परिचय ---गोपाल गुंजन ,जन्म-तिथि—०३.०२.१९५६ ,जन्म-स्थान –मुजफ्फरपुर,बिहार ,कार्य-स्थल—जमशेदपुर,झारखंड ,वर्तमान पदास्थापना–झारसुगुडा ,ओडिशा ...
परिचय ---गोपाल गुंजन ,जन्म-तिथि—०३.०२.१९५६ ,जन्म-स्थान –मुजफ्फरपुर,बिहार ,कार्य-स्थल—जमशेदपुर,झारखंड ,वर्तमान पदास्थापना–झारसुगुडा ,ओडिशा (औधौगिक सुरक्षा अधिकारी)।
अभिरुचि—साहित्य साधना (कविता एवं कहानी ), समाज सेवा, सत्य में सहभागिता ।
जुड़ाव— जनवादी लेखक संघ ,सिंहभूम ,झारखण्ड एवं अन्य स्थानीय साहित्यिक एवं सामाजिक संस्था।
आत्मकथ्य---आम जीवन की विवशताओं से उत्पन्न छटपटाहट जब मेरे मन को झकझोरता है तब उनके कारकों को तलाश कर उन पर हल्ला बोलने के लिए मेरी कविताएँ जन्म लेती है ताकि जन-जीवन में सकारात्मक उल्लास का वातावरण बन सके।मेरी कविताएँ प्रश्न करती है ,हल्ला बोलती है ,समाधान देती है एवं आईना दिखाती हुई पथ-प्रदर्शन करती है।इंसानियत का बिखरना ,नैतिकता का पतन होना ,सम्वेदनाओं का मरना मुझे ग्राह्य नहीं है।छल और प्रपंच को छिपाए सत्य का चोला पहने लोग मुझे अच्छे नहीं लगते।
ये लोग
सुबह से रात तक /भाग-दौड़ /छीना-झपटी
समस्याओं की दीवार तले
कूटनीति के जाल बुनते ये लोग।
सहमे हुए /हाथ जोड़े /नत-मस्तक
पसीना से तरबतर
किन्तु खड़े दाव ताकते ये लोग।
रक्तचाप /मधुमेह /भयावह एड्स
टीबी और कैंसर
पीलिया को पाले जाते ये लोग।
सिसकते सपनों की /दमित इच्छाएं
विकृतियों के तानों से /उभरते दर्दों के ढेर
बिषैले धुओं के गुब्बारे हैं ये लोग।
मरी हुई चेतना पर /झूठे मुखौटे लगा
गलत जोड़ के सहारे / एड़ी उठाकर
अपने बौनेपन को छिपाते ये लोग।
अवसाद के धरातल पर
अट्टहासों के पैरों तले/ जीवन-सत्य को कुचल
त्रासदी को त्रस्त किए जाते ये लोग।
भोग रहा फल /इनके कुकृत्यों का
चिर्नौवी और भोपाल /बारूदी खिलौनों के सौगात
कर्णधारों के हाथ बाँटते ये लोग।
“जागते रहो” की /दुर्बल आवाज
सिसकते संघर्षों से /जीवन मूल्यों का स्खलन
भीतर से टूटकर बिखरते ये लोग।
गिरगिटी संस्कृति से बने /विकलांग परम्पराओं के
नकल के पागलपन का सौदा /धर्म की पीठ पर
भ्रम का हौदा सजाते ये लोग।
कोलाहल भरी शामों में /स्मैक के धुओं से उठी
निराशाओं के दीवार पार /कपट के चिराग जला
दैहिक प्यार के तपन में जलते ये लोग।
प्यार में थकान लिए /केंचुल में मदमाता अहं नाग
शीर्षकहीन समीक्षाओं की /तमाशबीन भीड़ पर
वादों का खोल चढ़ाते ये लोग।
मैं कलाकार
मैं सनतराश/काँट-छाँट कर /कोमल-कठोर शब्दों को
गढता हूँ प्रतीक-मूर्ति /जिसकी ज्योति /मानव–मन के चौराहों पर
कोई प्रकाश-पुंज /कोई शान्ति-श्रृंग /कोई क्रान्ति-दूत /कोई झंझा-प्रबल /कोई गीत-अमर।
मैं नाई /विश्व निकेतन का /दर्पण में मेरे /सूरज की लाली
वसुधा का पीलापन /भूखे,नंगे ,व्याकुल /जीवन का दर्शन /सारा।
सत्य को पूर्ण नग्न कर /जनपथ पर ला देना /पहुँचना संदेश
सागर से अम्बर तक /काम प्यारा।
नग्न-सत्य को /सह लेने की शक्ति/दुनिया को /पूजित प्रतिमाओं ने दी है
प्रतिमाओं को रूप दिया है मैंने /पर्वत–सा उन्नत भाल किया है
झाड़ियों को छाँट कर /मुस्कुराता बाग बनाया है
चलो दिखाऊँ तुझे वे सुने खेत /जहाँ पर मैंने /मखमली घास उगाया है।
मैं बनमाली /सहता रवि ताप /घन गर्जन पर /गाता मल्हार /दे-दे ताली /मैं बनमाली।
मैं गीतकार /अपने लहू को /जला जलाकर /प्रसव-वेदना –सा सहता
मन के घूरों में /डाल समिधाएँ /जग की ह्र्स्व-दीर्घ चिंताओं का
भावों की चिंगारी /सुलगाता हूँ।
और फिर किसी /सोनार की तरह फूंक-फूंक /गढता हूँ ---
मन भावन /पावन /गूँथन गीतों का
तेरे प्रिय के लिए /पूज्य के लिए /दुलारों के लिए।
मैं सब कुछ /पर न अपने लिए/ बस तेरे लिए
ओ घाटी के पुष्प !तू उठ ऊँचे-ऊँचे /मैं तेरे पीछे-पीछे
सारे जग की खुशबू लेकर आता हूँ।
चलो असीम की ओर /मैं एक गीत सुनाता हूँ।
हम और वैताल
हमारी जीवन गाथा
किसी सम्पादक की चिट्ठी
से कम नहीं है
जिसमें परत-दर-परत
सवालों का सिलसिला होता है
वर्तमान का गीला होता है।
हम अपने आप में विराट हैं
दुखों के सम्राट हैं
हम उडीसा की तूफानी रात में पैदा हुए थे
अभी चलना ही सीख रहे थे
कि गुजरात के दंगों ने हमारे पैर काट डाले
हमारी आत्मा तो है हीं नहीं
प्रजातंत्र की राजतंत्रीय व्यवस्था ने
उसे लहुलुहान कर दिया है।
तब से हम बूढ़े बरगद पर
वैताल के साथ रहते हैं
हम उसके कृत दास हैं
एक ज़िंदा लाश हैं।
जब कभी किसी को
पुण्य-फल पाने का शौक जगता है
अपने पितरों को स्वर्ग दिलाने का मन करता है
हम बरगद से नीचे उतर जाते हैं
अपनों से पूछे जाते हैं
तब हम मनुष्य का ही अंश कहलाते हैं
थोड़े समय के लिए ही सही
सम्वेदनाओं के आसपास होते हैं
महसूस करते हैं अपने अंदर बल
और नियति को अँगूठा दिखा रहे होते हैं ।
“इदं प्रेताय नम:” कहता है हमारा वंश
निकालता है हमारा अंश ,तभी वैताल
बरगद के चारों ओर नाचने का
कर देता है हमें इशारा
और हड़प लेता है सारा का सारा ;
वैताल करता है हमसे बहुत सारा वादा
और भूल जाता है।
आशा की डोर पकड़े हर बार हमारा मन
बरगद की डाली से झूल जाता है
अपनी असलियत को भूल जाता है।
मेरे विश्वास
मैंने माना
कि तुझे अपनों से बहुत प्यार है
कि तुम सवालों में नहीं चाहते उलझना
तुझे डर है कि /सवालों के जाल में फंसने पर
होगा बुद्ध बनना।
तो फिर /कौन होगा खड़ा / लेकर सवालों का यह झंडा
उन सुलगते सवालों के लिए/ कौन खोजेगा बोलते जबाब ?
देख तो रहे हो /हल खोजने के बहाने
नीम-हकीमों ने कैसी कर दी है
दुर्गत /सवालों की ,जबाबों की
कैसी सड़न-सी हो रही है खुलेआम
कैसी अकुलाहट –सी छा रही है तमाम।
जुनूनी खंजर से /समस्याओं के फफोलों को
मत फोड़ने दो उसे
सुरम्य घाटियों में /सफेद वर्फ पर लाल छींटे
मत डालने दो उसे
तोपों की तड़तड़ाहट से /खुशियों की दिवाली
मत मनाने दो उसे।
माँ की लुट रही ममता पर एक सवाल खड़ा करो
बच्चों की असह्य भूख पर एक सवाल खड़ा करो
देश की खण्ड होती अखंडता पर एक सवाल खड़ा करो
भ्रष्ट व्यवस्था पर एक सवाल खड़ा करो
कालेधन और घोटालों पर एक सवाल खड़ा करो
सवालों के बीच से निकलने वाले
हर काले जबाबों पर एक सवाल खड़ा करो।
बरसात की काली रात में
कोई भोंक दे खंजर /तुम्हारे प्रिय के गात में
भेज दे तुझे ,तेरे पुत्रों का सर सौगात में
तब क्या तुम चुप रहोगे ?
तब क्या तुम परचम नहीं बन जाओगे ?
नहीं खोजना चाहोगे /किसी भगत सिंह और आज़ाद को
खुदीराम और सुभाष को ?
आधी रात में रोटी के लिए भटकती
किसी मासूम को देखकर
क्या तुम भी/ दरिंदे बन जाओगे ?
क्या चाहोगे तुम भी /चीखों और कराहों का
प्रत्यक्षदर्शी गवाह मात्र बनना ?
नहीं ,मेरे विश्वास ,नहीं /तुम ऐसा कभी मत करना।
यह सत्य है /नहीं बन सकता है हर शख्स
गौतम बुद्ध
सवालों से भी दरकिनार
नहीं हो सकता है कोई खुद ;
सवाल जाता है /हर दरवाजे /एक बार
यह सत्य है /वह नहीं कर सकता है /इन्तजार।
भटको/ तुम भी सवालों के साथ –साथ
किसी फुटपाथी भुक्खड़ की तरह ;
किन्तु /तुम्हारे सवाल /युग चेतना के हों
निर्दोषों के कंठ से निकल रही /वेदना के हों
संस्कृति की ढह रही दीवारों के हों
पाखंडियों के हाथों बजाए जा रहे /घडियालों के हों।
खबर जो आम हो रही है /उसे तुम उदास कर दो
हर गूँगे सवालों को /चौराहों के आसपास कर दो।
सवालों को गूँगे और अंधे होते देखकर
तुम खुस मत होना
देश को जाति और धर्म में टूटते देखकर
तुम एकता को आवाज देना
सवालों के जाल में फंसकर /तुम मत घबराना।
मैंने माना / तुम सवालों में
नहीं चाहते हो उलझना
फिर भी ,मेरे विश्वास
तुम ऐसा कभी मत करना /ऐसा कभी मत करना।
और मैं मर रहा हूँ
मेरे दोस्त ! मुझे यह क्या हो गया है ?
मैं क्यों चाहने लगा हूँ
अपने ही कमरे में बंद रहना।
पुरानी यादों में खोए रहना
मुझे इतना क्यों भाने लगा है ?
क्यों बार-बार सिहरने लगा है /मेरा रोम-रोम
याद कर पसलियों की हड्डियों का टूटना
दर्द से छटपटाना ;
मेरा साहस ,मेरी निष्ठा,मेरा प्यार
क्यों छोड़ रहे हैं मेरा साथ ;
यातना के अंतिम क्षण में भी /अन्याय के पक्ष में
मैंने सौदेबाजी नहीं की थी
आततायियों के समक्ष /मैंने घुटने नहीं टेके थे।
कभी तो खुले आकाश में
सैर करना मुझे बहुत अच्छा लगता था
किन्तु अब -----
यह कमरा मुझे काटने नहीं दौडता है
इसकी दीवारों पर उगाए गए /गोली के निशान
मेरी पत्नी के खून के छींटे /बहन की दस्तकारी
मृत पिता की लटकती छड़ी /माँ की खांसी
दवाइयों की महकती याद
अब वेचैन करते –से नहीं लगते।
तुलसी-चौरा पर दीप नहीं जलता है
कड़ाहियों में पुरियाँ नहीं छनती है अब
दरवाजे पर पड़ने वाला दस्तक /मुझे नहीं चौंकाता है अब
सवाल फन नहीं काढ़ते हैं /मेरे अंदर
दीवाल पर पुता रंग /उड़ता चला जा रहा है
मेरे संकल्प की तरह।
ढहते सपनों की तरह /छत की ढहती दीवार को
एकटक निहारने के सिवा /मैं और कर भी क्या सकता हूँ
अब।
किन्तु
नहीं अच्छा लगता है यह सब /मेरे छोटे बेटा को
वह सवालों में जीना चाहता है
उसकी अंगुलियाँ तनने लगती है /उस छत की ओर।
वह उन लाल ईंटों को खरोंचता है /सूँघता है,गुर्राता है
समुन्दर के घुटने भर पानी में /दौड़ लगाता है वह
उगते सूरज की ओर जाना चाहता है /उसके पास तक
समुन्दर के लौट आने से पहले /वह छू लेना चाहता है सूरज को।
वह नहीं चाहता है /कमरे में कैद रहना /मेरी तरह ;
शायद /वह जीना चाह रहा है /और मैं मर रहा हूँ।
उनकी जरूरतें
निकलना चाहते हो /उन्हें देखकर तुम भी
सैर सपाटे के लिए /तो निकलो
किन्तु ,उससे पहले /अपनी पीठ से सटी पेट में
फल और मेवे न सही
सुखी बासी रोटियाँ ही भर लो।
न हीं दे रहा हूँ मैं/ तुझे उपदेश / न हीं नसीहत
जानता हूँ मैं
भूखे पेट न तो तुम कर सकते हो
सैर और न कसरत।
मैं यह भी जानता हूँ
तुम सैर –सपाटे के लिए/नहीं जन्मे हो
क्योंकि
वहाँ भी तुझे देखकर /उनकी जरूरतें जग जाएँगी।
मैंने देखा है उसे
जाते अपनी अबोध बच्ची /और सुकुमार बीबी के साथ
सैर के लिए ;
और जब बीच धार में /बंद हो जाएगा उसका मोटर-वोट
देखना तुम किनारे से /उसे रोना भी आता है
झांकना तुम उसकी आँखों में
दर्द ,छटपटाहट,भय ,सबकुछ मिलेगा /तुम्हारे लिए प्यार भी
और तब वह तुम्हें /लगने लगेगा अपना ;
तुम दौड़ना चाहोगे उसके लिए /भूल जाओगे सैर करना।
मैं नहीं रोकूँगा /तुम्हें /जाना भी चाहिए
मैं नहीं चाहूँगा कभी /तुम्हें अमानुष बने देखना।
ले आना खींच कर उसका मोटर-वोट
उसकी बच्ची और उसकी बीबी को
उसकी दरिंदगी शायद पिघल जाए /वर्फ –सी
या बिखर जाए रेत –सी ;
जब ऐसा होगा
वह तुम्हें गालियों की जगह / रोटियाँ देना चाहेगा
तुम मत लेना ;
दिखा देना उसे अपने पेट में भरी रोटियाँ।
याद रखना
इंसानियत रोटी पर नहीं बिकती है
न हीं खरीदी जा सकती है।
तितली
तितली !
तुम कितनी सुंदर हो
सच ! तुम बहुत ही सुंदर हो
तुम्हारा यों डाल-डाल उड़ना
आना-जाना, कितना मनभावन है
तुम्हारे रंग-बिरंगे पंख
कितने लुभावन हैं।
सच ! तुम बहुत ही सुंदर हो।
तितली उड़ गई........।
तितली ! तुम मेरे पास आओ
मेरे ड्राईंग रूम में
तुम्हारा होना बहुत जरूरी है
तुम्हारे बिना मेरे ड्राईंग रूम
की सजावट अधूरी है
हम तुझे वहाँ सजाएँगे
मेरे साथ चलो।
तितली फिर उड़ गई ........|
तितली !
यहाँ जंगल में कौन जानेगा तुझे
कि तितलियाँ इतनी सुंदर होती है
कि तितलियाँ रंगों का समुन्दर होती है।
तुझे देखकर मेरे बच्चे बहुत खुस होंगें
शीशे के बंद बक्से में तुम सुन सकोगी
घड़ी की टिक-टिक
सूंघ सकोगी विदेशी अगर की खुशबू
आयातित इतरों की फूलदार महक
ड्राईंग रूम में और भी अच्छी लगोगी
शीशे के बक्से में और भी बड़ी दिखोगी
घबराओ मत ! आओ !
तितली दूर उड़ गई ...............|
तितली !
मेरी बात मान जाओ
मेरे पास आओ
हाँ ! हाँ ! आओ !
तितली आई ,पास आई
पास आकर उड़ गई.........।
अब मैं और नहीं सह सकता
मैं मसल डालूँगा सारे फूलों को
काट डालूँगा सारा जंगल
लगा दूंगा आग
तितली आ रही है
हाँ ! हाँ ! ढेर सारी तितलियाँ आ रही है।
अरे ! यह क्या ?
काट डाला ततैयों ने
दौड़ते आ रहे हैं जानवर
घेर रही हैं लताएं ,बाँध रही हैं मुझको
नहीं ,नहीं ,छोड़ दो मुझे
भागने दो मुझे ;
मैं तितलियों को नहीं पकडूँगा
फूलों को नहीं मसलूंगा
नहीं काटूँगा पेड़
नहीं जलाऊँगा जंगल
मुझे जाने दो
तितलियों को जंगल में हीं
फूलों पर मँडराने दो।
प्रभुपाद के नाम
------एक ----
तुम धन्य हो हमारे प्रभुपाद
तुम्हारी वुद्धि-विवेक के कायल हैं हम
तुम्हारे जूतों की नोंक पर रहने के लायक हैं हम ;
कैसे तुमने कटवा दी मुर्गे की गर्दन
और शहर में दंगा करवा दिया
एक ही झटके में पूरी इंसानियत को
नंगा करवा दिया;
खेत हर बार दुखुआ ने बोया
फसल तुमने कटवा लिया।
किस पाठशाला से सिखा तुमने
हर उबलते सवाल का सामयिक जबाब
काविले तारीफ़ है उड़ते पतंग-सा तुम्हारा फैलाव।
तेरे कद्दावर भीमकाय जिस्म पर
उछलती मछलियों का राज
हमारी कृशकाय काया में है –सुना था
क्या यह सच है प्रभुपाद ?
----दो---
छोटे शब्दों के लिए जगह नहीं रहने पर भी
तुम्हारा शब्द-कोष कितना धनी है ,प्रभुपाद !
तुम्हारे ही तरह ;
सच, ये भारी-भरकम शब्द
हम अनपढ़ गवाँर/उच्चारित भी नहीं कर सकते
किसी जनम में भी ;
हाँ ! सच है हम बोल भी नहीं सकते
भ्रष्टाचार ,अत्याचार ,व्यभिचार ,बहिष्कार ,बलात्कार
आतंकवाद ,उग्रवाद ,मुर्दावाद ,जिन्दावाद
और भी बहुत कुछ
इसीलिए तो इन शब्दों के दुरूह जाल में
हम फांस लिए जाते हैं
तुम्हारी ही मर्जी से हम साँस लेते हैं।
देखो न “घोटाला’’ कितना भारी /कितना वजनदार है
और शब्द “तहलका”क्या तुझे
पार्क में झूला झूलते बच्चों के खेल-सा
लगता है आसान ,हमारे प्रभुपाद ?
---तीन----
जब भी तुम्हारे सामने बैठा होता हूँ
लगता है मैं पालतू चौपाया हो गया हूँ
और न चाहते हुए भी
मेरी पूंछ लगातार हिल रही होती है।
मुझे बहुत अच्छा लगता है
मेरे ही बच्चों को अपनी तरह मिमियाते देखकर
तुम्हारे लाड़लों के सामने
हलाँकि मेरी पत्नी गुर्राती है
अपनी लम्बी नाख़ून दिखाकर मुझको डराती है।
मैं नहीं करता अब चाह /उड़ने की
जब से देखा /उड़ती तितली को पकडकर
निगल जाने के गिरगिटी अंदाज को ;
तुम्हारी गिरगिटी सभ्यता के कायल हैं हम
हमारे प्रभुपाद !
फीता काटते हाथ
पूंजीवादी व्यवस्था में
बंद एअरकंडीशन्ड कमरे में
बनती है योजनाएं
गुप्त रखी जाती है/ कुछ काल तक
फिर तय होता है /आपस में लेन –देन
राजनीति की भाषा में /पहनाया जाता है
जनहित का जामा।
फिर एक-दो आमसभाओं /के माध्यम से
उछाली जाती है गेंद हवा में
लपकने के लिए कुछ होते हैं
तैयार पहले से
और कुछ हाथ होते हीं हैं
केवल तालियाँ बजाने के लिए।
और उसी क्षण आपका ध्यान
आकृष्ट करता है विदूषक
सफेद कबूतर के / हाथों से
उड़ जाने का दृश्य दिखाकर
और सचमुच आपकी हाथ का
कबूतर उड़ गया होता है
सीमा पार करता हुआ /स्वीस बैंक तक।
आपकी ख्वाहिश दम तोड़ रही होती है
इतनी कि आप बोल भी नहीं सकते हैं –मुर्दावाद।
इसी क्रम में
हत्यारों के हाथों /उनके ही गले में
पहनाई जाती है /गुलाब की माला
जिस पर लगा होता है
उनकी ही हत्या का इल्जाम;
लोग पंक्ति बदल कर आ जाते हैं
इस पार /बदल लेते है अपने विचार
भोज के आयोजन के बाद।
फिर वह हाथ काट रहा होता है
शहर में घूम-घूम कर फीता
क्योंकि सब जान गए होते हैं
काटने में इसी हाथ को महारत हासिल है
इसके जैसा निपुण कोई नहीं है
यह जो कर दे सब सही है।
मैं सरगना हूँ
देखो अजनबी !
मैं यहाँ का सरगना हूँ।
लोग छनी पुरियां खाएँ
या भूखे पेट सो जाएँ
बच्चे स्कूल जाएँ या न जाएँ
तुम उन्हें आदमी समझो या जानवर
मुझे इससे मतलब नहीं।
तुम उदारवादी नीतियों का चोला
पहनकर आओ /अपना व्यापार फैलाओ
मेरे घर आओ ,अपने घर बुलाओ
यह अच्छा है,लोकतांत्रिक है
यहाँ दल का दलदल है /यही हमारा बल है
यह आजाद भारत है
मैं यहाँ का सरगना हूँ ।
किन्तु अजनबी !
तुम एक बात का ख्याल रखना
मुझे मेरा झंडा बहुत पसंद है
मैं चाहूँगा तुम मेरे झंडे के नीचे रहो;
मुझे मेरा ईमान बड़ा प्यारा है
इंसान से भी ज्यादा
उसके विरोध में कुछ भी मत कहना
तब भी नहीं /जब वह भ्रष्ट हो रहा हो
सही या गलत को भूल रहा हो
महँगाई के साथ फल-फूल रहा हो
या कि देश को ही लूट रहा हो।
मैं नहीं चाहूँगा कि तुम्हारी किसी गलती से
खुल जाए हमारी पोल
और गूंगे लोगों के फूट पड़े बोल
आखिर मैं यहाँ का सरगना हूँ।
संवाद
सुना तुमने ?
सम्वेदनाएँ मर गई है
सम्वेदनाओं का मरना अच्छा नहीं है
इंसानियत मिट रही है
हैवानियत जड पकड़ रही है।
देखो !
किस तरह लड़ रहे हैं भाई-भाई
मिट गई है दुनिया से अच्छाई।
उस तरफ बिक रहा है न्याय
इस तरफ अस्मिता मृतप्राय
नीचे खून और बलात्कार के निशान
उपर धर्म के नाम पर ढोंग का अजान।
सोचो !
आतंकवाद का घर हमारे घर के बीच
बारूद का भंडार हमारे शहर के बीचों-बीच
उदास बच्चों का झुण्ड मूक और भयभीत
अपहरण का बाजार ,हत्या का खुला व्यापार।
बोलो !
ऐसे में क्या हम बैठे रहे
जलाए अपना तन और मन / या सोचे कोई उपचार
कहाँ जाएँ लेकर इन समस्याओं का भंडार ?
चल !
किसी कवि का घर ढूंढे
उससे लें शब्द उधार /और बच्चों की जुबान में घोलें
शहद –सी मीठी जुबान से जब वे
गाएंगे गीत ,कहेंगे कविताएँ और गजल
जी उठेगी सम्वेदनाएँ,उमडेंगे खुसियों के बादल
खिल उठेंगे सद्भाव के पुष्प ,प्यार की कलियाँ
सैंकड़ों ख्वावों से सज जाएंगी गलियाँ।
जरूरी है जोड़ना –
हर सकारात्मक संवाद को
मिटाना हर विवाद को
जरूरी है बचाना –
जीवन की आन को ,वतन के मान को
सच के सम्मान को, इंसान की पहचान को ।
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