(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
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कथा-विडम्बना के निहितार्थ
परमानंद श्रीवास्तव
तेजेन्द्र शर्मा उन कथाकारों में हैं, जो विदेश में रहते हुए भी भारतीय जीवन की सच्चाइयों से रू-ब-रू होते रहते हैं और ‘क़ब्र का मुनाफ़ा', ‘कैंसर', ‘देह की कीमत', ‘एक ही रंग' जैसी कहानियों में बहुरेखीय यथार्थ का आकलन करते हुए कथा-क्षेत्र में नई पहचान बनाते हैं। लम्बी कहानी ‘क़ब्र का मुनाफ़ा' विडम्बना की चरमता का साक्ष्य है। कॉरपोरेट समाज में पूँजी का खेल इतना विस्मयप्रद है कि जीने से अधिक क़ब्र में माकूल जगह रिज़र्व कराने की फ़िक्र है। यह एक अछूता विषय है। ख़लील जै़दी यूरोप की अगली पंक्ति का उद्योगपति है। अब ख़लील नजम दोनों अपने भरे-पूरे परिवार में लौटना चाहते हैं। अब फ़िक्र तो यह है कि क़ब्र की अग्रिम बुकिंग करायी जाय, जिसकी लोकेशन ठीक हो। शिया के बग़ल में सुन्नी न दफ़नाया जाय।
कहानी ‘क़ब्र का मुनाफ़ा' आगे बढ़ती है तो कार्पेंडर्स पार्क वालों की नयी स्कीम का पता चलता है। उन्होंने विज्ञापन में कहा है- लाश को नहलाना, नए कपड़े पहनाना, कफ़न का इंतज़ाम, रॉल्स रॉयस में लाश की सवारी और क़ब्र पर संगमरमर का प्लाक ये सब इस बीमे में शामिल हैं। जीते हुए मरने के बाद दफ़नाये जाने के लिए इतनी फ़िक्र, डार से बिछड़े लोगों की फ़िक्र है। नादिरा ने ज़रूरी समय मार्क्स की रट लगाने में खर्च किया। अब चिंता है बेटे के बिजनेस की। इससे तो क़ब्र का विज्ञापन अच्छा। लाश का ग्लैमरस लुभावना विज्ञापन। नादिरा आबिदा खुश हो सकती हैं कि उनकी लाश का मेकअप शानदार होगा। कोई इसी समय गोआ में टूरिस्ट रिज़ार्ट खोल लेना चाहता है। नादिरा को हिन्दुस्तान का लोकतंत्र सही जान पड़ता है, जहाँ सिख प्रधानमंत्री हो सकता है, तो मुसलमान राष्ट्रपति। ख़लील को नादिरा के हिन्दूपन पर चिढ़ है। अब क़ब्रिस्तान घर में आ गया था। अनीसा आत्महत्या की सोच रही थी जबकि उसे क़ब्र में जाने से रोकना था। ख़लील के लिए कबाब और मटनचाप बन रहे थे, नादिरा योग सीख रही थी और शाकाहारी थी।
ख़लील-नादिरा के घर में क्या नहीं है। कार, महलनुमा घर। सात बेडरूम वाला घर मक़बरा जैसा दिखता है। ख़लील से सवाल है कि अभी से क़ब्र की बुकिंग क्यों। वह भी घर से दूर। वहाँ तक लाश को ले जाना मुश्किल। पॉश क़िस्म का कब्रिस्तान? क्या दूर क्या नजदीक; नादिरा का तर्क है- मरने के बाद क्या पॉश क़िस्म का क़ब्रिस्तान। अपने इलाक़े के कब्रिस्तान में सुकून हो सकता है। नादिरा नहीं चलने देगी यह सामंती सोच। नादिरा को लगता है आसमानी किताबें (धर्मग्रंथ) पूरी ज़मीन को क़ब्रिस्तान बनाने पर आमादा हैं। एक सेकुलर नादिरा ही इस संकीर्णता को चुनौती दे सकती है। ख़लील नजम भी दुनियादारी में व्यस्त हैं। भूल रहे हैं कि उन्होंने क़ब्र की अग्रिम बुकिंग कर रखी है। नादिरा जब किसी तरह क़ब्र की बुकिंग कैंसिल कराना चाहती है। नुकसान हो तो भरपाई वही करेगी। इन्फ़्लेशन की वजह से क़ब्रों की कीमत ग्यारह सौ पाउंड हो गयी है- इस तरह कैंसिलेशन में भी फ़ायदा है यह है। उपभोक्ता समय का यथार्थ। चंचल पूँजी और किसे कहते हैं।
‘देह की क़ीमत' सिख समाज में रिश्तों का स्वार्थ, तल़्खी प्रकट है परमजीत कौर का विवाह, पति की मृत्यु, उसकी कमाई हासिल करने के लिए अंतिम विकल्प यह कि देवर भाभी पर चादर डाल दे ताकि रक़म बेवा को नहीं संभावित बहू को मिले। हरदीप का बेटा जन्म ले चुका था। कहानी का आरंभ अंत मृत्यु की विडम्बना का संकेत है।
परमजीत कौर अपने कमरे में गुमसुम बैठी थी। उसकी आँखें सामने पड़े कलश पर टिकी हुई थीं। उसका दो वर्षीय पुत्र गहरी नींद सो रहा था। कमरे की निस्तब्धता को उसके पुत्र की जुकाम से बंद नाक की सांस की आवाज़ ही भंग कर रही थी। कमरे का टेलिविज़न भी चुप था, टेलिफ़ोन भी गला बंद किए कोने में पड़ा था। किन्तु यह चुप्पी किसी शांति का प्रतीक नहीं थी। परमजीत के मन में तूफ़ान की लहरें भयानक शोर मचा रही थीं। और फ़रीदाबाद के सेक्टर पंद्रह के बाहर एक कुत्ता ज़ोर से रो रहा था।'
अंत इस प्रकार है-
‘अस्थियाँ और बैंक ड्राफ़्ट आ पहुँचे हैं। बाहर बीजी का प्रलाप जारी है, दार जी दुःखी है। उसने तीन लाख का ड्राफ्ट उठाया।... उसे समझ में नहीं आ रहा था कि उसके पति की देह की कीमत है या उसके साथ बिताये पाँच महीनों की कीमत।
उसका पुत्र अभी भी जुकाम से बंद नाक से साँस लिये जा रहा है। बीजी पम्मी को कोस रही हैं जैसी वही हरदीप की मौत का कारण है- ‘ऐस कमीनी नूं पैसा मेरे पुत्तर से ज्यादा प्यारा हो गया।... अपने पुत्तर दे आखिरी दर्शन भी नहीं कर सकांगी। खसमां नूं खाणिये तेरा कख ना रहे।' यह है संयुक्त परिवार की विडम्बना। हरदीप निठल्ला था, जैसे-तैसे जापान जाना चाहता था। पम्मी अंग्रेज़ी में एम.ए. थी। कहीं भी जॉब कर सकती थी। दार जी का बिज़नेस संभालने की सलाह हरदीप को दे चुकी थी। विधवा पम्मी को ‘अभागिन' डायण कहा जा रहा था। अंधेरा घर-मुहल्ले में भी अंधेरा किए है। कहानी में पूरा वातावरण शोक-भरा है। पम्मी का जीवट हादसों के बाद भी बचा है।
‘एक ही रंग' मुफ़लिसी में हजामत बनाने वाले दो नाइयों की मामूली दास्तान है, जिसका अंत त्रासद है। जयहिन्द स्कूल के अहाते की दीवार ऊँची कराई जा रही थी। कार्पोरेशन रिश्वत के लिए सेवा के बहाने ऐसे काम करते जाता है। जब कहा जा रहा था- कि दीवार ऊँची होगी तो बच्चे सुरक्षित रहेंगे। सुदर्शन नाई अपना भविष्य एक खोखे में देख रहा था जिसमें हजामत बनायी जा सके। सामान जमा लिया। अब पटरी पर नहीं बैठना है। सैलून तो सैलून। समय चक्र ऐसा कि सुदर्शन लाल के पास ही बाबूराम की दुकान खुल गयी। ज़्यादा चमकदार। बाबूराम की खोखे वाली दुकान चल निकली। वही लोकप्रिय हुआ। सुदर्शन लाल को पुलिस प्रताड़ित कर रही थी। निष्क्रिय बेकार बाबूलाल अदब भी भूल गया। अध्यापकों की शिकायत पर पुलिस आयी। सामान तक उठा ले गयी। आख़िर अँधेरी गुफ़ा में वह लहूलुहान हो गया। गुफ़ा में से वह जगह निकाल रहा था। उसका सारा सामान ट्रक में लादा जा रहा था। पुलिस डंडे बरसा रही थी। इस बीच मजदूर रंग-रोगन करने आ गये। सुदर्शन लाल के भविष्य पर भी रंग पुत रहे थे। यह है सामाजिक न्याय के विरुद्ध एक टिप्पणी।
तेजेन्द्र शर्मा की अंतर्वस्तु विविध है, तो शिल्प भी। सादगी में भी आश्चर्य -यह ढंग ‘क़ब्र का मुनाफ़ा', ‘देह की क़ीमत' ‘एक ही रंग' में है। वाचालता नहीं। तेजेन्द्र शर्मा ‘लाउड' नहीं होते। मौन (silence) और शब्द (word) का अर्थ समझते हैं। ‘ढिबरी टाइट' जैसे मुहावरा हो। ज़िन्दादिल गुरमीत की जगह उन्माद का शिकार गुरमीत ईराकी फौज का कुवैत पर हमला। हँसी और रुलाई का साहचर्य। दो साल बाद बेटा बोल रहा था। क्या ईराक़ का कुवैत पर हमला आश्चर्य है। कुलवंत कौर से गुरमीत का विवाह। परिवार सहित गुरमीत कुवैत जा चुका था। यह कल्पना थी या यथार्थ-कहना कठिन था। एअर बस का सफ़र। गुरमीत पुत्री के जन्म पर जगराँव नहीं आ सका। विदेश ही विदेश। कुवैत में तलाशी हुई तो कुछ संयोग कि वैन में बन्दूक मिली। फिर पिटाई ही पिटाई। फिर कम्प्यूटर का कमाल। वह कुवैत की फ्लाइट में दिखा ही नहीं। मिला तो दिनेश के घर में गूँगा जैसा। वह ज़िन्दा लाश हो चुका था। माँ-बेटी पस्त-हिम्मत हो चली हैं, गुरमीत हिंस्त्र पशु की तरह चीख़ रहा था। अंततः आवाज़ निकली- ‘कर दी सालों की ‘ढिबरी टाइट'। मुहावरे ऐसे ही बनते हैं और अनोखा अर्थ पा लेते हैं। युद्ध की निर्ममता भयावह है।
‘कैंसर' तेजेन्द्र शर्मा की अर्थबहुल कहानी है। ‘कैंसर' के निहितार्थ अनेक हैं। पूनम को ब्रेस्ट कैंसर, यह ख़बर ही दुःखदायी है। पति को पता है कि पूनम अभी तैंतीसवाँ जन्मदिन मनाने वाली है। दो बच्चों की माँ। लेफ़्ट ब्रेस्ट का आपरेशन होना है। टोना-टोटका भी स्थगित नहीं है। कैंसर एकदम आरंभिक अवस्था में है। यानी इलाज संभव है। चावला आंटी कैंसर के बावजूद लम्बा जीवन जीने वाली हैं, खुश भी हैं। पति का अपने से किया सवाल है- कि क्या विवाह के दस बरसों का प्रेम छातियों के कारण है? सारा परिवार लंदन में छुट्टियाँ मना चुका था। पूनम का प्रेम-विवाह था। आकांक्षा अपूर्व कैसे जानेंगे कि माँ को जुकाम नहीं है, कैंसर है। आपरेशन के लिए चार दिन शेष हैं। टेस्ट ही टेस्ट। चमत्कार अकल्पनीय नहीं है। पर तथ्य तथ्य है। तकनीकी भाषा में रिज़ल्ट पॉज़िटिव है। कोई शहद देने की सलाह देता है, कोई सरसों के तेल की मालिश की सलाह देता है। चने खाने दें। लाभ होगा। कोई पीर साहब का तावीज़ लाता है। यीशु पर सब निर्भर हैं। कैथिलिक चर्च के लिए पुनर्जन्म भी प्रभु कृपा से संभव है। बार्न अगेन।
तेजेन्द्र शर्मा ‘कैंसर' कहानी लिख रहे हैं, तो हड़बड़ी में नहीं। तकनीकी भाषा में कटी छाती लोथड़े-सी थी। कार्सीनोमा।... रैडिकल कैसेक्टमी। सपाट छाती। अंत में पूनम का प्रश्न है-
“मेरा पति मेरे कैंसर का इलाज तो दवा से करवाने की कोशिश कर सकता है... मगर जिस कैंसर ने उसे चारों ओर से जकड़ रखा है... क्या उस कैंसर का भी कोई इलाज है!” आवेश और दुःख का प्रदर्शन नहीं है। पर उम्मीद के विरुद्ध उम्मीद है। छाती काट दी गई। बीस नोड्स निकाल दिए गए। सद्भावनाएँ आत्मबल देती हैं। ट्रैजिक हादसे में पूनम का धैर्य बहुत है। कैंसर है कि जन्मदिन का तोहफ़ा। यहाँ चिकित्सा भी व्यावसायिक नहीं है, न अंधविश्वास। ग़र्दिश के दिनों में भी धीरज मूल्यवान है।
तेजेन्द्र शर्मा की कहानियाँ जीवनधर्मी हैं। वे जीवन के गहरे अंधकार में धंसती हैं और जीवन के लिए एक मूल्यवान सच बचा लेती हैं। कहानी तेजेन्द्र शर्मा के लिए समय को समय के पार देखने की प्रेरणा देती हैं। तेजेन्द्र शर्मा लंदन में भले रह रहे हों, वे कहानी को पर्यटक का वृत्तांत नहीं होने देते। वे वास्तविकता का छद्म नहीं रचते। आभासी यथार्थ के दौर में वे गझिन सूक्ष्म यथार्थ को व्यक्त करते हैं। वर्गीय चेतना उनके जीवन-बोध के आड़े नहीं आती।
तेजेन्द्र शर्मा के लिए कहानियाँ बाह्य और यथार्थ के बीच पुल बनाती हैं। जातीय स्मृतियाँ भी इनमें अलक्ष्य नहीं है। ‘देह की कीमत' में राजेन्द्र सिंह बेदी की कहानी ‘लाजवंती' याद आती है। परमजीत में विद्रोह-भाव भी है। उन्हें हाँ करने में देर कितनी लगती थी... वे दोनों भी कन्यादान कर स्वर्ग में अपना स्थान पक्का करने की सोचने लगे।
परमजीत को कन्यादान शब्द से ही वितृष्णा हो उठती थी। दान वाली वस्तु बनना उसे गवारा नहीं था।... इसीलिए विवाह कचहरी में करना चाहती थी।... परन्तु शादी विवाह के मामले में बेटियों को नहीं बोलना चाहिए। संभवतः इसीलिए परमजीत बोलना चाहकर भी कुछ बोल नहीं पाया। और लालसूट वाली कुड़ी लांवा फेरे लेकर, ज्ञानियों के श्लोकों पर सवार होकर सेक्टर अठारह से पन्द्रह के बीच की सड़क लांध गयी। यह है स्त्री मनोविज्ञान का अंतर्विरोध। पुरुष सत्तात्मक समाज इसी कमज़ोरी की कीमत वसूल करता है।
तेजेन्द्र शर्मा की गिनी-चुनी कहानियाँ भी उन्हें महत्त्वपूर्ण कोटि में जगह देने के लिए काफ़ी हैं। फ़िलहाल वे अपने ढंग के अकेले हैं और बग़ैर किसी तरह की पैरवी के लिए एकाधिक बार पढ़े जाने योग्य हैं। ‘क़ब्र का मुनाफ़ा' ‘कैंसर' ‘देह की कीमत' मैंने कई-कई बार पढ़ीं जिसे एक रचना का घनिष्ठ पाठ कहते हैं। अंत में, ‘कैंसर' कहानी के बीच में एक वाक्य है- ‘रात आने का समय तो तय है। अब की बार डर रहे थे कि रात अपने साथ क्या-क्या लाने वाली है। कितनी लम्बी होगी यह रात। क्या इस रात के बाद का सबेरा देख पायेंगे। यह कथन रूपक से अधिक है। लम्बी रात वह कालखंड है जो एक है और अनंत है।
तेजेन्द्र शर्मा के संग्रह ‘बेघर आँखें' में वे कहानियाँ तो हैं ही जिनकी मैंने यहाँ चर्चा की है। ‘पासपोर्ट का रंग', ‘ये क्या हो गया' ‘अभिशप्त', ‘टेलीफ़ोन लाइन' जैसी अलग ढंग की कहानियाँ भी हैं। ‘टेलीफ़ोन लाइन' अपने ढंग की विलक्षण कहानी है। अवतार और पिंकी का प्रेमविवाह था। पर पिंकी मुसलमान दोस्त अनवर के साथ भाग गयी। पिंकी अपना नाम सायरा रखना चाहती थी। भाषा यह- ‘मैं किहा जी, मैं अपना नाम सायरा बानो रख लवां? कितना प्यारा नाम लगदां है। तो क्या इसी चाहत में वह अनवर के साथ घर बसाने चली गयी? जब सोफ़िया का फोन आता है और उसकी ट्रैजेडी का पता चलता है, तो दबंग सोफ़िया कमज़ोर पड़ जाती है। कज़न से निकाह। पर वह छोड़ गया। दामाद आतंकवादी निकला और मारा गया। गोद में दो लड़कियाँ दे गया। एक की शादी हुई, वह विधवा हो गयी। अब सोफ़िया चाहती है, अवतार बेटी को लंदन में सेटिल करा दे या खुद शादी कर ले, तो सोफ़िया को भी पहले का अवतार मिल जायगा। सोफ़िया फ़ेयरवेल के दिन अवतार को ‘किस' कर चुकी थी। मुँहफट थी। कहानी का अंत - ‘अवतार को लगा जैसे टेलीफ़ोन लाइन में बहुत घरघराहट-सी पैदा हो गई। उसे सोफ़ी की आवाज़ बिल्कुल सुनाई नहीं दे रही थी। उसने टेलीफ़ोन बंद कर दिया।'
‘ये क्या हो गया' कहानी में अनुष्ठा राजकुमारी डायना होना चाहती है। अनुष्ठा डायना की तरह किसी प्रेमी का खुलेआम चुम्बन लेना चाहती थी। जय अंकल सलाहकार थे, विवाह अनिल से हुआ- डिगनिटी का क़ायल। अनुष्ठा मुनीम परिवार की बहू हो गयी। पर अनिल कोमल भाभी से प्यार कार रहा था। पकड़ा गया। अनुष्ठा अनिल से बदला लेना चाहती थी। दूसरे पुरुष को पाना चाहती थी। विजय उस पर फ़िदा था। विजय घबरा गया। अनिल ने जासूस लगा रखे थे। वह डायना की तरह प्रिंस चार्ल्स से बदला तो नहीं ले सकती थी। अनिल देख रहा था कि लोग अनुष्ठा को ‘टैक्सी' कहने लगे थे। डायना तो संत हो गयी, अनुष्ठा वहीं की वहीं। स्त्री का उन्माद, प्रतिशोध कहानी का प्रमुख विषय है।
‘पासपोर्ट का रंग' में गोपालदास जी लंदन बेटे-बहू के पास आ तो गये हैं, पर मन भारतीयता से लबरेज़ है। लंदन में नागरिकता लेने के लिए ब्रिटेन की महारानी के प्रति निष्ठावान बने रहने की शपथ लेनी पड़ती है यह उनके लिए आत्मधिक्कार की घड़ी थी। जिस दिन से दिल्ली सरकार ने दोहरी नागरिकता को मंजूरी दी, गोपालदास रू-ब-रू थे दूतावास से। पता कर रहे थे। कि फ़ार्म कब मिलेगा? लाहौर से दिल्ली आये, तो दंगों के डर से। हिन्दू मुसलमान दुश्मन होने जा रहे थे। फिर मज़बूरी में इंग्लैंड आये। वे फ़रीदाबाद की अपनी कोठी में लौट जाना चाहते थे। यही है विस्थापन की त्रासदी। ‘बेटे-बहू ने देखा कि वे एकटक छत की ओर देख रहे थे। ‘उनके दाएँ हाथ में लाल रंग का ब्रिटिश पासपोर्ट था और बाएँ हाथ में नीले रंग का भारतीय पासपोर्ट। उन्होंने ऐसे देश की नागरिकता ले ली थी, जहाँ के लिए इन दोनों पासपोर्टों की आवश्यकता नहीं थी।'
‘मुझे मार डाल बेटा' एक सफल जीवन जीने के बाद अवकाश प्राप्त लकवा ग्रस्त जीवन का मार्मिक वृत्तान्त है। बहू क्लेयर के बच्चे भी होंगे तो इंजेक्शन के बल पर कुछ ही दिन जी पाएंगे। मसाले की चाय विदेश में भी कमज़ोरी थी। पक्षाघात हुआ तो व्हील चेयर का सहारा था। पहियों पर जीवन। मर्सी किलिंग में उन्हें मुक्ति दिखाई देती। कहानी का एक अंश उनका यथार्थ है- बाऊजी उस रात मरे नहीं, किन्तु उन्होंने जीना बंद कर दिया। अब वे, केवल साँस लेता हुआ, व्हील चेयर से चिपका आधा-अधूरा सा शरीर मात्र रह गये थे। उनके भीतर कुछ मर गया था। जैसे उनके भीतर की अग्नि बुझ गई थी। माँ की प्रार्थनाएँ काम नहीं आईं। आख़िर उन्होंने खाना छोड़ दिया। शरीर कंकाल भर था। बेटा उन्हीं की मृत्यु के लिए प्रार्थना कर रहा था। हैरी-एंडी (हरीश-आनंद) के साथ उनकी भी मृत्यु तय थी।
तेजेन्द्र शर्मा हताशा के विरुद्ध जिजीविषा के पक्षधर हैं, पर वे यथार्थ को नंगी आँखों से देख पाते हैं। भूमिका (मेरी लेखन प्रक्रिया) में उनके शब्द हैं- ‘मेरे लिखने का कोई एक कारण तो नहीं है। दरअसल मेरे आसपास जो होता है, वह मुझे मानसिक रूप से उद्वेलित करता है। .... अन्याय के विरुद्ध अपनी आवाज़ को दबा नहीं पाता।' शिल्प या संरचना (स्ट्रक्चर) तेजेन्द्र शर्मा के लिए कोई समस्या नहीं है। कहानी में कहानी तेजेन्द्र शर्मा की प्राथमिकता है। विस्थापन की चिन्ता ‘अभिशप्त' कहानी में भी है- ‘मैं यहाँ इस देश में क्या कर रहा हूँ... क्यों कर रहा हूँ। अपनों से दूर, इतनी दूर! मैं यहाँ क्या करने आया था!' निशा और रजनीकांत एक दूजे के लिए हैं पर क्या निशा रजनीकांत की आत्मा को खोज पाएगी। ‘क्यों वही उलझनों के धागे में फँसा रहता है!' दो-दुना चार उसका हल नहीं है। स्नेहा पीछे छूट चुकी है। तेजेन्द्र शर्मा के लिए जीवन-स्त्रोत भारत में है। पाकिस्तान पवित्र ज़मीन है, अलग आतंकवादी देश नहीं। तेजेन्द्र शर्मा प्रवास में रह कर भी सच्चे अर्थों में भारतीय कथाकार हैं। मानवीयता सर्वोपरि मूल्य है। तेजेन्द्र शर्मा के नये प्रस्थान का इन्तज़ार रहेगा। कथा-रस भी तो भारतीय लेखन की पहचान है।
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