व्यंग्य के क्षेत्र में हर लेखक, पत्रकार, कवि, कहानीकार अपना भाग्य आजमा रहा है। स्थिति ऐसी हे कि हर कोई व्यंग्य का सलीब लेकर चलने को तैयार...
व्यंग्य के क्षेत्र में हर लेखक, पत्रकार, कवि, कहानीकार अपना भाग्य आजमा रहा है। स्थिति ऐसी हे कि हर कोई व्यंग्य का सलीब लेकर चलने को तैयार हो रहा है। मामला राजधानी का हो या कस्बे का या महानगर का हर कोई व्यंग्य का माल ठेले पर रख कर गली गली निकल पड़ा है। व्यंग्य ले लो की आवाजें आती है और मोहल्ले वाले दरवाजे बन्द कर खिड़कियों से झांकने लग जाते हैं। लेकिन कुछ लोग अभी भी दुनिया को खिड़की के बजाय छत पर से देखना पसन्द करते हैं।
जिसे देखो वही व्यंग्य के फटे में अपनी टांग अड़ा रहा है। अपने कमजोर पंजे में व्यंग्य को पकड़कर सड़क पर चलने के बजाय दौड़ रहा है। हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा व्यंग्य की तलवार लेकर मैदान-ए-जंग में कूद पड़ रहा है और व्यंग्य की तलवार से पानी को काटने की नाकाम कोशिश कर रहा है। वैसे पानी में रह कर मगर से वैर करना उचित नहीं है, मगर अपनी बात को कहना भी जरुरी है। सलीब को चाक चौबन्द रखने में अपनी ही गर्दन चाक हो जाती है।
कभी साहित्य में सन्नाटे की बड़ी चर्चा थी आजकल व्यंग्य में कोलाहल की चर्चा है। कई समझदार आचार्य जो स्वयं को गणेशजी से कम नहीं समझते अपने अपने चूहों को अक्सर ज्ञान देते रहते हैं-बकवास बन्द करो। व्यंग्य के क्षेत्र में और संसद में बड़ा फर्क है। थोड़ी सी धूप और थोड़ी सी रोशनी चाहिये बस। सब ठीक हो जाता है। छुटभैये आचार्य भी पचास साल पुरानी कतरनों के सहारे व्यंग्य में क्षेत्र में दण्ड पेल रहे है। बुरा मानने का चलन नहीं है अरे बुरा मान कर भी क्या कर लोगे ? समसामयिक व्यवस्था में बने रहने के लिए जरुरी है कि अपने सलीब को धो,पोंछ,चमका कर चिकना बना कर गले में टांग लो ताकि दूर से ही दिखाई दे कि देखो वो या वे चले आ रहे है। पुरस्कारों को खरीदने-बेचने का नया चलन चल पड़ा है। वर्तमान व्यंग्य का संकट क्या है ? क्यों है ? आदि यक्ष प्रश्नों का उत्तर देना राष्ट्रीय चरित्र के समूचे संकट को नकारना है। जब राष्ट्र के चरित्र में ही संकट है तो व्यंग्य के सलीब पर संकट होना आवश्यक है। सभी सलीब व और सलीब पर लटके चेहरे पुराने है अलग अलग समय पर अलग अलग मुखौटे लगा लेते हैं। और सीमित समझ और सीमित समय के हालात में सीमित चिन्ता कर रहे है। दलित व्यंग्य, स्त्री-व्यंग्य, मध्यम वर्गीय व्यंग्य निम्न वर्गीय व्यंग्य, युवा व्यंग्य, वरिष्ठ-जन व्यंग्य जैसे नये नये मापदण्ड उछलकर सलीब पर लटकने को बेताब है। सच पूछा भैया तो मुझ सा बेईमान कौन है ? कहॉ कहाँ अतिक्रमण नहीं किये। कहां कहां दरखास्त नहीं लगाई। प्रजातन्त्र में प्रश्नों का पिटारा किसी जादूगर की तरह ले चला। लेकिन इस महान देश के खेत खलिहान, सड़क, पनघट, शिक्षा, स्वास्थ्य, नेता, किसी ने भी किसी पर ध्यान नहीं दिया। व्यंग्य अपने हाल में ‘एकलाचालो रे ' की गति से चलायमान था, है और रहेगा।
अस्तु , ये व्यंग्य लिखने और लिख कर हरिशंकर परसाईं या शरद जोशी बनने की महत्वाकांक्षा ही है कि व्यक्ति व्यंग्य लेकर सीधा अखबारों, पत्रिकाओं की ओर भागता नजर आता है। ज्यादा समझदार हो तो देश की राजधानी या राज्यों की राजधानी का टिकट कटा लेता है। जमाना कुछ ऐसा आ गया है सर जी कि सीखने के लिए किसी के पास समय नहीं है, कहीं विषय दिखा नहीं की सब के सब पिल पड़ते हैं और एक ही विषय पर सवा सत्ताईस रचनाएँ सम्पादक या प्रकाशक की टेबल पर आकर गिर जाती है। बेचारा सम्पादक या प्रकाशक किसी एकाध को छाप-छूप कर अपना कर्तव्य पूरा कर शेष को रद्दी के हवाले कर किसी दूसरे काम में स्वयं को झोंक देता है। हकीकत बात ये हैं भाई कि जहाँ पर व्यंग्य समाप्त होता है वहीं से व्यंग्यकार शुरु हो जाता है और व्यंग्यकार के शुरु हो जाने मात्र से ही व्यंग्य की यात्रा में मसीही चेहरे उभर कर सामने आ जाते हैं। कुछ चेहरे किसी पत्रिका के सम्पादक के रुप में सामने आते हैं और कुछ चेहरे स्वयं के उपर व्यंग्य का सलीब टांग कर सड़क से संसद तक चहल कदमी शुरु कर देते हैं।
व्यंग्य के नीड़ों में पन्छी चहचहाते रहते हैं। कुछ चिडि़यायें भी चहकती रहती है। कभी कभी अपने सौभाग्य या दुर्भाग्य पर आंसू बहाने वाले ढूंढ़ लिये जाते हैं। व्यंग्य के दृष्टि कोण से राजधानी हो या कस्बा लेखन की फसलें खूब हो रही है और फसलों के बीच बीच में बहुत सारी खरपतवार भी उग ही आती है।
कुछ चेहरे ऐसे भी है जो पदम पुरस्कारों की दौड़ में शामिल है और पार्टी के मुख्यालयों से लगा कर साहित्य अकादमी के कार्यालयों तक दौड़ते रहते हैं। बीच में गृहमंत्रालय के संयुक्त सचिव-पदम पुरस्कार से मिलना नहीं भूलते। उन्हें याद आते हैं वे स्वर्णिम दिन जब एक-एक कर के हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, काका हाथरसी, बरसाने लाल चतुर्वेदी, कन्हैयालाल नन्दन, के․पी․ सक्सेना जैसों को पद्म पुरस्कार मिले और व्यंग्य के आकाश में आतिश बाजियां छुटी। इधर कुछ समय से पद्म पुरस्कारों की सूची से व्यंग्य-लेखक, हास्यकार सब गायब हो गये हैं और राजधानी की सड़कों पर सन्नाटा व्याप रहा है कैसा समय आया है भैय्या सलीब की कीलियां चुभने लगी है। कुछ लोग व्यंग्य के क्षेत्र में जोर आजमाने के बाद अपनी असफलता को हिन्दी में एम․ए․ करके छुपाने में व्यस्त हो गये। एम․ए․ करने के बाद वे एम․ फिल, पी․एच․डि, डी․लिट वगैरह करके व्यंग्य का कल्याण करने का दावा करने में लग गये। जब कल्याण हो गया तो व्यंग्य साहित्य की डाक्टरी के क्लिनिक खोल कर बैठ गये। ये सब व्यंग्य के डाक्टर एक दूसरे के रोगियों को बहकाने का महान कार्य करते हैं, उस क्लिनिक पर मत जाना वो तो केवल बुखार का इलाज कर सकता है और तुम्हें तो डायबिटीज या रक्तचाप है। ये लोग अपनी अपनी शिष्य मण्डली के साथ सामूहिक कीर्तन करने में व्यस्त है। कई मसीहाई लेखक लेखन की दुकान बन्द करके अपने डाक्टरी क्लिनिक पर बैठ कर मक्खियां मार रहे है और कुछ ने क्लिनिक के बाहर खुले में पत्रिका रुपी प्रयोगशालाएँ खोल दी है। और आने जाने वाले के व्यंग्य की जांच पड़ताल के नाम पर भारी फीस वसूलने में लग गये हैं। जो फीस नहीं दे सकता उसकी रिपोर्ट गलत-शलत लिख देने की परम्परा भी डल गई है।
कुछ मसीहाई चेहरो ने विश्व विद्यालयों के आचार्यों के रुप में स्वयं को प्रतिष्ठित कर लिया है ओर इस काम में अपने चेले-चपाटियों के साथ लगे हुए है। व्यंग्याचार्यों ने काव्य शास्त्र, नाटक शास्त्र और सौन्दर्य शास्त्र की अनुपालना में व्यंग्य शास्त्र की स्थापना करने के लिए भी चन्दा इकठ्ठा करना शुरु कर दिया है। व्यंग्य साहित्य की अवधारणा किसी भी राजनीतिक दल की अवधारणा की तरह ही है, पता नहीं चलता कब वे सत्ताधारी दल में है और कब विरोधी दल में। विसंगतियों के नाम से मसीहाई चेहरे सर्वत्र दृष्टिगोचर होते रहते हैं।
अपने गले में लटके व्यंग्य के सलीब से वे आन्दोलनों की फुहार छोड़ते रहते हैं। कई चेहरे कई आन्दोलन खा गये हैं और डकार नहीं ले रहे हैं। कुछ को आन्दोलनों के आफरे चढ़ गये हैं। राजधानी से निपट कर जब भी ये चेहरे कस्बों तक आते हैं तो कोई न कोई चीज अपने साथ अवश्य लेकर जाते हैं। वे नकली ठहाकों से दुनिया हिला देने की कूबत रखते हैं। दो-चार-सौ शब्दों के द्वारा खबरों की ऐसी चीड़ फाड़ करते हैं कि लगता है सरकार, सत्ता, व्यवस्था सब दहल जायेगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता। सरकारें, सत्ता चलती है और सलीब पर टंगा चेहरा उदास होकर फिर किसी खबर के पीछे चल पड़ता है। प्रान्तीय राजधानियों में भी ये सलीब चमकते-दमकते रहते हैं। एक रियलिटी शो है जो अनवरत चलता रहता है। व्यंग्य में आन्दोलन या आन्दोलन में व्यंग्य कभी कभी समझ में नहीं आता मगर सब मिलकर कुछ न कुछ करने को तैयार। सब कहते हैं सुबह अखबार पढ़ो, दोपहर में लिखो और सायंकाल तक किसी न किसी सम्पादक के टेबल पर रखकर उसके उपर एक बाटली रख दो। एक दो दिन में बाटली का असर नजर आ जाता है, रचना भी नजर आ जाती है और कालान्तर में चेक, डाफ्ट, मनीआर्डर के भी दर्शन हो जाते हैं। एक मसीहाई चेहरे ने मुझे कहा-
भाई साहब बहुत व्यस्त हॅूं। 2 जगह व्यंग्य भेजने हैं। एक जगह से कहानी की भी मांग आई है। क्या करुं कुछ समझ नहीं आता। ''सम्पादक जी के नाराज होने का खतरा है कि व्यंग्य भेजूं या कहानी।‘‘ मैंने कहा यार हम सब भी इसी कारण नाराज है तुम कुछ मत भेजो। यही सबसे बड़ी सेवा होगी। मगर जिसने गले में सलीब लटका रखा है वो मानता थोड़ी है। बहुत सारे व्यंग्यकार नदियों के किनारे बैठकर व्यंग्य साधना करते हैं, और साधना करते करते आराधना और योगासन की तरफ चले जाते हैं। असफल व्यंग्यकार आगे जाकर सफल व्यंग्य-पत्रिका-सम्पादक बनने के ख्वाब देखता है। और यदि कोई फाइनेंसर मिल जाये तो क्या कहने। वे किसी न किसी फाउण्डेशन, ट्रस्ट, समिति का पुरस्कार ले लेते हैं या चयन समिति में घुसकर मसीहा बन जाते हैं। सभी एक जैसा लिख रहे है किसी को भी पुरस्कार दे दो या कोई भी लेले या क्या फरक पड़ता है। सभी का लेखन निप्प्राण व नीरस है। आज लिखा, कल छपा, परसों कूड़ा, करकट, कजोड़ा बस खेल खतम पैसा हजम। मसीही चेहरे अपनी अभिलाषा को दबाये रखते हैं और मसीही अन्दाज में ठुमके लगाते रहते हैं। और कुछ महान आत्माएं सम्पूर्ण विरक्ति के साथ आपाधापी से दूर असाधारण लिखने के नाम पर अपनी अन्धेरी गुफा में कागज, कलम, कम्प्यूटर, लेपटाप लेकर घुस जाते हैं, परिणाम चाहे जो हो उन्हें अपनी साधना से मतलब। कभी कभी एक दूसरे की शिकायत कर ठहरे पानी में कंकड़ फेंकने से भी बाज नहीं आते।
व्यंग्य का सलीब कैसा है ? ये भी एक शाश्वत प्रश्न है। कभी घटिया सलीब और बढ़िया मसीहा हो जाता है और कभी घटिया मसीहा और बढ़िया सलीब हो जाता है।
एक होती है विचारों की दुनिया, एक होती है असली दुनिया, एक होती है विकारों की दुनिया और आजकल एक होती है आभासी दुनिया और आभासी और काल्पनिक दुनिया में सब विचरण करते हैं। इस दुनिया में डेस्टिनी भी है और कहीं कहीं डाइनेस्टी भी। डेस्टिनी के सहारे ही सब मसीहा धरती पर चल रहे है। कुछ के हाथ में खप्पर है, कुछ भभूत रमा रहे है, कुछ फकीराना अन्दाज में है और कुछ पीर औलिया, मठाधीश बन कर बैठ गये हैं। जो इन सब में नहीं है वो कहीं नहीं है और सब जगह है। सब जगह होने से कहीं भी कभी भी आने-जाने की आजादी है। आवाजाही बनी रहे और जो कहना है वो पत्रकारीय शैली में कहना आसान है ऐसा कहना है एक और मसिजीवी मसीहा का जिनका सलीब कुछ कुछ पुराना हो गया है। हर मसीहा की अपनी अपनी ढपली और अपना अपना राग है। कुछ जनवादी है कुछ प्रगतिवादी और कुछ कलहवादी। सांस्कृतिक नीति के अभाव में सर्वत्र सांस्कृतिक अत्याचार, अनाचार, बलात्कार हो रहे है और मसीहा है कि अपने अपने सलीब के क्रॉस ठीक कर रहे है। मसीहाओं पर जो आरोप लगाये जाते हैं वे इतने टुच्चे होते हैं कि मसीहाओं की महानता से मेल नहीं खाते और स्वतः नष्ट हो जाते हैं। सलीब, मसीहा और ऐसे सैंकड़ों सवाल साहित्य में रामायण और महाभारत की तरह ही है। हर चेहरा मसीहा है और पर्दे के पीछे क्या है ? कोई नहीं जानता। सब अकेले है और अपने अपने अजनबी है। एक लम्बा रेगिस्तान व्यंग्य के सलीब के साथ साथ दूर तक चला जा रहा है। मसीही चेहरे पर चमक बढ़ती जा रही है क्यों कि रात में रियलिटी शो है। और शो में कृत्रिम रोशनी से ही काम चलता भाई।
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यशवन्त कोठारी, 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर जयपुर - 2, फोन - 2670596
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Very nicely written by the author.
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