(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
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दिलसोज़ कहानियां - कैसर तमकीन
पुस्तक समीक्षाः ईटों का जंगल (कहानी संग्रह - उर्दू), मूल लेखक (हिन्दी) : तेजेन्द्र शर्मा, पृष्ठ संख्या :मूल्यः £7.00 (रुः200/- भारत में), प्रकाशक - एशियन कम्यूनिटि आर्ट्स, लंदन। |
तेजेन्द्र शर्मा (उर्दू) कहानी की दुनियां में बहुत पुराने नहीं हैं, फिर भी वह इस मैदान में बहुत जल्दी, बहुत आगे निकल आए हैं। वह कहानी इस तरह कहते हैं कि सुनने वाला इनकी बातों में खो जाता है। कहानी ख़तम होने के बाद ही अचानक अहसास होता है कि यह कहानीकार तो बातों ही बातों में बहुत कुछ सोचने और ग़ौर करने के लिए छोड़ गया है। ईटों का जंगल की हर कहानी हमारी आपकी सोच को पकड़ लेती है।
समाज के बदन पर जो घाव हैं वह हमें मालूम हैं, जो बुराइयां हमारे आसपास हैं उन्हें हम जानते हैं। राजनीतिक नेता हमारा ध्यान इस ओर दिलाते हैं, धार्मिक सोच विचार के प्रचारक भी यही सब बताते हैं। यह सब बखान करने वालों के ढंग से ही हमें मालूम हो जाता है कि यह सब ज़बानी बातें हैं। पर जब तेजेन्द्र शर्मा एक कहानीकार की हैसियत से इस दुनियां के ऊंच नीच और छल कपट की बात करते हैं तो हम एक कान से सुनकर दूसरे कान से उड़ा देने का तरीका नहीं अपना पाते, बल्कि शर्मा साहिब की बातों पर कुछ सोचने पर मजबूर हो जाते हैं। एक नेता, एक धार्मिक प्रचारक और एक सच्चे हुनरमंद का फ़र्क अगर देखना हो तो आज का अख़बार एक तरफ़ रख कर तेजेन्द्र शर्मा की कोई कहानी पढ़ कर देख लीजिये।
शर्मा साहिब की कहानियों का मजमुआ (संकलन) ‘ईटों का जंगल' इस तार्रुफ़ के साथ हमारे हाथ में आता है कि यह हिंदी से उर्दू में तरजुमा (अनुवाद) है। बात ज़रा चौंका देने वाली लगती है क्योंकि हिन्दी से उर्दू या उर्दू से हिंदी तरजुमें के कोई ख़ास मायने नहीं हैं. यह तो सिर्फ़ रसमुल ख़त (लिपि) बदलने की बात होती है। दूसरी बात यह भी है कि तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों को तो हिंदी या उर्दू की कहानी कह पाना मुश्किल है। वह इतनी आसान ज़बान लिखते हैं कि हिंदी और उर्दू पढ़ने वाले सभी लोग आसानी से समझ जाते हैं। प्रेमचन्द की तरह शर्मा साहिब की कहानियां भी उस ज़बान में हैं जो उत्तरी हिन्दुस्तान में एक कोने से दूसरे कोने तक बोली और समझी जाती है। थोड़े बहुत फ़र्क के साथ यह उन तमाम जगहों पर आम बोली की तरह इस्तेमाल होती है जहां एशियाई लोग रहते हैं, सहते हैं। इस किताब में शर्मा साहिब की कहानियों को तरजुमा कहना अच्छा नहीं लगता। यहां तो सिर्फ़ लिपि बदली गई है। कहानी की देवी एक ही है। पहले यह सिर्फ़ साड़ी पहने हुए थी और अब यह शलवार कमीज़ पहन कर आई है - पर शलवार कमीज़ भी तो पूरे भारत का लिबास है। लिपि या रसमुलख़त बदलने की बात करने कायह मतलब नहीं है कि किसी तरह किताब के रूप की आलोचना या तनक़ीद की जा रही है। यह सिर्फ़ एक सच्चाई का बयान है। तो यह बात तो सोलहवीं सदी के लेखकों की तरह सिर्फ़ रंग मंच की चर्चा है।
अब आइए कहानियों के किरदारों, हादसों, उनके सुःख दुःख या माहौल की तरफ़। यहां हम शर्मा जी की नज़र पर हैरान होते हैं, कैसी मामूली मामूली बातों को बिल्कुल आसान जुमलों और मुकालमों के ज़रिए यह कहानी बना कर पेश करते हैं। अंग्रेंज़ी में अठ्ठारवीं सदी के आख़िर में लिरिकल बैलेड्स और उर्दू में उन्नीसवीं सदी में ग़ालिब के ख़तों ने जो काम किया था, इसकी परछाईं शर्मा साहब के तरज़-ए-इज़हार में मिलती है। जिस तरह वर्ड्सवर्थ की नज़मों और ग़ालिब के ख़त पढ़ कर हमें डिक्शनरी देखने की ज़रूरत नहीं पड़ती, इसी तरह शर्मा साहब भी मुश्किल ज़बान से परहेज़ करते हैं। अहमियत और कमाल यह है कि इस सहल पसन्दी की बाद भी जज़बे की गहराई, इज़हार की शिद्दत और कहानी है। कहानी में पढ़ने वाले की चेतना को झिंझोड़ कर रख देने की ख़ूबी में किसी तरह की कमी नहीं आती है।
एक अदीब का कहना है बात अगर कहनी आती हो तो बात कभी बिगड़ती नहीं है। लेखक और समाजवादी चेतना रखने वाला इन मानों में ढंग से अपनी बात कहने और समझाने वाला होता है। तेजेन्द्र शर्मा को भी बात कहनी आती है। जहां कहीं इनके क़लम में तेज़ी या तलख़ी का शुब्हा होता है वह बात को ऐसा आसान और मन-पसंद मोड़ देते हैं कि सांप भी मर जाता है और लाठी भी नहीं टूटती। मैं ख़ुद भी कहानी लिखता हूं मगर मेरी ज़बान कभी कभी मुश्किल हो जाती है। इसीलिए मुझे पूरा अहसास है कि आसान ज़बान लिखना कितना मुश्कल काम है। इस नाते मैं शर्मा साहब की क़दर करता हूं।
‘ईटों का जंगल' के शुरू में बाज़ कहानियों का अच्छा वजज़िया किया गया है। शर्मा साब के फ़न का तार्रुफ़ (परिचय) भी भरपूर है। इन दोनों से आप पढ़ने वाले को शर्मा साब से अच्छी जान पहचान हो जाती है और इनके फ़न की तरफ़ बड़े अच्छे इशारे मिलते हैं। पढ़ने वाले अगर इन शुरू के सफ़हात (पृष्टों) को पढ़ कर कहानियों के बारे में सोचते और कोई नतीजा निकालने पर मजबूर होते हैं तो मानना पड़ता है कि तेजेन्द्र शर्मा एक बड़े अच्छे कहानीकार तरह हमारे सामने आते हैं।
इस मजमुए (संकलन) में मुझे काला समुन्दर, कैन्सर और मुझे मार डाल बेटा नामी कहानियां बड़ी दिलसोज़ लगीं। इनके अलावा दूसरी कहानियों में भी - जिनकी तादाद 13 है - बहुत से जुमले बहुत भरपूर और असर-अंगेज़ हैं। सिर्फ़ इन बेसाख़्ता जुमलों पर ही एक अच्छा ख़ासा मज़मून लिखा जा सकता है। पर वह आम जनता के लिये नहीं, आम क़ारी (पाठक) के लिए नहीं सिर्फ़ युनिवर्सिटियों के नाक़िदों और साहित्यकारों के लिये होगा। हमें तो वास्ता सिर्फ़ बाज़ारों , गांव के हाट और जगह जगह मेलों ढेलों से है जहां सचमुच के जीते जागते लोग अपने अपने मसलों और उलझनों में मसरूफ़ रहते हैं - और फिर सच पूछिये तो कहानी लिखी ही इन लोगों के लिये जाती है।
शर्मा साहब की कहानियां ग़ौर से पढ़ने वाला इनके आर्ट, इनकी कला, इनकी चेतना और मन-मोहिनी शब्दावली से ज़ुरूर मुतास्सिर होगा। इस किताब से तो उम्मीद होती है कि जल्द ही तेजेन्द्र शर्मा भी प्रेमचन्द के फ़िरके में शामिल होने का हक़ हासिल कर लेंगे। मेरी दिली दुआ है कि शर्मा साहब आगे बढ़ते रहें - और यह भी आरज़ू है कि इनका अदब, कहानी की दुनियां में अच्छी तरह इस्तेक़बाल किया जाए।
क़ैसर तमकीन
बरमिंघम
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साभार-
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