पर उसे एक बहादुर आदमी के रूप में जाना जाता था और वह भी अपने ढंग से उसी का पक्ष लेता था जो कमजोर हो, हताश हो। लेकिन यह मत सोचना कि पार्सन्स कोई भोंदू है। वह हर चीज़ पर ठण्डे दिमाग़ से और तार्किक ढंग से सोचता-समझता है। मज़दूर आन्दोलन और समाजवाद पर जो कुछ भी उसे मिल सका वह सब उसने पढ़ रखा है। उसकी बातों में विचार होते हैं। मेरा उन विचारों से बहुत ज़्यादा विरोध है। मैं कहता हूँ उसके विचार ग़लत हैं, ख़तरनाक ढंग से ग़लत। जो कुछ हुआ क्या वह साबित नहीं करता कि पार्सन्स ग़लत था? उसके हिसाब से तो एक ही रास्ता है, वह यह कि मज़दूर उठ खड़े हों और ज़मीन पर, उत्पादन के साधनों पर, कारख़ानों पर, स्कूलों और न्यायालयों पर क़ब्ज़ा कर लें। मेरे ख़याल से यह पागलपन है। इस तरह, तुम देख ही रहे हो कि मैं भी उसके ख़िलाफ़ हूँ। स्पाइस और दूसरों के भी ख़िलाफ़ हूँ। लेकिन चूँकि मैं उनसे सहमत नहीं हूँ, तो क्या सिर्फ़ इसी वजह से उन्हें मर जाना चाहिए, क्या सिर्फ़ इसी वजह से उनका क़त्ल कर दिया जाना चाहिए।
‘‘तुम पूछ सकते हो कि अगर पार्सन्स ऐसा मानता था तो उसे आठ घण्टे काम के दिन के लिए मज़दूरों की हर तरक़्क़ी और हर माँग के लिए इतनी कठिन लड़ाई लड़ने की क्या गरज थी। बहुत दिलचस्प बात है यह। मैंने ख़ुद पार्सन्स से यह पूछा था। लेकिन उसके लिए इसमें कोई अन्तरविरोध नहीं था। कैसे? वो इस तरह कि मज़दूरों की हर उपलब्धि, उनकी हर जीत उसके अपने लक्ष्य के लिए और उनके लक्ष्य के लिए एक उपलब्धि, एक जीत थी। मैं यह बताने के लिए इसे कह रहा हूँ कि वह आदमी जो कहता था, वही करता भी था। पार्सन्स सिर्फ़ एक है, बस एक। ‘‘मैं और भी बहुत कुछ बता सकता था। पार्सन्स के बारे में इधर-उधर की बातें करके सारा दिन गुज़ार सकता था। पर इसके लिए आज बहुत वक़्त नहीं है। सिर्फ़ डेढ़ घण्टे और हैं। इसलिए उस आदमी की बात से शुरू करके देखें कि आख़िर हुआ क्या था।
‘‘तुम्हें याद है आज से डेढ़ साल पहले हमने तय किया था कि साल का एक दिन अमेरिकी मज़दूरों को समर्पित किया जाये, एक दिन जो हमारा होगा, जो हमारी एकता और आठ घण्टे काम के संघर्ष में हमारे दृढ़संकल्प का प्रतीक होगा। हमने पहली मई का दिन चुना। क़सम से, तुमने सोचा होगा कि हमने अपने लिए एक दिन, अपने लिए एक छुट्टी माँगकर देश की बुनियाद ही नष्ट कर दी। तुम्हें याद होगा कि जैसे-जैसे वह दिन क़रीब आया, क्या हुआ। पिंकरटन्स की पूरी फ़ौज शिकागो में उमड़ पड़ी। पुलिसवाले सर से पाँव तक हथियारों से लैस हो गये। सड़कों पर घूमने वाले सारे आवारों को हमारे ख़िलाफ़ तैनात कर दिया गया। नेशनल गार्ड को सावधान कर दिया गया। यहाँ तक कि शिकागो में शान्ति बनाये रखने के लिए फ़ौज की टुकड़ियों की माँग की गयी। लेकिन क्या हमसे शान्ति को ख़तरा था? हमने तो बस आठ घण्टे काम के आन्दोलन के लिए अपनी एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए एक दिन माँगा था। और शनिवार का वह दिन आया और बीत गया। कोई गड़बड़ी नहीं हुई। गड़बड़ी तो हमारी दुश्मन थी। हमें अपना उद्देश्य पता था। हम सारे देश में संगठित थे - हिंसा से हमें क्या लाभ मिलता?
‘‘लेकिन 3 मई को, सोमवार के दिन एक बुरी बात हो गयी। तुम जानते ही हो इसके बारे में, पर मैं हर चीज़ को उसकी जगह पर रखना चाहूँगा। मैकार्मिक कारख़ाने पर आयोजित प्रदर्शन सिर्फ़ लम्बर शोवर्स यूनियन का ही प्रदर्शन नहीं था, वहाँ मैकार्मिक कारखाने के भी एक हज़ार से ज़्यादा हड़ताली मज़दूर थे। हालाँकि आगस्त स्पाइस वहाँ बोला था पर उसने गड़बड़ी करने का नारा नहीं दिया था। उसने एकता के लिए आह्वान किया था। यह कोई अपराध है क्या? गड़बड़ी तो तब शुरू हुई जब हड़ताल भेदिये कारख़ाने से बाहर जाने लगे। हड़तालियों ने उन्हें देख लिया और बुरा-भला कहना, गालियाँ देना शुरू कर दिया जो यहाँ दोहराने लायक नहीं है। उस दृश्य की कल्पना करो। दो यूनियनों के छः हज़ार हड़ताली मज़दूर बाहर सभा कर रहे हैं और उनकी नज़रों के सामने से हड़ताल भेदिए चले जा रहे हैं। मैंने देखा वहाँ क्या हुआ। मैकार्मिक के हड़ताली कारख़ाने की ओर बढ़ने लगे। किसी ने उनसे कहा नहीं था, किसी ने उन्हें उकसाया नहीं था। उन्होंने सुनना बन्द कर दिया था और वे फाटकों की ओर बढ़ रहे थे। हो सकता है उन्होंने कुछ पत्थर उठा रखे हों, हो सकता है उन्होंने भद्दी बातें कहीं हो - लेकिन उनके कुछ करने से पहले ही कारख़ाने की पुलिस ने गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। हे भगवान, लगता था जैसे कोई युद्ध हो। हड़ताली निहत्थे थे और पुलिस मानो चाँदमारी कर रही हो, पिस्तौलें हाथ भर की दूरी पर थीं, रायफ़लें भी तनी हुई थीं - धाँय, धाँय, धाँय...।
‘‘लोगों का कहना है कि कारख़ाने ने कुमुक माँगी थी। इसमें कुछ वक़्त लगता, लगता या नहीं, लेकिन मिनटों में पुलिसवालों से लदी एक गश्ती गाड़ी आ धमकी और उनके पीछे दौड़ते हुए आयी दो सौ हथियारबन्द आदमियों की टुकड़ी।
‘‘ऐसा दृश्य पुरानी दुनिया में सम्भव था, यहाँ नहीं। मज़दूर ऐसे गिर रहे थे जैसे लड़ाई का मैदान हो। जब उन्होंने टिककर खड़े होने की कोशिश की तो पुलिसवाले चढ़ दौड़े और लाठियों से पीटकर उन्हें अलग कर दिया। जब वे तितर-बितर होकर दौड़े तो पुलिसवालों ने उनका पीछा किया, पीछे से लाठियाँ बरसायीं। देखा नहीं जाता था। यह क्रूरता थी, वहशीपन था। भाग जाने का मन कर रहा था। लगता था कै हो जायेगी। और यही किया मैंने। पर स्पाइस भागकर ‘आरबाइटेर ज़ाइटुंग’ (श्रमिक समाचारपत्र) के दफ़्तर पहुँचा और इस घटना का विरोध करने के लिए हे मार्केट चौराहे पर मीटिंग की फ़ौरी ख़बर चारों ओर भिजवायी। यह थी शुरुआत। इसलिए शुरू हुआ यह सब क्योंकि हम अपने दिन, मई दिवस पर शान्त और संयमित थे और वे इसे गवारा नहीं कर सकते थे। बन्दूक़ों से, बन्दूक़ों से वे असली गड़बड़ी फैला सकते थे और तब लोग चीख़-चीख़कर क्रान्ति की बात करते।
पर असल बात यह है कि पार्सन्स वहाँ नहीं था। ठीक वैसे ही जैसे पार्सन्स उस वक़्त हे मार्केट में नहीं था जब बम फेंका गया। सिर्फ़ मैकार्मिक के और लकड़ी ढोने वाले मज़दूर ही हड़ताल पर नहीं थे। पुलमैनवाले, ब्रुन्जविकवाले, पैकिंग कारखानों के मज़दूर, सभी हड़ताल पर थे और शिकागो ही नहीं सेण्ट लुई, सिनसिनाटी, न्यूयार्क, सान फ्रांसिस्को हर जगह हड़ताल थी। पार्सन्स कहीं भी हो सकता था, पर वह यहाँ नहीं था। पार्सन्स थका हुआ और बीमार था। वह घर आता और बिस्तर पर ढह जाता। मज़दूरों के संगठनकर्ता की ज़िन्दगी ज़्यादा नहीं चलती। पहले पेट जवाब देता है, फिर टाँगें और जब आपको अच्छी तरह पीटा और लाठियों से कूँचा जा चुका हो तब सिर और दिमाग़ भी जवाब देने लगते हैं।
‘‘तो उन्होंने अगले दिन हे मार्केट में मीटिंग रखी। हे मार्केट को उन्होंने इसलिए चुना था क्योंकि वह जगह बड़ी थी। स्पाइस तो जैसे पागल हो उठा था। घायल और मर रहे आदमियों की तस्वीर उसके दिमाग से हटती ही नहीं थी। वह सोच रहा था कि हज़ारों-हज़ार मज़दूर विरोध प्रदर्शन में आ जायेंगे। लेकिन मैकार्मिक तो एक विराट संघर्ष का छोटा-सा हिस्सा भर था और मज़दूरों की हार तो शुरू हो चुकी थी। हर जगह उन्हें कुचला और तोड़ा जा रहा था। एक और मीटिंग से भला क्या हो जाता? पर स्पाइस को कम मत समझना। वह बहुत तेज़ आदमी था, और ईमानदार भी। विदेशों में जन्मे मज़दूरों के बीच उसकी वही हैसियत थी जो अमेरिकी मज़दूरों के बीच पार्सन्स की थी। वह सोचता था कि यह एक ऐसा मौक़ा है जिसे गँवाना नहीं चाहिए। अगर हे मार्केट में बीस हज़ार मज़दूर इकट्ठा हो जाते हैं तो ‘काम के घण्टे आठ’ आन्दोलन का रुख़ बदल सकता है। हो सकता है कि ऐसा ही होता, पर पता नहीं, जैसा मैं कह रहा था, मैं इन लोगों से सहमत नहीं हूँ। क्रान्ति की बात से मेरी लड़ाई आगे नहीं बढ़ती, बाधित ही होती है। मैं तो ऐसा ही समझता हूँ।
‘‘लेकिन अगली शाम को हेमार्केट में बीस हज़ार लोग नहीं इकट्ठा हुए। जब स्पाइस वहाँ पहुँचा तो बहुत थोड़े लोग थे। शाम गुज़रने के साथ लोग बढ़े तो सही, पर कभी भी भीड़ तीन हज़ार तक भी नहीं पहुँची। चूँकि भीड़ कम थी इसलिए उन्होंने मीटिंग की जगह हे मार्केट से बदलकर दे प्लेन कर दी, जो लेक और रैडोल्फ़ के बीच की एक जगह थी। लेकिन मैं तुम्हें पार्सन्स के बारे में बता रहा हूँ। सिर्फ़ इसीलिए तो आज सुबह तुम्हारा वक़्त बरबाद कर रहा हूँ। मैं तुम्हें बता रहा हूँ कि कैसे पार्सन्स वहाँ नहीं था, कैसे उसे मीटिंग के बारे में पता तक नहीं था। वैसे तो सैम फ़ील्डेन (पार्सन्स और स्पाइस का दोस्त और मज़दूर संगठनकर्ता) भी हे मार्केट की मीटिंग के बारे में नहीं जानता था।
‘‘लेकिन पार्सन्स पर लौटें। उसने दो मई को शिकागो छोड़ दिया था और भाषण देने सिनसिनाटी चला गया था। तीन मई के पूरे दिन जब मैकार्मिक कारख़ाने पर यह भयानक घटना घट रही थी, तब पार्सन्स यहाँ था ही नहीं। वह चार की सुबह घर पहुँचा। वह सारी रात सोया नहीं था। जब लूसी उसे बता रही थी कि यहाँ क्या हुआ तब वह थकान से निढाल हो रहा था। ख़ुद उसने सिनसिनाटी में जो कुछ देखा था उससे कुछ अलग नहीं था यह। मालिक लोग नाराज़ थे। मालिकों के लिए ख़ुद को चुनौती देने की ज़ुर्रत करने वाले गन्दे राक्षस को कुचल डालना ज़रूरी था, और वे उसको कुचलने में लगे हुए थे। और हर कहीं वह टुकड़े-टुकड़े हो रहा था। भूखे, थके, निहत्थे आदमी की गैटलिंग बन्दूक़ के सामने क्या बिसात थी!
‘‘पार्सन्स पत्नी का बयान सुनता रहा। अपने दोनों बच्चों के साथ खेलता रहा।
उसने पत्नी की दी हुई कॉफ़ी पी, पावरोटी का एक टुकड़ा खाया। उसने लूसी से कहा, ‘हमें कुछ करना ही होगा।’ पर करने को था ही क्या? वह बोली, ‘तुम बहुत थक गये हो। आज रात मीटिंग नहीं कर पाओगे।’ वह हे मार्केट की मीटिंग की बात नहीं कर रही थी। उस मीटिंग के बारे में तो वह जानती ही नहीं थी। ‘मीटिंग तो करनी ही होगी,’ पार्सन्स ने कहा। पार्सन्स के नेतृत्व में काम करने वालों को हम लोग ‘अमेरिकी ग्रुप’ कहते थे क्योंकि उनमें से ज़्यादातर अमेरिका में पैदा हुए मज़दूर थे। उसने तय किया कि मीटिंग होगी और बेहद थके होने के बावज़ूद ‘डेली न्यूज़’ में घोषणा करवाने चला गया। फिर वह घर लौटा और बच्चों के साथ थोड़ी देर और खेला। फिर सो गया। जागने पर वह काफ़ी अच्छा महसूस कर रहा था। पहले जैसा, हँसता-हँसाता। लूसी बताती है कि उसने हार की नहीं जीत की बातें कीं, और कहा कि उसके बच्चे एक ऐसे अमेरिका में बड़े होंगे जो दुनिया को न्याय और आज़ादी की ओर ले जायेगा। ‘‘शाम को वह, लूसी और दोनों बच्चे मीटिंग में गये। हमेशा की तरह वह और लूसी साथ-साथ चल रहे थे, प्रेमियों की तरह एक-दूसरे को निहारते हुए।
‘‘इस बीच हे मार्केट की मीटिंग छोटी तो थी ही, शुरू ही नहीं हो रही थी। कैसी बुरी रात थी! डरावनी, कभी भी पानी बरसने का ख़तरा बना हुआ था। बारिश के डर से काफ़ी लोग नही आये थे। जो आये थे वे इन्तज़ार कर रहे थे कि कब मीटिंग शुरू हो और ख़त्म हो। लेकिन जानते ही हो, सब पार्सन्स पर निर्भर थे पर पता चला कि हरेक ने पार्सन्स को मीटिंग में लाने की बात किसी और पर छोड़ रखी है। स्पाइस मीटिंग को पार्सन्स के बिना शुरू नहीं करना चाहता था और जब किसी ने ‘डेली न्यूज़’ की घोषणा के बारे में बताया तो स्पाइस बोला कि वह ख़ुद पार्सन्स को लेने जायेगा। लेकिन ऐसा करने से तो मीटिंग की जान ही निकल जाती। उन्होंने स्पाइस को बोलना शुरू करने के लिए तैयार कर लिया और कोई दूसरा पार्सन्स को ढूँढ़ने चला गया। स्पाइस ने बोलना शुरू किया। उसने जो कहा उसे दोहराने की जरुरत नहीं। अख़बारों में काफ़ी छप चुका है। लेकिन यह याद करने की ज़रूरत है कि उसने मुख्य तौर पर ‘काम के घण्टे आठ’ आन्दोलन की बात की। उसने कहा कि सबकुछ सिर्फ़ इसीलिए ख़त्म नहीं हो जाना चाहिए कि मज़दूरों पर लाठियाँ-गोलियाँ बरसायी गयी हैं। हमें और एकजुट होना होगा, और कठिन संघर्ष करना होगा। और उसने बताया कि पिछले दिन मैकार्मिक पर क्या हुआ था। इस बीच कोई दूसरी वाली मीटिंग में पार्सन्स के पास पहुँच चुका था। वहाँ फ़ील्डेन भी था। वह तो होता ही, क्योंकि भले ही वह अंग्रेज़ है पर अमेरिकियों के साथ मुझसे बेहतर ढंग से बात कर सकता है। पार्सन्स बुरी तरह थका हुआ था पर उसने कहा कि वह आयेगा और फिर से बोलेगा। फ़ील्डेन भी उसके साथ आया। फ़ील्डेन लम्बा-तड़ंगा है। यार्कशायरवालों की तरह उसे ग़ुस्सा देर से आता है पर चारों ओर जो कुछ हो रहा था वह उससे भीतर ही भीतर उबल रहा था। उसके मन में कड़वाहट भर गयी थी। और जब वह बोलता था तो यह कड़वाहट बाहर आ जाती थी।
‘‘ख़ैर! पार्सन्स अपनी पत्नी और दोनों बच्चों के साथ दे प्लेन स्ट्रीट गया जहाँ स्पाइस की मीटिंग थी। बच्चे तब तक थक चुके थे। एक लूसी की गोद में था, दूसरा पार्सन्स की। हाँ-हाँ, यह मैं तुम्हारी सहानुभूति पाने के लिए ही कह रहा हूँ। आज के बाद वक़्त नहीं होगा। और मुझे तुमसे सहानुभूति पाने में कोई शर्म नहीं है। ‘‘अभी भी काले आसमान के नीचे क़रीब दो हज़ार आदमी पार्सन्स का इन्तज़ार कर रहे थे। तुम नहीं समझोगे। पर मैंने दो-दो घण्टे खड़े रहकर पार्सन्स के बोलने का इन्तज़ार किया है। वहाँ दो गाड़ियाँ थीं। एक गाड़ी का इस्तेमाल भाषण देने वाले मंच की तरह कर रहे थे और दूसरी पर लोग बैठे थे, पर उन्होंने लूसी पार्सन्स और बच्चों के लिए जगह बना दी। पार्सन्स को देखकर स्पाइस को राहत मिली। तुम्हीं सोचो, कैसा लगेगा जब तुम्हारी नज़र में इतना महत्त्वपूर्ण मौक़ा हो और भीड़ खिसकना शुरू कर दे।
‘‘स्पाइस को ऐसा ही लग रहा था। तुम तो ख़ुद ही काफ़ी दिनों से राजनीति में रहे हो। समझ सकते हो कि अगर श्रोता मीटिंग छोड़कर जाने लगें, और वह भी एक-एक करके नहीं, झुण्डों में, तो अच्छे से अच्छा आदमी भी पस्त हो जायेगा। बहरहाल, जब पार्सन्स बोलने के लिए खड़ा हुआ तो नौ बज चुके थे। लोग रुक गये। ज़रा उसकी हालत के बारे में सोचो। वह तीस घण्टों से नहीं सोया था। एक मीटिंग में बोलकर सीधे वहाँ पहुँचा था। वह सबकुछ जिसके लिए वह लड़ता रहा था, उसे अपनी आँखों के सामने टूटते, बिखरते देख रहा था। फिर भी वह बोला, और अच्छी तरह बोला। उसने ‘आठ घण्टे के काम’ आन्दोलन से बात शुरू की, फिर मज़दूरों के बारे में बोला। मैं नहीं समझता, अमेरिका में मज़दूरों के बारे में कोई पार्सन्स से ज़्यादा जानता होगा। वह इज़ारेदारी के बढ़ने के बारे में बोला - यह सब ठीक है। तुमने उसका बयान पढ़ा है, तुम जानते हो वह किसके बारे में बोला। लेकिन यह बातें सरासर झूठीं हैं कि उसने पहले से लिखकर तैयार किया हुआ कोई भाषण दिया, यह बिल्कुल झूठ है। उसके दिमाग में जो बातें आती गयीं, वह बोलता गया। कोई लिखा हुआ भाषण नहीं था और न ही किसी ने उसकी बातों को लिखा था। हाँ, अगले दिन एक भाषण का आविष्कार कर लिया गया, पर वह पार्सन्स का नहीं था।
‘‘और फिर उसने बात ख़त्म की और फ़ील्डेन का परिचय कराया। यहाँ बैठकर तुमसे बातें करते हुए फ़ील्डेन की बातों को याद करना दिलचस्प है क्योंकि फ़ील्डेन क़ानून के बारे में बोला था। धनिकों का कानून, ग़रीबों का नहीं, धनिकों की अदालतें, ग़रीबों की नहीं। ठीक है, मैं पार्सन्स के बारे में ही बताता हूँ। बैठो, और मेरी बात सुनो, या हो सकता है तुम मेरी बात न सुनो और सोचो कि यह बेवकूफ़ बढ़ई बेकार में तुम्हारा वक़्त बरबाद कर रहा है। लेकिन इस बढ़ई का लेबर पार्टी में राजनीतिक प्रभाव है, तुम्हें उसकी बातें सुननी चाहिए और उसकी भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचाना चाहिए। ठीक है, फिर मुझे अपनी तरह से बताने दो।
‘‘फ़ील्डेन ने बोलना शुरू किया तो पार्सन्स गाड़ी के पास गया और छोटे बच्चे को उठा लिया। तभी बारिश शुरू हो गयी। एक बच्चा रोने लगा। जो कुछ हुआ उसकी रोशनी में इस बात पर ग़ौर करना। बच्चे को गोद में लिए हुए पार्सन्स मंच तक गया जहाँ से फ़ील्डेन बोल रहा था। उसने कहा कि बारिश हो रही है, क्यों न वे जेफ हॉल में चले चलें जहाँ अक्सर उनकी मीटिंगें हुआ करती थीं। उसने ऐसा इसलिए सोचा क्योंकि उसकी गोद में बच्चा था और वह ख़ुद बहुत थका हुआ था। लेकिन दो हज़ार लोगों को सड़कों से होकर शान्ति के साथ ले जाना और हॉल में ले जाकर व्यवस्थित ढंग से बैठाना कैसे होता है। ‘मैं बस दो मिनट में बात ख़त्म करता हूँ,’ फ़ील्डेन बोला। पार्सन्स ने सिर हिलाया पर वह बच्चों के साथ बारिश में वहाँ खड़ा नहीं रह सकता था। भीड़ छँट रही थी। उस वक़्त तक वहाँ करीब छः-सात सौ लोग होंगे, जो अभी भी बारिश में खड़े भाषण सुन रहे थे।
‘‘तो पार्सन्स, लूसी, दोनों बच्चे और एक दोस्त मीटिंग से जेफ हॉल चले गये। वे थोड़ी देर के लिए ही गये थे वहाँ, कुछ लोगों से मिलने, और उसके बाद उन्हें घर जाना था। लेकिन धमाका उन्होंने वहीं पर सुना।
‘‘और वह धमाका, वह बम - तुम तो जानते ही हो कैसे हुआ, या हो सकता है न जानते हो। इस बात को बहुत दिन हो गये हैं, हो सकता है मेरे अच्छे दोस्त को बात याद न हो। फ़ील्डेन बोल ही रहा था कि वार्ड और बोनफ़ील्ड के नेतृत्व में दो सौ पुलिसवाले भीड़ को ठेलते हुए आ धमके। क्यों? कैसे? किसलिए? उस शान्त, व्यवस्थित मीटिंग के लिए जो ख़ुद बिखर रही थी? मुश्किल से पाँच सौ लोग बचे होंगे उस वक्त तक। और सिपाहियों के आगे खडा़ वार्ड चिल्लाने लगा कि वे फौरन तितर-बितर हो जायें। फ़ील्डेन क्या करता? बोलना बन्द करके वह गाड़ी से उतरने लगा। भीड़ सड़क के दूसरी ओर जाने लगी। तभी बम फेंका गया, भगवान जाने कहाँ से। वह पुलिसवालों के सामने ही फटा। एक वहीं मर गया, कई घायल हुए। किसने फेंका था बम? डेढ़ साल से इस दुख की नगरी में हमने इसके सिवा कुछ नहीं सुना है कि बम किसने फेंका। भगवान या शक्ति या भाग्य जो भी हो, मैं उसकी क़सम खाकर कहता हूँ जज, कि हमारे किसी आदमी ने बम नहीं फेंका। हाँ, यही राय है मेरी। और मेरे पूर्वाग्रह हैं। मैं एक मज़दूर हूँ और निश्चित तौर पर मेरे पूर्वाग्रह हैं। पर अब जबकि कुछ घण्टों में पार्सन्स मरने जा रहा है, मैं यह क़सम खाकर कहता हूँ। मुझे हिंसा से नफ़रत है। मैं क़सम खाकर जो कह रहा हूँ, उस पर मुझे विश्वास है। यह बम हमारे दुश्मनों ने फेंका था। तब से अब तक जो कुछ हुआ है उस पर ग़ौर करो और सोचो कि क्या इसके अलावा कोई और बात हो सकती थी? सोचो कि बम फेंके जाने के तुरन्त बाद क्या हुआ, कैसे पुलिसवालों ने बन्दूक़ें तान लीं और गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। इसके आगे तो एक दिन पहले की मैकार्मिक की घटना मामूली पड़ गयी थी। उन्होंने पागलों की तरह गोलियाँ चलायीं। उन्होंने मज़दूरों को, उनकी बीवियों को और बच्चों को भून डाला। हम निहत्थे थे। हमारी तरफ़ से कोई गोली नहीं चली। लेकिन पुलिस गोलियाँ बरसाती रही। भीड़ तितर-बितर हो गयी थी और लोग चीख़ते हुए चारों ओर भाग रहे थे।
‘‘यह है सच्चाई,’’ छोटे क़द के उस बढ़ई ने कहा, ‘‘मैंने वहाँ मौजूद सैकड़ों लोगों से यही कहानी सुनी है। यही सच्चाई है।’’
उन्हें शुक्रवार को फाँसी दी गयी। अगले दिन अखबारों में फाँसी के विस्तृत ब्योरे और ढेरों लेख छपे थे - मरनेवाले व्यक्तियों के बारे, क़ानून और व्यवस्था के बारे में, जनतन्त्र के बारे में, संविधान और इसके ढेरों संशोधनों के बारे में - जिनमें से कुछ को ‘बिल आफ राइट्स’ कहा जाता है - क्रान्ति, गणतन्त्र के संस्थापकों और गृहयुद्ध के बारे में। इसी के साथ छपी थीं अन्त्येष्टि की सूचनाएँ। शहर के अधिकारियों ने पाँचों मृत व्यक्तियों - लिंग्ग, जो अपनी कोठरी में मर गया था, पार्सन्स, स्पाइस, फिशर और एंजिल के सम्बन्धियों और मित्रों को उनके शरीर प्राप्त कर लेने की अनुमति दे दी थी। ये मित्र और सम्बन्धी यदि चाहें तो उन्हें सार्वजनिक अन्त्येष्टि करने की भी इजाज़त थी। मेयर रोश ने घोषणा कर दी थी कि वाइल्डहाइम कब्रगाह जाते हुए मातमी जूलूस किन-किन सड़कों से गुज़र सकता था। यह सब बारह से दो के बीच होना था। सिर्फ़ मातमी संगीत बज सकता था। हथियार नहीं ले जाये जा सकते थे, झण्डे और बैनर लेकर चलना मना था। अख़बारों के मुताबिक़ हाँलाकि ये लोग समाज के घोषित दुश्मन थे, अपराधी और हत्यारे थे, फिर भी ऐसा हो सकता था कि अन्त्येष्टि में शामिल होने के लिए कुछ सौ लोग चले आयें। और संविधान के उस हिस्से के मुताबिक़, जो धार्मिक स्वतन्त्रता की गारण्टी देता है, इस अन्त्येष्टि की इजाज़त देना न्यायसंगत ही था।
इतवार को जज ने पत्नी से कहा कि वह बाहर टहलने जा रहा है। हालाँकि एम्मा को शक था कि वह टहलते हुए कहाँ जायेगा पर वह कुछ बोली नहीं। न ही उसने यह कहा कि इतवार की सुबह उसके अकेले बाहर जाने की इच्छा कुछ अजीब थी। लेकिन दरअसल, यह कोई ताज्जुब की बात नहीं थीं, जुलूस के रास्ते की ओर जाते हुए जज ने महसूस किया कि वह तो हज़ारो-हज़ार शिकागोवासियों में से बस एक है। और फिर ऐसा लगने लगा मानो क़रीब-क़रीब आधा शहर शिकागो की उदास, गन्दी सड़कों के दोनों ओर खड़ा जुलूस का इन्तज़ार कर रहा है।
सुबह ठण्डी थी और वह यह भी नहीं चाहता था कि लोग उसे पहचानें। इसलिए उसने कोट के कालर उठा लिये और हैट को माथे पर नीचे खींच लिया। उसने हाथ जेबों में ठूँस लिये और शरीर का बोझ कभी एक ठिठुरे हुए पैर तो कभी दूसरे पर डालता हुआ इन्तज़ार करने लगा।
जुलूस दिखायी पडा़। यह वैसा नहीं था जिसकी उम्मीद थी। वैसे तो कतई नहीं था जैसी उम्मीद करके शहर के अधिकारियों ने इजाज़त दी थी। कोई संगीत नहीं था, सिवाय हल्के पदचापों और औरतों की धीमी सिसकियों के और बाकी सारी आवाज़ें, सारे शोर जैसे इनमें डूब गये थे। जैसे सारे शहर को ख़ामोशी के एक विशाल और शोकपूर्ण कफ़न ने ढँक लिया हो।
सबसे पहले झण्डा लिये हुए एक आदमी आया, जुलूस का एकमात्र झण्डा, एक पुराना रंग उड़ा हुआ सितारों और पट्टियोंवाला झण्डा जो गृहयुद्ध के दौरान गर्व के साथ एक रेजीमेण्ट के आगे चलता था। उसे लेकर चलने वाला गृहयुद्ध में लड़ा एक सिपाही था, एक अधेड़ उम्र का आदमी जिसका चेहरा ऐसा लग रहा था मानो पत्थर का गढ़ा हो।
फिर आयीं अर्थियाँ और ताबूत। फिर पुरानी, खुली हुई घोड़ागाड़ियाँ आयीं, जिनमें परिवारों के लोग थे। उनमें से एक में आल्टगेल्ड ने लूसी पार्सन्स को देखा, वह अपने दोनों बच्चों के साथ बैठी थी और निगाहें सीधी सामने टिकी हुई थीं। ...फिर आये मरने वालों के अभिन्न दोस्त, उनके कामरेड। वे चार-चार की कतार में चल रहे थे, उनके चेहरे भी उदास थे, जैसे गृहयुद्ध के सिपाही का चेहरा था।
फिर अच्छे कपड़ों में पुरुषों और स्त्रियों का एक समूह आया। उनमें से कइयों को आल्टगेल्ड जानता और पहचानता था, वकील, जज, डॉक्टर, शिक्षक, छोटे व्यापारी और बहुत-से दूसरे लोग जो इन पाँचों मरनेवालों को बचाने की लड़ाई में शामिल थे। फिर आये मज़दूर जिनकी कोई सीमा ही नहीं थीं। वे आये थे पैकिंग करने वाली कम्पनियों से, लकड़ी के कारख़ानों से, मैकार्मिक और पुलमैन कारख़ानों से। वे आये थे मिलों से, खाद की खत्तियों से, रेलवे यार्डों से और कनस्तर गोदामों से। वे आये थे उन सरायों से जिनमें बेरोज़गार रहते थे, सड़कों से, गेहूँ के खेतों से, शिकागो और एक दर्ज़न दूसरे शहरों की गलियों से। बहुत-से अपने सबसे अच्छे कपड़े पहने हुए थे, अपना एकमात्र काला सूट जिसे पहनकर उनकी शादी हुई थी। बहुतों के साथ उनकी पत्नियाँ भी थीं, बच्चे भी उनके साथ चल रहे थे। कुछ ने बच्चों को गोद में उठा रखा था। लेकिन बहुतेरे ऐसे भी थे जिनके पास काम के कपड़ों के सिवा कोई कपड़े नहीं थे। वे अपनी पूरी वर्दी और नीली जींस और फ़लालैन की कमीज़ें पहने हुए थे। चरवाहे भी थे जो पाँच सौ मील से अपने घोड़ों पर यह सोचकर आये थे कि शिकागो में इन लोगों की सज़ा माफ़ करायी जा सकती है क्योंकि यहाँ के लोगों में विश्वास और इच्छाशक्ति है। और जब इसे नहीं रोका जा सका तो वे अर्थी के साथ चलने के लिए रुक गये थे। वे अपने बेढंगे ऊँची एड़ियों वाले जूतों में चल रहे थे। उनमें शहर के आसपास के देहातों के लाल चेहरों वाले किसान थे, इंजन ड्राइवर थे और विशाल झीलों से आये नाविक थे।
सैकड़ों पुलिसवाले और पिंकरटन के आदमी सड़क के दोनों ओर खड़े थे। लेकिन जब उन्होंने जुलूस को देखा तो वे चुपचाप खड़े हो गये, उन्होंने बन्दूक़ें रख दीं और निगाहें ज़मीन पर टिका लीं। ...क्योंकि मज़दूर शान्त थे। सुनायी पड़ती थीं तो सिर्फ़ उनकी साँसें और चलते हुए कदमों की आवाज़। एक भी शब्द नहीं सुनायी देता था। कोई बोल नहीं रहा था। न मर्द, न औरतें, बच्चे तक नहीं। सड़क के किनारे खड़े लोग भी ख़ामोश थे।
और अभी भी मज़दूर आते ही जा रहे थे। आल्टगेल्ड एक घण्टे तक खड़ा रहा, पर वे आते ही रहे। कन्धे से कन्धे मिलाये, चेहरे पत्थर जैसे, आँखों से धीरे-धीरे आँसू बह रहे थे जिन्हें कोई पोंछ नहीं रहा था। एक और घण्टा बीता, फिर भी उनका अन्त नहीं था। कितने हज़ार जा चुके थे, कितने हज़ार और आने बाकी थे, वह अन्दाज़ नहीं लगा सकता था। पर एक चीज़ वह जानता था, इस देश के इतिहास में ऐसी कोई अन्त्येष्टि पहले कभी नहीं हुई थी, सबसे ज़्यादा प्यारा नेता अब्राहम लिंकन जब मरा था, तब भी नहीं।
(शिकागो पुलिस के मुताबिक़ शहीद मज़दूर नेताओं के मातमी जुलूस में 6 लाख से ज़्यादा लोग शामिल हुए थे।)
अदालत में लूसी पार्सन्स का बयान
‘‘जज आल्टगेल्ड, क्या आप इस बात से इन्कार करेंगे कि आपके जेलख़ाने ग़रीबों के बच्चों से भरे हुए हैं, अमीरों के बच्चों से नहीं? क्या आप इन्कार करेंगे कि आदमी इसलिए चोरी करता है क्योंकि उसका पेट ख़ाली होता है? क्या आपमें यह कहने का साहस है कि वे भूली-भटकी बहनें, जिनकी आप बात करते हैं, एक रात में दस से बीस व्यक्तियों के साथ सोने में प्रसन्नता महसूस करती हैं, अपनी अँतड़ियों को दगवाकर बहुत ख़ुश होती हैं?’’
पूरे हॉल में विरोध का शोर गूँजने लगा : ‘‘शर्मनाक’’ और ‘‘घृणास्पद’’ की आवाज़ें उठने लगी। एक पादरी उठा और आवेश से काँपते हुए अपने छाते को जोर-शोर से हिलाकर उसने जज से हस्तक्षेप करने को कहा। दूसरों ने भी शोर किया। परन्तु जज आल्टगेल्ड ने, जैसा कि अगले दिन अख़बारों ने भी लिखा, प्रशंसनीय ढंग से आचरण किया। उसने अपने हाथ के इशारे से शोर-शराबे को शान्त किया। उसने व्यवस्था बनाये रखने का आदेश दिया और उसे लागू किया। उसने कहा, ‘‘मंच पर एक महिला खड़ी है। क्या हम इतने उद्दण्ड होकर नम्रता की धज्जियाँ उड़ायेंगे?’’ फिर श्रीमती पार्सन्स की ओर मुड़ते हुए उसने कहा, ‘‘कृपया आप अपनी बात जारी रखें, श्रीमती पार्सन्स, और उसके बाद अगर आप चाहेंगी तो मैं आपके सवाल का जवाब दूँगा।’’ तो यह थी बहुचर्चित लूसी पार्सन्स! हॉल में फुसफुसाहट हुई और श्रीमती पार्सन्स ने, जो इस दौरान पूरे समय दृढ़तापूर्वक खड़ी रही थी, बोलना शुरू किया : ‘‘आप सब लोग जो सुधार की बातें करते हैं, सुधार का उपदेश देते हैं और सुधार की गाड़ी पर चढ़कर स्वर्ग तक पहुँचना चाहते हैं, आप लोगों की सोच क्या है? जज आल्टगेल्ड क़ैदियों के लिए धारीदार पोशाक की जगह भूरे सूट की वकालत करते हैं। वह रचनात्मक कार्य, अच्छी किताबों और हवादार, साफ़-सुथरी कोठरियों की वकालत करते हैं। बेशक उनका यह कहना सही है कि कठोर दण्ड की सज़ा पाये क़ैदियों को पहली बार अपराध के लिए सज़ा भुगतने वाले क़ैदियों से अलग रखा जाना चाहिए। वह एक जज हैं और इसलिए जब वह न्याय के पक्ष में ढेर सारी बातें करते हैं मुझे आश्चर्य नहीं होता क्योंकि अगर कोई चीज़ मौजूद ही नहीं है तो भी उसकी चर्चा तो अवश्य होनी चाहिए। नहीं, मैं जज आल्टगेल्ड की आलोचना नहीं कर रही हूँ। मैं उनसे सहमत हूँ जब वे यन्त्रणा की भयावहता के विरुद्ध आवाज़ उठाते हैं। मैंने एक बार नहीं, अनेकों बार तक़लीफें और यातनाएँ बरदाश्त की हैं। मेरे शरीर पर उसके ढेरों निशान हैं। लेकिन मैं तुम्हारे सुधारों के झाँसे में नहीं आती। यह समाज तुम्हारा है, जज आल्टगेल्ड। तुम लोगों ने इसे बनाया है और यही वह समाज है जो अपराधियों को पैदा करता है। एक स्त्री अपना शरीर बेचने लगती है क्योंकि यह भूखे मरने की तुलना में थोड़ा बेहतर है। एक इन्सान इसलिए चोर बन जाता है क्योंकि तुम्हारी व्यवस्था उसे क़ानून तोड़ने वाला घोषित करती है। वह तुम्हारे नीतिशास्त्र को देखता है जो कि जंगली जानवरों के आचार-व्यवहार का शास्त्र है और तुम उसे जेलख़ाने में ठूँस देते हो क्योंकि वह तुम्हारे आचार-व्यवहार का पालन नहीं करता है। और अगर मज़दूर एकजुट होकर रोटी के लिए संघर्ष करते हैं, एक बेहतर ज़िन्दगी के लिए लड़ाई लड़ते हैं, तो तुम उन्हें भी जेल भेज देते हो और अपनी आत्मा को सन्तुष्ट करने के लिए हर-हमेशा सुधार की बात करते हो, सुधार की बातें। नहीं, जज आल्टगेल्ड, जब तक तुम इस व्यवस्था की, इस नीतिशास्त्र की हिफ़ाजत और रखवाली करते रहोगे, तब तक तुम्हारी जेलों की कोठरियाँ हमेशा ऐसे स्त्री-पुरुषों से भरी रहेंगी जो मौत की बजाय जीवन चुनेंगे - वह अपराधी जीवन जो तुम उन पर थोपते हो।’’
पत्नी के नाम अल्बर्ट पार्सन्स का ख़त
कुक काउण्टी बास्तीय जेल, कोठरी नं. 29
शिकागो, 20 अगस्त, 1886
मेरी प्रिय पत्नी :
आज सुबह हमारे बारे में हुए फैसले से पूरी दुनिया के अत्याचारियों में ख़ुशी छा गयी है, और शिकागो से लेकर सेण्ट पीटर्सबर्ग तक के पूँजीपति आज दावतों में शराब की नदियाँ बहायेंगे। लेकिन, हमारी मौत दीवार पर लिखी ऐसी इबारत बन जायेगी जो नफ़रत, बैर, ढोंग-पाखण्ड, अदालत के हाथों होने वाली हत्या, अत्याचार और इन्सान के हाथों इन्सान की ग़ुलामी के अन्त की भविष्यवाणी करेगी। दुनियाभर के दबे-कुचले लोग अपनी क़ानूनी बेड़ियों में कसमसा रहे हैं। विराट मज़दूर वर्ग जाग रहा है। गहरी नींद से जागी हुई जनता अपनी ज़ंजीरों को इस तरह तोड़ फेंकेगी जैसे तूफ़ान में नरकुल टूट जाते हैं।
हम सब परिस्थितियों के वश में होते हैं। हम वैसे ही हैं जो परिस्थितियों ने हमें बनाया। यह सच दिन-ब-दिन साफ़ होता जा रहा है।
ऐसा कोई सबूत नहीं था कि जिन आठ लोगों को मौत की सज़ा सुनायी गयी है उनमें से किसी को भी हेमार्केट की घटना की जानकारी थी, या उसने इसकी सलाह दी या इसे भड़काया। लेकिन इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है। सुविधाभोगी वर्ग को एक शिकार चाहिए था, और करोड़पतियों की पाग़ल भीड़ की ख़ून की प्यासी चीख़-पुकार को शान्त करने के लिए हमारी बलि चढ़ायी जा रही है क्योंकि हमारी जान से कम किसी चीज़ से वे सन्तुष्ट नहीं होंगे। आज एकाधिकारी पूँजीपतियों की जीत हुई है! ज़ंजीर में जकड़ा मज़दूर फाँसी के फन्दे पर चढ़ रहा है क्योंकि उसने आज़ादी और हक़ के लिए आवाज़ उठाने की हिम्मत की है।
मेरी प्रिय पत्नी, मुझे तुम्हारे लिए और हमारे छोटे-छोटे बच्चों के लिए अफ़सोस है।
मैं तुम्हें जनता को सौंपता हूँ, क्योंकि तुम आम लोगों में से ही एक हो। तुमसे मेरा एक अनुरोध है - मेरे न रहने पर तुम जल्दबाज़ी में कोई काम नहीं करना, पर समाजवाद के महान आदर्शों को मैं जहाँ छोड़ जाने को बाध्य हो रहा हूँ, तुम उन्हें और ऊँचा उठाना।
मेरे बच्चों को बताना कि उनके पिता ने एक ऐसे समाज में, जहाँ दस में से नौ बच्चों को ग़ुलामी और ग़रीबी में जीवन बिताना पड़ता है, सन्तोष के साथ जीवन बिताने के बजाय उनके लिए आज़ादी और ख़ुशी लाने का प्रयास करते हुए मरना बेहतर समझा। उन्हें आशीष देना; बेचारे छौने, मैं उनसे बेहद प्यार करता हूँ। आह, मेरी प्यारी, मैं चाहे रहूँ या न रहूँ, हम एक हैं। तुम्हारे लिए, जनता और मानवता के लिए मेरा प्यार हमेशा बना रहेगा। अपनी इस कालकोठरी से मैं बार-बार आवाज़ लगाता हूँ : आज़ादी! इन्साफ़! बराबरी!
- अल्बर्ट पार्सन्स
अल्बर्ट पार्सन्स का जेल की कालकोठरी से अपने बच्चों के नाम पत्र
कालकोठरी नम्बर-7, कुक काउण्टी जेल
शिकागो, 9 नवम्बर, 1887
मेरे प्यारे बच्चों,
अल्बर्ट आर. पार्सन्स (जूनियर) और बेटी लुलु एडा पार्सन्स,
मैं ये शब्द लिख रहा हूँ और मेरे आँसू तुम्हारा नाम मिटा रहे हैं। हम फिर कभी नहीं मिलेंगे। मेरे प्यारे बच्चों, तुम्हारा पिता तुम्हें बहुत प्यार करता है। अपने प्रियजनों के प्रति अपने प्यार को हम उनके लिए जीकर प्रदर्शित करते हैं और जब आवश्यकता होती है तो उनके लिए मरकर भी। मेरे जीवन और मेरी अस्वाभाविक और क्रूर मृत्यु के बारे में तुम दूसरे लोगों से जान लोगे। तुम्हारे पिता ने स्वाधीनता और प्रसन्नता की वेदी पर अपनी बलि दी है। तुम्हारे लिए मैं एक ईमानदारी और कर्तव्यपालन की विरासत छोड़े जा रहा हूँ। इसे बनाये रखना, और इसी रास्ते पर आगे बढ़ना। अपने प्रति सच्चे बनना, तभी तुम किसी दूसरे के प्रति भी कभी दोषी नहीं हो पाओगे। मेहनती, गम्भीर और हँसमुख बनना। और तुम्हारी माँ! वह बहुत महान है। उसे प्यार करना, उसका आदर करना और उसकी बात मानना।
मेरे बच्चों! मेरे प्यारों! मैं आग्रह करता हूँ कि इस विदाई सन्देश को मेरी हरेक बरसी पर पढ़ना, और मुझमें एक ऐसे इन्सान को याद करना जो सिर्फ तुम लोगों के लिए ही नहीं बल्कि भविष्य की आने वाली पीढ़ियों के लिए क़ुरबान हुआ।
ख़ुश रहो, मेरे प्यारों! विदा!
तुम्हारा पिता
अल्बर्ट आर. पार्सन्स
‘‘हमारी मौत दीवार पर लिखी ऐसी इबारत
बन जायेगी जो नफ़रत, बैर, ढोंग-पाखण्ड,
अदालत के हाथों होने वाली हत्या, अत्याचार
और इन्सान के हाथों इन्सान की ग़ुलामी के
अन्त की भविष्यवाणी करेगी। दुनियाभर के
दबे-कुचले लोग अपनी क़ानूनी बेड़ियों में
कसमसा रहे हैं। विराट मज़दूर वर्ग जाग रहा
है। गहरी नींद से जागी हुई जनता अपनी
ज़ंजीरों को इस तरह तोड़ फेंकेगी जैसे तूफ़ान
में नरकुल टूट जाते हैं।’’
- अल्बर्ट पार्सन्स
अल्बर्ट पार्सन्स
जन्म : 20 जून, 1848
मृत्यु : 11 नवम्बर, 1887 को फाँसी
पेशा : प्रिण्टिंग प्रेस का मज़दूर
‘‘एक दिन आयेगा जब हमारी
ख़ामोशी उन आवाज़ों से ज़्यादा
ताक़तवर साबित होगी जिनका तुम
आज गला घोंट रहे हो!’’
- आगस्ट स्पाइस आगस्ट स्पाइस
जन्म : 10 दिसम्बर, 1855
मृत्यु : 11 नवम्बर, 1887 को फाँसी
पेशा : फर्नीचर कारीगर
शिकागो के मज़दूर नेता
‘‘एंजिल मज़दूर वर्ग के संघर्ष का एक बहादुर सिपाही था। वह मेहनतकशों की मुक्ति के लक्ष्य के लिए जीजान लड़ा देने वाला बाग़ी था।’’
- ऑस्कर नीबे
जॉर्ज एंजिल
जन्म : 15 अप्रैल, 1836
मृत्यु : 11 नवम्बर, 1887 को फाँसी
पेशा : खिलौने बेचनेवाला
‘‘वह इन्सानियत की मुक्ति के लिए अपनी जान की क़ुर्बानी देने की इच्छा रखता था और उसे उम्मीद थी कि ऐसा ही होगा। उसे मज़दूर वर्ग की हालत में थोड़े बहुत सुधार करने वाले उपायों पर ज़रा भी भरोसा नहीं था।’’
- विलियम होल्म्स
एडॉल्फ फिशर
जन्म : 1858
मृत्यु : 11 नवम्बर, 1887 को फाँसी
पेशा : प्रिण्टिंग प्रेस का मज़दूर ‘‘लिखने-पढ़ने वालों के बीच से अगर कोई क्रान्तिकारी बन जाये तो आम तौर पर इसे गुनाह नहीं माना जाता, लेकिन अगर कोई ग़रीब मज़दूर क्रान्तिकारी बन जाये तो यह भयंकर गुनाह हो जाता है।’’
- सैमुअल फ़ील्डेन
सैमुअल फ़ील्डेन
जन्म : 25 फरवरी, 1847
मृत्यु : 7 फरवरी, 1922
पेशा : सामानों की ढुलाई करनेवाला मज़दूर
ऑस्कर नीबे
जन्म : 12 जुलाई, 1850
मृत्यु : 22 अप्रैल, 1916
पेशा : ख़मीर बेचनेवाली
एक दुकान में भागीदारी
‘‘मज़दूरों को ताक़त के दम पर दबाकर रखा जाता है और इसका जवाब भी ताक़त से ही दिया जाना चाहिए।’’
- लुइस लिंग्ग
लुइस लिंग्ग
जन्म : 9 सितम्बर, 1864
मृत्यु : 10 नवम्बर, 1887
(जेल की कोठरी में आत्महत्या)
पेशा : बढ़ई
माइकेल श्वाब
जन्म : 9 अगस्त, 1853
मृत्यु : 29 जून, 1898
पेशा : बुकबाइण्डर
‘‘मैं जानता हूँ कि हमारे सपने इस साल या अगले साल पूरे होने वाले नहीं हैं, लेकिन मैं जानता हूँ कि आने वाले समय में, एक न एक दिन वे ज़रूर पूरे होंगे।’’
- माइकल श्वाब
‘‘नीबे एक मज़दूर संगठनकर्ता था, दिल का साफ़ और सरल। वह लोगों को इकट्ठा करने और उन्हें संघर्ष के लिए एकजुट करने में माहिर था। वह मज़दूरों को शिक्षित करने वाले कार्यकर्ताओं के लिए बहुत मददगार रहता था।’’
- लिज़़्ज़ी होम्स
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(साभार - मजदूर बिगुल - http://www.mazdoorbigul.net/booklets/)
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