(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
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मेरा काका
पद्मा शर्मा
(तेजेन्द्र शर्मा के माताजी)
दुनियां की हर मां के लिये उसदा बच्चा हमेशा निक्का ही रहता है, फेर भले ओह कितना ही वड्डा क्यों न हो जाए। ओसे तरहां मेरा काका वी मेरे लई अज वी निक्का जेहा काका ही है।
मैनूं चंगी तरह याद है कि ओसदा नाम काका ओसदे बाऊजी ने ही रखा था।
21 अक्टूबर 1952 नूं सवेरे पंज बज के पंतालीस मिनट ते मेरे काके दा जन्म हुआ था। उसदी दादी ओस बकत सबसे जयादा खुश हुई थी।
काका शुरू तों ही बड़े तेज़ दिमाग़ वाला सी। पहली क्लास में जब अव्वल आया सी तां इसनू इनाम विच फुल मिले थे। पढ़ाई करना ते अव्वल आना दोनों ही काके के शौक थे।
अगर कभी बीमार भी हो जाए तो कभी पढ़ाई से इसने दिल नहीं चुराया। काके दे बाउजी बहुत ग़ुस्से वाले थे। ऐस करके मैनुं हमेशा ही चिन्ता लगी रहती थी कि कभी ग़लती करके बाउजी से मार न खा ले। बाऊजी की अपनी चिन्ता थी क्योंकि काका हमारा इकलौता पुत्तर जो है। वैसे इसकी एक बड़ी बहन (आदर्श) और एक छोटी बहन (किरण) भी हैं।
काके के बाऊजी अपने उसूलों के बहुत पक्के थे। हमारे घर में पैसों की हमेशा किल्लत ही रहती थी, मगर हमने अपने काके को प्यार और संस्कार दी दौलत दित्ती है।
वैसे देखा जाए तो हमारा काका बचपन से ही ज़िद्दी नहीं था। उसे जो कपड़े पहनने को देते वह पहन लैंदा। हमेशा घर में बैठ कर काम करता। कभी बहन को पढ़ाता था, कभी मैं बीमार हो जाऊं तो रोटी बनाता था और सवेरे सवेरे भैंसों के तबेले से दूध लेने जाना तो इसीका काम था।
मुझे अच्छी तरह याद है कि ख़ुद छठी पास की थी लेकिन अपने आपको घर का बड़ा समझने लगा था। आदर्श ने आठवीं पास की थी और उसका एडमिशन अब सेकण्डरी स्कूल विच करवाना था। काका अपनी प्रेस की हुई कमीज और निक्कर पहन के, काले पालिश किये जूते पहन के, अपनी बड़ी बहन का गार्जिन बनके पहुंच गया स्कूल उसका एडमिशन करवाने। और हैरानी वाली बात यह कि मैनें और इसके बाऊजी ने कभी आदर्श का स्कूल अन्दर से नहीं देखा और आदर्श हायर सेकण्डरी पास वी कर गई।
फिर इक दिन काके ने वी हायर सेकण्डरी पास कर लित्ती। घर के हालात देखते हुए उसने आई.टी.आई. निजामुद्दीन से टाइपिंग और शार्टहैण्ड सीख लित्ती। अभी नतीजा भी नहीं आया था कि काके को नौकरी मिल गई - राजश्री पिक्चर्स में, स्टैनो-टाइपिस्ट की। अपनी पहली तन्ख़ाह उसने ला कर मेरे हाथों में रखी और अपनी बहनों को भी कुछ पैसे दिये। इसके बाऊजी का सीना गर्व से चौड़ा हो गया था।
1971 में काके ने बैंक आफ़ इंडिया में नौकरी शुरू कर दी। और उसके साथ ही साथ दिल्ली कालेज में शाम की क्लासों में बी.ए. अंग्रेज़ी आनर्स दी पढ़ाई वी शुरू कर दित्ती। सवेरे आठ बजे दा गया मेरा काका थक टुट के राती साढे दस या ग्यारह बजे घर वापस आता था।
उस वक्त मैं स्टोव जला के उसके लिये ताजी रोटियां बनाती थी। लेकिन अगर रोटियों के साथ मलाई, मक्खन या कस्टर्ड वगैरह न हों तो काका एकदम नराज़ हो जाता था। रोटी दे बाद मैं इसके लिये दूध वाली चाय बनाती थी - सौंफ़ और छोटी इलायची डाल के। फेर जा के ये सोता था।
काके को बैंक की नौकरी कभी पसन्द नहीं आई। हमेशा कहता था चाहे अफ़सर हों या क्लर्क - कोई फ़र्क नहीं पड़ता। बैंक में सबकों डंगरों की तरह हांकते हैं। बैंक में रहते ही काके ने दिल्ली यूनिवर्सिटी तों एम. ए. अंग्रेज़ी विच पूरी कर लई सी। काके दे बाऊजी लए तां एह दिन सबतो वड्ढा सी। अपणे चाचे दे बाद पूरे ख़ानदान विच काके ने ही एम.ए. पूरी कीती सी।
इक फ़खर वाली गल एह वी सी कि एम.ए. पूरी करदे ही काके दी लिखी पहली किताब अंग्रेजी विच छप के आ गई। जदों काका किताब लिखदा पया सी, ते उसदे बाऊजी उसनूं सवेरे सवेरे उठा के कहंदे सी, “चल काका उठ। किताब लिख। जे लिखेंगा नहीं तो पूरी किवें होवेगीघ् ”
एम. ए. पूरी करदे ही काके ने बैंक की नौकरी भी छोड़ दी और उषा कम्पनी में अफ़सर लग गया। उसको हमेशा लगता था कि प्राइवेट कंपनी की नौकरी सरकारी नौकरी से कहीं बेहतर है। लेकिन साल बाद ही वो एक बार फिर नौकरी बदलने के लिये तैयार था। अबकी बार उसने एअर इंडिया में फ़्लाइट परसर बनने की तैयारी कर ली थी।
एअर इंडिया में नौकरी पाने के बाद काके ने मुझे और अपने बाऊजी को हवाई जहाज़ की सैर भी करवाई। ये हमारे लिये बहुत बड़ा दिन था।
काके नूं लिखने दा शौक बचपन तों ही है। वो हमेशा कहता है कि एह हुनर मुझे अपने बाऊजी से विरसे में मिला है। इसके बाऊजी उर्दू में लिखते थे - कहानियां, नज़में, नावल सभी कुछ लिखा उन्होंने।
काके का स्वभाव थोड़ा गरम है पर मन का बहुत साफ़ है। किसी को गलत बात न तो कहता है और न ही सहता है।
ये बात शायद दो साल पहले की है। एक दिन काका हम सब को सिरी फ़ोर्ट आडिटोरियम ले गया। वहां पता चला कि काके कि कहानियों की किताब का विमोचन होने वाला है। उर्दू के बड़े लेखक गोपीचन्द नारंग भी आने वाले हैं। काके ने हैरान तो मुझे तब किया जब स्टेज से मुझे और मेरे देवर बोद्धीश्वर को आवाज़ लगाई गई। हम दोनों स्टेज पर गये और गोपीचन्द नारंग की उपस्थिति में काके ने अपनी किताब का विमोचन अपनी मां यानि कि मेरे से करवाया। आज भी ये बात मेरी आंखें गीली कर देती है।
काके की कहानियां मैनूं बहुत पसन्द ने। मैं बड़े शौक से उसकी सारी कहानियां पढ़ती हूं। काके के सारे दुख सुख उसदी कहानियों और कविताओं में दिखाई देते हैं।
काका मेरा बहुत ध्यान रखदा है। मेरी तो यही कामना है कि मेरा काका हमेशा खुश रहे, तरक्की करे और दुनियां की तमाम माओं के मेरे काके जैसा बेटा मिले।
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साभार-
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